Friday, February 17, 2012

यह 'ठाकरे बनाम ठाकरे' है


मुंबई से नमिता जोशी
जिस तरह गाँव के दंगल से राष्ट्र की राजनीति नहीं नापी जा सकती उसी तरह मुंबई समेत महाराष्ट्र के नतीजों से देश के विभिन्न राज्यों में हो रहे चुनाव का आकलन करना ठीक नहीं होगा । इन्हें 'स्थानीय' निकाय कहा जाता है इसलिए इसे 'स्थानीय ' ही रहने दिया जाए तो ज्यादा बेहतर है। यहाँ जिस तरह मराठी मानुष ,मराठी अस्मिता और ठाकरे परिवार के नाम की राजनीति होती है वैसी राजनीति उत्तर भारत के किसी राज्य में संभव भी नहीं है ।हालाँकि यह सिर्फ एक दो गुट और उनके समर्थकों तक ज्यादा सीमित रहती है । इन गुटों की तरह न तो पंजाब के लोग इस तरह पंजाबी के लिए लड़ते मरते है (एक दौर छोड़कर वह भी एक खास गुट का खेल रहा ) और न ही उतरांचल में गढ़वाली और कुमाउनी के लिए कोई किसी का सर फोड़ता है । यहाँ पिछले कुछ सालों से एक युद्ध चल रहा है जो सुर्ख़ियों में तब आता है जब उत्तर भारतीय प्रान्तों के लोग पीटे जाते है । मुंबई पर बाल ठाकरे के वर्चस्व को जिन राज ठाकरे ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर चुनौती दी थी वह परिवार की लड़ाई में हार गए है यह इस चुनाव का सबसे बड़ा सन्देश है पर दादर के गढ़ पर राज ठाकरे का झंडा लहरा चुका है यह दूसरा सच भी है । ऊतर भारत के लोगों ने इन चुनाव में ठाकरे परिवार में से बाल ठाकरे को चुना क्योकि राज ठाकरे की सेना की तरह उन्होंने 'भैय्या 'लोगों लानत मलानत नहीं की थी ।ऐसे में एक ठाकरे के आतंक से अगर दूसरा ठाकरे बचा ले तो उसे चुनना बेहतर है । दूसरा मराठी भाषी लोगों ने भी राज ठाकरे की जहर घोलने वाली राजनीति का साथ नहीं दिया यह भी साफ़ है ।
बाल ठाकरे का मुंबई की राजनीती पर बहुत समय से दबदबा रहा है जिसे उनके ही परिवार के राज ठाकरे ने चुनौती दी थी । बाल ठाकरे जिस कट्टरता की राजनीति करते रहे उससे आगे निकलने के लिए राज ठाकरे ने मुंबई में मराठी बनाम गैर मराठी का जो जहर घोला था वह ज्यादा नहीं फैला वर्ना हालात कुछ और होते । मुंबई में ऑटो वालों से लेकर खोमचे वालों की जिस तरह पिटाई हुई वह हिदुत्व की दुकान चलने वालों के लिए जरुर शोध का विषय हो सकता है पर मुंबई में लोग इसे परिवार के वर्चस्व की लड़ाई से ही जोड़कर देखते रहे । और उन्ही राज ठाकरे को इन चुनाव में आक्सीजन देने वाले पंवार की एनसीपी ने कांग्रेस का भठ्ठा बिठा दिया ।
एनसीपी के इस खेल में कांग्रेस तो डूबी ही खुद एनसीपी और किंगमेकर राज ठाकरे भी निपटे पर नासिक और पुणे को बचा ले गए । अब फिर अस्सी पार का शेर चिन्ह वाला वह बूढ़ा दहाड़ रहा है जिसपर अन्ना हजार तंज कस रहे थे । इस पुरी कहानी में किसी ने कितना मतदान हुआ और किन लोगों ने मतदान किया इस पार नजर नहीं डाली । यहाँ ४०-४५ फीसद मतदान में यह जनादेश आ गया है जिसपर बौद्धिक चल रहा है । यानी साठ फीसद आबादी इस मतदान से बाहर रही । इस मतदान से बाहर हुए ज्यादातर लोग कोई मराठी नहीं बल्कि दूसरे प्रांतों के लोग थे जिन्हें मतदाता बनने का मौका भी नहीं मिला । एकनामिक टाइम्स के पत्रकार जब भिड कर मतदाता बंनने का प्रयास कर रहे तो एक अफसर ने पूछा -कहा रहता है ,उन्होंने एपार्टमेंट का नाम बताया तो पूछा गया ,भाड़े पर रहता है जवाब में हा सुनते ही वह अफसर भड़का और बोला -भाड़े पर आज यहाँ कल वहां ऐसे वोटर कैसे बन जाएगा।यह एक उदाहरण है ।और जो पुराने मतदाता थे वे निकले भी नहीं ।
अब राजनीति पर भी नज़र डाल लें ।शिव सेना ने यहाँ के अख़बारों में पहले पेज पर जो विज्ञापन दिया उसमे मुंबई के करीब डेढ़ लाख करोड़ रूपए टैक्स का मुद्दा उठाया जो यहाँ से केंद्र को जाता है और इसे मुंबई को देने की जायज मांग भी की । यह लोगों को अपील भी करने वाला था । इसका फायदा भी मिला होगा । पर रोचक यह है कि जिन बड़े कारपोरेट घरानों की इस टैक्स में बड़ी हिस्सेदारी है मसलन अम्बानी आदि उनके मुंबई में कारपोरेट दफ्तर है और कल कारखानों का बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों में है जिनमे उत्तर भारत के राज्य भी शामिल है ।ऐसे में कमाने वाले राज्य उत्तर भारतीय है और कारपोरेट दफ्तर मुंबई से चलाने की वजह से उनकी आमदनी का टैक्स सिर्फ मुंबई को मिले यह सवाल कहा तक जायज है । पर बाल ठाकरे अपना सन्देश पहुँचाने में सफल रहे और मुंबई पर अपना दबदबा फिर दिखा दिया । ये वही ठाकरे है जिन्होंने ताल ठोक कर अन्ना महाराज को चुनौती भी दी थी और उनकी मुंबई से ही अन्ना आन्दोलन की हवा भी निकली । इसलिए इन चुनाव के नतीजों से ज्यादा ग़लतफ़हमी नहीं पालनी चाहिए ।जनादेश से

No comments:

Post a Comment