Tuesday, February 28, 2017

कालीकट का समुद्र तट

अंबरीश कुमार अभी अभी अख़बार में सोनल मान सिंह का एक लेख पढ़ा तो उनसे हुई पुरानी मुलाक़ात याद आ गई .कालीकट भी याद आया और उमेश सिंह चौहान साहब भी .यही वह शहर है जहां पुर्तगाल से आकर वास्को डी गामा उतरा था .देश में पुर्तगालियों का प्रवेश द्वार .फोटो में वह समुद्र तट भी है तो वास्को का स्मारक भी . नब्बे के दशक की बात है .कालीकट महोत्सव देखने के लिए चेन्नई से कालीकट पहुंचे थे ट्रेन से .सुबह के पांच बजे थे .विश्विद्यालय के पुराने साथी और कालीकट के कलेक्टर चौहान साहब स्टेशन आए थे .नई जगह थी इसलिए उनके आने से सुविधा हो गई .बताया कि वे घंटे भर भर पहले आए थे फिल्म अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्रि को लेने .वे ही आयोजक थे इसलिए दौड़ धूप भी कर रहे थे .शहर के बीच का होटल था नाम संभवतः मालाबार पैलेस था .लाबी में प्रवेश करते ही पानी के पुराने जहाज का बड़ा सा माडल रखा हुआ था .आकाश के लिए यह अजूबा सा था इसलिए वहां से हटा तो विशाल एक्युरियम में शार्क मछली देखने लगा .हम लोग ऊपर की दूसरी मंजिल पर रुके हुए थे .बगल में नौशाद ,नृत्यांगना सोनल मानसिंह और मीनाक्षी शेषाद्रि भी .नौशाद से यही शाम को मुलाकात हुई .लखनऊ से लेकर मुंबई के किस्से सुनाने लगे .अच्छा लगा उनसे मिल कर .फिल्म ,साहित्य और संगीत नृत्य के क्षेत्र में अपनी कोई खास जानकारी नहीं रही है .आम दर्शक की तरह ऐसे मशहूर लोगों से मिलकर अच्छा लगता है . रात को बताया गया कि डिनर सोनल मान सिंह के साथ नीचे रेस्तरां में है .हम कुछ मिनट पहले पहुंच गए थे .कुछ देर में सोनल मानसिंह भी आई .परिचय पहले ही हो चुका था .उन्होंने सरसों में बनी मछली और चावल मंगाया .बताया कि कई घंटे की मेहनत के बाद उनका प्रिय भोजन यही होता है .सविता उनसे नृत्य की शुरुआत के बारे में देर तक बात करती रही .कई घंटे तक रियाज करना फिर कार्यक्रम .यह कार्यक्रम समुद्र तट पर था जिसकी रिपोर्ट भी जनसत्ता मे दी थी हालांकि नृत्य संगीत के कार्यक्रम के बारे में पहले कभी लिखा नहीं था .इस दौरे में ही वह समद्र तट देखा जहां पुर्तगाल से आकर वास्को उतरा था .वह अकेले नहीं आया एक संस्कृति के साथ आया जिसने तटीय इलाकों में बहुत कुछ बदल दिया .खानपान ,वास्तुशिल्प से लेकर रीति रिवाज तक . गोवा उदाहरण है .

Sunday, February 12, 2017

कोई काम न हो तो उपन्यास लिखे

उज्जवल भट्टाचार्य उपन्यास लिखने के लिये सबसे ज़रूरी बात यह है कि आपके पास कोई क़ायदे का काम-धाम न हो, और आप ऐसी बेकार बातों के लिये अपना वक़्त ज़ाया कर सकें. लेकिन इतना काफ़ी नहीं है. उपन्यास लिखने का फ़ैसला करने के तुरंत बाद एक नाम ढूंढ़ना पड़ता है. आप कोई नाम चुन सकते हैं, मसलन हेमा मालिनी. प्रकाशक अपनी ग़लतफ़हमी के चलते उसे छाप देगा, पाठक कुछ और सोचकर उसे ख़रीद लेगा, और सबसे बड़ी बात कि गूगल में खोजने वाले बिना चाहे आपके उपन्यास की ओर भटक जायेंगे, और जो लोग गूगल में एंट्री के आधार पर किताब खरीदने का फ़ैसला करते हैं – मसलन पुस्तकालयों के अधिकारी – उनके बीच आपके अच्छे अवसर होंगे. या कुछ इस किस्म का नाम हो सकता है - भरी टोकरी के नीचे. आप संस्कृत नाम भी रख सकते हैं - उदाहरण के लिये अंतर्यापन या भीष्मायमान. इसके बाद आपको विषय ढूंढ़ना पड़ेगा. विषय तीन तरीक़े से ढूंढ़े जा सकते हैं : आप शुरू में अपना विषय तय कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर आप तय कर सकते हैं कि आप सापेक्ष मौलिकतावाद पर एक उपन्यास लिखना चाहते हैं. या फिर लिखते-लिखते आप का विषय बन सकता है. मसलन उपन्यास तैयार हो जाने के बाद आप पा सकते हैं कि यह जादुई भौतिकतावाद का विमर्श हो चुका है. तीसरा तरीका यह है कि न तो शुरू में और न ही आखिर में कोई विषय हो, भले ही आपका उपन्यास तैयार हो जाय. हर हालत में आपके दो तरह के मित्र होने चाहिये. कुछ ऐसे, जो आपके उपन्यास को एक सशक्त हस्ताक्षर, वर्तमान दौर की एक उल्लेखनीय घटना या क्लासिकीय आयाम का नव उन्मेषवाद कहें, और दो-तीन ऐसे जो कड़ी भाषा में सिर्फ़ उपन्यास की निंदा ही न करें, बल्कि आपको व्यक्तिगत रूप से भारी-भरकम गाली-गलौजों से नवाज़ें. दूसरी किस्म के मित्र ज़्यादा ज़रूरी हैं, उनके बिना कोई उपन्यास सफल नहीं हो सकता. परंपरागत पाठकों और ऋषि-मुनि हो चुके आलोचकों की ख़ातिर उपन्यास में कुछ विवादास्पद मुद्दे भी होने चाहिये. ज़ाहिर है कि आपके उपन्यास के एक बड़े हिस्से में दर्शन शास्त्र के लेक्चर होंगे, पर उनसे यह उम्मीद मत रखिये कि वे आपके उपन्यास को विवादास्पद होने में मदद करेंगे. पाठक हो या आलोचक, कोई भी उन्हें नहीं पढ़ेगा. प्रकाशक सिर्फ़ इतना पूछेगा कि कितनी पर्सेंट फिलासफी है. अगर वह 35 पर्सेंट से ज़्यादा हो, तो सीधे-सीधे कह देगा : दो-तीन पर्सेंट घटा दीजिये, उसकी जगह बेडरुम वाले सीन को लंबा कर दीजिये. उपन्यास की सफलता के लिये ज़रूरी है कि उसमें एक-तिहाई चटखारी बातें हो, एक-तिहाई समझ में न आने वाली बातें हों, और शेष एक-तिहाई उन शब्दों से भर दिये जायं, जो लिखते समय दिमाग में आते हों. अगर कोई शब्द न आये, तो उसकी जगह कोई दूसरा शब्द लिख दीजिये. अगर वह पाठक की समझ में न आवे तो यह आपकी ख़ुशकिस्मती है, वह इसे एक सारगर्भित रचना मानेगा. समय का मैनेजमेंट उपन्यास लेखन के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात है. आप लिखेंगे, प्रकाशक फ़ैसला लेने के लिये थोड़ा समय लेगा, छापने व मार्केटिंग की व्यवस्था के लिये थोड़ा समय चाहिये, इस दौरान प्रकाशक आपसे कुछ व्यक्तिगत योगदान की भी उम्मीद रखेगा – मसलन अगर आप जालसाज़ी के मुकदमे में दो-चार महीनों के लिये जेल घूम आते हैं, तो उपन्यास का दूसरा संस्करण 6 महीनों के अंदर ही निकल सकता है. अगर कुछ न हो तो एक गंदा सा डाइवोर्स भी मददगार हो सकता है, आये दिन अखबारों में जिसकी चर्चा हो. इन सबके बाद आपका उपन्यास बिल्कुल ऐसे समय में छपकर बाहर आना चाहिये, जब सात-आठ दिनों के अंदर पुस्तक मेला शुरू होने वाला हो. किताब छपने से पहले आलोचकों को समय पर उसकी ख़बर भी देनी पड़ती है, ताकि बाज़ार में आने के एक दिन बाद से ही वे इस उपन्यास के बारे में अपनी गहन वैचारिक टिप्पणियां दे सकें. इस समय सारिणी का ख़्याल न रख पाने के कारण दोस्तोयेव्स्की या वैन गॉग जैसे लेखक ज़िंदगीभर ग़रीब रह गये. वैन गॉग बेचारे की तो कोई भी किताब आजतक नहीं छप पाई. उपन्यास का आकार लगभग तीन से चार सौ पृष्ठों तक का होना चाहिये. इससे कम हो सकता है, लेकिन उस हालत में यह ख़तरा मौजूद रहता है कि प्रकाशक का संपादक उसे पढ़ने की हिम्मत कर ले और आपका उपन्यास छपने से रह जाय. अगर उपन्यास चार सौ पृष्ठों से अधिक का हो, तो छपाई में कागज़ ज़्यादा बरबाद होगा, प्रकाशक का नुकसान हो जाएगा. इसलिये काफ़ी संभावना है कि वह इसे छापने से इंकार कर दे. किसी भी हालत में प्रकाशन से पहले उसके अंश किसी पत्रिका को छापने के लिये न दें. इससे आपके भावी उपन्यास की छवि ख़राब हो सकती है. उपन्यास छपने से पहले आपको इन बातों का ध्यान रखना पड़ेगा : - दो-तीन टीवी जर्नलिस्टों को बीच-बीच में दारू पिलाते रहिये, ताकि वक्त पर वे अपने पर्दे पर आपके उपन्यास की चर्चा करें. अगर वे उसे विवादास्पद घोषित कर सकें, फिर तो आपको चर्चित, यानी महान लेखक बनने से कोई नहीं रोक सकता. उस हालत में मुहल्ले के कुछ लड़कों को बहलाकर अपने घर के सामने प्रदर्शन और तोड़फोड़ करवा दीजिये. - फ़िल्म जगत के एक-आध परिचित को फ़ांसकर यह अफ़वाह फैला दीजिये के आपके उपन्यास पर एक फ़िल्म बनाई जाने वाली है. खुद प्रकाशक से यह बात मत कहिये, बल्कि किसी से कहलवा दीजिये. अगर प्रकाशक आपसे पूछे, तो कहिये कि अभी इस पर बात करना ठीक नहीं होगा. - उपन्यास के प्रकाशन से 6 माह पहले से ही सार्वजनिक रूप से दोस्तों के साथ दारू पीना बंद कर दीजिये, ताकि यह अफ़वाह फैल जाय कि आप इन दिनों रचनाकर्म में व्यस्त हैं और आपका उपन्यास आने वाला है. बस समझ लीजिये कि आपका उपन्यास सफल हो गया. अब सिर्फ़ लिख डालने की देर है.