Sunday, May 27, 2012

आलोक तोमर की स्मृति में पत्रकारिता की भाषा पर चर्चा

प्रयाग पांडेय
नैनीताल, २७ मई । मौजूदा दौर में जितनी ज़रूरत पत्रकारों के प्रति अपना नजरिया बदलने की है उतनी ही ज़रूरत मीडिया की भाषा में सकारात्मक बदलावों की भी है।यह बात आज यहाँ मीडिया की भाषा पर केन्द्रित एक परिचर्चा में उभर कर आई । यह परिचर्चा उमागढ़ स्थित महादेवी सृजन पीठ में हुई जिसमे देश के विभिन्न हिस्सों से आए पत्रकारों और बुद्धजीवियों ने हिस्सा लिया । वक्ताओं ने परिचर्चा मीडिया की मौजूदा भाषा को लेकर एक प्रयोग की आवश्यकता पर जोर दिया गया। अस्सी के दशक में पत्रकारिता की भाषा बदलने में प्रभाष जोशी और जनसत्ता के योगदान को जहाँ महत्वपूर्ण बताया गया वही फिर नए प्रयोग की जरुरत भी महसूस की गई । छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी ने परिचर्चा का संचालन करते हुए मीडिया की भाषा को लेकर एक विमर्श की ज़रूरत बताई। सोनी ने कहा- ‘मौजूदा दौर में जितनी ज़रूरत पत्रकारों के प्रति अपना नजरिया बदलने की है उतनी ही ज़रूरत मीडिया की भाषा में सकारात्मक बदलावों की भी है। भाषा को लोक-संस्कारों से सींचने और भाषा को लेकर टकराव मोल लेने की ज़रूरत है। मुंबई से आए सीएनबीसी आवाज़ के एक्जीक्यूटिव एडिटर आलोक जोशी ने कहा-भाषा का सबसे पहला और संभवतः आखिरी उद्देश्य भी सम्प्रेषण का ही होता है। कोई भी भाषा अगर सम्प्रेषण नहीं कर पा रही तो वो भाषा है। मौजूदा दौर में जब की मीडिया लगातार विशालकाय हो रहा है, ये मुश्किल है की एक-एक व्यक्ति को भाषा और ज्ञान के स्तर पर जांचा जा सके इसलिए पत्रकारों और संपादकों को काम के समय ही भाषाई स्तर पर सुधार करने की ज़रूरत है। परिचर्चा में वरिष्ठ पत्रकारों ने नयी पीढ़ी से निराशा और उम्मीदों पर भी अपना पक्ष रखा। न्यूज़ ट्वेंटी फोर के प्रबंध संपादक अजीत अंजुम ने भाषा को पठनीय बनाने की ज़रूरत पर जोर दिया। अंजुम ने कहा- ‘मीडिया की भाषा को लेकर फिर से विचार किये जाने की ज़रूरत है. क्यूंकि आज के दौर में जब अखबारों के कई संस्करण निकल रहे हैं एक रिपोर्टर के लिए भाषा के स्तर पर पहचान बना पाना मुश्किल हो गया है।‘ उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश मंस्येरा ने टीवी की भाषा को लेकर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा- टीवी की भाषा को लेकर नए लोगों को जिस तरह कि ट्रेनिंग ज़रूरत है वो उन्हें नहीं मिल रही है। पत्रकार मयंक सक्सेना ने भाषा की आज़ादी की वकालत की। मयंक ने कहा- मीडिया की भाषा को स्वतंत्र होना चाहिए। उसमें एक रिपोर्टर के पास प्रयोग की आज़ादी होनी चाहिए । महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने इससे असहमति जताई। राय ने कहा- भाषा की आज़ादी के नाम पर हिंदी के मानक स्वरुप को खारिज नहीं किया जा सकता। हालाँकि पत्रकार तमाम दबावों के बीच काम करता है इसलिए उससे रचनात्मक लेखन कि उत्कृष्टता कि उम्मीद करना अन्याय होगा। उन्होंने पत्रकारिता की भाषा को लेकर नए सिरे से बहस शुरू करने पर जोर दिया ।पत्रकार गीताश्री ने भी मीडिया की मौजूदा भाषा को लेकर बदलाव की जरुरत पर जोर दिया । लखनऊ से आए पत्रकार हिमांशु बाजपेयी ने मीडिया कि भाषा में प्रयोगों पर जोर दिया। हिमांशु ने कहा- हर खबर को लिखते समय उस खबर के मिज़ाज को समझना ज़रुरी है। परिचर्चा में प्रभाष जोशी से लेकर आलोक तोमर के भाषाई योगदान पर भी चर्चा हुई। पत्रकारिता का भाषा को लेकर राष्ट्रीय बहस के लिए राज कुमार सोनी को एक व्यापक प्रस्ताव तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई ताकि इस दिशा में ठोस पहल हो सके ।jansatta

Thursday, May 24, 2012

देवदार के जंगलों में

अंबरीश कुमार यह
है ।यहाँ हवा की आवाज गूंजती है ।पहले बांज यानी ओक के घने जंगलों को पार कर आइवीआरआई परिसर में पोस्ट आफिस के पास पहुंचे तो आगे देवदार के जंगल थे । देवदार के घने दरख्तों के बीच आइवीआरआई का अतिथिगृह नजर आ रहा था तो दाहिने तरफ ब्रिटिश काल के कुछ पुराने घर ।चारो ओर सन्नाटा । यहाँ आकर डाकबंगले के पास सड़क खत्म हो जाती है क्योकि आगे जाने का कोई रास्ता नही है । साथ चल रहे निंटू को इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी उसे खिलौने कि एक दुकान कि तलाश थी जहाँ से वह एक नया वेब्लेट ले सके ।मौसम साफ़ था और पहले कुमायु मंडल विकास निगम के रेस्तरां में कुछ देर बैठे और आलोक ,नमिता और मैंने लेमन टी से अपने को तरोताजा किया ।आकाश और निंटू ने कुछ नहीं लिया । फिर सामने के डाक बंगले में गए जहाँ पहले भी कई बार रुकना हो चुका है । यह डाक बंगला १८७२ में बना था और यहाँ पहुँचने के लिए कोई सड़क भी नहीं थी । सड़क तो कुछ दशक पहले ही बनी है । डाक बंगले का कुछ हद तक कायाकल्प हो चुका है । ब्लू हेवन वाले सूट पूरी तरह नीले रंग में रंग हुआ था यहाँ तक कि चादर कम्बल और तकिए भी नीले रंग के थे । बीच का बरामदा भी बदला हुआ था । चौकीदार गोपाल सिंह खानसामा की भी जिम्मेदारी निभाता है । खाना का आर्डर पहले ही देना पड़ता है क्योकि शाम ढलते करीब एक किलोमीटर दूर कुछ दुकाने जिन्हें बाजार कह सकते है वह बंद हो जाती है । गोपाल सिंह ने यह भी बताया कि मुर्गा बनवाना हो तो और पहले बताना होगा । फार्म का मुर्गा दो सौ रुपए किलो मिलेगा और देशी पांच सौ रुपए । बनवाने का सौ रुपए अलग से । बाकी सामान्य खाना अस्सी रुपए हर एक के हिसाब से । यहाँ रुकने के लिए नैनीताल के कलेक्टर आफिस से बुकिंग करानी पड़ती है । डाक बंगले के सामने बड़ा बगीचा है जहा रात में एक तरफ अल्मोड़ा तो दूसरी तरफ रानीखेत के पहाड़ियों की रोशनी नजर आती है । बगीचे से लगे देवर के दरख़्त पहाड के नीचे दूर तक जाते दिखते है । शाम ढलते ही ठंढ बढ़ जाती है और सन्नाटा छा जाता है । नैनीताल से जो सैलानी आते है वे लौट जाते है और सामने पर्यटन विभाग में ठहरे सैलानी अपने कमरों में कैद हो जाते है । डाक बंगले के भीतर की ढकी हुई बालकनी बैठने के लिए बेहतर जगह है जहा से बाहर का सारा दृश्य दीखता है और ठंढी हवा से भी बचे रहते है । शाम के कार्यक्रम के लिहाज से यह बहुत अच्छी जगह है । दाहिने से एक पगडंडी जंगलो के बीच जाती दिखती है जो आगे चल कर एक पहाड़ी घर पर रुक जाती है । यह घर भी अब चार कमरों के होटल में बादल चुका है । जिस पगडंडी से यहाँ तक आए वह और संकरी होकर जंगल के बीच से चढती हुई पहाड पर चली जाती है । सर्दियों में यहाँ काफी बर्फ गिरती है इसलिए तब पुरे इंतजाम के साथ आना बेहतर होता होता है ,एक बार फंस चुका हूँ । पर सबसे बेहतर समय मानसून का होता है जब धुंध और बादलों के बीच यह डाक बंगला काफी रहस्मय सा नजर आता है । मानसून के समय सत्बुन्गा से मुक्तेश्वर तक सुर्ख सेब से लदे पेड़ों को देख कोई भी सम्मोहित हो सकता है । इसके अलावा जमकर बारिश होती है और आसमान साफ होते ही एक तरफ बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां सामने होती है तो दूसरी तरफ नहाए हुए बागान और जंगल । लगता है किसी चित्रकला के बीच खड़े हो । इससे पहले सत्बुंगा से गुजरे तो ड्राइवर ने पाइनियर अखबार के संपादक चन्दन मित्र का सड़क के किनारे बन रहा घर दिखाया जहा पाइनियर का बोर्ड भी लगा था । इस इलाके में बहुत से साहित्यकार और पत्रकार भी बस गए है । महादेवी वर्मा और रविंद्रनाथ टैगोर के यहाँ रहने की वजह जो प्राकृतिक खूबसूरती थी वह अभी भी काफी हद तक बची हुई है । हालाँकि नव धनाढ्य सैलानी इसे बर्बाद करने में कोई कसर नही छोड़ रहे है । अंधाधुंध और विशाल निर्माण के लिए देवदार ,बांज.बुरांस ,चीड से लेकर सेब आडू के बगीचे काट दिए जा रहे है । यह इस अंचल कि दूसरी तस्वीर है ।

Tuesday, May 22, 2012

वो फेसबुक, हमने तराशा है जिसे

हरजिंदर एसोशिएट एडीटर, हिन्दुस्तान मार्क जकरबर्ग ने क्या किया? दुनिया भर के लोगों को दोस्ती बढ़ाने, रिश्ते बनाने, शेखी बघारने और भड़ास निकालने की थोड़ी-सी जमीन दी और अपने लिए पूरा आसमान जीत लिया। उनकी कंपनी फेसबुक ने शेयर बाजार में उछाल भरने के बाद भले ही बहुत बड़ा तीर न मारा हो, लेकिन उसकी हैसियत का आकलन 104 अरब डॉलर किए जाने से सब हैरत में तो हैं ही। न्यूयॉर्क के इस 28 वर्षीय नौजवान की आठ साल पुरानी कंपनी ने मीडिया व्यवसाय की परंपरागत कंपनियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। फेसबुक के इस वैल्युएशन के सामने टाइम वार्नर जैसी मीडिया की परंपरागत धुरंधर भी बौनी दिखने लग गई हैं। फेसबुक में ऐसा क्या है? फेसबुक कोई तकनीकी कंपनी नहीं है। हालांकि वह इंटरनेट पर मौजूद आधुनिकतम सोशल नेटवर्किग साइटों में से एक है, लेकिन उसके पास कोई बहुत बड़ी तकनीक नहीं है। वह जिस तकनीक का इस्तेमाल कर रही है, वह पहले से ही मौजूद थी और हो सकता कि कुछ कंपनियां उससे भी बेहतर तकनीक या सॉफ्टवेयर कोड से अपनी वेबसाइट बना रही हों। फिर ऐसा क्या है फेसबुक के पास, जो उसे सौ अरब डॉलर से बड़ी बाजार हैसियत वाली कंपनी बनाता है? फेसबुक बस एक मंच है, जिसके पास अपना कुछ नहीं है। फेसबुक में ढेर सारी सामग्री है, लेकिन वह मार्क जकरबर्ग और उनकी कंपनी में काम करने वाले लोगों ने न तो तैयार की है और न वह उनकी है। फेसबुक में जो कुछ भी है, वह हमारे-आपके जैसे लोगों का ही है। वहां रवीश की उलटबांसियां हैं, अंबरीश की यात्राए हैं, सतीश की भावनाएं हैं, महेश का गुस्सा है, रमेश के सरोकार हैं, चंचल के चित्र हैं, मंगल के मित्र हैं, किसी की कविताएं हैं, किसी की मंत्रणाएं हैं, स्टेटस हैं, अपडेट हैं- और इन्हीं सब ने मिलकर फेसबुक की बाजार हैसियत को सौ अरब डॉलर से भी ऊपर पंहुचा दिया है। अब इसे देखने के हमारे पास दो तरीके हैं। पहला तरीका यह है कि हम यह मान लें कि हमारी इन्हीं सब चीजों से मार्क जकरबर्ग ने अपनी दुकान सजा ली और अब दुनिया के 29वें सबसे अमीर व्यक्ति बन बैठे हैं। इस धंधे में लगी उनकी अपनी पूंजी कोई बहुत ज्यादा नहीं है और उनकी मेहनत पर शक न भी किया जाए, तो कुल जमा आठ साल की ही मेहनत उसमें है। लेकिन इसे दूसरे नजरिये से भी देखना होगा। महेश, रमेश, सुरेश वगैरह ने अभी तक जो भी सामग्री फेसबुक पर डाली है, अगर उसे वे लेकर परंपरागत मीडिया के पास जाएं, तो हो सकता है कि वहां कोई उसकी कीमत कौड़ियों के भाव भी न लगाए, लेकिन वही सामग्री जब फेसबुक पर आती है, तो फेसबुक के वैल्युएशन को सौ अरब डॉलर के ऊपर पहुंचा देती है। फेसबुक जो कुछ भी है, उस मार्क जकरबर्ग के फितरती दिमाग की एक उपज है, जो हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर सका था। जकरबर्ग ने हमें एक भरोसेमंद मंच दिया है, लेकिन इससे हमारी-आपकी सामग्री की भूमिका कम नहीं होती, क्योंकि अंत में हमने ही फेसबुक को आगे बढ़ाया और महत्वपूर्ण बनाया है। यह मीडिया का नया चेहरा है, जिसे यूजर्स जेनरेटेड कंटेंट के नाम से जाना जाता है। यानी ऐसा मीडिया, जहां पाठक एक पाठक भी होता है और साथ ही लेखक भी। आप दूसरों का लिखा पढ़ते हैं और आप जो लिखते हैं, उसे दूसरे पढ़ते हैं। सिर्फ लिखना-पढ़ना ही नहीं, गीत-संगीत, चित्र, फोटोग्राफी और फिल्म तक के लिए इसमें जगह है। आप चाहें, तो इसे सहकारी मीडिया भी कह सकते हैं। फेसबुक ऐसे मीडिया का पहला उदाहरण नहीं है। इसका ज्यादा सफल और ज्यादा महत्वपूर्ण उदाहरण विकीपीडिया है। फर्क सिर्फ इतना है कि विकीपीडिया ने किसी कारोबार की शक्ल नहीं ली और वह दान पर चलने वाली एक वेबसाइट भर बनकर रह गई। यह बात अलग है कि इस कोशिश में उसने छपे हुए एनसाइक्लोपीडिया के पूरे कारोबार को इतिहास की एक चीज बनाकर रख दिया। फेसबुक ने कारोबार का रास्ता अपनाया और बाजार में झंडे गाड़ दिए। फिलहाल असल मुद्दा फेसबुक में हुआ भारी निवेश है। फेसबुक को लेकर पिछले दिनों निवेशकों में जो उत्साह दिखा, वह परंपरागत मीडिया को हैरत में डालने वाला था। आखिर निवेशकों ने इस छोटी-सी कंपनी में ऐसा क्या देखा- उस कंपनी में, जिसने एक बड़ा ब्रांड भले ही बनाया हो, लेकिन अभी कोई बहुत ज्यादा मुनाफा कमाना भी शुरू नहीं किया? वैसे शेयर बाजार आम तौर पर किसी कंपनी के कारोबार पर कम, उसकी संभावनाओं पर ज्यादा दांव लगाता है। पश्चिम के बाजार और वहां की कंपनियों की इस समय जो स्थिति है, उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि निवेशकों को इस समय सबसे ज्यादा संभावनाओं वाली कंपनी फेसबुक ही लग रही हो। लेकिन सवाल यह है कि फेसबुक की संभावनाएं क्या हो सकती हैं? पाठकों की जिस सामग्री की बात हम कर रहे हैं, फेसबुक की सारी संभावनाएं दरअसल इसी में निहित हैं। इस सामग्री का विश्लेषण कर हमारी पसंद-नापसंद, हमारी चाहत, हमारी खुशी, हमारे गम और हमारे गुस्से का एक बहुत बड़ा डाटाबेस तैयार हो सकता है। मसलन, अगर एक कार बनाने वाली कंपनी यह जानना चाहे कि आजकल लोग किस तरह की कार पसंद कर रहे हैं या लोग किस तरह की कार खरीदने की चाहत रखते हैं, तो उसके लिए यह डाटाबेस बहुत काम का हो सकता है। और इससे भी बढ़कर अगर वह कंपनी उन सब लोगों के नाम और ई-मेल चाहे, जो कार खरीदने की बात करते हैं, या कारों की चर्चा करते हैं, या कार कंपनियों की साइटों पर जाते रहते हैं, तो यह डाटाबेस उसकी काफी मदद कर सकता है। अभी तक फेसबुक ने अपने उपयोगकर्ताओं की प्राइवेसी का आम तौर पर खयाल ही रखा है, उनके आंकड़े बाजार में बेचे गए हों, ऐसे बहुत ज्यादा आरोप नहीं हैं। लेकिन अब जितना बड़ा निवेश फेसबुक में गया है, उस अनुपात में उस पर मुनाफा कमाने का दबाव भी बढ़ेगा ही। आने वाले वक्त में सोशल नेटवर्किग का भविष्य इससे तय होगा कि फेसबुक इस दबाव का मुकाबला किस तरह से करता है। अगर वह चाहता है कि उपयोगकर्ताओं की प्राइवेसी के कारोबार की नौबत न आए, तो उसे अपनी कमाई के तरीके खोजने होंगे। उसे नए रेवेन्यू मॉडल विकसित करने होंगे, जो अभी उसके पास बहुत कम हैं, क्योंकि प्राइवेसी बेचकर फेसबुक अपनी वह साख खो देगा, जिसने उसके वैल्युएशन को सौ अरब डॉलर तक पहुंचा दिया है। फिलहाल तो यही फेसबुक का स्टेटस अपडेट है, इसे आप लाइक करें, शेयर करें या फिर अपने कमेंट से नवाजें। हिंदुस्तान में प्रकाशित हरजिंदर का लेख .

Monday, May 14, 2012

रामदेव की भी है अण्णा जैसी एक टीम

अंबरीश कुमार
लखनऊ , मई । भ्रष्टाचार और कालाधन के साथ बदलाव की लंबी लड़ाई के लिए तैयार हो रहे बाबा रामदेव की भी एक टीम है जिसके बारे में कोई नही जानता । टीम अन्ना को तो टीवी चैनलों के जरिए समूचा देश जानता है टीम रामदेव के सदस्य अपने बारे में कुछ कहना तो दूर अपनी पहचान भी सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं है । इस टीम में आईआईटी की इंजीनियरिंग छोड़कर जयप्रकाश आंदोलन में शामिल होने वाले से लेकर गांधीवादी ,सर्वोदयी और समाजवादी सभी है । लड़ाई लंबी है इसलिए तैयारी भी ढंग से हो रही है ।अन्ना हजारे के आंदोलन में जो जो दिक्कतें आई उनसे सबक लेकर ये अपनी रणनीति बना रहे है जिसमे बिना संगठन के चुनावी राजनीति में हस्तक्षेप जैसा मुद्दा भी है । इस टीम का सारा जोर प्रचार से दूर रहकर मजबूत सांगठनिक ढांचा खड़ा करना है ताकि देश के विभिन्न हिस्सों में इस आंदोलन के जुझारू कार्यकर्त्ता तैयार हो सके । मामला सिर्फ जून के प्रदर्शन का नहीं है बल्कि आगे कि लड़ाई का भी है ।इस अभियान में नौजवान है ,किसान है तो महिलाएँ भी बड़ी संख्या में शामिल हो चुकी है । उत्तर प्रदेश के अलावा करीब आधा दर्जन राज्यों के कई जन संगठनों के लोग शिरकत कर रहे है जिनमे बिहार ,मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,ओडिसा ,दिल्ली ,उत्तर प्रदेश ,झारखण्ड और उतरांचल आदि शामिल है । जयप्रकाश आंदोलन से निकले सर्वसेवा संघ के सचिव रामधीरज ने कहा - बाबा रामदेव के आंदोलन से ज्यादा उम्मीद इसलिए भी हो रही है क्योकि इसकी रणनीति बनाने वाले आंदोलनों के लोग है ।दूसरे बाबा रामदेव का रुख भी काफी लचीला है और वे सकारात्मक सुझावों पर अमल करने में देर भी नहीं लगाते । रामदेव संगठन के जरिए सामाजिक राजनैतिक बदलाव कि दिशा में पहल करेंगे ।यही वह मुद्दा है जिसपर टीम अन्ना कमजोर पड़ती है । राजनैतिक दखल को लेकर देश के चार आंदोलनों का हवाला बदलाव कि तकते देती रही है जिन्हें बुरी तरह नाकाम होना पड़ा । रामधीरज के मुताबिक किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत और उनसे पहले बाबा जयगुरूदेव ने इस तरह का प्रयोग किया और नाकाम रहे जबकि इनकी रैलियों में रामलीला मैदान से ज्यादा भीड़ आती थी ।इसी तरह कर्णाटक में रैय्यत संघ के नंजदुंग स्वामी जो बड़े जनाधार वाले नेता रहे पांच विधायक भी नही जितवा पाए और शेतकरी संगठन के शरद जोशी भी नाकाम रहे । आंदोलन और चुनावी राजनीति का समीकरण बहुत अलग होता है और अगर इसे बिना समझे कोई फंसा तो बुरी तरह असफल होता है । रामदेव की टीम इन सभी मुद्दों को लेकर पहले से ही सतर्क है और ज्यादा जोर फिलहाल संगठन और आंदोलन पर है ।साथ ही बाबा रामदेव की छवि भी धर्मनिरपेक्ष हो यह ध्यान रखा जा रहा है । अन्ना आंदोलन पर जिस तरह संघ का ठप्पा लगा उससे भी काफी नुकसान हुआ था। बाबा रामदेव की टीम में संघर्ष वाहिनी मंच के राजीव हेम केशव से लेकर युवा भारत के राकेश रफीक तक जैसे कई तपे तपाए कार्यकर्त्ता शामिल है । जयप्रकाश आंदोलन से निकले कार्यकर्ताओं के अलावा समाजवादी और गांधीवादी भी । जो बाबा रामदेव के आंदोलन कि दीर्धकालीन रणनीति कि तैयारी कर रहे है । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा -बाबा रामदेव तो कम से कम किसानो के सवाल को भी जोड़ रहे है वर्ना टीम अन्ना को तो लगता है किसानो से कोई सरोकार ही नही है । उनकी कोर कमेटी के सदस्य सुनीलम मध्य प्रदेश में अकेले संघर्ष कर रहे है और टीम अन्ना चुनाव लड़ने कि तयारी में जुटी है । यह दुर्भाग्यपूर्ण है । जनसत्ता

कई और कार्टूनों को हटाने की मांग

वंदिता मिश्रा
नई दिल्ली, मई। राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) की एक किताब में छपे डा. भीमराव आंबेडकर के कार्टून पर शुक्रवार को संसद के दोनों सदनों में खासा हंगामा हुआ था। बहरहाल, उस समय यही समझा गया था कि सांसदों का गुस्सा दलितों के मसीहा समझे जाने वाले आंबेडकर के प्रति कथित असम्मान के खिलाफ था। तमिलनाडु की एक दलित पार्टी विदुथलाई चिरुथइगल के सांसद थोल थिरुमावलवन ने पहली बार संसद का ध्यान इस मुद्दे की ओर आकृष्ट किया। मायावती और रामविलास पासवान जैसे कद्दावर दलित नेताओं ने इस मुद्दे को लपकते हुए तीखा गुस्सा जाहिर किया। उन्होंने कार्टूनिस्ट और एनसीईआरटी की किताब में इस कार्टून को छापने की इजाजत देने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की। संसद में हंगामे के अगले ही दिन पुणे स्थित एक दलित संगठन ने पुणे विश्वविद्यालय के परिसर में सुहास पलशीकर के दफ्तर में तोड़फोड़ की। हालांकि पाठ्यपुस्तकों में शैक्षणिक सामग्री छापने के जिम्मेदार एनसीईआरटी के दोनों मुख्य सलाहकारों पलशीकर और योगेंद्र यादव ने शुक्रवार को ही इस्तीफे दे दिए थे। सांसद एनसीईआरटी की किताबों में सिर्फ आंबेडकर के कार्टून पर ही नाराज नहीं हैं। कई और कार्टूनों को लेकर भी उनकी त्योरियां चढ़ी हुई हैं। वे जवाहर लाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सवर्ण नेताओं और मनमोहन सिंह के कार्टूनों से भी नाराज हैं। आंबेडकर के कार्टून पर विवाद से कुछ दिन पहले ही बच्चों पर संसदीय फोरम के सदस्यों ने आठ मई को एनसीआईआरटी के पदाधिकारियों के साथ बैठक में पाठ्यपुस्तकों में छपे कई कार्टूनों पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी। उन्होंने एनसीईआरटी की किताबों के प्रकाशन के लिए जिम्मेदार लोगों और खासतौर से इसके अध्यक्ष, मुख्य सलाहकार, सलाहकार और संकाय के सदस्यों के साथ मई के तीसरे हफ्ते में मुलाकात का वक्त देने के लिए जोर डाला। इस फोरम का गठन मार्च, 2006 में किया गया था और इसमें दोनों सदनों के कुल 40 सदस्य शामिल हैं। लोकसभा के स्पीकर इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। हालांकि यह फोरम कोई आधिकारिक संसदीय संस्था नहीं है और ना ही इसके पास किसी व्यक्ति या दस्तावेज को तलब करने के अधिकार हैं। सामाजिक विज्ञान संकाय में शिक्षा विभाग की विभागाध्यक्ष सरोज यादव ने एनसीईआरटी की किताबों से संबद्ध एक पर्यवेक्षक को लिखी चिट्ठी में कहा था कि फोरम के कई सदस्य सांसद ऐसा महसूस करते हैं कि इन कार्टूनों में राजनीतिज्ञों के प्रति असम्मान दर्शाया गया है और उनकी गलत और नकारात्मक तस्वीर पेश की गई है। बैठक में कई सांसदों की राय थी कि स्कूली किताबों में राजनीतिज्ञों की नकारात्मक छवि पेश करने से कच्ची उम्र के बच्चों के मन में लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा घट सकती है और राजनीतिज्ञों के प्रति असम्मान या अविश्वास की भावना पनप सकती है। यादव की इस चिट्ठी की एक प्रति ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पास भी है। इसमें वे एक-दो कार्टूनों की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि शायद इन्हीं की वजह से सांसदों का गुस्सा भड़क उठा है और शायद इसीलिए वे तत्काल प्रभाव से इस तरह की चीजों को हटाने और इन किताबों के वितरण पर रोक लगाने की इच्छा जता रहे हैं। सांसदों की नाराजगी खासतौर से एनसीईआरटी की नौवीं कक्षा की राजनीति शास्त्र की किताब में छपे आरके लक्ष्मण के एक कार्टून को लेकर है। इसमें दिखाया गया है कि चुनाव से पहले नेता जनता से वोटों की भीख मांग रहे हैं। लेकिन चुनाव जीतने के बाद अब जनता उनके सामने भीख मांग रही है। बैठक में सांसदों के साथ हुई चर्चा का सारांश देते हुए यादव ने लिखा है कि राजनीतिज्ञों का मानना है कि इस तरह की धारणाएं सच्चाई से परे हैं। लिहाजा इन्हें पाठ्यपुस्तकों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।इंडियन एक्सप्रेस

Sunday, May 13, 2012

प्रो. पालशिकर ! मुझे खेद है - डॉ. आंबेडकर

एसआर दारापुरी प्रो. पालशिकर कल आप के कार्यालय में तथाकथित रिपब्लिकन पार्टी के चार सदस्यों दुआरा मेरे कार्टून को लेकर जो तोड़फोड़ की गयी उसके लिए मुझे बहुत खेद है. मुझे विश्वास है कि शायद वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या किया है. इस लिए आप उन्हें माफ़ करदें. उनके इस कृत्य पर मैं भी बहुत दुखी हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा करके उन्होंने मेरे कौन से आदर्श की पूर्ती की है. मैं तो जीवन भर दलितों के बोलने की आज़ादी की लडाई लड़ता रहा क्योंकि दलित सदियों से चुप्पी का शिकार रहे हैं. उन्हें सदियों से गूंगे बहरे बना कर रखा गया था. वे सदियों से सभी प्रकार का अपमान सह कर चुप रहने के लिए बाध्य किये गए. मैंने भी यह सब झेला. पढ़ लिख कर मैं उनकी ज़ुबान बना और मैंने उन्हें ज़ुबान देने की जीवन भर कोशिश की. परन्तु कल उन्होंने आप के साथ ऐसा करके मेरी ज़ुबान ही बंद कर दी . नहीं ! मैं चुप नहीं रह सकता. मैं इस घटना पर अवश्य बोलूँगा क्योंकि यह सब कुछ मेरे नाम पर किया गया है. मुझे पता चला है कि यह सब एक पुस्तक में मेरे से सम्बंधित एक कार्टून को लेकर किया गया है. इस में मुझे अपमानित किये जाने का बहाना लेकर पहले तो पार्लिआमेंट में मेरे अति उत्साही अनुयायिओं ने दिनभर हंगामा किया और सदन का काम काम काज नहीं चलने दिया. कुछ ने तो पुस्तक को तैयार करने वाले विद्वानों पर एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा कायम करके कार्रवाही करने की मांग कर डाली. मेरे एक शुभचिंतक ने तो इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्था को ही भंग करने का प्रशन उठा दिया. मुझे यह सब जान कर बहुत दुःख हुआ है. मैं तो जीवन भर पुस्तक प्रेमी रहा हूँ और मैंने जीवन भर अपनी लाईब्रेरी में सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह किया और उन्हें पढ़ा भी था . अब अगर मेरे नाम पर किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस से मुझे कितना कष्ट होगा. मुझे उम्मीद थी कि जब सदन में सरकार ने किसी औचित्य पर विचार किये बिना वोट की राजनीति के अंतर्गत केवल कुछ लोगों के दबाव में पुस्तक में से उस कार्टून को निकाल देने का आश्वासन दे दिया था तो उन्हें शांत हो जाना चाहिए था परन्तु उन्हें इस से भी संतुष्टि नहीं मिली और कल उन्होंने आप के कार्यालय में आ क़र तोड़फोड़ की कार्रवाही की जो कि मेरे दुआरा अपने विरोधियों के तमाम कटाक्षों और आलोचनायों को धैर्य से सुनने और शालीनता से उनका उत्तर देने के स्वभाव का अपमान है. मैंने तो अपने जीवन में कितने कटाक्षों और आलोचनाओ का सामना किया था परन्तु मैं ने कभी भी अपना मानसिक संतुलन नही खोया था. मैं तो जीवन भर वाल्टेयर के उस कथन का कायल रहा हूँ जिस में उसने कहा था ," मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी सांस तक रक्षा करूँगा." मैंने गाँधी, नेहरु, पटेल न जाने कितने लोगों से गंभीर मुद्दों पर बहसें की थीं परन्तु मैंने कभी भी विरोधियों के कथन को दबाने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा तर्क और तथ्यों सहित शालीनतापूर्वक उनका उत्तर दिया था . मैंने तो गाँधी जी को भी पहली मीटिंग में ही कहा था, "अगर आप मुझे मारना चाहते हैं तो सिद्धांतो से मारिये भावनायों से नहीं." अब अगर कुछ लोग मेरे नाम पर वार्तालाप का रास्ता छोड़ कर तोड़फोड़ का रास्ता अपनाते हैं तो यह मेरे सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है. जिस कार्टून को लेकर ये सब हंगामा खड़ा किया गया है वह कार्टून तो १९४९ में मेरे सामने ही छपा था. मैं ने भी उसे देखा था और उसमे शंकर के संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर किये गए व्यंग और चिंता को भी पहचाना था. मुझे यह बहुत अच्छा लगा था. नेहरु और हम दोनों ही संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर चिंतित रहते थे परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया में ऐसा होना स्वाभाविक था. बाद में मैंने २५ नवम्बर, १९४९ को संविधान को अंगीकार करने वाले भाषण में संविधान निर्माण में लगे समय के औचित्य के बारे में सफाई भी दी थी. मुझे ज्ञात हुआ है कि उक्त कार्टून वाली पुस्तक में भी संविधान निर्माण की धीमी गति के कारणों का उल्लेख किया गया था और कार्टून के माध्यम से इस के बारे में छात्रों से प्रशन पूछा गया था. काश ! कार्टून में मेरे अपमान के नाम पर तोड़फोड़ और हंगामा करने वालों ने भी पुस्तक में कार्टून के सन्धर्भ को पढ़ा होता तो शायद वे ऐसा नहीं करते. मैंने जीवन भर विरोध के संविधानिक तरीकों की ही वकालत की थी. मैंने अपने जीवन काल में जो भी आन्दोलन किये वे सभी शांति पूर्ण और कानून के दायरे में ही थे. मैं ने कभी भी हिंसा और तोड़फोड़ की सलाह नहीं दी थी. मेरे नाम पर तोड़फोड़ करने वालों को मैं सलाह दूंगा कि वे मेरे संविधान अंगीकार के अवसर पर दिए भाषण के उस अंश को ज़रूर पढ़ लें जिस में मैंने कहा था, "हमें सत्याग्रह, असहयोग और अवज्ञा के तरीको को छोड़ देना चाहिए. जब सामाजिक और आर्थिक उद्धेश्यों को संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने के साधन न बचे हों तो तो गैर संवैधानिक तरीके अपनाने का कुछ औचित्य हो सकता है. परन्तु जहाँ संवैधानिक तरीके उपलब्ध हों तो गैर संवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचित्य नहीं हो सकता. यह तरीके अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाये उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा." मुझे आज यह देख कर बहुत दुःख होता है जब मैं देखता हूँ कि हमारे देश में विरोध की आवाज़ को सरकारी और गैर सरकारी तौर पर दबाने की कितनी कोशिश की जा रही है. मैं जानता हूँ कि हम लोगों ने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समावेश कितनी उम्मीद के साथ किया था. आज मैं देखता हूँ कि कुछ लोग अपने संख्याबल या बाहुबल से कमज़ोर लोगों की सही आवाज़ को दबाने में सफल हो जाते हैं. आज की सरकारें भी इसी प्रकार से जनता की आवाज़ को दबा देती हैं. हमारे देश में से तर्क और बहस का माहौल ख़त्म हो चुका है. मैं जानता हूँ कि कुछ लोग धर्म अथवा सम्प्रदाय की भावनाओं के आहत होने की बात कर के दूसरों की आवाज़ को दबा देते हैं. मैंने देखा है कि किस तरह कुछ लोगों ने हो हल्ला करके शिवाजी पर लिखी गयी पुस्तक, तसलीमा नसरीन तथा सलमान रश्दी दुआरा लिखी गयी पुस्तकों को प्रतिबंधित करवा दिया था. इन लोगों ने तो मुझे भी नहीं बख्शा था. आप को याद होगा कि जब महारष्ट्र सरकार ने मेरी अप्रकाशित पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म' को प्रकाशित करवाया था तो किस प्रकार कुछ लोगों ने इसे हिन्दू तथा हिन्दू देवी देवता विरोधी कह कर इसे प्रतिबंधित करने की मांग उठाई थी. यह तो मेरे दलित अनुयायिओं और बुद्धिजीवियों का ही प्रयास था कि उन्होंने इस के पक्ष में बम्बई में भारी जन प्रदर्शन करके इसे बचा लिया था. परन्तु कल उन्होंने जो कुछ किया है वह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिलकुल खिलाफ है. कल अगर कुछ लोग मेरे दुआरा लिखी गयी पुस्तकों में अंकित आलोचना को लेकर मेरी पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की मांग उठा दें तो दलितों के पास इस के विरोध का क्या तर्क बचेगा. मैं समझता हूँ कि मेरे दलित अनुयायी ऐसा क्यों करते हैं. मैं जानता हूँ कि वे मेरा कितना सम्मान करते हैं. वे मुझ से भावनात्मक तौर पर किस सीमा तक जुड़े हुए हैं. जब कभी कोई भी उन्हें मेरे बारे में कुछ भी सही या गलत बता देता है तो वे भड़क जाते हैं और इस प्रकार की कार्रवाही कर बैठते हैं. इस में उनका कसूर नहीं हैं. वे अपने नेताओं दुआरा गुमराह कर दिए जाते हैं. उनमें से तो बहुतों ने मुझे पूरी तरह से पढ़ा भी नहीं है. अतः वे दूसरों दुआरा निर्देशित हो जाते हैं. मुझे लगता है दलितों ने मेरे " शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो " नारे को सही रूप में समझा नहीं है. मुझे यह भी देख कर बहुत दुःख होता है कि मेरे नाम पर आज किस प्रकार की दलित राजनीति हो रही है. मेरे दुआरा बहुत उम्मीद के साथ बनायीं गयी रिपबल्किन पार्टी आज कितने टुकड़ों में बंट चुकी है और उसके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किस तरह के सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठ जोड़ कर ले रहे हैं. वे दलितों के मुद्दों के स्थान पर विशुद्ध वोट बैंक और सत्ता की राजनीति कर रहे हैं और लोगों का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं. इस कार्टून के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है. मुझे यह देख कर बहुत कष्ट होता है कि मेरे कुछ अतिउत्साही और अज्ञानी अनुयायियों ने मुझे केवल दलितों का ही मसीहा बना कर रख दिया है. मैं तो पूरे राष्ट्र का हूँ. मैंने जब स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की बात की थी तो यह केवल दलितों के लिए ही नहीं की थी. मैंने इसे देश के सभी लोगों के लिए माँगा था. मैंने जब हिन्दू कोड बिल बनाया था तो मैंने इस में सम्पूर्ण हिन्दू नारी की मुक्ति की बात उठाई थी. हाँ मैंने दलितों को कुछ विशेष अधिकार ज़रूर दिलाये थे जो कि उनको समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए ज़रूरी थे. अतः मेरा अपने अनुयायिओं और प्रशंसकों से अनुरोध है कि वे मुझे एक जाति के दायरे में न बांध कर पूरे राष्ट्र के फलक पर देखें. मैं अपने अनुयायियों से यह भी अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे जीवन दर्शन और मेरे जीवन मूल्यों को सही तरीके से जानें और उन्हें अपने आचरण में उतारें. उन्हें यह भी स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रहेगी जब वे दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे अन्यथा वे देश में बढ़ते फासीवाद और कट्टरपंथ को ही मज़बूत करेंगे. मेरे नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं से भी मुझे कहना है कि वे दलितों का भावनात्मक शोषण, वोट बैंक और जाति की राजनीति के स्थान पर मुदों पर आधारित मूल परिवर्तन की राजनीति करें जिस से न केवल दलितों बल्कि सभी भारतवासियों का कल्याण होगा. प्रो. पालशिकर ! अन्तः में मैं आप के साथ मेरे तथाकथित कुछ अनुयायियों दुआरा किये गए दुर्व्यवहार के लिए पुनः खेद प्रकट करता हूँ.

Saturday, May 12, 2012

आंबेडकर के कार्टून पर राजनीति

एसआर दारापुरी
कल लोक सभा और राज्य सभा में राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसन्धान परिषद ( एनसीआरटी) की किताब में डॉ. बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर पर छपे कार्टून को लेकर कुछ सदस्यों दुआरा इसे आपत्तिजनक कह कर हंगामा किया गया. दोनों सदनों में विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया. इसमें मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस्तीफे की मांग भी उठी. शोर शराबे और हंगामे के कारण पूर्वान्ह में सदन की कार्रवाही सुचारू रूप से नहीं चल सकी. बाद में सिब्बल के दोषियों के खिलाफ कार्रवाही का आश्वासन देने के साथ इसके लिए माफ़ी mangni पड़ी. कक्षा ११ में पढाई जाने वाली राजनीति शास्त्र की पुस्तक में आंबेडकर के तथाकथित आपतिजनक कार्टून का मुद्दा सबसे पहले लोकसभा में वीसीके पार्टी के थिरुवा बलवान तोल ने उठाया और आपतिजनक कार्टून की प्रति भी सदन में दिखाई. उनके समर्थन में भाजपा,सपा, बसपा, और अन्य दलों के सदस्यों ने भी शोर शराबा किया. वे मानव संसाधन मंत्री का इस्तीफा मांग रहे थे. राज्य सभा में प्रश्न काल के दौरान जब सिब्बल एक प्रशन का जवाब देने के लिए खड़े हुए तो बसपा के ब्रजेश पाठक ने कार्टून की प्रति दिखाते हुए इस मुद्दे को उठा दिया. इस पर अन्य सदस्य भी उनसे सफाई मांगने लगे. सरकार की तरफ से कपिल सिब्बल ने दोनों सदनों में सफाई दी और इस गलती के लिए माफी मांगी. इस पर बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि वह सरकार की सफाई से संतुष्ट नहीं है. सरकार बताये कि यह कृत्य करने वालों पर क्या कार्रवाही की गयी, यह अपराधिक कृत्य है. मायावती ने इसे लोकतंत्र का अपमान कहा. बाद में संसद भवन परिसर में लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान ने भी कहा, " दोषियों का निलंबन ही नहीं उन पर एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाना चाहिए. उन्होंने ने तो एनसीआरटी को ही बंद करने की मांग भी कर डाली. दोनों सदनों में उपरोक्त हंगामे के फलस्वरूप सरकार ने एनसीआरटी की उपरोक्त पुस्तक से विवादित कार्टून को निकालने की घोषणा की जिस पर एनसीआरटी की पुस्तक सलाहकार समिति के दो सदस्यों योगेन्द्र यादव और सुहास पल्शिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया. इस पर योगेन्द्र यादव ने कहा , "लोक सभा में हुई बहस पूरी तरह से सूचित नहीं थी . हम लोग पुस्तक निर्माता समिति के मुख्य सलाहकार थे. इस लिए हम लोगों ने इस्तीफा देना ही उचित समझा. मैं चाहता था कि सांसद लोग पुस्तक या जिस पृष्ट पर कार्टून छ्पा था को पढ़ लेते." आंबेडकर नेहरु कार्टून विवाद पर राजनीतिक विश्लेषकों और समाज विज्ञानियों में विरोधी प्रतिक्रया है. कुछ दलित बुद्धिजीविओं का कहना है कि कार्टून डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है. दूसरों का विशवास है कि यह विवाद अनावश्यक है. एक टिप्पणीकार के अनुसार इस में चुनाव तंत्र, जिस में वोट की राजनीति और प्राथमिकतायें ही निर्णय लेने की बाध्यताएं होती हैं, की बू आती है. समाज विज्ञानी आशीष नंदी ने कहा, " उक्त विवाद से प्रकट होता है कि यद्यपि लोक्तंत्रिकर्ण हुआ है परन्तु समाज में लोकतान्त्रिक मूल्यों का समावेश नहीं हुआ है. लोकतंत्र केवल चुनाव तंत्र बन कर रह गया है." एक अन्य समाज विज्ञानी शिव विशाव्नाथान ने कहा कि अगर इसे गहराई से देखा जाए तो यह विवाद नेहरु और अम्बेडकर दोनों के लिए अनुचित है. " शंकर एक सम्मानित कार्टूनिस्ट के रूप में राजनीति के व्यंग को समझते थे. कार्टून इस बात की ताईद करता है कि डॉ. आंबेडकर संविधान के निर्माता और खेवट थे यद्यपि नेहरु चिंतित दिखाई पड़ते हैं . इस में किसी के लिए कुछ भी अपमानजनक नहीं है. डॉ. आंबेडकर सबसे पहले इस कार्टून का व्यंग और समानुभूति पहचान लेते." कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह कार्टून संभवतया १९४९ में पहली वार छ्पा था जब डॉ. आंबेडकर जीवित थे परन्तु उन्होंने तो इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी तो फिर अब इस पर आपत्ति क्यों? आइये अब इस कार्टून पर चर्चा की जाए. उक्त कार्टून प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट केशव शंकर पिल्लै दुआरा बनाया गया था. इस में संविधान निर्माण की गति पर व्यंग किया गया है. इस में डॉ. आंबेडकर संविधान रुपी घोंघे प़र चाबुक लेकर उसे आगे बढ़ाते हुए दिखाई देते है. उनके पीछे नेहरु भी चाबुक लेकर घोंघे को आगे बढ़ाने की मुद्रा में दिखाए गए हैं. कार्टून में जनता इसे देखते हुए दिखाई गई है. इस कार्टून के माध्यम से छात्रों से यह पूछा गया है कि संविधान निर्माण में इतना समय क्यों लगा? इस कार्टून के बगल में संविधान निर्माण की प्रक्रिया का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. अब अगर इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के देखा जाए तो इस में कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देता है. परन्तु फिर भी इस पर कुछ अति उत्साही व्यक्तियों खास करके कुछ दलित राजनेताओं दुआरा यह कह क़र कि यह डॉ. आंबेडकर के लिए अपमानजनक है, बवाल खड़ा किया. अब यह चुनाव तंत्र का गणित नहीं तो और क्या है? इस में कुछ लोगों ने यह दिखाने कि कोशिश कि है कि वे डॉ. आंबेडकर और दलितों के बहुत बड़े हितैषी हैं. अब अगर इस पूरे हंगामे के पीछे की राजनीति और इस से उपजे खतरों को देखा जाए तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बड़ी चोट है. इस से हमारे समाज में पहले से व्याप्त फासीवाद और कट्टरपंथ को और ताकत मिली है. हम जानते हैं कि इस से पहले किस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथी शिवाजी पर पुस्तक और सलमान रुश्दी की पुस्तक प़र बवाल खड़ा कर उन्हें जब्त करवा चुके हैं. इसी प्रकार विभिन्न अवसरों पर सांस्कृतिक पुलिस लोगों पर कहर ढाती रही है. आज हालत यह है कि इस बढ़ते फासीवादी और कट्टरपंथी रुझान के कारण लोग सही बात कहने से भी डरने लगे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दिन बदिन ख़तम होती जा रही है जो कि लोकतंत्र की बुनियाद है. यदि इतिहास को देखा जाये तो यह पाया जाता है कि दलित बोलने की स्वतंत्रता से सबसे अधिक वंचित रहे हैं. अब तक वे चुप्पी का सब से बड़ा शिकार रहे हैं. अतः उनके लिए इस स्वतंत्रता को बनाये रखना सब से अधिक महत्वपूर्ण काम है. अगर हाल में वाराणसी में बौद्ध पूर्णिमा पर घटी घटना को देखा जाए तो इस से दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आसन्न खतरों का आभास होता है. इस वर्ष ६ मई को वाराणसी में कचहरी स्थित डॉ. अम्बेद्कार की प्रतिमा पर बौद्ध जयंती का आयोजन किया गया था. वहां पर आयोजकों ने बुद्ध के साथ डॉ. आंबेडकर और पेरियार के चित्र भी लगाये थे. इन में से डॉ. आंबेडकर के चित्र के नीचे "हम हिन्दू नहीं हैं" और पेरियार के चित्र के नीचे " हिन्दू देवी देवताओं में विशवास मत करो. " लिखा था. इस को देखने से आप को कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई नहीं देगा परन्तु इस पर भी हिन्दू वाहिनी के कुछ लोगों दुआरा आपत्ति की गयी और इस की शिकायत जिला प्रशासन से की गयी. इस पर जिला प्रशासन ने आयोजकों के विरोध को नज़र अंदाज़ करते हुए वहां से उन दोनों चित्रों को हटवा दिया और तभी वहां पर बौद्ध जयंती का कार्यक्रम संपन्न हो सका. यद्यपि इस घटना की थोड़ी चर्चा कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में हुयी परन्तु विरोध करने वाले अपने मकसद में सफल हो गए. इस छोटी सी घटना से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि दलितों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कितना बड़ा खतरा है. अतः इस अधिकार को बचाना न केवल दलितों बल्कि सभी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. हम लोग इस से भी अवगत हैं कि महाराष्ट्र में कुछ वर्ष पूर्व किस प्रकार बाबा साहेब की पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म" को लेकर आपत्तियां की गयी थीं और यह पुस्तक तभी बच सकी थी जब इस के समर्थन में बम्बई में दलितों दुआरा एक बहुत बड़ा प्रदर्शन आयोजित किया गया. इस समय बाबा साहेब के कार्टून को लेकर जो बवाल किया गया है उससे न तो बाबा साहेब का ही सम्मान बढ़ा है न ही दलितों का. इस के उल्ट दलितों ने जाने अनजाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नुक्सान ही पहुँचाया है और फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को ही मज़बूत किया है. अब अगर कल को बाबा साहेब के हिन्दू धर्म के विरुद्ध और बौद्ध धर्म के पक्ष में विचारों को लेकर हिन्दुत्ववादियों दुआरा आपत्ति करके पाठ्य पुस्तकों में से इस के निकाले जाने की मांग शुरू हो जाये तो दलितों के पास इस का क्या जवाब होगा. यदि कट्टरपंथी बाबा साहेब की कुछ पुस्तकों को आपतिजनक कह कर ज़ब्त करने की मांग करने लगें तो दलित इस का विरोध किस आधार पर कर पाएंगे. अतः मेरे विचार में बाबा साहेब के कार्टून प़र अनावश्यक आपत्ति उठाकर उसे पुस्तक में से निकलवाने से दलितों का कोई भला नहीं हुआ है बल्कि इस से तानाशाही और कट्टरपंथी ताकतें ही मज़बूत हुई हैं. डॉ. आंबेडकर अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के बहुत बड़े समर्थक थे. एक बहस के दौरान बाबा साहेब ने वाल्टेयर को उधृत करते हुए कहा था, "मैं आप से सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी साँस तक रक्षा करूँगा." मुझे विश्वास है कि अगार आज बाबा साहेब जीवित होते तो वे अपने कार्टून के मामले में कुछ दलित नेताओं दुआरा राजनीति करके अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की की गई क्षति तथा फासीवादी और कट्टरपंथी ताकतों को मज़बूत करने की दिशा में की गयी कार्रवाई को कतई पसंद नहीं करते.

Wednesday, May 9, 2012

हिमाचल विधान सभा चुनाव में उम्मीदवार खड़ा करेगी टीम अन्ना

अंबरीश कुमार
लखनऊ ,९ मई । अन्ना हजारे और उनकी टीम के बीच राजनैतिक दखल को लेकर फिर मतभेद उभर आए है । अन्ना हजारे महाराष्ट्र में अपना अभियान छेड़ चुके है पर उनकी टीम हिमाचल में चुनावी हस्तक्षेप का जायजा ले रही है । भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेडने वाली इस जमात की राजनैतिक महत्वकांक्षा की एक वजह यह भी है कि वे मानने लगे है कि बिना राजनैतिक ताकत के जन लोकपाल या दूसरे महत्वपूर्ण कदम उठाना संभव नही है । इसलिए टीम का एक बड़ा खेमा विधान सभा चुनाव में जोर आजमाइश के मूड में है । टीम के एक सदस्य के मुताबिक इसके लिए हिमाचल पर नजर है और इस सिलसिले में वह जमीनी काम शुरू किया जा रहा है । पर यह फैसला टीम अन्ना के लिए काफी जोखम भरा भी साबित हो सकता है । यदि अपेक्षित कामयाबी नही मिली तो भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके आंदोलन की धार और कुंद हो जाएगी । महाराष्ट्र का धरना उदाहरण सामने है । हालाँकि चुनावी दखल कि यह तैयारी सार्वजनिक नहीं है पर देर सबेर इसे सार्वजनिक करना इनकी मजबूरी होगी । गौरतलब है कि एक तरफ अन्ना हजारे तो दूसरी तरफ बाबा रामदेव भर्ष्टाचार के खिलाफ अलग अलग रास्तों से अपना अभियान शुरू कर चुके है । बाबा रामदेव ने आन्दोलनकारी समूहों कि एक बैठक १३ मई को दिल्ली में बुलाई है जो जून के कार्यक्रम की तयारी के सिलसिले में है । इससे पहले उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के जन संगठनों के तपे तपाए नेताओं की कई बैठक वे हरिद्वार के अपने आश्रम में कर चुके है । जून में वे पहली बार अपनी राजनैतिक ताकत दिखाने के बाद आंदोलन के दूसरे चरण की तैयारी में जुटेंगे । इस बार बाबा रामदेव अपने भक्तों और मरीजों की बजाए आन्दोलनकारी जमात के बूते मैदान में उतर रहे है इसलिए इसे राजनैतिक रूप से काफी गंभीर माना जा रहा है । जबकि टीम अन्ना की राजनैतिक तैयारी बिना संगठन के है जिसे लेकर आपस में टकराव है । इससे पहले टीम हिसार में अप्रत्यक्ष दखल दे चुकी है जिसे लेकर टीम अन्ना विवादों में फंसी थी क्योकि वह कांग्रेस को हराने का नारा दिया गया था । इसके बाद टीम अन्ना को उत्तर प्रदेश में दखल देना था जिसकी कई बार घोषणा की गई पर अन्ना हजारे एक बार भी नही आए । टीम के सदस्यों ने भी फैजाबाद में रस्म अदायगी की रस्म अदा की थी । राजनैतिक टीकाकार सीएम शुक्ल ने कहा -टीम अन्ना के लिए उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में चुनाव सुधार के कुछ घोषित कार्यक्रमों को अमल में लाने का बड़ा मौका था । अगर वे पांच बाहुबलियों और भ्रष्ट उम्मीदवारों के खिलाफ उनके विधान सभा क्षेत्र में जम जाते तो उसका उन्हें ज्यादा फायदा मिलता और जिस तरह ज्यादातर बाहुबली इस चुनाव में हारे उससे इसका श्रेय भी उन्हें मिलता । पर टीम ने यह नहीं किया और वे उत्तर प्रदेश में हाशिए पर चले गए । अब बिना संगठन के चुनाव में जाने का भी कोई ज्यादा फायदा नही होने वाला । जानकारी के मुताबिक अन्ना हजारे और किरण बेदी भी विधान सभा चुनाव में सीधे दखल के पक्ष में अभी नही है । अन्ना का मानना है कि बिना संगठन के यह आत्मघाती कदम होगा और जबतक इस मुद्दे पर सर्वसम्मति नही बन जाती वे इस पहल में शामिल नही होंगे । हजारे अब महाराष्ट्र के अभियान में जुट चुके है और फिलहाल चुनावी हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं है । खास बात यह है कि जिन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस हो वहाँ टीम अन्ना की छवि भाजपा को जितने वाली बन जाती है जैसा उत्तराखंड में हुआ और यही कही हिमाचल में न दोहरा दिया जाए इससे राजनैतिक फायदा कम और नुकसान ज्यादा होगा । jansatta

एक और अंबेडकर चाहिए

अरुण कुमार त्रिपाठी बस्तर के जंगलों से सुकमा के अगवा कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन को माओवादियों के कब्जे से मुक्त करा कर लौटे डॉ ब्रह्मदेव शर्मा ने जब दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों से बातचीत करनी चाही तो फिर वही आना गावें आन भवाना गावें आन- वाली स्थिति उपस्थित थी। डॉ शर्मा बार-बार कह रहे थे कि आदिवासियों की नाराजगी का प्रमुख कारण उनसे विधिवत संवाद कायम न किया जाना है। उनके साथ सालों से किए गए वादों को लगातार तोड़ा गया है और जब उनके शोषण में हस्तक्षेप करने दादा लोग (माओवादी) पहुंच गए तो उनका दमन किया जा रहा है। लेकिन उनकी बात समझने के लिए न तो व्यावसायिक मीडिया के लोग तैयार थे, न ही वे लोग जो माओवाद से सहानुभूति रखते हैं। एक तरफ पत्रकार पूछ रहे थे कि आखिर डील क्या हुई और उससे रमन सिंह क्यों मुकर गए, तो दूसरी तरफ यह पूछा जा रहा था कि क्या इससे आॅपरेशन ग्रीन हंट रुक गया और तेरह दिनों में जो युद्धविराम कायम हुआ उसके कितने समय तक चलने की उम्मीद है। कुल मिला कर हार-जीत और लेन-देन का हिसाब-किताब मांगा जा रहा था। किसी ने पूछा कि आपने आॅपरेशन ग्रीन हंट देखा या नहीं, तो किसी ने पूछा कि आप सलवा जुडूम से मिले क्या? इन हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण सवालों के बीच ये टिप्पणियां भी सुनने को मिलीं कि लगता है अगवा करना ही एक कारगर तरीका है। डॉ शर्मा एक मध्यस्थ के नाते तात्कालिक बातों को छिपाते हुए दीर्घकालिक बातों को प्रकट करना चाहते थे और उसके लिए- टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास- जैसी किताब भी बांट रहे थे। लोग किताब देख कर भी उनसे वैसे ही सवाल पूछ रहे थे। इस तरह की किताबें और साहित्य वे लंबे समय से बांट रहे हैं, पर उनकी किसी भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उसमें दर्ज बुनियादी मुद्दों पर चर्चा नहीं होती। पचहत्तर पार कर चुके बीडी शर्मा मजाक में ही लेकिन दुख के साथ यह कहते रहते हैं कि लगता है लोग मेरे जीते-जी मेरी बात नहीं सुनेंगे और जब सुनेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, क्योंकि आदिवासी इस समय वैश्वीकरण के खिलाफ सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं और इसमें उनके साथ वास्तव में कोई नहीं है। धोती-कुर्ता पहनने वाले बीडी शर्मा देश के उन गिने-चुने आइएएस अधिकारियों में रहे जिनमें ईमानदारी, विद्वत्ता और जन-सरोकारों का अद्भुत समन्वय है। उससे भी बड़ी बात है कि उन्होंने अपने को देश के आदिवासी समाज से उसी तरह एकाकार कर लिया है जिस तरह डॉ भीमराव आंबेडकर ने दलित मसलों के साथ कर लिया था। वे बस्तर के कलेक्टर रहे और उस दौरान उन्होंने आदिवासी लड़कियों के दैहिक शोषण के खिलाफ सामाजिक अभियान चला कर नौकरशाही को चौंका दिया था। उन्होंने एक पंचायत बुला कर उन अफसरों की शादी कराने का फैसला करा दिया था जिन्होंने आदिवासी लड़कियों का शोषण किया था। इसी सिलसिले में 1986 में उन्होंने अनुसूचित जाति और जनजाति आयुक्त के तौर पर उसकी 28वीं और 29वीं रपट में भारत को इंडिया, भारत और हिंदुस्तनवा जैसी तीन श्रेणियों में बांट कर देश की आंखें खोल दी थीं। उस तरह की रपटों और उनके सहयोग के कारण ही नर्मदा बचाओ जैसा आंदोलन खड़ा हुआ और देश में चल रहे पर्यावरण और स्थानीय आबादी के आंदोलन को बल मिला था। मगर जब देश ने उन सवालों से आंखें मूंद ली हैं और अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के मौजूदा अध्यक्ष पीएल पूनिया महज आरक्षण की नीति में ही सारा समाधान देखते हैं तब फिर एक मौलिक दृष्टि की दरकार हो रही है। सबसे पहली जरूरत तो अनुसूचित जातियों के साथ अनुसूचित जनजातियों को संबद्ध करने के नुकसान को पहचानने की है। दलित बुद्धिजीवी ऐसा अक्सर करते हैं। इससे उनका तो फायदा हो जाता है, पर आदिवासियों की स्थिति जस की तस रहती है। एक साथ संबद्ध किए जाने की इस नीति ने पहली श्रेणी यानी दलितों को तो लाभान्वित किया लेकिन आदिवासियों को नुकसान पहुंचाया। बल्कि कई जगहों पर दूसरे की कीमत पर पहली श्रेणी ने तरक्की की है, यह बात कुछ अध्ययनों में सामने आई है। अगर ऐसा न हुआ होता तो आदिवासी वजूद की लड़ाई न लड़ते और दलित देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने का सपना न देखते। डॉ आंबेडकर द्वारा लिखे गए भारतीय संविधान और उसके पीछे काम करने वाले आधुनिकतावादी नजरिए ने एक तरफ आदिवासियों से उनकी स्वायत्तता छीनी और दूसरी तरफ उन्हें उनके जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया। यह दिलचस्प है कि आंबेडकर ने अछूतों की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे घुमंतू और बसे हुए कबीलों के युद्ध के कारण पैदा हुए। जो लोग हार गए उन्हें बसे हुए कबीलों ने अपनी रक्षा के लिए तैनात कर लिया। इसके उदाहरण के लिए वे महार जाति का उल्लेख करते हैं। उनके वर्णन में आदिवासी समुदाय आपस में लड़ते रहने वाला और लूटपाट करने वाला समुदाय होता है। इस नजरिए ने आदिवासियों को सभ्य बनाने और उनके भीतर शांति कायम करने के लिए उन पर बाहर से तमाम कानून थोपने का रास्ता साफ किया। हालांकि वेरियर एल्विन और सबाल्टर्न इतिहासकारों का आदिवासियों के बारे में नजरिया इससे काफी अलग था। एल्विन जहां उन्हें एक सभ्य और व्यवस्थित समाज बताते थे, वहीं सबाल्टर्न उन्हें एक क्रांतिकारी समाज की संज्ञा देते हैं। अपनी इसी क्रांतिकारिता के कारण अंग्रेजों से जितनी लंबी और उग्र लड़ाई आदिवासियों ने लड़ी है उतनी शायद दलित समुदाय ने नहीं लड़ी। एल्विन की इसी व्याख्या को बढ़ाते हुए बीडी शर्मा कहते हैं कि आदिवासियों के सोच और कथित सभ्य समाज के सोच में काफी फर्क है। आदिवासी अपने को नौकर मानने को तैयार नहीं होता, क्योंकि वह तो मालिक रहा है। वह तो कहता है कि धरती भगवान ने बनाई, हम भगवान के बेटे हैं, यह बीच में सरकार कहां से आई। सोच के इन दो छोरों के बावजूद संविधान की पांचवीं अनुसूची में यह व्यवस्था की गई कि अगर राज्यपाल चाहे तो भारत के किसी भी कानून को आदिवासी इलाकों में लागू होने से रोक सकता है, और इसके पीछे उन्हें महत्त्व देने का ही भाव था। लेकिन स्वशासन और स्वायत्तता की उनकी प्रवृत्ति को बचाने की यह कोशिश भी बेकार गई, क्योंकि किसी राज्यपाल ने ऐसा कभी नहीं किया। उलटे उदारीकरण के साथ आई नई खनन और उद्योग नीति ने तो पांचवीं अनुसूची का मजाक बना कर रख दिया। आदिवासी स्वायत्तता को बचाने के लिए नेहरू ने पंचशील की नीति लागू की, लेकिन वह भी जल्द ही दरकिनार कर दी गई। इंदिरा गांधी ने 1975 में जो आबकारी नीति बनाई उसकी भी धज्जियां उड़ रही हैं और आज बाहरी शराब की दुकानें धड़ल्ले से आदिवासी इलाकों में चल रही हैं। आदिवासी इसी तरह स्वशासन के लिए भूरिया कमेटी की रपट लागू होने का इंतजार करते रहे और जब 1996 में पेसा कानून बना तो काफी उम्मीद जगी। पेसा कानून के तहत हर ग्रामसभा को अपनी परंपरा, सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया और यह भी माना गया कि वह विवादों का निपटारा अपने पारंपरिक तरीके से कर सकेगी। पेसा कानून ने आदिवासी इलाकों में अद्भुत उत्साह का संचार किया था। नारा लगा, मावा नाटे मावा राज, यानी हमारे गांव में हमारा राज। लोकसभा से ऊंची ग्रामसभा। जगह-जगह जश्न मनाए जाने लगे और तमाम नेता और अफसर पूछने लगे कि अब हमारी क्या जरूरत रह जाएगी? पर बाद में यह कह कर उस कानून को बेकार कर दिया गया कि यह एक केंद्रीय कानून है और संविधान का हिस्सा नहीं, इसलिए इसे ज्यादा दूर तक नहीं खींचा जा सकता। विडंबना देखिए कि आज कभी एनसीटीसी, तो कभी लोकपाल के नाम पर स्वायत्तता का नारा बुलंद कर रहे राज्यों के मुख्यमंत्री कहीं भी आदिवासी स्वायत्तता की मांग नहीं कर रहे हैं। न तो उन्हें पेसा कानून के तहत स्वायत्तता-प्राप्त ग्रामसभा पसंद है, न ही पांचवीं अनुसूची का मजबूत होना। इस बारे में भारत को राज्यों का संघ बताने वाले तमाम संविधानविद भी खामोश हैं। आखिर यह कैसी स्वायत्तता है जहां देश के मूल जनों के लिए सम्मान ही नहीं है? दरअसल, हमारा संविधान आदिवासियों के सोच और उनकी संस्कृति को ध्यान में रख कर बनाया ही नहीं गया है। यही वजह है कि आजादी के पैंसठ वर्षों बाद जब देश की तमाम जातियां फल-फूल रही हैं, तब वे अपने ही देश में अस्तित्व के लिए एक प्रकार का युद्ध लड़ रहे हैं। उनका यह युद्ध बड़ी पूंजी के हित में काम कर रही अपनी सरकारों से है और इस लड़ाई में आज भले माओवादी उनके साथ हैं, लेकिन हकीकत में वे भी उनके साथ लंबी दूरी तक नहीं रहने वाले हैं। उन्होंने तो आदिवासी इलाकों को माओवादी विचारों की प्रयोगशाला बना रखा है जिसे आदिवासी न तो समझता है न ही उस पर लंबे समय तक चलना चाहता है। लेकिन इस बात को समझते हुए भी न समझने में ही हमारी राजनीति की भलाई है। क्योंकि अगर वह आदिवासियों को माओवादियों से अलग कर देगी तो संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति में सफल नहीं हो पाएगी। भारतीय संविधान और राजनीतिक प्रणाली की इसी विडंबना को महसूस करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी कहते हैं कि आदिवासियों को अपना आंबेडकर चाहिए। जाहिर-सी बात है कि अगर पहले वाले और दलितों के लिए लड़ने वाले आंबेडकर से काम चलता तो वे वैसा न कहते। उन्हें वैसा नेता और विद्वान चाहिए जो या तो संविधान को उनके लिए लिखे या फिर उसमें उनके लिए अहम स्थान बनवाए। वैसा व्यक्ति उनके भीतर का होगा या बाहर का, यह तो समय बताएगा। लेकिन उसकी निष्ठा कम से कम इस आधुनिकतावादी सभ्य समाज के प्रति नहीं होनी चाहिए। अगर वैसी होगी तो वह उनके साथ उसी तरह न्याय नहीं कर पाएगा जैसे आंबेडकर सहित हमारे स्वाधीनता संग्राम के तमाम नेता नहीं कर पाए। जाहिर है, आदिवासियों का संघर्ष उस सोच पर गहरे सवाल खड़ा करता है जो संविधान को सबसे पवित्र दस्तावेज मानते हुए उसकी रक्षा की सौगंध लेता है। देश और आदिवासी समाज के हित में हमें इसमें बदलाव करने होंगे और इसमें वेरियर एल्विन और बीडी शर्मा जैसे अध्येताओं और सिद्धांतकारों के उन विचारों का भारी योगदान होगा जो उन्होंने मुख्यधारा से हट कर आदिवासियों के साथ खडेÞ होकर तैयार किए हैं। जनसत्ता

Monday, May 7, 2012

मायावती के सर्वजन और बहुजन को एक झटके में बांट दिया अखिलेश ने

अंबरीश कुमार लखनऊ ,मई ।प्रमोशन में आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागु कराकर मुख्यमंत्री
ने मायावती के सर्वजन और बहुजन समीकरण को न सिर्फ तोड़ दिया है बल्कि अगड़ो और पिछड़ों का नया समीकरण बना दिया है जिसमे मुस्लिम भी साथ है ।इस फैसले के खिलाफ आज यहाँ दलित नेता आरके चौधरी के नेतृत्व में प्रदर्शन भी हुआ और कई अन्य दलित संगठन लामबंद भी हो रहे है । यकीनन दलितों की इस लामबंदी का फौरी फायदा मायावती को भले मिल जाए पर इसका ठीकरा भी उन्ही पर फूट रहा है । राजनैतिक दलों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट में नागराज मामले में मायावती सरकार ने क़ानूनी रूप से जो जरुरी कदम उठाए जाने थे उसकी अनदेखी करते हुए फौरी लोकप्रियता के लिए जो फैसला लिया वही आज उनके खिलाफ भी जा रहा है । जन संघर्ष मोर्चा के संयोजक अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा -आज जो हो रहा है उसके लिए कोई और नहीं सिर्फ मायावती जिम्मेदार है जिन्होंने नागराज मामले में प्रमोशन में पिछड़ों के आरक्षण के मुद्दे पर राजनैतिक फायदा उठाने के लिए फैसले की त्रुटियों को सुलझाए बिना आरक्षण लागू करा दिया । यही वजह है कि इस मामले में नुकसान भी मायावती को उठाना पड़ेगा ।दूसरी तरफ भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -अखिलेश यादव सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लागू किया है जिससे हम सहमत है । प्रमोशन में आरक्षण को लेकर समाज में जो तनाव दिख रहा है उसे समझना चाहिए । दूसरी तरफ विधि विशेषज्ञ नीलाक्षी सिंह ने कहा -उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ के उक्त फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की विशेष अनुमति याचिका और अन्य लोगों द्वारा दायर सिविल अपील पर उच्चतम न्यायालय ने 27 अप्रैल 2012 को दिए गए अपने फैसले में उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ के उक्त फैसले को बरकरार रखा है।ध्यान रखना चाहिए कि जब तक एम नागराज केस में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित नियम पूरे नहीं किए जाते तब तक पदोन्नति में आरक्षण स्थगित है, समाप्त नहीं हुआ है।यदि न्यायालय के निर्णय का अनुपालन उत्तर प्रदेश सरकार को करना है तो प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए और न देने के लिए भी उच्चतम न्यायालय की तरफ से एम नागराज केस के निर्णय में दिए गए निर्देशों को पूरा तो करना ही होगा। गौरतलब है कि प्रमोशन में आरक्षण बसपा सरकार के शासनकाल में भी सरकार पर निर्भर था और अब समाजवादी पार्टी की सरकार में भी सरकार पर ही निर्भर है। अगर वर्तमान सपा सरकार इस पूरे मामले पर मायावती सरकार के निर्देशों को सार्वजनिक करती है तो मायावती इस पूरे मामले का कोई राजनीतिक लाभ नहीं ले पाएँगी ।नही तो इस पूरे मामले में सपा सरकार खलनायक के रूप में नजर आएगी जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है और बसपा की मायावती दलितों की एकमात्र हितैषी। इस मामले का राजनैतिक पहलू दिलचस्प है । कांग्रेस जो राजस्थान में यह व्यवस्था लागू नहीं कर पाती वह यहाँ सरकार के खिलाफ खड़ी हो रही है । इस मामले में मायावती का सर्वजन अब पूरी ताकत से अखिलेश यादव के साथ खड़ा है । यह अखिलेश यादव की ताकत भी बढ़ा रहा है । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा - मामला अठारह लाख सरकारी कर्मचारियों का है जिससे करीब दो करोड़ लोग प्रभावित होंगें । इसलिए इसे बहुत मामूली मुद्दा नहीं मान सकते ।पर यह तो साफ़ है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सर्वजन को बहुजन से तोड़ दिया है ।jansatta

Wednesday, May 2, 2012

जयप्रकाश आंदोलन की जुझारू नेत्री नूतन नहीं रही

जयप्रकाश नरायण के नेतृत्त्व में हुए बिहार आंदोलन की जुझारू साथी नूतन नहीं रही । वे नूतन जो सत्तर के दशक में जब लड़कियां आंदोलन से जुड़ने के बारे में जल्दी सोचती नहीं थी तब वे जमींदार पिता के विरोध के बावजूद जयप्रकाश आंदोलन में कूदी और एक नहीं कई मोर्चों पर लड़ी । आंदोलन के साथी हेमंत के साथ जब उन्होंने सहजीवन की घोषणा की तो उस दौर के जनसत्ता में प्रभाष जोशी ने उनके सह जीवन पर सम्पादकीय लिखा और वह देश भर में चर्चित हुआ । नूतन ने पटना में अंतिम सांस ली । अंतिम लडाई वे कैंसर से लड़ रही थी । कुछ समय पहले ही मैंने अपने ब्लाग पर जो लिखा था वह एक बार फिर याद आ गया । कैंसर से जूझ रही है नूतन जयप्रकाश आंदोलन का युवा चेहरा रहीं नूतन कैंसर से जूझ रही हैं। कल ही गंगा मुक्ति आंदोलन के अग्रणी नेता रहे अनिल प्रकाश ने फोन पर बताया कि वे लखनऊ आ रहे हैं और फिर मुंबई जाएंगे। मैंने पूछा कि मुंबई में कोई बैठक है क्या, तो उनका जवाब था - नहीं, नूतन जी को कैंसर हो गया है और उनका इलाज चल रहा है। कैंसर का नाम सुनते ही सहम गया। अब यह बीमारी डराने लगी है। आलोक तोमर याद आए। पापा का भी दिल्ली में कैंसर का इलाज हो रहा है। इस बीमारी का नाम सुनते ही डर लगता है। नूतन का नाम सुनते ही तीस साल पुराना समय आँखों के सामने से घूम गया। नूतन जी से मेरी पहली मुलाकात बिहार के बोधगया आंदोलन के दौरान संपूर्ण क्रांति मंच के एक कार्यक्रम में हुई। बाद में जब पटना में जयप्रकाश नारायण की बनाई छात्र संघर्ष युवा वाहिनी के कार्यक्रमों में जाता तो कंकड़बाग़ स्थित हेमंत-नूतन के घर पर ही रुकता। हेमंत जी भी जयप्रकाश आंदोलन के अग्रणी छात्र नेताओं में रहे है जो बाद में पत्रकारिता से जुड़े। सत्तर के दशक में बिहार जैसे राज्य में एक जमींदार परिवार की किसी लड़की का समाज परिवर्तन के आंदोलन से जुड़ना और संघर्ष करना बहुत आसन नहीं था। पर नूतन ने परिवार की चिंता किए बगैर जयप्रकाश आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और तमाम लड़कियों के लिए रोल माडल बनी थी। जयप्रकाश नारायण भी नूतन के संघर्ष से प्रभावित थे। जनसत्ता अखबार में प्रभाष जोशी ने हेमंत और नूतन के सहजीवन के एलान पर संपादकीय लिखा था। नूतन की बहन किरण भी वाहिनी से जुड़ी और काफी काम किया। हेमंत, नूतन और किरण से आखिरी मुलाकात भी दिल्ली में हुई थी। हेमंत और नूतन तो आशीर्वाद एपार्टमेंट वाले घर पर मिलने आए थे तो किरण बहादुरशाह जफ़र मार्ग स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग में आई थी। उनकी बेटी को कैंसर हो गया था और इलाज के लिए दौड़ भाग कर रही थी। अस्सी के दशक में जब छात्र युवा संघर्ष वाहिनी में सक्रिय था तो कई बार चेन्नई शिविर में जाना हुआ। किरण और विजय के साथ भी एक यात्रा की। उस दौर में जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत दास मद्रास में प्रभावती देवी के नाम से गुडवान्चरी आश्रम के जरिए करीब तीस गांवों की महिलाओं और बच्चों के लिए कई कार्यक्रम कर रहे थे। आश्रम काफी बड़ा था और वाहिनी के शिविर में आने वाले पचास साठ लोग आसानी से रुक जाते थे। पर मेरा रुकना शोभाकांत जी के ५९ गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट वाले आवास पर होता था जो काफी बड़ा था और मद्रास स्टेशन के करीब था। शोभाकांत जी का घर रामनाथ गोयनका के घर के पास था और उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। जयप्रकाश नारायण और रामनाथ गोयनका के बीच की कड़ी शोभाकांत दास ही थे। दरभंगा के रहने वाले शोभाकांत दास महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई से जुड़े। अंग्रेजों के दौर में जेल गए और सरगुजा रियासत की जेल तोड़कर भाग निकले थे। बाद में वे जेल में बंद जयप्रकाश नारायण की चिट्ठी खाना देने के बहाने क्रांतिकारियों तक पहुंचाते। कमउम्र की वजह से उनपर कोई शक भी नहीं करता। उन्हीं शोभाकांत जी ने अस्सी के दशक में मद्रास से हिंदी में एक पत्रिका निकलने का प्रस्ताव हमारे सामने रखा जिस में वाहिनी के भी कई साथी जुड़ते। इसी सिलसिले में मैं, विजय और किरण के साथ मद्रास गए। शुरुआती बैठक के बाद विजय गया लौट गए थे। हम लोग पत्रिका के स्वरूप पर चिंतन कर रहे थे। तभी शोभाकांत जी ने निर्देश दिया कि मद्रास और आसपास की जगह को जानने-समझने के लिए हम लोगों को पहले घूमना चाहिए। उन्होंने अपने एकाउंटटेंट से आने जाने और रहने के इंतजाम के आलावा नकद भी दिलवाया। शुरुआत पांडिचेरी से हुई जहाँ समुंद्र तट पर बने अरविंदो आश्रम के गेस्ट हाउस में रुकने का इंतजाम किया गया था। तब पांडिचेरी का समुंद्र तट पत्थरों से घिरा नहीं था और रेत पर रात बारह बजे तक लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। पर किरण को बाहर के होटलों में बना दक्षिण भारत का खाना रास नहीं आ रहा था लिहाजा मद्रास लौट आए और शोभाकांत जी के घर का दाल भात खाकर संतुष्ट हुए। कुछ वजहों से वह पत्रिका शुरू नहीं हो पाई जबकि शोभाकांत जी हर व्यवस्था करने को तैयार थे। पिछली बार जब चेन्नई में जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर उन्होंने उसी गुडवान्चरी आश्रम में कार्यक्रम रखा तो प्रभाष जोशी के साथ मुझे भी बुलाया। प्रभाष जी स्वास्थ्य की वजह से नहीं जा पाए थे। मैं भोपाल से सीधा चेन्नई पहुंचा था। शोभाकांत जी ने फिर शिकायत की कि अगर तब पत्रिका निकल जाती तो आज वह काफी आगे पहुँच सकती थी। मैंने जवाब दिया - आप ही ने मुझे बंगलूर का अखबार छोड़कर रामनाथ गोयनका के पास भेजा था जिसके बाद मै कभी कही नहीं गया और एक्सप्रेस परिवार का ही हिस्सा बना रहा हूँ। वे निरुत्तर थे। शोभाकांत जी उस दौर के ऐसे गाँधीवादी नेताओं में बचे है जो आज भी अपने व्यवसाय की आमदनी का बड़ा हिस्सा आम लोगों पर खर्च करते हैं। वाहिनी के किसी भी साथी की बीमारी या किसी तरह की अन्य समस्या पर वे आर्थिक मदद करते रहे हैं। चेन्नई में उनके बिहार भवन में ज्यादातर वे ही लोग रुकते है जो बिहार से इलाज के लिए चेन्नई आते हैं। इन में जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े लोगों की संख्या ज्यादा होती है। आज जब नूतन को कैंसर होने की जानकारी मिली तो अनिल प्रकाश से यही पूछा कि इलाज में पैसे की कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है, जवाब था उनके घर के लोग काफी मदद कर रहे है और हेमंत भी कुछ इंतजाम किए है। जयप्रकाश आंदोलन से निकले ज्यादातर लोग आज सत्ता का सुख भोग रहे हैं पर एक बड़ी संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने अपना जीवन जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर समाज को समर्पित कर दिया। नूतन जी ऐसे ही क्रांतिकारी महिला हैं जिनसे प्रेरणा लेकर हम जैसे तमाम लोग बदलाव की राजनीति से जुड़े थे। यही कामना है कि वे जल्द से जल्द स्वस्थ हो।

फिर खड़ी हुई हारी हुई मुस्लिम पार्टियाँ

अंबरीश कुमार लखनऊ , मई ।मुस्लिम राजनीति के सहारे खड़ी हुई पार्टियों विधान सभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद अब फिर से खडी होने की कोशिश में जुट गई है । यह कोशिश कितनी कामयाब होगी यह कहना फिलहाल मुश्किल है क्योकि उनमे विवाद और टकराव का नया दौर भी शुरू हो गया है । इन पार्टियों में
तक रही है । इनमे पीस पार्टी ने एक और टूट के बाद दावा किया है कि वह उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को नए सिरे से लामबंद करने जा रही है । उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पांचवें नंबर की पार्टी बनकर उभरी पीस पार्टी इससे पहले पांच बार टूट चुकी है और दो दिन पहले एक और टूट का एलान किया गया । इस बार पार्टी के प्रवक्ता युसूफ अंसारी ने पार्टी तोड़ने का श्रेय लिया और दावा किया कि पीस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और प्रदेश कार्यकारिणी के कई सदस्यों के अलावा 25 मौजूदा ज़िलाध्यक्ष और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले 50 से ज़्यादा उम्मीदवारों के साथ-साथ पार्टी का बड़ा हिस्सा उनके साथ है। जिसे देखते हुए नई पार्टी के ऐलान के लिए जल्द ही लखनऊ मे बैठक बुलाए जाने की संभावना है। दूसरी तरफ उलेमा कौंसिल बाटला हाउस कांड के बाद उभरी और २००९ के लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में वोट लेकर अपनी ताकत दिखाई थी वह अब हाशिए पर जा रही है । उलेमा कौंसिल भी निकाय चुनाव से एक बार फिर ताकत दिखाने की कोशिjansattaश में है ।पर इस दल में भी अब पहले जैसी एकजुटता नहीं रह गई है । पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डाक्टर अब्दुल मन्नान ने इस टूट को हास्यास्पद बताते हुए दावा किया कि अब छठी बार पार्टी तोड़ी जा रही है । दो बार कांग्रेस हमारी पार्टी तोड़ चुकी है तो एक बार समाजवादी पार्टी पर हम वही है जहाँ पहले थे । खास बात यह है कि पार्टी के अध्यक्ष डाक्टर अयूब अंसारी है और हर बार पार्टी तोड़ने का काम अंसारी बिरादरी के नेताओं ने ही किया है । पर पार्टी निकाय चुनाव की तैयारी में जुट रही है और उसका दावा है कि वह चालीस से पचास सीट जीतेगी क्योकि मायावती पहले ही इन चुनावों से दूर हो चुकी है और अब मुलायम सिंह भी इतनी बड़ी जीत पर कोई बट्टा न लगे इसलिए मैदान में नहीं उतरने वाले । पर समाजवादी पार्टी सरकार अपने मुस्लिम जनाधार को बरक़रार रखने के लिए भी पूरी तरह सचेत है और उसका एजंडा भी तैयार हो रहा है ।समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -पार्टी ने मुसलमानों के हक़ में जितने वायदे किए थे सब पूरे होंगे और बजट में इस सिलसिले में विशेष प्रावधान भी किया जा रहा है । प्रदेश का मुसलमान किसके साथ खड़ा है यह लोग चुनाव में देख चुके है । गौरतलब है कि विधान सभा चुनाव में पीस पार्टी और उलेमा कौंसिल ने जिस तरह बढ़ चढ़ कर दावे किए थे वे सब ध्वस्त हो गए और मुसलमानों का बड़ा हिस्सा दोनों मुस्लिम पार्टियों उलेमा काउंसिल और पीस पार्टी को किनारे लगाते हुए समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा हुआ । हाल ही में जब अन्ना हजारे ने देवबंद के मुस्लिम धर्म गुरु से मिलने का प्रयास किया तो उन्हें टका सा जवाब मिला था । सूत्रों के मुताबिक एक मुस्लिम धर्म गुरु ने कहा था -उत्तर प्रदेश का मुसलमान बहुत खुश है अखिलेश यादव सरकार से और पहली बार इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम विधायक जीत कर आए है । इसलिए वे ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते जिसका गलत संदेश जाए । इससे साफ़ है कि प्रदेश की मुस्लिम राजनीति को संचालित करने वाली ताकते समाजवादी पार्टी के साथ मजबूती से खड़ी है । जौनपुर से आरिफ हुसैनी के मुताबिक संजरपुर के नौजवानों की लडाई लड़ने के लिए मौलाना आमिर रशादी ने उलेमा कौंसिल का गठन किया था । पूर्वांचल के लोगो को ये उम्मीद थी की ये संगठन मुस्लिम हितो की रक्षा के लिए अवाम बेकसूर लोगो की लडाई लडेगा , परन्तु उलेमा कौंसिल ने इस लडाई को सियासी दलों की तरह मात्र एक मुद्दा बना कर चुनावी रंग दे दिया । लोकसभा चुनाव में तो मुसलमानों ने उलेमा कौंसिल का साथ बढ़ चढ़ कर दिया और कई सीटो पर अपनी ताकत का एहसास करादिया लेकिन किसी भी सीट पर जीत का सेहरा नहीं बांध सके । लोकसभा चुनाव के बाद मौलाना आमिर रशादी ने बाटला हाउस की लडाई को केवल श्रधांजलि सभा तक ही सिमित कर दिया । ये देख यहाँ की जनता ने विधानसभा चुनाव में मौलाना आमिर रशादी के खिलाफ मनं बनाकर उलेमा कौंसिल के प्रत्याशियों को बुरी तरह हराया । अब अपना वजूद कायम रखने के लिए उलेमा कौंसिल के नेताओ ने निकाय चुनाव में उतरने का फैसला किया है ।जनसत्ता