Wednesday, December 16, 2015

प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस परिवार

प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस परिवार अंबरीश कुमार इसे संयोग ही कहेंगे कि चार नवंबर 2009 यानी निधन से ठीक एक दिन पहले प्रभाष जी ने लखनऊ में एक्सप्रेस की सहयोगी मौलश्री की तरफ घूमकर हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा.इंडियन एक्सप्रेस से उनका संबंध कैसा था इसी से पता चल जाता है. प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे. करीब ढाई घंटे साथ रहे.एक्सप्रेस समूह से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताया.रामनाथ गोयनका और अपने संबंधों के बारे में बताया. यह भी बताया कि संपादकीय मामले में दखल देने पर किस तरह उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल से किनारा कर लिया था. देवीलाल जिनसे वे हर दो चार दिन बाद मिलते थे , उन्हें पोस्टकार्ड लिख कर कहा था -देवीलाल जी हरियाणा की सरकार आप चलायें जनसत्ता हमें चलाने दें.ऐसे कई किस्से उन्होंने एक्सप्रेस के पत्रकारों के साथ साझा किये.यह उनकी अंतिम बैठक साबित हुई जिसमे एक्सप्रेस ,फाइनेंशियल और जनसत्ता के पत्रकार शामिल थे. पिछले दिनों एक पुस्तक के सिलसिले में सारा दिन एक्सप्रेस की लाइब्रेरी में गुजरा अस्सी के दशक में जो लिखा उसमें बहुत कुछ मिला तो काफी कुछ छूट भी गया.पर अस्सी के अंतिम दौर और नब्बे की शुरुआत में जनसत्ता में जो लिखा गया फिर देख कर इतिहास में लौटा .राजेंद्र माथुर ,रघुवीर सहाय ,शरद जोशी से लेकर नूतन का जाना और राजनैतिक घटनाक्रम पर प्रभाष जोशी का लिखा फिर पढ़ा .कुछ हैडिंग देखे .प्रभाष जोशी ने दलबदल पर लिखा ' चूहे के हाथ चिंदी है ' फिर एक हैडिंग -चौबीस कहारों की पालकी ,जय कन्हैया लाल की ' और एक की हेडिंग थी -नंगे खड़े बाजार में .यह भाषा , यह शैली प्रभाष जोशी को अमर कर गई . एक ही दिन बाद पांच नवंबर की देर रात दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे. मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे. मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अंबरीश कुमार कहां हैं.यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुंचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है.प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मैं खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा . चार नवंबर 2009 की शाम थी. मैं लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता के दफ्तर में पहली मंजिल पर किसी खबर को भेज रहा था तभी राममिलन ने आकर कहा ,साहब कोई प्रभाष जोशी जी सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहे है .मै खड़ा हुआ और उससे कहा पहले क्यों नहीं बताया उन्हें ऊपर आने से रोकना चाहिये था हम लोग नीचे ही जाकर मिलते .तबतक प्रभाष जी सामने थे .रोबदार आवाज में बोले , क्यों पंडित क्या हो गया तबियत को .उन्हें बैठाया और तबतक इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस के ज्यादातर पत्रकार उनके आसपास आ चुके थे .अचानक बहुत सारी घटनायें याद आ गईं करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गांधी आदि के बारे में बात कर पुरानी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संस्करण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,मौलश्री सेठ ,दीपा आदि भी मौजूद थीं . प्रभाष जी से इस अंतिम मुलाकात के साथ यह भी याद आया कि मेरी प्रभाष जी से पहली मुलाकात कितनी कठिन रही और वह इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका के कहने के बावजूद नहीं हो पाई थी। वर्ष 1987 की बात है जब इंडियन एक्सप्रेस समूह के तत्कालीन चेयरमैन रामनाथ गोयनका से मुलाकात हुई नई दिल्ली के सुंदर नगर स्थित एक्सप्रेस के उस गेस्ट हाउस में जो उनका दिल्ली में ठिकाना था .गोयनका को लोग आरएनजी कहते थे और मुझे भेजा था चेन्नई में जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत दास ने .तब बंगलूर के एक अख़बार में थे और आमतौर पर हर दूसरे रविवार चेन्नई चला जाता था शोभाकांत जी के घर . उनके पुत्र प्रदीप कुमार से हम उम्र होने के नाते बनती थी साथ ही वे जेपी की बनाई छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के तमिलनाडु के संयोजक भी थे .बिहार से आकर दक्षिण के तबके मद्रास में बसे इस परिवार से अपना संबंध भी अस्सी के दशक के शुरुआती दौर का है .छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ा होने के नाते मद्रास के गुडवान्चरी स्थित प्रभावती देवी ट्रस्ट के आश्रम में वाहिनी के एक शिविर में बुलाया गया था .तभी से इस परिवार से संबंध बना .मद्रास सेंट्रल के ठीक बगल में 59 गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट पहुंचा था और बगल में ठहरने का इंतजाम था .बहुत ही अलग अनुभव था . उनका जड़ी बूटियों का बड़ा कारोबार स्थापित हो चुका था . शोभाकांत दास खुद तेरह साल की उम्र में वे आजादी की लड़ाई से जुड गए थे और जवान होते- होते आंदोलन और जेल के बहुत से अनुभव से गुजर चुके थे . हजारीबाग जेल में जेपी को क्रांतिकारियों का पत्र पहुंचाते और उनका संदेश बाहर लेकर आते थे .बाद में सरगुजा जेल में खुद रहना पड़ा जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी के नाम उन्होंने गुडवंचारी में आश्रम बनवाया जिसके ट्रस्ट में तमिलनाडु के सभी महत्वपूर्ण लोग शामिल थे और आसपास के तीस गांवों में इसका काम फैला हुआ था.तब बिहार के सभी वरिष्ठ नेता जो मद्रास आते थे शोभाकांत जी के ही मेहमान होते थे .एम करूणानिधि समेत तमिलनाडु के शीर्ष राजनीतिक भी उनके मित्र ही थे . रामनाथ गोयनका का घर उनके घर के बगल में ही था और उनसे उनके पारिवारिक संबंध थे. शोभाकांत जी चाहते थे कि मद्रास से हिंदी की पाक्षिक पत्रिका शुरू करूं .पर अपना मन बना नहीं .फिर उन्होंने कहा अगर दक्षिण में काम करने की इच्छा नहीं है तो रामनाथ जी के अख़बार से जुड़ना चाहिए जो बहुत अच्छा अख़बार है .मैंने जवाब दिया कि इतनी दूर से दिल्ली जाऊं और वहा कोई पहचाने नहीं तो फिर बैरंग लौटना पड़ेगा .शोभाकांत जी ने कहा कि रामनाथ गोयनका महीने कम से कम एक हफ्ते दिल्ली रहते है .उनसे मै बात करता हूं वे जैसा बतायेंगे फिर वैसा करना .खैर दिल्ली पहुंचा पर इतने बड़े व्यक्तित्व से अकेले मिलने में कुछ झिझक हुई तो पुराने साथी आलोक जोशी जो अब सीएनबीसी आवाज के कार्यकारी संपादक है उन्हें साथ ले गया .सुंदर नगर के गेस्ट हाउस में जब मैनेजर के जरिए सूचना भिजवाई तो खुद गोयनका बाहर निकले .पास आये और गले में हाथ डालकर कमरे में ले गये .बैठाया और बोले ,``देखो एक्सप्रेस में कितना बेसी स्टाफ हो गया है .दो मैनेजर हो गये है .कुछ देर बात करने के बाद आरएनजी ने कहा -ऐसा करो प्रभाष जोशी से जाकर मिल लो .जनसत्ता में सभी का इम्तहान होता है ,तुम्हारा भी होगा .’’ दूसरे दिन बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थित इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में जनसत्ता के दफ्तर गया . प्रभाष जोशी के सचिव राम बाबू से मैंने कहा - रामनाथ गोयनका जी ने भेजा है प्रभाष जी से मिलना चाहता हूं .राम बाबू ने इंटरकाम पर प्रभाष जोशी से बात की ,बताया कि रामनाथ गोयनका ने किसी को भेजा है . फिर जवाब दिया - प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का कोई समय नही है इसके बाद संपर्क करे .खैर यह घटना याद आई और यह भी कि तीन महीने बाद प्रभाष जी का पत्र मिला .परीक्षा हुई आठ घंटे की .इंटरव्यू हुआ और मै इंडियन एक्सप्रेस परिवार का हिस्सा बना . उनके साथ तकरीबन बीस साल का जुड़ाव रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. भाषा, साहस, ईमानदारी और पत्रकार होने के साथ राजनीतिक कार्यकर्ता होने का जज्बा. उन्होंने मेरे जैसे कितने ही लोगों में यह जज्बा पैदा किया और कितनों को बड़े काम करने लायक बनाया. वे सब उनके ऋणी हैं. उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का दायित्व निभाया और यही वजह है कि पत्रकारों को लोकतंत्र का पहरुआ कहा भी जाता है. वही प्रभाष जोशी चार नवंबर 2009 को सामने थे. हमें लगता था अभी फिर मिलेंगे और बहुत कुछ सीखेंगे और उनके नेतृत्व में कुछ नया सामाजिक काम भी करेंगे. वे हिंद स्वराज पर अभियान भी चला रहे थे. उस दिन वे करीब ढाई घंटे साथ रहे और जब एअरपोर्ट के लिए रवाना होने से पहले पैर छूने के लिए झुका तो बोले कंधे पर हाथ रखकर बोले, सेहत का ध्यान रखो पंडित बहुत कुछ करना है. लेकिन किसे पता था कि यह आखिरी मुलाकात होगी. और दूसरे ही दिन देर रात वे हम सबको छोड़ चल दिए. शायद ऊपर इंडियन एक्सप्रेस परिवार को अपना घर बनाने. शुक्रवार

Saturday, December 5, 2015

राम की अग्नि परीक्षा

प्रभाष जोशी राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिखपोत दी.हिंदू आस्था और जीवन परंपरा में विश्वास करने वाले लोगों का मन आजदुख से भरा और सिर से झुका हुआ है. अयोध्या में जो लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विवादितढांचे को ढहाना हिंदू भावनाओं का विस्फोट बता रहे हैं – वे भले ही अपने को साधु-साध्वी, संत– महात्मा और हिंदू हितों का रक्षक कहते हों उनमें और इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पर ब्रिटेन में तलवार निकाल कर खुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है. एक निरस्त्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य जितना राक्षसी है उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्मस्थल को ध्वस्त करना नहीं है. वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मंदिर भी. ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मंदिर बनाएंगे वे राम को मानते, जानते और समझते नहीं हैं. राम के रघुकुल की रीत है- प्राण जाए पर वचन न जाई. उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार, भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सुप्रीम कोर्ट, संसद और राष्ट्र की जनता को वचन दिया था कि विवादित ढांचे को हाथ नहीं लगाया जाएगा. लेकिन कल अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट, संसद और देश को धोखा दिया गया. कहना कि यह हिंदू भावनाओं का विस्फोट है झूठ बोलना है.जिस तरह से ढांचे को ढहाया गया वह किसी भावना के अचानक फूट पड़ने का नहीं सोच-समझ कर रचे गए षड्यंत्र का सबूत है.भाजपा के ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी वहां मौजूद थे.वे साधु- महात्मा भी वहां थे जिन्हें मार्गदर्शक मंडल कहा जाता है.विहिप, भाजपा और संघ को अपने अनुशासित कारसेवकों और स्वयंसेवकों पर बड़ा गर्व है.लेकिन वे सब देखते रहे और ढांचे को ढहा दिया गया.ढांचा ढहाते समय रामलला की मूर्तियां ले जाना और फिर ला कर रख देना भी प्रमाण है कि जो हुआ वह योजना के अनुसार हुआ है.भाजपा की सरकार के प्रशासन और पुलिस का भी कुछ न करना कल्याण सिंह सरकार का इस षड्यंत्र में शामिल होना है. कल्याण सिंह ने पहले इस्तीफा दिया और फिर भारत सरकार ने उन्हें डिसमिस कर के उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया है. भाजपा की एक सरकार ने बता दिया है कि वह अपना जनादेश किस तरह पूरा करती है.उसमें न सैद्धांतिक निष्ठा थी, न सवैधानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी को वहन करने की शक्ति.वह जिस मौत मारी गई उसी के योग्य थी.क्योंकि वह उग्रवादियों के हाथों का खिलौना हो गई थी और षड्यंत्रकारियों ने उसका इस्तेमाल ढांचा ढहाए जाने तक किया.वे डेढ़ साल से कल्याण सिंह की सरकार को मंदिर बनाने की बाधाएं दूर करने का साधन बनाए हुए थे. अपने संवैधानिक, संसदीय और नैतिक कर्त्तव्य से समझते –बूझते हुए पलायन करने वाली सरकार के लिए कोई आंसू नहीं बहाएगा लेकिन जनता फिर से ऐसी सरकार बनने देगी? भारत सरकार ने राष्ट्रपति शासन जरूर लगाया है लेकिन इतने महीनों से वह उत्तर प्रदेश सरकार और भाजपा को जिम्मेदार बनाने की राजनैतिक खेल में लगी हुई थी. अब ऐसी हालत उसके सामने है कि अयोध्या में दो–तीन लाख लोग इकट्ठे हैं. पुलिस और अर्धसैनिक बलों को वहां पहुंचने में अनेक बाधाएं हैं. जो टकराव वह टालना चाहती है अब उसमें वह गले–गले पहुंच गई है.ढांचे की रक्षा, संविधान और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान उसकी भी उतनी ही जिम्मेदारी थी जितनी उत्तर प्रदेश सरकार की.क्या उसने एक प्रदेश की निर्वाचित सरकार पर विश्वास कर के गलती नहीं की?क्या उसे संविधान की रक्षा के लिए गैर सवैधानिक कदम उठाने चाहिए थे?इन सवालों के जवाब आसान नहीं होंगे लेकिन इतिहास में वह कोई कारगर सरकार नहीं मानी जाएगी. कोई नहीं जानता कि भारत सरकार अब अयोध्या में कितना कुछ कर सकेगी लेकिन देश का जनमत उसे बख्शेगा नहीं. सही है कि सभी राजनैतिकों और राजनैतिक पार्टियों ने अयोध्या के मामले को उलझाया है. सभी ने उसका राजनैतिक उपयोग किया है और कल जो हुआ है उसमें इस राजनीति का भी हाथ है.लेकिन राम मंदिर निर्माण का आंदोलन विश्व हिंदू परिषद चला रही थी.यह संस्था संघ की बनाई हुई है.कल से शुरू होने वाली कार सेवा का भार संघ ने लिया था.बजरंग दल और शिवसेना के लोग क्या कर सकते हैं इसे संघ परिवार जानता था. लेकिन उनने लोगों की भावनाओं को भड़काया और उन्हें बड़ी संख्या में अयोध्या में जमा किया. राजनैतिक पार्टियों के खेल तो सब जानते हैं लेकिन संघ, हिंदू समाज को हिंदू संस्कृति के अनुसार संगठित करने का दावा करने वाला संगठन है और विश्व हिंदू परिषद मंदिर और वह भी राम का मंदिर बनाने निकली संस्था है. आप कांग्रेस और भाजपा को राजनैतिक पार्टियों की तरह कोस सकते हैं. लेकिन संघ परिवार को क्या कहेंगे जिसने धर्म और समाज के लिए लज्जा का यह काला दिन आने दिया? देश का बृहत्तर हिंदू समाज अयोध्या में जो हुआ उस पर शर्मिंदा है और देश कौ कैसे बचाना यह उसी की उदार और सहिष्णु परंपरा में स्थापित है.वह पूछेगा कि राम का मंदिर वचन तोड़ कर, धोखाधड़ी और बदले की नींव पर बनाओगे? और जो कहेगा कि हां, उससे वह पूछेगा, कि यह हिंदू धर्म है? कोई नहीं कह सकता कि कार सेवा के नाम पर ढांचा इसलिए ध्वस्त हुआ कि अचानक भड़की भावनाओं को रोका नहीं जा सकता था. मुलायम सिंह की तरह अयोध्या जाने पर किसी ने पाबंदी नहीं लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने कार सेवा की इजाजत दी थी. जिस इलाहाबाद हाईकोर्ट पर फैसले को टांगे रखने का आरोप है वह पांच दिन बाद अधिग्रहीत भूमि पर निर्णय देने वाला था. तब तक कार सेवा ठीक से चल सके इसकी कोशिशों में केंद्र सरकार ने सहयोगी रूख अपनाया था. उत्तर प्रदेश की सरकार ने पुलिस की तैनातगी इतनी कम कर दी थी कि उसे देख कर किसी के भड़कने की संभावना नहीं थी. कार सेवा में जिन रोड़ों की बातें भाजपा-विहिप आदि करते रहे हैं वे सभी हटे हुए थे. और ऐसा भी नहीं कि 'गुलामी' के तथाकथित प्रतीक उस ढांचे को कारसेवकों और उनके नेताओं ने पहली बार देखा हो कि वे एकदम भड़क उठे. वह ढांचा वहां साढ़े चार सौ साल से खड़ा था और उसमें कोई तिरयालीस साल से रामलला विराजमान थे और वहां पूजा-अर्चना की कोई मनाही नहीं थी.फिर उसे गिराने और इस तरह गिराने की अनिवार्यता क्या थी? यह भी नहीं कहा जा सकता कि वहां केंद्र ने टकराव मोल लिया हो. लोगों को भड़काया हो. भाजपा और संघ के ही नहीं विहिप और बजरंग दल जैसे उग्रवादी संगठनों ने भी कहा था कि केंद्र करेगा तो ही टकराव होगा. लेकिन केंद्र कल दिल्ली में सात घंटे तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा और तथाकथित कारसेवकों ने अपने नेताओं की उपस्थिति में उग्र-से-उग्र काम कर डाला. कोई नहीं कह सकता कि उन्हें उत्तेजित किया गया.कोई नहीं कह सकता कि यह भावनाओं का अचानक विस्फोट था. यह जबरदस्ती और सोच-समझ कर किया गया अपकर्म है. इसमें जो धोखाधड़ी है वह हमारे लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष संविधान को दी गई चुनौती नहीं है. यह पूरे हिंदू समाज की विश्वसनीयता, वचनबद्धता और उत्तरदायित्व को नुकसान पहुंचाया गया है. संघ परिवार को फैशनेबल धर्मनिरपेक्षता की चिंता न भी हो तो कम-से-कम उस समाज की परंपरा, वचनबद्धता और विश्वसनीयता की फिक्र तो करनी चाहिए जिसे वह विश्व का सबसे उन्नत और संस्कृत समाज मानता है. इसके बाद हम सिख आतंकवादियों के धर्म की आड़ में चलते खालिस्तान और कश्मीर के मुसलमान आतंकवादियों की आजादी के जिहाद का क्या जवाब देंगे?ताकत भी दिखाने के धर्मनिष्ठ, पारंपरिक, सवैधानिक और संसदीय रास्ते हिंदू समाज के लिए खुले हुए थे फिर क्यों उसे इस मध्ययुगीन बर्बरता में डाला गया?जो मानते हैं कि ढांचा ध्वस्त कर के वे हिंदुत्व की नींव रख रहे हैं जल्द ही देखेंगे कि हिंदू समाज उन्हें कहां पहुंचाता है.बदले की भावना से कांपने वाले प्रतिक्रियावादी कायरों के अलावा किसी हिंदू हृदय ने इस विध्वंस का समर्थन किया है? देश, केंद्र सरकार और हिंदू समाज के सामने आजाद भारत का सबसे बड़ा संकट मुंह बाए खड़ा है. अगले कुछ दिनों में उन्हें अग्नि परीक्षा में से गुजरना है. संविधान और संसदीय परंपरा उनके साथ है और उन्हें एकता और अखंडता की ही रक्षा नहीं उन परंपराओं का भी निर्वाह करना है जो हजारों सालों से इस देश को धारण किए हुए हैं और जिनके नष्ट हो जाने से न भारत भारत रहेगा, न हिंदू समाज हिंदू. इस संकट में वे भगवान राम से भी प्रेरणा ले सकते हैं जिन्होंने ऐसे संकट में विवेक के साथ मर्यादा की स्थापना और रक्षा की है. छह दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद लिखा गया और 7 दिसम्बर को जनसत्ता में छपा प्रभाष जोशी का यह लेख सहिष्णुता और असहिष्णुता पर मचे मौजूदा घमासान के इस दौर में बेहद प्रासंगिक है. यह न सिर्फ हिंदुत्ववादी ताकतों के असली चरित्र को उजागर करता है बल्कि प्रभाष जोशी की निर्भीक और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता का प्रमाण भी है.यह उन लोगों के लिए आइना भी है जो उनके नाम पर भोजन और भजन की पत्रकारिता करते हैं.प्रभाष जी ने 17 नवम्बर 1983 को जिस जनसत्ता को शुरू किया वह अपने समय से आगे का अखबार था और इस साल उसने 32 वर्ष पूरे कर लिये.संयोग से पांच नवम्बर प्रभाष जी कि पुण्यतिथि भी थी. इस मौके पर हम उनका पुण्य स्मरण करते हुए कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे है

Thursday, December 3, 2015

रियो टिंटो पर मेहरबान है शिवराज सिंह सरकार

धीरज चतुर्वेदी छतरपुर . उच्च न्यायालय ने छतरपुर जिले के बकस्वाहा में हीरा कंपनी रियोटिंटो के पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी है. पहल संस्था की याचिका पर उच्च न्यायालय ने इसे पर्यावरण और जीव जंतुओं के लिए नुकसानदायक बताया. हीरा कंपनी रियोटिंटो को मई 2006 में बकस्वाहा के जंगलों को काटकर हीरा ढूंढने का लाइसेंस दिया था. ये जंगल करीब 2329 हेक्टेंयर में फैला हुआ है. बुंदेलखंड से जुड़ा ये पूरा इलाका सूखे की मार झेलता रहता है. पर यहां जंगलों की कोख में बेशकीमती हीरे के मिलने के आसार हैं. ऐसे में गरीबी की मार झेल रहे इस क्षेत्र पर सरकार की नजर यहां के बेशकीमती हीरे पर गड़ गयी है. इसलिए इस जंगल को उजाड़ने की भी तैयारी हो रही है. मध्य प्रदेश में आने वाले बुंदेलखंड इलाके के छतरपुर के लोगों को विकास का सपना दिखाकर अब तबाह करने का खाका तैयार कर चुकी है. इसका जिम्मा सरकार ने रियोटिंटो कंपनी को दिया है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कंपनी के प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन भी कर गये हैं. कंपनी के साथ मुख्यमंत्री भी बुंदेलखंड के अति पिछडे़ छतरपुर जिले के बक्सवाहा इलाके में विकास की गंगा बहा देने का सपना भी दिखा गये हैं. लेकि‍न उस तबाही की अनदेखी हो रही है. जो दशकों तक गरीबी, भुखमरी और बंजर के रूप में इस क्षेत्र को झेलनी पडे़गी. मुख्यमंत्री की आंखे हीरे की चमक से चौंधिया गयी हैं. तभी तो माइनिंग लीज के लिए हीरा कंपनी 954 हेक्टेयर जमीन के लिए आवेदन देती है और उसे करीब 1200 हेक्टेयर जमीन देने की तैयारी पूरी कर ली गयी है. मध्यप्रदेश सरकार इस कदर मेहरबान है कि रियोटिंटो के कारनामों पर रोक लगाने वाले छतरपुर के दो कलेक्टरों के तबादले किये जा चुके हैं. अब प्रशासनिक अधिकारी न चाहते हुए भी इस बदनाम हीरा कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में काम करते दिख रहे हैं. गौरतलब है कि पहले यह कंपनी अपने कार्यों को लेकर संदिग्ध रही है. वहीं दूसरी तरफ कई लोगों की आवाजें दबा दी जा रही हैं. जो सड़कों पर उतरकर जंगलों की कटाई और दूसरे खतरों से आगाह कर रहे हैं. छतरपुर जिले के बकस्वाहा के जंगलों में ऑस्ट्रेलिया की ब्लैक लिस्टे ड कंपनी की मौजूदगी बीते कुछ सालों से विवादों को जन्मम दे रही है. वन भूमि में अवैध उत्खनन को लेकर 5 साल पहले कलेक्टर उमाकांत उमराव ने कार्रवाई करते हुए कंपनी के उत्खनन पर रोक लगा दी थी. रियोटिंटो की प्रदेश सरकार में घुसपैठ का ही नतीजा था कि कलेक्टर का तत्काल तबादला कर दिया गया. इन चर्चाओं को बल मि‍लने के कई कारण हैं. जि‍नमें से एक कलेक्टर ई रमेश कुमार के जिले का प्रभार संभालते ही रियोटिंटो को दोबारा उत्खनन की अनुमति देना भी है. दूसरा अक्टूबर 2009 को कंपनी के हीरा प्रोसेसिंग प्लांट का खुद मुख्यमंत्री ने आकर उद्घाटन कर दिया. रियोटिंटो पर प्रदेश सरकार की मेहरबानी दिखाती है कि सरकार क्षेत्र विकास की आड़ में बुंदेलखंड की धरोहर को लूटने का काम कर रही है. इस खेल में सरकार के उच्च स्तर की सहभागिता से भी इंकार नहीं किया जा सकता. वन विभाग छतरपुर से हासिल जानकारी के मुताबिक साल 2000 में हीरा खोजने के लि‍ए केंद्र सरकार ने रियोटिंटो को अनुमति दी थी. साल 2009 में इस अनुमति को फिर बढा़ दिया गया. यह वैधता साल 2011 में समाप्त हो चुकी है. रियोटिंटो ने हीरा खोजने के दौरान ही जमीन में कई फुट तक ड्रिलिंग करके जलस्तर को रसातल में पहुंचा दिया है. जिससे जंगलों का सूखना शुरू हो गया है. वहीं संरक्षित वन प्रजातियों सहित जीव-जंतु भी समाप्त होने लगे हैं. पिछली लोकसभा में खजुराहो से भाजपा के सांसद जितेंद्र सिंह बुंदेला ने इस मामले को संसद में उठाया था. लेकि‍न मामला आगे न बढ़ता देख सांसद ने पहले ही चुप्पीर साध ली. केंद्र सरकार ने इस शर्त के साथ अनुमति दी है कि आंवटित भूमि‍ के जो पेड़ काटे जायेंगे उसके बदले में राजस्व की उतनी ही भूमि पर वृक्षारोपण करना होगा. रियोटिंटो ने छतरपुर कलेक्टर और चीफ कंजरवेटर को इस शर्त को पूरा कराने के आधार पर आवेदन दिया है. जो फिलहाल जांच के लिए लंबित है. इस पूरे मामले में जिन जंगलों को काटने की अनुमति दी जा रही है. वह सघन जंगली क्षेत्र हैं. महुआ, अचरवा, शीशम, सागौन जैसे बेशकीमती वन धरोहर से यह इलाका घि‍रा हुआ है. सवाल यह उठता है कि कोई भी पेड़ लगाते ही फल देने लायक नहीं होता. रियोटिंटो के राजस्व भूमि पर वृक्षारोपण के बीस सालों बाद ही पेड़ तैयार होंगे. इस दौरान क्षेत्र के 48 गांवों के हजारों आदिवासी और अन्य जातियों के लोगों का जीवन प्रभावि‍त होगा. जि‍सकी परवाह किसी को नहीं है. एक पहलू यह भी है कि रियोटिंटो को 1200 हेक्टेबयर वन भूमि आंवटित की जा रही है. जो खनन के बाद बंजर हो जायेगी. जिससे क्षेत्रवासियों की निर्भरता ही समाप्त हो जायेगी¬. वैसे भी सरकार के प्रोजेक्ट के तहत रियोटिंटो को 2014 से अगले 30 सालों तक खनन की अनुमति प्रदान की जा रही है. कंपनी का दावा है कि वह अगले तीन सालों में क्षेत्र विकास के लि‍ए कार्य करेगी. साल 2017 से खनन शुरू कर साल 2028 तक पूरा कर लेगी. इस दौरान रियोटिंटो धरती को छलनी कर हीरे का उत्खनन करेगा. लीज समाप्ती के बाद बंजर ईलाके को त्रास भोगने के लिए छोड़ दिया जायेगा. आरोप यह भी हैं कि सर्वे के दौरान रियोटिंटो ने कई कैरट हीरे निकालकर प्रदेश सरकार को गुमराह किया है. नियमानुसार तो सर्वे के दौरान निकलने वाले हीरे की रॅायल्टी जमा होनी चाहिए थी. पर इस पूरे मामले के तार सरकार से जुडे़ लेागो से हैं. यही कारण है कि‍ प्रशासन भी खामोश बैठा है. बताया जाता है कि कलेक्टर उमाकांत उमराव की तरह ही एक और कलेक्टर राजेश बहुगुणा का तबादला भी रियोटिंटो के इशारे पर कि‍या गया था. राजेश बहुगुणा ने रियोटिंटो की फाइलों पर रोक लगा दी थी. गौरतलब है कि‍ प्रदेश सरकार का आईएएस अधिकारियों पर दबाब रहता है. इस सच को खुद भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भी कहा था कि अधिकारियों पर दबाव की राजनीति रहती है. ऐसे में रियोटिंटो पर मेहरबानी के कारण बकस्वाहा इलाके को तबाह करने की दांस्ता लिखी जा रही है. जिसके दूरगामी परिणाम इलाके को भोगने होंगे. शुक्रवार में धीरज चतुर्वेदी की रपट

Saturday, September 5, 2015

सड़क पर क्यों नहीं उतरती बसपा

सड़क पर क्यों नहीं उतरती बसपा विवेक कुमार दलित समाज की वास्तविकता यह है कि वह अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, न कि अस्मिता की. वह इसकी लड़ाई लड़ रहा है कि आखिर हमें भी मानव समझा जाये. इसे कुछ जानकारों ने अस्मिता की लड़ाई के तौर पर देखा है, लेकिन ऋग्वेद में जिस तरह से शुद्र बताकर उनके आश्रम, अधिकार और वर्ण-धर्म के बारे में कुछ नहीं कहा गया, उससे तो अस्तित्व का ही प्रश्न खड़ा होता है. इस अस्तित्व की लड़ाई में बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा कि अगर इनके अस्तित्व को स्थापित करना है, तो इनको अधिकार देने होंगे. ये अधिकार कोई नये नहीं थे, बल्कि नागरिक के अधिकार थे. इसमें सबसे बड़ा अधिकार स्व-प्रतिनिधित्व का है. यह सभी क्षेत्रों के लिए है- राजनीति, शिक्षा, कारोबार, वगैरह सबमें. लेकिन सरकारें इस समाज को स्व-प्रतिनिधित्व का अधिकार देने की बजाय कहती हैं कि हम आपकी आकांक्षाओं का नेतृत्व कर रहे हैं, हम आपकी अपेक्षाओं का प्रतिनिधत्व कर रहे हैं, हमने आपके कष्ट को समझा है, आपके दुख-दर्द को मुद्दा बनायेंगे, आपकी मांगों को बुलंद करेंगे और आपके साथ हर कठिन परिस्थिति में खड़ा रहेंगे. बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा है कि अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार कभी अच्छी सरकार नहीं हो सकती, क्योंकि उसने तो कभी दर्द और पीड़ा को भोगा ही नहीं है. जाहिर है, ऐसे में उसके तमाम दावे खोखले हो जाते हैं. ऐसी सरकारें दलितों के हक में कानून नहीं बना सकतीं, और अगर बना देती हैं, तो उनका सही तरीके से पालन नहीं करवा सकतीं. ऐसी सरकारें राजा और रंक के रिश्ते पर चलती हैं. लेकिन सवाल उठता है कि राजा कब तक रंक के लिए कानून बनाता रहेगा और रंक को मौका मिले, तभी तो लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना होगी. ब्रिटिश हुकूमत को स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि आप अपनी संस्था में भारतीयों को प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं. इससे भारतीयों की पौरुषता में कमी आ रही है. उनकी कल्पनाशीलता, दृढ़ता और इच्छा में कमी आ रही है, इसलिए उन्हें प्रतिनिधित्व दें. बाबा साहेब आंबेडकर ने इस मसले को गंभीरता से समझने का काम किया. उन्होंने एक समानांतर रेखा खीचीं कि कल्पना कीजिए कि कितने हजारों सालों से दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला हैं. इसलिए समाज में नैतिकता का तकाजा है कि उसे स्व-प्रतिनिधित्व मिले. स्वतंत्रता के बाद आंबेडकर की देखरेख में बने संविधान में दलितों को सारे अधिकार दिए गये. लेकिन आजादी के इतने सालों के बाद भी दलितों को समाज की सातों संस्थाओं- न्यायपालिका, नौकरशाही, राजनीति, शैक्षिक संस्था, उद्योग-धंधे, नागरिक समाज और इंडस्ट्री के तौर पर मीडिया में स्व-प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. अगर इन सातों संस्थाओं में उनके प्रतिनिधित्व को तलाशा जाये, तो न के बराबर लोग सामने आयेंगे. राजनीति में आरक्षण प्रावधानों के कारण कुछ लोग दलित समाज से आ जाते हैं, लेकिन क्या वे आशा के अनुरूप अपने अधिकारों का निर्वहन कर पाते हैं? बहुजन समाज पार्टी को छोड़ दें, तो भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस के अंदर तो आरक्षण पर कुठाराघात हो रहा है. इन पार्टियों से अकेले उत्तर प्रदेश से काफी सारे दलित नेता हैं, लेकिन क्या ये प्रभावी रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाते हैं? इस तरह से देखें, तो दलितों की राजनीति के दो फाड़ हैं. पहला, आत्मनिर्भर दलित राजनीति. इसका आगाज बी आर आंबेडकर ने ही किया था. आजादी से पहले साल 1936 में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनायी थी. जाति-विरोधी संगठन के तौर पर दलित पैंथर्स आयी. साल 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनी. बहुजन समाज पार्टी के अंदर दलित सामान्य के रूप में प्रभुत्व रखते हैं. यहां पार्टी की मुख्यधारा में दलित हैं. दूसरा है, निर्भर दलित राजनीति. यह सवर्ण वर्चस्ववादी दलों के अंदर पायी जाती है, जैसे कांग्रेस, और भाजपा में. इसमें दलित एससी, एसटी सेलों के अंदर बंद होते हैं. इनके दलित नेता विशिष्ट प्रकार की भूमिका में पाये जाते हैं और अपने हाईकमान की भाषा ही बोल रहे होते हैं. हो सकता है कि ये ज्यादा वोटों को अपने अंदर समाते हों, पर यहां न्याय-सशक्तीकरण नहीं दिखता है. हालांकि, कांग्रेस ने अपने अंतिम कार्यकाल में कुछ बदलाव किये थे. पिछले दो दशकों की राजनीति में पूरा उत्तर भारत, जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार 189-190 दलित सीटें भेजती हैं. लेकिन गिनने भर के दलित कद्दावर नेता मिलते हैं. यह स्थिति पहले नहीं थी. जगजीवन राम और रामधन जैसे कद्दावर दलित नेता कांग्रेस में हुआ करते थे. लेकिन आज उनकी जगह पुनिया जैसे बगैर जनाधार वाले नेता हैं. भाजपा उत्तर भारतीय क्षेत्र में आयातित दलित नेताओं से काम चलाना चाहती है. वह लोजपा के रामविलास पासवान के जरिये बिहार चुनाव की वैतरणी पार होना चाहती है, तो वहीं उसने मोदी लहर में एक उदित राज को अपनाया है. जमीनी स्तर से कोई दलित नेता उसके पास भी नहीं है. जिस दलित प्रतिनिधित्व का दावा किया जा रहा है, उसे लेकर एक दिक्कत यह भी है कि किसी भी सुरक्षित संसदीय क्षेत्र में दलितों की संख्या इतनी नहीं है कि वे अपने दम पर निर्णय कर सकें. इसलिए यहां से जो दलित नेता खड़े होते हैं, वे अंततः सवर्णों की ही सुनते हैं और इलाके के सवर्ण भी जानते हैं कि जीत उसी की होगी, जो उनके लिए काम करेगा. इस तरह से हमें यह दिखायी देता है कि दलितों के लिए बोलने वाला भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में कोई नहीं है. दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी आत्मनिर्भर दलित राजनीति का उदाहरण है. लेकिन उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह अत्याचार के खिलाफ़ कुछ नहीं बोलती. लेकिन इस पार्टी के गठन के चरित्र को समझें, तो उसके संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने कहा था कि वह प्रतिक्रियावादी राजनीति में यकीन नहीं करते.क्योंकि अत्याचार के जवाब में हम प्रतिक्रिया देंगे, तो इससे सवर्ण मानसिकता को ही बल प्रदान होगा और हमारे अंदर एक सकारात्मक सोच विकसित नहीं हो पायेगी. इसलिए कांशीराम ने नॉन-एजिटेशनल विंग बनाई थी बामसेफ (ऑल इंडिया बैंकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉयज फेडरेशन). इसका उद्देश्य था अपनी संस्कृतिको जड़ों को ढूढ़ना और उनको विकसित करना. इसलिए दलित चेहरों- नारायण गुरु,ज्योतिबा फुले, पेरियार, ताऊजी महाराज, उत्तर प्रदेश के लखना पासी, बिजली पासी जैसों को पहचान देने की कवायद शुरू हुई. उस दौरान आंबेडकर मेले लगाने का प्रचलन शुरू हुआ, साइकिल यात्रा निकाली जाने लगीं. कांशीराम ने बड़ा नारा दिया 85 फीसद का. एक तरह से उन्होंने दलित राजनीति को बहुजन राजनीति में बदलने का काम किया. उनका कहना था कि जो प्राकृतिक रूप से बहिष्कृत, शोषित, उपेक्षित और हाशिये पर हैं, चाहे वह पिछड़ी जाति हो, अत्यंत पिछड़ी हों, दलित हों आदिवासी हों या अल्पसंख्यक हों, मनुवाद के सताए हैं और ये सब मिलकर 85 फीसद बनते हैं. ये मजलूम एकजुट हो जायें. मजलूमों की इस राजनीति को बाद में अलगाववाद और जातिवादी राजनीति कह दिया गया. लेकिन जाति अस्मिता के आधार पर किसी दूसरी जाति को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देना ही जातिवाद है. जो कि 85 फीसद की राजनीति में नहीं है और यह आंकड़ा बड़ा है, इसलिए अलगाववाद का प्रश्न ही नहीं उठ सकता. जरा समझिए कि मुझे सताया गया, है, बहिष्कृत और शोषित किया गया है और मैं कहूंगा कि इसके खिलाफ संघर्ष की मेरी प्रतिज्ञा है, तो यह जातिवादी राजनीति कैसे हो सकती है? संविधान में प्रदत्त अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करना जातिवाद कैसे हो सकता है? ऐसे में बहुजन समाज पार्टी ने जो किया है, वास्तव में वह प्रजातंत्र को नवीन आयाम देता है. उसके वोटर वंचित लोग हैं. वे कोई भी दिशा ले सकते हैं. उसने एहसास कराया कि दलित भी सत्ता ले सकते हैं. लेकिन उसकी राजनीति को सकारात्मक दृष्टि से देखने की बजाय उसके आंदोलन से सवर्ण मानसिकता वाले दल डरने लगे हैं. अब यही दल आंबेडकर की 125वीं जयंती मनाना चाहते हैं, जबकि इन्होंने उन्हें भुला दिया था. इसका मतलब यह है कि बसपा ने जिस तरह की राजनीति की, उसका प्रभाव इन पर पड़ा है. हालांकि, ये दल आंबेडकर या दलित चेहरों के नाम पर पुतले, पार्क, प्रतीक आदि में हुए खर्चों की आलोचना करते हैं. गौरतलब है कि दलितों की राजनीति वास्तव में विचारधारा की राजनीति है. और विचारधारा की राजनीति प्रतीकों से होती हैं. ये प्रतीक पार्क हो सकते हैं, मूर्तियां हो सकते हैं. आखिर गांधी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अब सरदार पटेल की मूर्तियों के आड़ में राजनीति होती रही है. अगर इनके प्रतीकों के नाम पर पार्क और मूर्तियां संभव हैं, तो फिर दलित प्रतीकों के नाम पर क्यों नहीं? धर्म को ही आधार मानें, तो नासिक में साल 2015 में होने जा रहे कुंभ के लिए करोड़ों के खर्च का प्रावधान किया गया है. हिंदू समाज की आस्था के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, तो कुछ दलितों ने कुछ सौ करोड़ पहली बार खर्च कर ही लिया, तो क्या गलत हुआ? जहां तक रिटर्न्स का सवाल है, तो ये पार्क कई जगह खोले ही नहीं गये, जहां खुले हैं, वहां से रिटर्न्स मिल रहे हैं. दरअसल, जो भौतिक स्थान, जिनसे कभी दलित समाज को बहिष्कृत किया गया था, वहीं आज दलित चेहरों की मूर्तियां हैं, उन स्थानों का प्रजातांत्रिकरण हो गया है, उसे कोई सवर्ण समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है? चमरौती के लोग चौराहे पर आ रहे हैं, तो यह सामंती मानसिकता को नागवार गुजरती है. यही ज्ञानी और बुद्धिमान समाज की बेईमानी है, जो राजनीति में अधिक दिखती है.श्रुति मित्तल से हुई बातचीत के आधार पर .साभार -शुक्रवार

Thursday, September 3, 2015

कांग्रेस से भड़के मुलायम ने तोडा गठबंधन

कांग्रेस से भड़के मुलायम ने तोडा गठबंधन अंबरीश कुमार मुलायम सिंह ने सही समय पर राजनीति का दांव चला है .कुछ हो या न हो वे फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गये .कल तक उन्हें जिस जनता परिवार ने हाशिये पर रखा था एक फैसले के बाद आज शरद यादव शाम होते होते मुलायम के घर पहुंच गये बिहार के चुनावो से पहले ही मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के संबंध सामने आ चुके थे .लोकसभा सत्र में विपक्ष का चेहरा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का था जबकि एक बड़े गठबंधन के बावजूद मुलायम सिंह हाशिये पर थे .अंततः मुलायम ने बीच सत्र में यह भी कह दिया कि वे संसद में गतिरोध तोड़ने के पक्ष में है और वे कांग्रेस से अलग भी जा सकते है .इस विवाद के पीछे फिलहाल अगर कांग्रेस है तो उससे पहले जनता परिवार के घटक दल भी यह स्थिति पैदा कर चुके थे . परिवार और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध के बावजूद मुलायम ने जनता परिवार को एक करने की भूमिका निभाई .वे सफल भी हुये पर जनता परिवार के कई अन्य घटक दल जनता परिवार के घटक दलों के विलय के खिलाफ थे .यही वजह है कि विलय नहीं ही हुआ और एक मोर्चा बन गया .पर इस मोर्चे में भी अध्यक्ष भले मुलायम रहे हो पर उनकी चली कभी नहीं और अति तो तब हुई जब उन्हें बिना भरोसे में लिये समाजवादी पार्टी को पांच सीट और कांग्रेस को चालीस सीट दी गई .साफ़ था बिहार से जो राजनैतिक संदेश जाता उसका सारा श्रेय लालू नीतीश के साथ सोनिया को ज्यादा जाता मुलायम को नहीं .उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद विधान सभा का चुनाव है ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाकर वे देश के सबसे बड़े सूबे में मुकाबला नहीं कर सकते थे . आगे इसलिये आज उन्होंने यह फैसला किया .राम गोपाल यादव , शिवपाल यादव से लेकर अखिलेश यादव तक इस पक्ष में नहीं थे कि समाजवादी पार्टी का विलय इस गठबंधन में हो और जो राजनैतिक फसल उन्होंने सालों में तैयार की है उसे काटने के लिये दूसरे भी आ जाये .ऐसे माहौल में जनता परिवार के नेताओं की उपेक्षा के चलते पार्टी और परिवार दोनों का दबाव उनपर बढ़ा .यह एक आम, राय है कि यादव सिंह मामले में सीबीआई के चलते मोदी ने मुलायम पर दबाव बना रखा था .कांग्रेस से नाता तोड़ने के पीछे भी यह दबाव हो सकता है लेकिन मौजूदा राजनीति में मुलायम सिंह यादव के सामने कोई और चारा भी नहीं था .वे बिहार में हाशिये पर पहुंचा दिये गये थे और उत्तर प्रदेश में अगर अपनी स्थिति साफ़ नहीं करते तो आगे की राजनीति कठिन होती .दूसरा पहलू यह भी है कि जिस विकास के एजंडा को लेकर अखिलेश यादव आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे है उसमे केंद्र से बहुत ज्यादा टकराव कर आगे जाना मुश्किल है .यही स्थिति मोदी की भी है .वे संकट के दौर से गुजर रहे है .अर्थव्यवस्था के मोर्चे से लेकर राजनीति के मोर्चे पर भी .बिहार में प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है ऐसे में वे भी मुलायम से तार जोड़ कर कुछ फायदा लेने का प्रयास कर सकते है तो मुलायम भी बदले में विकास के एजंडा के लिये राज्य को मदद दिलाने का प्रयास करना चाहेंगे .राज्यपाल का विवाद अलग है और उससे भी मुलायम को निपटना है .यही वजह है वे बिहार में अगर जनता परिवार से नाता तोड़ रहे है तो बदले में उत्तर प्रदेश में भी कोई राजनैतिक फायदा देख रहे है .ध्यान से देखे भाजपा के नेताओं का सुर मुलायम को लेकर बदला हुआ है .और राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न दुश्मन .यह फिर साबित हो गया है .

Friday, July 17, 2015

यहां कानून का नहीं देवता का राज है.

यहां कानून का नहीं देवता का राज है जबरसिंह वर्मा करीब सात हजार फुट से अधिक की ऊंचाई पर बसा उत्तराखंड का जौनसार बाबर क्षेत्र अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए जाना जाता है लेकिन साथ-साथ यह सामाजिक भेदभाव और शोषण आधारित व्यवस्था के लिए बदनाम भी है. यहां आज भी देश का नहीं बल्कि 'मंदिर' का कानून चलता है, विभिन्न मान्यताओं, परंपराओं, नीतियों और रीति-रिवाज के नाम पर दलितों का शोषण होता है. हिमालय के अंचल में बसे इस क्षेत्र की भौगोलिक विशेषता के कारण यहां के सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) भी जनजाति घोषित हैं इसलिए यहां अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम (एससीएसटी एक्ट) भी लागू नहीं है. यह क्षेत्र सन 1967 से ही जनजाति घोषित है और यहां के सवर्णों को जनजातीय आरक्षण का लाभ मिलता है, नतीजा तकरीबन हर घर में सरकारी अधिकारी मिलते हैं. आश्चर्य नहीं कि जौनसार बाबर को उत्तराखंड के सबसे संपन्न क्षेत्रों में से एक माना जाता है. बहरहाल यह संपन्नता पूरी तरह आर्थिक प्रतीत होती है क्योंकि अगर समृद्धि का एक कतरा भी मानसिक स्तर पर पहुंचा होता तो रीति रिवाज के नाम पर दलितों का जो शोषण हमें देखने को मिल रहा है, वह न होता. दरअसल जौनसारियों के अराध्य देव महासू हैं. उनके कई भव्य मंदिर भी वहां हैं. माना जाता है कि महासू देवता के रहते कानून, पुलिस, प्रशासन की यहां कोई जरूरत नहीं है. नतीजतन, देवता के नाम पर कायदे कानून बनाने और दंड आदि देने का अधिकार इन मंदिरों के पुजारियों और संरक्षकों आदि ने हथिया रखा है. यह व्यवस्था दलितों के शोषण की बुनियाद बनती है. यह पूरा क्षेत्र आज भी डायन और दासी प्रथा जैसी रुढिय़ों को ढो रहा है. यही वजह है कि हनोल स्थित महासू देवता के मंदिर में क्षेत्र के प्रसिद्ध लोक गायक नंदलाल भारती ने अलबम की शूटिंग के दौरान मंदिर के दरवाजे के भीतर सर क्या डाला, तमाशा ही खड़ा हो गया.मंदिर के पुजारी नाराज हो गये और न केवल मंदिर परिसर में गंगा जल छिडक़ कर उसे पवित्र किया बल्कि खुद भी स्नान को चले गये. मानो इतना ही काफी नहीं था, उन्होंने भारती को भरपूर भला बुरा कहने के बाद जुर्माना चुकाने का आदेश भी सुना दिया. विडंबना देखिये कि भारती खुद महासू देवता की स्तुति में गीत गाने के लिये प्रसिद्ध हैं. इस घटना के साल भर बाद जब राखी नामक दलित युवती ने मंदिर में जाने की जुर्रत की तो पुजारियों ने उसे अर्द्धनग्न करके लोगों के सामने बाहर खदेड़ दिया. इसी तरह लखवाड़ स्थिति महासू मंदिर में जौनसार से दुल्हन को लेकर लौटी गढ़वाल क्षेत्र के कांडी गांव की एक बारात को ग्रामीणों ने इसलिए दो घंटे तक घेर कर रखा, क्योंकि दूल्हा दुल्हन मंदिर के आंगन के उस हिस्से तक चले गये थे जहां सवर्ण जाति के लोग अपने जूते रखते हैं. इस 'अपराध' के लिये दोनों पक्षों को न केवल सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी बल्कि एक बकरा और 501 रुपये तुरंत देने के अलावा यह आश्वासन देना पड़ा कि मंदिर में चांदी के सिक्के चढ़ायेंगे. दलित सामाजिक कार्यकर्ता ध्वजवीरसिंह इस विडंबना की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि देवता के मंदिर बनाने, धार्मिक अनुष्ठान करने के लिये दलितों से चंदा आदि वसूला जाता है, मंदिर निर्माण में भी उनका योगदान लिया जाता है, राजमिस्त्री, मिस्त्री, मजदूर से लेकर मूर्तिकार तक सब उनके होते हैं लेकिन मंदिर तैयार होते ही उनको अछूत ठहराकर प्रवेश तक से वंचित कर दिया जाता है. मंदिरों में पुजारी- पुरोहित दलितों का चढ़ावा सीधे हाथ में लेने की बजाय पहले जमीन पर रखवाते हैं, फिर वहां से उठाते हैं. तर्क है कि दलित के हाथ के नीचे सवर्ण (पुजारी) का हाथ नहीं रहना चाहिए. मंदिर में चढ़ावा जमीन पर रखकर नहीं देने पर कई बार दलितों संग मारपीट हो चुकी है. पेयजल के स्रोतों पर दलितों को यह कह कर नहीं जाने दिया जाता है कि वह अपवित्र हो जायेगा. नतीजतन दलित गंदा पानी पीकर बीमार होने को अभिशप्त हैं. महासू के किसी भी मंदिर में आप यदि गये तो पुजारी 'आप किस जाति के हो' ये पूछने की बजाय सीधे कहेगा 'आप राजपूत हो या ब्राहमण' ? वजह साफ है, यहां इन जातियों के सिवाय किसी को प्रवेश की इजाजत ही नहीं. चकराता तहसील मुख्यालय से सटे बाडो गांव में दलितों की स्थिति की असली तस्वीर दिखती है. जो दलित महिला या पुरुष गांव में सवर्णों के साथ काम पर (पशु चराने, घास काटने, खेतों में काम करने) जाता है, उसके लिए टूटे-फूटे बर्तन अलग स्थान पर रखे होते हैं। खाना खाते समय दलित खुद इन बर्तनों को निकालेगा और खाने के बाद धोकर वहीं रखेगा. बमुश्किल 100 मीटर के दायरे में बसे करीब 40 परिवारों के बाडो गांव में 14 दलित परिवारों का 10 फुट की संकरी गली में बना एक खंडहरनुमा सामुदायिक भवन है, वहां से 50 फुट की दूरी पर 25 सवर्ण परिवारों का दो मंजिला आलीशान भवन है. त्रासदी तो यह है कि यहां दलित अपने सामुदायिक भवन में भी प्रवेश नहीं कर सकते. जबकि सामुदायिक भवन तथा वहां मौजूद तमाम चीजें सरकारी पैसे से लोगों के उपयोग के लिये खरीदी गयी हैं. कुछ गांवों में दलित मंदिर के सामने से और गांव के सार्वजनिक रास्ते से गुजरते समय जूते उतारकर गुजरते हैं. कालसी गांव में दलित प्रधान ध्यानचंद के वकील बेटे ने प्रेम प्रसंग के चलते सर्वण युवती संग विवाह रचा लिया, तो पूरे क्षेत्र के सवर्ण उन पर टूट पड़े. बुजुर्ग, महिला से लेकर बच्चे तक की पिटाई की, हड्यिां तक तोड़ दीं. बुलडोजर की मदद से नया घर ध्वस्त कर दिया गया. सवर्णों की इस भीड़ का नेतृत्व भाजपा के एक विधायक कर रहे थे. एक विवाह समारोह में सवर्णों की पंक्ति में बैठकर खाना खा रहे दलित युवक की न केवल पिटायी की गयी बल्कि उससे भारी जुर्माना भी लिया गया. ये घटनायें रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं. इन पर न मीडिया कान देता है न प्रशासन. सरकारी स्कूलों में दलित बच्चे जरूर पढ़ रहे हैं लेकिन मध्याह्न भोजन बनाने वाली कोई स्त्री दलित नहीं है. दलित जनप्रतिनिधियों के साथ प्रताडऩा, मारपीट, छेडख़ानी और बलात्कार की घटनाएं आये दिन होती रहती हैं. उनकी सुनवाई न आकाश में बैठे देवता कर रहे हैं न ही जमीन पर लोकतंत्र के 'मंदिर' में बैठे नये देवता. कानून बना मजाक जौनसार के सवर्ण अनुसूचित जनजाति में आते हैं यही वजह है कि यहां यदि कोई सवर्ण किसी दलित के साथ ज्यादती करता है तो वह एससीएसटी एक्ट के तहत कार्रवाई भी नहीं कर पाता क्योंकि सवर्ण खुद एसटी घोषित है. दलितों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की राह में यह सबसे बड़ा अड़ंगा है. 'मान्यता, संस्कृति, आस्था और परंपरा के नाम पर दलितों के मंदिर प्रवेश पर रोक को जायज नहीं ठहराया जा सकता. पार्टियों और सरकारों को यह सुनिचित करना चाहिए कि दलित समुदाय को उनके संवैधानिक अधिकार प्राप्त हों.' - डा. सुनीलम, राष्ट्रीय संयोजक, समाजवादी समागम ------ ' जौनसारी कोई समुदाय नहीं, बल्कि जाति आधारित समाज है. जौनसार-बाबर में कोई जनजाति निवास नहीं करती. यहां समूचे उत्तराखंड की ही तरह जाति व्यवस्था विद्यमान है और दलितों के साथ छुआछूत होता है, बल्कि जौनसार में जातिगत भेदभाव ज्यादा ही है. क्षेत्र के आधार पर जनजाति घोषित होने से यहां के सवर्णों को आरक्षण मिल रहा है, जो खत्म होना चाहिए. संसद की एक समिति ने जौनसार क्षेत्र का दौरा करके अपनी रिपोर्ट में जौनसार-बाबर को जाति आधारित समाज बताते हुए इसे जनजाति क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की है। एलबीएसएनएए मसूरी के प्रशिक्षु अधिकारियों की रिसर्च रिपोर्ट में भी जौनसार को जनजाति क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की गई है. यह गंभीर मामला है, जिस पर भारत सरकार को त्वरित कार्यवाही करनी चाहिए.' - प्रदीप टम्टा, पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता उत्तराखंड ---- 'जौनसार की कुल आबादी में कोल्टा जाति करीब 40 फीसदी है, जो पूरे उत्तराखंड में अनुसूचित जाति में शामिल है लेकिन, जौनसार में इसे राजनैतिक लाभ देने के लिए साजिशन अनुसूचित जनजाति घोषित कर दिया गया. इससे वहां की विधानसभा सीट जनजाति के लिए आरक्षित हो गई है, जबकि पंचायत चुनावों में भी जनजाति को ज्यादा सीटें मिलती हैं. एक तरफ जहां कोल्टा जनजाति में होने से अल्पसंख्यक हैं और राजनीति में पूरी तरह निष्प्रभावी, वहीं शेष दलितों का भी यही हाल है. उत्तराखंड विधानसभा को कोल्टा समुदाय को एससी में शामिल करने के लिए संकल्प प्रस्ताव पारित कर जल्द से जल्द केंद्र को भेजना चाहिए. रहा मंदिर प्रवेश का सवाल तो दलितों को मंदिरों में जाने की जरूरत ही क्या है? इससे दलितों को कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि हताशा ही हाथ लगेगी. मंदिर में चले भी गए तो पुजारी नहीं बनने दिया जाएगा.' चंद्रसिंह, पूर्व आईएएस-कमिश्नर, उत्तराखंड (शुक्रवार )

Monday, April 27, 2015

वही जगह और वही काटेज

अंबरीश कुमार कलंगूट । वही जगह और वही काटेज । यह संयोग ही था तब नीचे रुके थे और अबकी ऊपर ।सामने नारियल के पेड़ों के बीच से वह समुद्र आधा अधूरा दिख रहा है जो करीब पच्चीस साल पहले खुला हुआ था । यह जानकारी सविता ने कमरे की बालकनी से समुद्र को देखते हुए दी । बताया कि तब जो नारियल औए काजू के पेड़ तब छोटे छोटे थे बवे अब काफी बड़े हो गए है और उनकी कतार से सामने का समुद्र ढक गया है । यानी पच्चीस साल बीत गए इधर के । आज एक पुरानी फिल्म की तरह सब गुजर गया । यह हफ्ता अपने सह जीवन का पच्चीसवां साल भी पूरा कर रहा है । उधर के पच्चीस साल तो अराजकता के ज्यादा रहे इधर के कम रहे ।इस समय कैसे गोवा में है यह कई मित्रों की उत्सुकता का विषय था ।इसी पच्चीस साल को याद करने के लिए इस अरब सागर के इस तट पर ठहरे हुए है ।कायदे से इस समय शुक्रवार के प्रिंट में जाने के वक्त मुझे दिल्ली / लखनऊ में होना चाहिए था । पर इधर के पच्चीस साल को याद करने का कार्यक्रम पहले से बना हुआ था इसलिए उसमे कोई फेरबदल नहीं किया गया । गोवा कई बार आना हुआ है । सविता के आने से पहले एक बार और उसके बाद चार बार । पंजिम की गलियां याद है तो वेगाटार से लेकर कोलवा और मीरमार के समुद्र तट की बहुत सी शाम भी । तब गोवा एक गांव लगता था और अब यह स्मार्ट सिटी में तब्दील हो गया है । तब बेंति से आगे जो पतली पतली सर्पीली सड़के थी वे फोर लें में बदल चुकी है तो तो दोनों तरफ भव्य होटल माल और आलीशान भवन । पुर्तगाली वास्तुशिल्प अब पुराने गोवा या गांवों में सिमटता जा रहा है ।मंडावी नदी पर पांच सितारा कैसिनो आ चुका है और गोवा के पर्यटन विभाग का फोकस भी अब मध्य वर्ग की बजाए आभिजात्य वर्ग की तरफ हो चुका है ।वर्ना इसी रिसार्ट के सामने के रेस्तरां में दाल चावल और आम सब्जियां खाने के मीनू से गायब नहीं होती और उनकी जगह इटैलियन से लेकर फ्रांसीसी व्यंजन प्रमुखता पर नहीं होते । पर्यटन गोवा का मुख्य व्यवसाय है और गोवा के पर्यटन विभाग ने नब्बे के दशक में बहुत अच्छी सुविधाएं सैलानियों को दी थी और वह भी कम दाम में ।अब सुविधाएं तो है पर उच्च वर्ग के सैलानियों के लिए ज्यादा । खैर शहर का मिजाज सभी जगह बदला है तो गोवा क्यों न बदले । हमने इसीलिए गाँवों से लगे पुराने समुद्र तट का रुख किया और सुबह शाम इन्हें फिर से देखा भी ठीक से । आज सुबह तो कलंगूट से बागा समुद्र तट तक पैदल ही चले । खूब बादल उमड़ रहे थे और बूंदें भी पड़ी पर भीगे नहीं । कई जोड़े हाथों में हाथ डाले लहरों के साथ चल रहे थे । रात में गुलजार रहने वाले झोपडीनुमा रेस्तरां अभी बंद थे । मेज पर मेज लदी थी तो कुर्सियों के ढेर पड़े थे । कुछ बैरा उठ गए थे तो कुछ उठ रहे थे । आस पास कुत्तों के झुंड समुद्र से आई मछलियों पर जुटे हुए थे । मौसम काफी खुशनुमा था और सामने पहाड़ी के ऊपर बादल काले हो रहे थे तो नीचे समुद्र का शोर बढ़ रहा था ।हम बीच बीच में अपने भी पच्चीस साल को याद कर रहे थे ।दो तीन फोटो यादगार है ।एक जब पहली बार मुलाकात हुई तो दूसरी चकराता की जब सविता मौत के मुह से वापस आ गई ।तब चकराता के डाक बंगले में रुके थे और पैदल जंगल के बीच पांच छह किलोमीटर नीचे उतर उतर कर गए टाइगर फाल देखने ।लौटते समय आंधी पानी और तूफ़ान की वजह से जिन रास्तो पर चढ़ना था वे झरनों में तब्दील हो चुके थे और दो बार मरते हाथ से फिसल चुकी सविता ने उम्मीद छोड़ कर कहा अब जाओं हम नहीं बच सकते । बाद में अपने ब्लाग पर यह घटना लिखी थी । बहरहाल लौट कर आए तो जो एक फोटो ली वह इस पोस्ट के साथ दे रहा हूँ जो बरसात के बाद चकराता के बस स्टैंड के पास की है ।जबकि पहली फोटो सगाई की मिली ।इन पच्चीस सालों में भी जमकर घूमना हुआ । पहाड़ पर भी ,रेगिस्तान में भी और समुद्र में भी । समुद्र से अपना लगाव पुराना है । समुद्र जहाज पर यादगार यात्रा भी हुई । रुकने की व्यवस्था भी समुद्र तट पर हो इसका हमेशा ध्यान रखा । दीव का सर्किट हाउस तो समुद्र तट पर ही बना है और वहा भी दीव प्रशासन का अतिथि रहने का मौका मिला तो दमन में भी । जब पहली बार पच्चीस दिसंबर को गोवा पहुंचा था तो बिना पहले से बुकिंग के ।पर तब एक सरदार जी पर्यटन विभाग के आला अफसर थे और उन्होंने पहले दिन सर्किट हाउस और दूसरे दिन कलंगूट बीच के इसी रिसार्ट पर ठाह्रने की व्यवस्था कर दी ।तब सर्किट हाउस का किराया दस रुपए एक दिन का पड़ा था और इस रिसार्ट का एक सौ नब्बे रुपए । तभी पता चला की गोवा के सर्किट हाउस में भव्य बार भी है जो और कही नहीं मिलेगा । बहरहाल कल से हम इसी सब को गोवा में याद कर रहे है और बीच बिओइच में अपने साझा इतिहास में भी लौट जाते है ।

Wednesday, March 4, 2015

यह तो आप का 'दोफाड़ ' है

यह तो आप का 'दोफाड़ ' है अंबरीश कुमार नई दिल्ली ।आंदोलन से निकली आम आदमी की पार्टी आज 'खास ' में ही बदल गई ।पार्टी के सभी प्रवक्ता चाहे जितनी दलील दे आज यह पार्टी बंट गई और आम आदमी का सपना टूट गया ।बैठक से बाहर निकल कर जिस आवाज में प्रशांत भूषण ने कहा कि उन्हें और योगेंद्र यादव को पीएसी से बाहर कर दिया गया है वह आहत आवाज बहुत कुछ कह रही थी । पार्टी में बहुत दिन से सब कुछ चल रहा था पर इस अंदाज में यह सब ख़त्म होगा यह उम्मीद किसी को नहीं थी ।जो कुछ आज घटा है उसकी जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ अरविंद केजरीवाल पर है और किसी पर नहीं ।भले योगेंद्र यादव पार्टी पर कब्जे की फिराक में हो जो उनपर आरोप है ।आज संजय सिंह ,मनीष सिसोदिया ,आशुतोष ,दिलीप पांडेय से लेकर कुमार विश्वास केजरीवाल के साथ पूरी ताकत के साथ खड़े थे जिसकी उम्मीद पहले से थी ।इनमे संजय सिंह को छोड़ कोई भी राजनैतिक कार्यकर्त्ता नहीं रहा है ।वोट हुआ तो अरविन्द केजरीवाल खेमा सिर्फ तीन वोट से जीता है यह ध्यान रखने वाली बात है ,योगेंद्र यादव के साथ कार्यकारिणी के आठ लोग खड़े थे ।इससे ही इस राजनैतिक संकट का अंदाजा लगाया जा सकता है ।सभी इस उम्मीद में थे कि अरविंद अंतत इस समस्या को सुलझा लेंगे और योगेंद्र यादव ,प्रशांत भूषण को पीएसी से हटाया नहीं जाएगा । आप के जानकारों का आरोप है कि योगेंद्र यादव खेमे का विधान सभा चुनाव से पहले ही यह आकलन था कि पार्टी बीस बाईस सीट पर निपट जाएगी और इस स्थिति में केजरीवाल को हटाकर पार्टी पर आधिपत्य जमा लिया जाएगा ।यह एक आरोप है ,सच्चाई कितनी है इसमें कहा नहीं जा सकता ।पर यह भी सही है कि आप के उदय के साथ आप पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जिस तरह का अहंकार आया था उससे योगेंद्र यादव भी नहीं बच पाए थे ।सभी जानते है कि पार्टी के लिए समाजवादी जन परिषद की भी बलि दे दी गई थी ।बावजूद इसके विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे जन आंदोलनों के लोगों को पार्टी का टिकट तो दिया गया पर उनकी कोई ढंग से मदद भी नहीं की गई ।इसमें आप पार्टी के खांटी समाजवादी भी शामिल थे ।यह सही है आप पार्टी अरविंद केजरीवाल के अपने आभा मंडल और राजनैतिक चमत्कार पर ज्यादा टिकी थी किसी वैचारिक आधार पर बहुत कम ।इसीलिए योगेंद्र यादव आज इस अंदाज में बाहर भी हुए ।वे दो दिन से लंबे लंबे इंटरव्यू दे कर माहौल बना रहे थे ,अपनी बात घर घर तक पहुंचा रहे थे ।पर दूसरी तरफ केजरीवाल समर्थक अपने अंदाज में साफ़ कर चुके थे कि योगेंद्र यादव को जाना ही होगा ।और वे चले भी गए । कार्यकारिणी की बैठक ने तो उसपर मोहर लगा दी ।यह बात अरविंद केजरीवाल जानते थे और चाहते भी थे ।तभी यह हुआ भी ।सब कह रहे थे कि आप पार्टी में जो कुछ हो रहा है वह बिना केजरीवाल की मर्जी के नहीं हो रहा । दिलीप पांडे से लेकर खेतान तक जो भाषा बोल रहे थे वह पहले से तय थी ।इसीलिए लोगों को दुःख हुआ ।सोनिया राहुल की कांग्रेस हो या मोदी की भाजपा ,यह आम आदमी की पार्टी भी तो वैसी ही निकली ।केजरीवाल ने ठीक वैसी ही गलती दोहराई है जैसी दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर की थी ।इसका भी नफा नुकसान सामने आ जाएगा ।

Tuesday, March 3, 2015

समुद्र तट पर बढ़ता संकट

समुद्र तट पर बढ़ता संकट अंबरीश कुमार कुछ वर्ष पहले तक देश के कई द्वीप और पहाड़ी क्षेत्र सैलानियों के लिए प्रतिबंधित थे पर बाद में उन्हें भी पर्यटन के नाम पर खोल दिया गया ।इनमें लक्ष्यद्वीप ,अंडमान निकोबार से लेकर लद्दाख और पूर्वोत्तर के कई अंचल शामिल थे । पर कुछ ही समय में पर्यटन के नाम पर इन क्षेत्रों का जिस तरह अंधाधुंध व्यावसायिक दोहन हुआ उससे सभी जगह कई तरह की समस्या सामने आने लगी है ।इसमें सबसे बुरा असर पर्यावरण पर पड़ रहा है । इन द्वीप के साथ समुदी तट पर भी संकट बढा है । पुरी ,विशाखापत्तनम ,चेन्नई से पांडिचेरी ,केरल के कोवलम से लेकर कन्याकुमारी के समुद्र तटों पर जिस तरह अतिक्रमण बढ़ रहा है उसे देखते हुए नहीं लगता कि एक दो दशक बाद ये खुले समुद्र तट बच पाएंगे ।पहले समुद्र तट पर निर्माण की दूरी पांच सौ मीटर थी जिसे कई जगहों पर घटा कर दो सौ मीटर कर दिया गया है ।इसके बावजूद चाहे पुरी का समुद्र तट देख ले या कोवलम का बीस से पचास मीटर दूरी तक निर्माण नजर आ जाएगा ।समुद्र तटों की सुरक्षा के लिए बना तटीय नियमन क्षेत्र कानून भी इसे रोक नही पा रहा है ।लक्ष्य द्वीप का मशहूर बंगरम द्वीप वर्षों से एक होटल समूह के पास है और इस द्वीप तक पहुँचने के लिए कवरेती और अगाती द्वीप तक जाना होता है ।पिछले दो दशक में इन दोनों द्वीप के आसपास का पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हो चूका है जिसका असर समुद्री जीव जंतुओं पर भी पड़ चुका है । वजह समुद्री जहाजों का बढ़ता फेरा और हवाई यातायात भी है ।यहां पर नारियल और पपीता के अलावा कुछ नहीं होता और सारा सामान पहले बड़े समुद्री जहाज और फिर मोटर बोट के जरिए इस द्वीप तक लाया जाता है । दिनभर में कई बार इन मोटर बोट का आना जाना होता है और इनका कचरा भी गहरे समुद्र से लेकर लैगून में ही फेंका जाता है ।समुद्र तटों के किनारे बसे रिसार्ट हो या द्वीप में यह एक बड़ी समस्या है जिसके चलते इनके आसपास का पर्यावरण प्रभावित हो रहा है , यह एक बानगी है और कई द्वीप इस संकट से जूझ रहे है ।दूसरी तरफ तटीय राज्यों में स्थिति और बदतर होती जा रही है ।कोवलम समुद्र तट केरल का सबसे खुबसूरत तट माना जाता है पर अब पहले जैसी प्राकृतिक खूबसूरती नजर नहीं आती ।इस तट पर इस कदर अतिक्रमण हुआ है कि कोस्टल रेगुलेशन जोन यानी तटीय नियमन क्षेत्र अध्यादेश के उलंघन की करीब दो हजार शिकायते आ चुकी है ।यह हाल सभी तटीय राज्यों का है ।ओडिशा में समुद्र तट पर होटलों के बढ़ते अतिक्रमण को लेकर अदालत को दखल देना पड़ा तो गोवा में प्रभावशाली नेताओं से लेकर कई बिल्डरों के खिलाफ मामला चल रहा है । समुद्र तटों पर सैलानियों की बढती संख्या से पर्यटन उद्योग तेजी से फल फूल रहा है तो इसके चलते अवैध अतिक्रमण भी बढ़ रहा है ।गोवा के समुद्र तटों पर अवैध कब्जे की घटनाएं लगातार बढती जा रही है ।एक तरफ होटल और रिसार्ट इन तटों पर तेजी से खुल रहे है तो दूसरी तरफ आवासीय योजनाएं । विशाखापत्तनम में समुद्र तट के किनारे से गुजरने वाली सड़क पर बहुमंजिली इमारतों की कतार खड़ी हो चुकी है और ये इस शहर का सबसे महंगा रिहायशी इलाका माना जाता है । समुद्र तट पर बसे हर शहर की यही स्थिति है ।पर इसका दूसरा और दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि इनका सारा कचरा भी समुद्र में बहाया जा रहा है । चाहे समुद्र तट पर बसे रिसार्ट और होटल हो या एपार्टमेंट ,आम तौर पर इनका कचरा सीवर लाइन के जरिए समुद्र में डाला जा रहा है ।देर सब्स्र इसका घातक परिणाम हमें भुगतना होगा ।साभार -दैनिक हिंदुस्तान

Monday, February 9, 2015

यह मोदी के खिलाफ ' जनादेश ' है

यह मोदी के खिलाफ ' जनादेश ' है अंबरीश कुमार नई दिल्ली ।दिल्ली में वही हुआ जिसकी उम्मीद थी ।सड़क के आदमी ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे मोदी को जमीन दिखा दिया है ।दिल्ली में जब आप के नेताओं ने झंडा लहराते हुए इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ कहा -दिल्ली जीत गए है हम तो तालियों की गडगडाहट सुनने वाली थी ।आप के नेताओं ने इस जनादेश का श्रेय अपने निष्ठावान कार्यकर्ताओं को दिया है जिस कार्यकर्त्ता को कांग्रेस और भाजपा ने किनारे लगा दिया था । यह भाजपा के शीर्ष नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति के खिलाफ जनादेश है ।यह अमित शाह की चौकड़ी वाली राजनीति के खिलाफ जनमत संग्रह है ।मोदी ने जिस पार्टी को हाशिए पर पहुंचाया उसके कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में उन्हें राजनीति का पाठ भी पढ़ा दिया ।इस चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ आम आदमी से भी मोदी और शाह लड़ रहे थे ।पर भाजपा नहीं लड़ रही थी ।संघ भी किनारे खड़ा था ।यह चुनाव मोदी और शाह कारपोरेट घरानों के साथ साम दाम दंड भेद सभी हथकंडो से लड़ा था । मोदी एक मिथक बन रहे थे और अहंकार में दूब चुके थे ।दिल्ली चुनाव के प्रचार में उनका यह अहंकार बार बार दिखा ।वे कहते थे -हमारी मास्टरी सरकार चलने की है हमें वह काम दीजिए , उनकी मास्टरी धरना देने की है उन्हें वह काम दीजिए ।पर दिल्ली ने मोदी को दिल्ली नहीं दी ।वे बुरी तरह हारे है , अपनी राजनीति से ।पहले के माहौल पर नजर डाले । कांग्रेस के खिलाफ लोगों में गुस्सा था ।इस गुस्से को अन्ना हजारे ने आंदोलन में बदल दिया था ।राजनैतिक प्रयोग हुआ और केजरीवाल की दिल्ली में सरकार बनी ।इसके बाद समूचे देश में माहौल बना और आम आदमी पार्टी से देश भर के लोग अपेक्षा करने लगे ।पर केजरीवाल ने जिस तरीके से अचानक दिल्ली की सत्ता छोड़ी और वाराणसी चुनाव में खुद उतरे उसने देश भर के युवा आक्रोश को मोदी की तरफ एक झटके में मोड़ दिया ।तब मोदी कांग्रेस के खिलाफ एकछत्र नेता के रूप में उभर रहे थे ।ऐसे में केजरीवाल का उन्हें सीधी चुनौती देने एक बड़े वर्ग को खला और देशभर में जो माहौल बना था वह भाजपा के पक्ष में चला गया ।पर उसके मूल में जो आम आदमी था उसे केजरीवाल और उनकी युवा टीम ने फिर जगा दिया है ।आम आदमी के मुद्दों को लेकर ।भाजपा ,सही बात यह है कि मोदी और शाह ने इस चुनाव में केजरीवाल के खिलाफ जो जो हथकंडे अपनाए वे सब न सिर्फ भोथरे साबित हुए बल्कि उसने आम आदमी के गुस्से को भी भड़काया ।इस चुनाव में जाति धर्म से ऊपर उठकर वोट पड़ा भले डेरा सच्चा सौदा आया हो या मौलाना बुखारी ।दरअसल दिल्ली का यह पूरा चुनाव तो प्रतीक रूप में देश लड़ रहा था ।यह लड़ाई गरीब बनाम अमीर भी थी ।यह लड़ाई अहंकार और सत्ता के सारे हथकंडो के खिलाफ थी ।ध्यान से देखे भाजपा छोड़ सभी राजनैतिक दल अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी पार्टी के पीछे खड़े थे ।और सबसे बड़ी जीत तो यह उन नौजवान कार्यकर्ताओं की है जिन्होंने अपनी जान लगा थी इस चुनाव में ।आज जब ज्यादातर राजनैतिक दल एनजीओ के सहारे होते जा रहे है ऐसे समय में एनजीओ से निकले लोगों ने अगर तीस हजार प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की फौज दिल्ली में कड़ी कर दी तो इसे एक बड़ा आन्दोलन मानना चाहिए ।और अभी यह आंदोलन और आगे बढ़ने जा रहा है ।चौबीस फरवरी के बाद किसानो की जमीन के सवाल पर अन्ना हजारे फिर दिल्ली आ रहे है ।आर पार की लड़ाई के संकल्प के साथ ।मोदी के लिए आत्ममंथन का समय अब आ गया है ।जनादेश

Saturday, February 7, 2015

तो टूट गया मोदी का तिलिस्म ?

तो टूट गया मोदी का तिलिस्म ? यह चुनाव लोकसभा चुनाव के बाद पहला वह चुनाव है जिसने मोदी का राजनैतिक तिलिस्म तोड़ दिया है ।अहंकार भी तोड़ दिया है । नसीब भी गया ।पहली बार कोई प्रधानमंत्री बड़ी म्युनिस्पैलिटी के चुनाव में मोहल्ला मोहल्ला घूमा था ।जिसकी जरुरत नहीं थी ,फिर भी कही अश्वमेघ का घोडा मोहल्ले का नौजवान न रोक ले यह डर जरुर था ।साथ ही अपने पर कुछ ज्यादा ही विश्वास भी तो अन्य नेताओं पर अविश्वास । हारी हुई बाजी को जीत में बदल देने का विश्वास ।पर यह भूल गए कि जनता नौ महीने के राजकाज पर अपनी राय भी देने वाली है ।जो पेट्रोल और डीजल के अंतरराष्ट्रीय दाम में हुई गिरावट से देश की महंगाई को नहीं देखने वाली थी ।नून तेल लकड़ी से महंगाई देखी जाती है ,आटा दाल चावल और आलू प्याज से महंगाई नापी जाती है । फिर तुर्रा यह कि ' आपकी टेंट में तो अब पैसा बच रहा होगा , जैसे जुमले भी घाव पर नमक जैसे ही लगते है ।इस सबके बाद एक ठीक ठाक पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र को ताक पर रखकर जिस तरह किरण बेदी को मोदी और शाह ने पार्टी की दिल्ली इकाई पर थोपा उसने रही सही कसर भी पूरी कर दी ।मोदी और शाह तो आम आदमी पार्टी ही नही भाजपा की दिल्ली इकाई से भी लड़ रहे थे ।पैसे के बूते पर ,सत्ता के बूते पर और कारपोरेट घरानों और उनके चैनलों के बूते पर ।वे भूल गए हर बार विज्ञापन से जीत नही मिल पाती । भारतीय जनता पार्टी के संगठन के हिसाब से भी यह चुनाव बहुत निर्णायक हो गया है ।पार्टी में मोदी-शाह की कार्यशैली को लेकर दिल्ली का यह चुनाव अभी काफी उथल पुथल मचाने वाला है ।किरण बेदी से लेकर शाजिया इल्मी जैसे उधार के दगे हुए कारतूसों से जंग नही लड़ी जाती यह भी दस को साफ़ हो जाएगा ।इस चुनाव को मोदी और मीडिया ने जरुरत से ज्यादा तूल दिया और तरह तरह के हथकंडे भी अपनाए ।जो चुनाव दिल्ली भाजपा बनाम आप पार्टी था उसे मोदी ने अपने अहंकार में मोदी बनाम मफलर वाला बना दिया ।आम लोगों को यह मफलर वाला अपनी गली का ही नौजवान नजर आया ।जो अडानी से लेकर अंबानी तक को चुनौती देता है ,बिना किसी डर के ।उधर एक अड़ियल पुलिस वाली को मुकाबले में आगे कर मोदी शाह ने रही सही कसर पूरी कर दी ।कभी भी कोई युद्ध के दौरान सेनापति नही बदलता ।पर मोदी ने बीच युद्ध में पार्टी का सेनापति बदल दिया और किसी की भी नही सुनी ।और इसे मास्टर स्ट्रोक बताया गिया जो पार्टी के आम कार्यकर्ताओं को रास नही आया था ।इसके बाद चुनावी शतरंज में साम दाम दंड भेद सारे हथकंडे अपना लिए गए ।पुलिस भी लगे गई तो बदमाश भी और साजिश वाले भी जुट गए । सारी लड़ाई ' एक दिए की और तूफ़ान , की लड़ाई में बदल गई ।इस सबके चलते झुग्गी झोपडी से लेकर हाशिए का समाज आज सड़क पर उतरा और फिर चुनावी आकलन ने माहौल बदल दिया है ।अब दस के बाद शुरू होगी दूसरी राजनैतिक लड़ाई ।अब आम आदमी पार्टी इस देश के मुख्यधारा की पार्टियों में पूरी ताकत के साथ शामिल हो गई है ।और इसका श्रेय श्री नरेंद्र मोदी को सौ फीसद दिया जाना चाहिए । जनादेश

Wednesday, February 4, 2015

यह चुनाव जिताने का नहीं ' हराने ' का है

यह चुनाव जिताने का नहीं ' हराने ' का है अंबरीश कुमार पिछले दस दिन में दिल्ली का चुनाव एकतरफा होता नजर आ रहा है ।इस चुनाव में केजरीवाल को जिताने से ज्यादा मोदी को हराने की ध्वनि सुनाई पड रही है ।अब ये तो नतीजे ही बताएंगे कि मोदी नसीब वाले है या इस चुनाव बाद ' बदनसीब ' बन जाएंगे। सर्वेक्षण तो केजरीवाल को अगला मुख्यमंत्री बना चुके है तो साथ ही मोदी की हार की भविष्यवाणी कर रहे है ,पर सर्वेक्षण पर हम लोगों का भरोसा कम ही होता है ।इसलिए दस तक का इन्तजार करना चाहिए ।पर आम लोगों का जो मूड समझ में आ रहा है और भाजपा के दिग्गज नेता जिस अंदाज में केजरीवाल के खिलाफ अभियान छेड़े हुए है उससे पार्टी की घबराहट सार्वजनिक होती जा रही है ।पार्टी की दिल्ली इकाई पहले से अलग थलग पड चुकी है और कार्यकर्त्ता भ्रमित और पस्त है । मोदी ने जिस तरह मोहल्लो मोहल्लो में भाषण दिया है उससे यह चुनाव फिर केजरीवाल बनाम मोदी बन गया है ।किरण बेदी अब हाशिए पर है और आलाकमान ने बोलती अलग बंद कर दी है ।योगेंद्र यादव ने सही कहा है कि अगर एक ढंग का लाइव इंटरव्यू किरण बेदी का प्रसारित हो जाए तो आप को पूर्ण बहुमत वैसे ही मिल जाएगा ।किसी प्रचार की जरुरत नही पड़ेगी ।वैसे भी आम आदमी पार्टी का प्रचार भाजपा ज्यादा कर रही है ,आप कम ।पर बहुत ध्यान से देखे दिल्ली में बहुत से राजनैतिक दल क्या कर रहे है । कांग्रेस हारी हुई लड़ाई लड़ रही है और भाजपा उसे ताकत देने में जुटी है ।कांग्रेस और गिरी तो भाजपा मुंह के बल गिरी नजर आएगी ।बाकी दल और उनके कार्यकर्त्ता भी एक साफ स्टैंड ले चुके है ।भाजपा को हारने का ,मोदी को हराने ।मुकाबले में आप है इसलिए जाहिर है वोट आप को ही जाएगा ।पर यह अन्य लोगों का यह वोट आप को जिताने से ज्यादा भाजपा को हराने का है ।आप को जिताने वाला वोट आप के तीस हजार कार्यकर्ताओं ने तैयार कर दिया है जिसमे नौजवान ज्यादा है ।झुग्गी झोपडी वाले ज्यादा है ,दलित और पिछड़े ज्यादा है जिन्हें आम आदमी पार्टी बहुत सी कमजोरियों के बाद अपनी नजर आती है । भाजपा ने नौ महीनों में जो किया उससे पार्टी अमीरों की पक्षधर नजर आने लगी है ,यह भाजपा के शीर्ष नेता भी समझ रहे है ।अडानी अंबानी और अन्य बड़े कारपोरेट घरानों का दस लाख का सूट पहनने वाले मोदी से क्या संबंध है यह सार्वजनिक हो चुका है ।गांव गरीब और आम आदमी मोदी के एजंडा से बाहर है ।वे तो कभी अंबानी के साथ दीखते है तो कभी अडानी के ।उन्हें फायदा पहुँचाने वाला भूमि अधिग्रहण अध्यादेश आ चुका है ।मजदूरों के खिलाफ रुख साफ़ हो चूका है । मोदी की राजनीति भी साफ़ हो चुकी है।और अहंकार भी ।देश ने पहला प्रधानमंत्री देखा जो गली मोहल्ले में एक सामान्य से नेता से मुकाबला कर रहा है और पसीने छूट रहे है ।दरअसल सिर्फ प्रचार प्रसार की राजनीति बहुत लंबी नहीं चलती और यही अप्रत्यक्ष मुद्दा भी है ।फिर जिस अंदाज में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को तरह तरह के मामले फंसाने और उलझाने का प्रयास किया गया उससे आम लोगों में नाराजगी भी बढ़ रही है ।काला धन लेकर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस हो या भाजपा जब चुनावी चंदे के मसले पर उस पार्टी को घेरने का प्रयास करे जो सब कुछ वेब साईट पर डाले हो तो मामला और हास्यास्पद हो जाता है ।इसलिए ज्यादातर लोग वोट के हथियार का इस्तेमाल मोदी को सबक सिखाने के लिए कर सकते है ।इसलिए यह चुनाव जिताने से ज्यादा हराने वाला नजर आता है ।जनादेश

Tuesday, January 27, 2015

जेलर बाबूजी का जाना

अंबरीश कुमार बाबूजी यानी पापा से करीब बारह साल बड़े ताऊ जी जिन्हें हम बचपन से बाबूजी और ताई जी को बड़ी अम्मा कहते रहे है ।पहले मम्मी गई फिर बड़ी अम्मा और आज तडके करीब पंचानबे साल के बाबूजी के जाने की खबर मिली ।पापा को नहीं बताया है क्योंकि वे बीमार है और सदमा लग सकता है ।ये भी अजीब है क्योंकि कुछ महीनों पहले तक दोनों के बीच कड़वाहट थी गाँव की जमीन को लेकर । बाबूजी अंग्रेजों के राज से जेलर रहे है और लाइसेंसी बंदूक भी रखते रहे है जिसका ज्यादा इस्तेमाल शिकार के लिए हुआ पर जब जमीन का विवाद बढ़ा तो इस बंदूक की नाल उन्होंने पापा की तरफ तान दी थी ।इसे लेकर पापा बहुत आहत हुए और फिर गांव जाना छोड़ दिया । अपना गाँव देवरिया जिले के बरहज के पास कपरवार घाट से पहले राजपुर गांव के नाम से जाना जाता है । पापा ने जो एक नया घर सत्तर के दशक में उन्होंने बनवाया था उसे औने पौने दाम में एक संपन्न यादव परिवार को बेच दिया जानबूझ कर ।वजह यह कि ताकतवर यादव परिवार सामने रहेगा तो आए दिन विवाद होगा ।यह सब गांव के झगड़ों में आम मानसिकता है जिससे वे उबार नहीं पाए ।यह सब आज याद आया । घर वालों पर बहुत कम ही लिखा है ।इसकी एक वजह संकोच भी रही है ।बाबूजी के जाने के बाद लगा कि बचपन से अबतक की एक फिल्म जैसे गुजर गई हो ।अपना लगाव पापा की बजाए बाबूजी से ज्यादा रहा है जिसकी कई वजह रही है ।अपने घर में पापा का बहुत कड़ा अनुशासन झेलना पड़ता ।वे पहले रेलवे में इंजिनियर थे । बचपन में आलमबाग के लंगड़ा फाटक के सामने के रेलवे की बड़ी कोठी के लान में शाम को ठीक से तैयार होकर बैठना पड़ता था क्योंकि तब पापा के आने समय होता था और वे हमें जूते मोज़े में ढंग से कढ़े हुए बाल के साथं देखना चाहते थे ।शर्ट भी पैंट के भीतर और गेटिस भी लगी हो ।वर्ना पिटाई भी हो सकती थी ।यह घर बहुत बड़ा था और दिन भर इसके अहाते में कुत्ते के पिल्लों के साथ खेलने के बाद शाम को मम्मी तैयार कर बाहर बिठा देती ।ऐसे में बाबूजी के यहाँ जाना बहुत अच्छा लगता क्योकि तब जेल परिसर शहर से बाहर जंगल के करीब हुआ करता था ।लखनऊ ,गोंडा ,बहराइच आदि उदाहरण है ।खेलने और आवारगर्दी के लिए तब बड़ी जमीन मिल जाती थी और बगीचे और खेत भी ।बाबूजी खाने के शौकीन थे और एक दो दिन छोड़कर रोज ही मांसाहारी व्यंजन बनता था पर बहुत तेल मसाला नही होता था ।बाबूजी शिकारी थे और तब शिकार पर कोई प्रतिबंध भी नहीं था ।उनके घर में बाघ ,चीतल हिरन की छाल पर ही बैठा जाता था जो पूजा घर से लेकर बैठक में रखे सोफे पर भी सजी रहती थी ।जेल के जेलर के ये बड़े बड़े घर और जेल परिसर की दुनिया अपने को बहुत पसंद आती थी ।अब समझ में आता है कि सारे मौसमी फल जामुन फालसा ,फिरनी ,आम ,बढ़हल से लेकर शहतूत तक समय पर मिल जाते थे और जी भर कर खाने की छूट थी । तीतर ,बटेर ,हिरन से लेकर जंगली सूअर का स्वाद भी बाबूजी के शिकार के शौक के कारण वही मिला ।इतनी आजादी और तरह के स्वाद ने बाबूजी के साथ रहने का लोभ बढ़ा दिया था ।फिर ऐसी आजादी अपने ननिहाल यानी बढहल गंज के पास मरवट गाँव में मिलती थी जहां ज्यादा समय आम के बड़े बगीचे में बिताता था ।बगीचा भले आम का कहलाता था पर उसकी शुरुआत जामुन के ऐसे तिरछे पेड़ से होती थी जिसके ऊपर दस बारह फुट तक दौड़ कर चढ़ जाता था ।और अंत में करीब पचास साल पुराना बेलउवा आम का पेड़ था जिसके आम, सिंदूरी रंग के बेल के आकार के होते थे । मौसम में सोना भी बगीचे में होता था और टपकने वाले आम इकट्ठा कर पानी भरी बाल्टी में डालते थे ।पर यह मौका मुंबई से गर्मी की छुट्टी में आने पर मिलता था ।मुंबई से पापा जब लखनऊ में सीएसआईआर के शोध संसथान में शिफ्ट हुए तो बाबूजी के यहाँ हर छुट्टियों में जाना नियम सा बन गया ।बाद में जब पापा बहुत नाराज होते तो भागकर बाबूजी के पास पहुँचता और उनसे शिकायत भी करता ।तब लगता था वे पापा से बड़े है और उन्हें डांट फटकार कर समझा देंगे ।कई बार यह फार्मूला काम भी आया ।पर बाद में जब गाँव जमीन का विवाद हुआ तो दोनों के संबंध बिगड़ गए ।गांव से अपना सम्बन्ध भी ख़त्म सा हो गया ।शुरूआती दौर में गांव में नया बगीचा हमने ही लगाया था ।पापा ने लखनऊ से अनिल के जरिए आम अमरुद कटहल आदि के कई पेड़ भेजे थे बस से ।बाद में छांगुर बाबा ने पूरे विधिविधान से इन पेड़ों को लगवाया ।आज भी इस बगीचे में हम लोगों के लगाए पेड़ में बहुत अच्छे फल आते है पर अपने को कभी नसीब नही हुए ।अपना यह गांव सरयू / घाघरा नदी के किनारे है और उस पार देवार में खेत पड़ते है ।एक ज़माने में लोग कलकत्ता से स्टीमर से आते जाते थे ।एक बार छोटी दादी के निधन पर बढ़हल गंज से हम भी स्टीमर से आए थे ।तब खपरैल का बड़ा विशाल घर था और सामने का बरामदा बहुत ही विशाल जिसपर रात में बीस पच्चीस चारपाई बिछ जाती थी ।सामने राजपुर नाम की छोटी सी रियासत के सामने लगे ताड़ और कदम के पेड़ रात में लहराते हुए डरावने लगते थे ।घर के भीतर सिर्फ शाकाहारी भोजन बनता था और जो महराजिन खाना बनाती थी वह चूल्हे से रोटी दूर से थाली में फेंकती ताकि उसे छुआ न जा सके । जब मछली या झींगा आता तो बगल में रहने वाली मल्लाहिन ' लोचन बो ' के घर खाना बनता और खाना खाने भी वही जाना पड़ता ।लोचन बो यानी लोचन की मेहरारू अभी भी जिन्दा है जबकि लोचन बहुत पहले टीबी की वजह से गुजर चूका है ।लोचन कलकत्ता में काम करता था और वाही से टीबी लेकर गांव लौटा था ।पर ज्यादा दिन चला नहीं ।आज यह सब एक फिल्म की तरह याद आ रहा है ।पिछले महीने ही तो लखनऊ में पोती की शादी करने बाबूजी आये थे । पापा से भी मिले और गले लग कर रोए ।फोटो में मफलर पहने बाबूजी जो आज तडके हम सबको छोड़ गए।