Saturday, June 19, 2021

सौ साल पुराना एक कुक हाउस !

अंबरीश कुमार
ये कुक हाउस है .अंग्रेज इसे कुक हाउस ही कहते थे .चौकोर चिमनी जैसा निर्माण पहाड़ी पत्थरों का है .साथ में एक और छोटा सा निर्माण बाद का हुआ होगा .यह सब रसोई का हिस्सा था .अब खाना बनाने का काम नए हिस्से में ही होता है .पुराने कुक हाउस की रसोई में संभवतः लकड़ी जलाई जाती रही है इसलिए बड़ी चिमनी बनाई गई होगी .दरअसल इस रसोई में पीने और नहाने का पानी भी गर्म होता था क्योंकि तब बिजली तो होती नहीं थी और यह कुमायूं का बर्फीला इलाका रहा है .दरअसल यह सौ साल से ज्यादा पुराने रामगढ़ के डाक बंगले की रसोई है .रामगढ़ का डाक बंगला 1890 का बना है .जंगल के बीच .जंगल तो आज भी है आगे भी पीछे भी तो . गागर की पहाड़ियों से उतरे तो कई मोड़ होते हुए लगातार नीचे उतरना पड़ता है .मल्ला रामगढ़ की बाजार से ठीक पहले एक रास्ता जो नीचे की तरफ जाता है उस पर पीडब्लूडी का बदरंग सा बोर्ड लगा हुआ है जिस पर लिखा था डाक बंगला रोड .यह सड़क सिंधिया घराने के पुराने शिकारगाह से लगती हुई करीब एक किलोमीटर चलती है .आगे घाटी में उतर जाती है .सड़क के दोनों तरफ देवदार के दरख्त थे .अब तो इनकी संख्या बहुत कम हो गई है .पर पच्चीस साल पहले यह सड़क जंगल से गुजरती थी . उमागढ़ मोड़ के पास से जो बरसाती नदी बहती है उसकी आवाज से लग रहा था कि नदी साथ साथ ही चल रही है .तब इस रास्ते पर आबादी नहीं थी .जो घर भी थे वे पहाड़ी के ऊपर और सड़क से दूर थे .इसलिए पूरा इलाका जंगल जैसा ही था .महेशखान के साथ ही जो जंगल शुरू होता है वह सतबुंगा होते हुए मुक्तेश्वर तक चला जाता है .यह वह इलाका है जहां धूप भी खुलकर खिलती है तो पानी भी तबियत से बरसता है .बर्फ के मौसम में रास्ता हफ्ता भर तक बंद हो सकता है . बताया गया कि सौ साल पहले जब घोड़े से अंग्रेज अफसर आते थे तो शिकार यहीं मिल जाता था .आज भी तीतर ,हिरन ,भालू ,तेंदुआ ,खरगोश ,जंगली सूअर ,जंगली मुर्गा आदि रात में आते रहते हैं .करीब ढाई दशक से कुछ पहले अपना भी इसमें रुकना हुआ था .नैनीताल से शायद पांच रूपये की रसीद कटी थी .जून का आखिरी हफ्ता था जब इस डाक बंगले में पहुंचे थे .बरसात में अंधेरा घिर चुका था .डाक बंगला में दो कमरे और डाइनिंग हाल था .खिड़की दरवाजे के कुछ सीसे टूटे हुए थे जिन्हें गत्ते से ढका गया था .सीलन महसूस हो रही थी ही क्योंकि काफी दिन से यह बंद था पर चादर और तकिए का कवर धुला हुआ मिल गया था .बरसात से ठंढ बढ़ गई थी इसलिए फायर प्लेस में बांज की लकड़ी का एक बड़ा लठ्ठा डाल कर जला दिया गया था .बिजली नहीं थी .लैम्प से काम चाल था .हम लोग कुछ देर इसके बरामदे में बैठे पर कुछ ठंढ महसूस हुई तो भीतर कमरे में चले आये .कमरा पर्याप्त गर्म हो चुका था इसलिए भीतर बैठना ही ठीक लगा . तब मल्ला में बाजार जैसा कुछ नहीं था .भट्ट जी का ढाबा और दो तीन दुकाने जो शाम होते होते बंद हो जाती थी .ड्राइवर समेत हम तीन लोग थे .दो सामिष और एक निरामिष .चौकीदार को बुलाया गया .जंगल में जाते समय कुछ राशन पानी हम लेकर चलते रहे हैं .खासकर पूर्वांचल का काला नमक चावल या फिर शक्कर चीनी चावल दो किलो ,दाल अरहर आधा एक किलो .आलू टमाटर और प्याज के साथ चाय पत्ती ,चीनी और पावडर वाला दूध भी .बेंत की एक डोलची इसी सामान के लिए होती थी .कुछ फल बिस्कुट आदि के साथ .दरअसल जंगल में ज्यादातर डाक बंगले बाजार से दूर होते हैं और ताज़ी सब्जी आदि भी उनके पास कई बार नहीं होती . जंगल जंगल घूमते हुए जो अनुभव हुए उसके बाद कोई जोखम नहीं लिया जाता है .फिर यह तो जो दो तीन दूकाने थी भी उससे दो तीन मील दूर ही रहा होगा .फिर बरसात में पहाड़ी चढ़ कर कोई जल्दी कहीं जाता भी नहीं . चौकीदार आया तो ढेर सारी खुबानी एक प्लेट में सजा कर लाया .पास पड़ोस में बड़े बड़े बाग़ भी थे .आडू खुबानी ,नाशपाती और बबूगोशा के .कुछ बगीचे सेब के भी .किंग डेविड ,फेनी और गोल्डन डेलिशियस प्रजाति के .रात के खाने के लिए पूछा तो बताया दल चावल रोटी बन जाएगी .हरी सब्जी अगर मिल गई तो ले आएगा .बगल में सात आठ घर का गांव है जिसमें लोग अपने लिए सब्जी लगते हैं और देसी मुर्गी भी पालते हैं .जो आसानी से मिल जाती है .इस डाक बंगले के आगे पहाड़ की ढलान थी तो पीछे घाटी में दूर तक जाता जंगल .परिंदों की तरह तरह की आवाज अच्छी लग रही थी .सामने जो सड़क घूमती हुई नीचे को उतर रही थी वह तल्ला रामगढ़ तक जाती फिर ऊपर नथुआखान की तरफ बढ़ जाती . चाय आ चुकी थी जिससे कुछ फुर्ती भी आई .बाहर जाने का सवाल नहीं था क्योंकि बरसात जारी थी .चौकीदार गांव की तरफ चला गया था रात के खाने का इंतजाम करने .अब न कोई आने वाला था न जाने वाला .इसलिए डाक बंगला देखने लगे और पीछे के बरामदे से कुक हाउस को देखने निकले .बरामदे में दरवाले की खिड़की का सीसा टूटा हुआ था जिससे ठंढी हवा भीतर आ रही थी .पर पत्थर के इस कुक हाउस को देख कर हैरानी हो रही थी .फिलहाल इससे लगे बरामदे में बड़ा भगोना चूल्हे पर चढ़ा हुआ था जिसमें पानी गर्म हो रहा था .

माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई यहीं से शुरू होती है

अंबरीश कुमार
माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई यहीं से शुरू होती है इसी वजह से लुक्ला एयरपोर्ट को हिमालय का प्रवेश द्वार कहा जाता है.लेकिन अगर मौसम साफ़ हो तभी .यह संयोग जल्दी होता नहीं है .अक्सर तेज हवाओं के साथ बरसात रास्ता रोक लेती है पर्वतारोहियों का .ऊपर अगर बर्फ गिर जाए तो कड़ाके की ठंढ भी .इसका अहसास इस हवाई अड्डे पर जहाज का दरवाजा खुलते ही होता है .बहुत ही खतरनाक माना जाने वाला यह हवाई अड्डा वर्ष 1960 में बनना शुरू हुआ था . हिमालय के प्रवेश द्वार पर बसा यह एयरपोर्ट विश्व का सबसे खतरनाक एयरपोर्ट है. इसका रनवे 20 मीटर चौड़ा और सिर्फ 460 मीटर लंबा है .रनवे के जो अंतरराष्ट्रीय मानक है उसके मुकाबले यह बहुत ही ज्यादा करीब 10 गुना छोटा है .पर यह तो पर्वतारोही सर एडमंड हिलेरी की जिद थी जो यह बन गया वर्ना यह बहुत मुश्किल काम था .पहले तो समस्या जमीन की थी .आसपासके किसान इसके लिए अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते थे .फिर उबड़ खाबड़ जमीन को समतल करना आसन भी नहीं था .यहाँ तक वे मशीन भी नहीं आ सकती थी जिससे जमीन को समतल कर रनवे का रूप दिया जाए .पर एडमंड हिलेरी ने हिम्मत नहीं छोड़ी और आसपास के शेरपाओं से 2,650 अमेरिकी डॉलर में जमीन खरीदी.फिर उन्ही शेरपाओं को पैसा और शराब देकर काम कराया .काफी मशक्कत के बाद यह रनवे बना . और यह रनवे वर्ष 2001 तक कच्चा ही रहा बाद में पक्का रनवे बना .वह भी डामर वाला . वर्ष 2008 में इसका नाम बदलकर तेनज़िंग हिलेरी एयरपोर्ट कर दिया गया. दरअसल माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई यहीं से शुरू होती है इसलिए इस एयरपोर्ट पर रोज हेलीकॉप्टर और छोटे हवाई जहाज लैंड करते हैं.दरअसल इस जगह तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं है है इसलिए हर तरह का सामान छोटे जहाज से ही पहुंचता है .हवाई अड्डे का रनवे केवल हेलीकॉप्टरों और छोटे, फिक्स्ड-विंग, शॉर्ट-टेकऑफ़-एंड-लैंडिंग विमानों जैसे डी हैविलैंड कनाडा डीएचसी -6 ट्विन ओटर, डोर्नियर 228, एल -410 टर्बोलेट और पिलाटस पीसी -6 टर्बो के लिए ही ठीक माना जाता है . हवाई अड्डे की ऊंचाई 9,334 फीट (2,845 मीटर) है.पर रोचक तथ्य यह है कि यहाँ कंट्रोल टावर या राडार आदि नहीं है .आप सिर्फ पायलट के भरोसे ही रहते हैं .अगर जरा सी भी गफलत हुई तो छोटा सा जहाज दस हजार फुट नीचे चला जायेगा .और यह होता भी है .कई दुर्घटना हो चुकी है .फिर करीब अस्सी उड़ाने यहाँ से रोज संचालित होती हैं .इसके बावजूद यह दुनिया के दस सबसे ख़राब और जोखम भरे हवाई अड्डों में शामिल है .काठमांडू से अगर आप लुक्ला की तरफ उड़े तो हो सकता है मौसम साफ़ हो पर लुक्ला में तेज बरसात का भी सामना करना पड़ सकता है .यहां का मौसम तेजी से बदलता है .तेज हवाओं के साथ बरसात में जहाज हिलता डुलता और डराता हुआ उड़ता है . वैसे भी छोटे जहाज पर मौसम का असर कुछ ज्यादा ही होता है .नब्बे के दशक में पूर्वोत्तर के दो तीन दौरे हुए .भारतीय वायुसेना का पुराना एवरो विमान जो एयर पाकेट में आते ही जोर जोर से आवाज करते हुए जब ऊपर नीचे होने लगा तो जान सूख गई .कान पकड़ा कि अब छोटे जहाज से यात्रा नहीं करूँगा पर ऐसा हुआ नहीं और फिर दर्जनों यात्रा छोटे विमानों से हुई .नेपाल में भी . पर नेपाल की हवाई यात्राओं का अनुभव भी अदभुत रहा है .कुछ साल पहले पीपुल्स सार्क की बैठक में काठमांडू गया . तब सार्क सम्मलेन में भाग लेने नेपाल आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से इस बार नेपाल की राजधानी काठमांडू में सुरक्षा के कुछ ज्यादा ही कड़े इंतजाम नजर आए जिसके चलते लौटते समय त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर ज्यादा ही समय बैठना पड़ा तो पशुपतिनाथ मंदिर भी घूम लिए . नेपाल चैंबर में डाक्टर भीमराव अंबेडकर की एक पुस्तक का विमोचन हुआ और उसके बाद दलित मुद्दों पर हो रही चर्चा में बैठे थे .दूसरे सत्र की शुरुआत हो चुकी थी तभी ओवैश ने बताया कि ढाई बजे से शहर के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे और कब खुलेंगे कोई पता नहीं .यह सब एक दो दिन से चल रहा था और बहुत सी घरेलू उड़ाने रद्द भी की जा चुकी थी .यह जानकारी ढाई बजने से ठीक पांच मिनट पहले मिली तो होटल से सामान उठा कर टैक्सी वाले से पूछा कितनी देर लगेगी हवाई अड्डे तक पहुँचने में तो उसका जवाब था बीस मिनट से लेकर तीन घंटे तक .अपनी उड़ान साढ़े छह बजे की थी और तीन घंटे पहले पहुँचने का निर्देश दिया गया था .साथ में दीपक थे जो भक्तपुर में एक जनसभा को संबोधित कर आ रहे थे और उन्हें नेपालगंज की बस पकडनी थी तो यह तय हुआ उनके साथ ही टैक्सी से निकला जाए . रास्ता बंद होने के बावजूद ड्राइवर भीतर के रास्ते से करीब आधे घंटे में ही एयरपोर्ट पहुँचने वाला था तभी उसने बताया कि बगल में पशुपतिनाथ मंदिर है .समय था इसलिए तय हुआ मंदिर देखते हुए चलेंगे.मंदिर में एक दो फोटो लेने का प्रयास किया तो सुरक्षा गार्डों ने रोक दिया.पर मंदिर का ज्यादातर हिस्सा देख लिया गया जो पहले भी देख चूका हूँ .पीछे बहने वाली बागमती अब और प्रदूषित हो चुकी है.बहरहाल मंदिर से कुछ ही देर में हवाई अड्डे पहुँच गए जो भले ही अंतरराष्ट्रीय हो पर भारत के छोटे से छोटे हवाई अड्डे से भी ज्यादा बदहाल था.अपने यहाँ हैदराबाद मुंबई और दिल्ली का टी थ्री टर्मिनल तो बहुत दूर की बाद है. आवर्जन के बाद सुरक्षा जांच में देखा की नेपाली लोगों की लाइन भी अलग है और उनका जूता भी उतरवा कर एक्सरे मशीन से गुजारा जा रहा था .काठमांडू के बड़े होटलों के कैसीनो में नेपालियों का जाना पहले से वर्जित है .यह सब बहुत ही हैरान करने वाला लगा जहां एक छोटी सी क्रांति के बाद करीब सात सौ साल की राजशाही ख़त्म हो गई हो और हिंदू राष्ट्र पर लाल झंडा लहराने लगा हो .

देवदार के जंगल में एक अंग्रेज का प्रेत !

अंबरीश कुमार
यह जंगलात विभाग के डीएफओ का पुराना बंगला है .वर्ष 1888 में बना था .दो मंजिला हरे रंग से रंगी टिन की छत वाला .देखने में लगता था कि दो भवनों को जोड़ कर बनाया गया है .पत्थर का बना हुआ .भीतर देवदार की लकड़ी का काम है .चारो तरफ भी देवदार के ही दरख्त हैं .लकड़ी की सीढ़ी चढ़ कर पहली मंजिल पर पहुंचे तो रोशनदान से आती रौशनी से भीतर अंधेरा नहीं लगता .यह इमारत दूर से सैनिकों की पुरानी बैरक जैसा .वीराने में जंगल से लगा हुआ .बताते हैं इसमें एक अंग्रेज अफसर का प्रेत घूमता रहता है .पता नहीं भूत प्रेत होते भी हैं या किस्से गढ़ दिए जाते हैं .लेकिन इसी वजह से कई अफसर इस बंगले को छोड़ गए थे यह भी बताया गया .वैसे भी आसपास का माहौल बहुत ही भुतहा नजर आ रहा था .ऐसे में भूत प्रेत के किस्से और डरा ही देते हैं.यह किस्सा सुनाया डाक बंगला के चौकीदार ने .वैसे वह खुद भी जब अंधेरी रात में बगल की पहाड़ी से एक हाथ में लालटेन और दूसरे में बड़ा सा टिफिन लेकर उतरता तो किसी प्रेत की छाया जैसा ही दिखता .फिर वह डाइनिंग टेबल पर खाना लगाता और साथ किस्से भी सुनाता .रख रखाव तो इस डाक बंगला का बहुत अच्छा नहीं था पर जिस जगह यह बना था वह लोकेशन बहुत अच्छी लगी .आधा बंगला स्कूल को दे दिया गया .वजह यहां निर्माण पर रोक थी और कोई ऐसा भवन भी नहीं था जहां बच्चे पढने जाते .जाड़ों में यह पूरा इलाका बर्फ से ढक जाता .पर ठंढ तो साल भर ही रहती .हमें भी एडवेंचर का शौक ठहरा सो बहुत मशक्कत के बाद यहां पहुंचे थे .कलेक्टर से परमिट बनवाया गया था वर्ना आम सैलानी यहां जल्दी नहीं आते .और आते भी तो लौट जाते क्योंकि ठहरने की कोई जगह ही नहीं थी .परमिट की वजह से अपना इंतजाम हो गया था . पर यहां पहुंचने के बाद भूत प्रेत के किस्से सुन डर भी लगा .वैसे भी भूत प्रेत लगता है पहाड़ पर ही ज्यादा बचे हैं मैदान से तो अब गायब होते जा रहे हैं .चकराता में अंग्रेजों की सैनिक छावनी 1860 में बनी थी .इसी वजह से इस इलाके में आम लोगों का आना जाना कम ही रहा . जब बस से उतरे तो शाम भीगी हुई थी .सामने देवदार के दरख्तों से घिरी कोई इमारत थी .यह कोई बस अड्डा जैसी जगह भी नहीं थी .अपने को जाना डाक बंगला तक था .पर जंगल के साथ साथ जा रही सड़क सुनसान थी .इधर उधर देखा तो कुछ दूर पर एक बुजुर्ग दिखे .उनसे पूछा कि डाक बंगला किधर है तो जवाब दिया ,इसी सड़क पर करीब एक किलोमीटर चले जायें एक ही भवन दाहिने तरफ दिखेगा वही डाक बंगला है . ठंढ भी बढ़ रही थी और अंधेरा भी घिर रहा था .डर बरसात का था क्योंकि छाता तो लेकर आये ही नहीं थे .चकराता बस से गए थे और ज्यादा जानकारी नहीं थी .रास्ता पूछते पूछते डाक बंगला की तरफ चले तो घने देवदार की जंगलों में एक किलोमीटर से भी ज्यादा चलने पर एक पुराना बंगला नजर आया जो बंद था .बरामदे की कुर्सियों पर बैठे तभी एक बुजुर्ग सामने आए जो उसके चौकीदार और खानसामा सभी थे .खैर चाय और रात के खाने के बारे में पूछा तो जवाब मिला ,बाजार से सामान लाना होगा तभी कुछ बन पाएगा और बाजार बंद होने वाला है .बाजार क्या था दो चार दूकान जो आसपास के गांव वालों के लिए राशन से लेकर सब्जी भाजी रखते थे .अंडा मुर्गी भी मिल जाता .पर अपने लिए वह दाल चावल सब्जी रोटी के इंतजाम में लग गया .आसपास के खेतों की सब्जी मिल जाती थी .रात के खाने में सब कुछ था .डाक बंगला के रसोइये वैसे भी बहुत हुनरमंद होते हैं .और इस डाक बंगले में तो दूँ स्कूल में पढने वाले राजीव गांधी आते तो गांधी परिवार के सदस्य भी .इसलिए इंतजाम चाक चौबंद रखा जाता . नब्बे के दशक की शुरुआत थी .घूमने फिरने के शौक के चलते चकराता का कार्यक्रम बना .जनसत्ता अख़बार की कवरेज के चलते आना जाना लगा रहता था .इसके चलते अपना घूमना फिरना काफी होता था और सुविधा भी मिल जाती थी .चकराता एक अछूती सी जगह थी तो सोचा घूमने के साथ एक यात्रा वृतांत भी लिख दिया जाएगा .जनसत्ता ब्यूरो के साथी अनिल बंसल अक्सर कहते थे कि मै जहां भी घूमने जाता हूं लौटकर उसके बारे में रविवारी जनसत्ता में लिख कर यात्रा का पैसा भी वसूल लेता हूं .कुछ हद तक यह सही माना जा सकता है क्योंकि यात्रा में बहुत ज्यादा खर्च न हो इसलिए डाक बंगला में ज्यादा रुकना होता था .चकराता में रुकने के लिए तब परमिट की जरुरत पड़ती .हरिद्वार स्थित अपने संवाददाता सुनील दत पांडेय ने परमिट वगैरह बनवा दिया क्योकि सारा इलाका सेना के अधीन है . पर यहां आने जाने का कोई साधन नहीं था .बस और फिर पैदल ही चलना पड़ा .चकराता का रास्ता तब वन वे था और कई जगह खाई देख दर भी लगता था .खैर शाम को पहुंचे तो देवदार के घने जंगल ,बर्फ से लड़ी पहाड़ियों को देख सम्मोहित थे .हरियाली ऎसी की आखे बंद होने का नाम न ले .यहाँ से शिमला का भी रास्ता है और बहुत ज्यादा दूर भी नहीं है .चकराता में तब कोई आबादी नहीं थी और न ही कोई होटल क्योकि यह इलाका सेना के अधीन है और कोई निर्माण नहीं हो सकता था .आवाज के नाम पर हवाओं से हिलते दरख्त के पत्तों की आवाज या फिर सड़क पर परेड करते सैनिकों के बूटों की आवाज .रात के अंधेरे में यह सन्नाटा डराता भी था .खैर हम डाक बंगला तक पहुंच ही गए . नाम नहीं याद पर चौकीदार ने डाक बंगले का एक सूट खोल दिया जो ठंडा और सीलन भरा था जिसके कोने में बने फायर प्लेस में रखी लकड़ी को जलाने के साथ मेरे और सविता के लिए दो कप दार्जलिंग वाली चाय भी ले आया तो कुछ रहत मिली .ठंड और बढ़ गई थी . बाहर बरसात और धुंध से ज्यादा दूर दिख भी नहीं रहा था .यह डाक बंगला अंग्रेजों के ज़माने का था जिसका एक हिस्सा स्कूल में तब्दील हो चुका था .बाद में चौकीदार ने बताया वह भी उसी दौर से यहाँ पर है और जब राजीव गांधी देहरादून में पढ़ते थे तो छुट्टियों में यही आते और रुकते थे .डाक बंगले में बिजली नहीं थी और एक पुराने लैम्प की रौशनी में खाना खाते हुए चौकीदार से कुछ पुराने किस्से सुन रहे थे .और उस वीराने में कुछ था भी नहीं बाहर बरसात के चलते अगर निकलते भी तो घना अंधेरा .तेज हवा के साथ बरसात की तेज बूंदे टिन की छत पर गिरकर कर्कश आवाज कर रही थी .कमरे के भीतर एक कोने में भी पानी की बूंदे अपना रास्ता तलाश रही थी .चौकीदार ने भी कुछ ऐसे किस्से सुनाये कि उत्सुकता और बढ़ गई . खाने के बाद कब नींद आई पता नहीं चला .रात में बरसात और तेज हुई .अचानक खिड़की का एक पल्ला खुल गया और तेज हवा का झोंका आया तो नींद खुल गई .अगर कभी पहाड़ पर टिन की छत वाली किसी इमारत में रुके हो तो अनुभव होगा .लगातार सरसराहट की आवाज आती रहती है जैसे बरसात हो रही हो ऊपर .दरअसल यह टिन और लकड़ी के बीच हवा के दबाव की वजह से होता है .यह पहले पता नहीं था जिससे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था .खिड़की तक गया . बाहर देवदार का दरख्त किसी आकृति की तरह नजर आ रहा था .खिड़की बंद कर दी पर नींद गायब थी .जंगलात विभाग के उस अंग्रेज अफसर के बारे में सोच रहा था जिसकी आत्मा बंगले में भटकती रहती है .पता नहीं कबतक ये आत्मा भटकेगी .

ऐसा भी क्या बरसना !

ऐसा भी क्या बरसना ! अंबरीश कुमार
गांव में तीन दिन से लगातार बरसात .तीस घंटे से एक मिनट के लिए भी नहीं थमी यह बरसात .बाहर निकलना तो दूर बरामदे से भी बाहर जाना मुश्किल .बरसात कभी तेज होती है तो कभी धीमी होती है पर रुक नहीं रही .सब जगह पानी पानी .बिजली भी चली गई है .भवाली की तरफ जाना था पर तीन दिन से टलता ही जा रहा है .जाड़ों में इस बार न बर्फ गिरी न ढंग की बरसात हुई .इसलिए यह बरसात जरुरी भी थी .पहाड़ की बरसात हो या मैदान की आपको बांध देती है .पर बरसात के सैलानी भी कुछ अलग किस्म के होते हैं .लखनऊ के एक साथी आ रहे हैं .पहले उन्होंने महेशखान के जंगल में डाक बंगले का एक सूट बुक कराया पर प्रयास असफल रहा .बताया गया डाक बंगला दस पंद्रह दिन तक बुक है .किलबरी का जंगलात विभाग का डाक बंगला मिल सकता है .बरसात में कच्चे रास्ते वाला महेशखान का डाक बंगला भी न मिले तो समझ लेना चाहिए कि बरसात के शौकीन सैलानी भी काफी संख्या में हैं . मैदान में ऐसी बरसात अब कम ही होती है .साठ के दशक से सत्तर के दशक के बीच गांव से लेकर मुंबई जैसे महानगर की बरसात देखी है .गर्मी की छुट्टियों में गांव आते तो आंधी पानी सब मिलता .बरसात बरसात में गोरखपुर के बडहल गंज से एक डेढ़ मील की दूरी पर गांव जाना बहुत अच्छा लगता था .रानी का बाग़ से होते हुए .खेतों में पानी भरा रहता था .बाग़ में आम की देर से पकने वाली प्रजातियाँ के साथ जामुन का आकर्षण भी होता .शाम होते ही मेढकों की आवाज गूंजने लगती .गांव में बिजली नहीं आई थी लालटेन और ढिबरी का दौर थे .रात के खाने में भूसे से निकाला गया पका हुआ आम और रोटी .रोटी कुछ अलग होती क्योंकि जौ मिली हुई होती . गांव की बरसात में मिटटी पर नंगे पैर चलना होता तो मुंबई में गम बूट पहन कर . याद आती है साठ के दशक की मुंबई की वह बरसात जिसमें स्कूल से भीगते हुए लौटना होता .मुंबई के चेंबूर में भाभा एटामिक एनर्जी की कालोनी में पहली मंजिल पर फ़्लैट था .पापा भाभा एटामिक एनर्जी में इंजीनियर थे और सेंटर की बस से सुबह दफ्तर जाते थे .पर उससे पहले मुझे स्कूल भेज दिया जाता था या यूं कहें तो ठेल दिया जाता .बरसात में .मुंबई की बरसात में सिर्फ छाते से काम कहां चलता .घर से स्कूल के रास्ते में दो ठीहे पड़ते जिसे लेकर उत्सुकता रहती .एक राजकपूर का देवनार काटेज तो दूसरा आरके स्टूडियो .स्टूडियों से ही कुछ दूर पर गोल्फ का मैदान होता था .रेन कोट ,गम बूट और छोटा सा छाता भी .सर पर कैप .डकबैक की बरसाती में जेब भी होती और घुटने से नीचे तक कवर कर देती .गम बूट के बिना तो सड़क पर चल ही नहीं सकते क्योंकि करीब आधा फुट तक पानी वेग से बहता रहता .पर अपने को न तो रेन कोट भाता न छाता .और कुछ अपने और साथी थे शरारती किस्म के .हम सब लौटते तो पूरी तरह भीगे हुए .तब की मुंबई कोठियों और चाल वाली थी .कोठियों के आगे दीवार की जगह हैज होती .संभवतः राज कपूर के देवनार काटेज में मेहदी जैसी कोई हैज ही थी .लताएँ और फूल भी तरह तरह के .बरसात के मौसम में जितने रंगों की गुलमेंहदी मैंने मुंबई में लगी देखी वैसी कहीं और नहीं मिलती .स्कूल से लौटते समय गुलमेहदी के कुछ पौधे उखाड़ लाते .इन्हें एक ग्लास स्याही डाल कर छोड़ देते और कुछ देर में गुलमेहदी के पारदर्शी तने को रंग बदलते देखते .ये सब तबके खेल थे . अब वह बरसात नहीं होती जों सत्तर और अस्सी के दशक में होती थी .तब जो बरसात होती थी वह जमकर होती थी .कई दिन तक .रेनी डे का दौर आता था .लखनऊ में एक बार हफ्ते भर तक रेनी डे रहा क्योंकि बरसात थम ही नहीं रही थी .अब तो शायद रेनी डे की छुट्टी होती ही नहीं होगी .फिर समुद्र तट पर डरा देने वाली बरसात भी देखी तो वह तो उस तूफ़ान का भी इंतजार किया जिससे बचने की उम्मीद छोड़ दी गई थी .हम महाबलीपुरम के बीच रिसार्ट पर अकेले थे .तूफ़ान लेट होता जा रहा था और अंत में वह मद्रास से टकराने की बजाये आंध्र के नेल्लोर से टकराया .हम लोग बच गए .पर ऐसी भीषण बरसात और ऐसा बिगड़ा हुआ समुद्र कभी नहीं देखा था .अपना काटेज ठीक समुद्र के सामने था और सामने की दीवार सीसे की .लगता समुद्र की लहरे बिस्तर तक पहुंच जाएँगी .न फोन न बिजली .रिशेप्शन तक जाना भी मुश्किल .

Sunday, October 27, 2019

महाबलीपुरम के समुद्र तट पर कमल सक्सेना का वह काला चश्मा !

अंबरीश कुमार बात काफी पुरानी है .साल याद नहीं .हम लोग बंगलूर ,मैसूर ,ऊटी ,महाबलीपुरम जैसी जगह घूमने गए थे .मै ,अपूर्व ,कमल सक्सेना ,रवि जुनेजा और बाबू सिंघा थे .गजब का अनुभव हुआ उस दौरे में .फस्ट क्लास का डब्बा जो लखनऊ से चला वह झांसी में उस ट्रेन से काट कर अलग कर दिया गया .फिर कुछ घंटे बाद उसे किसी दूसरी ट्रेन में जोड़ दिया गया .हम विजयवाड़ा पहुंचे तो तो फिर .फस्ट क्लास का यह डिब्बा काट दिया गया और बताया गया दस घंटे बाद यह किसी दूसरी ट्रेन में जोड़ा जायेगा तबतक यह डिब्बा यार्ड में खड़ा होगा .हम लोग अपने केबिन में ताला बंद कर विजयवाड़ा शहर घूमने निकले .खाना खाया और काफी कुछ देखा .फिर डिब्बे में लौटे .यह डिब्बा अपना होटल बन गया था जो बंगलूर तक चला .बंगलूर स्टेशन पर आधी रात के बाद पहुंचा .वोटिंग रूम में चले गए .चादर वगैरह तो थी पर ठंढ बढ़ेगी यह अंदाजा नहीं था .अप्पू जिधर सोया था उसके बगल में कोई सज्जन होल्डाल बिछा कर सो रहे थे .ठंढ बढी तो अप्पू ने उसका कंबल खीच लिया .सुबह के समय उसने अप्पू को उठाया और कहा ,भईया मेरी ट्रेन आ गई है अब कंबल दे दें .तब उसे कंबल देना ही पड़ा .फिर बंगलूर शाहे मैसूर आदि घूमते हुए ऊटी पहुंचे .महंगा हिल स्टेशन था .ज्यादा पैसे थे नहीं .तय हुआ लंच कांटिनेंटल होगा और खुद बनाया जायेगा .ऊटी की सब्जी मंडी गए .प्याज ,पत्ता गोभी ,टमाटर ,मिर्च आदि खरीदी गई और बंद भी .फिर झील के किनारे सैंडविच बनाकर खाया गया .काफी सामने के रेस्तरां में पी गई .फिर कई शहर घूमते हुए महाबलीपुरम पहुंचें .इस बीच बाबू सिंघा ,रवि जुनेजा और अप्पू किसी बात पर कमल से खुन्नस खा गए .दरअसल वह काम नहीं करता था और पेंट शर्ट के साथ बूट पहनकर हमेशा स्मार्ट बनकर घूमता था .एक कोई महंगा चश्मा भी पहनता था .एक बार वह चश्मा महाबलीपुरम के सी बीच पर छूट गया .कमल को पता नहीं चला .खुन्नस खाए मित्रों को मौका मिला .तय हुआ इसे छुपा दिया जाए .पर फिर सोचा गया अगर बाद में यह मिल गया तो कमल घर जाकर सबकी शिकायत करेगा .बड़ी समस्या सामने थी .अंततः रवि ने कहा सबूत को मिटाना पड़ेगा इसे इधर ही समुद्र तट की रेत में गाड़ दिया जाए .बाबू सिंघा ,अप्पू आदि ने गड्ढा खोदा .पहली फोटो में इसी मंदिर से पहले के कुंड के कोने में ,इसी जगह पर उस महंगे गागल्स का अंतिम संस्कार किया गया .सब लोग चाहे तो आज भी वह चश्मा वहां मिल सकता है क्योंकि प्लास्टिक /शीशा ख़राब तो होता नहीं .इस तरह कमल के उस चश्मे का राज आज मै खोल दे रहा हूं वे चाहे तो सबसे उसका हर्जाना ले सकते हैं .दौरे की कुछ फोटो भी देखें

Saturday, September 28, 2019

डाक बंगला

डाक-बंगलों के साथ उनका अपना इतिहास भी जुड़ा होता है।उसके साथ उसके किस्से-कहानियों के सिलसिले भी होते हैं।उनको अनुभूति के तल पर पकड़ पाने के लिए अपने भीतर एक साथ साहित्य- बोध और सन्धान दृष्टि, दोनों का होना जरूरी होता है।यह मणि-कांचन योग होता है।डाक-बंगलों का अपना सौंदर्य होता है।उस स्थान का भी अपना सौंदर्य होता है, जहां-कहीं का होने पर भी वह डाक-बंगला विशिष्ट हो जाता है.जाने माने यायावर सतीश जायसवाल ने जल्द आने वाली अपनी पुस्तक ' डाक बंगला 'जो भूमिका लिखी है यह दो लाइन उसी की है .' डाक बंगला 'का एक अंश धुंध से जंगल में रास्ता भी ठीक से नहीं दिख रहा था . घने जंगलों के बीच करीब पंन्द्रह किलोमीटर चलने के बाद हम जंगलात विभाग के निशानागाढा गेस्टहाउस पहुंचे. यहां बिजली नहीं है और पानी भी हैंडपंप का। दो मंजिला गेस्टहाउस के बगल में रसोई घर है जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आता है। घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं। पर उसके डर की वजह है बाघ के शैतान बच्चे। पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत। पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है। कतरनिया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं। अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नबाबों राजओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है। जिसके चारों ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है। नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है। पूछने पर पता चला कि यह बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है। शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है।