Wednesday, September 27, 2017

बार नवापारा जंगल का डाक बंगला

अंबरीश कुमार बारह नवंबर की सुबह रायपुर के सर्किट हाउस में नाश्ता कर ही रहा था कि अनिल चौबे आ गये. सर्किट हाउस की कैटरिंग इंडियन काफी हाउस संभालता है इसलिये खानपान पर दक्षिण भारतीय असर ज्यादा रहता है. इडली डोसा का भारी नाश्ता किया क्योंकि दिन भर जंगल में रहना था. बारनवापारा वन्य जीव अभ्यारण्य के बीच जंगलात विभाग के उस डाक बंगले की फोटो लेनी थी जो करीब डेढ़ सौ साल पुराना है. उसी वजह से यह यात्रा कर रहा था. उसके बाद उदंती वन्य जीव अभ्यारण्य के तौरंगा डाक बंगले की तरफ जाना था. दरअसल उन डाक बंगलों पर एक काफी टेबल बुक का मन बना है जो सौ साल से ज्यादा पुराने हैं और जहां मैं रुक चुका हूं. पुराने सहयोगी पत्रकार राजकुमार सोनी से पहले ही कहा था कि इन दोनों जगहों पर जाना है इसलिए वे न सिर्फ साथ चलेंगे बल्कि इन जगहों पर ठहरने की व्यवस्था भी करा कर रखेंगे. यह इसलिए क्योंकि बरसात के बाद वन्य जीव अभ्यारण्य नवंबर के पहले हफ्ते में ही खुलते हैं और सैलानियों की भीड़ भी होती है. अगर पहले से बुकिंग न हो तो रात में रुकने में दिक्कत हो सकती है. हालांकि रायपुर में बारह तारीख को ही दिन में मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकात का समय तय था पर देर रात ही अनिल चौबे ने उसे आगे बढ़ा देने के लिए कह दिया था. खैर नोटबंदी के बाद का यह तीसरा दिन था और रायपुर एयरपोर्ट पर खुद अल्लू चौबे गाड़ी लेकर आ गये थे इसलिए दिक्कत नहीं हुई. दो हजार के कुछ नोट थे जिन्हें बचा कर रखे हुए था. काफी हाउस का बिल भी स्वाइप मशीन से चुकता किया. अब जंगल में तो यह सब चलने वाला नहीं था. सोनी को घर से लेकर महासमुंद की तरफ बढे तो सड़क बदली हुई नजर आयी. नवंबर के दूसरे हफ्ते में हलकी ठंड तो थी पर चढ़ते सूरज के साथ ठंड कम होती जा रही थी. शहर से निकलते ही मुझे लखौली में सिंचाई विभाग का वह डाक बंगला ध्यान आया जिसमें हर रविवार अपनी मंडली जुटती थी. ग्यारह की शाम रायपुर प्रेस क्लब ने खुद ही मेरी यात्रा संस्मरण पर आधारित पुस्तक घाट घाट का पानी का विमोचन कार्यक्रम रखा था. इस कार्यक्रम में राजकुमार सोनी ने भी इस डाक बंगले में उन दावतों का जिक्र किया जो मैं रायपुर में जनसत्ता का छतीसगढ़ संस्करण निकालने के बाद दिया करता था. उस मंडली में अपने बंगाली साथी प्रदीप मैत्र जो उन दिनों हिंदुस्तान टाइम्स के ब्यूरो चीफ हुआ करते थे वे तो रहते ही साथ ही ओडिशा के रहने वाले पीटीआई के प्रकाश होता भी जरुर होते. इनके अलावा कई और मित्र भी. छतीसगढ़ में ताल तालाब बहुत हैं और रोहू काफी होती है इसलिए हम सब भी इसके मुरीद थे. पर अल्लू चौबे ने बताया कि वह निकल चुका है. तभी फल बेचती एक महिला दिखी तो गाड़ी रुकवा ली. ताजे अमरुद और सेब ले लिए. दोनों एक ही भाव थे सौ रूपये किलो. दोपहर में कुछ न मिले तो इससे काम चल जायेगा यह सोच कर ले लिया था. गाड़ी से बाहर निकले तो हल्की ठंड का अहसास हुआ. यह नयी बनी चार लेन की सड़क मुंबई कोलकाता राजमार्ग संख्या छह थी जो ओडिशा के संबलपुर भुवनेश्वर होते हुए कोलकाता की तरफ जाती है. रायपुर से करीब सौ किलोमीटर दूर पिथौरा से हमें मुड़ना था. सड़क के दोनों और नये लगे पेड़ अब जंगल जैसे लगने लगे थे. पिछली बार जब इस वन्य जीव अभ्यारण्य में आया था तो बहुत कम पेड़ थे. जाहिर है कि ये बाद में लगाये गये थे. दूर तक जाते ये जंगल अच्छे लगते हैं. पिथौरा आया तो मुख्य सड़क से बारनवापारा अभ्यारण्य के लिये मुड़े ही थे कि गायों का झुंड सामने आ गया. कुछ देर बाद ही आगे बढ़ पाये. इस बीच सोनी से पूछा कि बारनवापारा के डाक बंगले में रुकने के लिए बुकिंग करा ली है तो बात कर उन्हें सूचित कर दें कि हम लोग घंटे भर में पहुंच जायेंगे. इसके आगे मोबाइल मिलना मुश्किल होगा. सोनी ने जंगलात विभाग के किसी अफसर से बात कर बताया कि वहां सूचना जा चुकी है. करीब आधे घंटे बाद हम बारनवापारा अभ्यारण्य के तेंदुआ द्वार तक पहुंच चुके थे. यहां से प्रवेश का परमिट मिलता. गेट पर पता चला कि उनके पास कोई संदेश भीतर के अतिथि गृह से नहीं आया है इसलिये परमिट नहीं मिलेगा. दूसरे यहां मोबाइल काम नहीं करता इसलिये रायपुर से किसी संपर्क भी नहीं हो सकता. गेट पर बैठे गार्ड को बताया गया कि हम लोगों की बुकिंग है पर वह सुनने को तैयार ही नहीं. खैर कुछ देर की जद्दोजहद के बाद प्रवेश मिला तो वहां नकद देना था और कोई स्वाइप मशीन भी नहीं. मेरे पास कुछ छुट्टा था इसलिए दिक्कत नहीं आयी. भीतर प्रवेश करते ही दोनों तरफ घने जंगल और बीच से सीधी गुजरती कच्ची सड़क थी. साल,सागौन, सरई, साजा, महुआ से लेकर हर्र बहेड़ा तक. यह घना जंगल था. हर कुछ दूरी पर बार अभ्यारण्य की दूरी दिखाते साइन बोर्ड लगे थे जिसपर हिरन, सांभर,चीतल से लेकर बाघ तक की फोटो लगी हुई थी. कुछ देर बाद ही हम बारनवापारा पर्यटक ग्राम के चीतल रेस्तरां पहुंच चुके थे. यह जंगल के बीच सैलानियों के ठहरने के लिए जंगलात विभाग का रिसार्ट था जिसे कुछ साल पहले ही बनाया गया था. इसमें काफी पर्यटक रुक सकते हैं और रेस्तरां में खाने का अच्छा इंतजाम है. कुछ देर में ही जंगलात विभाग के स्थानीय प्रभारी संजू निहलानी आ गये और उन्होंने बताया कि हम लोगों के रुकने की व्यवस्था का संदेश मिल चुका था पर संचार व्यवस्था गड़बड़ा जाने की वजह से गेट पर जानकारी नहीं दी जा सकी थी जिसके लिये खेद भी जताया. यह रिसार्ट निहलानी के दिमाग की ही उपज थी जिसे शुरू हुये तीन साल हुआ है . इस साल यह करीब चौहत्तर लाख रुपये की कमाई करने जा रहा है. इस परियोजना पर राज्य सरकार ने करीब पांच करोड़ खर्च किये थे जिसकी भरपाई इस साल ही हो जाने की उम्मीद है. यहां रौशनी की व्यवस्था सौर उर्जा से की गयी है इसलिए बिजली आने जाने की कोई समस्या नहीं है. काटेज काफी भव्य बनाये गये हैं और उनके चारों तरफ सजावटी पेड़ पौधे और फूल भी लगाये गये हैं. शाम होते ही पक्षियों और जानवरों की आवाज सुनाई पड़ने लगती हैं. पर्यटक ग्राम से हम खाना खाकर निकले तो फारेस्ट विभाग के डाक बंगले में पहुंच गये. इस डाक बंगले का दो साल पहले कायाकल्प किया गया है जिसके बाद यह अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है. इस डाक बंगले में करीब सौ साल पहले के उन अंग्रेज अफसरों का फोटो भी लगाया गया है जो मध्य प्रदेश के इस अंचल में तैनात थे. उनका ब्यौरा भी दिया गया है. इस डाक बंगले में करीब डेढ़ दशक पहले रुका था. दीपावली के ठीक बाद की बात है. चारों तरफ साल के सूखे पत्तों से घिरे इस डाक बंगले में डेक्कन हेरल्ड के साथी अमिताभ के और अपने परिवार के साथ देर शाम पहुंचा था क्योंकि जंगल के बीच से गुजरने वाली कच्ची सड़क बहुत ख़राब थी. तब आसपास कोई घर भी नहीं था. इस डाक बंगले में पहुंच कर बैठे ही थे कि एक बुजुर्ग खानसामा चाय लेकर हाजिर हो गया. उसने रात के खाने के बारे में पूछा तो उसे बता दिया गया. तीन बच्चे और चार वयस्क थे जिनमें ज्यादातर शुद्ध शाकाहारी. मुझे और अमिताभ को छोड़कर. तब यह डाक बंगला किसी पुरानी रहस्य रोमांच वाली फिल्म के सेट जैसा लग रहा था. डाक बंगला का वास्तुशिल्प भी देश भर में एक जैसा ही होता है. सामने बरामदा. भीतर जाते ही भोजन कक्ष जिसमें बैठने के लिए बड़े सोफे भी होते हैं और फायर प्लेस यह बताता है कि जाड़ों में इस जंगल में बिना आग तापे रहना मुश्किल होता है. इसी भोजन कक्ष से दो सूट अगल बगल जुड़े रहते हैं. रसोई करीब पचास फुट पीछे की तरफ होती है. सभी डाक बंगलों का वास्तुशिल्प ऐसा ही होता है चाहे उतराखंड का चकराता हो या फिर मध्य प्रदेश का बैतूल. उस दौर में इस डाक बंगले में लालटेन की रौशनी में बैठना पड़ा. पुराने ढंग का फर्नीचर और पलंग था. खिड़की के एक दो शीशे टूटे हुए थे जिनपर दफ्ती लगा कर रखा गया था. चौकीदार ने बता दिया था कि सावधानी बरतनी चाहिये क्योंकि जंगली जानवर के साथ सांप भी निकल आते हैं. कुछ समय पहले बरसात भी हो चुकी थी इसलिए सावधानी जरुरी थी. घने जंगल के बीच इस पुराने डाक बंगले में जानवरों की आवाज सुनाई पड़ रही थी. कुछ देर बाद हम सभी समय काटने के लिए पीछे बने रसोई घर में चले गये जहां खाना तैयार हो रहा था. लकड़ी से जलने वाले चार चूल्हों पर खाना बन रहा था. इस बीच एक आदिवासी महुआ की पहली धार वाली मदिरा ले आया जिसकी मांग अमिताभ ने की थी. उनका दावा था यह किसी भी स्काच से बेहतर होती है और आदिवासी इसी का नियमित सेवन करते हैं. मैं उस बुजुर्ग खानसामा दशरथ से बात करने लगा जो खड़े मसाले भून रहा था. भूनने के बाद उसे सिलबट्टे पर पीसना था. वह बताने लगा कि इस डाक बंगले से उसका संबंध साठ साल से ज्यादा का है. उसके पिता भी यहीं पर खानसामा थे. उस दौर में इस डाक बंगले की कई कहानियां सुनाई जाती थीं. अंग्रेजो के दौर में यह अफसरों का पसंदीदा शिकारगाह हुआ करता था. वे अफसर तीन चार दिन तक रहते और शिकार होता. तीतर बटेर ,जंगली मुर्गे ,हिरन से लेकर जंगली सूअर तक बनता. आजादी के बाद भी कई सालों तक शिकार होता रहा. यहां आना मुश्किल होता था इसलिए बहुत कम अफसर आते थे. अपने साजो सामान के साथ. इस जंगल में बहुत से पक्षी हैं. जंगली मुर्गा, पटकी, रगार, काला बगुला, किलकिला, ब्राह्मणी चील, लालमुनिया, हरेबा, गिद्ध, सिल्ही, अंधा बगुला, तीतर, बटेर, कठफोड़वा, किंगफिशर आदि. पर ज्यादातर जंगली मुर्गा ही इनके हत्थे चढ़ता. खैर अब न शिकारी रहे न शिकार की परम्परा. पर विकल्प में आसपास खासकर बफर जोन के गांवों से देसी मुर्गे आ जाते है. कान्हा वन्य जीव अभ्यारण्य में भी देसी मुर्गों का ज्यादा प्रचलन है और हर होटल या रिसार्ट में आसानी से उपलब्ध हो जाता है. अल्लू चौबे ने यहां भी उसका इंतजाम कर रखा था. पर रात में खाना खाने निकले तो एक बड़ा बिच्छू अनिल चौबे के पैर के नीचे आ गया. चप्पल पहने थे इसलिए बच गये. पर दहशत ऐसी की रसोई तक जाकर लौट आये. खाना कमरे पर ही देने को कह दिया. इससे पहले तीसरे पहर जंगल में निकले तो जिप्सी से इतने हिचकोले लगे कि बैठना मुश्किल हो गया. यह जंगल भी जंगल जैसा है. हर चार कदम पर जिप्सी के आसपास बड़ी मकड़ी का कोई न कोई जाला आ जाता. सूरज उतर रहा था. कही धूप कही छाया थी. जंगल के सामने के एक हिस्से में तालाब पर सूरज की रौशनी चमक रही थी. तालाब के एक तरफ घोस्ट ट्री यानी भुतहा पेड़ था. इस पेड़ की सुनहरी शाखायें पत्तियां गिरने के बाद भुतही नजर आती हैं, ऐसा साथ चल रहे फारेस्ट गार्ड ने बताया. सामने एक गोल पत्थर पर बैठी किंगफिशर की फोटो लेने के लिए कैमरा निकाला तो दोनों साथी फोटो खिंचने की मुद्रा में आ चुके थे. यह जंगल जानवरों से भरा हुआ है. इस तालाब पर शाम होते होते कई जानवर पानी पीने आते हैं. पर उस दिन कुछ परिंदों के अलावा कोई नजर नहीं आया. ये उनका सौभाग्य भले हो अपना तो दुर्भाग्य था. पर जंगल ने निराश नहीं किया. हिरन, चीतल और सांभर तो आसानी से दिखे पर रोमांचक रहा जंगली भालू और बायसन यानी जंगली भैंसा का दर्शन. जंगल से लौटते समय दो जंगली भालू दिखे जो दीमक खाने में इतने मशगूल थे कि सिर ऊपर ही नहीं कर रहे थे. जिप्सी को ज्यादा पास ले जाना ठीक नहीं था. फारेस्ट गार्ड ने चेतावनी दी कि इनके खाने में विघ्न डाला तो ये हमला कर सकते हैं. तबतक जंगल धुंध में डूबने लगा था. हम डाक बंगले में लौटे तो वह धुंध से घिरा हुआ था.

Friday, September 22, 2017

बेटियों से युद्ध नहीं संवाद करे सरकार

अंबरीश कुमार जेएनयू गया तो दिल्ली विश्विद्यालय भी नहीं बचा .अब यूपी के छात्रों से टकराव ठीक नहीं .आज तो मोदी आरती के लिए निकले तो रूट बदलना पड़ा .क्योंकि रास्ते में ये बेटियां खड़ी थी .बता रहे है कि नवरात्र में इन बेटियों पर लाठी चली है . बनारस हिंदू विश्विद्यालय की एक फोटो आई है .छात्राओं के आंदोलन से निपटने के लिए पुलिस के साथ सुरक्षा बल का वह दस्ता लगाया गया है जो दंगो से निपटता है .ये छात्राएं भी तो वही बेटियां हैं जिनके बचाने का नारा सरकार के शीर्ष पर बैठे नेता दे रहे हैं .बनारस तो देश के सबसे बड़े चौकीदार का राजनैतिक घर है .अब चौकीदार के घर में भी बेटियां सुरक्षित नहीं रहेंगी तो कहां रहेंगी .कल एक बेटी के साथ छेड़खानी हुई और एक बडबोले और बौड़म कुलपति के चलते छात्राओं को ही छात्रावास में कैद कर दिया गया .छात्राओं ने विरोध शुरू किया तो दबाने के लिए दंगा निपटाने वाले जवानो को आगे कर दिया गया .आप सोच कर देखे कि आपकी बहन बेटी घर से दूर छात्रावास में रह रही हो और कोई लंपट उसके साथ छेड़खानी करे तो किससे कार्रवाई की अपेक्षा रखेंगे . साफ़ है विश्विद्यालय प्रशासन से .और जब प्रशासन ही इन बेटियों की आवाज दबाने में जुट जाए तो कौन खड़ा होगा .प्रदेश की यह सरकार जब सत्ता आई थी तो एक एंटी रोमियो स्क्वायड बना कर पुलिस वालों को एक साथ जा रहे लड़की और लड़के को प्रताड़ित करने का हथियार दे दिया गया था .भाई बहन तक थाने में बैठाए गए तो पति पत्नी तक को नहीं छोड़ा .जब एकाध अफसर नेता के परिजन भी फंसे तो यह कवायद बंद हो गई .किसी भी जिले में चले जाएं अगर किसी लड़की महिला से छेड़खानी या बलात्कार का कोई मामला आएगा तो पहला प्रयास यह होगा कि लड़की वाले को थाने से ही बिना शिकायत लिखे भगा दिया जाए .और बलात्कारी बड़े घर का हुआ तो पैसे लेकर मामला रफा दफा कर दिया जाए .यह पुलिसिया चरित्र है .यह कोई योगी सरकार में नहीं बना सभी सरकार में रहा .पर यह तो संस्कार वाली सरकार है ,कुछ तो नई पहल करे कि लड़की सुरक्षित रहे .और जब कोई घटना घटे तो जल्द से जल्द और प्रभावी कार्यवाई हो .क्या यह बेहतर नहीं होता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कम से कम अपने निर्वाचन क्षेत्र में हुई इस घटना की जानकारी लेकर खुद कोई पहल करते .इससे उनका कद ही बढ़ता .विश्विद्यालय से लेकर जिला प्रशासन तक तो जिस लीपापोती में लगा हुआ है उससे लोगों का आक्रोश बढ़ रहा है . यह सिर्फ बनारस हिंदू विश्विद्यालय का मामला नहीं है .लखनऊ विश्विद्यालय से लेकर इलाहाबाद विश्विद्यालय तक में छात्राओं को किस तरह दबाया जा रहा है .लखनऊ विश्विद्यालय में छात्रा पूजा शुक्ल को जेल भेज दिया गया .और बडबोला प्राक्टर इस बहाने दूसरों को धमकाने में जुट गया .इलाहाबाद में ऋचा सिंह को किस तरह प्रताड़ित किया गया यह सभी ने देखा है .क्या इस सबसे यह छात्राएं दब जाएंगी .यह संभव नहीं है .हम लोग आंदोलन में रहे है ,देखा है .छात्रों को दबाकर कोई प्रशासन जीत नहीं पाता .लाठी गोली के बाद जेल भी छात्र जाते रहे और लड़ते रहे .इसलिए सरकार इन बेटियों से युद्ध न करे ,संवाद करे .एक परिसर में माहौल ख़राब हुआ तो दूसरा भी नहीं बचेगा .जेएनयू गया तो दिल्ली विश्विद्यालय भी नहीं बचा .अब यूपी के छात्रों से टकराव ठीक नहीं .आज तो मोदी आरती के लिए निकले तो रूट बदलना पड़ा .क्योंकि रास्ते में ये बेटियां खड़ी थी .बता रहे है कि नवरात्र में इन बेटियों पर लाठी चली है .

Wednesday, September 6, 2017

सोशल मीडिया के ये अघोरी !

अंबरीश कुमार सोशल मीडिया में तरह तरह के तत्व पहले से हैं .कुछ पेड हैं तो कुछ अनपेड है .कुछ वेतनभोगी हैं तो कुछ शौकिया भिड़ते है .इन्हें अंग्रेजी में लोग ट्रोल कहते हैं पर अपनी भाषा में ये लंपट किस्म के कार्यकर्त्ता हैं .छवि निर्माण के साथ सामने वाले की छवि ध्वस्त करने के लिए इनका इस्तेमाल राष्ट्रवादी के मौजूदा नेतृत्व ने शुरू किया था .पहले इस प्रकार की कवायद राजनैतिक विरोधियों को निपटाने के लिए नहीं होती थी .पर बहुत कम .भाजपा तो पुरानी पार्टी है .हम जैसे पत्रकार तीन दशक से इसे कवर करते रहे हैं .बहुत से मित्र भी इस पार्टी में हैं .पर वे तो ऐसे नहीं थे .पार्टी ही बदल रही है .याद आता है नारा ,भाजपा के तीन धरोहर -अटल ,आडवाणी और मुरली मनोहर .अब न ये नारा रहा न ये नेता धरोहर रहे .ये सब शीर्ष नेता निपटा दिए गए हैं .जब कोई नेतृत्व अपनी ही विरासत को निपटा दे तो उसके लिए क्या समाज ,क्या मीडिया और क्या लेखक होंगे .जो विरोध करे उसका चरित्र हनन करो और खत्म करो .यह नई राजनीति है .दीन दयाल उपाध्याय के विचार वाली उस पार्टी की जिसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी का सम्मान समूचा विपक्ष करता था .उनका एक जरुरी आपरेशन होना था तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जुगत जुगाड़ से इन्हें विदेश भिजवाया ताकि वे स्वस्थ हो सके .यह राजनैतिक शिष्टाचार का दौर हम लोगों ने देखा है . और अब देखिए इसी धारा के बेलगाम अघोरी एक पत्रकार की हत्या के बाद उसके चरित्र का पोस्ट मार्टम कर रहे है .तरह तरह के मूर्खतापूर्ण कुतर्क और सवाल ये उठा रहे है .प्रेस क्लब में एक बैठक हुई जिसमे राजनातिक दल के लोग भी आ गए .वे भी इस समाज के हैं .हत्या पर विरोध जताना चाहते थे आए .सभी जगह यह होता है .और सिर्फ एक पार्टी का चश्मा लगाने वाली जमात बोल रही है इसे राजनीति से दूर रखों .राजनीति अभी भी इतनी ख़राब नहीं हुई है जितने सोशल मीडिया के चंद अघोरी समाज को खराब क्र रहे हैं .इनकी भाषा देखिए ,इनकी गालियां देखिए इनकी पोस्ट देखिए .क्या इसे ये अपने भाई बहन ,पुत्र पुत्री के साथ शेयर कर सकते हैं .एकाध मेरी सूची में भी है पर सब अराजनैतिक फ्रीलांस किस्म के लोग .संघ के ,भाजपा के कई मित्र हैं पर इस तरह की बेहूदी टिपण्णी वे नहीं करते जैसे कुछ कर रहे हैं .मैंने अपने एक संघी साथी से पूछा तो बोले ,ये कुछ आईटी सेल के अप्रशिक्षित .अराजनैतिक लोग है .इनका पार्टी की विचारधारा से कुछ नहीं लेना .पर इनका किया धिया सब पार्टी के ही खाते में जा रहा है .जब आप किसी की हत्या पर जश्न मनाने लगे तो ,किसी की हत्या के बाद उसपर सवाल उठाने लगे तो आपकी सोच साफ़ हो जाती है .सत्ता पक्ष के साथ खड़े हो ,उनकी चापलूसी भी करे ठीक है वह आपकी नौकरी का हिस्सा है .पर समाज के प्रति भी आपकी कुछ जिम्मेदारी है .समाज को बनाया जाता है बिगाड़ा नहीं जाता .क्या यह समाज सिर्फ गाय ,गो मूत्र और गोबर की रक्षा से ही आगे बढेगा .आज देश की सर्वोच्च अदालत को तथाकथित गो रक्षकों की गुंडागर्दी पर कार्यवाई के लिए अगर निर्देश देना पड़ा है तो चेत जाइए .अगला नंबर सोशल मीडिया के अघोरियों का भी होगा .बेहतर हो इन्हें आप पहचान ले .