Saturday, September 5, 2015

सड़क पर क्यों नहीं उतरती बसपा

सड़क पर क्यों नहीं उतरती बसपा विवेक कुमार दलित समाज की वास्तविकता यह है कि वह अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, न कि अस्मिता की. वह इसकी लड़ाई लड़ रहा है कि आखिर हमें भी मानव समझा जाये. इसे कुछ जानकारों ने अस्मिता की लड़ाई के तौर पर देखा है, लेकिन ऋग्वेद में जिस तरह से शुद्र बताकर उनके आश्रम, अधिकार और वर्ण-धर्म के बारे में कुछ नहीं कहा गया, उससे तो अस्तित्व का ही प्रश्न खड़ा होता है. इस अस्तित्व की लड़ाई में बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा कि अगर इनके अस्तित्व को स्थापित करना है, तो इनको अधिकार देने होंगे. ये अधिकार कोई नये नहीं थे, बल्कि नागरिक के अधिकार थे. इसमें सबसे बड़ा अधिकार स्व-प्रतिनिधित्व का है. यह सभी क्षेत्रों के लिए है- राजनीति, शिक्षा, कारोबार, वगैरह सबमें. लेकिन सरकारें इस समाज को स्व-प्रतिनिधित्व का अधिकार देने की बजाय कहती हैं कि हम आपकी आकांक्षाओं का नेतृत्व कर रहे हैं, हम आपकी अपेक्षाओं का प्रतिनिधत्व कर रहे हैं, हमने आपके कष्ट को समझा है, आपके दुख-दर्द को मुद्दा बनायेंगे, आपकी मांगों को बुलंद करेंगे और आपके साथ हर कठिन परिस्थिति में खड़ा रहेंगे. बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा है कि अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार कभी अच्छी सरकार नहीं हो सकती, क्योंकि उसने तो कभी दर्द और पीड़ा को भोगा ही नहीं है. जाहिर है, ऐसे में उसके तमाम दावे खोखले हो जाते हैं. ऐसी सरकारें दलितों के हक में कानून नहीं बना सकतीं, और अगर बना देती हैं, तो उनका सही तरीके से पालन नहीं करवा सकतीं. ऐसी सरकारें राजा और रंक के रिश्ते पर चलती हैं. लेकिन सवाल उठता है कि राजा कब तक रंक के लिए कानून बनाता रहेगा और रंक को मौका मिले, तभी तो लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना होगी. ब्रिटिश हुकूमत को स्वतंत्रता सेनानी गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था कि आप अपनी संस्था में भारतीयों को प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं. इससे भारतीयों की पौरुषता में कमी आ रही है. उनकी कल्पनाशीलता, दृढ़ता और इच्छा में कमी आ रही है, इसलिए उन्हें प्रतिनिधित्व दें. बाबा साहेब आंबेडकर ने इस मसले को गंभीरता से समझने का काम किया. उन्होंने एक समानांतर रेखा खीचीं कि कल्पना कीजिए कि कितने हजारों सालों से दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला हैं. इसलिए समाज में नैतिकता का तकाजा है कि उसे स्व-प्रतिनिधित्व मिले. स्वतंत्रता के बाद आंबेडकर की देखरेख में बने संविधान में दलितों को सारे अधिकार दिए गये. लेकिन आजादी के इतने सालों के बाद भी दलितों को समाज की सातों संस्थाओं- न्यायपालिका, नौकरशाही, राजनीति, शैक्षिक संस्था, उद्योग-धंधे, नागरिक समाज और इंडस्ट्री के तौर पर मीडिया में स्व-प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. अगर इन सातों संस्थाओं में उनके प्रतिनिधित्व को तलाशा जाये, तो न के बराबर लोग सामने आयेंगे. राजनीति में आरक्षण प्रावधानों के कारण कुछ लोग दलित समाज से आ जाते हैं, लेकिन क्या वे आशा के अनुरूप अपने अधिकारों का निर्वहन कर पाते हैं? बहुजन समाज पार्टी को छोड़ दें, तो भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस के अंदर तो आरक्षण पर कुठाराघात हो रहा है. इन पार्टियों से अकेले उत्तर प्रदेश से काफी सारे दलित नेता हैं, लेकिन क्या ये प्रभावी रूप से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाते हैं? इस तरह से देखें, तो दलितों की राजनीति के दो फाड़ हैं. पहला, आत्मनिर्भर दलित राजनीति. इसका आगाज बी आर आंबेडकर ने ही किया था. आजादी से पहले साल 1936 में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनायी थी. जाति-विरोधी संगठन के तौर पर दलित पैंथर्स आयी. साल 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनी. बहुजन समाज पार्टी के अंदर दलित सामान्य के रूप में प्रभुत्व रखते हैं. यहां पार्टी की मुख्यधारा में दलित हैं. दूसरा है, निर्भर दलित राजनीति. यह सवर्ण वर्चस्ववादी दलों के अंदर पायी जाती है, जैसे कांग्रेस, और भाजपा में. इसमें दलित एससी, एसटी सेलों के अंदर बंद होते हैं. इनके दलित नेता विशिष्ट प्रकार की भूमिका में पाये जाते हैं और अपने हाईकमान की भाषा ही बोल रहे होते हैं. हो सकता है कि ये ज्यादा वोटों को अपने अंदर समाते हों, पर यहां न्याय-सशक्तीकरण नहीं दिखता है. हालांकि, कांग्रेस ने अपने अंतिम कार्यकाल में कुछ बदलाव किये थे. पिछले दो दशकों की राजनीति में पूरा उत्तर भारत, जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार 189-190 दलित सीटें भेजती हैं. लेकिन गिनने भर के दलित कद्दावर नेता मिलते हैं. यह स्थिति पहले नहीं थी. जगजीवन राम और रामधन जैसे कद्दावर दलित नेता कांग्रेस में हुआ करते थे. लेकिन आज उनकी जगह पुनिया जैसे बगैर जनाधार वाले नेता हैं. भाजपा उत्तर भारतीय क्षेत्र में आयातित दलित नेताओं से काम चलाना चाहती है. वह लोजपा के रामविलास पासवान के जरिये बिहार चुनाव की वैतरणी पार होना चाहती है, तो वहीं उसने मोदी लहर में एक उदित राज को अपनाया है. जमीनी स्तर से कोई दलित नेता उसके पास भी नहीं है. जिस दलित प्रतिनिधित्व का दावा किया जा रहा है, उसे लेकर एक दिक्कत यह भी है कि किसी भी सुरक्षित संसदीय क्षेत्र में दलितों की संख्या इतनी नहीं है कि वे अपने दम पर निर्णय कर सकें. इसलिए यहां से जो दलित नेता खड़े होते हैं, वे अंततः सवर्णों की ही सुनते हैं और इलाके के सवर्ण भी जानते हैं कि जीत उसी की होगी, जो उनके लिए काम करेगा. इस तरह से हमें यह दिखायी देता है कि दलितों के लिए बोलने वाला भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में कोई नहीं है. दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी आत्मनिर्भर दलित राजनीति का उदाहरण है. लेकिन उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह अत्याचार के खिलाफ़ कुछ नहीं बोलती. लेकिन इस पार्टी के गठन के चरित्र को समझें, तो उसके संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने कहा था कि वह प्रतिक्रियावादी राजनीति में यकीन नहीं करते.क्योंकि अत्याचार के जवाब में हम प्रतिक्रिया देंगे, तो इससे सवर्ण मानसिकता को ही बल प्रदान होगा और हमारे अंदर एक सकारात्मक सोच विकसित नहीं हो पायेगी. इसलिए कांशीराम ने नॉन-एजिटेशनल विंग बनाई थी बामसेफ (ऑल इंडिया बैंकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लॉयज फेडरेशन). इसका उद्देश्य था अपनी संस्कृतिको जड़ों को ढूढ़ना और उनको विकसित करना. इसलिए दलित चेहरों- नारायण गुरु,ज्योतिबा फुले, पेरियार, ताऊजी महाराज, उत्तर प्रदेश के लखना पासी, बिजली पासी जैसों को पहचान देने की कवायद शुरू हुई. उस दौरान आंबेडकर मेले लगाने का प्रचलन शुरू हुआ, साइकिल यात्रा निकाली जाने लगीं. कांशीराम ने बड़ा नारा दिया 85 फीसद का. एक तरह से उन्होंने दलित राजनीति को बहुजन राजनीति में बदलने का काम किया. उनका कहना था कि जो प्राकृतिक रूप से बहिष्कृत, शोषित, उपेक्षित और हाशिये पर हैं, चाहे वह पिछड़ी जाति हो, अत्यंत पिछड़ी हों, दलित हों आदिवासी हों या अल्पसंख्यक हों, मनुवाद के सताए हैं और ये सब मिलकर 85 फीसद बनते हैं. ये मजलूम एकजुट हो जायें. मजलूमों की इस राजनीति को बाद में अलगाववाद और जातिवादी राजनीति कह दिया गया. लेकिन जाति अस्मिता के आधार पर किसी दूसरी जाति को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देना ही जातिवाद है. जो कि 85 फीसद की राजनीति में नहीं है और यह आंकड़ा बड़ा है, इसलिए अलगाववाद का प्रश्न ही नहीं उठ सकता. जरा समझिए कि मुझे सताया गया, है, बहिष्कृत और शोषित किया गया है और मैं कहूंगा कि इसके खिलाफ संघर्ष की मेरी प्रतिज्ञा है, तो यह जातिवादी राजनीति कैसे हो सकती है? संविधान में प्रदत्त अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करना जातिवाद कैसे हो सकता है? ऐसे में बहुजन समाज पार्टी ने जो किया है, वास्तव में वह प्रजातंत्र को नवीन आयाम देता है. उसके वोटर वंचित लोग हैं. वे कोई भी दिशा ले सकते हैं. उसने एहसास कराया कि दलित भी सत्ता ले सकते हैं. लेकिन उसकी राजनीति को सकारात्मक दृष्टि से देखने की बजाय उसके आंदोलन से सवर्ण मानसिकता वाले दल डरने लगे हैं. अब यही दल आंबेडकर की 125वीं जयंती मनाना चाहते हैं, जबकि इन्होंने उन्हें भुला दिया था. इसका मतलब यह है कि बसपा ने जिस तरह की राजनीति की, उसका प्रभाव इन पर पड़ा है. हालांकि, ये दल आंबेडकर या दलित चेहरों के नाम पर पुतले, पार्क, प्रतीक आदि में हुए खर्चों की आलोचना करते हैं. गौरतलब है कि दलितों की राजनीति वास्तव में विचारधारा की राजनीति है. और विचारधारा की राजनीति प्रतीकों से होती हैं. ये प्रतीक पार्क हो सकते हैं, मूर्तियां हो सकते हैं. आखिर गांधी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अब सरदार पटेल की मूर्तियों के आड़ में राजनीति होती रही है. अगर इनके प्रतीकों के नाम पर पार्क और मूर्तियां संभव हैं, तो फिर दलित प्रतीकों के नाम पर क्यों नहीं? धर्म को ही आधार मानें, तो नासिक में साल 2015 में होने जा रहे कुंभ के लिए करोड़ों के खर्च का प्रावधान किया गया है. हिंदू समाज की आस्था के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए जा सकते हैं, तो कुछ दलितों ने कुछ सौ करोड़ पहली बार खर्च कर ही लिया, तो क्या गलत हुआ? जहां तक रिटर्न्स का सवाल है, तो ये पार्क कई जगह खोले ही नहीं गये, जहां खुले हैं, वहां से रिटर्न्स मिल रहे हैं. दरअसल, जो भौतिक स्थान, जिनसे कभी दलित समाज को बहिष्कृत किया गया था, वहीं आज दलित चेहरों की मूर्तियां हैं, उन स्थानों का प्रजातांत्रिकरण हो गया है, उसे कोई सवर्ण समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है? चमरौती के लोग चौराहे पर आ रहे हैं, तो यह सामंती मानसिकता को नागवार गुजरती है. यही ज्ञानी और बुद्धिमान समाज की बेईमानी है, जो राजनीति में अधिक दिखती है.श्रुति मित्तल से हुई बातचीत के आधार पर .साभार -शुक्रवार

Thursday, September 3, 2015

कांग्रेस से भड़के मुलायम ने तोडा गठबंधन

कांग्रेस से भड़के मुलायम ने तोडा गठबंधन अंबरीश कुमार मुलायम सिंह ने सही समय पर राजनीति का दांव चला है .कुछ हो या न हो वे फिर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गये .कल तक उन्हें जिस जनता परिवार ने हाशिये पर रखा था एक फैसले के बाद आज शरद यादव शाम होते होते मुलायम के घर पहुंच गये बिहार के चुनावो से पहले ही मुलायम सिंह यादव और कांग्रेस के संबंध सामने आ चुके थे .लोकसभा सत्र में विपक्ष का चेहरा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का था जबकि एक बड़े गठबंधन के बावजूद मुलायम सिंह हाशिये पर थे .अंततः मुलायम ने बीच सत्र में यह भी कह दिया कि वे संसद में गतिरोध तोड़ने के पक्ष में है और वे कांग्रेस से अलग भी जा सकते है .इस विवाद के पीछे फिलहाल अगर कांग्रेस है तो उससे पहले जनता परिवार के घटक दल भी यह स्थिति पैदा कर चुके थे . परिवार और पार्टी के शीर्ष नेताओं के विरोध के बावजूद मुलायम ने जनता परिवार को एक करने की भूमिका निभाई .वे सफल भी हुये पर जनता परिवार के कई अन्य घटक दल जनता परिवार के घटक दलों के विलय के खिलाफ थे .यही वजह है कि विलय नहीं ही हुआ और एक मोर्चा बन गया .पर इस मोर्चे में भी अध्यक्ष भले मुलायम रहे हो पर उनकी चली कभी नहीं और अति तो तब हुई जब उन्हें बिना भरोसे में लिये समाजवादी पार्टी को पांच सीट और कांग्रेस को चालीस सीट दी गई .साफ़ था बिहार से जो राजनैतिक संदेश जाता उसका सारा श्रेय लालू नीतीश के साथ सोनिया को ज्यादा जाता मुलायम को नहीं .उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद विधान सभा का चुनाव है ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर जाकर वे देश के सबसे बड़े सूबे में मुकाबला नहीं कर सकते थे . आगे इसलिये आज उन्होंने यह फैसला किया .राम गोपाल यादव , शिवपाल यादव से लेकर अखिलेश यादव तक इस पक्ष में नहीं थे कि समाजवादी पार्टी का विलय इस गठबंधन में हो और जो राजनैतिक फसल उन्होंने सालों में तैयार की है उसे काटने के लिये दूसरे भी आ जाये .ऐसे माहौल में जनता परिवार के नेताओं की उपेक्षा के चलते पार्टी और परिवार दोनों का दबाव उनपर बढ़ा .यह एक आम, राय है कि यादव सिंह मामले में सीबीआई के चलते मोदी ने मुलायम पर दबाव बना रखा था .कांग्रेस से नाता तोड़ने के पीछे भी यह दबाव हो सकता है लेकिन मौजूदा राजनीति में मुलायम सिंह यादव के सामने कोई और चारा भी नहीं था .वे बिहार में हाशिये पर पहुंचा दिये गये थे और उत्तर प्रदेश में अगर अपनी स्थिति साफ़ नहीं करते तो आगे की राजनीति कठिन होती .दूसरा पहलू यह भी है कि जिस विकास के एजंडा को लेकर अखिलेश यादव आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे है उसमे केंद्र से बहुत ज्यादा टकराव कर आगे जाना मुश्किल है .यही स्थिति मोदी की भी है .वे संकट के दौर से गुजर रहे है .अर्थव्यवस्था के मोर्चे से लेकर राजनीति के मोर्चे पर भी .बिहार में प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है ऐसे में वे भी मुलायम से तार जोड़ कर कुछ फायदा लेने का प्रयास कर सकते है तो मुलायम भी बदले में विकास के एजंडा के लिये राज्य को मदद दिलाने का प्रयास करना चाहेंगे .राज्यपाल का विवाद अलग है और उससे भी मुलायम को निपटना है .यही वजह है वे बिहार में अगर जनता परिवार से नाता तोड़ रहे है तो बदले में उत्तर प्रदेश में भी कोई राजनैतिक फायदा देख रहे है .ध्यान से देखे भाजपा के नेताओं का सुर मुलायम को लेकर बदला हुआ है .और राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न दुश्मन .यह फिर साबित हो गया है .