Friday, June 14, 2019

भटनी -बरहज लूप लाइन

अंबरीश कुमार यह 55103 अप पैसेंजर है .यह ट्रेन भटनी से बरहज बाजार तक जाती है .लूप लाइन है .पिकोल ,सलेमपुर ,देवरहा बाबा रोड ,सतरांव ,सिसई गुलाबराय होते हुए बरहज पहुंचाती है .सिसई गुलाबराय नाम अपने परिजनों के परिवार के नाम पड़ा .इस हाल्ट स्टेशन की जिम्मेदारी भी कुछ दिन उन लोगों ने उठाई . पापा रेलवे में इंजीनियर रहे तो रेल की यात्रा खूब हुई और तरह तरह की ट्रेन और डब्बों में भी .तब उन्हें जो फर्स्ट क्लास मिलता था वह पूरा डिब्बा ही होता था ,चार बर्थ का .बाथरूम में नहाने की भी व्यवस्था .डिब्बा इतना बड़ा होता था कि ट्रेन जब खड़ी हो तो स्टोप जलाकर चाय बन जाए .इसपर दूसरी पोस्ट में विस्तार से .फिलहाल लूप लाइन की इस ट्रेन पर .इसमें शशि थरूर के शब्दों में सिर्फ कैटल क्लास ही होता .इसलिए लोग बकरी /बकरा लेकर भी यात्रा कर लेते .खिड़की वाली सीट के लिए मारामारी होती .लकड़ी वाली सीट .और स्टेशन पर शरबत जैसी चाय और समोसा के अलावा चना मुरमरा से लेकर मौसमी फल भी मिल जाता .भटनी से साढ़े तीन बजे यह लूप लाइन की ट्रेन निकलती और शाम करीब पांच बजे बरहज बाजार पहुंचा देती .गांव से आई बैलगाड़ी से आगे का करीब तीन किलोमीटर का सफ़र होता .पर इस ट्रेन में हर तरह का मनोरंजन भी होता तो राजनैतिक चर्चा भी .कुछ लोग ताश भी खेलते तो बीड़ी का धुआं भी भर जाता .खिड़की खुली रहती और जब आम के बगीचे के बगल से गुजरती तो आम तोड़ने की बड़ी इच्छा भी होती .सिसई गुलाबराय हाल्ट स्टेशन के बगल में ही फूफा जी का भी आम का बगीचा दिखता .सभी देसी आम के पेड़ .बाढ़ के समय सरजू नदी का पानी भी पास आ जाता .लूप लाइन की ट्रेनों में कोई आपाधापी नहीं होती न ही किसी और दिशा से कोई ट्रेन आती .यह तो बैलगाड़ी की तरह एक लीक पर चलने वाली ट्रेन होती है और भटनी -बरहज की दूरी भी डेढ़ दो घंटे की .कभी लूप लाइन की ट्रेन की यात्रा भी करें ,जनरल डिब्बे में .गांव के लोग भी तब चलते थे अब तो सत्तर साल में खुद की गाड़ी ले ली है तो सीधे देवरिया निकल जाते हैं .ज्यादातर गरीब गुरबा ही इस ट्रेन पर चलता है . Bhatni Junction 15:30 -- 1 0.0 39 75m NER Junction Point - SV/GKP/MAU, Uttar Pradesh 2POKL Peokol 15:38 15:39 1 1m 1 5.2 61 80m NER Deoria, Uttar Pradesh 3SRU Salempur Junction 15:44 15:45 -- 1m 1 10.3 19 76m NER Salempur, Uttar Pradesh 4DRBR Deoraha Baba Road 16:10 16:11 -- 1m 1 18.3 42 71m NER Salempur, Uttar Pradesh 5STZ Satraon 16:19 16:20 -- 1m 1 24.0 29 72m NER Satraon, Uttar Pradesh 6SSGR Sisai Gulabrai 16:28 16:29 -- 1m 1 27.8 11 70m NER Barhaj, Uttar Pradesh 7BHJ Barhaj Bazar

Monday, June 10, 2019

विशाखापत्तनम किरंदुल पैसेंजर

अंबरीश कुमार जगदलपुर के सर्किट हाउस से निकले तो देर हो चुकी थी .दरअसल बीती रात से ही बरसात हो रही थी और रात का खाना पीना ही काफी देर से हुआ .दरअसल जनसंपर्क विभाग के एक आदिवादी अधिकारी कुरेटी का आग्रह था कि बस्तर आए और कड़कनाथ का स्वाद नहीं लिया तो यात्रा का क्या अर्थ . चित्रकोट जल प्रपात और आसपास घूमकर लौटे तो सर्किट हाउस के एक कोने में जिधर कटहल का पेड़ लगा था उधर ही बैठकर चाय पी और खानसामा से बात करते लगा .वह कडकनाथ का इंतजाम करने निकल रहा था .यह पुराना सर्किट हाउस है पर सामने छोटा सा बगीचा होने की वजह से काफी हराभरा दिखता है .वैसे भी चारो तरफ जंगल ही जंगल तो है .हमें जाना अरकू घाटी और फिर उसके बाद विशाखापत्तनम था .दफ्तर की गाड़ी थी पर अपना ड्राइवर चंद्रकांत को साथ लेकर आया था ताकि वह हमें किरंदुल पैसेंजर पर बिठाकर रायपुर लौट जाए .अपने को इस पैसेंजर से ही अरकू घाटी तक जाना था .पर स्टेशन पर जब टिकट लेने गए तो पता चला सिर्फ फर्स्ट क्लास में ही आरक्षण होता है और बाकी सारी ट्रेन जनरल डब्बे वाली है .खैर टिकट ले ही रहे थे तभी ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ दिया .चंद्रकांत ने कहा ,सर चिंता न करें हम इस ट्रेन को अगले स्टेशन तक पकड़ लेंगे . दरअसल पैसेंजर ट्रेन थी और हर स्टेशन पर एक मिनट ही रूकती पर रफ़्तार बहुत ज्यादा नहीं थी इसलिए दो स्टेशन छोड़कर हम छोटे से स्टेशन अमगुडा पर पहुंचे तो ट्रेन दूर से आती हुई दिखी .इससे पहले ट्रेन को पीछे छोड़ते हुए हम तेज रफ़्तार से सड़क पर आगे बढ़ रहे थे .बरसात बंद हो चुकी थी पर सड़क पर कोई ख़ास ट्रैफिक नहीं था..यह ओडिशा का ग्रामीण अंचल है जो काफी हराभरा है .इस ट्रेन से अमूमन गरीब आदिवासी ही सफ़र करते हैं .गांव से फल सब्जी आदि लेकर वे दूसरे कस्बे तक जाते हैं .ज्यादातर के हाथ में लाठी भी नजर आ रही थी .ट्रेन के फर्स्ट क्लास में एक केबिन अपना ही हो गया क्योंकि हम चार लोग थे और चार बर्थ थी .बहुत दिन बाद ऐसे डिब्बे में बैठना हुआ जिसमें खिड़की का सीसा उठा दिया तो बाहर से भीगी हुई ताज़ी हवा आ रही थी .बरसात की वजह से मौसम सुहावना हो चुका था .थर्मस में काफी थी और दोपहर का खाना सर्किट हाउस के खानसामा नें ठीक से बांध कर रख दिया था .पराठा ,सब्जी ,दही और अचार मिर्च भी .कुछ देर खिड़की पर बैठने के बाद आकाश ,अंबर ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गए .सविता कोई उपन्यास पढने लगी तो मै अख़बार देखने लगा .करीब साढ़े ग्यारह पर जब जयपोर स्टेशन पहूंचे तो काफी पीने की इच्छा हुई .स्टेशन का नाम हिंदी में जयपुर लिखा था पर बोल रहे थे जयपोर .उड़िया में यही कहते होंगे .यह ट्रेन छतीसगढ़ के पहाड़ों से होते हुए पहले ओड़िसा से गुजरती है फिर आंध्र प्रदेश में समुद्र तट पर बसे अत्याधुनिक शहर विशाखापत्तनम तक जाती है .पर हमें बीच में ही अरकू घाटी में उतरना था .यह एक छोटा सा पहाड़ी सैरगाह है .कोरापुट के बाद एक छोटा सा स्टेशन आया सुकू .नीचे उतरे और छोटे से स्टेशन का जायजा लिया . रायपुर से बस्तर तक कोई रेलगाड़ी नही जाती पर बस्तर में जो रेलगाड़ी चलती है उसका सफ़र कभी भूल नही सकते .छत्तीसगढ़ से सटा एक खूबसूरत पहाड़ी सैरगाह अरकू घाटी तेलुगू फिल्म निदेशकों की पसंदीदा लोकेशन भी है .देश में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर चलने वाली ब्राड गेज ट्रेन का सफ़र हमने बस्तर से शुरू किया .किरंदुल विशाखापत्तनम पसेंजर सुबह दस बजने में दस मिनट पहले जगदलपुर से छूटती है.रायपुर से धमतरी होते हुए जब हम जगदलपुर के आसपास घूम कर सर्किट हाउस पहुंचे तो शाम हो चुकी थी .रात सर्किट हाउस में बिता कर सुबह ट्रेन पकडनी थी .बस्तर के अपने संवाददाता वीरेंदर मिश्र साथ थे .यह इलाका तीन राज्यों आंध्र ,ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ से घिरा है और यहाँ की संस्कृति पर भी इसका असर दिखाई पड़ता है . साल ,आम, महुआ और इमली के पेड़ों से घीरें इस इलाके घने जंगलों की वजह से जमकर बरसात होती है और देखने वाली होती है ..खैर बस्तर पर बाद में पहले अरकू घाटी की तरफ बढ़ें .बाग- बगीचे , जंगल ,पहाड़ और समुंद्र के सम्मोहन से मै बच नही पाता हूँ .बचपन मुंबई में गुजरा .पापा भाभा एटामिक एनर्जी में इंजीनियर थे और इसका आवासीय परिसर चेम्बूर में जहाँ पर था उसके रास्ते में एक बड़ा गोल्फ मैदान ,आरके स्टूडियो और फिल्म अभिनेता राजकपूर का घर भी पड़ता था .उनके घर के आगे बड़े बड़े पेड़ थे जिससे भीतर का हिस्सा ज्यादा नहीं दिखता था .तब पैदल ही स्कूल जाता और कई बार गोल्फ मैदान में देर तक घूमता .मुंबई का वह इलाका काफी हरा भरा था और तब कैनेरी की गुफा देखने गए तो वहां का जंगल देख कर हैरान रह गए .आज भी वह जंगल याद आता है .पर छत्तीसगढ़ के जंगलों के आगे कही के जंगल नही टिकते है .याद है एक बार अजित जोगी ने कहा था - अफ्रीका के बाद उतने घने जंगल सिर्फ बस्तर में ही है . हेलीकाप्टर से बस्तर का दौरा करने पर जंगल का विस्तार ढंग से दिखता है .और इन्ही जंगलों के बीच से आंध्र प्रदेश की अरकू घाटी का रास्ता भी गुजरता है पर ज्यादा हिस्सा ओड़िसा और आंध्र का पड़ता है . जंगल ,पहाड़ और चौड़े पाट वाली नदियों के ऊपर से गुजरती रेल अचानक हरियाली में प्रवेश करती है .दूर दूर तक फैले धान के हरे भरे खेत और उनके बीच चटख रंगों की साड़ी में आदिवासी महिलाए काम करती नज़र आती है .इससे पहले जब हमारा ड्राइवर चंद्रकांत गाड़ी लेकर जगदलपुर स्टेशन पंहुचा तो गाड़ी रेंगने लगी थी और दो बच्चों के साथ ट्रेन पकड़ना संभव नहीं था .तभी चंद्रकांत ने कहा -अगला स्टेशन अमगुडा कुछ किलोमीटर दूर है वहां से गाड़ी पकड़ लेंगे .अगले स्टेशन पर हम पहुंचे ही ट्रेन आती दिख गई .इस ट्रेन में एक डिब्बा प्रथम श्रेणी का लगता है .जगदलपुर से अरकू घाटी का प्रथम श्रेणी का रेल का किराया तब २६७ रुपए था . बच्चों का किराया आधा हो जाता है . चार लोग थे इसलिए पूरा कूपा मिल गया था .अभी बैठे कुछ देर ही हुए कि छोटा सा स्टेशन आ गया .स्टेशन भी बहुत छोटा सा .हमारा डिब्बा पीछे था जहां तक चाय वाले भी नहीं पहुँच पाते कि ट्रेन छूट जाती.गनीमत थी कि सर्किट हाउस से फ्लास्क में काफी और नाश्ता/खाना लेकर चले थे .अम्बागांव , जयपोर ,चट्रिपुट जैसे स्टेशन गुजरने के बाद एक बड़ी नदी आई और फिर पहाडी जंगल में ट्रेन भटक गई .हम खिड़की से बहार का बदलता भूगोल ही देखते जा रहे थे .छोटे स्टेशनों पर दक्षिण भारतीय व्यंजन मिल रहे थे पसिंजर ट्रेन होने के बाद भी हर स्टेशन पर यह समय से छूट रही थी .दो इंजन के सहारे यह ट्रेन करीब साढ़े तीन बजे अरकू पहुंची तो पहले इस छोटे से पहाड़ी हिल स्टेशन पर काफी पीने की इच्छा हुई .फोटो साभार इंडिया हेराल्ड जारी

Tuesday, June 4, 2019

एक वीरान समुंद्र तट पर

अंबरीश कुमार आगे सड़क खत्म हो गई थी .अपनी बस यहीं रुक गई .बालू वाला एक रास्ता दो बड़ी नावों के बीच से समुंद्र तट को जा रहा था .दूसरा पथरीला रास्ता कच्ची सड़क के रूप में करीब एक फर्लांग दूर एक किले में बने लाइट हाउस की तरफ जा रहा था .हम लाइट हाउस की तरफ जाने की बजाय बड़ी नाव के पास ही रुक गए . सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के नीचे बहते अरब सागर के एक कोने में हम खड़े थे .यह कोंकण के रत्नागिरी जिले के दापोली तालुका का ग्राम पंचायत हरणे है .नाव के सामने मराठी में ग्राम पंचायत हरणे का एक बोर्ड लगा हुआ था . यह मछुवारों का गांव है .जहां इस अंचल का बहुत पुराना बंदरगाह है .लाइट हाउस से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितना पुराना है .मानसून की वजह से मछुवारे अभी समुंद्र में नहीं जा रहे थे .छोटी नाव से कुछ मछुवारे जरुर निकलते दिखे .जो दो पहियों वाले स्केटनुमा किसी जुगाड़ पर अपनी नाव चढ़ा कर समुंद्र में ढकेल कर ले जा रहे थे .यह दृश्य अपने लिए नया नहीं था .कालीकट और दमन के समुंद्र तट पर देख चुका था .इस बीच अचानक आई बरसात से बचने के लिए बस में चढ़ गया और ड्राइवर से बात करने लगा .वह हमे जिस गांव के बीच से लाया था उसके संकरे रास्ते में भी छोटी से मछली बाजार पड़ी .बांगडा से लेकर मझोले आकार का झींगा बिक रहा था .मछलियों की गंध चारो तरफ फैली हुई थी .हम कल देर रात दापोली पहुंचे थे .पर दापोली बंद की वजह से आसपास के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को बदलना पड़ा और मछुवारों के इस गांव में बने बंदरगाह के साथ शिवाजी का किला देखने इस तरफ आ गए .यह अपने रिसार्ट से करीब दस किलोमीटर दूर था . हमने समुंद्र की कई यात्रा की और समुंद्र के तट पर कई बार ठहरना हुआ .लक्ष्यद्वीप ,कोवलम ,दमन ,दीव ,कन्याकुमारी ,महाबलीपुरम ,विशाखापत्तनम से लेकर गोवा के बहुत से तट पर .पर लक्ष्यद्वीप के अगाती और बंगरम समुंद्र तट के बाद यह पहला समुंद्र तट मिला जो वीरान था .हम लोग रात में करीब ग्यारह बजे दापोली के इस तट पर पहुंचे थे .जिस सागर हिल रिसार्ट में जाना था वह सड़क के दाईं तरफ था और सड़क के दूसरी तरफ अरब सागर .कमरे की बालकनी की तरफ जो दीवार थी वह शीशे की थी ,दरवाजा छोड़कर .कमरे में जाते ही सामने अरब सागर की लहरे दौडती हुई आती दिख रही थी . बरसात हो चुकी थी और हवा में ठंढ भी थी . तटीय इलाकों में उमस ज्यादा होती है इसलिए इंतजाम में लगे रवींद्र से मैंने एक एसी कमरे के लिए कहा था .कमरे तो सभी एसी वाले थे पर वे जून से सितंबर तक उसे बंद कर देते है .खिड़की खोलते ही ठंढी हवा का झोंका आया तो लगा इधर फिलहाल एसी की जरुरत ही नहीं है .तबतक खाने का बुलावा आ गया .रात के बारह बज रहे थे .साल ,नारियल ,सुपारी ,आम आदि के घने जंगल से होते हुए आये थे .पहाड़ी और घुमावदार रास्ता था .थकावट महसूस हो रही थी .गर्म पानी से नहाने के बाद खाने के लिए ऊपर लगी मेज कुर्सियों के पास पहुंचे तो लगा किसी जहाज के डेक पर बैठे हैं .सामने सागर और किनारे पर नारियल के लहराते पेड़ .हल लोग कुल पंद्रह लोग थे .शिक्षक ,लेखक ,एक्टिविस्ट ,फोटोग्राफर और यायावर .रेलवे के एक आला अफसर भी थे तो पत्रकार भी .ज्यादातर से परिचय भी रास्ते में या फिर खाने की मेज पर हुआ .यह आपसदारियां का वह समूह था जो मौसम बदलने पर देश के विभिन्न हिस्सों में किसी एक जगह का चयन कर मिलता है .मकसद है देश के अलग अलग अंचल में गांव ,आदिवासी समाज के बीच जाना और उन्हें जानना समझना .ताकि किसी रचनाकार को अपने रचनाकर्म में मदद मिले .इसके सूत्रधार हैं लेखक ,यायावर सतीश जायसवाल .वे हर कार्यक्रम की व्यवस्था किसी स्थानीय मित्र को देते हैं . अमूमन वे गांव कस्बे /डाक बंगले में रुकने की सस्ती व्यवस्था करते हैं .पर इस जगह तो गांव ही रिसार्ट में बदल गया था और आफ सीजन डिस्काउंट के बाद धर्मशाला वाले किराए में ही यह कमरे मिल गए थे .गांव के सरपंच सचिन जब दूसरे दिन आए तो बताया कि यह दापोली का पहला रिसार्ट है जो नब्बे के दशक में बना .ऐसी लोकेशन किसी और की नहीं है .दूसरे दिन नाश्ते के बाद जब समुंद्र किनारे किनारे गांव की तरफ गए तो बदलता हुआ दापोली नजर आया .दरअसल गांव पीछे चला गया था और होटल रिसार्ट आगे हो गए थे .यह मछुवारों का गांव रहा है जिन्होंने बाद में सैलानियों की बढती आवाजाही के बाद अपने घर पीछे कर दिए और होटल रिसार्ट आगे बना दिए .इससे आमदनी का नया जरिया मिला .हर्ले बंदरगाह कुछ किलोमीटर दूर ही है जहां शिवाजी के दो किलों के खंडहर अभी भी मौजूद हैं .शिवाजी का नाम लेने वाली सरकार ने इन किलों को तो बदहाल कर ही रखा है साथ ही उधर जाने वाली सड़क ऐसी बना रखी है कि ज्यादा लोग जाने ही न पाएं .खैर यह दापोली का वर्षावन जैसा अंचल है .बरसात होती है तो जमकर होती है .कई दिन तक होती रहती है .ज्यादातर घरों और होटल रिसार्ट में जगह जगह जमी काई से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है .बरसात जमकर होती है इसलिए हरियाली भी देखने वाली होती है .कई जगहों पर दूर तक फैली हरी घास को देखकर किसी बड़े चरागाह का आभास होता है . हम लोग आसपास के कई गांव में गए .गांव के लोगों से बात हुई और उन्ही के घर बना भोजन किया .यह आपसदारियां कार्यक्रम की परिपाटी में बदल रहा है .जिस भी गांव में जाएं वहां के लोगों का बनाया स्थानीय भोजन करें .उन्हें जाने समझे .उनकी संस्कृति को समझे और उनके खानपान का स्वाद भी लें .दिन में भी हम सभी ने कोंकड़ी थाली मंगवाई और स्वाद लिया था .दापोली के डा बाला साहेब सांवत कोंकड़ कृषि विद्यापीठ से लौटते हुए .भोजन के बाद हापूस आम की सरकारी नर्सरी में गए तो साथ आई मृदुला ने कुछ पौधे लिए .उन्हें देख मैंने भी हापुस आम का एक पौधा ले लिया .बाद में उसे पैक कराने के लिए स्थानीय बाजार छान डाला पर कुछ नहीं मिला .वजह मुंबई से लखनऊ की उड़ान में उसे ले जाने देंगे या नहीं यह संशय था .खैर मुंबई में सीएनबीसी के प्रबंध संपादक और अपने बचपन के साथी आलोक जोशी ने यह समस्या सुलझा दी और एक विदेशी लंबा डिब्बा दिया जिसमे यह पौधा डाल कर लखनऊ ले गए और अपने घर पर लगा भी दिया .