Friday, March 30, 2018

यह फोटो बिहार चुनाव का पोस्टर है !

यह फोटो बिहार चुनाव का पोस्टर है ! अंबरीश कुमार पहले जेल जाने के बाद गंभीर रूप से बीमार पड़े राष्ट्रीय जनता दल के नेता के इलाज में कोताही बरती गई .फिर जब डाक्टरों ने उन्हें दिल्ली के एम्स में इलाज करने को कहा तो भाजपा सरकार ने उन्हें आधा भारत का दर्शन करा दिया .बीमार लालू यादव को रेलगाड़ी से दिल्ली भेजा .जी रेलगाड़ी से .जिन इलाकों से यह रेलगाड़ी गुजरी है उन इलाकों से संसद में सवा सौ से ज्यादा सांसद पहुंचते है .इन्ही के बूते भाजपा सत्ता में दोबारा आई है .इस संख्या को और इस पट्टी को समझना चाहिए ,याद भी रखना चाहिए . वे कोई राम रहीम जैसे बलात्कार के आध्यात्मिक अपराधी तो थे नहीं जो उन्हें आसमान के रास्ते दिल्ली भेजते .याद है न बलात्कार के आरोपी को हेलीकाप्टर से सरकार ने भिजवाया था जेल तक . सरकार की यह हरकत राजनीति में प्रतिशोध की भावना से फैसला किए जाने का नया पड़ाव है .पता नहीं लोगों को याद रहता है कि नहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किस तरह भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी को इलाज के लिए विदेश भेजा उन्हें संसदीय दल में शामिल कर .इस बाक्त को वाजपेयी जैसे राजनेता कभी भूले नहीं और कहते भी रहे .आज उनके राजनैतिक उतराधिकारी इतना नीचे गिरे कि एक पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री को इलाज के लिए भारत दर्शन करवा कर दिल्ली लाए .पर नतीजा क्या हुआ .हिंदी पट्टी की लालू की यह ट्रेन यात्रा राजनीति का नया एजंडा बना गई .हर स्टेशन पर स्वागत .बीमार लालू ट्रेन से बाहर आते ,हाथ जोड़ का अभिवादन का जवाब देते .इतने बीमार लालू यादव को देख गरीब तबका तो आहत हो ही गया है .दिल्ली स्टेशन पर जिस तरह कुलियों ने नारा लगाकर लालू यादव का स्वागत किया उसका एक राजनैतिक संदेश बिहार और देश में गया है .लालू जेल में हैं और बिहार जल रहा है .जलाया जा रहा है .वे ताकतें सर उठा रही हैं जीने लालू ने सत्ता में आने के बाद कुचल दिया था .याद करिए सत्तर के दशक का बिहार .गांव ,खेत और खलिहानों में जब सामंत की कचहरी लगती थी और दलित पिछड़ी जातियों पर जुल्म होता था .लालू यादव के सत्ता में आने के बाद ही पिछड़ी जातियों को मान सम्मान और ताकत हासिल हो पाई .इस तथ्य को किसी घोटाले के पर्दे से ढक नहीं सकते .मुस्लिम यादव समीकरण ने बिहार की राजनीति बदल दी बिहार बदल दिया .सामंतों की कचहरी बंद हो गई .अगड़ों के जोर जुल्म का दौर ख़त्म हुआ .इस तथ्य को बिहार का गरीब जानता है .लालू यादव की हाथ जोड़े जो फोटो सोशल मीडिया पर चल रही है यह बिहार में होने वाले अगले लोकसभा चुनाव का पोस्टर है .और इस पोस्टर का जमीनी असर बिहार ही नहीं यूपी झारखण्ड तक पड़ेगा .

Tuesday, March 20, 2018

एक नदी ,एक भाषा !

अंबरीश कुमार बनगांव में हम इच्छामती नदी के किनारे हैं .यह सरहद की नदी है .कई किलोमीटर तक सीमा बनाती है . यह उनकी भी नदी है और यह हमारी भी नदी है .इस नदी में पद्मा का पानी भी आ जाता है तो हिल्सा भी .ऐसा बताया गया .आज इक्कीस फरवरी का दिन है और हम सरहद से लौट कर इस नदी के किनारे रुक गए .बनगांव के कुछ आगे ही बांग्ला देश की सीमा में भी गए जो आज खुली हुई थी .और जश्न दोनों तरफ मनाया जा रहा था .यह मातृभाषा का जश्न था .इस पार भी बांग्ला भाषी थे तो उसपार भी .एक नदी और एक भाषा .स्कूली बच्चों की भीड़ दोनों तरफ थी जो अपने स्कूल कालेज से इस जश्न में शामिल होने आए थे .किसी भाषा का ऐसा जश्न हम पहली बार देख रहे थे जिसमे सरहद खुली हुई थी और बिना पासपोर्ट कोई भी आ जा सकता था .इसका इतिहास भी बहुत महत्वपूर्ण है .बांग्ला देश जब पूर्वी पकिस्तान था तब वहां की सरकार ने उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने का एलान किया .बांग्ला भाषी नौजवानों ने इसका विरोध किया .वर्ष 1952 में पाकिस्तानी सेना ने उर्दू को राष्ट्रभाषा को बनाए जाने का विरोध कर रहे छात्रों पर गोली चला दी .करीब आधा दर्जन छात्रों की मौत हो गई .मातृभाषा के सवाल पर शहीद हुए इन छात्रों की याद में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है .इस मौके पर दोनों देश की सरहद खोल दी जाती है और लोग एक दूसरे से मिलते हैं ,मिठाई खिलाते हैं .सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है .सरहद पर ही .दोनों तरफ पांडाल लगे थे .छोटी बच्चियों से लेकर युवतियां तक अपनी परम्परागत पोशाक में नजर आ रही थी .यह जश्न अपने को हैरान भी कर रहा था .हमने सीमा पर खड़े बीएसएफ जवानो से उधर जाने के बारे में पूछा तो उसने मुस्करा कर कहा ,बिलकुल जाएं .मै सविता और अंबर दूसरे देश यानी बांग्ला देश के भीतर चले गए .भाषा तो समझ में आ नहीं रही थी पर बड़े बड़े होर्डिंग /कट आउट पर रविंद्रनाथ टैगोर और काजी नजरुल इस्लाम को तो पहचान ही सकते थे .टैगोर बांग्ला देश के भी नायक है .उनका गांव भी उधर ही पड़ता है .और बांग्ला देश का राष्ट्रगान ' आमार सोनार बांग्ला ... भी उन्ही का लिखा था . यह बात अलग है कि उसपार तो टैगोर की होर्डिंग और कट आउट तो नजर आ रहे थे पर इस तरफ ऐसा कुछ भी नहीं था .शायद इसलिए भी क्योंकि मातृभाषा की शहादत तो उधर वालों ने दी थी .खैर भाषा का ऐसा रंग बिरंगा उत्सव पहली बार देखा .पर इसकी कोई खबर कोलकोता के किसी भी अखबार में मुझे दूसरे दिन नहीं दिखी . दरअसल हम आए थे ' आपसदारियां ' के बनगांव पड़ाव में शामिल होने के लिए .' आपसदारियां ' मित्र मंडली का मै नया और गैर साहित्यिक सदस्य हूं .यह समूह ऋतू के हिसाब से देश के दूर दराज के हिस्से में मिलता है .इसमें ज्यादातर साहित्यकार हैं तो कुछ फिल्म वाले भी .मकसद गांव ,समाज ,संस्कृति और प्रकृति को करीब से देखना जिससे रचनाकर्म में मदद मिले .इससे पहले मै छतीसगढ़ के चिल्फी घाटी के कार्यक्रम में शामिल हुआ था .यह दूसरा आयोजन था .हालांकि मोबाइल संपर्क कट जाने की वजह से हम सरहद पर नहीं मिल सके .पर बाद में बैठे और अपने अनुभव भी साझा किए . पर इससे पहले कोलकोता के बालीगंज जहां हम ठहरे हुए थे वहां से करीब सौ किलोमीटर बनगांव के इस इच्छामती नदी के घाट पर पहुंचे थे .दोपहर हो गई थी .पर रास्ते भर वर्षा वृक्ष यानी विलायती सिरिस के बड़े बड़े दरख्त सड़क पर धूप को रोके हुए थे .इस दरख्त के बारे में जानकारी दी प्रकृति और विज्ञान के मशहूर लेखक देवेन मेवारी ने .करीब सौ साल के ऐसे दरख्त पहली बार देखे जिसपर छोटे छोटे पौधो ने अपना ठिकाना बना लिया था .यह इस तरफ से चलते हुए देश पार कर गए थे .मेवारी ने बताया कि ये ' रेन ट्री' हैं. इन्हें हिंदी, मराठी, बांगला भाषा में विलायती सिरिस कहा जाता है. मैंने रेन ट्री के खूबसूरत पेड़ कुछ वर्ष पहले होमी भाभा विज्ञान शिक्षण केंद्र, मुंबई के हरे-भरे प्रांगण में देखे थे. इनका वैज्ञानिक नाम ' अलबिज़िया समान ' है.अंग्रेजी में यह ' सिल्क ट्री' भी कहलाता है. इनके फूल गुलाबी-सफेद और रेशमी फुंदनें की तरह होते हैं और बेहद खूबसूरत लगते हैं. इसकी फलियां मीठी और गूदेदार होती हैं जो गिलहरियों तथा बंदरों को बहुत पसंद हैं. इसलिए इस पेड़ को मंकी पौड भी कहा जाता है.खास बात यह है कि भारत में इसे सौ साल से भी पहले अंग्रेज लाए. यह मूल रूप से मध्य अमेरिका और वेस्टइंडीज का निवासी है. हमारे यहां की आबोहवा इसे खूब पसंद आई और यह देश भर में पनप गया. एक और खासियत यह है कि रेन ट्री दूसरे बड़े छायादार पेड़ों के विपरीत एक दलहनी पेड़ है. इसे मटर का बिरादर कह सकते हैं. इसका मतलब यह है कि इस पेड़ की जड़ों में गांठें होती हैं जिनमें वे बैक्टीरिया रहते हैं जो हवा से नाइट्रोजन लेकर इसे भी देते हैं और जमीन को उपजाऊ भी बनाते हैं. जो भी बांग्ला देश को जाती इस सड़क पर गए होंगे उन्हें इतनी जानकारी इस दरख्त के बारे में शायद ही होगी .इसके अलावा जगह जगह ताल तालाब के किनारे केला ,नारियल और सुपारी के लम्बे दरख्त भी दिखे . इच्छामती नदी के दोनों किनारे भी नारियल लहरा रहे थे .नदी का हरा पानी ठाहर हुआ था और किनारे पर जलकुम्भी का अतिक्रमण बढ़ता नजर आ रहा था .बीच धार में एक नाव अकेली थी .न कोई चप्पू न कोई मछुवारा .नदी तो अब बदहाल होती जा रही है .बनगांव के लोग ही इसकी बदहाली के जिम्मेदार है .उधर बांग्ला देश वाले भी इस काम में बराबर के हिस्सेदार हैं .यही तो वह नदी है जिसके बारे में रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था ,' बारिशों का मौसम है.और मैं नाव पर इस छोटी से नदी इच्छामति से उस पार जा रहा हूं . इसके दोनों किनारों पर गांवों की कतारें हैं .गन्ना,बेंत और पटुवाके पौधे सभी जगह उग आयें हैं .ऐसा लगता है किसी कविता का छंद बार बार दोहराया जा रहा है .और इस वक्त उसका मजा भी लिया जा सकता है .पद्मा जैसे विशाल नदी का छंद याद करना मुश्किल है .लेकिन इस छोटी सी नदी की बलखाती चाल जो बारिश से घटती है और बढ़ती है, एक न भूलने वाला छंद के जैसा ही है. (संदर्भ - टैगोर की चिट्ठियां : पाबना के रास्ते ). नदी के किनारे कुछ देर रहे फिर शहर की तरफ बढे .बांग्ला देश की तरफ से बनगांव की तरफ चलेंगे तो इच्छामती नदी पर बना पुल पार करते ही शहर शुरू हो जाता है .कुछ आगे बढ़ने पर एक रास्ता बाएं घूम जाता है .हम इसी रास्ते पर चल पड़े .हम बनगांव जंक्शन जा रहे थे .यह बांग्ला देश से पहले भारत का प्रमुख स्टेशन है .इसके बाद पेट्रोपोल पड़ता हैं जहां पासपोर्ट /वीजा की औपचारिकता पूरी की जाती है .यह स्टेशन हमें सीमा पर दिखा भी था .पर बनगांव बड़ा स्टेशन है इसलिए इधर आए .दो पटरियों वाले स्टेशन पर लोग कोलकता की तरफ जाने के लिए आते हैं तो बांग्ला देश की तरफ जाने के लिए भी .हालांकि यह देश के अन्य स्टेशन की तरह ही मामूली सा स्टेशन लगा जिसके प्रवेश का रास्ता काफी संक्रा था .स्टेशन पर न तो कोई ट्रेन खड़ी थी न किसी ट्रेन के आने का समय हो रहा था .इसलिए भीड़ भी नहीं थी .प्लेटफार्म नंबर एक पर कुछ देर गुजारने के बाद हम लौट आए .ड्राइवर का कहना था कि शाम से पहले अगर कोलकता से करीब नहीं पहुंचे तो अंधेरा होते ही समस्या हो जाएगी .उसे रात में सामने से गाड़ियों की रौशनी से दिक्कत होती है .बनगांव कोलकता का रास्ता भी काफी पुराना और संकरा है .ट्रैफिक दिन में बढ़ जाता है इसलिए रफ़्तार भी कम रखनी पड़ती है . फिर विलायती सिरिस के बड़े दरख्त से घिरी सड़क पर लौट आए . भारत बांग्ला देश सीमा पर गांव एक जैसे ही हैं .चाहे इस पार हो या उस पार .खान पान ,भाषा और संस्कृति सब एक जैसे .ज्यादातर गांव के कुछ घर के आगे ताल तालाब जरुर मिला .ताल के किनारे नारियल ,सुपारी और केले के साथ ताड़ भी .तालाब से पानी भी ये लेते हैं तो मछली भी .कई जगह धान के खेत से घिरे ताल देखते बनते थे .आज सड़क पर भी कुछ ज्यादा ही ट्रैफिक था .वजह भाषा दिवस के चलते बहुत से लोग सीमा पर होने वाले कार्यक्रम में जा रहे थे या लौट रहे थे .इनमे स्कूल कालेज के बच्चों की संख्या ज्यादा थी .सजी संवरी बच्चियां और युवतियां शायद सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आई थी .दरअसल सीमा पर दोनों और ही सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे .भारतीय सीमा से पहले कुछ लड़कों ने गाडी रोकी और कहां कि इधर ही पार्किंग में गाडी खड़ी कर दे आगे जाने नहीं मिलेगा .बात सही निकली .सड़क पर काफी भीड़ थी .सीमा पर कुछ दूकानों पर टूटी फूटी हिंदी भी मिली .खास बात यह थी कि करेंसी दोनों देशों की चल रही थी .जो भी सामान लेना चाहा तो कीमत टका में बताई गई .बाद में पता चला यह बांग्ला देश की करेंसी की बात कर रहा है .भारतीय मुद्रा भारी थी टका पर .नेपाल की तरह .सीमा पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बारे में सोच रहा था तभी ड्राइवर ने कहा ,साहब यहां चाय पी लेते हैं .कोई छोटा सा क़स्बा था .मिटटी के छोटे छोटे कुल्हड़ देखा तो कार से उतर आया और बिना चीनी की चाय के लिए बोला .खाने के लिए मुरी यानी चटपटी लाई के पैकेट थे .बहुत अच्छी चाय वह भी खूबसूरत से छोटे कुल्हड़ में मिली .आमतौर पर अब प्लास्टिक के छोटे से कप में चाय पकड़ा दी जाती है .इसलिए अच्छा लगा . कोलकता हवाई अड्डे से पहले ही हमने ड्राइवर से कहा कि हमें हुगली किनारे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर जाना है .इस मंदिर में १८५६ में रामकृष्ण परमहंस को पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया. विशाल मंदिर परिसर के मध्य भाग में काली मंदिर में दर्शन करने वालों की लाइन लगी हुई थी .परिसर में और तो बहुत सी फोटो थी पर शहीद भगत सिंह की फोटो ने जरुर ध्यान आकर्षित किया .मंदिर परिसर हुगली यानी गंगा नदी से लगा हुआ है .हुगली के किनारे कुछ देर बैठे तो अच्छा लगा .अब लौटना था .भूख भी लग रही थी .दरअसल सुबह जो भारी नाश्ता किया था उसके बाद से कही खाने की ढंग की जगह नहीं दिखी .हम बालीगंज के सनी एपार्टमेंट स्थित एक गेस्ट हाउस में ठाहरे हुए थे .वहा सुविशा तो सब तरह की थी .लेकिन सामने सड़क पार करते ही हल्दी राम का पांच मंजिला रेस्तरां था इसलिए वही नाश्ता करने चले जाते थे.इससे पहली रात जो सिटी माल के पास ' शोला (सोलह ) आना बंगाली ' में बंगाली भोजन करने गए ठेव .इसके बारे में जनसत्ता के अपने सहयोगी पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी ने बताया था .दरअसल अपने को हिल्सा यानी इलिश का स्वाद लेना था इसलिए गए .सविता तो शुद्ध शाकाहारी है इसलिए उनके लिए पोस्तो आलू से लेकर बैगन भाजा तक मंगाया .पर मैंने अपने और अंबर के लिए इलिश के साथ चिंगरी यानी झींगा चावल का आर्डर दिया था .अच्चा रेस्तरां है.पर सभी को इसका स्वाद पसंद आए यह जरुरी नहीं .आज दूसरी जगह जाना था इसलिए जल्दी बालीगंज पहुंचना चाहता था .

Thursday, March 15, 2018

फिर फूटा हिंदुत्व का गुब्बारा

अंबरीश कुमार गोरखपुर /लखनऊ .वर्ष 2014 की जनवरी का आखिरी हफ्ता लोगों को आज भी याद है खासकर गोरखपुर के लोगों को .भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने यही एक रैली में मुलायम सिंह यादव को चुनौती देते हुए कहा था ' नेताजी ,यूपी को गुजरात बनाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए. मोदी का यह जुमला भाजपाइयों में बहुत लोकप्रिय हुआ था .पर बीते बुधवार को गोरखपुर में जो हुआ उससे योगी मोदी सब चित हो गए .गोरखपुर से भाजपा का करीब तीन दशक पुराना तंबू उखड़ जाएगा यह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है .यह करिश्मा अखिलेश और मायावती की रणनीति का था .जिसने हिंदुत्व का वह गुब्बारा ही फोड़ दिया जिसमे ये चार साल से ये हवा भर रहे था .गाय ,गोबर ,गोमूत्र और हत्यारे गो रक्षकों का अराजक झुंड .जो खिलाफ बोले उसे ये देशद्रोही होने का तमगा दे देते थे .खुद इनके वैचारिक पूर्वजों ने अंग्रेजों की मुखबिरी की ,दलाली की पर ये देशभक्त बन गए .कश्मीर में ये उन ताकतों से हाथ मिलाते जो कश्मीर की आजादी के लिए मारे गए लोगों को शहीद मानते .पूर्वोत्तर में ये देश तोड़क ताकतों का साथ लेते .पर उत्तर प्रदेश मे ये सामाजिक न्याय की ताकतों पर हमला कर रहे थे .दलित पिछड़ों की एकता को इन्होने सांप छंछूदर तक कह डाला .यह सब इसी की प्रतिक्रिया थी .दरअसल यह वैसी ही एकता की शुरुआत थी जैसी करीब सवा दो दशक पहले कांशीराम और मुलायम के बीच हुई . फैजाबाद में इन दोनी नेताओं की पहली साझा रैली के संयोजक और खांटी समाजवादी जयशंकर पांडे ने तब नारा दिया था ' मिले मुलायम कांशीराम ,हवा में उड़ गए जय श्रीराम .तब इस एकता ने मंदिर आंदोलन के नाम पर मजहबी गोलबंदी की हवा निकाल दी थी .पिछले एक हफ्ते में इतिहास फिर दोहराया जा रहा था . गोरखपुर में मतदान से तीन दिन पहले हमने शहर का जायजा लिया था .जिस सेवाय होटल में आठ मार्च को रुके उसी की सड़क पर बनी पार्किंग में शाम को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सभा थी .ठीक सामने टाउन हाल का मैदान था पर व्यस्त सड़क पर मुख्यमंत्री जब सभा करे तो समझना मुश्किल नहीं था कि माजरा क्या है .अखिलेश यादव ने बड़े चंपा पार्क में सभा की थी जिसमे मुख्यमंत्री की सभा के मुकाबले पच्चीस गुना ज्यादा लोग आए थे .यह टिपण्णी एक बड़े अभियंता एमपी सिंह की थी जो उस सभा में थे .एमपी सिंह आगे बोले ,इस हार से हमें कोई ख़ुशी नहीं है पर तकलीफ भी नहीं है .यहां के लोग बहुत परेशान रहे .पहले तो मान लेते थे कि सरकार दूसरे की है तो बाबा का क्या कसूर .पर अब तो वे खुद सरकार थे .क्या किया ? आजिज आकर लोग चाहते हैं बाबा मठ के भीतर ही हेलीपैड बनवा ले ताकि जब वे आएं तो बिना वजह पुलिस लोगों को मार मार कर न भगाए सड़क से .कितने लोग पीटे जाते हैं जब वे आते है . शहर में अलग अलग हिस्सों में लोगों से जो बात हुई उससे साफ़ नजर आया कि मध्य वर्ग और अगड़ी जातियां पूरी तरह भाजपा के साथ हैं .शहर में कायस्थों की ठीकठाक संख्या है और वे पूरी तरह योगी के साथ थे .बनिया ,बाभन और ठाकुर भी .ब्राह्मणों का एक हिस्सा जरुर विरोध में था .खासकर जो पूर्वांचल के बाहुबली हरिशंकर तिवारी के प्रभाव में था .दूसरे दिन सुबह हरिशंकर तिवारी के घर यानी हाता में उनसे मुलाक़ात हुई .इस बीच हरिशंकर तिवारी के भांजे और विधान परिषद के पूर्व सभापति गणेश शंकर पांडे के साथ विधायक विनय तिवारी भी आ गए .ट्रैक शूट में आए हरिशंकर तिवारी बहुत कम बोले पर जो बोले उसका लब्बोलुआब यह था कि योगी हारेंगे .इसी समय समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता भी पहुंचे और बातचीत की .विनय तिवारी को मै विश्विद्यालय के दौर से जानता हूं .उनका दावा था कि योगी हार रहे है लिख कर नोट कर ले .पता चला ये लोग पूरी ताकत से लगे थे . पर सबसे ज्यादा ताकत समाजवादी पार्टी ,पीस पार्टी और बसपा की थी .निषाद खुलकर साथ था तो बसपा ने दलितों को पूरी तरह लामबंद कर दिया .बसपा के गोरखपुर मंडल के प्रभारी घनश्याम चंद खरवार ने कहा , हम लोगों ने बहनजी का निर्देश मिलते ही काम शुरू कर दिया था .हमारे कार्यकर्ताओं के पास साधन नहीं नहीं है पर वे गांव गांव गए समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार जिताने .संघ के लोग क्या मुकाबला करेंगे जिस तरह हमारे कार्यकर्ताओं ने दिनरात एक कर दिया .हालांकि यह बहु आसान नहीं था .दोनों दलों के समर्थकों के बीच बहुत दूरी रही है .फिर भी काफी हद तक हमें सफलता मिली .दरअसल सपा के मूल वोट बैंक में यादव बिरादरी का एक हिस्सा इस चुनाव में भी भाजपा के साथ गया है .पर बड़ी संख्या में निषाद ,मुस्लिम ,दलित और अन्य पिछड़ी जातियों की एकजुटता ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया .अगड़ों में भी कुछ वोट भाजपा के खिलाफ गया जो सरकार के कामकाज से नाराज था . दरअसल गोरखपुर का अर्थ मठ ही माना जाता है जो अब राजपूतों की पीठ मान ली गई है .योगी के बारे हमने पहले भी लिखा है कि वे चार साल ग्यारह महीने ठाकुर रहते हैं ,चुनाव वाले एक महीने में वे हिंदू हो जाते है .पर इतिहास कुछ और भी है .पत्रकार दिलीप मंडल के मुताबिक गोरखपुर का नाथ मठ निषाद-मल्लाह-बिंद लोगों का है. मत्येंद्रनाथ यानी मछेंद्रनाथ द्वारा स्थापित मठ है यह.यह बात ग्रंथों में प्रमाणित है.हर किसी को मालूम है कि ठाकुरों ने उस पर कब्जा जमा रखा है. अजय सिंह बिष्ट यानी योगी आदित्यनाथ का कब्जा इन दिनों चल रहा है.पर अब तो अवैध कब्जा खत्म हो. खैर कई और कोण भी थे इस चुनाव में .प्रशासन खासकर कलेक्टर ने जिस तरह कारसेवक की भूमिका निभाई उससे विपक्ष को खासा नुकसान हुआ है .समाजवादी पार्टी ने तो जानकारी मिलने के बावजूद गोरखपुर के कलेक्टर के खिलाफ समय पर कोई शिकायत तक नहीं दर्ज कराई .यह इनके काम करने का तरीका है .वर्ना हार जीत का अंतर काफी बड़ा होता .इस सबके बावजूद सपा नेता राम गोविंद चौधरी से लेकर जयशंकर पांडे जैसे बहुत से कार्यकर्ताओं ने जो परिश्रम किया उसका नतीजा सामने है .यह साझा जीत है . बहरहाल यह तब जब मायावती ने कोई सभा नहीं की सिर्फ संदेश दिया था .अगर अखिलेश और मायावती की साझा सभा हो जाती तो इनका हिंदुत्व किनारे लग जाता .अखिलेश यादव ने जीत के फ़ौरन बाद मायावती से मुलाकात कर भविष्य की राजनीति का नया रास्ता खोल दिया है .अखिलेश पहली बार छोटे छोटे दलों के नेताओं से मिले ,उनके साथ बैठे .इसका बड़ा राजनैतिक संदेश गया है .पर भाजपा को कम न आंके .खिसकी हुई जमीन पाने के लिए वह हर हथकंडा इस्तेमाल करेगी .यह सीधी लड़ाई है मोदी बनाम अखिलेश ,मायावती और लालू यादव की .योगी ,नीतीश कोई अर्थ नहीं रखते .