Tuesday, June 26, 2012

अखिलेश यादव के लिए बड़ी चुनौती बन रही है बुंदेलखंड की नदियाँ

अंबरीश कुमार हमीरपुर ,२६ जून । मानसून की शुरुआत के बावजूद बुंदेलखंड की नदियों पर संकट मंडरा रहा है । इस अंचल की जीवन रेखा कहलाने वाली अथाह जलराशि की बेतवा को अब कई जगहों पर साइकिल और मोटर साइकिल से पार किया जा रहा है ।इससे इस अंचल की नदियों पर मंडरा रहे संकट का अंदाजा लगाया जा सकता है । सूबे में इस वक्त एक पर्यावरण इंजीनियर मुख्यमंत्री है जिसके चलते लोगो को उम्मीद है कि अब प्राकृतिक संसाधनों की वैसी लूट नही होगी जिसने पहाड़ को खाई में बदल दिया तो नदियों को बंजर जमीन में बदलने की कवायद जारी है । पिछले कुछ सालों में बुंदेलखंड की नदियों की तलहटी से जिस अंधाधुंध तरीके से बालू निकला गया वह इन नदियों के अस्तित्व को धीरे धीरे खत्म कर देगा । केन ,बेतवा ,धसान और पहुज जैसी ज्यादातर नदियाँ बदहाली का शिकार हो चुकी है । इन्हें बड़ी निर्ममता से लूटा गया है । नदियों के दोनों किनारों पर जो अतिक्रमण हुआ वह तो बढा ही साथ ही नदियों का रेत जब खत्म होने लगा तो फिर मशीनों की मदद से बालू निकला गया। बुजुर्ग किसान राम अवधेश ने कहा - मायावती सरकार के राज में यह सब जमकर हुआ पर अब अखिलेश यादव सरकार में यह हुआ और लूट खसोट करने वालों की अगर सिर्फ जात बिरादरी बदली तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नही होगा क्योकि अखिलेश यादव ने एक साफ़ सुथरी सरकार का वादा किया था ।गौरतलब है कि इसी अंचल में सबसे पहले अखिलेश यादव को सुनाने के लिए भीड़ जुटी थी और इस लिहाज से भी उन्हें यहाँ के लोगों कि भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए । विंध्य पर्वत श्रृंखला से निकलकर हमीरपुर में यमुना तक 350 किलोमीटर सफर तय करने वाली बेतवा पर यह संकट ज्यादा गहरा रहा है ।उरई में सुनील शर्मा ने कहा - कुछ साल पहले तक बेतवा इस अंचल में समृद्ध का प्रतीक थी पर आज यह पोखर में बदल चुकी है ।कोटरा के आसपास ग्रामीण आसानी से पैदल नदी पार करके झांसी जिले की सीमा में चले जाते हैं इसी तरह जालौन के टिकरी गांव से हमीरपुर सीमा में जाने के लिए दो पहिया वाहन से नदी पार कर लिया जाता हैँ । इस क्षेत्र में बेतवा में इस समय कमर तक पानी बचा है । नदी का पानी सूखा तो आसपास के गांवों का भू जलस्तर भी घट गया और हैंडपंप से पानी आना बंद होता जा रहा है । इसके चलते कुछ गांवों में पलायन भी शुरू हो गया है । पहूज नदी झांसी के वैंदा गांव से निकलकर जालौन में रामपुरा के पास सिंध नदी में विलीन हो जाती है।करीब अस्सी किलोमीटर लम्बी इस नदी की विशेषता यह है कि इसके तटवर्तीय इलाकों में भूमिगत पानी खुद व खुद सतह पर फूटता रहता है । पर इस बार कही से पानी फूटता नजर नही आता । अधिकांश पाताल तोड कुओं से फूटने वाले फव्वारे बंद हैं तो नदी में मवेशियों के पीने लायक पानी नहीं बचा है ।महाराजपुरा में तो नदी के पेटे में रेगिस्तान जैसा दृश्य नजर आने लगा है ।नून यहाँ की स्थानीय नदी है जो पहले गर्मियों तक में कभी नहीं सूखती थी पर अब यह वजूद खो रही है । बेतवा की सहायक नदी घसान के पानी का प्रवाह एक समय वेहद डरावना रहता था जबकि अब इस नदी में पानी नाले की तरह बह रहा है ।इस सबकी एक वजह नदी से मौरंग निकला जाना है ।खनन माफिया नदी की बीच धारा से पौकलेन मशीन से मौरंग निकाल रहा है ।जालौन में बेतवा नदी में 45 खनन क्षेत्र हैं इसमें चार मौजूदा समय में चालू हैं ।हमीरपुर में बेतवा में खनन क्षेत्र 62 हैं जिसमे पांच चालू हैं ।गंगा मुक्ति आंदोलन और बागमती बचाओ आंदोलन के नेता अनिल प्रकाश ने जनसत्ता से कहा -नदियों की तलछट से बालू ,मौरंग निकालने से कुछ जगहों पर सकारात्मक असर होता है तो कुछ जगह नकारात्मक । बुंदेलखंड की नदियों से जो जानकारी सामने आ रही है उससे साफ़ है कि यहाँ वह नदियों के लिए संकट पैदा कर रहा है । नदियों की तलहटी से बालू निकल देने से पत्थरों के कोटरों में जो पानी जमा रहता था वह खत्म हो रहा है जिससे भूजल स्तर भी प्रभावित होने लगा है । इस समस्या को अखिलेश यादव को इसलिए भी गंभीरता से लेना चाहिए क्योकि वे पर्यावरण इंजीनियर रहे है । उन्हें फ़ौरन मौरंग के खनन पर रोक लगते हुए कुछ नदियों को बचाने की दिशा में पहल करनी चाहिए जिसमे हम सब लोग मदद करने को तैयार है । गौरतलब है कि बेतवा नदी में लिफ्टर लगाकर नदी के बीच से मौरंग निकाली जाने का नतीजा है कि इसमें गहरे गढ्डें हो गए है। जिससे कई जानवर इसमे डूब चुके है और आसपास के गांव के बच्चों पर भी खतरा मंडरा रहा है । पहले ब्लास्टिंग से बुंदेलखंड का पर्यावरण चौपट हुआ तो अब मौरंग निकाले जाने से नदियों पर संकट मंडरा रहा है ।जनसत्ता

Monday, June 25, 2012

विकास की कीमत चुका रही है दम तोडती शिप्रा नदी

अंबरीश कुमार
श्यामखेत ,२४ जून। हल्द्वानी से करीब चालीस किलोमीटर यह जगह शिप्रा नदी का उदगम स्थल है पर अब यह आबादी वाले इलाके में बदल चुकी है और नदी को धकेल कर किनारे कर दिया गया है । अब इसे नदी तभी कहा जा सकता है जब भारी बरसात के बाद सभी नदी नालों और गधेरों का पानी इसमे समा जाए । वर्ना नदी के आगे फोटो में जो बोर्ड लगा है उसे देख ले और बोर्ड के पीछे नदी को भी तलाशने का प्रयास करे । यह बोर्ड इस नदी के दम तोड़ने की कहानी बता देता है । श्यामखेत से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर खैरना के पास दूसरी पहाडी नदी से मिलकर कोसी में बदल जाती है । पर इससे पहले का शिप्रा नदी का सफर और उसकी बदहाली को समझने के लिए श्यामखेत आना पड़ेगा । इस नदी की मूल धारा जहाँ से गुजरती थी वह कंक्रीट की सड़क बन चुकी है और जो खेत थे वे पाश इलाके में बदल चुके है । ऊँची कीमत पर पहले जमीन बिकी फिर उनपर आलीशान घर बना दिए गए । श्यामखेत के संजीव कुमार ने कहा -करीब दस साल पहले तक इस नदी में हर समय कई जगह छह फुट से ज्यादा पानी होता था और बरसात में तो इसकी बाढ़ से सड़क के ऊपर पानी बहता था । पर लोगों ने इस नदी के नीचे पत्थरों को निकल सड़क से लेकर घर तक में इस्तेमाल किया और इसकी धारा भी घुमा दी गई । जिसके चलते पहले इसमे पानी कम होने लगा तो लोगों ने इसे कूड़ेदान में बदल दिया । श्यामखेत घटी में बसा है और चारो तरफ चीड , देवदार और बांस के घने जंगल है और इन पहाड़ियों का सारा पानी इसी नदी में आकर इसे समृद्ध करता रहा है ।पर विकास के नामपर पहाड से गिराने वाले नालों और झरनों पर भी अतिक्रमण हुआ और पानी के ज्यादातर श्रोत धीरे धीरे बंद होते गए । भवाली में प्रशासन ने रही सही कसर इस नदी के दोनों किनारों को बांध कर पूरी कर दी । यदी हवाली से गुजरे तो जो बड़ा सा नाला नजर आता है और जिसमे कूड़ा करकट के साथ नाली का पानी बहाया जाता है वह दरअसल शिप्रा नदी है । अब वह नाले में बदल चुकी है और नाले पर भी अतिक्रमण चल रहा है । कुमॉऊ में जिस तरह से पानी के परम्परागत श्रोतो ,बरसाती नालो और गधेरों को बंद किया जा रहा है वह एक बड़े संकट का संकेत भी दे रहा है । जिस संकट से अल्मोड़ा कई सालों से गुजर रहा है वह संकट झीलों के शहर नैनीताल और आसपास मंडराने लगा है । नैनीताल की झील का पानी कई फुट नीचे आ चुका है तो दूसरी झीलों का पानी भी घट रहा है ।अंधाधुंध निर्माण के चलते पानी के श्रोत घटते जा रहे है । ऐसे में शिप्रा नदी को अगर नही बचाया गया तो अगला नंबर दूसरी नदियों का होगा । इस अंचल में कई छोटी छोटी बरसाती नदिया है जो बड़ी नदियों की जीवन रेखा की तरह काम करती है । शिप्रा जैसी कई बरसाती और छोटी नदियाँ संकट में है । इन नदियों से बड़े बड़े पत्थर और बालू हटा देने की वजह से पानी नीचे रिस जाता है जिसका असर उन नदियों पर पड़ता है जिनमे मिलकर यह उसे समृद्ध करती है । गढवाल की तरफ जहाँ बड़ी नदियाँ ग्लेशियर से निकलती है वही इस तरफ प्राकृतिक श्रोतो से । इस वजह से पानी के परंपरागत श्रोतों पर अतिक्रमण होने से यह संकट काफी बढ़ता नजर आ रहा है ।जनसत्ता

Wednesday, June 20, 2012

मछुआरों का गांव तो कही खो गया

अंबरीश कुमार विवेकानंद मेमोरियल का अतिथिगृह का परिसर काफी बड़े इलाके में फैला हुआ था और कमरे भी बिना तामझाम वाले किसी अच्छे धर्मशाला की तरह के थे । यहाँ से सुबह और शाम दोनों समय सूर्योदय व सूर्यास्त दिखने के लिए बस जाती थी । सुबह की चाय ,नाश्ता और भोजन का समय भी निर्धारित था । जमीन पर बैठकर बहुत दिन बाद यहाँ भोजन किया तो गांव की शादी बारात याद आ गई । तब यह अतिथिगृह समुन्द्र तट से दूर निर्जन इलाके में था । इस बार जब हम कन्याकुमारी के बाजार में दाखिल हुए तो पहला झटका इस अतिथिगृह को देखकर लगा जो बाजार का हिस्सा बन चुका था । कन्याकुमारी अब कोई गांव नही है बल्कि छोटे से शहर में बदल चुका है । भीडभाड और ट्रैफिक की समस्या के चलते वहाँ को समुन्द्र तट से पहले एक पार्किंग में खड़ा करना पड़ा जो केरल सरकार के अतिथिगृह से लगा था । बगल में तमिलनाडु पर्यटन विभाग का होटल है जिसके सामने तब जो खुला खुला समुन्द्र नजर आता था वह अब उतना खुला नही रह गया है । नब्बे के दशक में जब सविता के साथ यहाँ आया था तो इसी होटल के सामने वाले सूट में रुका था । बड़ी सी बालकनी में झूला लटका हुआ था जिसपर देर रात तक बैठकर समुन्द्र को देखा करते थे । रात में सिर्फ लहरों की आवाज ही सुनाई पड़ती थी । पर अब तो यह कंक्रीट का जंगल बन चुका है । भीड़ इतनी की हर जगह लाइन लगाना पड़े । विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर जाने के लिए तिरुपति मंदिर जैसे दो घंटे कतार में खड़ा रहना पड़ा तब मोटरबोट पर चढ़ने का मौका मिला । अब विवेकानद रॉक मेमोरियल की वह भव्यता नही रह गई जो पहले थी । तीन समुन्द्र के संगम में पहले चारो तरफ से यही मेमोरियल दिखता था पर अब दक्षिण पूर्व में एक चट्टान पर प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की विशाल प्रतिमा इसे पीछे कर देती है ।इस प्रतिमा को तैयार करने में पांच हजार से ज्यादा शिल्पकार जुटे थे । इसकी ऊंचाई 133 फुट है, जो कि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है। समुन्द्र तट से करीब दस मिनट में मोटर बोट से विवेकानंद रॉक मेमोरियल पहुंचे तो वह भी भीड़ । चारो ओर समुन्द्र देख कर पुरानी यादें ताजा हो गई।सामने का शहर अब मछुआरों का गांव नही बल्कि एक अत्याधुनिक शहर की तरह दिख रहा था । तट पर समुन्द्र के पास तक बड़ी बड़ी इमारते बन चुकी थी जो दूर तक नजर आ रही थी । जबकि पिछली बार यह नारियल के घने जंगलों से घिरा एक द्वीप जैसा लगा था । करीब दो घंटे बाद वापस लौटे तो कन्याकुमारी मंदिर देखने के लिए फिर लाइन । टिकट लेने के बावजूद घंटा भर लग गया । आकाश ने भीतर जाने से मना कर दिया क्योकि पुरुष कमर से ऊपर कोई कपडा पहन कर नही जा सकते है ।कन्या कुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर का मुख्य द्वार केवल विशेष अवसरों पर ही खुलता है, इसलिए उत्तरी द्वार से इस मंदिर में प्रवेश करना होता है। करीब 10 फुट ऊंचे परकोटे से घिरे वर्तमान मंदिर का निर्माण पांड्य राजाओं के काल में हुआ था। देवी कुमारी पांड्य राजाओं की अधिष्ठात्री देवी थीं। मंदिर से कुछ दूरी पर सावित्री घाट, गायत्री घाट, स्याणु घाट एवं तीर्थघाट बने हैं। इनमें विशेष स्नान तीर्थघाट माना जाता है। घाट पर सोलह स्तंभ का एक मंडप बना है। देवी की नथ में जडा हीरा इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है । जिसे लेकर कई किस्से भी है कि कभी इसकी चमक से समुन्द्री जहाज के नाविक इसे लाईट हाउस की रोशनी समझ लेते थे । पर यह कहानी ही ज्यादा लगती है । अब यह मंदिर भी बाजार के बीच में है और आसपास कई दक्षिण भारतीय रेस्तरां और शंख सीप आदि की दुकाने है । वह कन्याकुमारी जो पहले देखा था वह नही मिला । न ही नारीयल के हरे विस्तार दिखे और न कई रंग के रेत वाला समुन्द्र तट । सब घिर गया है सीमेंट की दीवारों से । देश के अंतिम छोर पर तीन समुन्द्र तट का यह संगम अब बाजार में बदल चुका है जिससे जल्द बाहर निकलना चाहता था । करीब एक घंटे बाद जब नारीयल के पेड़ों से घिरे टेढ़े मेढे रास्तों पर लौटे तो एसी बंद कराकर शीशा खोला तो ताजी हवा से रहत मिली । शाम ढल चुकी थी और आगे एक बाजार में सजा हुआ चर्च दिखा जिसकी रोशनी देखते बनती थी । पर इस कन्याकुमारी को देखकर मन खराब हो चुका था । यह विकास की नई अवधारणा का एक और उदाहरण नजर आया ।

Tuesday, June 19, 2012

कन्याकुमारी से तिरुअनंतपुरम की तरफ

अम्बरीश कुमार कुछ महीने पहले केरल की यात्रा पर था तो एक दिन का कार्यक्रम कन्याकुमारी का बना क्योकि रुके तिरुअनंतपुरम में थे । केरल पर्यटन विभाग का होटल स्टेशन के पास है और काफी आरामदेह भी इसलिए तय किया कि रुकेंगे यही और घूम कर लौट आया करेंगे । वैसे भी तमिलनाडु और केरल के बीच जो बांध विवाद चल रहा था उसके चलते टैक्सी वाले शाम तक तिरुअनंतपुरम लौट आने की शर्त पर जाने को तैयार हो रहे थे । साल का अंतिम हफ्ता था और सैलानियों की भीड़ उमड़ी हुई थी । हम जिस होटल चैथरम में रुके थे उसके सामने ही टैक्सी स्टैंड था और स्टेशन भी बाएं हाथ को करीब सौ मीटर की दूरी पर । ठीक बगल में एक मीनार जैसे भवन में इन्डियन काफी हाउस । यह ऐसा काफी हाउस था जिसमे चिकन बिरयानी से लेकर रोगन जोश तक परोसा जाता है । खैर यहाँ से तिरुअनंतपुरम का मुख्य बाजार से लेकर मंदिर तक सभी दस पन्द्रह मिनट की दूरी पर है इसलिए ठहरने के लिहाज से यह जगह ठीकठाक है । अंत में तय हुआ कि सुबह कन्याकुमारी के लिए चलकर रात तक लौट आया जाए । रास्ते में त्रावनकोर के राजा का बनवाया मशहूर पदमानभापुरम महल और सुचिन्द्रम का थानुमलायन मंदिर देखा जाए । दिसंबर का अंतिम हफ्ता होने बावजूद गरमी इतनी थी कि गाडी का एसी चलवाना पड़ा । तिरुअनंतपुरम शहर से बाहर निकलते ही नारियल के पेड़ों की हरियाली से कुछ माहौल बदला और खेतों के बीच सुपारी के खूबसूरत पेड़ देखते बनते थे जो पतले तने के पर नारीयल से ज्यादा ऊँचे और सीधे खड़े नजर आते है ।नारियल के पेड़ तो कई जगह टेढ़े मेढे भी नजर आ जाए पर सुपारी के पेड़ सीधे ही नजर आए । रास्ते में छोटे छोटे बाजार जिसमे कई दुकानों पर केले और नारियल बिकते नजर आ रहे थे ।केले की भी यहाँ कई प्रजातियां होती है जिसमे पीले रंग के छिलके वाले छोटे आकर के केले से लेकर करीब एक फुट का लाल केला भी शामिल है । सुबह बिना नाश्ता किए निकले थे इसलिए महल देख कर बाहर निकलते ही केले लिए और नारियल पानी पीकर प्यास बुझाई । राजा त्रावनकोर का यह महल वास्तुशिल्प के लिहाज से अद्भुत है । लकडियों का काम देखते ही बनता है जिसमे सागौन से लेकर कटहल तक की लकडी का इस्तेमाल हुआ है । महल में ही संग्रहालय है जिसमे उस समय की मूर्तियों से लेकर कलाकृति भी प्रदर्शित की गई है । इस महल को जल्दी जल्दी देखने में भी डेढ़ घंटे से ज्यादा लग गए । इससे पहले तिरुअनंतपुरम में राजा रवि वर्मा के संग्रहालय को देखकर रोमांचित था पर यहाँ का संग्रहालय इस अंचल के इतिहास ,कला और संस्कृति की झलक भी दिखा देता है । महल देखकर हरे भरे खेतों के बीच से होते हुए कन्याकुमारी की तरफ बढे । कन्याकुमारी पहले कई बार आना हुआ है पर बच्चों के साथ पहली बार जा रहा था । सबसे पहले परिवार के साथ गया था तब विवेकानंद मेमोरियल के बड़े से अतिथिगृह में रुकना हुआ था । आज भी याद है मदुरै से बस से कन्याकुमारी के लिए चले थे और पहुँचते पहुँचते रात के दस बज चुके थे ।तब तो कन्याकुमारी एक गांव जैसा था और वह भी रात में दस बजे तक सो जाने वाला । भूख सभी को लगी हुई थी और अतिथिगृह के मैनजर से खाने की व्यवस्था के बारे में पूछा तो उसका विनम्र जवाब था -आपने पहले से जानकारी नही दी थी इसलिए अब नही बन पायेगा । पर गुजरात से एक ग्रुप आ रहा है उनकी संख्या ज्यादा नही हुई तो आप लोगो को भी खाने पर बुला लेंगे । करीब चालीस मिनट बाद ही उन्होंने खाने पर बुला लिया और गर्म गर्म चावल के साथ सांभर,रसम ,छाछ और सब्जी सब थी । उस खाने का स्वाद कभी भूलता नही है । जारी

सीमा आजाद के लिए तेज हुआ अभियान ,अखिलेश यादव को देंगे पुलिस की फर्जी कहानी का ब्यौरा

लखनऊ , जून। सीमा आजाद और अन्य राजनैतिक बंदियों की रिहाई के लिए उत्तर प्रदेश में अभियान तेज हो गया है । आज इलाहाबाद में इस मुद्दे को लेकर विभिन्न जन संगठनों की एक बैठक उस जगह होने जा रही है जहाँ चंद्रशेखर आजाद की शहादत हुई थी तो बुधवार को लखनऊ के प्रेस क्लब में कई संगठन इस सवाल पर जन दबाव बनाने जा रहे है । इस मुद्दे को लेकर प्रदेश और देश के विभिन्न जन संगठन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी गुहार लगाने जा रहे है ।यह जानकारी पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने दी ।छब्बीस जून के कार्यक्रम के बाद मुख्यमंत्री से एक प्रतिनिधिमंडल मुलाकात कर उन हालात की जानकारी देगा जिनके चलते पुलिस ने बेगुनाह सीमा आजाद और अन्य को न सिर्फ फंसाया गया बल्कि आजीवन कारावास की सजा तक दिला दी गई । फैसले में किस तरह के अंतर्विरोध सामने आए है इसका ब्यौरा बना कर मुख्यमंत्री को भी दिया जाएगा । छब्बीस जून के अभियान में अब वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर और जस्टिस राजेंद्र सच्चर भी शिरकत करेंगे । गौरतलब है कि मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की सांगठनिक सचिव और युवा पत्रकार सीमा आजाद को उनके जीवन साथी विश्वविजय के साथ 6 फरवरी 2010 को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर लगभग उन्ही धाराओं में आरोप लगाया गया है जिन धाराओं में डाक्टर विनायक सेन को आरोपित किया गया था। यानी कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी का सदस्य होना और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना। इसके अलावा कुछ अन्य धाराओं में भी आरोप लगाए गए हैं। सीमा आजाद कि रिहाई के लिए अभियान चला रहे चितरंजन सिंह और साहित्यकार नीलाभ ने कहा -डा. विनायक सेन तो रिहा हो चुके हैं लेकिन सीमा और विश्वविजय को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी है और उनपर जुर्माना भी ठोंक दिया गया है। शायद यह उन बिरले मामलों में से ही होगा जिनमें इन धाराओं के तहत आरोपित व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह की सरकार उन सभी से बदला ले रही है जो उनकी नीतियों से सहमत नहीं हैं। यह बात ध्यान देने की है कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है कि सीमा आजाद और विश्वविजय किसी भी समय हथियारों या विस्फोटकों की कार्यवाइयों में लिप्त रहे हों। उनका एकमात्र ‘अपराध’ यही है कि वे अपनी रजिस्टर्ड द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ के माध्यम से सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे थे और गंगा एक्सप्रेस वे और आपरेशन ग्रीन हंट के खिलाफ अभियान छेड़े हुए थे थे। प्रदेश की तत्कालीन सरकार किस तरह सीमा आजाद को दोषी सिद्ध करने के फ़िराक में थी इसका ब्यौरा तैयार किया गया है जो मुख्यमंत्री को भी बताया जाएगा । जिसके मुताबिक फैसले के पृष्ठ नम्बर 57 पर यह स्पष्ट उल्लिखित है कि रिमाण्ड के दौरान जिस सामग्री की बरामदगी की गयी थी और उसे सीलबन्द किया गया था, उसे पुलिस स्टेशन में बिना कोर्ट की अनुमति के ‘अध्ययन के उद्देश्य से’ पुनः खोला गया। लेकिन दुर्भाग्य से कोर्ट ने इस प्रक्रिया में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया। यह भी उल्लेखनीय है कि रिमाण्ड को दो बार अदालत द्वारा अस्वीकार किया गया और अन्ततः जब रिमाण्ड दिया गया तो यह गैरकानूनी तरीके से हुआ। इसमें उन सभी कानूनों का उल्लंघन हुआ जो किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर लेने के लिए कानून द्वारा तय हैं। अदालत ने इस स्पष्ट गैर कानूनी काम को क्यों होने दिया। क्या यह इसलिए था कि एफआईआर के बाद पुलिस ने जिन मनगढ़न्त और झूठे साक्ष्यों का उल्लेख किया था उनको रिमाण्ड के दौरान तथाकथित बरामदगी के रूप में पेश किया जा सके? सीमा के मोबाइल काल डिटेल्स को अदालत में पेश किया गया। लेकिन उनमें सिर्फ 5 फरवरी 2010 तक का ही ब्योरा था। उनमें उसकी गिरफ्तारी के दिन यानी 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स का कोई ब्योरा नहीं है। सवाल यह है कि काल डिटेल्स को जान-बूझ कर क्यों छिपाया गया। यदि 6 फरवरी की काल डिटेल्स को अदालत में प्रस्तुत किया जाता तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती कि सीमा और विश्वविजय को, सीमा के नई दिल्ली से रीवा एक्सप्रेस द्वारा 6 फरवरी को सुबह 11.45 बजे इलाहाबाद उतरते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। यानी 6 फरवरी को दोपहर 2.30 बजे हीरामनि की गिरफ्तारी के बहुत पहले। पुलिस यह कहानी क्यों गढ़ रही है कि हीरामनि द्वारा पुलिस को सीमा और विश्वविजय के बारे में दी गयी सूचना के बाद उन्होंने सीमा और विश्वविजय को 6 फरवरी को रात 9.30 बजे गिरफ्तार किया। पुलिस की क्या मजबूरी थी कि उसने जान-बूझ कर 6 फरवरी 2010 की काल डिटेल्स को छिपाया। इस तरह और भी कई तथ्य है जिससे मुख्यमंत्री को अवगत कराया जाएगा । खास बात यह है कि सीमा आजाद की गिरफ्तारी के समय समाजवादी पार्टी ने इसका पुरजोर विरोध भी किया था इसलिए मानवाधिकार संगठनों को उम्मीद है अखिलेश यादव इसे गंभीरता से लेंगे । जनसत्ता

Monday, June 18, 2012

उफ ! ये इज्जत का प्रेत

‘इज्जत का प्रेत‘ हम औरतों के सिर पर चैबीसों घंटों, ताउम्र सवार रहता है. ये ‘इज्जत का प्रेत‘ हमारी ‘योनि‘ में कुंडली मारकर बैठा रहता है. इस प्रेत की स्त्रियों के जीवन में इतनी बड़ी भूमिका है कि ये ना रहे तो हमारे जीने की वजह और अधिकार तुरंत ही खत्म हो जाते हैं... गायत्री आर्य ‘चलती कार में रात भर लूटी छात्रा की इज्जत ‘, ‘चलती बस से कूदकर महिला ने इज्जत बचाई‘, ‘अपने ही स्टाफ की बहू की आबरु लूटी पुलिसकर्मियों ने‘, ‘प्रधानाचार्य ने छात्रा की इज्जत लूटी‘, ‘वहशी पिता ने अपनी मासूम पुत्री की अस्मत तार-तार की‘. हर रोज ऐसी ही भयानक और मनहूस खबरें नाश्ते की मेज पर हमारा इंतजार करती हैं....और इससे भी ज्यादा भयानक है राष्टीय अखबारों द्वारा ये लिखा जाना कि ‘लड़की की इज्जत लुट गई‘ या लूट ली गई.‘ बलात्कार करने वाले आदमियों की इज्जत कभी लुटते नहीं सुनी. इसी से शक होता है कि उनकी इज्जत होती भी है या नहीं ? हमारे यहां तो जब-तब औरतें हमेशा के लिए ‘बेइज्जत‘ हो जाती हैं, लेकिन हमारे देश के पुरुष रक्षामंत्री विदेशियों द्वारा पूरे कपड़े उतारे जाने पर भी बेइज्जत नहीं होते...! नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के हिसाब से बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में, प्रत्येक पांच मामलें में से सिर्फ एक में ही बलात्कारी को सजा मिल पाती है. बाकि के सारे बलात्कारी ‘बाइज्जत बरी‘ हो जाते हैं ! ...और ऐसे में पीडि़त स्त्री को तीहरी सजा मिलती है. पहली सजा तो यह कि एक स्त्री सिर्फ अपनी मादा होने के कारण ही बलात्कार पाने के योग्य हो जाती है ! दूसरी सजा उसे तब मिलती है जब कानून के लंबे हाथों के बावजूद, अपराधी पीडि़ता की आखों के आगे खुल्ले घूमते फिरते हैं. तीसरी सजा उसे तब मिलती है जब दोषी पकड़े जाने पर भी ‘बाइज्जत बरी‘ हो जाते हैं और पीडि़ता को ‘बेइज्जत‘ और ‘इज्जत लुटा हुआ‘ घोषित कर दिया जाता है. ...और इस पूरे प्रकरण के दौरान और बाद में पीडि़ता का जो मानसिक बलात्कार होता है उसका हिसाब तो चित्रगुप्त भी नहीं लिख सकता. शरीर व कोमल भावनाओं के साथ हुई हिंसा का भला हमारी इज्जत से क्या व कैसा संबंध है...? ‘इज्जत का प्रेत‘ हम औरतों के सिरों पर चैबीसों घंटों, ताउम्र सवार रहता है. ये ‘इज्जत का प्रेत‘ हमारी ‘योनि‘ ( जिसे की ‘सृजन द्वार‘ कहना चाहिए) में कुंडली मारकर बैठा रहता है . इस प्रेत की स्त्रियों के जीवन में इतनी बड़ी भूमिका है कि ये ना रहे तो हमारे जीने की वजह और अधिकार तुरंत ही खत्म हो जाते हैं. जैसे ही कोई पुरुष हमारे ‘सृजन द्वार‘ में अनाधिकृत व जबरन प्रवेश करता है, ‘इज्जत का प्रेत‘ सरपट हमारी देह छोड़कर भागता है. इधर इज्जत के प्रेत ने स्त्री देह छोड़ी, उधर स्त्री का सांसे लेना भारी ! एक और अदभुत बात यह है कि बाकि जितने भी कामों में व्यक्ति बदनाम होते हैं वे उनके खुद के किये-धरे होते हैं, लेकिन बलात्कार के घिनौने खेल में कर्ता सिर्फ पुरुष होता है....पर कुपरिणाम सिर्फ स्त्री को भुगतना पड़ता है. आखिर क्यों....? निहायत आश्चर्य व अफसोस की बात तो यह है, कि ज्यादातर बौद्धिक तबका, लेखक (लेखिकाएं भी), विचारक, चिंतक, पत्रकार आज के आधुनिक तकनीकी युग में भी बलात्कार की शिकार युवती के लिए ‘इज्जत लुट गई‘, ‘अस्मत तार-तार हो गई‘, जैसे शब्द ही लिखते-पढ़ते हैं. आज भी राष्टीय अखबारों और स्तरीय पत्रिकाओं में ये शब्द लिखे जाते हैं. कोई भी ये क्यों नहीं कहता कि ‘ अमुक व्यक्ति ने बलात्कार करके अपनी इज्जत लुटवाई‘! असल में बलात्कार के विशेष संदर्भ में प्रयोग किये जाने वाले इस शब्द (इज्जत लुटना) के पीछे एक लंबी पुरुषसत्तात्मक सोच है, जिसे बदलने की जरुरत है. ‘इज्जत’ शब्द के उच्चारण मात्र से हमारे जहन में स्त्री की छवि घूम जाती है. यूं लगता है जैसे इज्जत शब्द स्त्री का ही पर्यायवाची है. खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और बातों में हम कितने आधुनिक हो गए हैं. लेकिन स्त्रियों के प्र्रति इस बर्बर सोच में कही न कोई कटौती है न बदलाव. जबकि सच यह है कि बलात्कारी तो सिर्फ देह व दिमाग को घायल करता है. बाकि बचे खिलवाड़ तो रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज व मीडि़या के लोग करते हैं. हम ही तो पीडि़ता को बार-बार कहते हैं, अहसास दिलाते हैं कि तुम्हारी इज्जत लुट गई....अब तुम किस काम की...? बलात्कारी तो इस एक्सिडेंट में सिर्फ घायल करने वाले वाहन का काम करता है. लेकिन उस घायल को प्यार, अपनेपन, साथ और संवेदना की ‘मरहम‘ लगाने की बजाए, अपमान और उपेक्षा के जहरीले इंजेक्शन देकर हत्या तो हम ही करते हैं! उस लड़की/स्त्री की आत्महत्या या ‘सामाजिक हत्या‘ के जिम्मेदार तो उस बलात्कारी से ज्यादा हम हैं. सजा का इकदार सिर्फ बलात्कारी को क्यों व कैसे माना जाए...? जो व्यक्ति दिमाग से बीमार है उससे तो अैर भला अपेक्षा ही क्या की जा सकती है. लेकिन हम, जो सोचते-समझते हैं, जिनका दिमाग ठिकाने पर है, जो ‘नारी‘ की पूजा की बात करते हैं....उनकी गलती भला कैसे क्षम्य है...? इन सामाजिक समूहों और संस्थाओं में जब इतनी ताकत है कि वे किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकते हैं यो फिर उसकी सामूहिक हत्या कर सकते हैं...तो से समाज उलटे उस पीडि़ता की ही हत्या का भागीदार क्यों बनता है? दो”ी को आत्महत्या के लिए विव’ा क्यों नहीं करता? उसका हुक्का-पानी क्यों बंद नही करता...? उसकी सामाजिक हत्या क्यों नहीं करता...? न्यायिक प्रक्रिया को दोषी ठहराना, अदालतों को गलियाना कितना आसान है कि दोषी को सजा ही नहीं देता. लेकिन जब हम ही अपनी गलत सोच और व्यवहार के कारण दोषी को सजा नहीं देते तो अदालत को क्या कहा जाए? असल मेंयह अपनी गल्तियों व कमियों पर पर्दा डालने की सोची-समझा तरीका है कि सिर्फ अदालतों पर चिल्लाते रहो. बलात्कारी तो निःसंदेह सजा का हकदार है ही लेकिन ‘इज्जत लुट गई‘ कहने, लिखने वाले और लड़की की सामाजिक हत्या करने वाले भी तो निश्चित तौर पर माफी के काबिल नहीं हैं. बार-बार अपराधी, पुलिस तंत्र और न्याय व्यवस्था पर चिल्लाकर हम अपने अपराध और और नाकामी को और कब तक छिपाते फिरेंगे? कोई बताए हमें किसने ‘इज्जत लुट गई‘ कहकर पीडि़ता को जख्मों पर नमक छिड़कने की जिम्मेदारी दी है? हमें किस अदालत या पुलिस थाने ने बलात्कार की शिकार लड़की या स्त्री का साथ देने से रोका हुआ है? आखिर पीडि़ता को स्कूल से निकालने, उसके साथ बातचीत बंद करने, अजीब सी नजरों से देखने, उसे घर में ही कैद रहने को मजबूर करने के लिए हमें किसने मजबूर किया है? यह तो ‘तोल-मोल के बोल‘ और ‘मीठी वाणी‘ की शिक्षा देने वाल समाज है. नारी की पूजा करने वाला देश है. फिर क्यों सारी पूजा-अर्चना मंदिर में देवी की मूर्तियों से ही चिपकी रह जाती है? क्या पुलिस तंत्र ने व्यवहार में सम्मान करने से मना किया है? यह तो शब्द को ब्रहम कहने-समझने वाला देश है. एक-एक शब्द को सोच-समझा कर बोलने की सीख दी जाती है. यदि सोच-समझकर ही हम पीडि़ता के लिए इन शब्दों और ऐसे व्यवहार का प्रयोग कर रहे हैं तो फिर दीमागी बीमारी में हमला करने वालों से हमें क्या शिकायत करनी चाहिए? यदि हम सच में बदलाव चाहते हैं तो बलात्कार की शिकार लड़कियों से हमें संवेदना है तो सबसे पहले ‘इज्जत लुट गई‘, ‘अस्मत तार-तार‘ हो गई जैसी शब्दावली का प्रयोग बंद करना चाहिए. कानून बनाकर ऐसी शब्दावली प्रयोग करने वालों को दंडि़त करना चाहिए . हिन्दी मीडिया को कब अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास होगा? लड़कियों और स्त्रियों को भी इस ‘इज्जम लुट जाने‘ जैसी सोच से खुद को बाहर निकालना होगा. खुद को ही अपराधी और चरित्रहीन समझने वाली इस ‘आत्मघाती‘ प्रवृत्ति से बाहर निकालना होगा. क्योंकि बलात्कार हो जाने के बाद भी न तो हमारी योग्यता कम या खत्म होती है और न ही हमारी जरुरतें. हमारे सपनें, संवेदनाएं, स्नेह, ममता, प्रबंध कौशल, जूझने कि क्षमता...कुछ भी तो कम या खत्म नहीं होता और न ही खत्म होती है हमारी ‘इज्जत‘....! लेखिका गायत्री आर्य को हाल ही में नाटक के लिए मोहन राकेश सम्मान मिला है. जनज्वार से साभार

फिर घिर आए बादल

अम्बरीश कुमार सुबह करीब साढ़े चार बजे किसी पक्षी की तेज आवाज से आँख खुल गई । सामने प्लम के पेड़ की तरफ से यह आवाज आई थी । तभी एक नही कई पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ने लगी । उठकर खिड़की से देखा तो प्लम की सबसे ऊँची टहनी पर नीले रंग की एक चिड़िया नजर आई जो कुछ ही सेकण्ड में उड़कर दूर चीड के पेड़ पर जा बैठी । कल से गागर से बादलों का आना जाना तेज हो चुका था और आज सामने की घाटी में बादल ही बादल बिखरे थे । लगता है आज बरसात हो जाएगी और कही पास में हो भी चुकी है ।रात बाहर खुले में बैठकर खाना खाते समय हवा में समाई ठंढ का असर महसूस हो रहा था जबकि जहाँ बैठे थे वह जगह अपने राइटर्स काटेज से करीब दो किलोमीटर नीचे जाने पर पड़ती है और वह का तापमान एक दो डिग्री ज्यादा होता है । कुछ दूरी पर ही वरिष्ठ पत्रकार और एक्सप्रेस के अपने वरिष्ठ हिरण्मय कार्लेकर का भी घर है । घर पैदल नीचे चले तभी टेलीफोन एक्सचेंज से शर्मा जी का फोन आया नाराज होकर बोले -आपके पिताजी का सरनेम अलग है और आपकी पत्नी वर्मा इस चक्कर में पोस्टमैन सविता वर्मा के फोन का बिल आप तक नही पहुंचा पाया । मैंने उसको बताया कि इसमे मेरी क्या गलती है । खैर दिल्ली की मुख्य सूचना अधिकारी नीलम कपूर के घर के सामने की पगडंडियों से गुजरते हुए सड़क पर उतरे तो दूसरे मोड पर जयपुर से आए एक रिटायर फारेस्ट अफसर का परिवार सड़क के किनारे चीड के पेड़ों के नीचे कुर्सिय लगाये जमा था । उनकी गाडिया कुछ दूर पर थी और उनके ड्राइवर अलग बैठे थे । यह इनकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है । ये अफसर हर साल जयपुर से आते है और एक काटेज लेकर करीब डेढ़ महीना यहाँ रहते है । यही सामने से नीमराना होटल की अशोक वाटिका काटेज दिखाई पड़ती है और नीचे तल्ला की आबादी । आज कई दिन बाद छाता लेकर निकलना पड़ा है क्योकि कब बरसात हो जाए भरोसा नही । बादल उमड़ रहे थे और हवा ठंढी होती जा रही थी । रास्ते में सुर्ख होते आडू देखते बन रहे थे । जिस पगडंडी से उतर रहे थे उसपर अचानक '' नमस्कार 'के संबोधन से चौका तो देखा पोस्टमैन सविता को चाय के लिए बुला रहा था और फ़ौरन फोन बिल थमाकर बोला ,कुछ समझने में गलती हो गई इसलिए दे नही पाया । खैर आगे पप्पू के घर से पहले एक बंद गोशाला में फिर किसी महिला से सविता की बातचीत शुरू हुई जो गाय का दूध दुह रही थी । गौशाला पर दरवाजा लगा हुआ था बाघ के डर से । इस पूरे इलाके में लोग बाघ से अलग ढंग का संबंध बना चुके है जो हफ्ते में एक दो कुत्ते या बकरी उठा ले जाता है । पर कोई बाघ को मारने के पक्ष में नही नजर आता । यह ऐसा गांव है जहाँ बड़े अफसर है तो गाय बकरी वाले गरीब भी । सरकारी महकमे के नामपर यहाँ बड़ा सा पोस्ट आफिस है ,पुराने ढंग का टेलीफोन एक्सचेंज है ,अस्पताल है जिसकी एम्बुलेंस लगातार मरीजो को लाती ले जाती रहती है। अब कुछ फल पकते जा रहे है जो ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह दिन और चलेंगे खासकर प्लम ,आडू और खुबानी । इला जोशी ने पूछा है वे जबतक यहाँ आयेंगी कुछ बचेगा या नहीं ? जरुर मेरी पसंद वाले सारे फल मसलन नाशपाती ,सेब ,कीवी और बब्बूगोसा आदि जुलाई अगस्त में तैयार होते है इसलिए चिंता की बात नही है । वैसे भी बरसात में यह जगह ज्यादा रूमानी ,खूबसूरत और रहस्यमयी लगती है । अम्बरीश कुमार

Sunday, June 17, 2012

आग ,बाघ और सूखा की चपेट में पहाड

श्रोत सूखे ,कई शावक मरे , टैगोर का घर भी खाक अंबरीश कुमार भवाली ,१० जून । उत्तर प्रदेश से लगा कुमायूं का यह हिस्सा इस समय आग ,बाघ के साथ सूखे की चपेट में है । अगर जल्द बरसात न हुई तो हालत बुरी तरह बिगड सकते है। बीते चार महीने में इस अंचल में दर्जन भर बाघ मारे जा चुके है । इनमे वे सात शावक नही शामिल है जो जंगल की आग में जलकर भस्म हो गए । जंगल की आग फ़ैल रही है और जानवरों पर आफत आ गई है तो धुएं से बड़ी आबादी प्रभावित हो रही है । इस बार कुल छह हजार आठ सौ पचास हेक्टेयर क्षेत्रफल में आग लग चुकी है जो लगातार बढ़ रही है । आग के चलते जंगली जानवर जहाँ गांवों में आ रहे है वही इनका शिकार भी हो रहा है ।इस सबके साथ सूखे ने किसानो को तो तबाह कर ही दिया है आम जन जीवन भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है । पहाड के सैकड़ों प्राकृतिक श्रोत सूख गए है और जल संसथान लोगों को दोनों समय पानी की सप्लाई तक नही कर पा रहा है। कुमायूं की फल पट्टी जो पहले से सरकारी उपेक्षा का शिकार थी अब बर्बाद होती नजर आ रही है । पानी न मिलने से पहाडी फलों का आकार तो छोटा हो ही गया है साथ ही झुलसने से बर्बाद हो गए है । पिछले कई दशक कि गरमी का रिकार्ड पहाड पर भी टूट रहा है । कौसानी ,रानीखेत से लेकर नैनीताल तक में पंखे चलने लगे है । पिछले दिनों जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कौसानी आई थी तो आग और धुएं की वजह से दो दिन बाहर नही निकल पाई । बरसात न होने की वजह से आग का दायरा भी बढ़ता जा रहा है । खास बात यह है कि यह आग कई जगह प्राकृतिक है तो कई जगह अप्राकृतिक भी । लीसा माफिया से लेकर चीड देवदार की लकडी का अवैध कारोबार करने वाले भी आग लगा रहे है । यह काम भी बड़े पैमाने पर हो रहा है । तो कुछ जगह स्थानीय लोग भी घास के लालच में आग लगा देते है ताकि राख की खाद के बाद बड़ी बड़ी घास उग आए जो बीस रुपए गठ्ठर के भाव बिक जाती है । इसी तरह चीड की बल्ली और तख़्त भी चोरी छुपे बड़े पैमाने पर बेचे जाते है ।जंगल से आनी वाली चीड की एक बल्ली व तखत साढ़े चार सौ और देवदार की बारह से मिल जाती है । इसके लिए दूर जाने की जरुरत नही गांव स्तर के सरकारी कर्मचारी ही सब जुगाड कर देते है । दूर के इलाको में एक ट्रक लकडी छोड़ने की कीमत तीन हजार रुपए होती है जो सिपाही के मुताबिक ऊपर तक जाती है । पेड़ कटते है तो उनपर पर्दा डालने के लिए आग भी बड़ा उपाय है जिससे कोई सबूत ही नही बचता । यही वजह है कि पहाड की आग कई लोगों के लिए मुनाफे का सौदा भी है । सूबे की सरकार बादल गई है पर राजनैतिक संस्कृति नही बदली है । यह नही लगता कि यहाँ देश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र की सरकार है । हेमवती नंदन बहुगुणा जनाधार वाले नेता है और विजय बहुगुणा सिर्फ अफसरों के जरिए सरकार चला रहे है । यही वजह है कि उनके बड़े बड़े विज्ञापनों को जो उन्होंने जनता की राय जानने के लिए दिए सब अफसरों की लालफीताशाही के शिकार हो गए । अफसरों ने जनता को कैसे टरकाया विजय बहुगुणा को शायह इसकी भी खबर नही । इस सबके चलते सरकार का इकबाल भी नहीं बन पा रहा है । इस अंचल में किसान संकट में है और भू माफिया मस्त । विकास की बात तो छोड़ दे इस अंचल की धरोहर बच जाए यह चिंता न सरकार को है न उसके मुखिया को । से करीब तेरह किलोमीटर दूर गागर के पास एक दौर में न सिर्फ रहे बल्कि गीतांजली के कुछ हिस्से भी लिखे । पर यह जानकारी देने वाला एक बोर्ड तक कही नही मिलेगा । उनके पुराने घर को कुछ समय पहले ही दुरुस्त किया गया था जो आग में भस्म हो चुका है । पर किसी को यह जानकारी भी नहीं है । सरकार जंगलों की जिस तरह उपेक्षा कर रही है वह खतरनाक है । बाघ और जंगल पर काम करने वाले पत्रकार दिनेश मनसेरा ने कहा -यह बहुत गंभीर सवाल है । बीते चार महीने में जिस तरह कार्बेट पार्क के आस पास दर्जन भर बाघ जहर देकर मारे गए है वह खतरे की घंटी है । पर इस ओर ध्यान नही दिया जा रहा । जंगल की आग में सात शावक और तीन तेंदुए जलकर मर चुके है । अभी भी कोई इस तरफ ध्यान नहीं दे रहा । दूसरी तरफ फल पट्टी के कास्तकार पंकज कुमार आर्य ने कहा - सरकार ने इस क्षेत्र के किसानो के लिए कुछ करना तो दूर शहरी इलाकों के बन्दर यहाँ और छुडवा दिए है जो रहे सहे फल थे वे भी बर्बाद हो रहे है । जबकि इस फल पट्टी को बचाए तो दूर से सैलानी भी आएंगे । पर प्रशासन तो इस खूबसूरत अंचल में जहाँ से हिमालय दिखता है एक बेंच लगाने को भी तैयार नहीं है । ऐसे में विकास क्या होगा । किसानो को पानी नही मिल रहा और बड़े निर्माण और होटलों में अंधाधुंध पानी का इस्तेमाल हो रहा है । हमारे गांव के आसपास पानी के ज्यादातर श्रोत सूख गए है । जनसत्ता फोटो -टैगोर टाप का रास्ता रवीन्द्र नाथ टैगोर का बदहाल घर

Saturday, June 16, 2012

इमरजेंसी ?

चंचल कभी अहमदाबाद जाना हो तो वहाँ दो दो लोंगो के बारे में दरियाफ्त करियेगा .मनीषी जानी और उमाकांत माकन .जिस आंदोलन को आज जे.पी. आंदोलन कहा जाता है उसकी नीव में ये दो चेहरे है .मनीषी गुमनामी में चले गए हैं और हमारा दोस्त उमाकांत माकन कांग्रेस में है .१९७३ का वाकया है साइंस कालेज के मेस में अचानक समोसे का दाम बढ़ गया .बच्चों ने विरोध किया .विरोध बढ़ता गया और मामला सरकार तक चला गया .उस समय गुजरात में चिमन भाई की सरकार थी छात्र आंदोलन से निपटने के लिए सरकार ने हिंसा का सहारा लिया जिसके चलते पूरे देश विशेषकर उत्तर भारत बौखला गया .उन दिनों मै विश्वविद्यालय में समाजवादी युवजन सभा का संयोजक था . छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष देवब्रत मजुमदार ने हमसे कहा कि तुम्हे अहमदाबाद जाना है ,जार्ज(फर्नांडिस) वहा पर मिलेंगे .मै गया और भाषण देते समय पकड़ लिया गया .तुरंत छूटा भी पर कैसे वह मजेदार वाकया है ,विषयान्तर हो रहा है लेकिन तब की राजनीति समझने के लिए जरूरी है ...पुलिस हमें लेकर थाने पहुची ही थी कि इतने में कहीं से राज नारायण जी को पता चल गया कि हमें पुलिस ने पकड़ लिया है .एक अम्बेसडर कार से नेता जी आये और आते ही पुलिस से पूछा .- कौन है जी ..बनारस से येहां आ गया .. बुलाओ तो ...नेता जी इतना ताबक् तोड़ बोल रहें थे कि पुलिस वाला कुछ समझ ही नहीं पाया और उसने हमें नेता जी के सामने कर दिया फिर क्या था नेता जी गुस्से में लगे चीखने (यह उनका स्थाई भाव था जिसके चलते हमारी तरह के कई लोग पुलिस से बचे हैं )..चुतिया हो .. यहाँ आने की क्या जरूरत थी .. क्रांतिकारी बनते हो ...ये तो समझो ये बेचारा (इशारा पुलिस की तरफ था ) शरीफ है ..नालायक चलो बैठो गाड़ी में .. अभी बताता हूँ ..और उनका 'बताना'इतनी जल्दी संपन्न हो गया कि पुलिस वाला जब तक समझा होगा हम उसकी जद से काफी दूर आचुके थे . यह वही आंदोलन है समोसेवाला जिसने इतिहास रच दिया .कल बताएँगे इस आंदोलन में जे.पी. कैसे कूदे ? समोसा से सरकार तक भाग २ कालेज कैंटीन के समोसा का बढ़ा दाम गुजरात को घेर लिया .और देखते देखते देश के अन्य हिस्सों में भी आंदोलन जोर पकड़ने लगा .उत्तर प्रदेश सबसे बाद में मैदान में उतरा .जे. पी .पर दबाव पड़ा कि वे इसका नेतृत्व अपने हाथ में ले लें .लेकिन जे.पी. हिचक रहें थे .यह उस वक्त की बात है जब जे.पी. राजनीति से ओझल हो चुके थे .अपनी पीढ़ी में जे.पी. भले ही अपने रुत्वे पर कायम थे लेकिन अगली पीढ़ी उनसे अनजान थी और जे.पी. इससे वाकिफ थे .जे.पी के सामने दूसरी दिक्कत थी प्रतिपक्ष की बिखरी हुई ,एकदूसरे टकराती हुई राजनीति ( ६५ में बना डॉ लोहिया का गैर कांग्रेस वाद ७२ तक आते आते बिखर चुका था ) इन सबको एक पगहे से बाँधना आसान नहीं था .लेकिन सरकार के खिलाफ जनता का गुस्सा अपने शिखर पर था जेपी इससे वाकिफ थे .तो जब संघी घराने ने कांग्रेस के खिलाफ (जो कि उसका स्थाई भाव है ) छात्र आंदोलन में उतरने और जेपी को अपना नेता मानने की घोषणा कर दी तो जेपी को थोड़ी सहूलियत मिली क्यों कि संघी घराना शुरू से ही जे पी के खिलाफ रहा है ,और उनपर कई बार हमला तक कर चुका था .समाजवादियों पर जे.पी. को भरोसा तो था लेकिन एक जिच भी थी .. जब एन वक्त पर जे पी. पार्टी छोड़ कर सर्वोदई बन गए थे ..लेकिन जब जार्ज ने जे.पी. से खुल कर बात की और आंदोलन में उतरने को कहा तो कुछ शर्तों के साथ तैयार हो गए .और आंदोलन व्यवस्थित ढंग से शुरू हुआ .आंदोलन अहमदाबाद से उठकर पटना के कदम कुवां आगया .'न मारेंगे न मानेगे ' हमला चाहे जैसे होगा ,हाथ हमारा नहीं उठेगा ' और आंदोलन चल पड़ा .अब उन नामो को सुनिए जिन्हें इस आंदोलन ने बुलंदी दी उसमे लालू.पासवान .शिवानंद तिवारी ,नीतीश ,लालमुनी चौबे ,आदि आदि ...( मुआफी चाहता हूँ नाम बहुत है लेकिन मै उन नामो का जिक्र कर रहा हूँ जो उठने के पहले ही भसक गए ) बहरहाल आंदोलन बे काबू होने की तरफ बढ़ने लगा .इसी बीच एक घटना और हो गयी .इंदिरा गांधी के खिलाफ राज नारायण की चुनाव याचिका न्यायालय में थी और उसका फैसला आगया .इंदिरागांधी दोषी पायी गयी ,उनका चुनाव निरस्त हो गया ६ साल के लिए चुनाव लड़ने की मनाही हो गयी .और वह आज के ही दिन यानी १२ जून को हुआ था .उस दिन वी पी सिंह इलाहाबाद में ही थे और अपने आवास 'ऐश महल;'में सो रहें थे http://chanchalblogspotcom.blogspot.in

२६ जून, प्रतिपक्ष नपुंशक है की कहानी कहता है

चंचल २६ जून, प्रतिपक्ष नपुंशक है की कहानी कहता है --------- अभी अभी जापान से स्वस्ति जी ने एक सवाल पूछा है - के बारे में .ब्राजील की वीरा रईस की उत्सुकता है 'इमरजेंसी '? इलाहाबाद पुलिस और अदालत ने मिल कर सीमा आजाद और उनके पति विश्वविजय को किताब रखने और पढ़ने के जुर्म(?) में आजीवन कारावास के सजा पर २६ जून से किसी आंदोलन की शुरुआत करने की बात हो रही है ,यह सूचना हमें नीलाक्षी जी से मिली .गो कि इस विषय पर अम्बरीश जी ,वीरेंद्र यादव जी ,संदीप वर्मा जी ,प्रमोद जोशी जी ,....तमाम लोग जो संवेदन शील हैं इस फैसले पर दुखी हैं .अर्चना झा गुस्से में हैं .. जुगनू शारदेय ने तो इस अदालत को रंडीखाना तक कह डाला.( आप मेसे बहुत से लोग जुगनू शारदेय को भूल चुके होंगे ,जुग्नूजी पत्रकार ,साहित्यकार .फिल्म निदेशक और खुल्लम खुल्ला लड़ाई लड़ने वाले जांबाज हैं .जिन्हें सच कहने में कोइ परहेज नहीं रहा है ) मै व्यक्तिगत तौर पर नीलाक्षीजी से अनुरोध कर रहा हूँ कि आप मेहरबानी करके किसी आंदोलन की शुरुआत २६ जून से मत करियेगा .क्यों ? वह मै बताना चाहता हूँ .एक दिन संदीप वर्मा ने हमें छेड़ा (यह उनकी आदत है और हमें उनकी यह आदत पसंद है ) २६ जून जिस दिन इमरजेंसी लगी कुछ लोग उस दिन को त्यौहार की तरह मनाते हैं ..संदीप जी ने चिकोटी काटा -त्यौहार मनायेगे क्या ? हमने कहा नहीं ,लेकिन असलियत बतायेंगें ..यह 'सुलेख' उन तमाम दोस्तों के नाम है जो जैल के बाहर थे और जैल की जलालत झेल रहें थे ,जो अंदर थे वो आजाद होकर गए थे ,आजादी से रह रहें थे और आजाद की तरह जैल से बाहर आये .लेकिन इसकी सच्चाई तो जाने .. पिछले आलेख में हमने बताया कि ७३ में अहमदाबाद से बच्चों का एक आन्दोलन शुरू हुआ समोसा के बढे दाम की वजह से .इसमें कई और बाते जुड़ती गयी .नाकारा प्रतिपक्ष ,सिंडिकेट ताकतें ,समाजवाद से त्रस्त पूजीवादी घराने (६९ नेकीरामनगर कांग्रेस का फैसला जिसने तमाम पूजीपतियों की चूलें हिला दी थी ) सब एक साथ हो गए .जे. पी. पर दबाव पड़ा और वो भी इस आंदोलन में कूद पड़े .यहाँ एक विषयान्तर कर रहा हूँ - जे पी. ४७ के हीरो हैं ,हजारीबाघ जैल लांघ कर भागे हुए बहादुर सेनानी हैं ,गांधी के चहेते हैं लेकिन साथ के दसक तक आते आते भुलाए जा चुके हैं .डॉ लोहिया प्रतिपक्ष की राजनीती में एकमात्र चमकते सितारे हैं लेकिन असमय ही मृत्यु सैया पर हैं .दिन में प्रभावती (जी पी. की पत्नी ) रात में जे.पी. लोहिया की देखभाल कर रहें हैं एक दिन डॉ लोहिया ने जे. पी. से कहा -तुम इतिहास में ज़िंदा रहना चाहते हो तो एक बार जेल जरूर चले जाना ..... / १२ जून ७५ को जगमोहन सिन्हा का फैसला आया इंदिरा गांधी के खिलाफ और इमरजेंसी लग गयी . नीलाक्षी जी ! अब देखिये आज जो लोग इमरजेंसी को भुनाना चाहते हैं उनकी शक्ले कितनी घिनौनी है .इमरजेंसी २६ जून को लगी ,२६ जून के बाद इमरजेंसी के खिलाफ कोइ लड़ाई हुई ? नहीं .. इमरजेंसी के खिलाफ अगर कोइ लड़ा तो व्यक्तिगत तौर पर जार्ज हैं 'दाइनामाईट कांड ' जिसमे एक पत्रकार के. विक्रम राव भी शामिल रहें हैं जिनका जिक्र आज अम्बरीश भाई ने किया ... नीलाक्षी जी आपातकाल प्रतिपक्ष के लिए नपुंशक राजनीति का दिन है .साम्यवादियों ने तो पहले ही हथियार डाल दिए थे ,संघियों ने घुटने टेक कर माफी नामा भेजा ..लड़ाई तो कांग्रेस से निकले समाजवादी कांग्रेस ने ही लड़ा .. आख़िरी बात कह दूँ ... कांग्रेस का विकल्प कांग्रेस है ....प्रमोद जोशी जी आगे आप बता दें ..

मेहदी हसन की याद

ओम थानवी मेहदी हसन के न रहने पर क्या भारत-पाकिस्तान, दुनिया भर के संगीत-प्रेमी गमगीन हुए हैं? राजस्थान से उनका नाता लड़कपन में ही छूट गया था, पर एक रात चंडीगढ़ में उनसे मांड में ‘केसरिया बालम...’ सुना तो लगा था कि अल्लाहजिलाई बाई के बाद मांड गाने का हक खान साहब को ही पहुंचता है। गाने को तो ‘केसरिया बालमा...’ करके लता जी ने भी गाया, पर न गातीं तो भी चलता। बहरहाल, उस शाम खान साहब ने पीजीआई आॅडीटोरियम में जितनी गजलें गायीं, सब शास्त्रीय रागों में निबद्ध थीं। भैरवी, यमन, मियां की मल्हार, झिंझोटी... हर गजल से पहले उन्होंने राग का सरगम सुनाया। पूरी गायकी से पहले हिंदुस्तानी शास्त्रीय तहजीब पर एक अपेक्षया लंबी तकरीर भी की। यह भरोसा जाहिर करते हुए कि ये राग-रागिनियां कयामत तक खत्म न होंगे। मेरे पास उस शाम की रेकार्डिंग है। उस शाम की यह बात भूले नहीं भूलती कि आॅडीटोरियम के मंच पर बूढ़े शेर की तरह खान साहब ने मंच पर जैसे ही प्रवेश किया, सारा हॉल पांव पर खड़ा हो गया। और यह हाल देर तक बना रहा। स्वागत की ऐसी और इतनी खड़े-पांव तालियां जीवन में मैंने दुबारा नहीं देखी-सुनी हैंं। अगले रोज चंडीगढ़ में खान साहब के साथ बैठकी हुई। देर रात तक, सेक्टर सात में हरियाणा के तत्कालीन मुख्य सचिव बीएस ओझा के घर पिछवाड़े वाले बगीचे में। खान साहब के सम्मान में भोज का आयोजन था। ओझा फरमाइश कर बैठे कि कुछ गायकी हो जाए। खान साहब ने उनकी बात पर कान न दिया। ओझा जी मचल गए। उन्होंने मेहदी हसन को चंडीगढ़ लिवा लाने वाले अधिकारी और गजलगो रमेंद्र जाखू (अब अतिरिक्त मुख्य सचिव) को पकड़ा। वे जाखू के बॉस थे। जाखू हिम्मत करके खान साहब के पास आए और गुजारिश की। मैं और मेरी पत्नी बगल में ही बैठे थे। देखा, खान साहब बिफर गए। जाखू गए तो बोले- ‘मिरासी समझ रखा है! खाने में गाना नहीं होगा।’ खान साहब वैसे मिरासी बिरादरी के जरूर थे, पर उस समुदाय की पारंपरिक शादी-ब्याह, समारोहों वाली गायकी से ऊपर उठ कर मंच पर और अपनी शर्तों पर गाते थे। हमें साफ लगा कि मजलिस में तनाव पैदा हो गया है। ओझा जी का चेहरा बुझ गया था, हालांकि फिर वह एक पुराने नौकरशाह की तरह अंत तक वैसा ही बना रहा। फिर अनुनय-विनय हुई। आखिरकार मेजबान की हालत भांप कर खान साहब ने अपने बेटे कामरान को कहा, तुम कुछ गा दो। हालांकि वह विलायती साज पर अपने अब्बा का साथ देने आया था। उसने अब्बा की ही कुछ गजलें सुनार्इं। उसके गाने के दौरान मेहमानों का हंसी-ठट्ठा देखा तब भी मेहदी हसन बेचैन हुए, पर इसे झेल गए। मेहदी हसन मय के शौकीन थे। सिगरेट भी बहुत पीते थे। जब मेहमान चले गए तब भी हम खान साहब और उनकी बीवी के साथ बतरस में मशगूल थे। बेटे के अलावा अपनी बेटी को भी वे साथ लाए थे। मेरी पत्नी प्रेमलता से खान साहब ने शाम को पूछ लिया था, राजस्थान की हो? वे बोलीं- ‘हां।’ ‘तो फेर मारवाड़ी क्यूं न बोलो?’ और फिर हम लोग मारवाड़ी में बतियाने लगे। वे शेखावाटी लहजे की मारवाड़ी बोलते थे, हम बीकानेर की तरफ की। दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। वैसे बीकानेर से भी उनकी खूब वाक्फियत थी। ‘रेशमा बठे की ही है’ (रेशमा वहीं की तो है), उन्होंने कहा था। संगीत में उच्च शिक्षा मेरी पत्नी ने हासिल की है, पर उस शाम मैं खान साहब से ज्यादा बोलता रहा। मैंने हिम्मत कर कह भी कह डाला कि आपकी आवाज में जो खुरदुरापन है वह उसे कलात्मक बनाता है, वरना मीठा तो बहुत लोग गाते मिलते हैंं। यह भी कहा कि मुझे गुलाम अली पसंद नहीं। उन्होंने इतना ही कहा कि सब अपने ढंग से गाते हैंं। कितना बड़प्पन था। बड़े कलाकार की निशानी। मुझे खयाल आया, एक बार चंडीगढ़ शताब्दी में गुलाम अली मिल गए थे। मैंने जब पूछा कि मेहदी हसन साहब के क्या हाल हैंं तो उन्होंने सीधे मुंह जवाब नहीं दिया था। मेहदी हसन राजस्थान का अपना गांव लूना (स्थानीय बोली में लूणो, अब झुंझनूं जिले में) भले छोड़ गए थे, पर अपनी भाषा नहीं भूले थे। कोई नहीं भूलता। उन्होंने बातचीत की चलत में यह भी कहा था कि किसी रोज लूना जाकर मां की कब्र पर पत्थर लगवाना चाहता हूं, क्या मैं इसमें कोई मदद कर सकता हूं। मैंने कहा था, जब आप उधर का कार्यक्रम बनाएं तब जरूर बताएं। तब भैरोंसिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री थे। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे। उनका हवाला भी मैंने खान साहब को दिया था। पता नहीं वे अपनी इच्छा पूरी कर पाए या नहीं। जब उनके शहर कराची गया, तो उनसे जानने की ख्वाहिश थी। पर मिलना नहीं हो सका, क्योंकि वे इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे। अब मिलना कभी हो भी नहीं सकेगा। मिलें तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें। पर उनकी आवाज से तो, इंशाअल्लाह, जब चाहें मिलना होगा। उनसे सारे संसार का यही एक रिश्ता है। यह सदा कायम रहेगा।जनसत्ता

Wednesday, June 13, 2012

उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद है सौ से ज्यादा बेगुनाह राजनैतिक बंदी

अमीर बनाम गरीब में बदलती मानवाधिकार की लड़ाई का ठीकरा बेगुनाहों पर अंबरीश कुमार लखनऊ,13 जून ।मिर्जापुर से लेकर वाराणसी तक की जेलों में सौ से ज्यादा राजनैतिक बंदी सालों से बंद है । इनमे से ज्यादातर बेगुनाह है पर जेल से बाहर नही आ सकते क्योकि न इनकी कोई पैरवी करने वाला है और न जमानतदार । यह मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वालों का दूसरा पहलू है जो आज अमीर बनाम गरीब में बदल चुकी है जिसका खामियाजा कई बेगुनाह भुगत रहे है ।अब इनकी आवाज उठाने का एक और बड़ा प्रयास आपातकाल की सालगिरह २६ जून को सम्मलेन के रूप में दिल्ली से होने जा रहा है जो बाद में इलाहबाद से लेकर लखनऊ तक फैलेगा । राजनैतिक बंदियों का यह मुद्दा सीमा आजाद के चलते नए सिरे से उठने जा रहा है जिसमे छात्र ,शिक्षक ,रंगकर्मी ,साहित्यकार ,पत्रकार ,मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और जन संगठनों के कार्यकर्त्ता शामिल होंगे । प्रदेश के विभिन्न जेल में बंद इन राजनैतिक बंदियों की संख्या भी कम नही सौ से ज्यादा है जिसमे महिलाएं भी शामिल है । सिर्फ मिर्जापुर जेल में पचास से ज्यादा बंदी ऐसे है जिन्हें नक्सली बताकर जेल में डाल दिया गया तो सालों से वे वही पड़े है । मानवाधिकार संगठन के एक सर्वेक्षण के मुताबिक वाराणसी और मिर्जापुर जेल में सौ से ज्यादा ऐसे बंदी है जिन्होंने कोई संगीन अपराध नहीं किया पर एक खास राजनैतिक धारा के प्रभाव में आकर राजनैतिक गतिविधियों से जुड गए ।इनमे ज्यादातर आदिवासी है जिनपर देशद्रोह वाली धारा लगा दी गई । पर न इन्होने कभी अरुंधती राय कि भाषा बोली और न कभी जन अदालत लगाकर सजा दी । अब इस पूरे अंचल में न तो माओवाद बचा और न माओ के समर्थक । पर यह लोग भगत सिंह से लेकर मार्क्स लेनिन को पढ़ने पढाने से लेकर माओ की राजनैतिक रणनीति पर चलने के लिए प्रेरित करने की वजह से जेल में है । दुर्भाग्य यह है कि माओ और माओवादियों की रणनीति पर चलते हुए ये एक इंच जमीन तो मुक्त करा नही पाए पर अपनी जमीन और परिवार खो बैठे है । वर्ष २००६ में एमसीसी की गुरिल्ला विंग कि सदस्य कंचन को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसे खतरनाक नक्सली बताया । वैसे पुलिस ऐसे मामलो में जिसे भी गिरफ्तार करती है उसे काफी खतरनाक बताती है । बाद में यह खुशनसीब थी कि जमानत मिल गई पर पता चला बंदूक थमने वाली यह महिला सोनभद्र में गिट्टी तोड़कर अपना गुजर कर रही थी । इसी तरह एमसीसी की सविता मजदूरी पर मजबूर थी तो चंपा को दोतरफा हिंसा का सामना करना पड़ा और वह बदहाल जीवन गुजर रही है । ये मजदूरी करने को मजबूर महिलाएं देश के लिए किस तरह और कितना बड़ा खतरा बन गई यह कोई नही बताता । यह बानगी है देशद्रोह जैसी धाराओं में गिरफ्तार महिलाओं की । इनकी सूची लंबी है । सोनभद्र से विजय विनीत के मुताबिक मिर्जापुर जेल में सोमरी उर्फ बबिता ,सरिता चेरो और कुसुम बंद है । चंदौली की सुषमा और पुष्पा वाराणसी जेल में है तो इसी जिले की किरण और सुमन बिहार के रोहतास व जहानाबाद जेल में बंद है । वजह जमानत नही मिल रही और कोई पैरवी वाला भी नही है । इनकी लड़ाई लड़ने न तो माओवादी समर्थक आते है न कोई एनजीओ और न अंतरष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन । विनायक सेन की लड़ाई लड़ने देश के ढेर सरे एनजीओ से लेकर आभिजात्य वर्गीय मानवाधिकार एक्टविस्ट उतर आए थे क्योकि विनायक सेन भद्र समाज के भद्र पुरुष थे जिनकी अंतर्राष्ट्रीय साख थी । पर सोनभद्र चंदौली की सविता ,बबीता और इलाहाबाद की सीमा के लिए कोई बड़ा नाम सामने नही आया क्योकि वह आभिजात्य वर्गीय समाज की नही है । पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने इस बात से सहमती जताते हुए कहा -जिस तरह विनायक सेन की पैरवी में देश के ज्यादातर एनजीओ और भद्र समाज के लिए लोग जुटे वैसा समर्थन सीमा आजाद समेत गरीब तबके के राजनैतिक एक्टिविस्टों को नही मिला ,यह सच है ।यह पूछने पर कि क्या सीमा आजाद के मामले पर अरुंधती राय से कोई समर्थन मिला उनका जवाब था -उनसे बात करने का प्रयास किया गया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया । मानवाधिकार की लड़ाई में इस तरह का भेदभाव पहली बार दिख रहा है ।और तो और खुद विनायक सेन ने केंद्र सरकार की समिति से जुडने के बाद कभी सीमा आजाद के मुद्दे पर कोई पहल नही की । यही वजह है कि मानवाधिकार संगठनों की साख भी संकट में है । जन संघर्ष मोर्चा के संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह तो इसे मानवाधिकार का सवाल तक नहीं मानते । जनसत्ता से बात करते हुए अखिलेन्द्र ने कहा -यह अब मानवाधिकार संगठनों के बस का सवाल भी नही है बल्कि राजनैतिक सवाल है और राजनैतिक ढंग से हल भी किया जा सकता है । अब बहस यह होनी चाहिए कि राज्य सत्ता के खिलाफ कोई संघर्ष किस तरह देशद्रोह की श्रेणी में आ जाएगा । अब तो देशद्रोह की परिभाषा पर भी बहस होनी चाहिए । चंदौली ,सोनभद्र और वाराणसी में अब कोई माओवादी बचा ही नही है ज्यादातर लोग मुख्यधारा की राजनीति से जुड चुके है । राजनाथ सिंह के राज में नक्सलियों के खिलाफ एक के बदले चार मारो का नारा दिया गया और श्रीराम सेना तक आ गई । पर बाद में वह बड़ा बदलाव भी हुआ और आज यह अंचल माओवाद से मुक्त है ।ऐसे में जेल में बंद आदिवासी नौजवानों को अखिलेश यादव सरकार को रिहा करना चाहिए । राज्य में पिछली सरकार के समय आतंकवाद के नाम मुसलमान और माओवाद के नाम आदिवासी नौजवानों को फंसाया गया । कई जो सरेंडर करना चाहते थे वे मुठभेड के डर से भाग गए । गौरतलब है कि मायावती सरकार के राज में कई माफिया जो संगीन मामलो में फंसे थे धीरे धीरे बरी होते गए । पर सीमा आजाद के में पुलिस ने जो किया वह तो किया ही जो जज इस मामले को दो साल से देख रहे थे उन्हें अंतिम समय ने तबादला कर बदायूं भेज दिया गया । चितरंजन सिंह का साफ़ आरोप है कि यह सब सरकार के इशारे पर हुआ । अगर सीमा आजाद बरी हो जाती तो पुलिस की कार्यवाई पर सवाल उठता । आलोचक वीरेंद्र यादव का मानना है कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय को देशद्रोह के अपराध में आजन्म कारावास की सजा के खिलाफ देश में तेजी से जनमत बन रहा है पर इस मुहिम को भी उसी तरह बनाने जरूरत है जैसे विनायक सेन के लिए किया गया था ।किसान मंच के विनोद सिंह ने इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बनाने कि अपील की है क्योकि सीमा आजाद को बेगुनाह होने के बावजूद नौकरशाही ने फंसाया है । इस बीच जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के उत्तर प्रदेश इकाई की मांग है कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय की रिहाई हो और उनपर लगे झूठे मुकदमे खारिज किए जाएँ। सीमा आज़ाद, अनेक सालों से एक प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता रही हैं और सम्मानजनक संगठनों जैसे कि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (उत्तर प्रदेश इकाई) के साथ जुड़ कर सामाजिक न्याय से जुड़े अनेक मुद्दों पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय के ऊपर झूठे मुकदमे थोपने से साफ ज़ाहिर है कि सरकार कैसे अपने खिलाफ उठ रही आवाज़ों पर अंकुश लगाना चाहती है।अधिवक्ता आरके जैन, डॉ संदीप पांडे, रोमा, एसआर दारापुरी , अरुंधति धुरु, अशोक चौधरी, राजीव यादव, शांता भट्टाचार्य, रिचा सिंह, शाहनवाज़ आलम, आदि ने इस मुद्दे पर देश भर में आंदोलन का एलान किया है । इन लोगो ने अखिलेश यादव सरकार से इस मामले में फ़ौरन ठोस कदम उठाने की अपील की है । जनसत्ता

Monday, June 11, 2012

सीमा आजाद के खिलाफ अपराधिक मामले सरकार वापस ले -- जन संगठनों ने कहा

लखनऊ 11 जून । मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद को लेकर उत्तर प्रदेश के बुद्धजीवियों व जनसंगठनों ने अखिलेश सरकार को इसमें तत्काल दखल देने कि मांग की है । इन जन संगठनों ने सरकार से सीमा आजाद पर लगाए गए सभी अपराधिक मामलों को फ़ौरन वापस लेने की मांग की है । तहरीके निसवां की अध्यक्ष ताहिरा हसन ने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि सीमा आजाद और अन्य लोगों पर से अपराधिक मामला वापस लिया जाए। उन्होंने कहा कि सीमा आजाद कोई अपराधी नहीं हैं वह एक मानवाधिकार कार्यकर्त्ता व पत्रकार हैं । राजनैतिक कार्यकर्त्ता अफलातून ने भी सीमा आजाद पर लगाए गए सभी आरोपों को वापस लेने कि मांग की है। इस बीच देश व प्रदेश के सामाजिक और राजनैतिक व बुद्धजीवियों को लेकर सीमा आजाद की रिहाई के लिए एक मंच बनाकर अभियान छेड़ने की तैयारी शुरी हो गई है । इस मुद्दे को अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल से जोड़कर पहल की जा रही है। इस बीच पीयूसीएल नेता और इलाहाबाद हाईकोर्ट के चर्चित वकील रवि किरन जैन इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि सीमा और विश्वविजय के पास से कुछ कागजों के सिवाय अभियोजन पक्ष कुछ भी नहीं दिखा पाया। बावजूद इसके निचली अदालत ने उन्हें उम्र कैद सुना दी। इससे यही साबित होता है कि न्यायालय में अब कार्यपालिका से भी ज्यादा कार्यपालिका वाली मानसिकता पनप रही है। जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। कानून व विधि कि जानकर नीलाक्षी सिंह ने कहा कि इस पूरे मामले ने देशद्रोह के कानून पर एक बार फिर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। विदित हो यह कानून अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता के प्रतिरोध के नंगे दमन के लिए बनाया गया सबसे कुख्यात कानून है। इस कानून का आजादी मिलने के बाद भी कायम रहना एक विडंबना ही है। गाँधी और तिलक को इसी कानून के तहत दोषी ठहराया गया था। गाँधीजी ने कहा था कि इस कानून ने न्याय को शासकों की रखैल बना दिया है और यह कानूनी अन्याय का प्रतीक है। नेहरू का भी मानना था कि हमें जितनी जल्दी हो सके इस कानून से छुटकारा पा लेना चाहिए। हाल ही में विनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी भी विचारधारा से जुड़ी किताबें किसी के घर में मिलना देशद्रोह नहीं हो सकता। अगर किसी के घर से महात्मा गांधी की जीवनी मिलती है तो वह व्यक्ति गांधीवादी नहीं मान लिया जायेगा. इसी प्रकार नक्सल साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता। सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा है कि नक्सलियों से सहानुभूति रखना भी राष्ट्रद्रोह नहीं हो सकता। दुख की बात है कि इस समय सरकारी दमन का विरोध करने वालों को देशद्रोही कहने का एक माहौल बना दिया गया है। मौजूदा न्यायपालिका भी इसी लुटेरी व्यवस्था का एक अंग बन कर रह गई है। न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। लेकिन अफसोस कि सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, न्यायपालिका के सभी स्तम्भ इस भ्रष्ट व्यवस्था के रवाँ तरीके से चलने को ही सुनिश्चित करते नजर आते हैं। जनसंघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा - सवाल लोकतांत्रिक अधिकार का है जो किसी को भी किसी विचारधारा का हिमायती होने का अधिकार देता है। इसलिए इस मामले को सिर्फ एक पत्रकार या मानवाधिकार नेता की गिरफ्तारी और सजा के बतौर ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इसे राज्य का किसी भी राजनीतिक विचारधारा को मानने की आजादी पर हमला माना जाना चाहिए । जिसमें बहुजन समाज पार्टी और सपा दोनों ही हुकूमतों में आम सहमति है। उन्होंने कहा कि इन दोनों पार्टियों के शासन में सोनभद्र में अनगिनत आदिवासी माओवादी होने के फर्जी आरोप में बंद किए गए थे। वहीं इस मसले पर प्रदेश व्यापी अभियान चलाने की तैयारी कर रहे मानवाधिकार नेता शाहनवाज आलम व राजीव यादव ने कहा कि इस फैसले के बाद राज्य और राज्य के बाहर के कई मानवाधिकार नेताओं और सगठनों से विचार विमर्श किया जा रहा है। जल्द ही एक साझा मोर्चा बनाकर इस मसले को सपा सरकार के समक्ष उठाया जाएगा। नेताओं ने कहा कि पिछली सरकार की लोकतंत्र विरोधी और दमनकारी नीतियों से उपजे आक्रोश के चलते सत्ता में आई सपा सरकार में सीमा और विश्वविजय जैसे युवा सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार का जेल में बंद रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। शाहनवाज आलम व राजीव यादव ने कहा कि सरकार के लिए यह शर्मनाक है कि एक तरफ सरकार डिंपल यादव को लोकसभा में भेजकर इसे महिला सशक्तीकरण के बतौर प्रचारित कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ सीमा जैसी जुझारु और प्रतिभावान पत्रकार जो समाज को नई दिशा दे रही थी उसको जेल में कैद कर दिया । मानवाधिकार नेताओं ने याद दिलाया कि पिछली बसपा सरकार के समय सीमा आजाद की गिरफ्तारी को उस समय सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताते हुए इसके लिए बसपा सरकार को जिम्मेदार ठहराया था।जनसत्ता

Sunday, June 10, 2012

झोलाभर किताबे खरीदने की सजा आजीवन कारावास !

सीमा आजाद को आजीवन कारावास के खिलाफ देशभर में अभियान चलेगा अंबरीश कुमार लखनऊ ,१० जून । मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद को आजीवन कारावास के खिलाफ देशभर में अभियान चलेगा । पांच फरवरी २०१० को दिल्ली के पुस्तक मेले से झोला भर किताबो के साथ इलाहाबाद लौट रही सीमा आजाद को पुलिस ने गिरफ्तार कर मार्क्स ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तकों को माओवादी साहित्य बताकर जो जेल भेजा तो वे तबसे बाहर नही आ पाई और अब निचली अदालत ने न सिर्फ उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी बल्कि अस्सी हजार का जुर्माना भी ठोक दिया । इस सजा को सुनकर उत्तर प्रदेश के जन संगठन और बुद्धिजीवी हैरान है । न कोई हथियार ,न कोई खून खराबा न कोई गंभीर जुर्म और सारा जीवन जेल में ।मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को मानना है कि उत्तर प्रदेश में जहाँ ज्यादातर माफिया और बाहुबली हत्या जैसे गंभीर मामलों में बरी कर दिए जा रहे हो वह झोला भर किताब के नाम पर आजीवन कारावास की सजा न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रही है । ठीक विनायक सेन की तरह सीमा आजाद को भी सजा सुनाई गई है । पीयूसीएल के सचिव चितरंजन सिंह ने जनसत्ता से कहा -यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है और इस मुद्दे को लेकर तेरह जून को दिल्ली में बैठक बुलाई गई है जिसमे मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और बुद्धिजीवी हिसा लेंगे और आगे की रणनीति तैयार की जाएगी । देश के विभिन्न राज्यों में इस मुद्दे को लेकर आंदोलन किया जाएगा । गौरतलब है कि सीमा आजाद के मुद्दे पर खुद विनायक सेन ने इस संवाददाता से कहा था - सीमा आजाद पीयूसीएल में हमारी सहयोगी रही है और मैं इस मुद्दे पर पहल करूँगा ।पर विनायक सेन इस दिशा में ज्यादा कुछ नही कर पाए । सीमा आजाद की गिरफ्तारी उस समय हुई जब वे दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेला देखने के बाद कुछ पुस्तकें लकर लौट रही थी। इलाहाबाद की पुलिस को इन पुस्तकों में माओवाद भी नजर आया जिसके बाद कई माओवादी कमांडरों से संपर्क आदि तलाश कर पुलिस ने वे सभी धाराएं लगा दी, जिससे जमानत न मिलने पाए। पीयूसीएल ने सीमा आजाद की गिरफ्तारी और राजद्रोह की धारा 124 ए को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी थी। गौरतलब है कि कई राज्यों में पुलिस आमतौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को माओवादियों का मुखौटा मानती है । छत्तीसगढ़ में पुलिस ने करीब आधा दर्जन पत्रकारों की सूची बनी है जिन्हें वह माओवादियों का समर्थक मानती है। उत्तर प्रदेश में जब मायावती सत्ता में आई तब सोनभद्र में मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रोमा को भी माओवादी बताकर उनपर एनएसए लगा दिया गया था पर जनसत्ता कि खबर के बाद मायावती ने उनपर से सारे फर्जी मामले हटवा दिए थे । जाने माने चित्रकार चंचल ने कहा -इलाहाबाद की पुलिस जिसे किताब (तथाकथित नक्सली साहित्य) से क्रान्ति का ख़तरा लग रहा है ,उसे इलाज की दरकार है ।यह बीमार महकमा है ।छतीसगढ़ में यह अंकित गर्ग बन कर सोनी सोरी के गुप्तांग में कंकड पत्थर डालता है ,इलाहाबाद में सीमा आजाद और विश्व विजय को किताब रखने के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा दिलवाता है ।लोंगो को 'हिंसा' की तरफ जाने के लिए यह पुलिस कितनी जिम्मेवार है ...? इसपर भारतीय विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में शोध किया जाना चाहिए ? राजनैतिक टीकाकार वीरेंद्र नाथ भट्ट ने कहा - उत्तर प्रदेश में शातिर अपराधी बारी हो जाते है और पुस्तक रखने के जुर्म में इतनी बड़ी सजा हैरान करने वाली है ।इस मामले में अखिलेश यादव से किसी ठोस पहल की उम्मीद है वर्ना उनमे और बाकी नेताओं में फर्क क्या रह जाएगा । मायावती सरकार ने तो कई अपराधियों के खिलाफ डंके की चोट पर मुक़दमे वापस लिए गए तो दूसरी तरफ पुस्तक रखने के जुर्म में आजीवन कारावास दे तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है । जन संस्कृति मंच के कौशल किशोर ने कहा -आज ऐसी व्यवस्था है जहाँ साम्प्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी, बाहुबली व माफिया सत्ता की शोभा बढ़ा रहे हैं ,सम्मानित हो रहे हैं, देशभक्ति का तमगा पा रहे हैं, वहीं इनका विरोध करने वाले, सर उठाकर चलने वालों को देशद्रोही कहा जा रहा है, उनके लिए जेल की काल कोठरी और उम्रकैद है। यह लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन तथा इस देश में वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों के लिए बड़ा आघात है। जन संस्कृति मंच का मानना है कि सीमा आजाद को कोई भी राहत मिलनी है तो इसकी संभावना सुप्रीम कोर्ट से ही है क्योंकि देखा गया है कि शासन प्रशासन निचली अदालतों को प्रभावित करने में सफल हो रहे हैं । आज सरकारों के लिए माओवाद लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने.कुचलने का हथकण्डा बन गया है। जन आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं पर राज्य के खिलाफ हिंसा व युद्ध भड़काने, राजद्रोह, देशद्रोह जैसे आरोप आम होते जा रहे है। सामाजिक कार्यकर्त्ता और साहित्यकार वीरेंद्र यादव ने कहा -जनाधिकारके लिए समर्पित आन्दोलनों के साथ एकजुटता व् समर्थन व्यक्त करने वाले सभी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह स्तब्धकारी समाचार है । राज्य की इस एकतरफा कारवाई के विरूद्ध प्रभावी जनमत बनाया जाना अत्यंत जरूरी है ।jansatta

Friday, June 8, 2012

कन्नौज में बिना लड़े हारा विपक्ष

सविता वर्मा लखनऊ,जून ।कन्नौज में डिंपल यादव से समूचा विपक्ष बिना लड़े हार गया । यह ऐतिहासिक चुनाव रहा जहा घर परिवार से बाहर निकल कर एक महिला खडी हुई और समूचे विपक्ष को लड़ाने लायक एक अदद उम्मीदवार तक नही मिला । यह समाजवादी चिन्तक राम मनोहर लोहिया की भी सीट रही है । कम से प्रतीक की लड़ाई तो लड़ी जा सकती थी । कांग्रेस और बसपा ने इस चुनाव में आत्मसमर्पण किया तो भाजपा ने राजनैतिक सौदेबाजी का सार्वजनिक प्रहसन किया । दोनों राष्ट्रीय दलों ने जो किया उसपर सवाल उठ रहा है ,बसपा का यह पुराना हथकंडा है जो हार से बचने के लिए मैदान ही छोड़ देती है । कांग्रेस और भाजपा दोनों की राजनैतिक दशा और दिशा इससे साफ़ हो गई । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अभी कोई ऐसा काम नही किया है जिससे आगे का राजनैतिक एजंडा साफ़ होता नजर आए पर ऐसा भी कोई काम नही किया है जिससे उनपर उंगली उठाई जाए । ध्यान रखे आक्रामक बयान देने के बावजूद मायावती के बुतों को छुआ तक नहीं गया है । ऐसे में कन्नौज की यह सफलता अखिलेश यादव की पहली बड़ी राजनैतिक उपलब्धी मानी जा रही है तो अखिलेश के राज में विपक्ष की पहली बड़ी शिकस्त । कन्नौज में विपक्ष किसी को उतरता तो उसकी हार होनी थी पर वह विपक्ष जो पंडित जवाहर लाल नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी तक के खिलाफ उम्मीदवार इसी उत्तर प्रदेश में उतरता रहा उससे इस तरह मैदान छोड़ने की उम्मीद किसी को नही थी । इससे उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालत का भी अंदाजा लगाया जा सकता है । साफ़ है विधान सभा चुनाव की हार से विपक्ष अभी तक नही उबर पाया है । कांग्रेस के लिए राष्ट्रपति चुनाव का बहाना है पर भाजपा को मुलायम सिंह से फिलहाल कौन सी राजनैतिक मदद की जरुरत थी ।कन्नौज में भाजपा ने जो किया उससे पार्टी नेताओ की फिर फजीहत हुई है । भाजपा चुनाव में उतरने का एलान कर भी चुनाव से जिस तरह से बाहर हुई वह मुलायम सिंह के साथ भाजपा के कुछ नेताओ की मिलीभगत का एक और उदाहरण है । भाजपा नेताओ ने ऐसा काम किया जिससे सांप भी मर गया और लाठी भी नही टूटी वाली कहावत चरितार्थ हो गई । कहा जा रहा है कि भाजपा नेताओ ने ऐसा समझौता किया जिससे चुनाव की औपचारिकता भी पूरी हो गई और मुलायम से संबंध भी बरक़रार रहा । पार्टीय ने बड़ी ना नुकुर के बाद चुनाव में उम्मीदवार उतरने का फैसला किया । इससे पहले टंडन ने निकाय चुनाव के नाम पर इस चुनाव से दूर रहने का माहौल बनाया था । बाद में पार्टी ने जगदेव यादव को उम्मीदवार बनाने का एलान किया । और जगदेव यादव नामांकन वाले दिन दोपहर 12.30 बजे लखनऊ से रवाना हुए और जाहिर है वे नामांकन के निर्धारित समय अपराह्न तीन बजे तक कन्नौज नहीं पहुंच सकते थे और नही पहुंचे । भाजपा ने इसके लिए सपा कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए रास्ते में दो स्थानों पर रोके जाने का आरोप लगाया है। लखनऊ से कन्नौज की दूरी करीब सवा सौ किलोमीटर है और कोई भी गंभीर उम्मीदवार नामांकन के लिए समय से कुछ देर पहले ही पहुँचता है ,पर अगर झांसा देना हो तो बात अलग है । इस घटना भाजपा का चाल , चरित्र और चेहरा और साफ़ कर दिया ।

Wednesday, June 6, 2012

यादों में आलोक

हिमांशु वाजपेयी रामगढ़ जाने से पहले ही वहां के बारे में इतना कुछ सुन चुका था कि वो जगह लगभग जानी पहचानी थी. भले ही अंबरीश कुमार ने बड़ी विनम्रता के साथ इसे नकार दें लेकिन मित्र समूह में उन्हें रामगढ़ के ब्रांड एंबेसडर के बतौर भी जाना जाता है. पिछले कुछ सालों में उन्होने लगातार अपने यात्रा-वृत्तांतों,किस्सागोई,तस्वीरों आदि के जरिए अपने बेशुमार जानने वालों को रामगढ़ की ओर रूख करने पर मजबूर कर दिया है. कुछ को तो इस कदर कि उन्होने वहां स्थाई तौर पर बसने की तैयारी भी कर ली. इन्ही में से एक थे धुरंधर पत्रकार आलोक तोमर.जिन्हे रामगढ़ की आब-ओ-हवा इतनी रास आई कि उन्होने फौरन ही नैनीताल के पास के इस छोटे से गांव में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीद डाला . उनका कहना था कि ये जगह रचनात्मकता का स्वर्ग है. यदि यहां रह कर स्वतंत्र लेखन किया जाए तो कलम का कमाल देखने लायक होगा. आखिर यूंही थोड़ी रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपने सपनों वाले शांति निकेतन के लिए इस जगह को चुना था, महादेवी ने यहां अपनी साहित्य साधना की कुटिया बनाई थी, निर्मल वर्मा यहां के परिवेश पर उपन्यास लिखा करते थे और दिलीप कुमार अगर अभिनेता न होते तो यहां कौवे उड़ा रहे होते...आलोक तोमर भी यहां न जाने क्या-क्या करते अगर दुनिया-ए-फानी से कूच न करते...अंबरीश कुमार जैसे उनके कई दोस्त रामगढ़ में बसे हुए हैं, अजीत अंजुम और आलोक जोशी जैसे कई दोस्त यहां आने की तैयारी में हैं, सिर्फ आलोक तोमर नहीं हैं, लेकिन उनके किस्से,कहानियां,कमाल और शैतानियां सब दोस्तों के ज़हन में महफूज़ हैं जो रामगढ़ की हवा लगते ही खुशबू की तरह फैल जाती हैं. ऐसी ही खुशबू रामगढ़ में 26-27 मई को बिखरी जब आलोक तोमर और लिखने पढ़ने से बराबर की कुर्बत रखने वाले कुछ लोग यहां इकट्ठा हुए और यादों वाले कई लिफाफे खुले. जितने दिन से अंबरीश कुमार को जानता हूं लगभग उतने ही दिन से रामगढ़ को भी जानता हूं. साल-हा-साल अंबरीश जी ने रामगढ़ के बारे में ज़हन की ज़मीन पर ऐसा समां बांधा है कि वहां जाना तो बरसों पहले तय हो चुका था, बस किसी मौके की तलाश थी जो रामगढ़ की यात्रा को ज़हन पर हमेशा के लिए नक्श कर दे. खुश-किस्मती से इस साल वो मौका आ गया. जनवरी-फरवरी के आस पास अंबरीश जी ने बताया कि आलोक तोमर की पहली बरसी पर रामगढ़ में आलोक जी को जानने-पढ़ने वालों की एक छोटी सी अनौपचारिक बैठक रखना चाहते हैं..चूंकि जल्दी ही फरवरी-मार्च का समय विधानसभा चुनावों की वजह से बहुत मसरूफियत भरा हो गया इसलिए ऐसा तय हुआ कि सब लोग मई के आस पास मिल सकते हैं.जो भी आना चाहें.किसी को निमंत्रण नहीं लेकिन सबका स्वागत है. 27 मई की तारीख मुकर्रर हुई. अंबरीश जी उससे काफी पहले ही मेज़बान की भूमिका में आ गए थे.इसलिए नहीं कि कार्यक्रम उनका था,(कार्यक्रम तो हम सबका था) बल्कि इसलिए कि जगह रामगढ़ थी. चूंकि पहाड़ों ने बुलाया था इसलिए सीएनबीसी आवाज़ के आलोक जोशी तय तारीख से काफी पहले ही रामगढ़ पहुंच चुके थे. बाकी मै, आशुतोष सिंह और साथी पुष्पेंद्र 26 को दोपहर में पहुंचे थे. कुछ देर बाद ही न्यूज 24 के अजीत अंजुम, आउट लुक की गीताश्री और वर्धा विश्वविद्यालय के विभूति नारायण राय भी पहुंच गए थे.तहलका के राजकुमार सोनी उसी दिन देर रात और न्यूज़ 24 के मयंक सक्सेना, एनडीटीवी के दिनेश मनसेरा,जनसत्ता के प्रयाग पांडे अगले दिन कार्यक्रम के ठीक पहले ही वहां पहुचे थे. अपने अनुभव की बात करूं तो पहाड़ो का जादू हल्द्वानी के बाद से ही चढ़ने लगा था. रामगढ़ के पूरे रास्ते यही तासीर रही. मन चीड़ और देवदार के दरमियां रहा. और जब रामगढ़ में कदम रखा तो लगा कि जैसे पहाड़ो का जादू अपनी मंज़िल पर आ गया है.अमूमन ऐसा होता है कि जिस जगह या आदमी के बारे में आपने बहुत कुछ अच्छा अच्छा सुन रखा होता है, आमना-सामना होने पर वह दीर्घकालिक छवि टूट सी जाती है.लेकिन रामगढ़ के सन्दर्भ में ठीक उलट हुआ. इसके बारे में मैने बहुत कुछ सुना था लेकिन जितना सुना था यह उससे कई गुना ज्यादा सुंदर था. मुक्तेशवर और नैनीताल जैसे नामचीन पर्यटन स्थलों के करीब होने के बावजूद ये जगह उनसे ज्यादा ठंडी और सुकून वाली है. नैनीताल जाने वाले हर सैलानी को मेरी ताकीद रहेगी कि कयाम रामगढ़ में ही करे. शायद पिछले कुछ सालों में इसी का चलन भी है तभी रामगढ़ में यकायक कई रिसार्ट्स और लाज खुल गए हैं. जिनमें से एक अकबर अहमद डंपी का सिडार लाज भी है. और इसी के करीब अपनी मंज़िल भी थी. चारों तरफ पहाड़,हरियाली,चिड़ियों का कलरव, खुशगवार फिज़ा और इनके बीच में अंबरीश कुमार का छोटा सा घर जिसे खुद आलोक तोमर ने राइटर्स काटेज का नाम दिया था.इसे देखते ही मैने अम्बरीश जी से कहा- ‘इस जगह पर रह कर तो बिना पढ़ा लिखा भी कविता करने लगे आप यहां होकर बेकार में साहित्य से दूरी की बात करते हैं.’ राइटर्स काटेज में ही मैने पहली बार फलदार सेब,आड़ू और प्लम के पेड़ों को देखा. बाकी फलों को पकने में तो कुछ वक्त था लकिन पेड़ से तोड़कर एकदम ताज़े प्लम्स खाने का मौका मुझे ज़रूर मिल गया. मेरे साथ आलोक जोशी जी के सुपुत्र निन्टू थे. उसी शाम सब लोग रामगढ़ के वयोवृद्ध रस्तोगी साहब से मिलने गए,इस बीच आशुतोष जी शाम के लिए चिकन तैयार करने में लगे रहे. रास्ते भर आलोक जोशी मुझे पहाड़ों के जन-जीवन की विशेषताएं बताते रहे.और फिर रस्तोगी जी के दरवाजे तक पहुंचे. रस्तोगी जी अपने आप में एक दिलचस्प शख्सियत हैं. 97 साल की उम्र में भी रस्तोगी जी एकदम फिट हैं और अपनी 92 साल की पत्नी के साथ 1930 से सुकून से रामगढ़ में रहते हैं.उनके पिता जी ने कुख्यात सुल्ताना डाकू को फांसी की सजा सुनाई थी. रस्तोगी साहब से बात करना ऐसा है जैसे खुद इतिहास से बातचीत हो रही हो. इतिहास में हम लोग पढ़ते आए हैं कि सिकन्दर के काल में आए यूनानी सैलानियों ने लिखा है कि तब भारत में दरवाज़ों पर ताले नहीं लगते थे लेकिन बकौल रस्तोगी जी उन्होने ऐसा वक्त खुद अपनी आंखों से देखा है जब रामगढ़ में ताला लगाना आदत में ही नहीं था.हालांकि वह ये भी जोड़ते हैं कि वो ज़माना बहुत पहले धुआं हो गया. 26 तारीख को देर शाम राइटर्स काटेज में दोस्तों की महफिल जमी जिसमें मेरे साथ अंबरीश जी,अजीत अंजुम,गीता श्री, आलोक जोशी,विभूति नारायण राय थे. इसके अलावा दूसरे छोर के पास लगे झूले के इर्द गिर्द निन्टू और जिया बचपने में मुब्तेला थे. ये शाम आशुतोष सिंह के लज़ीज़ चिकन, आलोक जोशी की ज़हीन जुमलाकशी और विभूति नारायण राय साहब के आलोक तोमर और उपेंद्र नाथ अश्क से जुड़े संस्मरणों के नाम रही जिनके बारे में अलग से विस्तार में लिखा जाएगा. इस बीच एक और बड़ी घटना हुई. निन्टू ने सौ सुनार की एक लोहार की तर्ज पर जिया के एक पंच मार दिया था जिससे जिया का दांत हिल गया था. खैर बड़ों के मान-मनौव्वल के बाद दोनों में दोस्ती हो गई लेकिन कोई भी ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि गल्ती किसकी थी. इसके बाद नशिस्त नीम-बर्खास्त हो गई और सिर्फ मै अंबरीश जी आलोक जोशी साहब बचे. इसलिए क्योंकि राजकुमार सोनी रास्ते में थे और उन्हे तकरीबन साढ़े बारह बजे पहुंचना था इसलिए हम लोगों का जगते हुए उनका इंतज़ार करना लाज़िम था.सोनी के आने तक अंबरीश जी,आलोक जी और मेरे बीच नवभारत के कारसेवक पत्रकारों से लेकर इब्ने सफी,जासूसी दुनिया और दुर्गा भाभी के स्कूल तक पर चर्चा हुई. इसके बाद राजकुमार सोनी के आगमन और भोजन के बाद ही इस रात्रिकालीन सभा का समापन हुआ. अगले दिन महादेवी सृजन पीठ में मीडिया की भाषा पर परिचर्चा थी.सभी लोग तय वक्त पर पहुंच चुके थे. मयंक सक्सेना भी छड़ी टेकते हुए जैसे तैसे आ पहुंचे थे. कार्यक्रम राजकुमार सोनी के संचालन में शुरू हुआ. सभी लोगों ने बारी बारी आलोक तोमर और मीडिया की भाषा पर अपने अपने विचार रखे.परिचर्चा का निष्कर्ष इस रूप में निकला कि मौजूदा दौर में मीडिया की भाषा को लेकर एक नए प्रयोग और आंदोलन की जरूरत है. इस संबंध में वर्धा विश्वविद्यालय को एक प्रस्ताव भेजने की बात भी हुई.इसी शाम विभूति नारायण राय और अजीत अंजुम की तरफ से एक महफिल सजी जिसमें एक बार फिर आशुतोष के बनाए चिकन और राजकुमार सोनी के गाने की धूम रही.मार्कन्डेय काटजू को भी मनोरंजक तरीके से याद किया गया. इसके बाद सबने मिल कर भोजन किया और सभा का समापन हुआ.अगली सुबह रामगढ़ से वापस जाने वालों की थी. मगर दोबारा आने के चिराग रौशन थे... कश्मीर न देख पाने का रंज रामगढ़ देख कर फिलहाल कुछ कम हो गया है.

हार का बदला लेने को तैयार समाजवादी बहू

सविता वर्मा लखनऊ,जून ।फिरोजाबाद की हार का बदला कन्नौज में लेने को तैयार है डिंपल यादव । कन्नौज संसदीय क्षेत्र के लोगों के बढते दबाव के बाद डिंपल यादव को वह से चुनाव लडाने का फैसला पार्टी ने किया क्योकि लगातार नौजवानों का प्रतिनिधिमंडल पार्टी मुख्यालय पहुँच रहा था । वर्ना अखिलेश यादव खुद इस पक्ष में नही थे । खैर ,सर्वदलीय हो चुके परिवारवाद का ठीकरा सिर्फ डिंपल यादव पर जो फोडना चाहते है उनकी चिंता छोड़ दे तो यह सीट समाजवादी पार्टी की सबसे मजबूत सीट है जिसे वह किसी कीमत पर जाने नही देना चाहती है । दूसरे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सत्ता में सौ दिन की राजनैतिक समीक्षा भी डिंपल यादव की इस जीत से भी कुछ हद तक होगी ।अखिलेश यादव का राजनैतिक एजंडा अभी पूरी तरह साफ़ नही हो पाया है पर अबतक के फैसलों से उनपर उंगली भी नही उठी है । सौ दिन पूरे होने के साथ ही सरकार की भी समीक्षा शुरू हो जाएगी । फिलहाल डिंपल यादव के चुनाव पर । कन्नौज संसदीय सीट पर हो रहे उपचुनाव के लिए डिंपल यादव ने अपना नामांकन दाखिल कर दिया है। फिरोजाबाद में डिंपल यादव को राजबब्बर से शिकस्त देने वाली कांग्रेस मैदान छोड़ चुकी है ।इसलिए नही कि वह कोई त्याग कर रही है बल्कि इसलिए कि इस चुनाव में उसका जितना असंभव है चाहे जिसे वह ले आए । राहुल गांधी का राजनैतिक करिश्मा तोड़ने वाले अखिलेश यादव को उनके गढ़ में अब चुनौती देने का साहस किसी भी कांग्रेसी दिग्गज में नहीं है । रायबरेली और अमेठी का हाल कांग्रेसी देख चुके है । बाकि बची भाजपा तो न वह कोई जोखम लेने को तैयार है और न बसपा । इसलिए डिंपल यादव की जीत तय है सिर्फ मतगड़ना की औपचारिकता बाकी है । उत्तर प्रदेश की राजनीति में आधा अपने नेताओ के दर्जन भर पुत्र पुत्रियों को उतर चुकी भाजपा भी परिवारवाद का आरोप लगती है तो वंशवाद का प्रतीक बन चुकी कांग्रेस भी । अगर उत्तर प्रदेश कि राजनीति में जयाप्रदा से लेकर अनु टंडन आ सकती है ,महारानी अमिता सिंह आ सकती है तो डिंपल यादव से किसी को क्यों परहेज होगा । यह जान लेना जरूरी होगा कपिछले विधान सभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक जीत के पीछे डिंपल यादव की हार थी । इस हार ने ही अखिलेश को नई ताकत दी और जब वे पिछले साल सितम्बर से गांव गांव घूम रहे थे तो न दिल्ली और न लखनऊ के मीडिया ने कोई तवज्जो दी थी सभी राहुल गांधी से लेकर मायावती को सत्ता का दावेदार मान रहे थे । पर जनवरी फरवरी आते आते दिल्ली मुंबई का मीडिया अखिलेश यादव कीं राजनैतिक बढ़त को लेकर आशंकित हो चुका था । सर्वे भी मायावती को अब पूर्ण बहुमत से नीचे उतार रहे थे । जनसत्ता ने विधान सभा चुनाव की शुरुआत से ही यह साफ़ कर दिया था कि मायावती सत्ता से जा रही है और अखिलेश यादव अगले मुख्यमंत्री होंगे । अब सत्ता में आने के बाद अखिलेश यादव कि पहली राजनैतिक परीक्षा लोहिया के संसदीय क्षेत्र कन्नौज में होने जा रही है जो खुद लगातार यहाँ से सांसद रहे है । पर यह सभी जानते है यहाँ लड़ाई एकतरफा है और डिंपल यादव की जीत सुनिश्चित है । पिछले कुछ समय में डिंपल यादव राजधानी के कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में अपनी मौजूदगी से लोगों का ध्यान आकर्षित कर चुकी है । पहाड से नाता रखने वाली डिंपल निजी व्यव्हार में काफी सौम्य है जो इस समाजवादी परिवार के पुराने तेवर से अलग हटकर है ।

Tuesday, June 5, 2012

अरब सागर में जहर घोलती दमन गंगा

अंबरीश कुमार पश्चिम की गंगा यानी दमन गंगा अब अरब सागर के पानी में जहर घोल रही है जिसके चलते उथले समुद्र की मछलियां खत्म हो चुकी हैं। पुर्तगाली संस्कृति को संजोए इस खूबसूरत सैरगाह के मछुवारे अब बहुत कम समुद्र में जाते हैं। नानी दमन में जहाँ पर दमन गंगा और अरब सागर का पानी मिलता है वहाँ पर मछुवारों की नावें खड़ी नज़र आती हैं। पहले यहां के मछुवारे तड़के ही समुद्र में चले जाते थे और लौटते तो इकनी मछली मिल जाती कि खर्चा निकाल कर समूचे परिवार का हफ्ते भर का खर्चा आराम से निकाल जाता। पर नदी और समुद्र के पानी में जहर घुलने के बाद मछुआरे बदहाली के शिकार हो चुके हैं। नावें खड़ी हो गई हैं और मछुवारे पुस्तैनी काम-धंधा छोड़ नौकरी ढूंढ़ रहे हैं। पर मामला यहीं तक सीमित नहीं है पानी में घुला जहर अब भूजल पर असर डाल रहा है। दमन में मध्य वर्गीय परिवार मिनरल वाटर की केन इस्तेमाल करने सगे हैं। दमन गंगा की मछलियां खत्म होती जा रही है और तट से लगा अरब सागर का बीस किलोमीटर का इलाका मछली विहीन हो चुका है। आज सुबह ही जम्पोर के समुद्र तट एक जोड़ा समुद्र के पानी में जाने के बाद रेत पर लौटते ही मिनरल वाटर से पैर धोता नज़र आया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पानी कितना प्रदूषित हो चुका है। दमन वही जगह है जहाँ सन 1531 में पुर्तगाली राज शुरू हुआ जो 1961 तक चला। यहां के समाज, संस्कृति और आबोहवा पर पुर्तगाल का असर महसूस किया जा सकता है। कभी पुर्तगालियों का कॉलोनी रहा गोवा, दमन व दीव तीन हिस्सों में बंटा है और दमन से दोनों की दूरी 600 किलोमीटर से ज्यादा है। गोवा अलग राज्य बन चुका है तो दमन-दीव केंद्र शासित इलाका है। सैलानी और शराब यहां की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार हैं। गोवा, दमन और दीव का इतिहास और संस्कृति साझा है। यही वजह है कि गोवा के बाद सबसे ज्यादा सैलानी दमन दीव में जुटते हैं। बीते 25 दिसंबर को दमन के जम्पोर और देविका समुद्र तट पर मेले जैसा माहौल था। जम्पोरे समुद्र तट के आसमान पर पैरासूट से उड़ाते बच्चे नज़र आते है तो पानी में दौड़ती घोड़ो वाली बग्घियां। सैलानियों की भीड़ के साथ वीआईपी भी यहां आ रहे हैं। दिल्ली के उप राज्यपाल तेजिंदर खन्ना सर्किट हाउस में ऊपर के कमरे में ठहरे हुए थे। पर इस सब के बावजूद किसी की नज़र काली रेत के इस समुद्र तट पर काले होते पानी पर नहीं जा रही है। बच्चों के एक पार्क का उद्घाटन करते हुए तेजिंदर खन्ना ने दमन को एक साल में और साफ़ सुथरा बनाने का सुझाव जरूर दिया पर पानी के प्रदूषण पर उनका भी ध्यान नहीं गया। दमन गंगा को गटर बनाने का काम गुजरात के औद्योगिक शहर वापी ने किया है जो खुद दुनिया के प्रदूषित शहरों में शुमार किया जाता है। यहां के केमिकल उद्योग के जहरीले कचरे ने दमन गंगा के पानी को इतना जहरीला बना दिया है कि मछलियां खत्म हो गई हैं। दमन वाइन मर्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष लखन तंदेल खुद भी मछुवारे रहे हैं और प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। लखन तंदेल ने कहा-वापी के केमिकल उद्योग ने दमन गंगा का पानी जहरीला बना दिया है। दर्जनों उद्योग ऐसे हैं, जो जहरीला कचरा सीधे नदी में बहा देते है। कुछ तो अब जमीन में जहरीला कचरा डाल रहे है, जिससे भूजल पर असर पड़ रहा है। सरकार ने प्रदूषित पानी को साफ़ करने का संयंत्र लगाया है पर वह बंद पड़ा है। इस सब की कीमत यहां के मछुवारे चुका रहे हैं। अब जहरीले पानी की वजह से छोटे मछुवारे बर्बाद हो गए हैं। वे छोटी नावों से गहरे समुद्र में जा नहीं सकते और उथले समुद्र की मछलियां मर चुकी हैं। दमन प्रशासन के चीफ इंजीनियर आरएन सिंह ने कहा -दमन गंगा का पानी इतना जहरीला हो चुका है कि अब उसमें मछली खत्म हो चुकी है। जब यह पानी अरब सागर में मिलता है तो कई किलोमीटर इलाके में यह फैल जाता है, जिससे समुद्र में भी प्रदूषण बढ़ गया है। केंद्र ने इस बारे में ठोस पहल करने का भरोसा भी दिया है।सबसे ज्यादा समस्या बरसात में होती है जब वापी के उद्योग अपना कचरा पानी में बहा देते है। कई मछुवारों ने बताया कि बरसात में तो समुद्र में भी मरी हुई मछलियां उतराई नज़र आती हैं। (जनसत्ता)

Monday, June 4, 2012

बरसात में दौडती हुई लहरे

अंबरीश कुमार महाबलीपुरम पहुँचते पहुँचते शाम हो चुकी थी और सारी औपचारिकता के बाद कमरे में बैठे तो थकावट लगने लगी । बिजली न होने की वजह से रिसार्ट का फोन भी काम नहीं कर रहा था इसलिए रिसेप्शन पर जाने के लिए दरवाजा खोलकर बाहर आए तो समुन्द्र की गर्जना सुनाई पड़ी जो बंद कमरे में महसूस नहीं हो पा रही थी । तमिलनाडु पर्यटन विभाग के कमरे काफी लंबे चौड़े होते है और यह रिसार्ट कभी भव्य था । कमरे के सामने की पूरी दीवार शीशे कि थी जिसपर भारी सा पर्दा था जिसे हटाते ही सामने गरजता हुआ समुन्द्र तो बगल में कैशुरीना और नारियल के झुरमुठ नजर आ रहे थे । लहरे सामने से दौडती हुई आती तो लगता बिस्तर पर आकर भिगो देंगी । आसमान घने और काले बादलों से घिरा हुआ था । दाहिने हाथ कुछ दूर पर समुन्द्र तट से लगा मंदिर धुंधला सा नजर आ रहा था जिसे कई बार सूरज की चमकती रोशनी में देख चुका था । उससे कुछ दूरी पर लाईट हाउस की रोशनी नजर नही आ रही थी । थोड़ी देर बाद काफी की इच्छा हुई तो फोन डेड पड़ा मिला और मजबूरी में रिसेप्शन तक भीगते हुए जाना पड़ा जो करीब सौ मीटर दूर था । रिसार्ट का एक हिस्सा समुन्द्र से लगा हुआ था और अलग अलग काटेज थे जिसके सामने कैशुरीना और नारियल के पेड़ थे जिनपर बड़े झूले पड़े हुए थे । मैनेजर से बात हुई तो उसने रात के खाने का आर्डर देने को कहा ताकि जल्दी खाना हो सके । उससे बात कि तो बताया जो तूफ़ान आने वाला है वह के समुन्द्र तटों तक रात एक दो बजे तक पहुंचेगा क्योकि कुछ देर हो चुकी है । यह सुनकर और डर गए । हालाँकि एक दिन पहले जब मद्रास में आंधी पानी से डर रहे थे तो प्रदीप ने बताया था कि उनकी याददाश्त में तूफ़ान तो कई बार आया पर यह कोई दैवीय वरदान है जो कभी मद्रास तक नही पहुंचा हर बार दूसरी दिशा में बढ़ जाता रहा है । आज हम उसी दैवीय वरदान के भरोसे थे । खाना खाकर कुछ देर बाहर के बरामदे में बैठे और भागती हुई लहरों को देखने लगे । आसमान में घने काले बादलों के बीच बिजली कडकती तो रोशनी की एक लकीर दिखती । समुन्द्र की आवाज डरा रही थी । वैसे भी रात में समुन्द्र के किनारे अगर कोई रोशनी न हो तो आवाज से डर लगता है फिर यह तो तूफान से पहले का समुन्द्र था । तेज हवा और बरसात के चलते समुन्द्र कुछ ज्यादा ही बेकाबू होता नजर आ रहा था । महाबलीपुरम इससे पहले कई बार जाना हुआ और जब पहली बार परिवार के साथ पहुंचा था तो यह छोटे से गांव की तरह नजर आया । एक पहाडी और उसके आसपास प्राचीन मंदिरों का शिल्प देखने वाला है । शिल्पकारों ने पहाड को तराश कर उन्हें न सिर्फ मंदिरों में बदला बल्कि तरह तरह कि आकृतियों में बादल डाला है । महाभारत की कई कहानियां यहाँ शिल्प में बदली जा चुकी है । पल्लव साम्राज्य की यह ऐतिहासिक धरोहर एक नही कई बार देखने वाली है । इस पर पहले लिख चुका हूँ । महाबलीपुरम बाजार से करीब आधा किलोमीटर दूर पर वह प्राचीन मंदिर है जिसके बाहरी हिस्से पर लगातार समुन्द्र की लहरे टकराती रहती थी और कई जोड़े वह बैठकर फोटो खिंचाते नजर आते थे । पर जब पिछली बार गया तो नजारा बदला हुआ था । मंदिर परिसर घेरकर एक पार्क में तब्दील किया जा चुका था और मंदिर के बाहरी हिस्से के आगे पत्थर डालकर उसे सुरक्षित किया जा चुका था । पर अब यह गांव एक कस्बे में बदल चुका था और दक्षिण भारतीय रेस्तरां के साथ बड़ी संख्या में चाइनीज और इंटरकांटिनेंटल रेस्तरां नजर आ रहे थे । विदेशी सैलानी तो पहले जैसे ही थे पर देसी सैलानियों कि संख्या काफी ज्यादा थी । विदेशी महिलाओं को बिकनी में देख कुछ लोग हैरान जरुर थे । महाबलीपुरम में जिस रिसार्ट में रुके थे उसमे भी समुन्द्र तट का एक ऐसा हिस्सा था जहाँ कोई बाहरी नहीं आ सकता तो बगल के कई भव्य समुंदरी रिसार्ट में इन निजी समुन्द्र तटों के चलते विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में आते । पर जिस तूफ़ान में हम आए थे उसमे कोई नजर नहीं आ रहा था । रात बात करते करते कब नींद आ गई पता नहीं चला पर सुबह नींद खुली तो लगा अब तूफ़ान जा चुका है इसलिए खतरा टल गया है क्योकि सुबह के आठ बज रहे थे । इस बीच काफी लेकर आए बैरे से बात हुई तो बताया तूफ़ान टला नही है लेट हो गया है और अब दोपहर बाद आएगा । यह सुनकर फिर झटका लगा पर अब तय किया कि मद्रास से गाड़ी माँगा कर यहाँ से एक दिन पहले ही निकल लेंगे । प्रदीप से यह बता दिया और तैयार होने लगे । नाश्ते के बाद गाडी आ चुकी थी और तय किया कि महाबलीपुरम के कुछ मंदिर तो देख ले । बरसात में पहाड पर चढ़ना तो नही हुआ पर कुछ मंदिर जरुर देख लिए । इस बीच जानकारी मिली कि जो तूफ़ान इस तरफ यानी मद्रास ,महाबलीपुरम कि तरफ आ रहा था उसकी दिशा बदल गई है और वह आंध्र प्रदेश के नेल्लोर की तरफ घूम गया है । हालाँकि महाबलीपुरम में माहौल तूफ़ान का ही था । सौ किलोमीटर से भी ज्यादा रफ़्तार से चल रही हवा के बीच बरसात में बहुत देर बाहर रहा नहीं जा सकता था । अपन को पांडिचेरी जाना था पर तूफान का खतरा टलते ही तय किया कि अब इस मौसम का लुत्फ़ एक दिन और यहाँ रहकर उठाया जाए । कमरे में बैठने कि जगह कैशुरीना के पेड़ों से बंधे झूले पर लेटकर कुछ देर बारिश में भीगते हुए उस समुन्द्र को देखने लगे जो अशांत तो था पर अब खतरनाक नहीं लग रहा था । समुन्द्र तट पर कशुरीना के छोटे छोटे जंगल उगा दिए गए है जो समुन्द्री लहरों का मुकाबला करते नजर आ रहे थे । लहरे भी पन्द्रह बीस फुट की । एक लहर आती तो पास आने से पहले ही बिखर जाती पर उसके बिखरने से पहले फिर दूसरी लहर उसकी जगह ले लेती । बिखरने से पहले ये लहरे तरह तरह के सीप शंख और समुन्द्री जीव रेत पर छोड़ जा रही थी । बारिश में भीगती हुई सविता रेत पर से कुछ शंख इकठ्ठा करने में जुटी थी ।

Saturday, June 2, 2012

तूफान में महाबलीपुरम की वह रात

अंबरीश कुमार
दक्षिण की न सिर्फ बहुत यात्रा की बल्कि अखबारी नौकरी की औपचारिक शुरुआत भी दक्षिण से हुई है । मद्रास जो अब चेन्नई हो चुका है उससे अपना नाता काफी पुराना है। जयप्रकाश नारायण की बनाई छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुडने के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा भी शुरू हुआ था । मद्रास तो बचपन में घर परिवार के साथ कई बार जाना हुआ पर आंदोलन से जुडने के बाद पहली यात्रा किरण और विजय के साथ हुई थी । वह यात्रा भी यादगार यात्रा रही जिसके चलते जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत दास और उनके परिवार से संबंध बना । रामवृक्ष बेनीपुरी की पुस्तक में जयप्रकश नारायण के जेल के दिनों का ब्यौरा देते हुए एक बच्चे का जिक्र किया गया है जो उन्हें जेल में खाना देने आता था और खाने के साथी अंग्रेजो के खिलाफ लड़ रहे आन्दोलनकारी नेताओ का पत्र भी पहुंचाता था ।दरभंगा के रहने वाले ये वही शोभाकांत दास है जो गांधी की प्रेरणा से आजादी की लड़ाई से जुड़े और गिरफ्तार हुए बाद में सरगुजा जेल से भाग निकले थे । बाद में मद्रास आए और जड़ी बूटियों का कारोबार शुरू किया । मद्रास में रामनाथ गोयनका और शोभाकांत दास न सिर्फ साथ साथ रहे बल्कि जयप्रकाश नारायण से उन्हें मिलवाया भी । तमिलनाडु की राजनीति में किसी हिंदी भाषी का इतना असर किसी का नहीं रहा जितना उनका है और आज भी करूणानिधि उनके हर पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होते है । जयप्रकाश नारायण के जिन्दा रहते ही गुडवान्चरी में प्रभावती देवी ट्रस्ट बनाया जिसका कामकाज महिलाओं के उत्थान के लिए पच्चीस तीस गाँवो तक फ़ैल गया था और रामनाथ गोयनका इसके अध्यक्ष थे तो तमिलनाडु के कई जाने माने उद्योगपति और सामाजिक कार्यकर्त्ता भी इससे जुड़े । बाद में यही पर वाहिनी के कुछ शिविर भी हुए और मै भी वह रुका । पर आमतौर पर अपना रुकना मद्रास स्टेशन से लगे साहुकारपेट के ५९ गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट स्थित उनके बड़े से मकान में होता जिसकी पहली मंजिल पर उनका घर था (अभी भी है ) और भूतल पर दफ्तर और गोदाम । इस इलाके पर धीरे धीरे मारवाड़ियों का कब्ज़ा हो गया और दक्षिण भारतीय बहुत कम बचे । पूरा इलाका मारवाडी व्यापारियों के घर और गोदाम में तब्दील हो चुका था सिर्फ कुछ होटल और छोटे रेस्तरां मद्रासियों के थे जो इन्ही मारवाड़ियों और मजदूरी करने वाले तमिल लोगों के बूते चलते थे । बरसात होते ही इस स्ट्रीट में पानी और कीचड भर जाता और आना जाना मुश्किल हो जाता । सामने बादामी रंग की वह फियट कार भी कड़ी नजर आती जिसे शोभाकांत जी ने एक ड्राइवर समेत जयप्रकाश नारायण को दिया था और उनके निधन के बाद वह वापस आ गई थी । उस दौर में चालीस पचास हमेशा घर में रहते जिसमे ज्यादातर बिहार से आने वाले कार्यकर्त्ता और मरीज होते थे जो वेलोर में इलाज के लिए आते थे । इन सबका दक्षिण भारतीय नाश्ता बगल के होटल से आता पर दोपहर और रात में दाल भात के साथ उत्तर भारतीय सब्जी घर कि बनी ही मिलती । बाद में मद्रास सहर के बीच जो बिहार भवन बना तो ज्यादातर लोग वही ठहरते । आज भी दस रुपए किराया पर इस भवन में रुकने की व्यवस्था तो होती है साथ ही सादा भोजन भी मिल जाता है । बहरहाल अपना रुकना हमेशा ५९ गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट पर ही हुआ । शादी के बाद शोभाकांत दास का निर्देश हुआ कि तमिलनाडु से लेकर केरल और कर्णाटक कि यात्रा करूँ । उनके पुत्र प्रदीप अपने बराबर के है तो उनसे कहा कई जगह जाना होगा तो रुकने की दिक्कत न हो । प्रदीप ने कहा ,तमिलनाडु टूरिज्म के अतिथिगृह सभी जगह है उनकी बुकिंग करा दे रहा हूँ और भुगतान वहाँ पहुँचने पर कर दीजिएगा । खैर शुरुआत मद्रास , महाबलीपुरम से होनी तय हुई जिसके बाद पांडिचेरी ,मदुरै , कन्याकुमारी ,तिरुअनंतपुरम और फिर कुन्नुर और उटी तक का कार्यक्रम बना । मई का महीना था और मद्रास पहुंचे तो बरसात से सामना हुआ । प्रदीप ने बताया कि हमें चौथी मंजिल स्थित उनके कमरे में रुकना होगा और वे नीचे रहेंगे । दूसरे दिन हमें महाबलीपुरम निकलना था इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी । खाना खाते खाते रात के ग्यारह बज चुके थे और हम संकरी सीढी से ऊपर के कमरे में पहुंचे । बरसात जारी थी । नींद आए करीब दो घंटे ही हुए थे कि आंधी का अहसास हुआ और खिडकी बंद करने उठे तो बाहर का नजारा देख डर गए । बरसात के साथ हवा की रफ़्तार तेज होती जा रही थी और ऐसा लग रहा था कि छत उड़ जाएगी । बारिश अब मूसलाधार हो चुकी थी और तूफ़ान की आवाज से डर लगने लगा । अंततः हमें नीचे जाने का फैसला किया और नीचे पहुंचे तो सभी जगे थे । प्रदीप देखते बोले ,हमें लग रहा था ऊपर आप लोग सो नहीं पाए होंगे क्योकि तूफ़ान काफी तेज है यही सोएं । खैर उठे तो भी बरसात जारी थी और हमें महाबलीपुरम निकलना था । शोभाकांत जी ने कहा -इस मौसम में जाना ठीक नहीं है ,अगर बरसात कम हुई तो गाडी छोड़ आएगीं । इंतजार करते करते करीब चार बजे बरसात कम हो गई तो हम निकल गए । करीब साठ किलोमीटर का सफर तूफान का असर दिखा रहा था और हवा में नारियल के जंगल लहराते नजर आ रहे थे । बीच बीच में समुन्द्र कि बेकाबू लहरे भी नजर आ रही थी । रुकना था फिशरमैन कोव के बगल में तमिलनाडु पर्यटन विभाग के रिसार्ट में जो समुन्द्र से लगा हुआ था । रिशेप्शन पर पहुंचे तो सन्नाटा । मैनेजर से पूछा तो उसका जवाब था -चार घने बाद तूफान महाबलीपुरम को हिट कर सकता है इसलिए सारे टूरिस्ट जा चुके है । हम सकते में क्योकि जिस गाड़ी से आए थे वह छोड़ जा चुकी थी और मोबाईल का जमाना भी नहीं था दूसरे फोन डेड थे । खैर कमरा देने को कहा तो उसने कहा - आपका कमरा सी फेशिंग है कार्नर में । कैशिरुना के पेड़ों से गुजरते हुए कमरे में पहुंचे तो बैरे ने सामने का पर्दा हटाया और समुन्द्र की तरफ की दीवार शीशे कि नजर आई और सामने समुन्द्र कि लहरे लगा कमरे के भीतर आ जाएंगी । वैसे भी कमरे से समुन्द्र दूरी पन्द्रह बीस मीटर से ज्यादा नही थी । जारी