Monday, April 30, 2012

कही बुतों की राजनीति में उलझ न जाए अखिलेश

अंबरीश कुमार
लखनऊ ,30 अप्रैल । उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार भी बुतों ,स्मारकों और पार्कों कि राजनीति में उलझती नजर आ रही है जिसे लेकर जन संगठन और बुद्धिजीवी आशंकित है ।रविवार को प्रदेश के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव राकेश गर्ग के विभिन्न स्मारकों के दौरे के बाद से एक बार फिर पार्कों और स्मारकों को लेकर आशंका जताई जा रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अभी तक कोई ऐसा कदम नहीं उठाया है जिसे लेकर आलोचना हुई हो । ऐसे में अपना एजंडा सामने रखने की बजाए अगर वे मायावती के राजनैतिक एजंडा के जाल में फंसे तो फायदा मायावती का होगा समाजवादी पार्टी का नहीं । यह नजरिया विभिन्न जन संगठनों का है। इस समय एक तरफ जहाँ आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दलित समुदाय आक्रोश में है वही सरकारी ठेकों में आरक्षण कि व्यवस्था समाप्त किए जाने के खिलाफ भी दलित संगठन लामबंद हो रहे है । सोशल मीडिया में इस मुद्दे को लेकर बहुत तीखी बहस भी चल रही है । ऐसे में दलित प्रतीकों से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर कोई भी गलत और गैर जरूरी फैसला अखिलेश सरकार की उस साख पर असर डाल सकता है जो चुनाव में सभी तबके समर्थन से बनी है और इसमे दलित भी शामिल है । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा -यह बहुत छोटा मुद्दा है पर बहुत संवेदनशील भी है ,यह जरुर ध्यान रखना चाहिए । बेहतर हो सरकार को इस मुद्दे से बचना चाहिए क्योकि इससे समाजवादी पार्टी को कोई राजनैतिक फायदा तो होने वाला नहीं है उलटे मायावती का दलित मतदाता जरुर गोलबंद हो जाएगा । जबकि पिछले चुनाव में गैर जाटव मतदाता बड़ी संख्या में मुलायम सिंह के साथ खड़ा था । दलित चिन्तक एसआर दारापुरी का मानना है कि सरकार का यह प्रस्ताव कुछ हद तक तो राजनीति से प्रेरित होना कहा जा सकता है पर इस में जनहित की बात भी दिखाई देती है। अगर स्मारकों के स्वरूप से कोई छेड़ छाड़ किए बिना उसका सदुपयोग सार्वजानिक हित में ज़रूरी स्कूल और अस्पताल आदि बनवाने के लिए करना गलत नहीं होगा ।पर दूसरी तरफ यह तर्क भी दिया जा रहा है कि अगर यह शुरुआत हुई तो लोहिया पार्क में कैंसर अस्पताल और राजघाट की फालतू जमीन पर कुष्ठ आश्रम बनाने की मांग शुरू हो जाएगी जो और दूर तक जाएगी । राजनैतिक विश्लेषक नीलाक्षी सिंह ने कहा -जब यह शुरू हो तो फिर सार्वजनिक भूमि पर धार्मिक स्थलों के नाम पर किये गए कब्जों को भी हटाया जाना चाहिए । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश एक धर्म निर्पेक्ष राज्य है। यदि सरकार धार्मिक स्थलों के नाम पर सार्वजनिक भूमि पर एक वर्ग को कब्जा करने देती है तो यह राज्य के धर्मनिरपेक्ष कर्तव्य की अवहेलना है जिस के गंभीर दुष्परिणाम हो रहे हैं। इससे साफ़ जाहिर है कि बुतों कि राजनीति में अगर सरकार फंसी तो इसी में उलझ कर रह जाएगी और उसका अपना एजंडा पीछे रह जाएगा । समाजवादी पार्टी सरकार ने चुनाव के दौरान किसान ,नौजवान और छात्रों के लिए बहुत से वायदे किए थे जिनपर जल्द से जल्द अमल जरूरी है । उत्तर प्रदेश कि राजनीति पर नजर रखने वाले वीरेंद्र नाथ भट्ट ने कहा -अखिलेश यादव को तो अभी अपना राजनैतिक एजंडा सामने रख खुद को साबित करना है क्योकि उनसे लोगों को काफी अपेक्षा है । इस तरह वे पार्क और स्मारकों की जमीन के सदुपयोग पर विचार करेंगे तो हासिल कुछ नही होगा राजनैतिक नुकसान तय है जो नौकरशाही के समझ में नहीं आने वाला ।ठीक उसी तरह जैसे मायावती के अफसरों को समझ में नहीं आया था । गौरतलब है कि पार्कों और स्मारको को लेकर मायावती पहले ही आगाह कर चुकी है । दूसरी तरफ सोशल मीडिया में दलित समूहों में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह कि बहस चल रही है वह देर सबेर और तीखी तो होगी ही साथ ही दलितों को गोलबंद भी करेगी ।jansatta

Saturday, April 28, 2012

बर्फ ,बारिश और मुक्तेश्वर

अंबरीश कुमार
कल से लगातार बारिश हो रही है .पास के नथुआखान में ओले गिरे तो दूर पहाड़ियों पर बर्फ गिरी .ठंढ से बुरा हाल है .अप्रैल में इतनी ठंढ कभी नहीं देखी कि बारिश और हवा चलने पर बाहर निकलने की हिम्मत न पड़े .कमरे के फायर प्लेस आग जलवाने के बाद ही राहत मिली .खिडकी के बाहर कडकती बिजली कि रोशनी में बारिश और तेज हवा से प्लम का पुराना पेड़ लहराता नजर आ जाता था . सुबह ही वीएन राय का फोन आया तो बोले -दो मई को पहुँच रहा हूँ करीब हफ्ते भर के लिए क्या गर्म कपडा लाना होगा .मेरा जवाब था पूरी तैयारी के साथ आए ठंढ ज्यादा है .कुछ और जानकारी ली उन्होंने क्योकि पहली बार वे अपने घर में ज्यादा समय गुजरने जा रहे है जो पिछले साल भारी बारिश के बाद ठीक कराया था .खैर ,बारिश के चलते जंगल की हरियाली खिल गई है .फूलों के रंग निखरने लगे है .इस बीच मुक्तेश्वर हो आया . मुक्तेश्वर में बारिश देखना बहुत ही सुखद अनुभव है .मुक्तेश्वर पहुँचने से पहले घने और हरे जंगल सही में जंगल होने का अहसास कराते है .डाक बंगले पहुंचे तो चाय से कुछ गरमी आई .यह डाक बंगला भी गजब का है .लौटने का मन नहीं करता .बारिश के बाद धुंध में घिर जाने के बाद यह काफी रहस्मय लगता है .सामने और पीछे दोनों तरफ देवदार के दरख़्त है .पीछे की तरफ जंगल में एक पगडंडी जाती हुई दिखती है जो बारिश के बाद भीगी हुई है .पीछे पर्यटन विभाग का गेस्ट हाउस है तो बगल में कुछ दूरी पर मुक्तेश्वर धाम .एक ऐसा मंदिर जिसके आसपास कभी मिठाई की कोई दूकान नहीं मिलेगी फल फुल जरुर मिल जाएंगे .मंदिर बहुत प्राचीन है और वाहन से आसपास का विहंगम दृश्य दिखी पड़ता है .देवदार के पेड़ों पर पहाड़ी कौवे अपनी कर्कश आवाज से ध्यान खींचते है . कुछ समय बाद बारिश रुकी तो लौटे .रामगढ में प्रवासी लोगों के काटेज में नेपाली नौकर चौकीदार साफ़ सफाई में जुट गए है क्योकि मई में उनके 'साब 'लोग आ जाएंगे .यहाँ पर नेपाली लोगों की भी अच्छी आबादी है जो आम तौर पर चौकीदारी से लेकर घर का कामकाज करते है .नेपाली समाज का एक हिस्सा खेती में भी जुटा था क्योकि सिंधिया स्टेट ने उन्हें साल साल भर की लीज पर खेती की जमीन दे दी थी जिसपर वे आलू ,बीन्स और मटर उगाते थे .शाम को पहाडी औरते मवेशियों के लिए दूर जंगलो से चारा लेकर आती नजर आती है पर सिर पर घास के गठ्ठर में उनका चेहरा भी छिप जाता है .यह रोज का काम है ,जंगल से पहले ईंधन के लिए लकडियाँ ले आना फिर मवेशियों के लिए चारा .बच्चे पहाड़ी खेतों में बकरी चराते नजर आ जाते है .शाम ढलते ही इनके घरों से धुंआ उठने लगता है .घर भी मामूली सा.अपने अगले मोड पर तिन कि छत वाला जो घर है उसके बाहर कुछ मुर्गियाँ नजर आती है तो बिना पट्टे वाला एक कुत्ता जो देखते ही भौकने लगता है .सामने बैठी महिला नमस्कार करने के बाद पूछती है ,साहब बच्चे अभी नहीं आए .बताता हूँ कि अगले महीने आ रहे है .फिर आगे बढ़ जाता हूँ बहादुर और दोनों कुत्तों के साथ .

Friday, April 27, 2012

वाइन ,सुल्ताना डाकू और जस्टिस प्यारेलाल

अम्बरीश कुमार प्रभा रस्तोगी अब पेंटिंग नहीं बनाती है .वे नब्बे बसंत पार कर चुकी है और रस्तोगी साहब सौ साल से सिर्फ चार साल पीछे है .प्रभा रस्तोगी की पेंटिंग की प्रदर्शनी दिल्ली के अलावा मुंबई के जहाँगीर आर्ट गैलरी में भी लग चुकी है .पर अब वे बागवानी के बाद टीवी सीरियल देखकर ज्यादा समय गुजारती है .सवाल पूछने पर जवाब था -पेंटिंग अब बहुत महंगा शौक भी है ,काफी दिन से छोड़ रखा है .एक ज़माने में बहुत बनाया पर अब मुश्किल हो गया है .प्रभा रस्तोगी की आवाज की खनक महसूस की जा सकती है .इस वीराने में बर्फीली चोटियों ,देवदार और चीड के जंगलों के अलावा फलों का बगीचा ही साथ रहता है .एक बेटा सेना में कर्नल है तो दूसरा डाक्टर पर वे बहुत कम यहाँ आते है .ठंड में यह बुजुर्ग जोड़ा ही दिल्ली पहुँच जाता है . उनका रिश्ता इस अंचल से करीब अस्सी साल से ज्यादा का है .वे जिस जगह रहते है वहाँ किसी की आवाज तक नहीं सुनाई पड़ती सिर्फ हवा चलने पर पेड़ों के पत्तों की आवाज आती है .पड़ोस में दिल्ली की मुख्य सूचना अधिकारी नीलम कपूर का काटेज है तो उससे ऊपर गोंडा के कैप्टन श्रीवास्तव का करीब अस्सी नाली का बड़ा बगीचा है जो एअर फ़ोर्स की नौकरी छोड़ने के साथ सत्तर के दशक में लिया था .वे भी अपनी पत्नी के साथ अकेले रहते है .दोनों परिवार सालों से साथ है .रस्तोगी साहब के पिता जस्टिस प्यारेलाल १९२९ -३० में नैनीताल के डिस्ट्रिक्ट जज थे .ये वही जज थे जिन्होंने १९३० में मशहूर सुल्ताना डाकू को फांसी की सजा दी थी .बाद में वे दलितों को लामबंद करने में जुटे .उस दौर में नैनीताल के इस अंचल में दलितों के साथ बड़ी जातियों के भेदभाव की कई शिकायते मिली तो उन्होंने आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष नारायण स्वामी को यहाँ बुलाया और फिर जातीय पूर्वाग्रहों को लेकर टकराव हुआ ,आंदोलन चला ,अनशन हुआ तब दलितों के साथ भेदभाव खत्म हुआ .प्रोफ़ेसर रस्तोगी के शब्दों में -बड़ी जातियों के लोग दलितो को घर में आना तो दूर सामने पड़ना भी अशुभ मानते थे .उन्हें समाज का हिस्सा तक नहीं माना जाता था .ऐसे में यहाँ आर्य समाज की स्थापना कर दलितों को आर्य कहा गया और जाती की जगह उन्हें आर्य लिखने को कहा गया .आज जो लोग यहाँ आर्य लिखते है वे उसी का नतीजा है . इस चर्चा के बीच रस्तोगी जी ने कहा -आप को वाइन का स्वाद लेना चाहिए .फिर वे एक बोतल से तीन छोटे वाइन ग्लास में एक पैग उडेला .एक मेरे लिए दूसरा अपनी संगनी के लिए तो तीसरा खुद के लिए .बड़ा ही गजब का अनुभव था नब्बे पार लोगों की संगत में बैठने का .दूसरे इस उम्र के किसी जोड़े को पहली बार ग्लास लिए देख रहा था .साथ ही उस दौर के किस्से भी सुनते जा रहे थे .रस्तोगी साहब बोले -यह तो प्लम का था अब खुमानी का स्वाद लें .यह सब इनका ही बनाया है .तभी मैंने बताया कि आज शादी की सालगिरह है तो फिर इसके नाम भी एक पैग हो गया .इसके बाद आडू अंगूर का स्वाद भी लिया .तबतक कुछ असर होने लगा था ,बहार बहादुर आवाज दे रहा था -साब ,बारिश होने वाला है जल्दी निकलना चाहिए .शाम ढल रही थी और सामने की पहाड़ियां काले बादलों से ढकती जा रही थी .पर मन नही माना तो उनसे बनाने की विधि पूछ ली .प्रभा जी का जवाब था -यह सब बगीचे के फलों से ही बनाते है .एक मर्तबान में फल को डालकर उसमे दो चम्मच ईस्ट और एक पोटली में गेंहूँ भी दाल देते है साथ ही चीनी भी .फिर इसे ढककर रख दिया जाता है करीब तीन महीने के लिए .बाद में इसे छानकर बोतल में भर देते है .सुनकर हैरान रह गया .बाहर अँधेरा हो चूका था और करीब एक किलोमीटर चलना था इसलिए उनसे विदा ली . फोटो -रस्तोगी जी का घर और इस जोड़े की फोटो

Thursday, April 26, 2012

पहाड़ के इस गाँव में

अंबरीश कुमार प्रोफ़ेसर रस्तोगी सुबह सुबह मिल गए वे स्टेशन जा रहे थे कैप्टन श्रीवास्तव के साथ .यह सिलसिला कई दशक से चल रहा है .रस्तोगी जी की उम्र ९६ साल होगी और रोज सुबह करीब पांच किलोमीटर का चक्कर काट लेते है .स्टेशन पर जाकर अखबार लेते है भट्ट जी के ढाबे में चाय पीते है और कुछ समय गुजारने के बाद घर लौट आते है .घर में भी देर तक कई तरह के कामकाज में जुटे रहते है .मिलते ही बोले -फलों की वाइन बनाई है शाम को आए स्वाद ले .रस्तोगी जी के घर और बगीचे में तरह तरह के फल है जिसमे कीवी का स्वाद हमने भी लिया है .उनके पिताजी अंग्रेजो के ज़माने में यहाँ जिला जज रह चुके है तब से वे इस अंचल से जुड़े है .यह वह जगह है जहाँ आजादी से पहले ही दलित आंदोलन खड़ा हुआ था .आर्य समाज की एक बैठक उस दौर में हुई थी जिसका एक लेख भी उन्होंने मुझे दिखाया .तब भावली से रामगढ का पैदल रास्ता था और बहुत ही व्यवस्थित कार्यक्रम हुआ .यहाँ तल्ला में आर्य समाज के अलावा बड़ा सा अरविंदो आश्रम भी है .रस्तोगी जी यहाँ अपनी पत्नी के साथ निर्जन जगह में कई दशक से रहते है जो पैर की दिक्कत की वजह से बाहर नहीं निकल पाती.उनकी उम्र भी नब्बे के आसपास होगी .कमरे में उनकी जो फोटो लगी है वह साठ के दशक की किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं है .रस्तोगी जी से मौसम की बात करते करते आगे निकल गए . यहाँ का मौसम काफी ठंढा हो गया है रात का तापमान बारह से चौदह डिग्री तो भरी दोपहरी में भी पारा चौबीस पर नहीं कर पाता.कल तक बादल आ रहे थे और जा रहे है पर बारिश नहीं हुई लेकिन आज सुबह उठा तो सब भीगा हुआ था .यहाँ दिनचर्या भी कुछ बदल गई है .दिन में एक बार करीब डेढ़ किलोमीटर दूर (लंबे रास्ते से ) स्टेशन जाना होता है .स्टेशन का अर्थ बस स्टेशन से है जो भवाली मुक्तेश्वर रूट पर पड़ता है .यह एक छोटा सा पहाड़ी बाजार है जो चारो ओर देवदार के अलावा सेब और आडू के बागानों से घिरा हुआ है .बाजार एक मुर्गे की दुकान से शुरू होता है और करीब सौ मीटर बाद सड़क पर मछली बेचने वाले की अस्थाई दुकान पर ख़त्म हो जाता है .मुर्गे वाले की दुकान से जुड़ा एक जनरल स्टोर है जिसके ऊपर मुरादाबाद से आए एक नौजवान ने बाल काटने की दुकान खोल दी है .उसके पड़ोस में रामगढ की पुलिस चौकी है तो ठीक नीचे देशी दारू की दुकान .बगल में खुबानी का एक बुजुर्ग पेड़ जो मौसम में पीली खुबानियों से लड़ जाता है .सामने जोशी जी की अत्याधुनिक दुकान है जहाँ पास्ता से लेकर माल में उपलब्ध सामान मिल जाता है .यह वही जोशी जी है जिनके पिता जी ने महादेवी वर्मा को यहाँ बसने के लिए जमीन दी थी .अब वे इस जमीन को वापस पाने के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे है क्योकि इनका मानना है कि अब उसपर उनका हक़ है . बगल में भट्ट जी का ढाबा है जो हर्बल चटनी के साथ आर्गेनिक आलू के पराठे के साथ बहुत कुछ खिलाते है और काफी स्वादिष्ट भी होता है .यहाँ करीब आधा दर्जन चाय समोसे और मिठाई की दुकान है तो इतनी ही किराना की दुकाने जो गैस सिलेंडर से लेकर सुई धागा और जूता चप्पल भी बेचते है .एक अदद बैंक भी है तो जिस बस स्टेशन के नाम पर इसका नामकरण हुआ वहा गाय का ठिकाना है .बगल में एक सार्वजनिक सौचालय के सामने सड़क के उस पार ही मछली वाला शाम तीन बजे जम जाता है जिसके पीछे इस रामगढ बाजार का अंतिम निर्माण यानी पीडब्लूडी का दफ्तर और गेस्ट हाउस है .यहाँ से हिमालय की बर्फ से ढकी चोटिया आपको रोक लेंगी अगर बादल न हो तो . यही पर तीखा मोड़ है जहाँ से बाए सिंधिया का वृन्दावन आर्चिड शुरू होता है जो अपने राइटर्स काटेज के सामने और सीडार लाज तक जाता है जहाँ से रास्ता बदल कर नीचे उतर जाता है .यहाँ सिंधिया और बिडला के बड़े बागान रहे है .यह समूचा इलाका फल कुमायु की फल पट्टी के नाम से मशहूर है और मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार का भी पुस्तानी सेब का बगीचा रहा है . यह रामगढ़ है जहा रवींद्र नाथ टैगौर न सिर्फ रहे बल्कि शान्तिनिकेतन यही बनाना चाहते थे .इस जगह की प्राकृतिक खूबसूरती से प्रभावित होकर ही महादेवी वर्मा ने यहाँ अपना घर बनाया और हर गरमी उनके घर पर साहित्यकारों का जमावड़ा होता था .निर्मल वर्मा की 'कौवे 'वाली कहानी यही तल्ला रामगढ की थी .यहाँ करीब दो दशक पहले जब आते थे तो रोज और कई बार बरसात होती थी .चारो ओर चीड देवदार के घने जंगल है .अपने दो कुत्ते बाघ का शिकार हो चुके है और बड़ी मुश्किल से गाय का बछड़ा बचा जो बाघ के हमले में घायल हुआ और छह महीना इलाज चला .इससे जंगल से घिरे और पहाड़ के बीच बसे इस गाँव का मिजाज समझा जा सकता है .यहाँ पक्षियों की आवाज से आप जग जाएंगे तो हवा की आवाज में खो जाएंगे .बादल जब आते है तो लगता है पहाड़ के नीचे किसी कारखाने से बनकर निकल रहे है .कुछ ही देर में बादल से सब ढक जाता है .

Sunday, April 22, 2012

आंदोलन की ताकते भी टीम अन्ना साथ छोड़ने लगी

अंबरीश कुमार लखनऊ , २२ अप्रैल । अन्ना हजारे के अराजनैतिक टीम की अराजनैतिक सोच पर राजनैतिक महत्वकांक्षा के चलते अब जमीनी आंदोलनों से जुड़े लोग कटते जा रहे है । एकता परिषद के पीवी राजगोपाल से लेकर पानी आन्दोलन के राजेंद्र सिंह आदि तो बहुत पहले ही कट चुके थे अब धीरे धीरे वे लोग भी जा रहे है जो राजनैतिक समझ और लम्बी दूरी की राजनीति के साथ अन्ना हजारे से जुड़े थे । जयप्रकाश आंदोलन से निकली छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के ज्यादातर कार्यकर्त्ता अब निकल रहे है । मेधा पाटकर की सक्रियता अब प्रतीकात्मक नजर आ रही है तो बाकि समूह हरिद्वार की बैठकों में ज्यादा समय दे रहे है । जन संगठनों का कहना है कि इस टीम के एजंडा में न तो नौजवान है और न किसान । न इन्हें जल जंगल जमीन की चिंता है और न ये कार्पोरेट घरानों की लूट पर कोई सवाल खड़ा करना चाहते है । न इन्हें दलित की चिंता है और न मुसलमान की । ये सिर्फ चेहरों की राजनीति कर रहे है । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह ने कहा -ये तो हमेशा से चेहरे की राजनीति करते रहे है । अन्ना हजारे के चेहरे के आसपास अपना चेहरा रखकर । क्योकि हजारे के अलावा कोई ऐसा चेहरा भी नहीं है जिसे देश के सामने ईमानदारी का चेहरा बताया जा सके । ऐसे में किसी भी आंदोलन का कोई चेहरा जो बड़ा हो सकता है है उसे धीरे धीरे बाहर कर दिया जाता है । टीम अन्ना न तो खुद कभी किसी जमीनी आंदोलन से जुडी रही है और न उन्हें इस सब में कोई दिलचस्पी है । अब बाबा रामद्र्व का आंदोलन आकर ले रहा है वे किसान से लेकर नौजवान का सवाल उठाने जा रहे रहे है तो इस टीम के कुछ सदस्य उसका विरोध कर रहे है । यह ठीक नहीं है । दूसरी तरफ मुस्लिम महिलाओं में काम करने वाली तहरीके निसवां इ अध्यक्ष ताहिरा हसन ने कहा -टीम अन्ना की साख ख़त्म होती जा रही है । अब तो वे उसी राजनैतिक दलों की तरह आपस में लड़ रहे है जिन्हें कोसते थे । इनका तो टुच्चा सा विवाद भी राष्ट्रीय हो जाता है । दुर्भाग्य यह है कि ये न तो कभी जन विरोधी आर्थिक नीतियों पर कुछ बोलते है और न कारपोरेट घरानों को लूट खसोट पर । इनके एजंडा में न तो गरीबी होती है और न भुखमरी । ऐसे में यह खाए पीए और अघाए लोगों का आंदोलन है जिसकी जमीन खिसक चुकी है । राजनैतिक टीकाकार वीरेंद्र नाथ भट्ट ने कहा -इस टीम की राजनैतिक समझ तो गजब की है दिसंबर की कड़ाके की ठंढ में उत्तर भारत में जेल भरो का नारा दे देते है और खुद मुंबई चले जाते है । अब जून की भीषण गरमी में अन्ना हजारे को घुमवा कर यह उन्हें फिर अस्पताल पहुंचा देंगे,क्योकि अनशन तो हमेशा अन्ना करते है टीम अन्ना तो टीवी पर रहती है । पीवी राजगोपाल देश में संघर्ष के बड़े बड़े कार्यक्रम कर रहे है उनके समर्थन में फ़्रांस पर लोग सड़क पर उतर आते है पर कभी मीडिया में उन्हें नहीं देखा । इन सब प्रतिक्रिया से साफ है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम इस समय जिस संकट से गुजर रही है अगर वे इससे नहीं निपट पाए तो इसकी साख और घटेगी । समर्थन की संख्या तो पहले ही घट चुकी है । jansatta

Saturday, April 21, 2012

टीम से निजात चाहते है अन्ना हजारे !

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २१ अप्रैल । अन्ना हजारे अपनी टीम से निजात तो नहीं पाना चाहते है ,यह आशंका उन ताकतों को है जो शुरूआती दौर में में अन्ना हजारे के आंदोलन से जुडी थी । इन ताकतों में जयप्रकाश आंदोलन के कार्यकर्ताओं से लेकर गाँधीवादी कार्यकर्त्ता शामिल है । खास बात यह है कि ये सब अब बाबा रामदेव के आंदोलन की तरफ काफी उम्मीद से देख रही है और सक्रीय पहल भी कर चुकी है । बाबा रामदेव को उत्तर प्रदेश से कई जन संगठनों और कार्यकर्ताओं का समर्थन मिलता नजर आ रहा है दूसरी तरफ अन्ना हजारे का उत्तर प्रदेश का न तो कोई कार्यक्रम है और न ही भविष्य की कोई योजना । अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़े सर्व सेवा संघ के मंत्री राम धीरज ने कहा -दिल्ली में जो हो रहा है उससे इसी तरह का संकेत मिल रहा है खासकर मीडिया में जिस तरह की खबरे आई है । गौरतलब है कि अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव के साथ आंदोलन का एलान अपनी टीम को साथ लेकर नहीं किया जिसके बाद यह मामला सार्वजनिक हुआ पर परदे के पीछे यह पहले से चल रहा था जिसकी एक नहीं कई वजहें बताई जा रही है । बाबा रामदेव के साथ जाने का फैसला जिस तरह अन्ना ने अकेले किया उसी तरह उन्होंने आगे का फैसला भी अपनी मर्जी से किया है । ध्यान रहे अब अन्ना हजारे एक मई से महाराष्ट्र के शिर्डी से यात्रा की शुरुआत करेंगे। अन्ना महाराष्ट्र के 35 जिलों का दौरा करेंगे। इसके आलावा वे देश में कई जगहों पर बाबा रामदेव के साथ सभा करेंगे। महाराष्ट्र में अन्ना हजारे को टीम के किसी सदस्य की जरुरत भी नहीं है क्योकि वहा उनका खुद का आधार रहा है है और वे मराठी के जरिए इस आंदोलन को व्यापक बनाएंगे । ऐसे में महाराष्ट्र में भूमिका बनेगी भी तो सिर्फ अन्ना हजारे की किसी और की नहीं । इसका राजनैतिक संदेश समझा जा सकता है । दरअसल कुछ महत्वकांक्षी सदस्य हजारे के जन आंदोलन से अपनी राजनैतिक जमीन तलाशने लगे थे और दो ने तो लोकसभा की सीट भी चिन्हित कर ली । पर अब आंदोलन का जो हाल है वही हाल उनकी राजनैतिक संभावनाओं का भी हो गया है । दूसरी तरफ बाबा रामदेव की तैयारी ज्यादा व्यापक और ठोस है । दिक्कत सिर्फ यह है कि उनके आंदोलन पर दक्षिण पंथी ताकतों का ठप्पा न लग जाए वर्ना उसे ज्यादा बड़ा समर्थन मिल सकता है । जयप्रकाश आंदोलन के कार्यकर्त्ता राम धीरज ने आगे कहा -बाबा रामदेव की तैयारी कई मायनों में महत्वपूर्ण है । वे नौजवानों से लेकर महिलाओं को अलग अलग संगठित कर रहे है इनमे आंदोलन वाली जमात भी शामिल है । दूसरे काला धन का मुद्दा ऐसा है जिसमे राजनैतिक दल से लेकर राष्ट्रिय अंतराष्ट्रीय मीडिया का भी समर्थन मिल सकता है । इस मामले में यह ज्यादा व्यापक आंदोलन बन सकता है । गौरतलब है कि बाबा रामदेव की तैयारी सिर्फ तीन जून तक की ही नहीं है बल्कि उसका विस्तार २०१४ का चुनाव है जो पहले भी हो सकता है । पर उनकी राजनैतिक ताकत जून से लेकर अगस्त तक दिख जाएगी । दूसरी तरफ अब बाबा रामदेव के साथ अन्ना हजारे के आ जाने से हजारे टीम के उन सदस्यों की दिकत बढ़ सकती है जो रामदेव के विरोधी रहे है । हजारे आंदोलन से जुड़े एक नेता ने कहा -टीम अन्ना के लोग यह बात कभी समझ ही नहीं पाए कि जबतक आप खुद की कोई व्यवस्था नहीं बना सकते तो बड़ी व्यवस्था का सपना कैसे देखेंगे । न कोई संगठन न कोई कार्यक्रम खाली मीडिया का ग्लैमर कबतक चलेगा । कुछ्ह देर चल भी जाए पर जिस अहंकार से ये लोग बोलते है उससे कोई आंदोलन नहीं चल सकता एनजीओ ही चल सकता है । jansatta

मीडिया में देशभक्ति की लहर

पिछले दिनों सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह की चिट्ठी लीक होने के बाद से मीडिया में देशभक्ति की लहर आयी हुई है और मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा तो जैसे देशभक्ति में सर से पाँव तक लिथड़ा हुआ नज़र आ रहा है। सेनाध्यक्ष ने लिखा था कि भारतीय सेना में ज़्यादातर हथियार पुराने पड़ गये हैं और उसके पास गोला-बारूद की कमी हो गयी है। इसके बाद टीवी चैनलों और अख़बारों के ज़रिये ऐसा माहौल बनाने की कोशिश शुरू हो गयी कि देश को बड़े पैमाने पर हथियारों की ख़़रीद की ज़रूरत है। चिट्ठी किसने और कैसे लीक की, इसके पीछे किसका हाथ है आदि-आदि विवादों के साथ-साथ लगातार इस बात पर जनमत बनाने का काम जारी है कि सेना के बड़े पैमाने पर ”आधुनिकीकरण” करने की ज़रूरत है। इस पूरे प्रश्न का एक क्रान्तिकारी मज़दूर वर्गीय नज़रिये से विश्लेषण करने की ज़रूरत है। चिट्ठी वास्तव में कहाँ से लीक हुई यह मुद्दा है ही नहीं। असली सवाल यह है कि सेना और सरकार के बीच यह अन्तरविरोध पैदा ही कैसे हुआ। पहली बात यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में जब भी संकट बढ़ता है तो पूँजीवाद के सिपहसालारों, पैरोकारों, राजकाज चलाने वालों की इच्छा से स्वतन्त्र कुछ अन्तरविरोध फूट पड़ते हैं और लाख दबाने पर भी सतह पर आ जाते हैं। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। व्यवस्था के भीतर की इस सच्चाई के सामने आ जाने का भी व्यवस्था के पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश में पूँजीवाद के पैरोकार जुट गये हैं। इस समय मीडिया राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत नज़र आ रहा है और इस बात की काफ़ी चिन्ता प्रकट की जा रही है कि चीन और पाकिस्तान से इस सेना के बूते हम कैसे निपट पायेंगे। दूसरी बात यह कि जिस तरह बताया जा रहा है कि 97 प्रतिशत हथियार पुराने हो गये हैं, वह एक भारी अतिश्योक्ति है। जैसा कि एक रिटायर्ड अनुभवी जनरल ने टीवी पर कहा कि कोई भी युद्ध सौ प्रतिशत हथियारों से नहीं लड़ा जाता। किसी भी युद्ध में किसी भी देश की सैन्य शक्ति के दो-तीन प्रतिशत से अधिक का इस्तेमाल नहीं होता। हर सेना के पास बहुत बड़ी तादाद में पुराने हथियार मौजूद होते हैं, सभी कुछ हर समय अत्याधुनिक नहीं होता। उन्नततम देशों की सेनाएँ भी बड़े पैमाने पर पुराने नियमित हथियारों का प्रयोग करती हैं। हर समय जितने हथियारों का आधुनिकीकरण किया जाता है, वह कुल हथियारों का बहुत छोटा प्रतिशत ही होता है। इसलिए 97 प्रतिशत हथियार पुराने पड़ जाने का यह आँकड़ा जिस तरह से पेश किया जा रहा है वह दरअसल बड़े पैमाने पर हथियारों की नयी ख़रीद के पक्ष में माहौल बनाने की एक कोशिश है। जिस देश में दुनिया की एक चौथाई भूखी जनता रहती हो, जहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ ही एक तिहाई से ज़्यादा आबादी भयंकर ग़रीबी की शिकार हो, रोज़ नौ हज़ार बच्चे भूख और कुपोषण से मर जाते हों, आधी से अधिक आबादी को जीवन की बुनियादी सुविधाएँ भी न मिल पाती हों, वहाँ लाखों-करोड़ रुपये हथियारों पर ख़र्च करने के शासक वर्ग के आपराधिक कृत्य को सही ठहराने की यह भी एक कोशिश है। भारत पहले ही दुनिया में हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदारों में शामिल है। अभी ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका का जो गँठजोड़ (ब्रिक्स) उभर रहा है उसमें हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार भारत ही है। फिर भी चीन की सैन्य शक्ति के मुक़ाबले यह बहुत पीछे है और बहुत कोशिश करके भी उसकी बराबरी में नहीं आ सकता। यहाँ यह चर्चा करना भी महत्वपूर्ण है कि चीन अब साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएँ पाल रहा है और क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं में भारत से उसके टकराव की अभी बहुत कम सम्भावना है। पाकिस्तान के मुक़ाबले तो भारत की सैन्य शक्ति पहले ही कई गुना अधिक है। इसलिए यह समझा जा सकता है कि इन देशों से सम्भावित ख़तरे के कारण नहीं बल्कि अपनी क्षेत्रीय विस्तारवादी महत्वाकांक्षा के चलते ही भारतीय शासक वर्ग इतने बड़े पैमाने पर हथियारों का ज़खीरा इकट्ठा कर रहे हैं। अगल-बगल के छोटे देशों को डराने के लिए और दुनिया के पैमाने पर अपनी ताक़त दर्शाने के लिए यह सारी क़वायद की जा रही है। परमाणु शक्ति तो वह पहले ही हासिल कर चुका है। भारतीय शासक वर्ग जानते हैं कि साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा में वे अपने बूते पर नहीं टिक सकते। विश्वस्तर पर लूट में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए उन्हें किसी न किसी गुट में शामिल होना है और इसके लिए अपनी सामरिक शक्ति का मुज़ाहिरा करते रहना भी ज़रूरी है। इसके अलावा विराट सैन्य शक्ति का हव्वा दिखाना अपनी जनता के लिए भी ज़रूरी होता है। हर शोषक राज्यसत्ता अपने उन्नत, शक्तिशाली सैन्यतन्त्र का हव्वा खड़ा करने की कोशिश करती है जिससे कि आम जनता उससे टकराने की हिम्मत न जुटा सके। फिर सवाल उठता है कि यदि सेना इतनी महत्वपूर्ण है तो यह कमज़ोरी बाहर कैसे आ गयी। यहाँ मुख्य बात व्यवस्था के आपसी अन्तरविरोधों की है। देशभक्ति के नाम पर अक्सर इसकी चर्चा नहीं होती मगर यह एक खुला रहस्य है कि सेना में ऊपर से नीचे तक ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार व्याप्त है। सैनिकों की वर्दी और भोजन से लेकर ताबूतों की ख़रीद से लेकर हथियारों के सौदों तक में ज़बर्दस्त कमीशनख़ोरी होती है। हथियारों के सौदागरों की अन्तरराष्ट्रीय लॉबियाँ इतनी ताक़तवर हैं कि वे कई देशों की सरकारों को गिराने की क्षमता रखती हैं। भले ही हथियार देश की रक्षा के नाम पर ख़रीदे जाते हों मगर सच यह है कि हथियार आज दुनिया का सबसे बड़ा उद्योग है। हथियार बेचने के लिए युद्ध तक करवाये जाते हैं। हथियारों के एजेण्टों का एक विश्वव्यापी तन्त्र है जिनके बिना यह उद्योग चल ही नहीं सकता। अपनी-अपनी हथियार कम्पनियों की पैरोकारी करने में सरकारें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं। हाल में भारत सरकार द्वारा फ्रांस से रफ़ाले लड़ाकू विमान खरीदने के लिए किये गए 76 हज़ार करोड़ रुपये के सौदे के बाद जिस तरह ब्रिटेन के प्रधनमन्त्री अपने देश की कम्पनी को ठेका न मिलने पर भड़क उठे थे वह इस बात का उदाहरण है। यह स्पष्ट है कि सेनाधयक्ष को लेकर चल रहा सारा विवाद हथियारों के सौदागरों, उनकी अलग-अलग लॉबियों और उनसे जुड़े नेताओं और अफ़सरों की प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा है। संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था और एक कमज़ोर सरकार की वजह से यह अन्तरविरोध फूट कर सतह पर आ गया है। लेकिन इससे सत्ता का ज़्यादा नुक़सान नहीं होने वाला क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी जानती ही है कि सेना में किस कदर भ्रष्टाचार फैला हुआ है। मगर इससे सत्ता को फ़ायदा यह हुआ कि अब आने वाले कई वर्षों तक हथियारों की ख़रीद पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही ठहराया जा सकेगा। इस पूरे प्रकरण में, मीडिया, ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका एक बार फिर नंगी हुई है जो बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के अन्धराष्ट्रवाद का ढोल पीटने और देशभक्ति के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से निचोड़ी गयी भारी रकमों को बड़े-बड़े रक्षा सौदों में ख़र्च करने का माहौल बनाने में जुट गया है। कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं होती कि युद्ध और हथियारों के धन्धे की जड़ में पूँजीवाद ही है। दूसरे महायुद्ध के बाद से कोई महायुद्ध भले न हुआ हो लेकिन पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के चलते हुए या फिर साम्राज्यवादियों द्वारा भड़काए गए सैकड़ों छोटे-बड़े युद्धों में कई करोड़ लोग मारे जा चुके हैं। दुनिया की समस्त वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता का सबसे बड़ा हिस्सा मौत के नये-नये सामान बनाने और विकसित करने में लगा हुआ है। जब तक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का अस्तित्व रहेगा तब तक हथियारों का धन्धा फलता-फूलता रहेगा। पूँजीवाद भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता और हथियारों का कारोबार दलाली और अपराध से मुक्त नहीं हो सकता। व्यवस्था के पैरोकारों की यह चिन्ता होती है कि जिन सौदों में सबकी भलाई हो उनकी असलियत उजागर न हो। हर बार ऐसे अन्तरविरोधों के प्रकट हो जाने के बाद नियन्त्रण और सन्तुलन के अलग-अलग इन्तज़ाम किये जाते हैं जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। इस बार भी ऐसा करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन न तो हथियार ख़रीदने की होड़ बन्द होने वाली है और ना ही हथियारों की ख़रीद में दलाली पर स्थायी रोक लग सकेगी। (मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012)

आंबेडकर बनाम लोहिया

अरुण कुमार त्रिपाठी बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि विवाद से लंबे समय बाद निकला उत्तर प्रदेश अब आंबेडकर और दलित पार्कों के विवाद की तरफ बढ़ रहा है। जिस प्रदेश का भावुक राजनीति का लंबा इतिहास रहा हो, वहां इस तरह के विवाद कितने घातक हो सकते हैं, उसे वहां के लोगों से ज्यादा कौन जान सकता है? इसके बावजूद इसे आंबेडकर बनाम लोहिया, पार्क बनाम अस्पताल, मायावती बनाम मुलायम सिंह बना कर हवा दी जा रही है तो इसमें जरूर कुछ निहित स्वार्थ है। जाहिर है, इस विवाद से बसपा नेता मायावती को विशेष तौर पर दलितों में अपना घटता जनाधार समेटने में आसानी होगी, जो इस चुनाव में प्रदेश की पचासी आरक्षित विधानसभा सीटों में सिर्फ पंद्रह पर जीत दिला सका है। उससे ज्यादा आसानी उन लोगों को भी होगी जो विघ्नसंतोषी प्रवृत्ति के होते हैं और जो इसी तरह से विवादों में अपना उल्लू सीधा करते हैं और सत्ता के करीब पहुंचते हैं। ऐसे लोगों में अफसर, राजनेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी सभी शामिल होते हैं। बाबा साहब आंबेडकर की इसी जयंती पर मायावती ने लखनऊ के सामाजिक प्रेरणा स्थल पर चेतावनी दी कि अगर पार्कों और मूर्तियों से छेड़छाड़ की जाएगी तो कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो जाएगी और उसका दायरा महज प्रदेश नहीं पूरा देश होगा। जाहिर-सी बात है कि उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुखिया अखिलेश यादव को इस चेतावनी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि आंबेडकर कोई महात्मा गांधी नहीं हैं जिनके अनुयायियों को सहनशीलता और अहिंसा की शिक्षा दी गई है। बाबा साहब के अनुयायियों में एक प्रकार का जुझारू जज्बा है और वे उनके लिए मरने-मिटने को तैयार हो सकते हैं। इसी जज्बे के कारण समाज के दूसरे तबकों में दलितों की समस्या के प्रति एक समझ और चेतना भी आई है और दलित चेतना का सामाजिक और राजनीतिक विस्तार हुआ है। इस जज्बे की झलक हम महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्यों में समय-समय पर मूर्तियों से छेड़छाड़ के सवाल पर होने वाली हिंसक घटनाओं में देख सकते हैं। नब्बे के दशक में उत्तर भारत ने उस चेतना के उभार को तब देखा था, जब महात्मा गांधी के हरिजन को पूरी तरह से नकार कर उसकी जगह दलित शब्द अपना लिया गया था और कांशीराम की रैली से लौटते हुए दलितों ने राजघाट पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को अपवित्र भी किया था। जबकि महात्मा गांधी को मानने वालों की तरफ से उसका कोई विशेष प्रतिकार या निंदा नहीं हुई थी। हालांकि बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार महाराष्ट्र के दलित आंदोलन की तर्ज पर नहीं बनाया और न ही उसने समाज के विभिन्न तबकों की सांस्कृतिक संवेदनाओं को आहत किया। उसने अपने आरंभिक चरण में तिलक तराजू और तलवार के नारों के अलावा प्रतीकवाद का इस्तेमाल कम ही किया। सर्वजन की राजनीति करने के दौरान तो बसपा ने उन्हीं ब्राह्मणों की सभाएं और रैलियां करवार्इं, जिनकी राजनीति से आंबेडकर का सर्वाधिक विरोध था। लेकिन तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मायावती ने बाबा साहब और कांशीराम के साथ अपनी मूर्तियां लगवानी शुरू कर दीं तो यह स्पष्ट हो चला था कि ब्राह्मणों के सम्मेलनों के साथ-साथ वे प्रतीकवाद की ठोस राजनीति कर रही हैं। इसके लिए संसाधन जुटाने में उन्होंने उस लोकतांत्रिक मर्यादा और नियम-कानून को ताक पर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसे कायम करने के लिए आंबेडकर ने संविधान लिखा था। इन स्मारकों के निर्माण में पार्टी और अफसरशाही दोनों को लाभ हो रहा था। धन तो आ ही रहा था, राजनीतिक जमीन भी तैयार हो रही थी। उन्हें मालूम था कि ये स्मारक आगे उनकी राजनीति के लिए भौतिक ही नहीं भावुक आधार बन सकते हैं। उन्हें छेड़ा गया तो उनका एक स्वरूप मंदिर-मस्जिद विवाद जैसा भी हो सकता है और दलित प्रतीकवाद पर एक राष्ट्रीय माहौल भी बन सकता है। मायावती की चेतावनी और अखिलेश यादव की टिप्पणियों से साफ लग रहा है कि कुछ न कुछ टकराव तो होगा ही। क्योंकि अखिलेश यादव ने यह नहीं कहा है कि इन विशाल पार्कों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। बल्कि उन्होंने यह कहा है कि मूर्तियों से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, पर वहां पड़ी अतिरिक्त जमीन का इस्तेमाल अस्पतालों के लिए किया जाएगा, जिससे औरतों और बच्चों को फायदा होगा। ऐसे में अखिलेश को ध्यान रखना चाहिए कि अयोध्या की विवादित जमीन- जिसका भाजपा सांप्रदायिक इस्तेमाल करती रही है- के धर्मनिरपेक्ष इस्तेमाल के तमाम सुझाव परवान नहीं चढ़ सके। मुलायम सिंह ने एक बार वहां बाबरी मस्जिद फिर से बनाने का वादा किया था तो कांशीराम ने सार्वजनिक शौचालय बनवाने का। विडंबना देखिए कि उत्तर प्रदेश में आंबेडकरवाद के उदय का दौर भी वही है, जब वहां हिंदुत्व के मंदिर निर्माण का प्रचंड आंदोलन चल रहा था। अयोध्या में राम मंदिर के लिए खंभे गढ़े जा रहे थे और शिलापूजन के नाम पर चंदा इकट्ठा किया जा रहा था। परोक्ष तौर पर मायावती ने अपने समर्थकों की उसी भावना पर सवार होकर इन स्मारकों का निर्माण करवाया है और मायावती की प्रशंसा करने वाले तमाम पत्रकार और बुद्धिजीवी तो यहां तक कहते हैं कि भाजपा और संघ परिवार मंदिर नहीं बनवा पाया, पर मायावती ने उसे कहीं ज्यादा भव्य स्मारक खडेÞ कर दिए। कुछ लोग तो यह तक कहते हैं कि मंदिर निर्माण भी मायावती ही करवा सकती हैं। सवाल उठता है कि मायावती ने दलित प्रतीकों के नाम पर अंधाधुंध निर्माण और अपनी मूर्तियां लगाने की जो अंधेरगर्दी मचाई है उसका क्या किया जाए? निश्चित तौर पर उसके विरुद्ध जनभावनाएं भी हैं और समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में एक तरह का गुस्सा भी। सपा के जनाधार के एक हिस्से के साथ-साथ झगड़ा और टकराव पैदा करने वाले सवर्ण भी चाहते होंगे कि इन पार्कों पर कुछ कार्रवाई हो। इसी तरह मायावती सरकार के तमाम फैसलों को भी पलटने का दबाव सपा सरकार पर होगा और बहुमत होने के कारण उनमें से कुछ निर्णयों को पलटना शुरू भी कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, सरकारी ठेकों में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने का जो फैसला मायावती सरकार ने 2009 में किया था, उसे रद्द कर दिया गया है। तरक्की में आरक्षण का मामला भी इसी तरह विवादों है। इससे पढ़े-लिखे दलितों में नाराजगी पैदा होना शुरू हो गई है। अखिलेश सरकार अगर मायावती सरकार के भ्रष्टाचार की जांच करवाती है और उसके गलत फैसलों को पलटती है तो उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर ऐसा करते समय उन्हें खुन्नस और बदले की भावना के बजाय समाजवाद और डॉ राममनोहर लोहिया की उस महान परंपरा को ध्यान में रख कर काम करना चाहिए, जिसमें डॉ भीमराव आंबेडकर की उपेक्षा और अपमान नहीं, उनका सम्मान और उनसे तालमेल का भाव ही नहीं प्रयास भी रहा है। बाबा साहब शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की जगह सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। इस नजरिए से उनमें और डॉ लोहिया में पत्राचार हुआ था। लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को हैदराबाद से आंबेडकर को पत्र लिखा- प्रिय डॉ आंबेडकर, ‘मैनकाइंड’ पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोल कर रखने का प्रयास करेगा। इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। आप जिस विषय पर चाहें लिखिए। हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो, बल्कि आश्चर्य भी करे। मैं चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी होनी चाहिए ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें, बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के नेता बनें। लोहिया के उस पत्र के बाद उनके दो मित्रों- विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी- ने आंबेडकर से मुलाकात की, जिसका जिक्र आंबेडकर ने लोहिया को लिखे जवाबी पत्र में किया। आंबेडकर ने यह भी आश्वासन दिया कि शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति में वे उनके मित्रों का प्रस्ताव रखेंगे। विमल और धर्मवीर ने डॉ आंबेडकर को कानपुर की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का न्योता भी दिया था। यह सिलसिला चल ही रहा था और लोहिया ने आंबेडकर से मिलने का समय मांगा था और उसके टलने और फिर तय होने के बीच ही बाबा साहब का निधन हो गया। कहने का मतलब यह है कि आंबेडकरवादियों की परंपरा भले गांधी और उनके अनुयायियों के प्रति आक्रामक रही हो, लेकिन लोहिया की परंपरा आंबेडकर के प्रति बेहद सम्मान की रही है। रहनी भी चाहिए, क्योंकि आंबेडकर, लोहिया से उन्नीस साल बडेÞ थे और उनका जाति संबंधी अध्ययन और चिंतन काफी व्यवस्थित था। सामाजिक समानता पर बेचैनी तो थी ही। उन्होंने दलितों ही नहीं, शूद्रों के बारे में भी विस्तार से विचार किया है और वे उनके शुभचिंतक थे। इसलिए अखिलेश सरकार अगर अपने को समाजवादी आंदोलन और राममनोहर लोहिया की परंपरा से जोड़ती है और उत्तर प्रदेश में मिले इस ऐतिहासिक मौके का बेहतर इस्तेमाल करना चाहती है तो उसे लोहिया पार्क बनाम आंबेडकर पार्क और उसके बहाने लोहिया बनाम आंबेडकर की नकली लड़ाई में नहीं उतरना चाहिए। उनके विचारों में मतभेद हो सकते हैं, उनके अनुयायी भी अलग हो सकते हैं, लेकिन समाजवादी आंदोलन आज जिस नाजुक और महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है उसमें इस झगड़े से वे ही हासिल कर सकते हैं जो या तो पूंजीवादी खेल खेलना चाहते हैं या फिर सवर्णों की फूट डालो राज करो वाली नीति अपना रहे हैं। समाजवादी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सत्ता में आने से समाजवाद की चर्चा फिर से शुरू हुई है। वह कैसा होगा, क्या होगा यह अलग बात है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंदी के दौर में उस शब्द में नया अर्थ डालने का अवसर है। भाकपा और माकपा ने अपने हाल में संपन्न हुए सम्मेलनों में समाजवाद के भारतीय स्वरूप की तलाश भी शुरू की है। संवाद और समन्वय की तमाम संभावनाओं को देखते हुए यह कतई शुभ नहीं होगा कि मूर्तियों और पार्कों के बहाने दलित बनाम पिछड़ा और लोहिया बनाम आंबेडकर का नया विवाद शुरू किया जाए। इसे टालने से ही उत्तर प्रदेश का कल्याण होगा और वहां की समाजवादी सरकार का भी।

Thursday, April 19, 2012

अब जीवन मांग रही है बुंदेलखंड की नदियाँ

अंबरीश कुमार महोबा , १९ अप्रैल । बुंदेलखंड अब पर्यावरण विनाश की कीमत चुकाने लगा है । पहले पानी का जो संकट जून में पैदा होता था वह अब सामने है । पिछले साल के मुकाबले पानी का भू जल स्तर पंद्रह फुट नीचे जा चुका है और ताल तालाब सूखने लगे है । पिछली बार मानसून ठीकठाक रहा पर पिछले एक दशक में जिस बेरहमी से बुंदेलखंड के प्राकृतिक संसाधनों को लूट कर उजड़ा गया उसके चलते पानी संचय नहीं किया जा सका जिसका नतीजा सामने है । कीरत सागर उन तालाब में एक है जो सैकड़ों सालों से इस अंचल के लोगों की प्यास बुझाने के साथ उनका जीवन बना हुआ था पर अब यह खुद जीवन मांग रहा है । पानी का हाल यह है कि कही एक फुट तो कही चुल्लू भर पानी । पानी भी ऐसा जिसके पीने
के बाद लोग अस्पताल पहुँच रहे है । सिर्फ बुधवार की रात महोबा के जिला अस्पताल में सौ से ज्यादा लोग पानी की बीमारी के चलते पहुंचे ।महोबा के सभी बड़े तालाब मसलन मदन सागर, रहील्य सागर, कल्याण सागर, दिसरापुर सागर और विजय सागर संकट में है । महोबा में तो बड़े तालाब है पर संकट सभी तरह के ताल तालाब से लेकर नदियों तक पर मंडरा रहा है । बुंदेलखंड में पानी का संकट गहराने जा रहा है । यह स्थिति झांसी ,हमीरपुर ,जालौन से लेकर बांदा तक की है । संकट की मुख्य वजह पहले जंगल का सफाया और फिर खनन के नाम पर पहाड़ को खोदकर खाई में बदल देना है । इस समूची कवायद में ताल तालाब बर्बाद हुए तो नदियाँ भी सूखने लगी । यही वजह है कि बेतवा ,यमुना, उर्मिल, पहूज, कुंआरी और कालीसिंध जैसी कई नदियाँ बुंदेलखंड में खुद जीवन मांग रही है तो उनकी सहायक नदियाँ दम तोड़ चुकी है । नदियों की धारा टूटने का सबसे बड़ा कारण है अत्याधिक खनन ।इससे नदियों की धारा को तो तोड़ा ही गया है साथ ही बहती धारा की दिशा भी बदल दी गयी है ।सामान्य खनन से सौ गुना अधिक खनन के चलते अब यह अंचल बूंद-बूंद पानी के लिए मोहताज हो रहा है ।जंगल रहे नहीं और पहाड़ को बारूद लगा कर उड़ा दिया गया ऐसे में पानी के परंपरागत श्रोत तो ख़त्म हुए ही नदियों पर भी संकट गहरा गया है । पहाड़ में बारूद लगाने का सिलसिला थमा नहीं है जिसके चलते पर्यावरण चौपट हो चुका है । बुंदेलखंड में १०३३ वैध खदाने है जिनमे २६० सिर्फ महोबा में । इससे अंदाजा लगा सकते है इस अंचल में बारूद का कैसा इस्तेमाल हो रहा है । लगातार विस्फोट से सबसे ज्यादा नुकसान पानी के परंपरागत श्रोतों के साथ भू जल पर होता है । सरकार इस संकट से किस तरह निपटना चाहती है यह देखना रोचक होगा । पिछले कुछ सालों में मह्होबा जिले में जंगलात विभाग ने कागजों पर जो जंगल उगाए है उसका रकबा समूचे महोबा जिले का चार गुना है। यह जंगल किसके कितना काम आएगा यह समझ सकते है । महोबा में हरिश्चंद्र के मुताबिक बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों में पहाड़ों की ब्लास्टिंग की वजह से वातावरण दूषित हो चुका है। पर्यावरण के साथ जो खिलवाड़ पहले हो रहा था वह अब भी जारी है । नेता वाही है सिर्फ झंडे बदल गए है । सरकार सिर्फ उन जिलों को देख रही है जो पहले से ही विकसित है। बुंदेलखंड के महोबा,बांदा, चित्रकूट,हमीरपुर, जालौन जिलों में बांधों व नदियों के पानी अपनी छोर छोड़ डैक लेबल ( खतरे के निशान )तक पहुंच गए हैं। जिसकी वजह से वहां के निवासियों को पीने के लिए भी पानी बड़ी मुश्किल से मिल पा रहा है। एक उम्मीद कुँए व तालाब की जो रहती थी इस बार उसने भी साथ छोड़ दिया उनकी भी तलहटी सूख रही है । गौरतलब है कि जो हाल यहां पानी का मई जून की भीषण गर्मियों में होता था। इस बार ऐसी स्थति अप्रैल से ही देखने को मिल रही है। जालौन जिले पर नजर डाले तो पानी के संकट की एक बानगी नजर आएगी ।इस जिले में कुल 1556 तालाब हैं जिसमें 557 आदर्श तालाब हैं जो वर्ष 2009 से 2011 के बीच बनवाए गए थे थे लेकिन इनको बनवाते समय पानी भरने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई जिसके छलते अब वे बदहाल है । इस जिले के चारो ओर पांच बड़ी नदियां हैं जिसमें यमुना, वेतवा, पहूज, कुंआरी,कालीसिंध अब बरसाती नदी नाले में बदलती जा रही है । उरई से सुनील मिश्र के मुताबिक पानी के नाम पर करोड़ो का खेल करने वाले विभागों की करतूतो के कारण एक फिर पानी का संकट पैदा होने के आसार दिखने लगे है क्योकि बुन्देखण्ड पैकेज मे परम्परागत स्रोत कहे जाने वाले 2215 कुओ का जीर्णोधार करने के लिये 9.44 करोड का बजट लघु सिचाई विभाग को दिया गया था जो खर्च भी कर लिया गया पर कुँओं की दशा जस के तस है । इसी तरह जिले के 651 आदर्श तालाबो के लिये 35 करोड की धनराशि डीआरडीए. को दी गई थी जिसमें 31 करोड खर्च कर दिए गए जिसमें 557 आदर्श तालाबो को बनवा भी दिया गया । पर क्या बना यह पता नहीं क्योकि पिथउपुर, बम्हौरा, देवकली, महेवा, उरकलाकला, कीरतपुर, मई, आदि गांव के तालाबों को खाली देखा गया हैँ। और ऐसे ही अधिकांश तालाबो को भरा ही नही जा सकता इनके भरने के लिये कोई बंदोवस्त नही है नहर का पानी भी इनको नही भर सकता क्योकि यह तालाब नहरो की ऊँचाई से अधिक ऊँचाई पर बनवा दिए गए है ।दूसरी तरफ जिले में हैण्डपम्प पानी देने से जबाव देने लगे है जल स्तर 5 से 10 फुट नीचे चला गया है । कोंच, कदौरा, डकोर, महेवा, ब्लाकों के गांवो में पेयजल के संकट के साथ-साथ मवेशियों के पीने के लिये पानी का संकट दिखाई देने लगा है।जला निगम के अधिशाषी अभियंता केशवलाल की माने तो उरई नगर जो जनपद का मुख्यलाय है यहां 25.84 एमएलडी पानी की आवश्यकता है लेकिन सिर्फ 17.26 एमएलडी पानी दिया जा पा रहा है जो आने वाले संकट को बता रहा है ।

Sunday, April 15, 2012

सामंत की कचहरी में इंसाफ



अंबरीश कुमार
मनिकापुर । राजे रजवाड़े अब नहीं रहे पर कई जगह आज भी इन पुरानी रियासतों के नए उत्तराधिकारी ग्रामीण समाज में सामंत से लेकर महाराज की भूमिका निभा रहे है । उत्तर प्रदेश में चाहे बलरामपुर हो ,रामपुर या फिर मझौली ,भद्री ,मांडा,शंकरगढ़ कालाकांकर ,अमेठी से लेकर मनिकापुर यहाँ की रियासतों के उतराधिकारी महाराज ,नवाब ,रानी साहिबा या राजकुमारी ही कहलाती है । बात यही तक ही सीमित नहीं है उस दौर की कई परंपरा आज भी इन रजवाडो में कायम है । पूर्वांचल की ऎसी ही एक ताकतवर रियासत मनिकापुर में आज भी महाराज की कचहरी में फरियाद सुनी जाती है और इंसाफ होता है । आने वालों की संख्या भी कम नहीं दिन भर में तीन चार सौ से ज्यादा हो सकती है हालाँकि इसमे भी एक फरियादी के साथ पांच दस लोग तक होते है । शनिवार की शाम बक्सरा के लोनिया पूर्व गाँव की एक जवान महिला विमला करी बारह साल के पुत्र किशन के साथ पहुंची और इंसाफ की गुहार लगाई । गाँव के एक दबंग ने बच्चों के झगडे में न सिर्फ बच्चे की पिटाई की बलिक इस महिला को भी बुरी तरह मारा। और जैसा ज्यादातर मामलों में होता है थाने में दबंग की सुनी गई और कमजोर को भगा दिया गया । अब ये लोग राजा कुंवर आनंद सिंह के महल स्थित बंगला में पहुंचे फरियाद के लिए । और फ़ौरन इस दिशा में कदम भी उठाया गया ।
महल के ठीक सामने रुद्राक्ष के पेड़ की हरी और बीच बीच में सुर्ख पत्तियों के नीचे खपरैल की छत वाला एक झोपडी जैसा भवन है जिसमे पचास साथ लोग बैठ सकते है इसे बंगला कहा जाता है और यही पर फरियादी आते है जिनकी बात सुनी जाती है और जो भी जरुरी कदम हुआ वह उठाया जाता है । यहाँ बाकायदा एक पेशकार है और झगडा विवाद रजिस्टर भी । ब्रिटिश राज में जमींदारी व्यवस्था के चलते न सिर्फ भू राजस्व वसूला जाता था बल्कि औपनिवेशिक हुकूमत भी कायम रहती थी । राजपाट के साथ यह सब तो चला गया लेकिन बहुत कुछ अभी भी बाकी है खासकर ऎसी रियासतों के अधीन वाले ग्रामीण समाज में । उन रियासतों में ज्यादा फरियादी आते है जिनके उतराधिकारी राजनैतिक ताकत भी रखते है । यही वजह है राजा बलरामपुर से ज्यादा राजा मनिकापुर के यहाँ लोग पहुँचते है । राजा मनिकापुर यानी कुवर आनंद सिंह लंबे समय तक लोकसभा में रहे तो इस समय अखिलेश यादव सरकार में काबीना मंत्री है तो उनके पुत्र कीर्तिवर्धन सिंह तीन बार सांसद रहे पर पिछला चुनाव हार गए पर थे । इसलिए इसे इनकी राजनैतिक ताकत का भी असर माना जा सकता है ।
पर कुछ बदला बदला भी नजर आता है । जो सामंत कभी शिकार से लेकर तरह तरह के शौक रखते थे आज उनकी नई पीढी अलग रास्ते पर है । मनिकापुर रियासत की निहारिका सिंह अब जंगल ,जमीन और जानवर बचाने की मुहिम में जुटी है । उनका कार्यक्षेत्र यहाँ के सुहेलवा वन्य जीव अभ्यारण्य से लेकर दिल्ली तक है और इस लड़ाई को वे सुप्रीम कोर्ट तक ले जा चुकी है । निहारिका सिंह ने जनसत्ता से कहा - लोगों के फरियाद लेकर आने की परंपरा बहुत पुरानी है । बचपन से हम सुनते आए है कि नालिस वाले आए है । यह सिर्फ यहाँ ही नहीं जहाँ इस तरह की परंपरा रही उनमे बहुत जगह यह कायम है जो लोगों का भरोसा ही दर्शाती है ।
ब्रिटिश दौर की कुछ झलक अभी भी इन रियासतों में दिखती है भले तोपों की सलामी और गार्ड आफ आनर की परंपरा ख़त्म हो गई हो । यहाँ पर एक पेड़ के नीचे बड़ा घंटा है जो हर एक घंटे बाद बजाकर समय बताता है । करीब सौ कर्मचारियों का स्टाफ है पर मैनेजर हरीश पांडेय को यह नहीं पता इस महल में कमरे कितने है । जेड प्लस सुरक्षा के इस दौर में इस रियासत की सुरक्षा सिर्फ बिना हथियार वाले छह निजी सिपाहियों के हाथ में है । बावन बीघा में बने इस महल की चमक दमक भी पहले जैसी नजर नहीं आती और न ही आर्थिक भव्यता का कोई प्रतीक । महल के डाइनिंग हाल में दीवार पर लगी ब्रिटिश दौर तीन बंदूके और एक तमंचा ही इस रियासत की पुरानी ताकत का अहसास करता है जो कभी बारह कोस की रियासत थी । न अब कोई तोप दिखती है और न घोड़े और न कोई सेना ।
जनसत्ता
फोटो - कुअंर आनद सिंह की पुस्तैनी कचहरी

Friday, April 13, 2012

युवा पहचान अब राहुल नहीं अखिलेश


अंबरीश कुमार
लखनऊ , अप्रैल । उत्तर प्रदेश में युवा नेतृत्व की पहचान अब राहुल गांधी नहीं अखिलेश यादव है । जिस तरह राजनीति में कदम रखने के बाद राहुल गांधी को नौजवानों ने हाथोहाथ लिया था ठीक उसी तरह अब अखिलेश यादव को लिया जा रहा है । गुरुवार को उत्तर प्रदेश में लड़कियों के सबसे प्रतिष्ठित लखनऊ के इसाबेला थार्बन (आईटी) कालेज की छात्राओं ने जिस उत्साह और उमंग के साथ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का स्वागत किया उसने युवाओ में इस नए नेतृत्व का भविष्य दूर तक दिख रहा है। यह संयोग ही है कि इस कार्यक्रम के बाद आज समाजवादी पार्टी ने आज एलान भी कर दिया कि हाई स्कूल पास छात्र छात्राओं को लैपटाप व टैबलेट देने की दिशा में पहल कर दी गई है ।
आईटी कालेज सभ्रांत वर्ग की लड़कियों का मशहूर कालेज रहा है जिसके १२५ साल पूरे होने का समारोह चल रहा है । बीते सौ से ज्यादा सालों में इस कालेज से कई मशहूर हस्तियाँ निकल चुकी है जिसमे कई फिल्म में भी गई । ऐसे कालेज की लड़कियां जब गाँव की पार्टी माने जानी वाली समाजवादी पार्टी के नेता और नौजवान मुख्यमंत्री से हाथ मिलाने के लिए धक्का मुक्की पर उतर आए और उन्हें संभालना मुश्किल हो तो अखिलेश यादव की युवाओं में बढती लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है । इस तरह की भीड़ कालेजों में राहुल गांधी के लिए जुटाती रही है । पर सफ़ेद कुर्ता पायजामा और लाल टोपी वाला यह नौजवान अंग्रेजी भाषी लड़कियों के बीच लोहिया से लेकर जनेश्वर मिश्र के समाजवाद का पाठ पढ़ा दे और इन छात्राओं की तालियाँ बटोर ले जाए यह समाजवादी पार्टी की बदलती राजनीति का नया संकेत भी है । जो पार्टी कल तक लाठी का प्रतीक बन हुई थी आज वह लैपटाप से नई पहचान बनाने जा रही है । गौरतलब है कि राहुल गांधी ने भी इसी तरह समाज में गैर बराबरी के खिलाफ ,शोषण दमन के खिलाफ पहल की थी । राहुल गांधी पंडित नेहरु से लेकर इंदिरा और राजीव गांधी का नाम लेते थे । पर अखिलेश यादव लोहिया का नाम लेते है । राहुल दिल्ली से आते थे आम लोगों से मिलते जुलते थे ,गाँव भी जाते थे पर फिर दिल्ली लौट जाते थे क्योकि उत्तर प्रदेश में उनका कोई स्थाई पता नहीं है । पर अखिलेश यादव का स्थाई और अस्थाई दोनों पता उत्तर प्रदेश का है । वे कही लौट नहीं जायेंगे इस यकीन पर उन्हें जन समर्थन मिला था । राहुल कांग्रेस की राजनैतिक संस्कृति बदल नहीं पाए पर अखिलेश यादव बदल रहे । इस कार्यक्रम में कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुना बहुगुणा जोशी को मंच पर जगह नहीं मिल पाई थी यह देख अखिलेश यादव ने उन्हें ऊपर आमंत्रित किया और कुर्सी लगवा कर बैठाया । और मायावती नाराज हुई तो इन्ही रीता बहुगुणा जोशी को जेल भर्ज दिया था और बाद में उनका घर भी फूंक दिया गया । यह बानगी है नई और बदलती संस्कृति की ।

Thursday, April 12, 2012

यह समाज बदलेगा,नई क्रांतियां जन्म लेंगी


अजेय कुमार
सन 1990-91 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी शिविर के ढह जाने के बाद जिस बुद्धिजीवी के लेखन की ओर हमारे यहां ही नहीं, यूरोप और अमेरिका में भी सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया गया, वह थे फ्रांसिस फुकूयामा। 1992 में फ्री प्रेस से छपी अपनी पुस्तक ‘इतिहास का अंत और आखिरी मानव’ में फुकूयामा ने लिखा था- ‘हम केवल शीतयुद्ध के अंत को नहीं देख रहे हैं या युद्धोत्तर इतिहास में एक विशेष समयावधि के गुजर जाने को ही नहीं देख रहे हैं, बल्कि इतिहास के अंत को देख रहे हैं। यानी मानवता के वैचारिक उद्भव के आखिरी पड़ाव को देख रहे हैं।
पश्चिमी उदार जनतंत्र का सर्वव्यापीकरण ही सरकार चलाने का अंतिम ढांचा होगा।’ बर्लिन की दीवार ढह जाने के बाद एक बार फिर फुकूयामा ने भविष्यवाणी की कि उदार जनतंत्र की हर जगह विजय होगी। उनका तर्क था कि बीसवीं सदी की विभिन्न विचारधाराओं में संघर्ष का युग समाप्त हो चुका है और वे सभी नाकाम हो चुकी हैं। लगभग छह वर्ष पहले अपनी पहली पुस्तक ‘इतिहास का अंत और आखिरी मानव’ के पेपरबैक संस्करण की भूमिका में भी फुकूयामा ने इन्हीं तर्कों को दोहराया था। लेकिन आज फुकूयामा कहां खडे हैं!
2008 के वित्तीय संकट के बाद फुकूयामा ने अपनी पुरानी धारणा को गलत माना है और ‘अमेरिकी उदार जनतंत्र के विजयी होने’ की अपनी घोषणा पर भी संदेह व्यक्त किया है। उन्होंने न केवल इराक और अन्य मुल्कों पर अमेरिका की बमबारी का विरोध किया है, बल्कि 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमले के बाद अपनाई गई अमेरिकी विदेश नीति की भी भर्त्सना की है। चीनी राष्ट्रपति हू जिन-ताओ की वाशिंगटन यात्रा के बाद फुकूयामा ने लिखा, ‘पिछले दशक में वाशिंगटन की विदेश नीति अत्यधिक सैन्यीकृत और इकतरफा रही है, जिससे विश्व में अमेरिका के प्रति विरोध उपजता है। रीगनवाद ने बजट घाटों, अंधाधुंध कर कटौती और अपर्याप्त वित्तीय नियमन के अलावा कुछ नहीं दिया था। आज इन समस्याओं की तरफ ध्यान दिया जा रहा है। लेकिन अमेरिकी मॉडल के साथ एक गहरी समस्या है, जिसका हल दूर-दूर तक नजर नहीं आता। चीन अपने आपको बहुत जल्दी ढाल लेता है, मुश्किल निर्णय लेने में और उन्हें क्रियान्वित करने में प्रभावशाली ढंग से काम करता है। ...लेकिन आज अमेरिका के सामने जो दीर्घकालीन वित्तीय चुनौतियां हैं, उन्हें दूर करने में वह इच्छुक दिखाई नहीं देता। अमेरिका में जनतंत्र की बेशक अंतर्निहित वैधता है जो चीनी व्यवस्था में कम है, लेकिन यह किसी के लिए एक मॉडल प्रस्तुत नहीं करता...।’
फुकूयामा आगे लिखते हैं, ‘अमेरिका के संस्थापकों ने माना था कि बेलगाम ताकत, बेशक उसे जनतांत्रिक वैधता प्राप्त हो, खतरनाक सिद्ध होगी। इसीलिए उन्होंने कार्यपालिका की ताकत को सीमित करने के लिए एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण किया था, जहां कार्य-शक्तियां अलग-अलग विभागों में बंट जाएं। ...आज इस व्यवस्था के न रहने से अमेरिका मुसीबत में फंस चुका है।’ फुकूयामा ने अपना मन बदल लिया है। इसमें गलत कुछ नहीं है। एक जमाने में कींज ने कहा था- ‘जब तथ्य बदलते हैं, मैं अपने विचार बदल लेता हंू।’
वर्ष 2025 तक अगर विश्व की यही साम्राज्यवादी वैश्वीकृत नीतियां चलती रहीं तो उस वर्ष में अनुमानित जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत एक डॉलर से कम कमा पाएगा। दरअसल, नाकाम पूंजीवाद हुआ है, जिसने बेशक एक ओर ऐसे अमीर कॉरपोरेट उच्चवर्ग को जन्म दिया है जिसके नुमांइदे सुबह मुंबई होते हैं और शाम को वाशिंगटन, फिर अगले दिन पेरिस। ये वे लोग हैं जो अपने कुत्तों और नवजात शिशुओं से अंग्रेजी में बात करते हैं और अपने नौकरों और ड्राइवरों से हिंदी में। दूसरी ओर, इसने करोड़ों भूखे-नंगे लोगों को पैदा किया है जो नित नए उत्पीड़न, दमन और बेदखलियां झेल रहे हैं।
हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘क्राइसिस दिस टाइम’ के अपने एक लेख में नोम चोम्स्की ने उस अमेरिकी मजदूर जोसेफ एंड्रयू स्टैक का जिक्र किया है जिसने 18 फरवरी 2010 को अपने दफ्तर पर उसी तरह एक छोटे विमान से हमला किया जैसा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितंबर, 2001 को अल-कायदा ने किया था। इस आत्महत्या से पहले उसने एक घोषणापत्र लिखा, जिसका बहुत कम जिक्र हुआ है। इस घोषणापत्र में कुछ चीजें गौर करने लायक हैं। इसमें वह मजदूर उस समय को याद करता है जब वह छात्र था और उसे बहुत कम पैसों पर गुजारा करना पड़ता था।
उसके पड़ोस में एक अस्सी वर्षीय बुढ़िया रहती थी जो एक सेवानिवृत्त इस्पात-मजदूर की विधवा थी। इस्पात-मजदूर तीस वर्ष तक नौकरी करता रहा, उसे उम्मीद थी कि उसे पेंशन मिलेगी और बुढ़ापे में उसकी सेहत का बंदोबस्त कंपनी करेगी। जोसेफ स्टैक ने देखा कि इस्पात कारखाने के प्रबंधन ने उस विधवा के पति की सारी पेंशन हड़प ली और स्वास्थ्य-देखभाल के लिए उसे फूटी कौड़ी भी न मिली। चोम्स्की के अनुसार, स्टैक ने अपने घोषणापत्र में लिखा- ‘‘हमारे यहां हर कानून की दो व्याख्याएं हैं। एक अमीरों के लिए और दूसरी हम जैसों के लिए।’’... ‘‘अमेरिकी चिकित्सा-व्यवस्था और उससे जुड़ी दवा और बीमा कंपनियां एक क्रूर मजाक हैं, जो प्रतिवर्ष हजारों-लाखों लोगों की हत्या करती हैं। यह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें मुट्ठी भर ठग और लुटेरे साधारण जनता पर अकल्पनीय अत्याचार करते हैं ...और जब गाड़ी रुकने लगती है तो सरकार कुछ ही दिनों में लुटेरों की मदद के लिए अपने खजाने खोल देती है।’’
यह उस देश का हाल है जिसे हम पूंजीवाद का जनक कह सकते हैं। अमेरिका में 1973 से नब्बे प्रतिशत अमेरिकी परिवारों की आय में केवल दस फीसद की वृद्धि हुई, जबकि ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की आय में तीन गुना वृद्धि हुई है। पूंजीवाद में दरअसल पूंजी की जरूरतों और इंसान की जरूरतों में हमेशा टकराव रहा है। आज सवाल यह नहीं है कि बड़े-बड़े पूंजीपति, भ्रष्ट मंत्री, घोर अपराधी, फैशन डिजाइनर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्ताधर्ता, व्यापारी और प्रोफेशनल तबके पूंजीवाद को कैसे आंकते हैं। दरअसल, सवाल यह है कि मानवता और इंसानियत पूंजीवाद को कैसे आंकती है।
इन तमाम तथ्यों के बावजूद हमारे अधिकतर बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों ने ‘समाजवाद फेल हो गया है’ के तर्क के आगे घुटने टेक दिए हैं। और तो और, कई पूर्व कम्युनिस्ट और वामपंथी मित्र, जिन्होंने अपनी जवानी में समाजवाद का सपना देखा था और उसके लिए लाठी-गोली खाई थी, आज अपने आप को ऐसे मुकाम पर पाते हैं जब उनमें से अधिकतर को निराशा और खौफ के अलावा कोई भविष्य नहीं दिखता। वे इस कदर थके हुए लगते हैं कि रफी का वह गाना ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं’ याद आता है। उनका मन है कि अब उन्हें कोई एक ऐसी शांत पहाड़ी पर बैठा दे जहां उन्हें केवल आराम करना हो।
किसी घुमावदार पगडंडी और टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलने का जोखिम उठाने की न तो उनमें इच्छा है और न ताकत। बातचीत में उनके पास गुजरे जमाने की रणनीतियों और नजरिए के सिवा कुछ नहीं है। कल की संभावनाओं को टटोलने, उनकी शिनाख्त करने की कोई जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती। एक खास किस्म का ‘सिनीसिज्म’ दिखता है। पूरे मीडिया का दबाव इतना ज्यादा है कि नोम चोम्स्की के शब्दों में- ‘‘आज हर बुद्धिजीवी को अपने विचारों पर कायम रख पाने में दक्ष बनाने के लिए एक प्रशिक्षण कोर्स की सख्त जरूरत है।’’
दूसरी समस्या, जो ज्यादा गंभीर है, वह है बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोग से उत्पन्न वाजिब शंकाओं को सुलझाने की। सोवियत संघ के जमाने में एक मित्र जब वहां से घूम कर लौटे तो उनका एक संस्मरण यह भी था कि मास्को में जब उन्हें बाल कटवाने थे तो उन्होंने अपने मुहल्ले में नाई की दुकान को बंद पाया। उन्हें बताया गया कि सरकारी नाई कर्मचारी सात दिनों बाद आएगा और तभी मुहल्ले के लोग अपने बाल कटवा पाएंगे। सोवियत मॉडल की यह कमी थी कि उसने जीवन के हर क्षेत्र में राज्य की मिल्कियत को लागू किया। राज्य के तहत सभी छोटे-बड़े कल-कारखाने थे, वहां अफसरशाही ने जन्म लिया, मजदूरों की भागीदारी नहीं के बराबर थी। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह सब नहीं चलेगा।
सामाजिक मिल्कियत और राज्य-मिल्कियत में फर्क करना होगा। छोटे-छोटे उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना जरूरी नहीं। योजनाकृत अर्थव्यवस्था समाजवाद की रीढ़ होती है, लेकिन सभी आर्थिक निर्णय लेने में जन-साधारण की भागीदारी को आश्वस्त करना होगा। इसी तरह राजनीतिक व्यवस्था में भी जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। एक पार्टी-शासन के दिन लद गए। बहु-पार्टी व्यवस्था लागू करनी होगी। राज्य और पार्टी के बीच विभाजन रेखा स्पष्ट करनी होगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी। उत्पादन में व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को तरजीह देनी होगी। मास्को के संस्मरण में उन मित्र ने एक बात और बताई थी कि बाजार में केवल दो तरह के साबुन उपलब्ध थे। एक, कपड़े धोने के लिए, और दूसरा, नहाने के लिए। इक्कीसवीं सदी के समाजवाद में यह पर्याप्त नहीं।
जहां तक सोवियत संघ में साधारण जनता को प्राप्त सुख-सुविधाओं की बात है, उन्हें यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। फुटबॉल की तरह गोल-मटोल बच्चे; खाने-पीने-रहने, शिक्षा और रोजगार की कोई समस्या नहीं थी। इंजीनियरों और डॉक्टरों में महिलाओं का प्रतिशत अधिक था। आज वहां वेश्यावृत्ति का बोलबाला है, अनगिनत भिखारी मास्को की सड़कों पर मिल जाते हैं। गुंडागर्दी चरम पर है।
आज जनता के विशालतम हिस्से को यह समझना होगा कि समाजवाद में ही मानवीय गरिमा की हिफाजत की जा सकती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में सृजनात्मकता को बढ़ावा समाजवाद ही दे सकता है। मार्क्स ने एक जगह कहा था कि कला और राजनीति साधारण आदमी को तभी अपनी ओर खींचने में कामयाब होगी, जब उसका पेट भरा हो। पूंजीवाद ने जनता के एक विशाल हिस्से को दुनिया की खूबसूरत कलाओं से महरूम रखा है।
सबसे पहले यह समझना होगा कि जड़ समाजवाद या जड़ मार्क्सवाद जैसी कोई चीज नहीं होती। मार्क्सवाद में भी शोध होना चाहिए और जरूरत हो तो नई परिस्थितियों के अनुसार उसमें बदलाव भी लाने चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बदलाव ऐसे नहीं हों कि मार्क्सवाद इसके बाद मार्क्सवाद रह ही न पाए, उसकी शक्लो-सूरत पूरी तरह बदल जाए और वह पहचान में भी न आए। कुछ लोग गांधीवाद, आंबेडकरवाद, लोहियावाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद आदि का एक मुरब्बा तैयार करने की सलाह देते हैं। ये सभी ‘वाद’ महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन इन सब पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही बात हो सकती है और कुछ नए निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।क्रांति महज एक नारा नहीं है। वह एक जरूरत है। विवेक, विज्ञान और विचारधारात्मक वर्चस्व के जरिए मजदूर वर्ग की पार्टियां अपना नेतृत्व कायम करेंगी। यह समाज बदलेगा। नई क्रांतियां जन्म लेंगी।जनसत्ता

सुनीलम को फंसाए जाने पर खामोश क्यों है अन्ना हजारे


अंबरीश कुमार
लखनऊ , अप्रैल । अन्ना हजारे और उनकी टीम जो संसद पर निशाना साधती रही है ,प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों पर हमला करती है और सीबीआई को राजनीति का सरकारी औजार बताती रही है वह मौका पड़ने पर किस तरह खामोश हो जाती है यह टीम अन्ना के सदस्य और किसान नेता सुनीलम और ६८ किसानो के खिलाफ सीबीआई की चार्जशीट दाखिल करने बाद सामने आ गया गया है । किसान मंच ने राजनैतिक वजहों से किसान नेता सुनीलम को फंसाए जाने और अन्ना हजारे की ख़ामोशी की तीखी निंदा की है । सुनीलम मध्य प्रदेश के छिदवाडा में पेंच परियोजना से जुडी कुछ अन्य परियोजनाओं का विरोध कर रहे है जिससे कांग्रेस के दिग्गज नेता और केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ से और अडानी समूह से भी टकराव चल रहा है । ऐसे में सीबीआई की भूमिका पर सवाल खड़ा हो रहा है । किसान मंच के अध्यक्ष विनोद सिंह और मंच के उपाध्यक्ष व पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के पौत्र अक्षय सिंह ने आज यहाँ कहा -किसान संघर्ष समिति के नेता सुनीलम को मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की वजह से यह सब झेलना पड़ रहा है । हैरानी की बात यह है कि हर मुद्दे पर सीधे चैनल पर प्रगट होने वाली टीम अन्ना के किसी भी सदस्य ने अभी तक इसकी निंदा तक नहीं की है । किसान मंच ने साफ़ किया है कि सीबीआई की इस कार्यवाई का वह पुरजोर विरोध करेगी और उनके पक्ष में जन समर्थन भी जुटाएगी । यह पूरा मामला कारपोरेट घरानों की लूट और किसानो के शोषण से जुड़ा हुआ है ।
सुनीलम और ६८ किसानो के खिलाफ जबलपुर की सीबीआई अदालत में आईपीसी की धारा १४७,१४८,१४९,३८०, ४२६ ,४२७,४४७,४३६ के तहत चार्जशीट दायर की गई है । किसान मंच के मुताबिक ११ सितंबर २००७ को मुलताई में हुए किसान संघर्ष में २४ किसान और एक पुलिस वाला मारा गया था । इस आंदोलन का नेत्रित्व करने वाले सुनीलम के साथ दर्जनों किसानो पर हत्या समेत कई मुक़दमे दर्ज किए गए । इस मामले में पुलिस प्रशासन के खिलाफ कोई मामला नहीं चलाया गया । विनोद सिंह ने कहा -यह सब राजनैतिक बदले की भावना के तहत किया जा रहा है । कांग्रेस जो किसानो के नाम पर घडियाली आंसूं बहती है किस तरह मध्य प्रदेश के किसानो से बदला ले रही है इससे यह साफ़ हो गया है ।
अफ़सोस की बात यह है की अन्ना हजारे और उनकी टीम इसपर खामोश है जबकि खुद सुनीलम उनकी टीम का हिस्सा है । मध्य प्रदेश में पहले आन्दोलन में चौबीस किसानो की जान गई और डेढ़ सौ किसानो को गोली लगी । अब करीब सत्तर किसान फर्जी मामला बनाकर फंसाए जा रहे है । इसके पीछे वे कारपोरेट घराने शामिल है जो जल जंगल जमीन पर कब्ज़ा करने के लिए हर हथकंडे अपना रहे है । जिस तरह अडानी समूह किसानो की जमीन छीन रहा है वह शर्मनाक है और उसके खिलाफ किसानो को लामबंद करने वाले सुनीलम को फंसाया जा रहा है । इसे लेकर किसान मंच विभिन्न जन संगठनों को लामबंद करेगा ।

इमाम साहब तोप लेने आए थे ,छुरी लकर गए -आजम


लखनऊ , अप्रैल । जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी का आज यहाँ मुसलमानों ने उस समय विरोध किया जब वे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव से मिलने जा रहे थे । विरोध करने वाले हाथो में बैनर लिए हुए थे जिसपर लिखा था -यूपी के मुसलमानों का सौदा दसते बुखारी से नहीं । बुखारी मुलायम सिंह से मिले ,अपना दुःख दर्द सुनाया और बाद में बोले ,मुलायम सिंह ने सत्ता में मुसलमानों की वाजिब हिस्सेदारी का भरोसा दिया है । साथ ही विधान परिषद में एक और मुस्लिम भेजने का वादा किया है। हालाँकि इस सारी कवायद का कोई फायदा बुखारी को होता नजर नहीं आ रहा है उलटे यह छ्हवी जरुर बन रही है कि वे मुसलमानों के नाम पर सौदेबाजी कर परिवार वालों का भला करा रहे है । मुलायम से मुलाकात के बावजूद उनकी कोई भी मांग पूरी नहीं हो पाई । राज्यसभा सीट में उन्हें कोई हिस्सा नहीं मिला । दामाद उमर अली खान के लिए पहले ही टिकट का एलान किया जा चुका था फिलहाल बस उसी पर उन्हें संतोष करना है । विधान परिषद की एक सीट भविष्य में खाली होनी है उस सीट पर एक मुस्लिम उम्मीदवार दिया जाएगा पर उसका कार्यकाल वैसे भी आधा निपट चुका होगा । बाकि वे वादे है जो मुलायम पहले से ही कर रहे है ।
बुखारी की मुलायम से मुलाकात पर आजम खान ने कहा -वे तो कौम के नाम पर सौदेबाजी करने आए थे । इमाम साहब तोप लेने आए थे छुरी लेकर गए , इस मुलाकात का मकसद कोई मजहबी नहीं सियासी था वे सिर्फ दामाद का टिकट कंफर्म करने आए थे । अफ़सोस तो यह है कि वे दामाद के लिए जिस आठवी सीट के लिए राजी हुए है उसके लिए पार्टी की संख्या कम है । समाजवादी पार्टी अपने बलपर सिर्फ सात सीट जीत सकती है । आठवी सीट के लिए संख्या कम है । अफ़सोस यह है कि यह सीट हट हार भी सकते है ।

Wednesday, April 11, 2012

बुखारी की सौदेबाजी पर नही झुके मुलायम


अंबरीश कुमार
लखनऊ , अप्रैल ।जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने जिस तरह मीडिया के जरिए समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव पर दबाव बनाकर राज्यसभा की एक सीट और विधान परिषद की सीट लेने का प्रयास किया था वह अब नाकाम होता नजर आ रहा है। बुखारी की इस सौदेबाजी की तीखी प्रतिक्रिया हुई और आजम खान खुल कर विरोध में उतरे। पर जो मुखर नहीं थे उन्होंने पार्टी के भीतर बुखारी की भाषा ,तेवर और राजनैतिक सौदेबाजी का विरोध किया । समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार विधान परिषद की पांच सीटों पर नामांकन कर चुके है। गुरुवार को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी के विधान परिषद के लिए नामांकन दाखिल करने के साथ ही इस विवाद का भी अंत हो सकता है क्योकि फिर सिर्फ एक सीट ही बचेगी । राजेंद्र चौधरी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खांटी समाजवादी चेहरे के साथ पार्टी का जाट चेहरा भी है जो कल अखिलेश यादव के साथ ही परचा दाखिल करेंगे ।
दरअसल यह पारी अखिलेश यादव की है जो अलग ढंग की राजनीति से समाजवादी पार्टी की नई छवि गढ़ रहे है इसलिए ज्यादा बड़ी चुनौती अखिलेश के लिए है और इस मामले में मुलायम सिंह की ख़ामोशी भी सब कुछ बता दे रही है । यह माना जा रहा है कि इस मामले में मुलायम सिंह के झुंकने से गलत संदेश जा सकता है । राजनैतिक विश्लेषक नीलाक्षी सिंह ने कहा - बुखारी की सौदेबाजी के आगे अगर मुलायम सिंह झुक जाते हैं तो इसका राजनैतिक संदेश यही जाएगा कि मुलायम सिंह
मुसलमानों के सच्चे हितैषी नहीं हैं बल्कि सिर्फ वोट की राजनीति करते हैं । इस तरह की वोटबैंक की राजनीति मुलायम सिंह का भी वही हश्र करेगी जैसा मायावती का हुआ। दरअसल समाजवादी पार्टी जिस नई राजनीति के नाम पर सत्ता में आई है वह उसे अमल कर भी दिखाना होगा। पार्टी की तरफ से कल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी विधान परिषद का परचा दाखिल करने जा रहे है जिसके बाद सिर्फ एक ही सीट भी बचेगी । जिसका राजनैतिक संदेश कोई भी समझ सकता है । नामांकन के बारे में पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -यह पहले से तय था मै मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ ही पर्चा भरूँगा ।
गौरतलब है कि बुखारी की राजनैतिक मांग और उसपर आजम खान का आक्रामक तेवर व सीधी चुनौती से यह मामला तूल पकड़ चुका था । पर न तो समाजवादी पार्टी और न ही मुलायम सिंह यादव ने इस पर कोई सफाई दी । पर इस बार समाजवादी धारा के साथ मुस्लिम नेताओं ने भी बुखारी की मांग की निंदा की । बुखारी एक धार्मिक नेता है और चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी का समर्थन किया था फिर दामाद के लिए टिकट लिया और उसी आधार पर वे राज्य सभा और विधान सभा की सीट मांग रहे थे। पर उनके समर्थन से समाजवादी पार्टी को कितना फायदा हुआ यही सवाल आजम खान ने भी उठाया था । आजम खान ने कहा था ,जो अपने दामाद को मुस्लिम बहुल इलाके में न जिता पाए उसका राजनैतिक आधार तो सभी समझ सकते है । शाही इमाम पर इस तरह की प्रतिक्रिया के बारे में पूछे जाने पर आजम खान ने कहा -एक तो पिछले तीस साल से मेरा मुलायम सिंह से जज्बाती रिश्ता है दूसरे मै समाजवादी पार्टी का संस्थापक सदस्य हूँ । फिर जो भाषा उन्होंने राज्यसभा के उम्मीदवार मुनव्वर सलीम को लेकर बोली वह बेहद आपतिजनक है । वे बन्दों के ही नही अल्लाह के भी गुनाहगार है । इस मुद्दे पर पर ज्यादातर लोग आजम के साथ है बुखारी अलग थलग पड़ते नजर आ रहे है ।
इस बीच समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह ने कहा कि किसानों और अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वायदे पूरे करेगी। किसानों का 50 हजार रूपए तक का कर्जा माफ किया जाएगा। किसानों को सहकारी संस्थाओं से 4 प्रतिशत व्याज दर पर कर्ज सुनिश्चित किया जाएगा। किसान की जमीन नीलाम नहीं होने दी जाएगी। उन्होंने कहा कि मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक स्थिति में सुधार के लिए सच्चर और रंगनाथ आयेाग की प्रदेश में हो सकने वाली सिफािरशें कार्यान्वित की जाएगी उनको आरक्षण का लाभ देने के साथ कब्रिस्तानों की चहार दीवारी बनाई जाएगी। दरगाहों के संरक्षण के लिए स्पेशल पैकेज आवंटित किया जाएगा। मदरसों को मदद दी जाएगी। उर्दू को रोजी रोटी से जोड़कर उसके स्कूल खोले जाएगें।

Monday, April 9, 2012

मुस्लिम चेहरा न बुखारी ,न आजम खुद मुलायम !


अंबरीश कुमार
लखनऊ अप्रैल । जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला सैयद अहमद बुखारी की राजनैतिक सौदेबाजी पर अब सिर्फ आजम खान ही नहीं अन्य मुस्लिम भी राजनीतिक और बुद्धिजीवी सवाल उठाने लगे है । हारे हुए दामाद के लिए विधान परिषद की सीट और भाई के लिए राज्यसभा की सीट को लेकर बुखारी ने जिसतरह दबाव बनाया है उसे आज आजम खान ने न सिर्फ गैर इस्लामिक करार दिया बल्कि इसके लिए माफ़ी मांगने को भी कहा । दूसरी तरफ मुस्लिम राजनीति पर नजर रखने वालों का साफ़ कहना है उत्तर प्रदेश के हाल के चुनाव नतीजों ने बता दिया है कि समाजवादी पार्टी का मुस्लिम चेहरा न तो अब्दुल्ला बुखारी रहे है और न आजम खान बल्कि खुद मुलायम सिंह यादव रहे है । मुलायम के ही नाम पर मुसलमानों के गढ़ में समाजवादी पार्टी जीती जहाँ मुसलमानों की मजहबी सियासत करने वाली पार्टियों को करारी शिकस्त मिली है । इन विधान सभा क्षेत्रों में मुरादाबाद ,अलीगढ ,आजमगढ़ से लेकर पीस पार्टी का गढ़ बढ़हल भी शामिल है। यह भी कहा अगर मुलायम सिंह बुखारी के दबाव में झुके तो अखिलेश यादव की ही मुश्किलें बढेंगी किसी और की नहीं । मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने विधान सभा चुनाव के दौर में ही जनसत्ता से कहा था -समाजवादी पार्टी का मुस्लिम चेहरा खुद मुलायम सिंह यादव है बुखारी और आजम खान नहीं । पर अब बदले हुए हालात में जफरयाब जिलानी ने कहा -इन दोनों नेताओं के बीच तल्खी बढ़ना मुस्लिम राजनीति के लिए भी ठीक नहीं है। बुखारी का यह कहना कि मुसलमानों को सत्ता में वाजिब हिस्सा नहीं मिला सही नहीं । कुल पैतालीस मंत्रियों में नौ मंत्री और प्रदेश में नौकरशाही के चार प्रमुख पदों में मुख्य सचिव का पद करीब पैतीस साल बाद किसी मुसलमान को दिया गया है इसलिए यह तर्क सही नहीं है ।
इस बार मुसलमानों के नाम पर राजनीति करने वालों की जिस तरह हार हुई है वह देखना भी रोचक है ।अलीगढ़ में सपा उम्मीदवार को ६८२९१ वोट मिले तो पीस पार्टी को मात्र तीन हजार आठ सौ ।इसी तरह मुरादाबाद में सपा को ८८३४१ वोट मिले तो पीस पार्टी को १३२५ । रामपुर में आजम खान को ९५७२२ वोर तो इंडियन
यूनियन मुस्लिम लीग के सिफत अली को कुल ६०८ वोट और इत्तेहाद मिल्लत कौंसिल को ४७७ वोट । पीस पार्टी के अध्यक्ष के गढ़ में भी बसपा जीती । यह राजनैतिक दलों और मजहबी दलों की सियासत को भी साफ़ कर देता है जिसका । समाजवादी पार्टी के ४६ विधायक जीत कर आए और मुस्लिम राजनीति का बड़ा नाम माने जाने वाले बुखारी अपने दामाद को न जितवा पाए तो इसका संदेश साफ़ है । एक और तथ्य ज्यादातर मुस्लिम इलाकों में मुलायम सिंह ने खुद प्रचार किया है और मुसलमानों ने उनके ही नाम पर ,कार्यक्रम और घोषणाओं पर भरोसा किया । बाबरी ध्वंस के फैसले पर मुलायम की प्रतिक्रिया ने फिर उन्हें पुराने मुकाम पर पहुंचा दिया है पर वे सबको साथ लेकर चले । पर अब जिस तरह बुखारी ने सौदेबाजी की उससे सभी नाराज है । आजम खान ने कहा -उन्हें अपनी राय अख़लाक़ ,अपनी अभद्र जबान और इस गैर इस्लामी मांग के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए ।हमारा तो राजनीति में काम करने का अपना तरीका है जिसके चलते आठवी बार चुन कर आया हूँ पर जो अपना मैदान छोड़ कर आए वे अपने दामाद की जमानत भी न बचा पाए । वे बन्दों के नहीं अल्लाह के मुजरिम है । वे इमामत करे सियासत नहीं ।
दूसरी तरफ तहरीके निसवां की संयोजक ताहिरा हसन ने कहा - मुसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार बुखारी के दामाद की मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में से करारी हार हुई है । आज़म खान अपने क्षेत्र के अलावा पूरे उत्तर प्रदेश में कही कोइ असर नहीं रखते । मुख़्तार अब्बास नकवी से लेकर सलमान खुर्शीद तक सभी पार्टियों ने मुस्लिम कार्ड खेलने की नाकाम कोशिश की है वजह यह है की इन सभी का अपने और अपने परिवार की तरक्की तो मुसलमान होने की वजह से हुई पर आम मुसलमनो का सिर्फ और सिर्फ नुकसान हुआ है । दूसरी सामाजिक राजनैतिक बदलाव का अध्ययन करने वाली नीलाक्षी सिंह ने कहा-राजनीतिक अखाड़े में एक तरफ तो सेकुलर पार्टियां हैं जो सारे मुसलमानों को उपेक्षित तबका मानती हैं और उनको कुछ सुविधा देने का वायदा करती हैं । इस देश में मुसलमानों का तुष्टिकरण तो हुआ है पर सवाल है कि किन मुसलमानों का?

जनसत्ता

Sunday, April 8, 2012

ममता बनर्जी के फैसले से सब सन्न हैं


चंदन प्रताप सिंह
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के हाल के एक फैसले से सब सन्न हैं। उन्होंने फरमान जारी किया है कि सूबे में सरकारी पैसे से चलने वाले पुस्तकालयों और वाचनालयों में केवल आठ अखबार आएंगे। वे अखबार कौन-से होंगे, इसका फैसला खुद ममता बनजी करेंगी। उन्होंने एक झटके में सभी अंग्रेजी अखबार बंद कर दिए। हिंदी के एक अखबार को जगह दी। उर्दू के दो और बांग्ला के पांच अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों के लिए खरीदे जाने की अनुमति दी है। इसके लिए बाकायदा परिपत्र भी जारी कर दिया गया है। ममता का दावा है कि वे नहीं चाहतीं कि पाठकों पर जबर्दस्ती कोई वाद या सोच थोपा जाए। इसलिए ऐसे अखबारों पर पाबंदी लगाई गई, जो किसी पार्टी के सिद्धांत, वाद, स्वार्थ और हितों को साधते हैं।
सरसरी तौर पर देखें तो ममता का यह फैसला लोगों को जायज लगेगा। लेकिन जो लोग पश्चिम बंगाल को समझते हैं और वहां की बौद्धिकता को पहचानते हैं, उन्हें यह समझने में तनिक देर नहीं लगेगी कि ममता ने मीडिया पर अंकुश लगाने की कोशिश की है। ममता के इस फैसले से साफ हो गया है कि तृणमूल सरकार और ममता बनर्जी की आलोचना करने वाले अखबारों की खैर नहीं है। जो अखबार ममता का भोंपू बनने को तैयार हों, उन्हें ही सरकारी पुस्तकालयों में जगह मिलेगी। वहां बांग्ला अखबार ‘संवाद प्रतिदिन’ के आने पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। इस अखबार के दो पत्रकार सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस से जुडेÞ हुए हैं। इस अखबार के संपादक सृंजय बोस और सहायक संपादक कुणाल घोष दोनों ही तृणमूल कांग्रेस से हाल ही में राज्यसभा के सांसद चुने गए हैं।
ममता ने एक ही हिंदी अखबार को हरी झंडी दी है। इस अखबार के मालिक-संपादक विवेक गुप्ता हैं, जो तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं। इस सूची में उर्दू के दो अखबार हैं, आजाद हिंद और अखबार-ए-मशरीक। अखबार-ए-मशरीक के संपादक नदीमुल हक भी तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं। सवाल खड़ा होता है कि जिन अखबारों के मालिक और संपादक तृणमूल कांग्रेस के नेता हैं, उन अखबारों को ममता ने कैसे निष्पक्ष मान लिया!
हैरानी इस बात की भी है कि मुख्यमंत्री ने बांग्ला के जिन दो अखबारों पर रोक लगाई है, वे सूबे में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। हैरानी इस बात पर भी है कि ‘आनंद बाजार पत्रिका’ और ‘बर्तमान’ को ममता समर्थक माना जाता रहा है। ये दोनों अखबार लंबे समय से वाममोर्चा और खासकर माकपा को निशाना बनाते रहे हैं। चाहे ज्योति बसु की सरकार रही हो या फिर बुद्धदेव भट्टाचार्य की, इन अखबारों ने सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ‘बर्तमान’ ने ही सबसे पहले ममता बनर्जी को ‘बंगाल की शेरनी’ का खिताब दिया था।
ममता के फैसले को लेकर और भी कई सवाल उठ रहे हैं। पूछा जा रहा है कि भाषा को लेकर वे इतनी दुराग्रही क्यों हैं। आखिर क्यों अंग्रेजी के अखबार खरीदने पर रोक लगाई। अगर हिंदी के एक अखबार को अनुमति दे सकती हैं तो कम से कम एक अंग्रेजी अखबार को भी इस सूची में रखना चाहिए था। सवाल इसलिए भी गंभीर है कि पश्चिम बंगाल के लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी अंग्रेजी जानें। अपनी मातृभाषा से गहरे लगाव के बावजूद बंगाल का झुकाव अंग्रेजी को लेकर शुरू से रहा है। इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि बंगाल पर ही सबसे पहले अंग्रेजों का राज कायम हुआ।
बच्चा किसी भी भाषा से स्कूली पढ़ाई करता हो, उसे घर में अलग से अंग्रेजी जरूर सिखाई जाती है। एक जमाने में संभ्रांत समाज का अखबार माना जाने वाला ‘द स्टेट्समैन’ मध्य और उच्च वर्ग के घरों में जरूर खरीदा जाता था। परिवार के बडेÞ-बुजुर्ग अपने बच्चों को समझाते थे कि इस अखबार के जरिए वे अपना शब्द-भंडार और बढ़ा सकते हैं।
तृणमूल सरकार के ताजा फैसले को लेकर हैरानी इसलिए भी हो रही है कि कभी अंग्रेजी के घोर विरोधी रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने समय के साथ कदमताल करते हुए अंग्रेजी-विरोध त्याग दिया। लेकिन ‘यह राज्य आज जो सोचता है, कल वह सारा देश सोचता है’ का नारा देने वाले सूबे की मुखिया ने सरकारी पुस्तकालयों में अंग्रेजी अखबारों पर रोक लगा दी। जिन्हें अंग्रेजी से प्रेम है और जो समृद्ध हैं, वे तो अंग्रेजी अखबार खरीद लेंगे। लेकिन जो बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं और जो पुस्तकालयों में ही पढ़ाई करते हैं, उनका क्या होगा।
गरीबों की हिमायती बनने वाली ममता बनर्जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे कहती हैं, जिसे जो अखबार पढ़ना है, खरीद कर पढेÞ। यह उन्हीं ममता बनर्जी का बयान है, जो रेल किराया बढ़ाए जाने पर यह कहते हुए छाती पीट रही थीं कि गरीबों का क्या होगा।
अखबारों पर पाबंदी के फैसले को लेकर ममता बनर्जी की तीखी आलोचना हो रही है। लेकिन इन आलोचनाओं से अपनी गलती दुरुस्त करने के बजाय ममता उलटे मीडिया को ही नसीहत दे रही हैं। अपने फैसले की बाबत फासिस्ट कहे जाने से आहत ममता कह रही हैं कि फासीवाद क्या है यह उन्हें मीडिया से जानने की जरूरत नहीं है। वे पूछती हैं कि जब नंदीग्राम और सिंगूर में हिंसा हुई थी, तब ये अखबार वाले कहां मुंह छिपाए बैठे थे।
अपने चहेते दो-चार प्रादेशिक समाचार चैनलों को हथियार बना कर वे सफाई देते घूम रही हैं। उनका कहना है कि पुस्तकालयों की खातिर सरकार के पास बेहद छोटा बजट होता है। इसलिए सरकार चाहती है कि इन पुस्तकालयों के जरिए छोटे-छोटे अखबारों को प्रोत्साहित किया जाए, लेकिन इस छोटी-सी बात को लेकर मीडिया का एक तबका गंदी राजनीति कर रहा है। ममता इस बात से भी नाराज हैं कि उन्हें मौकापरस्त कहा जा रहा है। सूबे में सबकी जुबान पर एक ही सवाल है कि जिन अखबारों ने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया, उनके साथ ऐसा सलूक क्यों किया गया।
इसमें कोई शक नहीं कि ममता बनर्जी की छवि चमकाने में पश्चिम बंगाल के मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। स्थानीय मीडिया ने इस बात को भी छिपाया कि ममता ने अपने राजनीतिक गुरु सुब्रतो मुखर्जी के साथ क्या सलूक किया। एक समय पश्चिम बंगाल में सुब्रतो के नाम का डंका बजता था। उन्हीं सुब्रतो ने ममता को सियासत सिखाई। लेकिन जब सुब्रतो के दिन लदे तो ममता ने उनसे मुंह फेर लिया। बेशक अपनी पार्टी में उन्हें जगह दी लेकिन उन पर भरोसा कभी नहीं किया। सुब्रतो मुखर्जी जब कोलकाता के मेयर चुने गए तो अपने खास पार्थो चटर्जी से जासूसी करवाई।
हद तो यह हो गई कि लोकसभा के लिए चुने गए तृणमूल कांग्रेस के कई नेता ममता से बहुत वरिष्ठ हैं, सियासत में भी और उम्र में भी, एक-दो तो 1971 में सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। लेकिन जब केंद्र में मंत्री बनाने की बात आई तो उनमें से किसी को नहीं बनाया। यहां तक कि सौगत राय भी राज्यमंत्री ही बनाए गए। लेकिन मीडिया ने इस मामले को तूल नहीं दिया। समर्थक अखबार दीदी के गुणगान में ही लगे रहे। ममता के ताजा फैसले को लेकर यहां तक कहा जा रहा है कि जो पाबंदियां आपातकाल के दौरान नहीं लगीं, वे अब लगाई जा रही हैं।
दरअसल, सत्ता में आने से पहले मीडिया से घुल-मिल कर रहने वालीं ममता बनर्जी मीडिया को समझ ही नहीं पार्इं। किसी भी आंदोलन से पहले अपने सहयोगियों के जरिए मीडिया से संपर्क साधने वाली ममता को यह लगने लगा था कि मीडिया तो उन्हीं के इशारे पर नाचेगा। लेकिन उन्हें जल्द ही समझ में आ गया कि यह होने से रहा। क्योंकि मीडिया को जो दिखेगा, वह उसे छापेगा और दिखाएगा। उसका काम ही सरकार की खामियों को जनता के सामने लाना और यह बताना है कि जिसे उसने चुन कर भेजा है, वह उसके साथ क्या कर रहा है। उसकी गाढ़ी कमाई का कैसे बेजा इस्तेमाल कर रहा है।
अखबारों और समाचार चैनलों में अपनी आलोचना देखना ममता को गवारा नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में जब बच्चों की मौत हुई तो मीडिया ने इसे प्रमुखता से दिखाया और छापा। मीडिया का यह तेवर मुख्यमंत्री को रास नहीं आया। गुस्से में आकर वे जो बोल गर्इं, वह एक मुख्यमंत्री को कतई नहीं कहना चाहिए।
तमतमाई ममता बनर्जी ने कहा कि बच्चों की मौत तो वाममोर्चा सरकार के दौरान भी होती थी। उनके इस बयान को पश्चिम बंगाल की जनता ने पसंद नहीं किया। हद तो तब हो गई, जब अपनी पढ़ाई-लिखाई पर नाज करने वाले बांग्लाभाषी समाज ने दसवीं की परीक्षा में खुलेआम ‘टुकली’ यानी नकल होते हुए देखी। इसके चित्र देखने के बाद लोगों को शिक्षा का भविष्य अंधकारमय दिखने लगा। इन दोनों घटनाओं से सरकार की बहुत किरकिरी हुई। इसलिए ममता ने यह कहने में तनिक गुरेज नहीं किया कि मीडिया वाले धड़धड़ाते हुए अस्पतालों में चले जाते हैं, स्कूलों में चले जाते हैं, और खबर बेचने के लिए फर्जी खबरें बना कर दिखाते हैं।
असल में ममता बनर्जी को अहसास हो गया है कि उनकी छवि बिगड़ने लगी है। पर वे अपनी कार्यशैली के प्रति सचेत होने के बजाय मीडिया पर गुस्सा उतार रही हैं। पुस्तकालय तो बहाना है। शायद वे यह बताना चाहती हैं कि जो अखबार और पत्रकार सरकारी भोंपू नहीं बनेंगे, उनके साथ यही होगा। क्योंकि ढाई हजार पुस्तकालयों में इन अखबारों के जाने या न जाने से इनके मालिकों और पत्रकारों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
इससे प्रसार और पाठकों की संख्या पर भी फर्क नहीं पडेÞगा। फर्क पडेÞगा तो विज्ञापनों पर। किसी भी अखबार या चैनल के लिए विज्ञापन बेहद अहम होता है। गैर-सरकारी और सरकारी विज्ञापन एक तरह से मीडिया की रीढ़ होते हैं। इसलिए ममता ने संकेतों से जाहिर कर दिया है कि आने वाले दिनों में रेल के विज्ञापन, राज्य सरकार के विज्ञापन और निविदाओं के विज्ञापन से हाथ धोने के लिए ये अखबार अभी से मन बना लें।
जनसत्ता

Saturday, April 7, 2012

बागमती को बांधे जाने के खिलाफ खड़े हुए किसान


अंबरीश कुमार
नेपाल से निकलने वाली बागमती नदी को कई दशकों से बांधा जा रहा है । यह वह बागमती है जिसकी बाढ़ का इंतजार होता रहा है बिहार में वह भी बहुत बेसब्री से । जिस साल समय पर बाढ़ न आए उस साल पूजा पाठ किया जाता एक नहीं कई जिलों में । मुजफ्फरपुर से लेकर दरभंगा,सीतामढ़ी तक । वहा इस बागमती को लेकर भोजपुरी में कहावत है ,बाढे जियली -सुखाड़े मरली । इसका अर्थ है बढ़ से जीवन मिलेगा तो सूखे से मौत । नदी और बाढ़ से गाँव वालों का यह रिश्ता विकास की नई अवधारणा से मेल नहीं खा सकता पर वास्तविकता यही है। बागमती नेपाल से बरसात में अपने साथ बहुत उपजाऊँ मिटटी लाती रही है जो बिहार के कई जिलों के किसानो की खुशहाली और संपन्नता की वजह भी रही है। बाढ़ और नई मिट्टी से गाँव में तालाब के किनारे जगह ऊँची होती थी और तालाब भी भर जाता था । इसमे जो बिहार की छोटी छोटी सहायक नदिया है वे बागमती से मिलकर उसे और समृद्ध बनाती रही है । पर इस बागमती को टुकड़ो टुकड़ों में जगह जगह बाँधा जा रहा है । यह काम काफी पहले से हो रहा है और जहाँ हुआ वहा के गाँव डूबे और कई समस्या पैदा हुई । नदी के दोनों तटों को पक्का कर तटबंध बना देने से एक तो छोटी नदियों का उससे संपर्क ख़त्म हो गया दूसरे लगातार गाद जमा होने से पानी का दबाव भी बढ़ गया और कई जगह तटबंध टूटने की आशंका भी है। अब यह काम बिहार के मुजाफ्फरपुर जिले में शुरू हुआ तो वहा इसके विरोध में एक आंदोलन खड़ा हो गया है । इस आंदोलन की शुरुआत बीते पंद्रह मार्च को रामवृक्ष बेनीपुरी के गाँव से लगे मुजफ्फरपुर के कटरा प्रखंड के गंगिया गाँव से हुई जिसमे महिलाओं की बड़ी भागेदारी ने लोगों का उत्साह बढ़ा दिया ।
अस्सी के दशक में गंगा की जमींदारी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले संगठन गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख नेता अनिल प्रकाश इस अभियान के संचालकों में शामिल है और इस सिलसिले में वे बिहार के बाहर के जन संगठनों से संपर्क कर इस आंदोलन को ताकत देने की कवायद में जुटे है ।अब तक इस अभियान के लिए एक हजार सत्याग्रही तैयार हो चुके है । अनिल प्रकाश ने कहा कि बागमती नदी के तटबंध का निर्माण नहीं रुका तो सिर्फ मुजफ्फरपुर जिले के सौ से ज्यादा गांवों में जल प्रलय होगी और यह सिलसिला कई और जिलों तक जाएगा । बागमती नदी के तटबंध के खिलाफ पिछले एक महीने की दौरान जो सुगबुगाहट थी अब वह आंदोलन में तब्दील होती नजर अ रही है । खास बात यह है कि इस आंदोलन का नेतृत्व वैज्ञानिक और इंजीनियर भी संभाल रहे है । इस अभियान के समर्थन में अब एक लाख लोग हस्त्ताक्षर कर प्रधानमंत्री से दखल देने की अपील करने जा रहे है ।
अनिल प्रकाश के मुताबिक लंबे अध्ययन और बैठको के बाद १५ मार्च को मुजफ्फरपुर के कटरा प्रखंड के गंगिया स्थित रामदयालू सिंह उच्च विद्यालय परिसर में बागमती पर बांध के निर्माण के विरोध में बिगुल फूंका गया । हजारों की संख्या में प्रभावित परिवारों के लोगों का जमघट लगा । गायघाट, कटरा, औराई के गाँव-गाँव से उमड़ पड़े बच्चों, बूढ़ों, नौजवानों, महिलायों और स्कूली छात्रों की आँखों में सरकार के विरूद्ध आक्रोश झलक रहा था । इससे पहले नदी विशेषज्ञ डॉ. डीके मिश्र. , अनिल प्रकाश , अभियान के संयोजक महेश्वर प्रसाद यादव और मिसाइल और एअर क्राफ्ट वैज्ञानिक मानस बिहारी वर्मा ने इस मुद्दे के विभिन पहलुओं का अध्ययन किया और फिर आंदोलन की जमीन बनी । छह अप्रैल को मुजफ्फरपुर जिले के गायघाट स्थित कल्याणी गाँव की जनसभा से यह अब आंदोलन में तब्दील हो चुका है । अनिल प्रकाश ने आगे कहा -बागमती पर बांध गैर जरूरी व अवैज्ञानिक है । हमें नदी के साथ रहने की आदत है । बांध की कोइ जरूरत नहीं है । हमारी लडाई अब मुआवजे की नहीं, बल्कि बागमती बांध को रोकने की होगी । गाँव-गाँव में बैठक कर सत्याग्रहियों को भर्ती किया जायेगा । केंद्रीय कमिटी का गठन कर उसके निर्णय के अनुसार आगे की रणनीति तय की जाएगी। जबकि नदी व बाढ़ विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कुमार मिश्र ने कहा -तटबंध बांध कर नदियों को नियंत्रित करने के बदले सरकार इसके पानी को निर्बाध रूप से निकासी की व्यवस्था करे । तटबंध पानी की निकासी को प्रभावित करता है. टूटने पर जान-माल की व्यापक क्षति होती है । सीतामढ़ी जिले में बागमती पर सबसे पहला तटबंध बनने से मसहा आलम गाँव प्रभावित हुआ था । उस गाँव के ४०० परिवारों को अब तक पुनर्वास का लाभ नहीं मिला है और रुन्नीसैदपुर से शिवनगर तक के १६०० परिवार पुनर्वास के लाभ के लिए भटक रहे हैं । दोनों तटबंधों के बीच गाद भरने की भी एक बड़ी समस्या है । रक्सिया में तटबंध के बीच एक १६ फीट ऊंचा टीला था. पिछले वर्ष मैंने देखा था, यह बालू में दबकर मात्र तीन फीट बचा है । बागमती नदी बार-बार अपनी धारा बदलती है ।
विशेषग्य ही नहीं गाँव के लोगभी इस सवाल पर काफी मुखर है । भागवतपुर गाँव के सूरत लाल यादवने कहा -बागमती को बांधा तो जमीन, घर-द्वार सब कुछ चला जाएगा । बाढ़ से नुकसान से ज्यादा लाभ होता है. दो-चार-दस दिन के कष्ट के बाद तो सब कुछ अच्छा ही होता है. जमीन उपजाऊ हो जाती है. पैदावार अधिक हो जाता है। बन्स्घत्ता के रौदी पंडित,के मुताबिक बांध बनने से बांध के बाहर की जमीन का दर दो लाख प्रति कट्ठा हो गया है, जबकि भीतर की जमीन १५ हजार रूपये प्रति कट्ठा हो गया है । जबकि गंगिया के रंजन कुमार सिंह ने कहा - अभी हमलोग जमींदार हैं. कल कंगाल हो जाएगे । बांध के भीतर मेरा १० एकड़ जमीन आ जाएगा और हम बर्बाद हो जाएगा । रंजीव का मानना है कि बांध विनाशकारी है । नदियों को खुला छोड़ देना चाहिए । नदियों की पेटी में जमे गाद को निकालने की व्यवस्था हो।

Thursday, April 5, 2012

साख पर बट्टा


अंबरीश कुमार
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सेना की दो टुकडियां कूंच करे दिल्ली की ओर वह भी तब जब संसद चल रही हो । यकीनन यह कोई तख्ता पलट नही था पर साठ साल के लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ और तब हुआ जब सेना का एक जनरल सरकार से अपना सेवा विस्तार चाह रहा हो । इसके लिए वह सब कुछ करता है । मीडिया में दबाव बनाता है ,उस सरकार के खिलाफ लड़ने अदालत चला जाता है जिसके निर्देश पर उसे सीमा पर लड़ना होता है । क्या कोई दूसरा उदाहरण अपने इतिहास में है । उम्र के विवाद की लड़ाई जिस तरह जनरल ने लड़ी वह कही से भी शोभनीय नहीं थी । इस देश में सरकार और सेना में बहुत फर्क है । सरकार एक नही कई बार कटघरे में खड़ी होती है पर सेना नहीं । उस सेना की दो टुकड़ी को राजपथ की तरफ कूच करा देना और जब तक सरकार चेते उसे वापस बुलाकर रुटीन अभ्यास बता देना बहुत मासूम सा जवाब है । गनीमत यह देश बहुत बड़ा है कोई मालदीव जैसा छोटा सा देश नही वर्ना बैरक से निकली सेना कहा तक जाती यह पता नहीं । जो लोग इस घटना को लेकर इंडियन एक्सप्रेस अख़बार का उपहास उड़ा रहे है कम से कम यह जानकारी तो रख ले कि जब बिना सेना के इस देश का लोकतंत्र गिरवी रखा गया था तो मुकाबला यही अख़बार समूह कर रहा था कोई दूसरा बड़ा और मुनाफे वाला समूह नही । और लोकतंत्र को निपटाने के लिए सेना की जरुरत भी नहीं पड़ी थी सिपाहियों से ही काम चल गया था । आज सवाल सिर्फ दो टुकड़ी के कूच का नहीं है ,सवाल यह है कि जब संसद चल रही हो और ऎसी घटना जिसके चलते रक्षा सचिव को विदेश से बुलाना पड़े ,सोते हुए प्रधानमंत्री को जगाना पड़े और डीजीएमओ को तलब कर सेना की दो टुकड़ियों को बैरक में भेजने को कहना पड़े तो क्या इस बात की जानकारी संसद को और देश को देना जरुरी नहीं थी । खासकर उस माहौल में जब सेना और सरकार के बीच शीत युद्ध चल रहा हो । थल सेना का जनरल सरकार के खिलाफ अदालत जा रहा हो ।उम्र विवाद को लेकर इस जनरल ने सिर्फ सरकार ही नही सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी टिपण्णी की थी । यह इस देश में पहली बार हुआ । जब देश के जनरल का भरोसा सरकार और सर्वोच्च न्यायलय से डिग जाए तो क्या क्या आशंकाए जन्म ले सकटी है यह किसी आम आदमी से पूछ ले वह आसानी से बता देगा । जब जनरल सिर्फ एक पत्रकार को बुलाकर बड़ा खुलासा करे तो सवाल उठता है । जब जनरल की वह चिठ्ठी लीक हो जाए जिससे सारी दुनिया को भारतीय सेना की कमजोरी का पता चलता हो तो भी सवाल पैदा होता है और उस पत्र से यह भी लगता है मानो अब सेना हथियार के मामले में होमगार्ड में बदल गई हो । इतने विवादों के बीच जब सेना की दो टुकड़ी राजपथ पर बढती है तो न इसे सामान्य अभ्यास माना जा सकता है और न यह जानकारी नजरंदाज की जा सकती है । इस देश में कोहरा और जाड़ा हर साल पड़ता है पर सेना की टुकड़ी बिना बताए पहली बार जब दिल्ली की और बढती है तो शक जरुर पैदा होता है । इस घटना को लेकर वे लोग जरुर चौकन्ने हुए है जो लोकतंत्र पर हुए हमले को पहले भी झेल चुके है। देश में पिछले कुछ समय से एक उदार और लोकप्रिय तानाशाह की जरुरत पर जोर दिया जा रहा है। अन्ना के आंदोलन में भी यह सब उभर कर आ चुका है । केजरीवाल तो संसदीय लोकतंत्र पर पहले ही सवाल खड़ा कर चुके है । ऐसे में हम खबर से लड़ने लगे ,यह समझ से बाहर है । कौन सी खबर कितनी बड़ी हो ,किसके नाम से हो किस जगह से चल कर आई हो यह आम आदमी का सवाल नहीं हो सकता । पर सेना का एक जनरल सरकार को आँख दिखाने लगे तो यह 'खतरा ' जरुर नजर आता है । सरकार का अर्थ सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार से है । आपरेशन ब्लू स्टार के बाद कश्मीर में सेना अपनों से भी लड़ रही है ,यह ध्यान रखना चाहिए ।
(विरोध ब्लाग पर हर हफ्ते आने वाला अपना कालम )

Wednesday, April 4, 2012

ghar ke tamatar

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दिलीप कुमार ,वैजंती माला और होटल नार्टन


अंबरीश कुमार
यह फोटो रानीखेत के ब्रिटिश दौर के होटल नार्टन की है जो अपने आप में बहुत रोचक इतिहास भी समेटे है । इस होटल में एमएफ हुसैन जैसे चित्रकार रुकते थे तो विमल राय समेत अपने ज़माने के कई मशहूर अभिनेता और अभिनेत्रियाँ भी । पंडित जवाहर लाल नेहरु यहाँ नहीं रुके पर उनका खाना यही से बनकर उनके सरकारी अतिथिगृह तक पहुँचाया गया था । आजादी से पहले रूस से आए एक मुस्लिम परिवार ने इस होटल को तब खोला जब ब्रिटिश सैनिकों के परिवार वालों को यहाँ रुकने की दिक्कत हुआ करती थी । यह इस अंचल का सैन्य मुख्यालय भी है और आजादी के दौर में यहाँ बहुत कम आबादी थी । अगर आप रानीखेत गए हो तो माल रोड के अंतिम छोर पर जहाँ एक रास्ता कुछ आगे जाकर करीब करीब बंद हो जाता है वही दो मोड़ के बीच यह होटल आज जर्जर हालत में है । सामने ही जंगलात विभाग का भव्य डाक बंगला है तो बगल में पर्यटन विभाग का गेस्ट हाउस । पहली बार जब रानीखेत गया तो इसी गेस्ट हाउस के जंगल से लगे अंतिम कक्ष में रुकना पड़ा था और खाना खाने के बाद बैरा ने चेतावनी दे दी थी कि रात में बाहर मत निकलिएगा यहाँ काफी बाघ निकलते है । बाद में जब चौबटिया गार्डन की तरफ चढ़ रहे थे तो सड़क के किनारे जगह जगह बोर्ड लगे थे जिन पर लिखा था -बाघों को पहले रास्ता दे फिर आगे बढे । इससे देवदार के घने जंगल में बसे इस इलाके का अंदाजा लगाया जा सकता है । रानीखेत देश का बहुत पुराना हिल स्टेशन है जहाँ पहले बहुत jहोटल भी नहीं थे और न आबादी क्योकि सेना के अधीन होने की वजह से यहाँ भी निर्माण पर रोक है । इससे यह सैरगाह बचा हुआ भी है ।
दूसरी ,तीसरी बार रानीखेत आए तो जंगलात विभाग के डाक बंगले के साथ इस नोर्टन होटल में रुके तब इसके बारे में सब पता चला । दीवार पर हुसैन ही नहीं कई मशहूर चित्रकारों की बनाई कला दिख रही थी । रात में जब बैठे तो इसके मालिक शायद मोहम्मद भाई ने इसका इतिहास बताया । इस होटल में ही मधुमती समेत कई फिल्मों की शूटिंग हुई । दिलीप कुमार ,प्राण से लेकर वैजन्ती माला यही ठहरे भी । सिर्फ वे ही नहीं दर्जनों मशहूर फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियाँ यहाँ रुकते क्योकि कोई और होटल भी नहीं था । इससे पहले ब्रिटिश सैनकों के पारिवार वालों को यहाँ की आबो हवा में रुकना बहुत पसंद था और इस होटल का मुगलई व्यंजन भी । उस दौर में कोई भी मशहूर हस्ती रानीखेत आती तो उनके लिए खाना यही से जाता । होटल मालिक की माँ खुद सरे मसाले कूट कर तैयार करती और उन्ही के निर्देश में देशी विदेशी व्यंजन भी बनते । उन्होंने उस दौर के कई रोचक किस्से भी सुनाए जिन्हें यहाँ समेटना मुश्किल होगा । यह होटल आज जर्जर भले हो गया हो पर इसका इतिहास बहुत समृद्ध है । रानीखेत आज भी अन्य पहाड़ी सैरगाहों से अलग हटकर काफी सुकून देने वाला है बशर्ते आप बाजार में न रुके । इस मामले में पर्यटन विभाग का गेस्ट हाउस काफी शांत जगह है पर उसकी बुकिंग पहले से करना जरुरी है ।

उत्तर प्रदेश का संगठन कांग्रेस दिल्ली के रिमोट से चलाएगी

अंबरीश कुमार
लखनऊ , अप्रैल । उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की करारी हार के बावजूद कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया है । प्रदेश की हार की समीक्षा देश की राजधानी में होगी । यह बात औरों के गले से नीचे क्या उतरेगी जब पार्टी के नेता ही इसके पक्ष में ना हो है । इसी दिल्ली के चक्कर में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में निपटी है और फिर उसी रास्ते पर है । गौरतलब है कि चुनाव के दौरान श्रीप्रकाश जायसवाल ने यह बयान भी दिया था कि राहुल गांधी तो रीमोट से भी यह प्रदेश चला सकते है ।अब लग रहा है वह शुरू हो गया है बस फर्क इतना है कि सरकार चलाने का मौका भले न मिला हो पार्टी चलाने का विकल्प तो है ही । चुनाव के दौरान राहुल गांधी जिन्हें दूसरे दौर के बाद याह अहसास हो गया था कि बजी हाथ से निकल रही है और वे काफी आक्रामक हो गए थे । मार डालो ,काट डालो वाली राजनीति से भी एक कदम आगे बढ़कर कागज ही सही पर फाड़ डालों वाला अंदाज सुर्खियां बन गया था । पर यह सब कोई काम न आया । लेकिन राहुल गांधी ने उस समय कहा था - चुनाव में हार हो या जीत मै उत्तर प्रदेश छोड़कर नहीं जाऊंगा । यह बात अलग है कि नतीजों के बाद वे आराम के लिए विदेश चले गए । पर अब उनकी अनुपस्थिति का लोग संज्ञान लेने लगे है ।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस इस बार अपने गढ़ में भी हारी और बुरी तरह हारी । न सोनिया रायबरेली ,अमेठी का गढ़ बचा पाई और न प्रियंका गांधी । और तो और खिलाड़ी से महारानी बनी अमिता सिंह भी अपना किला नहीं बचा पाई । राजा रानी सब हारे। इसके बाद अगर कांग्रेस ने बड़े स्तर पर संगठन में बदलाव नहीं किया और प्रदेश में कोई जनाधार वाला नेतृत्व सामने नहीं किया तो फिर नगमा , जीनत अमान के सहारे लोकसभा का मुकाबला नहीं कर पाएगी । अब अखिलेश यादव का राज है जो अपने चुनावी एजंडा से राहुल गांधी को शिकस्त दे चुके है और अब सरकार के कार्यक्रमों के साथ वे नए राजनैतिक मुकाबले की तैयारी में जुट गए है ।इसलिए अब उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के सामने चुनौती भी बड़ी है और रास्ता भी रपटीला ।
ऐसे में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश की हार का हिसाब किताब दिल्ली में करना आजीब माना जा रहा है । राजनैतिक टीकाकार सिद्धार्थ कलहंस ने कहा -न जाने कांग्रेस क्या संदेश देना चाहती है। नतीजों के बाद से वे राहुल राहुल गांधी गायब है जो वादा कर गए थे कि उत्तर प्रदेश नहीं छोडूंगा । अब लोग उन्हें ढूंढ़ रहे है और वे गायब है ।लागता है इस हार का कोई सबक नहीं सीखा । वैसे भी उत्तर प्रदेश में राजबब्बर के अलावा कोई कद्दावर नेता भी नहीं दिखाई देता जिससे पार्टी आगे बढ़ पाए ।इस बीच मीडिया कोआर्डिनेटर और पूर्व एमएलसी सिराज मेंहदी ने राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह को पत्र लिखकर मांग की है कि विधानसभा चुनाव 2012 में कांग्रेस पार्टी को उम्मीद के अनुरूप सफलता न मिलने के संबंध में आगामी पांच और छह अप्रैल को नई दिल्ली में बुलाई गई समीक्षा बैठक को नई दिल्ली के बजाय लखनऊ में कराया जाए । सिराज मेंहदी ने इस बारे में जनसत्ता से कहा -यह सिर्फ सुझाव है जिसका फायदा पार्टी को मिल सकता है । आगामी एक-दो माह में ही उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव होने वाले हैं। इसलिए यदि उपरोक्त समीक्षा उत्तर प्रदेश में होगी तो पार्टी के लिए काफी बेहतर होगी और इससे कार्यकर्ताओं को अपनी बात नेतृत्व के सामने रखने में अधिक आसानी होगी।