Friday, August 31, 2012

मुंबई में विरोध नहीं -आनन्द पटवर्धन

अंबरीश कुमार
जाने माने फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन के बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्मे सेंसर बोर्ड नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट रिलीज करता है ,यह सुनकर आनंद पटवर्धन ने सफाई देते हुए कहा -'जय भीम कामरेड ' के साथ ऐसा नहीं हुआ और कई तरह के दबाव के चलते इसे सेंसर बोर्ड ने ही पास कर दिया । मराठी में बनी 'जय भीम कामरेड ' को हिंदी में डब कर उसका एक शो लखनऊ के उमानाथ बली प्रेक्षागृह में किया गया । शो के बाद आनन्द पटवर्धन के साथ बातचीत के अंश - इस फिल्म की महाराष्ट्र के दलितों में कैसी प्रतिक्रिया हुई ? -बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया देखने को मिली । यह फिल्म दलितों के दमन और शोषण के साथ सांस्कृतिक आन्दोलन पर फोकस है । वैसे भी यह फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है जो सन् 1997 में महाराष्ट्र में हुए 10 दलितों की हत्या के बाद के हालात पर आधारित है। यह फिल्म तीन घंटे बीस मिनट की है और इसके बावजूद मुंबई की दलित बस्तियों में लोगों ने इसे खड़े होकर देखा । अगर कुर्सियां लगाईं जाती तो एक कुर्सी का भाडा दस रुपए पड़ता जो उनके लिए किसी फिल्म देखने के लिए संभव नहीं था । फिल्म में कई जगह सवाल उठते और कुछ अधूरापन सा दिखता है -मै जब फिल्म बनता हूँ तो लिखकर नही बनाता हूँ । दूसरे मै फिक्शन नही डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता हूँ । हो सकता है कि फिल्म को एक बार देखने से बहुत सी बाते समझ मी ना आ पाए । बहुत सी बातों को मैंने अंडरलाइन भी नहीं किया है । फिल्म में दलित आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का अंतर्विरोध भी दिखाई पड़ता है ? इस फिल्म में एक दलित शायर जो मार्क्सवादी है वह जब आत्महत्या करता है तो उसके सिर पर लाल नहीं नीली पट्टी लिपटी होती है । यह बहुत कुछ बताती है । वह लेफ्ट मूवमेंट से भी बाहर कर दिया जाता है । वामपंथियों के नेतृत्व में भी कास्ट का सुपर स्ट्रक्चर नजर आता है । आपकी राजनैतिक धारा क्या है ? मेरी राजनीति मेरी फिल्मो में दिखती है । मै कभी किसी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं रहा । इसकी एक वजह यह भी है कि मै किसी पार्टी के अनुशासन से बंध कर नहीं रह सकता । यह मेरी कमजोरी है । मेरी फिल्मों का इस्तेमाल कोई भी दल कर सकता है । जिस तरह दलितों का सवाल आपने उठाया है उससे आपका मुंबई में विरोध नहीं होता ? नही ,क्योकि मेरा समर्थन बहुत लोग करते है । वैसे भी हर दल को दलित वोटों की जरुरत होती है उनकी विचारधारा चाहे जैसी हो । इस फिल्म की पृष्ठभूमि में दलित आंदोलन का भी असर रहा ? करीब डेढ़ दशक से मै सब देख भी रहा हूँ । महाराष्ट्र में दलित उत्पीडन का पुराना इतिहास है और उनका यह आंदोलन एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी उभरा है । दूसरे आम जनता और नेता के बीच विभाजन बढ़ा है । जनता यह मान रही है कि नेता बिक चूका है । इस फिल्म में भी मैंने नेताओं का सिर्फ भाषण लिया है जो बदलता रहता है । दलित आंदोलन में लोक संस्कृति का भी असर दिखा है खास कर इस फिल्म में कबीर कला मंच के कार्यक्रमों को देख कर ? हा, दलित आंदोलन को उभारने में महाराष्ट्र की लोक संस्कृति का काफी असर पड़ा है और इसने लोगों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । किस तरह की फिल्मे बनाई है ? पिछले तीन दशक से फिल्में बना रहा हूं जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक से हुई । जयप्रकाश आंदोलन के दौर से जो शुरुआत हुई वह आगे बढ़ती गई । सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई जा चुकी हैं। आपकी फिल्मो का अर्थशास्त्र क्या है ,क्या ऎसी फिल्मो की लागत निकल आती है ? देर सबेर हर फिल्म अपनी लागत भी निकल देती है और कुछ मिल भी जाता है । ज्यादातर फिल्मो को पुरुस्कार मिल चुका है और दूरदर्शन को ऎसी फिल्मो के लिए आधे घंटे के हिसाब से डेढ़ लाख का भुगतान करना पड़ता है जिससे काफी कुछ निकल आता है । हालाँकि इसके लिए भी बहुत लड़ना पड़ता है । इसके अलावा फिल्मो की सीडी से भी कुछ पैसा आ जाता है ।हमने यह भी देखा कि अगर मै थियेटर में प्रदर्शन करूँ तो लोगों से पैसा मिल सकता है ।यह प्रयोग मैंने किया और लोग बड़ी संख्या में मेरी फिल्म देखने आए । इसलिए यह नहीं माना जाना चाहिए कि इन डाक्यूमेंट्री फिल्मो से नुकसान होता है । पर कभी मुख्यधारा की फिल्म बनाने का ख्याल नही आया ? उसके लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। फाइनेंसर से लेकर और भी कई तरह की जरुरत पूरी करने में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।हमारी अपनी सीमाएं हैं। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं समाज का यथार्थ दिखाता हूँ जिसमे नेताओं का कहा होता है । virodh

Wednesday, August 29, 2012

अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी

अंबरीश कुमार लखनऊ ,अगस्त।राहुल गाँधी फिर उत्तर प्रदेश से बड़ा दांव लगाने जा रहे है । प्रदेश के पिछले चुनाव में उनके सामने अखिलेश यादव जैसा युवा चेहरा बड़ी चुनौती बना था पर देश के चुनाव में राहुल गाँधी को चुनौती देने वाला कोई युवा चेहरा नहीं है यह भी सच है । लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश फिर से संघर्ष का मैदान बनेगा और इसकी तैयारी कांग्रेस ने शुरू कर दी है । राजनीति में समाजवादी संत के रूप में मशहूर आचार्य नरेंद्र देव की तीसरी पीढी के सौम्य छवि वाले अयोध्या -फ़ैजाबाद के सांसद निर्मल खत्री को उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने एक नया सन्देश देने का प्रयास किया है । देश के मौजूदा हालात को देखते हुए कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव में राहुल गाँधी बनाम नरेंद्र मोदी का मुकाबला दिखाकर मुस्लिम मतदाताओं को लामबंद कर सकती है । इस हालात में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बड़ा फायदा भले ना हो पर दूसरे राज्यों में कांग्रेस का समर्थन बढ़ सकता है । खांटी समाजवादी और कांग्रेस के बडबोले काबीना मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा यह कह चुके है कि अगला चुनाव राहुल और मोदी की बीच होना है । अगर मुकाबला राहुल बनाम मोदी हुआ तो उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस कुछ बेहतर कर दिखा सकती है ऐसा राजनीति के जानकारों का मानना है । हालाँकि भाजपा अभी इसपर कुछ बोलने को तैयार नहीं है क्योकि उसे गुजरात चुनाव के नतीजों का इंतजार है । गुजरात विधान सभा का चुनाव मोदी का आगे का रास्ता तय करेगा । पर मोदी को लेकर न भाजपा गंभीर है और न कांग्रेस ,यह भी रोचक तथ्य है । भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा -भाजपा में प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार तय नही किया गया है और हमारे यहाँ चार पांच नेता इस पद के लायक है । जबकि कांग्रेस प्रवक्ता वीरेंद्र मदान ने कहा -आप बहुत गलत तुलना कर रहे है । मोदी एक फिरकापरस्त दल के क्षेत्रीय नेता है जबकि राहुल गाँधी राष्ट्रीय दल के राष्ट्रीय नेता है जिसके मुकाबले में कोई नहीं है । पार्टी आलाकमान उत्तर प्रदेश के लिए नई रणनीति बना रहा है और राहुल गाँधी जल्द ही पूरी ताकत की साथ प्रदेश में फिर उसी तेवर में नजर आएंगे ।दूसरी तरफ राजनैतिक विश्लेषक वीरेंद्र नाथ भट्ट के मुताबिक अगर लोकसभा चुनाव राहुल बनाम मोदी हुआ तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को ज्यादा फायदा होगा पर दूसरे राज्यों में कांग्रेस भारी पड़ेगी । दूसरे यह मुद्दा उठते ही महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा हाशिए पर जा सकता है । हालाँकि उत्तर प्रदेश में राहुल गाँधी के लिए रास्ता बहुत आसन नही है । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपनी सरकार के छह महीने पूरे होने के साथ ही गाँव ,किसान और नौजवान के लिए कई ठोस पहल करने जा रहे है । जिसमे किसानो को बिजली से लेकर नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता आदि शामिल है ।समाजवादी पार्टी भी लोकसभा चुनाव की तैयारी में है । सूत्रों की मुताबिक पार्टी नेतृत्व वामपंथी नेताओं से संवाद शुरू कर रहा है और तीसरे विकल्प के लिए नई जमीन तैयार करने की भी कवायद चल रही है । पर इसके लिए समाजवादी पार्टी को लोकसभा में अपनी ताकत बढ़ानी होगी । पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -लोकसभा में हम तीन चौथाई सीटे जीतेंगे और मुलायम सिंह केंद्र में बड़ी भूमिका निभाएंगे ।ऐसे में कांग्रेस के लिए खासकर राहुल गाँधी के लिए उत्तर प्रदेश चुनौती भी है ।jansatta

Sunday, August 26, 2012

दलितवादी नजरिए से मार्क्सवाद को देखती 'जयभीम कामरेड' ?

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २६ अगस्त । देश में दलितों के उत्पीडन और शोषण के बावजूद सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना उभर रही है और कई जगह प्रतिरोध के लिए लामबंद भी हो रहे है । यह बात मशहूर फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन की हिंदी में डब की गई मराठी डाक्यूमेंट्री फिल्म ' जय भीम कामरेड ' का उत्तर प्रदेश में पाहले प्रदर्शन के बाद हुए संवाद में उभर कर आई । राजनैतिक कार्यकर्त्ता ,रंगकर्मी ,साहित्यकार छात्र ,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सवालों से घिरे आनंद पटवर्धन ने एक सवाल के जवाब में कहा -मेरी फिल्मे ही मेरी पालटिक्स है । ' महाराष्ट्र में दलितों के साथ होने वाले जातीय भेदभाव , शोषण और उनमे उभर रही सांस्कृतिक चेतना को दर्शाने वाली इस फिल्म में आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के अंतरविरोधो पर भी रौशनी डाली गई है । इस मौके पर उत्तर प्रदेश के दलित चिंतको और नेताओं ने कहा यह फिल्म आत्ममंथन के लिए मजबूर करती है । यह डाक्यूमेंट्री सनतकदा और अमन ट्रस्ट की तरफ से हुए दो दिन के फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई थी । इस डाक्यूमेंट्री को लेकर उमानाथ बली प्रेक्षागृह में जो संवाद हुआ उसमे राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कौशल किशोर ने कहा -जिस तरह महाराष्ट्र के दलितों के बारे में इस डाक्यूमेंट्री में दिखाया गया है ठीक वैसे हालत से हम लोग भी यहाँ गुजर चुके है । इस राजधानी लखनऊ की सीमा में ही एक दलित युवती के साथ सिर्फ इसलिए बलात्कार किया जाता है क्योकि दातून बेचने वाला उसका पिता अपनी बेटी के विवाह की तैयारी कर रहा था और गाँव के दबंगों को यह नागवार गुजरा की किसी दलित के घर बारात आए आर लोग कुर्सी मेज पर बैठ कर खाना खाए । उन्होंने आदेश दिया कि लड़के घर जाकर विवाह करे यहाँ बारात नहीं आएगी । जब वह नहीं माना तो उसक बेटी के साथ बलात्कार कर उसे सबक सीखाया गया । पर अब इतनी राजनैतिक चेतना आ चुकी है कि वहा दलित भी अगड़ों के साथ बराबरी कर रहा है । रंगकर्मी राकेश ने कहा कि हम इसे महज एक डाक्यूमेंट्री मानने को तैयार नहीं है । हम चाहते है कि इसे बाकायदा फीचर फिल्म की तरह रलीज किया जाए और हम इसमे मदद को भी तैयार है । राजनैतिक विशेषक अजय सिंह ने कहा -यह जो फिल्म है वह रैडिकल अम्बेदारवादी एकजुटता की वकालत करती है और दलितवादी निगाह से मार्क्सवाद व वामपंथ को देखती समझती है ।यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है जो वैचारिक रूप से बहसतलब है आनद पटवर्धन ने मुझे बताया था कि वे गाँधीवाद और मार्क्सवाद के बीच झूलते रहते है हूँ जो इस फिल्म में नजर भी आता है । इस फिल्म में पटवर्धन ने आंबेडकर के बौद्ध ग्रहण करने के सन्दर्भ में यह सवाल नहीं पूछा कि उन्होंने इस्लाम धर्म क्यों नहीं कबूल किया । दलित चिंतक एसआर दारापुरी ने महाराष्ट्र का सन्दर्भ देते हुए पूछा कि सांस्कृतिक चेतना तो बढ़ी पर वह किसी राजनैतिक ताकत में बदलती नजर नही आई । रंगकर्मी राकेश ने कहा कि हम इसे महज एक डाक्यूमेंट्री मानने को तैयार नहीं है । हम चाहते है कि इसे बाकायदा फीचर फिल्म की तरह रलीज किया जाए और हम इसमे मदद को भी तैयार है । जानेमाने आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा -निश्चित रूप से आनंद की यह फिल्म दलित प्रश्न को उसकी समग्र जटिलता में प्रस्तुत करती है । यह प्रश्न भी ज्वलंत रूप से प्रस्तुत होता है कि आखिर भारत में वामपंथी आंदोलन जाति आधारित शोषण को अपनी वर्गीय शोषण की अवधारणा में पूरी तरह से क्यों समाहित नहीं कर पाया ? आखिर क्यों मराठी गायक ,संस्कृतिकर्मी और वामपंथी दलित विलास भोगरे को आत्महत्या की त्रासदी से गुजरना पड़ता है ? और सांस्क्रतिक गतिविधियों के जरिए हाशिए के समाज में चेतना जाग्रत करने वाली पुणे के संस्था कबीर कला मंच के सदस्यों को राज्य की दमनकारी कार्यवाही से बचने के लिए भूमिगत होना पड़ता है ?और यह भी कि नामदेव ढसाल जैसा दलित कवि कैसे शिवसेना के मंच पर स्वयं को सहज महसूस करता है ? दलितों के राजनीतिक अधिग्रहण के प्रश्न को भी फिल्म पुरी संश्लिष्टता के साथ उजागर करती है । अपने समग्रता में यह फिल्म दलित प्रश्न पर एक थीसिस सरीखी है । जरूरत इस बात की है कि वाम पार्टियां दलित मुद्दे पर महज रस्मअदायगी न कर उन दलित मुद्दों पर सक्रिय हों जो उनके जीवन के मूलभूत अस्तित्व से जुड़े हैं । इसके लिए शोषण की जातिगत वास्तविकता को वामपंथी चिंतन का हिस्सा बनाना होगा । यह दंभ भरा नजरिया है कि दलितों को वामपंथ अपनाना चाहिए जरूरत इस बात की है कि वामपंथ दलित समाज और उनके मुद्दों से रूबरू हो . वाम नेतृत्व को आत्मालोचना की जरूरत है जिससे वह अभी भी मुंह चुरा रहा है । बाद में आनंद पटवर्धन ने कहा -मैंने जितनी भी डाक्यूमेंट्री बनाई सभी को लेकर विवाद हुआ और संघर्ष करना पड़ा । लोगों पर जो अत्याचार हो रहा है वह सामने आना चाहिए । उन्होंने आंबेडकर बनाम गाँधी के विवाद पर कहा कि इस बारे में और शोध की जरुरत है । खासकर गाँधी को लेकर दलितों और वामपंथियों में जो द्वेष नजर आता है । संविधान लिखने के लिए गाँधी ने आंबेडकर का नाम लिया जबकि कांग्रेस में इसे लेकर मतभेद था । गांधी पुराने समय के आदमी थे और उनके विचार भी बदले । बाबा साहब से मिलने के बाद उनमे और बदलाव आया । हालाँकि इस डाक्यूमेंट्री में दलितों के सामाजिक राजनैतिक शोषण को मार्मिक ढंग से दर्शाया गया है । मुंबई में कूड़ा कचरा साफ़ करने वाले एक दलित नौजवान की दुर्घटना में एक आँख चली गई पर उसे कोई मुआवजा नहीं दिया गया । वह कहता है -जब गंदगी में जाकर कचरा उठाते है तो उनके पैर भी सरिया ,कांच आदि से कट जाते है .कचरे की टोकरी उठाते हुए सर पर और शरीर पर कचरा गिरता है पर मुंबई नगर पालिका उन्हें गम बूट या कैप देने के बजाय बड़ी अदालत में साठ हजार रुपए देकर वकील खड़ा करना बेहतर समझती है । कचरे वाली गाड़ी अगर ख़राब हो जाये तो उस सफाई कर्मचारी को कोई बस वाला बैठाने को तैयार नहीं होता और हाथ धोने को तो छोड़ दे कोई होटल वाला पीने के लिए पानी तक नहीं देता । इसी तरह दलित महिलाओं की त्रासदी को भी दिखाया गया है । जाने माने फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन के बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्मे सेंसर बोर्ड नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट रिलीज करता है ,यह सुनकर आनंद पटवर्धन ने सफाई देते हुए कहा -'जय भीम कामरेड ' के साथ ऐसा नहीं हुआ और कई तरह के दबाव के चलते इसे सेंसर बोर्ड ने ही पास कर दिया । मराठी में बनी 'जय भीम कामरेड ' को हिंदी में डब कर उसका एक शो लखनऊ के उमानाथ बली प्रेक्षागृह में किया गया । शो के बाद आनन्द पटवर्धन के साथ बातचीत के अंश - इस फिल्म की महाराष्ट्र के दलितों में कैसी प्रतिक्रिया हुई ? -बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया देखने को मिली । यह फिल्म दलितों के दमन और शोषण के साथ सांस्कृतिक आन्दोलन पर फोकस है । वैसे भी यह फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है जो सन् 1997 में महाराष्ट्र में हुए 10 दलितों की हत्या के बाद के हालात पर आधारित है। यह फिल्म तीन घंटे बीस मिनट की है और इसके बावजूद मुंबई की दलित बस्तियों में लोगों ने इसे खड़े होकर देखा । अगर कुर्सियां लगाईं जाती तो एक कुर्सी का भाडा दस रुपए पड़ता जो उनके लिए किसी फिल्म देखने के लिए संभव नहीं था । फिल्म में कई जगह सवाल उठते और कुछ अधूरापन सा दिखता है -मै जब फिल्म बनता हूँ तो लिखकर नही बनाता हूँ । दूसरे मै फिक्शन नही डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता हूँ । हो सकता है कि फिल्म को एक बार देखने से बहुत सी बाते समझ मी ना आ पाए । बहुत सी बातों को मैंने अंडरलाइन भी नहीं किया है । फिल्म में दलित आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का अंतर्विरोध भी दिखाई पड़ता है ? इस फिल्म में एक दलित शायर जो मार्क्सवादी है वह जब आत्महत्या करता है तो उसके सिर पर लाल नहीं नीली पट्टी लिपटी होती है । यह बहुत कुछ बताती है । वह लेफ्ट मूवमेंट से भी बाहर कर दिया जाता है । वामपंथियों के नेतृत्व में भी कास्ट का सुपर स्ट्रक्चर नजर आता है । आपकी राजनैतिक धारा क्या है ? मेरी राजनीति मेरी फिल्मो में दिखती है । मै कभी किसी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं रहा । इसकी एक वजह यह भी है कि मै किसी पार्टी के अनुशासन से बंध कर नहीं रह सकता । यह मेरी कमजोरी है । मेरी फिल्मों का इस्तेमाल कोई भी दल कर सकता है । जिस तरह दलितों का सवाल आपने उठाया है उससे आपका मुंबई में विरोध नहीं होता ? नही ,क्योकि मेरा समर्थन बहुत लोग करते है । वैसे भी हर दल को दलित वोटों की जरुरत होती है उनकी विचारधारा चाहे जैसी हो । इस फिल्म की पृष्ठभूमि में दलित आंदोलन का भी असर रहा ? करीब डेढ़ दशक से मै सब देख भी रहा हूँ । महाराष्ट्र में दलित उत्पीडन का पुराना इतिहास है और उनका यह आंदोलन एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी उभरा है । दूसरे आम जनता और नेता के बीच विभाजन बढ़ा है । जनता यह मान रही है कि नेता बिक चूका है । इस फिल्म में भी मैंने नेताओं का सिर्फ भाषण लिया है जो बदलता रहता है । दलित आंदोलन में लोक संस्कृति का भी असर दिखा है खास कर इस फिल्म में कबीर कला मंच के कार्यक्रमों को देख कर ? हा, दलित आंदोलन को उभारने में महाराष्ट्र की लोक संस्कृति का काफी असर पड़ा है और इसने लोगों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । किस तरह की फिल्मे बनाई है ? पिछले तीन दशक से फिल्में बना रहा हूं जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक से हुई । जयप्रकाश आंदोलन के दौर से जो शुरुआत हुई वह आगे बढ़ती गई । सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई जा चुकी हैं। आपकी फिल्मो का अर्थशास्त्र क्या है ,क्या ऎसी फिल्मो की लागत निकल आती है ? देर सबेर हर फिल्म अपनी लागत भी निकल देती है और कुछ मिल भी जाता है । ज्यादातर फिल्मो को पुरुस्कार मिल चुका है और दूरदर्शन को ऎसी फिल्मो के लिए आधे घंटे के हिसाब से डेढ़ लाख का भुगतान करना पड़ता है जिससे काफी कुछ निकल आता है । हालाँकि इसके लिए भी बहुत लड़ना पड़ता है । इसके अलावा फिल्मो की सीडी से भी कुछ पैसा आ जाता है ।हमने यह भी देखा कि अगर मै थियेटर में प्रदर्शन करूँ तो लोगों से पैसा मिल सकता है ।यह प्रयोग मैंने किया और लोग बड़ी संख्या में मेरी फिल्म देखने आए । इसलिए यह नहीं माना जाना चाहिए कि इन डाक्यूमेंट्री फिल्मो से नुकसान होता है । पर कभी मुख्यधारा की फिल्म बनाने का ख्याल नही आया ? उसके लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। फाइनेंसर से लेकर और भी कई तरह की जरुरत पूरी करने में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।हमारी अपनी सीमाएं हैं। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं समाज का यथार्थ दिखाता हूँ जिसमे नेताओं का कहा होता है ।

Wednesday, August 22, 2012

आमने सामने आ रही है कांग्रेस ,सपा

अंबरीश कुमार लखनऊ: अगस्त। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का मधुमास का समय अब पूरा होता नजर आ रहा है । समाजवादी पार्टी की नजर जहाँ २०१४ के लोकसभा चुनाव को लेकर नई राजनैतिक रणनीति पर है वही कांग्रेस पार्टी को छह महीना पूरा होने का इंतजार है । कांग्रेस का दावा है कि किस सरकार को केंद्र ने गठन के चार महीने की भीतर एक लाख करोड़ रुपए की केंद्रीय मदद दी । पर प्रदेश की सपा सरकार कई मोर्चों पर पिछड़ रही है ,अल्पसंख्यको का मोहभंग हो रहा है । कांग्रस ने तय किया है कि बहुमत से बनी किसी सरकार को कम से कम छह महीने तो देना ही चाहिए इसलिए सरकार के खिलाफ फ़िलहाल कोई पहल नहीं की जा रही है पर हालात नहीं बदले तो कांग्रेस को आगे आना होगा । पर समाजवादी पार्टी ने इन आरोपों को पूरी तरह बेबुनियाद बताया है । पर यह साफ़ है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वह भी कांग्रेस को कई मोर्चों पर घेरेगी । कांग्रेस के मीडिया प्रभारी सिराज मेंहदी ने कहा -प्रदेश सरकार को केंद्र ने पांच महीने में एक लाख करोड़ से ज्यादा की मदद की है पर कामकाज के मामले में सरकार बहुत पीछे है । कानून व्यवस्था पर खुद मुलायम सिंह सुधारने की बात कह चुके है । नौजवान मुख्यमंत्री की बात अफसरों का एक वर्ग नहीं सुन रहा है जिसके चलते बहुत से काम लटक जाते है । मुसलमानों ने सपा को जमकर समर्थन दिया पर आज हालत यह है कि पांच महीने बाद भी ऊर्दू अकादमी , मदरसा बोर्ड ,अल्पसंख्यक आयोग से लेकर अदीबों ,शायरों और लेखको को मदद करने वाली फखरुद्दीन अली कमेटी का गठन नही किया जा सका है । अब मुसलमान अपनी बात कहने किस मंच पर जाएगा । यह कुछ उदाहरण है जिससे राजकाज का अंदाजा लगाया जा सकता सकता है । दरअसल कांग्रेस जल्द ही उत्तर प्रदेश में नई रणनीति के साथ आने की तैयारी में है । पार्टी केंद्रीय मदद का हवाला देते हुए नतीजों का सवाल उठायेगी । बुंदेलखंड से लेकर पूर्वांचल तक विभिन्न मदों में मिली केंद्रीय सहायता का जमीन पर कितना असर रहा यह मुख्य मुद्दा होगा । दूसरे कानून व्यवस्था और नौकरशाही की लालफीताशाही को भी मुद्दा बनाया जाएगा । हालाँकि समाजवादी पार्टी इसे दुष्प्रचार मानती है । पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -कहाँ उन्हें दिख गया कि मुसलमानों का मोहभंग हो गया । अल्पसंख्यक आयोग से लेकर ऊर्दू अकादमी के गठन की प्रक्रिया चल रही है । कानून व्यवस्था के मोर्चे पर सख्ती बरती जा रही है । इससे पहले की सरकार के राज में तो अपराध दर्ज तक नहीं होते थे । इसलिए लोगों को कोई ग़लतफ़हमी नहीं पालनी चाहिए । दो दलों के तेवरों से साफ़ है कि लोकसभा चुनाव से पहले ये एक दूसरे के खिलाफ मोचा खोल देंगे । दरअसल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ ज्यादा माहौल होगा ऐसे में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को भी चुनावी फायदा लेने के लिए कांग्रेस पर सीधा हमला बोलना होगा । वैसे भी बेनी प्रसाद वर्मा ने जिस तरह मुलायम सिंह यादव पर निशाना साधा उसे देखते हुए खांटी समाजवादी हिसाब बराबर करने की ताक में बैठे है ।

Monday, August 20, 2012

अगला चुनाव राहुल और मोदी में-बेनी

लखनऊ, अगस्त ।इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने सोनिया गाँधी बौर राहुल गांधी को फिर सांसत में डाल दिया है । रविवार और सोमवार को बाराबंकी में उन्होंने पहले महंगाई ,कांग्रेस ,मोदी और मुलायम पर तीखी टिपण्णी की और फिर सफाई भी दी लेकिन तब तक कांग्रेस की वे फजीहत करा चुके थे । उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से लेकर भाजपा तक ने बेनी प्रसाद वर्मा की खिंचाई करते हुए उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर करने की मांग की ।समाजवादी पार्टी ने तो साफ़ कहा कि बेनी विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की लुटिया डुबो चुके है और अब वे लोकसभा चुनाव में कसर पूरी करना चाहते हैं ।हालाँकि आज बेनी ने कांग्रेसियों की भी उसी अंदाज में खिंचाई की जैसे की विपक्ष की कर रहे हो ।बेनी ने कहा-कांग्रेस में मुझे राहुल गाँधी और सोनियां लाई हैं बाकि छुटभैये बरसात के मेढक की तरह जो चाहे बोले कोई फर्क नही पड़ता । महंगाई का स्वागत करने वाली टिपण्णी पर सफाई दी और कहा मीडिया ने गलत अर्थ निकाला उन्होंने तो किसानो के फायदे की बात कही थी । केन्द्र मे तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की मुलायम सिंह यादव की टिपण्णी पर बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि मुलायम सिंह यादव का सपना कभी पूरा नही होने वाला है। बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा कि मुलायम सिंह यादव सठिया गए है ।बेनी ने यह भी कहा कि अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी का है ,बीच वाले सब हाशिए पर चले जाएंगे।भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा -मुलायम सिंह यादव देश के वरिष्ठ नेता है और उन्होंने कांग्रेस को समर्थन दे रखा है ऐसे कोई काबीना मंत्री उनपर कीचड उछाले तो कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठेगा ही जो जिस नेता का समर्थन लेती है उसी के खिलाफ माहौल बनवा रही । फिर महंगाई की टिपण्णी तो कांग्रेस की नीति उजागर करने वाली है जिससे बिचौलियों को फायदा हो रहा है यदि कांग्रेस बेनी के विचारों से असहमत है तो उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर करे ।गौरतलब है कि विधान सभा चुनाव में बेनी के बड़बोलेपन से जो माहौल बिगड़ा उससे उनके गढ़ में ही कांग्रेस साफ़ हो गई ।तब लोगों ने चुटकी लेते हुए कहा था -कुछ दिन में लोहा मंत्री लकडी मंत्री में बदल जाएंगे पर कांग्रेस ने उन्हें पिछडों खासकर कुर्मी बिरादरी का कद्दावर नेता मानते हुए उन्हें मंत्रिमंडल में बरक़रार रखा ।यह बात अलग है कि उनकी हार कुर्मियों के गढ़ में ही हुई । समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता श्री राजेन्द्र चैधरी ने कहा है कि बढ़ती मंहगाई पर खुशी जाहिर कर और मुलायम सिंह यादव पर अभद्र टिप्पणी कर केन्द्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने अपने मानसिक दिवालिएपन का सार्वजनिक प्रदर्शन कर दिया है। जन सामान्य के प्रति इस बयान से उनकी संवेदन शून्यता का परिचय होता है। उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में इनके इसी तरह के अनाप-शनाप बयानों के चलते हुआ था। कांग्रेस के बड़बोले मंत्रियों ने ही कांग्रेस की लुटिया डुबोई थी और अब भी वे कोई सबक लेने को तैयार नहीं दिखते है। मंहगाई से किसानों को फायदे की बात कोई सिरफिरा ही कह सकता है। केन्द्र सरकार ने डीजल-पेट्रोल रसोई गैस के साथ खाद के दाम बढ़ाकर खेती को बड़ी हद तक अलाभप्रद बना दिया है। किसान उपभोक्ता भी है। बदहाली में सैकड़ों किसान आत्महत्या को मजबूर हुए हैं। आम आदमी की के लिए तो दाल, सब्जी और फल आदि दूसरे पोषक पदार्थ गायब होते जा रहे हैं। घर-गृहस्थी की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतर चुकी है। इसके लिए यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियां ही जिम्मेदार हैं। पूरे देश में जब जनता में मंहगाई भ्रष्टाचार को लेकर आक्रोश व्याप्त है तब एक केन्द्रीय मंत्री के जिम्मेदार पद पर बैठा कोई व्यक्ति ऐसी अनर्गल बात करे तो इस पर शर्मिंदा होने के अलावा क्या हो सकता है? जनता त्रस्त है, बेनी बाबू इसी में परपीड़ा सुख से मस्त हैं। उन्होने इतनी अवैध कमाई कर ली है कि उन्हें मंहगाई का एहसास ही नहीं हो रहा है। जहां तक मुलायम सिंह यादव के बारे में बेनी प्रसाद की अभद्र टिप्पणियेां का सवाल है उसे चांद पर थूकने जैसा दुस्साहस ही करार दिया जा सकता है। आज बेनी प्रसाद वर्मा जो कुछ हैं वह श्री मुलायम सिंह यादव की बदौलत ही है। जिले से उठाकर प्रदेश की राजनीति में उन्हें उन्होने ही स्थापित किया था। श्री मुलायम सिंह यादव के कंधे पर बैठकर उन्होने अपना राजनीतिक कद बढ़ाया पर कृतज्ञता दिखाने के बजाए वे कृतधन हो गए है। श्री यादव के बारे में कुछ बोलने से पहले बेनी प्रसाद वर्मा को यह भी तो सोचना चाहिए था कि वे उनके मुकाबले कहां ठहरते हैं ।उन्होंने आगे कहा - समाजवादी पार्टी यूपीए-2 सरकार को अपना बिना शर्त समर्थन दे रही है ताकि सांपद्रायिक तत्वों की केन्द्र में दाल न गलने पाए। लेकिन बेनी प्रसाद जैसे मंत्री मुलायम सिंह यादव के विरूद्ध बोलकर, जो धर्मनिरपेक्षता के इस देश में प्रतीक पुरूष बन गए हैं, सांप्रदायिक और जातीय तत्वों को ही बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। शायद इसके पीछे उनका पुराना आरएसएस स्वयं सेवक का संस्कार फिर उमड़ आया हो तो ताज्जुब नहीं। वे पहले भी आरएसएस शाखाओं में जाते रहते थे। बेनी प्रसाद वर्मा का यह आचरण राजनीतिक शिष्टाचार और मर्यादा के विपरीत है। इसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। अंबरीश कुमार

बिना वाम दलों के तीसरे विकल्प का रास्ता आसान नहीं

अंबरीश कुमार
लखनऊ, अगस्त ।केंद्र में मुलायम सिंह के तीसरे विकल्प का रास्ता बहुत आसान नहीं है ।बिना वाम दलों के देश में तीसरा विकल्प खड़ा होना मुश्किल है ।पर कांग्रेस और भाजपा सत्ता के खेल से दूर हो रहे है यह कहकर मुलायम सिंह ने जो राजनैतिक पहलकदमी की है उसका फायदा भी उन्हें मिल सकता है । समाजवादी पार्टी इस बार महाराष्ट्र ,मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,राजस्थान ,बंगाल ,बिहार और उतराखंड जैसे कुछ राज्यों में अपना संगठनात्मक ढांचा मजबूत करने कि कवायद में जुट रही है जिससे उसकी राष्ट्रीय महत्वकांक्षा जाहिर हो जाती है । केंद्र की राजनीति में इस समय न तो वीपी सिंह जैसा कोई नेता है और न हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसा । ऐसे में तीसरे विकल्प के लिए सभी दलों को जोड़ने की संभावना सिर्फ कुछ नेताओं में दिखती है जिसमे एबी वर्धन ,प्रकाश करात,मुलायम सिंह यादव ,शरद पवार से लेकर शरद , लालू ,पासवान और करूणानिधि आदि में दिखती है । पर राजनैतिक ताकत और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए मुलायम सिंह इस बार बड़ी भूमिका निभा सकते है । इसका संकेत वे पार्टी कार्यकर्ताओं को लगातार दे भी रहे है । राजनैतिक हलको में अब यह माना जा रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मुख्य भूमिका से बाहर हो सकती है और भाजपा उत्तर प्रदेश छोड़ बाकी राज्यों में अगर कांग्रेस पर भारी पड़ी तो राजनैतिक समीकरण बदल जाएंगे।पर भाजपा शासित राज्यों में अगर उसे नुकसान हुआ तो फिर तीसरे विकल्प का रास्ता खुल सकता है । पर इसमे वाम दलों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी । वरिष्ठ वामपंथी नेता अशोक मिश्र ने कहा -तीसरे विकल्प के निर्माता तो हमेशा से ही वाम मोर्चा रहा है ।आज के हालात में यह साफ़ है कि केंद्र की सत्ता कांग्रस के हाथ से जा रही है भाजपा कितना कर पाएगी यह कहना मुश्किल है और उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में तो भाजपा की ज्यादा भूमिका नजर नही आती ।ऐसे में केंद्र में वाम मोर्चा के साथ तीसरा विकल्प बन सकता है । इसमे तीसरे मोर्चे के पुराने घटक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी ।गौरतलब है कि कई राज्यों में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकारे है या मुख्य विपक्ष के रूप में है । दक्षिण में तमिलनाडु को ले तो वह द्रमुक या अन्नाद्रमुक में से एक हर हाल में तीसरे विकल्प के साथ खड़ा हो सकता है ।इसी तरह बंगाल ,हरियाणा ,पंजाब से लेकर पूर्वोत्तर के राज्य में भी नया समीकरण बन सकता है । समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने इस बारे में सवाल करने पर कहा -जहाँ तक तीसरे विकल्प की बात है यह अभी बहुत प्रारंभिक दौर में है जिसपर कोई टिपण्णी करना संभव नही है ।पर यह जरुर है कि अन्य राज्यों में संगठनात्मक ढांचा मजबूत किया जा रहा है ।महाराष्ट्र में पार्टी के चार विधायक है तो मध्य प्रदेश में तीन और बंगाल में दो विधायक । इसलिए पहले इन राज्यों में पार्टी की संगठनात्मक ताकत को बढ़ाना होगा इसके साथ ही दूसरे राज्यों में भी पार्टी अपना ढांचा मजबूत करेगी । साफ़ है कुछ राज्यों से हमें आगामी लोकसभा चुनाव में उम्मीद है । हालाँकि राजनैतिक विश्लेषक मानते है कि तीसरे विकल्प के लिए मुलायम सिंह को पहले वाम दलों को भरोसे में लेना होगा जिससे उनके सम्बन्ध एटमी करार को लेकर बिगड गए थे । राजनैतिक टीकाकार सीएम शुक्ल ने कहा -समाजवादी पार्टी को दो स्तर पर काम करना होगा तभी राष्ट्रीय स्तर पर उसकी साख बनेगी ।अखिलेश सरकार के छह महीने होने से पहले सरकार को कानून व्यवस्था के मोर्चे पर कड़ाई से पेश आना होगा ।गोरखपुर से लेकर बरेली तक यह सन्देश जा रहा है कि अफसर सरकार की सुन नहीं रहे है ।लखनऊ में जिस तरह हथियार लेकर लोगो को विधान सभा तक अराजकता की छूट मिली वह ऐतिहासिक है ।दंगाइयों के चेहरे कैमरे में कैद है पर अब तक कोई ठोस कार्यवाई नही हुई ।अब तो यह चुटकुला चल रहा है कि पुलिस के चश्मे का नंबर गडबड हो गया है वे किसी को पहचान नहीं पा रहे ।इस सब का ठीकरा सरकार पर फूट रहा है । सरकार की साख गडबड हुई तो मुलायम सिंह के राजनैतिक मंसूबो पर भी पानी फिर जाएगा जिनपर तीसरे विकल्प में बड़ी भूमिका निभाने की उम्मीद है ।

जड़हन का भात और मकई की रोटी

त्रिलोचन का जन्मदिन हरिकृष्ण यादव
जड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन शास्त्री परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। पिछले साल कुछ दिनों के लिए गांव जना हुआ। वहां दुनियादारीमें एेसे उलङा हुआ था कि महीना बीत गया पता नहीं चला। दिल्ली से नौ दिसंबर की देर रात बेटे अंकुर ने फोन किया। बताया ‘पापा, त्रिलोचनजी का निधन हो गया। सुनो, टीवी पर उन्हीं के बारे में ही बता रहे हैं।’ बेटे ने मोबाइल टीवी के पास रख दिया। संयोग से उस वक्त त्रिलोचन शास्त्री की आवाज सुनाई दे रही थी। पहले रिकार्डिग की बातचीत और महीने भर पहले उनसे हुई बातचीत की आवाज में कोई फर्क नहीं था। बोलने का वही लहज सुन कर मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत ‘एक दिन बिक जएगा माटी के मोल, जग में रह जएंगे प्यारे तेरे बोल’ गूंजने लगा। महीने भर पहले जब उनसे मिला था तो मुङासे डेढ़-दो घंटे खूब बतियाए। गांव से लेकर दिल्ली तक के संगी-साथियों की चर्चा की। अपने बचपन की कुछ यादें ताज की। यह सब उस समय जब उनके छोटे बेटे सहित उनके संगी-साथी और शुभचिंतक उन्हें देखने के बाद टिप्पणी कर रहे थे- ‘त्रिलोचन की याददाश्त खत्म हो गई है, वे किसी को पहचानते तक नहीं, न ही किसी से बात करते हैं। बस गुमसुम बैठे रहते हैं।’ यह सब सुन कर मैं भी बेमन, मात्र दर्शन की भावना से उन्हें देखने गया। वहां पहुंचने पर लोगों के कहे पर विश्वास करके दस मिनट तक चुपचाप उन्हें निहारता रहा। उसके बाद मैंने कहा, ‘हमार घर मोतिगरपुर आहै।’ तब उन्होंने कहा, ‘दियरा के पास।’ उसके बाद बतकही का जो सिलसिला शुरू हुआ खत्म होने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन मुङो नियत समय पर कहीं पहुंचना था। इसलिए उनका चरणस्पर्श करके न चाहते हुए भी वहां से चल दिया। यह उम्मीद लेकर कि फिर मिलने आऊंगा तो ढेर सारी बातें करूंगा। घर से निकल तो आया पर ध्यान उन्हीं पर लगा रहा। सोचा, ‘सब कुछ होते हुए कुछ भी नहीं है’ को एक शब्द में कहना हो तो ‘त्रिलोचन’ शायद ही अतिशयोक्ति हों! उनका कुनबा संपन्न है और सुधीजनों की लंबी कतार। दो पुत्रों के पिता त्रिलोचन ‘अपनों’ को देखने के लिए तरस रहे थे। उनके दिवंगत छोटे भाई का परिवार गांव में रहता है। व्यावहारिक रूप से पैतृक संपत्ति के वे ही मालिक हैं। त्रिलोचन नाम से इंटर कालेज और लाइब्रेरी की देखभाल भी वे ही करते हैं। एक बेटा वकील है तो दूसरा ठेकेदार। यानी भाई का भी खाता-पीता परिवार है। शास्त्रीजी के बड़े बेटे कें्रीय विश्वविद्यालयों में बरसों पढ़ाने के दौरान प्राच्य म्रुा विशेषज्ञ के रूप में जने गए। फिलहाल वे बनारस में निजी अनुसंधान कें्र में कार्यरत हैं। दूसरा दिल्ली में अखबारनवीस हैं। लेकिन परिवार ताश के पत्तों की तरह बिखरा है। बड़ा बेटा और बहू बनारस में रहते हैं। पौत्र अमेरिका में, पौत्रियों में एक गाजियाबाद में डाक्टर है, दूसरी दिल्ली में फैशन डिजइनर है। छोटे बेटे की बहू हरिद्वार में वकील हैं, जिनके पास शास्त्रीजी काफी समय से रह रहे थे। पौत्र कोलकाता में प्रबंधन में है और पौत्री दिल्ली में पिता के साथ रह कर पढ़ रही है। शुभचिंतकों में अशोक वाजपेयी, विष्णु चं्र शर्मा, विष्णु प्रभाकर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह जसे कई दिग्गज साहित्यकार और कवि शास्त्रीजी के सुख-दुख में साथ रहे। समय-समय पर इन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। शास्त्रीजी ने परिवार की जिम्मेदारियां भरसक ईमानदारी से निभाईं। परिवार में बड़ा होने के नाते कम आयु में ही कुनबे की जिम्मेदारी संभाल ली। इसलिए कच्ची उम्र में ही साल में चार महीने खेत-खलिहान में काम करते। बाकी आठ महीने बाहर जकर मेहनत मजदूरी। जड़हन और जोनहरी (मकई) पैदा होने वाले गांव में जन्मे त्रिलोचन ने परिवार के लिए कोलकाता में रिक्शा चलाया ताकि घरवालों को बेस्वाद जड़हन का भात और मकई की रोटी खाकर ही गुजरा न करना पड़े। इन्हीं लोगों के लिए ही बनारस, इलाहाबाद, मुरादाबाद, आगरा, रांची, भोपाल, दिल्ली और सागर जसे शहरों में दिनरात भटकते रहे। साथ ही अपना शौक (कविता, कहानी, नाटक लिखना और हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू भाषाओं में विद्वता हासिल करना) पूरा किया। बचपन से सरस्वती के पीछे भागने वाले त्रिलोचन जीवन के अंतिम क्षण तक उनसे विमुख न हो सके। जब कभी-कभार लक्ष्मी उनके पास आईं तो परिजनों को सौंप दिया। पिछले साल जब परिवार वालों को कुछ करने की बारी आई तो सबने मुंह फेर लिया। अपनों की बाट जोह रहे त्रिलोचन शायद इसीलिए अपने आख्रिरी दिनों में सुधीजनों से बोलना और उन्हें पहचानना जरूरी नहीं समङाते रहे हों। परिवार वालों ने गजब का फर्ज निभाया। जीवन के अंतिम दौर में भतीजों ने गांव से ही एक-दो दफा फोन पर हालचाल पूछ कर फर्ज अदा किया गया। बड़ा बेटा जिस पर उन्हें बड़ा नाज था देखने तक नहीं आया। छोटा बेटा अपनी नौकरी और पौत्री पढ़ाई के साथ उनकी कितनी सेवा कर पाए होंगे इसका अंदाज लगाया ज सकता है। बावजूद उन्हें कभी किसी से कोई गिलवा शिकायत नहीं रही। यदि होती तो उस दिन जरूर मुङासे बताते। उनके जीते जी उनके लिए जिन्होंने जो कुछ किया वे सुधीजन ही थे। उनकी सेवा करके वे धन्य हुए!जनादेश के एक पुराने लेख से

Saturday, August 18, 2012

मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने कहा -कट्टरपंथियों पर कार्यवाई करे सरकार

अंबरीश कुमार
लखनऊ, 18अगस्त ।उत्तर प्रदेश को आग में झोकने की एक कोशिश नाकाम हो गई है ।पर खतरा अभी भी मंडरा रहा है ।शुक्रवार को टीले वाली मस्जिद से जिस तरह अलविदा की नमाज के बाद लखनऊ की मुख्य सड़कों पर अराजकता हुई उससे यह पूरी घटना सोची समझी साजिश का हिस्सा लगती है ।यह आशंका जन संगठनों ने भी जताई है । खास बात यह है कि एक ही समय में इलाहबाद से लेकर कानपूर तक यह आग लगाने की कोशिश हुई । ठीक मुंबई की तर्ज पर । मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने इस बात पर भी हैरानी जताई है कि इस समय जब देश में तनाव का माहौल था ऐसे में टीले वाली मस्जिद में असम और बर्मा को लेकर अलविदा की नमाज के बाद इस तरह भडकाऊ भाषण क्यों दिए गए । क्या वे मौलाना इसके लिए जिम्मदार नहीं है जिनकी मौजूदगी में यह सब हुआ ।क्या इबादत के लिए डंडे और सरिया के साथ जब लोग आए तो यह किसी को दिखा नहीं ।यह भी तब जब जमायत उलेमा कि तरफ से पुराने लखनऊ में पोस्टर चार दिन पहले लग चूका था और उसमे उर्दू में लिखा था कि असम और बर्मा में मुसलमानों पर हुए हमले का जवाब दिया जाए।यह सब पुलिस प्रशासन ,मौलाना और सत्तारूढ़ दल को नहीं दिखा । अगर इसकी प्रतिक्रिया होती तो क्या हश्र होता ।खास बात यह है कि सीरिया ,अफगानिस्तान ,ईराक से लेकर पकिकई देशों में आए दिन मुस्लिम समुदाय पर हमले हो रहे है क्या उसका हिसाब लखनऊ ,इलाहबाद और कानपूर में लिया जाएगा । तहरीके निस्वां की अध्यक्ष ताहिर हसन ने कहा -असम के दंगो के बहाने लोगो को इकठ्ठा कर के मूर्ख बना कर उनसे तोड़ फोड़ करवा कर राजनीति में अपनी हैसियत बढाने की कोशिश करने वाले मुल्लाओ के खिलाफ सख्त कारवाही होने चाहिए । अगर आप बुलाई गयी भीड़ को अपने नियंत्रण में नहीं रख सकते तो आप को इनके किए हर काम की जिम्मेदारी लेनी चाहिए चाहे वह सरकारी सम्पति का नुकसान हो या पार्को और मूर्तियों को तोडने का ।हद तो यह हो गई कि इन दंगाइयों ने एक लड़की के कपडे फाड दिए और मीडिया के लोगों पर हमला किया । इससे पूरे देश का माहौल खराब तो होता ही है पूरे विश्व में हमारे लोकतंत्र की बदनामी होती है। पहले अनियंत्रित भीड़ इकठ्ठा करके लालकृष्ण आडवाणी इसी तरह १९९२ के देश को शर्मसार कर चुके है।आज ज़रुरत है कि इस प्रकार के शांति भंग करने वाले तत्वों को सख्ती से निबटा जाए और कठोरतम दंड दिया जाए . अगर सरकारे बेबस है तो अदालतों को स्वतः एक्शन लेना चाहिए। तहरीके निस्वां की अध्यक्ष ताहिर हसन ने कहा -असम के दंगो के बहाने लोगो को इकठ्ठा कर के मूर्ख बना कर उनसे तोड़ फोड़ करवा कर राजनीति में अपनी हैसियत बढाने की कोशिश करने वाले मुल्लाओ के खिलाफ सख्त कारवाही होने चाहिए । अगर आप बुलाई गयी भीड़ को अपने नियंत्रण में नहीं रख सकते तो आप को इनके किए हर काम की जिम्मेदारी लेनी चाहिए चाहे वह सरकारी सम्पति का नुकसान हो या पार्को और मूर्तियों को तोडने का ।हद तो यह हो गई कि इन दंगाइयों ने एक लड़की के कपडे फाड दिए और मीडिया के लोगों पर हमला किया । इससे पूरे देश का माहौल खराब तो होता ही है पूरे विश्व में हमारे लोकतंत्र की बदनामी होती है। पहले अनियंत्रित भीड़ इकठ्ठा करके लालकृष्ण आडवाणी इसी तरह १९९२ के देश को शर्मसार कर चुके है।आज ज़रुरत है कि इस प्रकार के शांति भंग करने वाले तत्वों को सख्ती से निबटा जाए और कठोरतम दंड दिया जाए . अगर सरकारे बेबस है तो अदालतों को स्वतः एक्शन लेना चाहिए।सामाजिक कार्यकर्त्ता कुलसुम तल्हा ने कहा -चंद कट्टरपंथी ताकतों इस तरह की हरकतों का असर समूचे समाज पर पड़ता है ।पूर्वोत्तर के लोग जिस तरह पलायन कर रहे है वह दुर्भाग्यपूर्ण है ।इसका दर्द मुझे पता है क्योकि मेरा बेटा भी पुणे में पढता है । इन कट्टरपंथी ताकतों कि जमकर भर्त्सना कि जानी चाहिए।मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा - इस घटना ने समूची कौम को शर्मसार किया है।यह काम कुछ शरारती तत्वों ने साजिश कर किया है ।साथ ही मीडिया को निशाना बनाया गया जिसकी हम निंदा करते है ।दूसरी तरफ टीले वाली मस्जिद के इमाम अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट जाते है ।पर यह जरुर कहते है कि सरकार से हम दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाई कि मांग करते है ।राजनैतिक विश्लेषक वीरेन्द्र नाथ भट्ट ने कहा -इसके लिए हम सरकार और प्रशासन दोनों को ज्यादा जिम्मेदार मानते है जिसने लापरवाही बरती । दूसरे जब पाकिस्तान के खैबर प्रान्त से लेकर बलूचिस्तान तक ,सीरिया ,इराक और अफगानिस्तान तक में मुस्लिम समुदाय के लोगों की बड़े पैमाने पर हत्या हो रही हो तो सिर्फ असम बर्मा का उदाहरण देकर इस तरह की हिंसा करना अन्तराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा ही नजर आता है ।दुर्भाग्य यह है कि कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी तक इस खेल का फायदा उठाने में जुटी है । इस बीच उत्तर प्रदेश राज्य मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति ने आज राजधानी के कई स्थानों पर छायाकारों, टीवी चैनलों के कैमरामैनों व संवाददाताओं पर हुए हिसंक हमले की निंदा की है। इस हमले में दर्जनों मीडिया कर्मी घायल हुए हैं जबकि तीन दर्जन छायाकारों, कैमरामैनों के कैमरे तोड़ दिए गए हैं साथ ही उनकी गाडिय़ां भी तोड़ दी गयी हैं। समिति इस र्दुभाग्यपूर्ण घटना की भतर््सना करती है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए कड़े कदम उठाने की मांग की है। समिति ने घटना के लिए दोषी पुलिस व प्रशासन के अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने की मांग करते हुए कहा है कि पुलिस की मौजूदगी में पत्रकारों पर हमले होते रहे और हमलावरों को रोकने की कोई कोशिश नही की गयी। घटना में घायल मीडिया कर्मियों के इलाज के साथ ही उनकी एफआईआर दर्ज कराने की मांग भी समिति ने की है। समिति यह भी मांग करती है कि जिन छायाकारों के कैमरे तोड़े गए हैं उन्हें मुआवजा दिया जाए। घटना के विरोध में राजधानी के सैकड़ों मीडिया कर्मियों हजरतगंज चौराहे पर पहुंचे और धरना दिया। पत्रकारों ने एकजुटता प्रर्दशित करते हुए रास्ता जाम कर दिया। धरने पर मौजूद समिति के अध्यक्ष हेमंत तिवारी से बातचीत के बाद प्रमुख सचिव गृह आरएम श्रीवास्तव मौके पर पहुंचे और मीडियाकर्मियों को आश्वासन दिया कि घटना की जांच तीन दिनों में कमिश्नर लखनऊ करेंगे और दोषी अधिकारियों व व्यक्तियों को दंडित किया जाएगा। उन्होंने आश्वस्त किया कि घटना की एफआईआर दर्ज कर अविलंब कारवाई की जाएगी व क्षतिग्रस्त कैमरा, गाडिय़ों व अन्य उपकरणों की क्षतिपूर्ति शासन की ओर से की जाएगी।jansatta

Thursday, August 16, 2012

बैलगाड़ी पर बारात ,सरपुतिया और भुइफोड़

अंबरीश कुमार
कफी समय बाद गोरखपुर पहुंचा क्योकि पापा के बाहर रहने की वजह से बुआ जी की तेरहवी में घर के किसी न किसी सदस्य का होना जरुरी था .हालाँकि यह जाना भी कोई जाना नहीं था क्योकि राप्ती सागर से शाम चार बजे पहुंचा और रात बजे गोरखनाथ से वापस चलकर सुबह पांच बजे घर पहुँच गया .पर गोरखपुर में जीतनी भी देर रहा पुराने लोगों से मिलना और अपने गाँव से लेकर ननिहाल के उस गाँव की जानकारी लेता रहा जहाँ छुट्टियों में बचपन गुजरा .स्टेशन से सीधे घर पहुंचा जहा अन्नू इंतजार कर रही थी घर की स्थिति दिखने के लिए ताकि से ठीक कराया जा सके .घर के पीछे के हिस्से में एक मजदूर परिवार रहता है जो पौधों में पानी देने से लेकर साफ़ सफाई कर देता है .पौधे काफी हरेभरे थे क्रोटन की कई प्रजातियाँ रंग बिखे रही थी .मम्मी का लगता करी पत्ता का पेड़ बड़ा हो चुका था उसकी पत्तियाँ तोड़े लगा तो अन्नू ने कहा ,यह किसलिए .मैंने कहा -मुझे बहुत पसंद है ,यह मम्मी का लगाया पौधा है और हमारे गमले में जो करी पत्ता लगा है उसकी बहुर कम पत्तियां बची है . आते समय बस्ती से खलीलाबाद के बीच भीषण बरसात पर गोरखपुर में उतरते ही गर्मी और उमस का अहसास हुआ .इससे पहले ट्रेन कुछ देर डोमिनगढ़ में रुकी रही (गोरखपुर में नाम बड़े रोचक होते है उदाहरण 'डोमिनगढ़' भी है ) क्योकि स्टेशन पर कोई प्लेटफार्म खाली नहीं था .यह पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय भी है और पूरब दिल्ली से जोड़ने वाला प्रमुख मार्ग भी .पर स्टेशन पर ऎसी भीड़ मानो सोनपुर के मेले में खड़े हो .जिस पुल से प्लेटफार्म नंबर एक पर आ रहा था वह इतना सकरा कि लाइन लग गई थी .जबकि ज्यादातर जगहों पर पटरियों के ऊपर से जाने वाले पुल काफी चौड़े होते है .करीब चार दशक पहले यह स्टेशन काफी साफ़ सुथरा नजर आता था पर अब वह स्थित नहीं है .यह शहर विकसित तो हुआ पर बहुत बेतरतीब ढंग से .अपना सम्बन्ध बेतियाहाता ,बिछिया कालोनी और बशारतपुर से ज्यादा रहा है .सत्तर के दशक के अंतिम दौर में जब मुंबई से पापा का तबादला होने वाला था तब कुछ महीने मुझे यहाँ रहना पड़ा था और यहाँ के अभय नंदन हायर सेकेंडरी स्कुल में पढना पड़ा था .वजह इस स्कूल से कुछ दूर पर जंगल जैसे इलाके के बीच ईसाइयों की छोटी सी आबादी बशारतपुर थी .जिसमे एक अंग्रेज की पुरानी कोठी हमारे छोटे मामा अपने दोस्तों के साथ रहते थे जो इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे थे और उन्ही के जिम्मे मुझे मुंबई से लाकर वहा रखा गया ताकि बाद में लखनऊ में प्रवेश मिल जाए . पर वे दिन काफी मस्तीभरे थे और पैदल ही गोरखपुर घूमता था .चारो और खूब पेड़ पौधे और आम .अमरुद के बाग़ .घर के सामने कट लीची (लीची की एक प्रजाति )लगी थी तो बगल में अमरुद का बगीचा जिसके बीच बड़ी सफ़ेद कोठी में भी मामा के एक दोस्त अपनी पत्नी के साथ रहते थे .बाद में मामा जी बिछिया कालोनी आ गए तो यही गोरखपुर का स्टेशन अपना सबसे बड़ा पर्यटन स्थल बना जहाँ घंटो गुजार देते थे .तब यह लखनऊ से ज्यादा बड़ा स्टेशन लगता था .सामने जो कैफेटेरिया खुला था वहा पहली बार दक्षिण भारतीय इडली दोशा खाने को मिला था .तब यह इलाका बहुत खुला हुआ था .ईमली के बड़े बड़े दरख्त थे जिसके नीचे रोज कोई न कोई जादूगर भीड़ इकठ्ठा किए नजर आता था .वह गोरखपुर आज के गोरखपुर में खो चुका है .रात में घर पर न रुकने की एक वजह बिजली की समस्या भी थी जिसके बिना अब गरमी में रहना मुश्किल हो गया है . खैर धर्मशाला बाजार से कुछ आगे ही बढे तो अन्नू ने सब्जी वाले की और इशारा कर कहा ,देखो सरपुतिया मिल रही है जो मम्मी को बहुत पसंद थी ,फ़ौरन गाड़ी रुकवाई और सब्जी वाले से पूछा क्या भाव है तो जवाब मिला बतीस रुपए किलो .तबतक ताजे खीरे पर नजर पड़ी जो लखनऊ में इस ढंग का नहीं मिल रहा है .बीस रुपए में छह हरे खीरे भी साथ ले लिए .बाद में अन्नू ने बताया कि और सब्जी यहाँ मिलती है भुइफोड़ .जो कही और नहीं मिलगी .इसका नाम भी मम्मी के मुह से ही सुना था .कुछ आगे बढ़ने पर ठेले पर इसे बेचता एक सब्जीवाला मिल गया .दाम चालीस रुपए पाव यानी एक सौ साठ रुपए किलो .वह भी लिया और सूरजकुंड की तरफ आगे बढ़ गए .पहले डा आरएन सिंह के यहाँ कुछ देर बैठे और फिर बुआ जी के घर जान कई ऐसे रिश्तेदार मिले जिनसे चार दशक बाद यानी बचपन में मिले थे .ऐसे ही एक फुफेरे भाई मिले जिनकी शादी रुद्रपुर के आगे एक गाव चैनवापुर में हुई थी और बारात एक जीप और बैलगाड़ी से गई .वह भी मूसलाधार बरसात में .पानी इतना बरसा था कि रात में आई आंधी पानी में तम्बू कनात सब गिर गया और एक किलोमीटर दूर स्कूल में शरण लेना पड़ा .तब तीन दिन की बरात होती थी जिसमे बीच वाले दिन महफ़िल लगती थी और आमतौर मछली बनती थी .जिस स्कूल में शरण मिली थी उसमे तब रात तीन बजे माछली भात खाने को मिल पाया था .आज फिर यह सब याद आया . फोटो -गाव के घर का बगीचा जिसमे मेरे लगाए पेड़ के नीचे बैठे बच्चे .यह स्कूल घर के बगीचे में ही चलता है

Wednesday, August 15, 2012

जातीय भेदभाव से तो मुक्त रहा था छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ में जनसत्ता के अपने पुराने सहयोगी अनिल पुसदकर ने कल एक कमेन्ट किया था जातिवाद को लेकर .बचपन से अबतक कई राज्यों में रहने का मौका मिला पर यह समस्या उत्तर प्रदेश में ज्यादा दिखी .मुंबई में महाराष्ट्र के साथ गुजराती छात्र छात्राओं के साथ बचपन गुजरा पर ऐसा कुछ नहीं महसूस हुआ .लखनऊ विश्विद्यालय में चुनाव के दौरान चेतक से लेकर जनेऊ तक चर्चा में रहे हालाँकि चुनाव पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं दिखा .दिल्ली में लामबंदी बिहारी बनाम गैर बिहारी की ज्यादा रही .पर मुझे इसका बहुत ज्यादा अनुभव नहीं हुआ .सबकी खबर ले ,सबको खबर दे का नारा गढ़ने वाले जनसत्ता के तत्कालीन ब्यूरो चीफ कुमार आनंद जो मुजफ्फरपुर के रहे हम लोगों के नेता रहे और नजरिया भी राष्ट्रीय रहा .रायपुर में जनसत्ता शुरू करने के लिए जो टेस्ट लिया उसमे भारती यादव सब पर भारी थी .छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता में ब्राह्मन काफी है पर उनके अलावा अन्य तबके के लोग भी है जिनमे आदिवासी से लेकर पिछड़े और दलित भी है .अपने यहाँ भी हर वर्ग के लोग थे .अपनी मंडली में टाइम्स के लव कुमार ,हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रदीप मैत्रा,हिन्दू की आरती धर ,डेक्कन हेराल्ड के अमिताभ और पीटीआई के प्रकाश होता आदि थे .तब वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र ने यह सलाह जरुर दी की तकनीकी और सम्पादकीय स्टाफ में कुछ मुस्लिम जरुर रखूं क्योकि छत्तीसगढ़ में लोग कुछ ज्यादा ही उत्सव प्रेमी रहे है और इसका अनुभव होली में हो गया जब कई लोग हफ्ते भर बाद होली मनाकर लौटे .यदि कुछ मुस्लीम कम्पोजीटर न होते तो अख़बार निकलना मुश्किल था .सम्पादकीय विभाग में तो लोगों को घर से बुला लिया था .लेकिन इस पूरे दौर में कोई जातीय भेदभाव नजर नहीं आया .कई की जाती क्या है यह तो मै आजतक जान भी नहीं पाया जिनमे अपनी दक्षिण भारत के राजकुमार सोनी हो या महाराष्ट्र के अनिल पुसदकर .जिलों में भी कई जगह आदिवासी और दलित संवादाता रखे गए .सम्पादकीय स्टाफ में टेस्ट पास करने वाली आधी लडकिय थी जिनमे निवेदिता चक्रवर्ती सिर्फ इंटर पास थी और मै उसे रखने के पक्ष में नहीं था पर उसकी मां जब मिली और परिवार की समस्या बताई तो उस बच्ची को भी स्टाफ में जह मिल गई और वह काफी तेज भी निकली .बाकी देवांगन से लेकर उरांव ,नायक आदि अलग रहे .छत्तीसगढ़ आन्ध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और ओड़िसा से लगा है और इन राज्यों के लोग भी शहरी आबादी में घुलमिल गए है .पुसदकर बता रहे है कि बहुत बदल गया है ,पता नहीं इधर काफी दिन से गया नहीं .जब रहा तो प्रदीप मैत्रा के घर हिल्सा,मेरे यहाँ सरसों -और चेरी टमाटर की रोहूँ और प्रकाश होता की पत्नी मौसमी की बनाई उड़िया ढंग की मछली और झींगे के लिए समूची मंडली जुटती थी .कई शाकाहारी भी थे मसलन चितरंजन खेतान और लव कुमार आदि .पर कभी जातीय गुटबाजी नजर नहीं आई .जनसत्ता में भी राजनारायण मिश्र ,संजीत त्रिपाठी ,अनुभूति ,संजीव गुप्ता ,भारती ,विनोद पटेल ,सोनी और अनिल पुसदकर आदि में भी कोई ऐसा रुझान नहीं दिखा .अब कितना बदलाव आया होगा कह नहीं सकते .यह अनुभव सिर्फ मीडिया के सन्दर्भ में है .बाकि राज्य में सतनामी बनाम गैर सतनामी या आदिवासी बनाम गैर आदिवासी का सवाल अलग है .

Tuesday, August 14, 2012

जाति के जाल में

आज काफी दिन बाद दफ्तर पहुंचा तो सिद्धार्थ कलहंस से बात हुई .वे इंडियन एक्सप्रेस का मेरा नंबर पहचानते है .चुनाव पर चर्चा हुई तो बताया अलग अलग जातियों के पत्रकारों की अलग अलग बैठके भी हुई थी .मैंने मजाक में कहा -पर मुझे तो बुलाया नहीं गया ,इसपर उनका जवाब था -आपको लोग कम्युनिस्ट मानते है ..कलहंस उसी संगठन से निकले है जिसे मैंने विश्विद्यालय में बनाया था .वैसे 'युवा भारत' जिसका पहला संयोजक मै रहा बाद में गोपाल राय हुए जो टीम अन्ना में है और दूसरे साथी बाबा रामदेव के साथ .पर पुराने मित्रों के साथ सम्बन्ध बरक़रार है .कलहंस की बात सुनकर जाती पर फिर सोचने लगा .आज दफ्तर भी जातीय गोलबंदी और पुलिस अपराधियों के गठजोड़ पर खबर के लिए आया था .आमतौर पर अपराध और दुर्घटना से संबंधित खबर नहीं करता रहा हूँ .अपने सहयोगी ही कर देते रहे .पर कई बार लिखना भी पड़ता है .इंडियन एक्सप्रेस के बहुत से कर्मचारी उत्तर प्रदेश के है जिनके गाँव की बहुत सी समस्याए आती रहती है जिसमे फौजदारी ,गंभीर दुर्घटना और पुलिस से संबंधित कई मामलों में दखल भी देना पड़ा .कई बार ये लोग चाहते है कि अख़बार में खबर आ जाए तो शायद इंसाफ मिल जाए .अपने दिल्ली के दफ्तर में एक पिछड़ी जाति का चपरासी है टेकराम .लगातार्र फोन कर रहा था और एक दिन उसका भतीजा भी दफ्तर आकर लौट गया .इससे पहले भी जब सीतापुर में उसके भतीजे को थाने में बर्बर तरीके से मारा गया तो खबर के बाद कार्यवाई हुई .इस बार उसने बताया कि उसकी चौदह साल की भतीजी के साथ गाँव के दबंगों ने बलात्कार किया और पुलिस भी उनके साथ है .फोन पर गाँव में उसके परिवार वालों से बात हुई .अदम गोंडवी की 'चमारों की गली 'याद आई .फिर लगा अख़बार से आज भी लोग बहुत उम्मीद लगाये हुए है .बाद में बहुत दिन बाद दफ्तर में बैठकर खबर लिखी .पर सीतापुर के उस छोटे से गांव की जातीय गोलबंदी से लेकर मीडिया सेंटर में हुई जातीय गोलबंदी पर सोचा तो लगा नेताओं को तो रोज गाली देते है पर खुद पर नजर नहीं डालते .

बलात्कार की फरियाद पर पुलिस वाले ने कहा -थाने में ही पेट्रोल डालकर फूंक दूंगा

अंबरीश कुमार
लखनऊ , १४ अगस्त । देश स्वतंत्रता दिवस की ६५ वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है पर आज भी आजादी का यह जश्न देश के हर आदमी के लिए नहीं है जो दमन ,उत्पीडन और शोषण का शिकार है । देश में गाँधी परिवार की सरकार है तो प्रदेश में समाजवादी सरकार । इस सबके बावजूद पुलिस और गाँव के दबंगों का सामंती तौर तरीका बरकरार है । सीतापुर के सकरन थाना में एक विकलांग गरीब जब अपनी चौदह साल की बेटी के बलात्कार की रपट दर्ज करने कई बार गया तो दिलीप कुमार नामक पुलिस वाले ने कहा -अब आए तो यही थाने में पेट्रोल डालकर फूंक दूंगा । थाना में यह सलूक हुआ तो थाने से बाहर गाँव लौटते हुए बलात्कार करने वाले सुशील के दबंग जीजा कमलेश ने कहा , साले जान से मार दूंगा और कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा पुलिस हमारे साथ है ,समझे । यह बानगी है ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस प्रशासन और अपराधियों के सह संबंध की । मामला यही तक सीमित नहीं रहा पुलिस ने बलात्कार की रपट लिखवाने की पैरवी कराने वालों को फंसाने में जुट गई । यह पुलिस का पुराना हथकंडा रहा है । पीड़ित परिवार जिसकी चौदह साल की बच्ची की पहले आबरू लुटी गई अब गाँव के गुंडों से जान बचाने के लिए भाग दौड़ कर रहे है । पीड़ित का मुद्दा उठाने वाला चचेरा भाई संजय इस मामले के बाद बीस दिन से सीतापुर में शरण लिए हुए है क्योकि गाँव के बदमाश कमलेश ,देशपाल और बिहारी चौकीदार ने धमकी दे रखी है कि गाँव में दिखे तो गोली मार दी जाएगी । ये वही संजय है जिनकी कुछ साल पहले इसी सकरन थाने में बर्बरता से पिटाई कर दी गई थी । संजय ने फोन पर कहा -बहुत मुश्किल से रपट लिखी गई और अब पुलिस और बदमाश दोनों पीछे पड़ गए है,साहब जान बचवा दो वर्ना ये सब मार डालेंगे । सीतापुर के सकरन थाना से करीब तीन मील की दूरी पर बसा है देवमान बेलवा गाँव । गाँव में ज्यादातर लोग लोनिया ,चमार और पासी बिरादरी के है । यही करीब पैतालीस साल का सुरेश रहता है जिसके पास ढाई बीघा खेत है पास के स्कूल में तो मिड डे मील बनाने का काम मिला हुआ है । उसकी चौदह साल की बेटी जब शाम के समय खेत में गई हुई थी तभी गाँव के दो बिगड़े हुए युवको ने उसके साथ बलात्कार किया । बाद में यह जानकारी गाँव के लोगों को हुई तो दलित बस्ती में बैठक हुई और थाने में रपट लिखाने का फैसला हुआ । थाने में वही हुआ जो आमतौर पर पुलिस करती है । थानेदार ने रपट न लिखाने की सलाह देते हुए समझाया कि गाँव का मामला है इस सब चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । लड़की को अलग धमकाया गया । बाद में एसपी के दखल पर रपट लिखी गई तो फरियादी की जान पर बन आई । अब वे हर आहट पर डर जाते है । सुरेश ने कहा - इतना अत्याचार हुआ और अब पुलिस बदमाश का साथ दे रही है ,हमलोग आतंकित है । घर से बाहर जाने में डर लगता है । बेटी अलग दहशत में है । भतीजा भागा भागा फिर रहा है । इस एक घटना से ज्यादातर गाँव के हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है । इस तरह की घटनाए एक नहीं कई जगह हो चुकी है जो अपनी आजादी के जश्न पर सवालिया निशान भी लगाती है ।

Monday, August 13, 2012

अस्सी पार का अकेलापन

अंबरीश कुमार पापा जिस दिन वाशिंगटन पहुंचे उसी दिन गोरखपुर में उनकी बहन यानी अपनी बुआ जी गुजर गई .उन्हें नहीं बताया यह जानकर कि सदमा न पहुंचे .आज अपूर्व ने कुछ फोटो भेजी जिससे पता चला कि वे घूमफिर भी रहे है .पिछले तीन महीने में वे करीब एक महीना गोरखपुर रहे जबरदस्त गर्मी में .फिर तबियत ख़राब हो गई क्योकि अकेले रहने कि वजह से खाना ढंग से नहीं हो पता .यह जून की बात है .अचानक बनारस से अन्नू का फोन आया कि पापा बहुत कमजोर हो गए है बोल भी नहीं पा रहे है .वह परेशान थी और उन्हें गोरखपुर से बनारस लानाचाहती थी प़र पति को फुर्सत नहीं क्योकि बनारस के जल संस्थान की जिम्मेदारी के चलते लगातार बैठक और व्यवस्था का जिम्मा और आजम खान जैसे मंत्री के आने के बाद काफी सख्ती थी .खैर गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डा आरएन सिंह जिनसे अपना घनिष्ठ संबंध है उन्हें फोन किया ताकि वे फ़ौरन देख ले .मै रामगढ में था और वहा से वाघ एक्सप्रेस से पहुँचने में भी अठारह घंटे लगते दूसरे ठंड औए नाराजगी की की वजह से
साथ आते यह भी संभव नहीं था .डा साहब ने बताया कि थ्रोट इन्फेक्शन की वजह से छाले पड़ गए है इसलिए बोलने में दिक्कत है और कमजोरी है उन्हें गोरखपुर अकेले नहीं छोड़ा जा सकता .प़र पापा अन्नू को छोड़ किसी की सुनाने को तैयार भी नहीं होते .अन्नू भी गोरखपुर पहुँच गई और कहा यहाँ बिजली कटौती के चलते इस गर्मी में रहना बहुत मुश्किल है और पापा को अकेले लेकर जाना भी .तब एसके सिंह से एक टैक्सी करने को कहा और अपने गोरखपुर के संवाददाता विनय कान्त से मदद ली जो साथ पापा को बनारस तक छोड़ कर आए.उसके बाद वे जुलाई के पहले हफ्ते तक वहा रहे और स्वस्थ भी हो गए .उसके करीब महीना भर दिल्ली .अब महीना भए से ज्यादा अमेरिका में रहेंगे .सितम्बर में फिर गोरखपुर .सोलह को गोरखपुर जा रहा हूँ बुआ जी की तेरहवी है और घर भी देख लूँगा .नीचे का पोर्शन ठीक कराना है .पापा रहेंगे वही और मुझे गोरखपुर जाना रास नहीं आता वजह यह भी कि कभी रहा नहीं और कोई सामाजिक दायरा भी नहीं है ,सिर्फ रिश्तेदार है जिनके यहाँ जाने प़र नाली ,दीवार ,बाग बगीचा और खेत सम्बन्धी विवाद के मामले ही चर्चा में रहते है .पापा का गाँव का मोह भी आजतक नहीं छुट पाया है .पूरी फ़ाइल दे चुके है बरहज बाजार से पहले अपने गाँव और घाघरा पार देवार के अपने खेतों की जिसमे मै कभी दिलचस्पी नहीं दिखा पाया .उनकी नाराजगी की एक वजह यह भी रही .मम्मी जबतक थी तो कोई समस्या नहीं थी वे ही पुल थी पिता और पुत्र के बीच .प़र अब एक दूसरे को समझा पाना बहुत मुश्किल होता है .मेरा संवाद बहुत कम हो पाता है या सीधे कहूँ तो बचना चाहता हूँ .उनकी खीज को भी समझ सकता हूँ जिसे वे घर मानते है वहा अब मम्मी के जाने बाद घर जैसा कुछ नहीं है .और जो घर पुत्रों के है उसे वे शायद वह अपना घर नहीं मानते . अमेरिका में वाशिंगटन के पास अपूर्व ने बड़ा घर बनवाया है .पापा ने सविता से कहा यह घर काफी बड़ा और भव्य है ,प़र वहां से भी वे एक महीने बाद यानी सितम्बर में लौट रहे है . फोटो -अमेरिका में अपूर्व के घर के बाहर पापा ,अंजुला और अपूर्व २-व्हाइट हाउस के बाहर घूमते हुए .

Sunday, August 12, 2012

दंगों और वायदों को लेकर पशोपेश में है उत्तर प्रदेश के मुसलमान

अंबरीश कुमार
लखनऊ, १२ अगस्त । उत्तर प्रदेश में मुस्लिम पशोपेश में है । चार महीने में बरेली ,मथुरा ,प्रतापगढ़ और फ़ैजाबाद आदि में छोटे बड़े दंगे हुए हुए तो वे बेगुनाह मुस्लिम नौजवान अभी भी जेल में है जिन्हें चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आने पर छोड़ देने का एलान किया था । मुस्लिम और मानवाधिकार संगठन अखिलेश सरकार से जो अपेक्षा थी उसे लेकर सवाल खड़े कर रहे है । इसके अलावा सच्चर और रंगनाथ आयोग की सिफारिशों पर भी अभी उन्हें कोई ठोस पहल नजर नहीं आ रही । चुनाव में मुस्लिम मतदाता ने कांग्रेस और बसपा को नकारते हुए जो भारी जन समर्थन दिया उसके पीछे समाजवादी पार्टी से कुछ करने की अपेक्षा थी और कांग्रेस को नाकारा भी इसीलिए क्योकि उसने जो वादे किए उसपर अमल नहीं किया । इसी बसपा से नाराजगी की बड़ी वजह मायावती के राज में बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों का गिरफ्तार किया जाना था । पर अखिलेश सरकार को लेकर मुस्लिम समुदाय अब चिंतित है । इसकी एक वजह प्रशासन की लापरवाही से लगातार दंगो का होना और जो चुनावी वायदे थे उसमे देरी होना । बरेली में जिस तरह बीस दिन में दोबारा दंगा हुआ है वह प्रशासन की घोर लापरवाही का नतीजा है । पहले तनाव के समय डीजे के साथ कांवड़ियों को जुलूस की इजाजत देना और फिर वैसी गलती दोहराना । अभी कई महत्वपूर्ण त्यौहार आ रहे है और प्रशासन इसी अंदाज में चला तो मेरठ से लेकर मुरादाबाद तक जैसे अति संवेदनशील शहरों में यह सब दोहराया जा सकता है । प्रदेश सरकार अगर अब न चेती तो हालात और बेकाबू होंगे । दरअसल सारा मामला राजनैतिक है और इसे सिर्फ अफसरों के भरोसे निपटाया नहीं जा सकता । राजनैतिक विश्लेषक वीरेंद्रनाथ भट्ट ने कहा -अभी तो ईद से लेकर नवरात्र तक बाकी है और जिस अंदाज में अफसर काम कर रहे है उससे हालात और ख़राब होंगे । प्रतापगढ़ से लेकर बरेली तक में पुलिस ने अगर एक पक्ष को जुलूस की इजाजत न दी होती तो यह हालात न होती । यह हिन्दू मुस्लिम से ज्यादा प्रशासनिक लापरवाही का मामला है । ये अफसर सुन नहीं रहे और इनपर कोई कार्यवाई भी नहीं होती । दूसरी तरफ भाजपा प्रवक्ता ह्रदय नारायण दीक्षित ने कहा -अफसर क्या करे उसे निर्देश है कि एक समुदाय ने इस सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है इसलिए उसे कुछ नहीं होना चाहिए । बरेली में एक समुदाय के लोगों की हत्या पर फ़ौरन मुआवजा दिया जाता है पर दूसरे समुदाय के गरीब की हत्या पर इंतजार किया जाता है । तुष्टिकरण की इस नीति से तनाव और बढेगा । पर समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने इसे सरासर गलत बताते हुए कहा -जहाँ भी दंगों में अफसरों की लापरवाही मिली वहा सख्त कार्यवाई की गई और आगे भी की जाएगी । जहाँ तक सच्चर और रंगनाथ की सिफारिशों से लेकर बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की रिहाई का मामला है यह वादा हर हाल में पूरा होगा । सरकार इस सब पर पहल कर चुकी है और जल्द ही इसपर अमल होगा । यह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्राथमिकता पर है । कई फैसलों की प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है पर अमल जरुर होगा । इस बीच आतंकवाद के नाम पर कैद निर्दोषों के रिहाई मंच ने समाजवादी पार्टी की सरकार पर आरडी निमेष जांच आयोग के कार्यकाल को न बढ़ाने को कचहरी धमाकों में पकड़े गए निर्दोष मुस्लिम नौजवानों को जेलों में बंद रखने की साजिश करार दिया है। संगठन के संयोजक अधिवक्ता मोहम्मद शुएब ने बताया कि निमेष जांच आयोग की सुनवाई पूरी हो चुकी है, लेकिन बावजूद इसके रिपोर्ट जारी इसलिए नहीं की जा रही है कि आयोग का कार्यकाल पिछले 14 मार्च को खत्म हो चुका है। जिसे सत्ता में आने के बाद समाजवादी पार्टी ने अब तक नहीं बढ़ाया है। जिसके चलते इस घटना में आरोपी बनाए गए आजमगढ़ के तारिक कासमी और मडि़याहूं जौनपुर के खालिद जेलों में सड़ने को मजबूर हैं।मानवाधिकार कार्यकर्त्ता शाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा - एक तरफ तो सरकार के नुमाइंदे समय-समय पर बयान दे रहे हैंकि सरकार चुनाव में किए गए अपने वादे के तहत बेगुनाह युवकों को छोड़ने की प्रक्रिया में है। वहीं पिछले दिनों एडीजी कानून व्यवस्था जगमोहन यादव ने भी कहा था कि जिले के कप्तानों से आतंकवाद के नाम पर पकड़े गए लोगों की जानकारी मांगी गई है जिनकी गिरफ्तारियों पर शिकायतें आईं थीं कि उन्हें गलत तरीके से पकड़ा गया है। पर जिस तरह से तारिक कासमी और खालिद के मामले में सरकार पहले से गठित आरडी निमेष जांच आयोग का कार्यकाल नहीं बढ़ा रही है। जबकि आरडी निमेष जांच आयोग को मायावती सरकार ने 2008 में बनाया था, जिसे 6 महीने में अपनी जांच रिपोर्ट सौंपनी थी। रिहाई मंच ने कहा कि बेगुनाहों की रिहाई पर सरकारों का गैरजिम्मेदाराना रुख सीधे तौर पर सरकार द्वारा मानवाधिकार हनन का मसला बनता है। जिससे जाहिर होता है कि सरकार बेगुनाहों को छोड़ने के अपने वादे से मुकरने की फिराक में है।

Saturday, August 11, 2012

फिर से विचार कर सकते है अन्ना हजारे

अंबरीश कुमार
लखनऊ, अगस्त । जन आंदोलनों और कोर कमेटी के महत्त्वपूर्ण सदस्यों के विरोध के चलते अन्ना हजारे राजनैतिक दल बनाने के मुद्दे पर फिरसे विचार कर सकते है । इस मुद्दे को लेकर वे विभिन्न जन संगठनों और कोर कमेटी के सदस्यों से नए सिरे से बातचीत का सिलसिला शुरू कर रहे है । यह कदम विभिन्न प्रदेशों में इंडिया अगेंष्ट करप्शन के कार्यकर्ताओं के व्यापक विरोध के बाद उठाया गया है । इसके अलावा वे लोग जो देश के विभिन्न हिस्सों में जन आंदोलनों से जुड़े थे उन्होंने भी इस मुद्दे पर तीखा विरोध जताया था । विस्थापान के आंदोलन से जुड़ी मेधा पाटकर से लेकर किसान नेता डा सुनीलम ने राजनैतिक दल बनाने का विरोध किया था । इसके अलावा गाँधीवादी संगठनों ने भी राजनीती के दलदल में फंसने का विरोध किया था । गाँधीवादी नेता राम धीरज ने कहा - गाँधीवादी संगठन अन्ना के आंदोलन में पूरी ताकत से जुड़े थे । पर जिस तरह राजनैतिक दल बनाने का एलान हुआ उससे हमसब निराश हुए । पर अब संदेश मिला है कि अन्ना हजारे इस मुद्दे पर व्यापक स्तर पर राय मशविरा करने के बाद ही अंतिम फैसला लेंगे । इस सिलसिले ले पहले दिल्ली में इस आंदोलन से जुड़े विभिन्न जन संगठनों और व्यक्तियों से बात होगी फिर अन्ना हजारे रालेगांव में सबसे बात करेंगे । अन्ना की कोर कमेटी के सदस्य डा सुनीलम ने कहा - अगर राजनैतिक विकल्प की बात हो तो १९३४ में जिस तरह जेपी .लोहिया ,अच्युत पटवर्धन ,युसूफ मेहर अली से लेकर आचार्य नरेंद्र देव ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था वह एक आदर्श हो सकता है । राजनीति में गिरावट आई है पर इतनी भी नहीं आई कि केजरीवाल ,कुमार विश्वास और संजय सिंह आदि आदि से इतने बड़े सपने का नेतृत्व करने की लोग अपेक्षा करे ।अन्य जन आंदोलनों के नेताओं की भी यह राय रही है कि राजनैतिक विकल्प के सवाल पर पहले व्यापक स्तर पर बहस होनी चाहिए थी जो नही हुई । गौरतलब है कि इस फैसलों को लेकर करीब पचास जिलों से जो पत्र अन्ना हजारे को भेजा गया है उसमे कहा गया है -हम भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ जुड़े साथी आपको अपनी भावनाओं से अवगत कराने के लिए पत्र लिख रहे हैं।आपने 5 अप्रैल 2011 को जब जंतर मंतर पर पहला अनशन किया था तभी से हम आंदोलन के साथ जुड़ गऐ थे। यहां यह उल्लेख करना हम आवश्यक समझते हैं कि मध्य प्रदेश में मुख्यतया दो पार्टियां ही प्रभाव रखती हैं ऐसी स्थिति में दोनो पार्टियों के खिलाफ कोई भी आंदोलन चलाना कितना कठिन हो सकता है यह आप समझ सकते हैं। भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन में देश में फैली निराशा का न केवल खत्म किया बल्कि आशा की नई किरण आपके नेतृत्व में देशवासियों ने देखी जिसके चलते समाज में नई ऊर्जा का संचार हुआ।पूरे आंदोलन पर टीका टिप्पणी करने से पत्र लंबा हो जाएगा इस कारण हम केवल जन्तर मन्तर पर 10 दिन के अनशन के बाद की गई घोषणाओं के प्रभावों को लेकर अपनी भावनाओं से आपको अवगत करा रहे हैं। भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन आप गत 17 वर्षों से महाराष्ट्र में चला रहे थे लेकिन आपने दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन को इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के नाम से चलाने की सहमती दी।आंदोलन का मार्गदर्शन करने के लिए एक कोर कमेटी की घोषणा की गई, आप बराबर यह दोहराते रहे कि आंदोलन का हर फैसला कोर कमेटी के माध्यम से ही किया जाना चाहिए लेकिन हमें यह जानकर कष्ट हुआ कि अनशन समाप्त करने तथा 23 गणमान्य नागरिकों के प्रस्ताव पर नये राजनैतिक विकल्प बनाने को घोषणा की गई। हम उम्मीद करते थे कि घोषणा के पहले आईएसी के कार्यकर्ताओं से दिल्ली तथा देशभर में अनशन कर रहे साथियों से बातचीत कर अनशन समाप्त किया जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ न तो कोर कमेटी में चर्चा हुई न ही अनशनकारियों से पूछा गया और न ही आईएसी के कार्यकर्ताओं से सलाह ली ।हम आपसे यह अनुरोध करना चाहते हैं कि आपने जनलोकपाल, जनलोकायुक्त, तथा 15 भ्रष्ट मंत्रियों की एसआईटी से जांच कराने, दागी सांसदों के लिए विशेष अदालत गठित करने, राईट टू रिजक्ट, राईट टू रिकाल, ग्रामसभा को अधिकारों का हस्तांतरण के मुद्दों पर आंदोलन चलाया, आपसे अनुरोध है कि आप आंदोलन जारी रखें। हम इस मुद्दों पर दुगनी ताकत से अपने-अपने जिलों में आंदोलन चलाऐंगे।अनशन समाप्त करते समय यदि यह घोषणा हो जाती कि हम हर कीमत पर 15 भ्रष्ट मंत्रियों को चुनाव हराने में अपनी ताकत लगाऐंगे तथा दागी सांसदों को संसद में नहीं पहुंचने देंगे तो यह अपने आपमें यह पूरे आंदोलन का बड़ा लक्ष्य हो सकता था। उक्त मुद्दों को लेकर हम आपसे रालेगण सिद्धी में अविलंब मुलाकात करना चाहते हैं। कृपया समय देने का कष्ट करें।

Thursday, August 9, 2012

जन संगठनों ने अन्ना से कहा -राजनीति नहीं ,आंदोलन

अंबरीश कुमार लखनऊ, 9 अगस्त । अन्ना हजारे का राजनैतिक विकल्प देने का रास्ता आसान नहीं है । इस आंदोलन की धुरी रहे विभिन्न जन संगठनों ने हजारे के राजनैतिक दलदल से दूरी बनाने का फैसला किया है । इनमे गांधीवादी ,सर्वोदयी ,समाजवादी धारा के अलावा विभिन्न किसान और अन्य जन संगठन शामिल है । कई प्रदेशों में अन्ना आंदोलन से जुड़े लोगों ने अन्ना हजारे और उनकी मंच वाली टीम का विरोध किया है । उत्तर प्रदेश ,बिहार से लेकर मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में अन्ना आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने आंदोलन जारी रखने का एलान किया है । इस आंदोलन के समर्थन में जुटे किसान संगठनों ने २१ से २३ अगस्त तक दिल्ली में प्रदर्शन कर अपनी ताकत दिखने का एलान किया है । वे किसानो की जमीन छीने जाने के खिलाफ प्रदर्शन तो करेंगे ही साथ ही अन्ना हजारे को यह दिखाएंगे कि आंदोलन की ताकते किस तरह लामबंद है । इसमे कई राज्यों के किसान आएंगे । दरअसल अन्ना के अचानक आंदोलन ख़त्म करने से कई राज्यों में इंडिया अगेंष्ट करप्शन के कार्यकर्त्ता आहत हुए है । मध्य प्रदेश के तो पचास जिलों से कार्यकर्ताओं ने इस संबंध में अन्ना हजारे को पत्र लिखकर कई सवाल उठाए है और अन्ना से कहा है कि वे आंदोलन का नेतृत्व करे । पर अगर अन्ना इसपर राजी नहीं हुए तो भी आंदोलन जारी रहेगा । टीम अन्ना की कोर कमेटी के सदस्य डा सुनीलम ने कहा -हम तो समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव का पद छोड़कर इस आंदोलन से जुड़े थे । पर जिस तरह यह आंदोलन छोड़कर राजनैतिक दल बनाने का फैसला किया गया उससे कई राज्यों के वे कार्यकर्त्ता जो एक सपना लेकर संघर्ष की तैयारी में रहे वे निराश हो गए है । अगर राजनैतिक विकल्प की बात हो तो १९३४ में जिस तरह जेपी .लोहिया ,अच्युत पटवर्धन ,युसूफ मेहर अली से लेकर आचार्य नरेंद्र देव ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया था वह एक आदर्श हो सकता है । राजनीति में गिरावट आई है पर इतनी भी नहीं आई कि केजरीवाल ,विश्वास और संजय आदि इतने बड़े सपने का नेतृत्व करने की लोग अपेक्षा करे ।बिहार आंदोलन के पुराने कार्यकर्त्ता जो बाबा नागार्जुन के साथ जेल में रहे महात्मा भाई ने कहा -राजनैतिक विकल्प किस तरह देंगे यह भी साफ नहीं किया गया है । राजनैतिक सामाजिक बदलाव की लड़ाई पार्टी बना लेने से पूरी नहीं हो सकती । जयप्रकाश आंदोलन के बाद पहली बार बड़े पैमाने पर हिन्दी पट्टी का नौजवान इस आंदोलन से जुड़ा था जिसे अन्ना हजारे के फैसले से बहुत निराशा हुई है और वह ठगा हुआ महसूस कर रहा है । समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -टीम अन्ना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ ही नहीं रही रही वर्ना उत्तर प्रदेश में कोई संघर्ष करती । इन्होने जन भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है । इनके चक्कर में हमारा राष्ट्रीय पदाधिकारी सुनीलम भी फंस गया था । दरअसल आंदोलन का एक तबका इस बात से भी आहत है कि लोकतांत्रिक परिपाटी को तोड़ते हुए इतना बड़ा फैसला किया गया । आज कहा जा रहा है कि जनता घोषणा पत्र बनाएगी ,जनता उम्मीदवार तय करेगी । जब आंदोलन वापस लेने जैसा बड़ा फैसला बिना कोर कमेटी की राय से कर लिया गया तो आगे जनता की कौन राय लेगा । सुनीलम भी इस तर्क के समर्थक है । सुनीलम ने कहा -ऐसे फैसले में कोर कमेटी के सदस्यों को भरोसे में नहीं लिया गया । इसलिए लोग ज्यादा सवाल उठा रहे है । आंदोलन वापस लेना बहुत बड़ा फैसला था । ऐसा नहीं कि देश में आंदोलन नहीं चल रहे हो । इस समय देश में एक हजार से ज्यादा जमीनी आंदोलन चल रहे है और उनका समर्थन इस आंदोलन को मिला था । कई नए कार्यक्रम दिए जा सकते थे मसलन भ्रष्ट मंत्रियों के साथ दागी सांसदों को हराने की अपील हो सकती थी । बहरहाल कई जन संगठन जो अन्ना आंदोलन के साथ जुड़े थे वे अचानक आंदोलन वापस लेने के साथ राजनैतिक दल बनाने के पूरी तरह खिलाफ है । संघर्ष वाहिनी मंच के राजीव हेम केशव ने कहा -टीम अन्ना के फैसले से आंदोलन करने वालों की साख पर असर पड़ा है जो बहुत दुर्भाग्पूर्ण है ।

Wednesday, August 8, 2012

पुलिस ने मानसिक यातना दी -सीमा आजाद

अंबरीश कुमार
लखनऊ, ७ अगस्त । मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सीमा आजाद को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने मानसिक रूप से प्रताड़ित किया था । यह जानकारी आज सीमा आजाद ने जनसत्ता से बात करते हुए दी । माओवादियों से संबंध और नक्सली साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार की गई सीमा आजाद और विश्व विजय को इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद मंगलवार को रिहा किया गया था । इनपर देशद्रोह का आरोप भी लगा जो देश के प्राक्रृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ संघर्ष कर रही थे । करीब ढाई साल जेल में बिताने वाली सीमा आजाद अब सबकुछ नए सिरे से शुरू करने जा रही है । हालत यह है कि इस समय उनकी पास संपर्क के लिए न तो कोई फोन है और न लैपटाप आदि । सीमा आजाद अब उन राजनैतिक बंदियों की लड़ाई शुरू करेंगी जो विभिन्न मामलों में उत्तर प्रदेश की जेलों में है । इस बीच पीयूसीएल ने ११ अगस्त से विभिन्न प्रदेशों की राजधानी में जल जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वालों पर देशद्रोह और अन्य आपराधिक धाराएँ लगाने के खिलाफ अभियान छेड़ेगा जिसमे सीमा आजाद भी शरीक होंगी । गौरतलब है कि पांच फरवरी २०१० को दिल्ली के पुस्तक मेले से झोला भर किताबो के साथ इलाहाबाद लौट रही सीमा आजाद को पुलिस ने गिरफ्तार कर मार्क्स ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तकों को माओवादी साहित्य बताकर जो जेल भेजा तो वे तबसे बाहर नही आ पाई और बाद में निचली अदालत ने न सिर्फ उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी बल्कि अस्सी हजार का जुर्माना भी ठोक दिया । इस सजा को सुनकर सभी हैरान थे क्योकि न कोई हथियार ,न कोई खून खराबा न कोई गंभीर जुर्म और आजीवन कारावास ।पर जेल से बाहर आने के बाद वे और मजबूरी के सरह संघर्ष के लिए तैयार है । भविष्य के बारे में पूछने पर सीमा आजाद का जवाब था -सही बात तो यह है कि हम जब प्रदेश की जेलों में बंद राजनैतिक बंदियों का सवाल उठाने की तैयारी में थे तभी मुझे भी गिरफ्तार कर लिया गया । हमने तो शुरुआती सर्वेक्षण भी किया था पर सब पर पानी फिर गया ,अब फिर से शुरू किया जाएगा । गिरफ्तारी के बाद पुलिस का और बाद में जेल का अनुभव कैसा था यह पूछने पर उनका जवाब था -गिरफ्तारी के बाद शारीरिक यातना तो नही दी गई पर मानसिक रूप से बहुत प्रताड़ित किया गया । जेल में भी काफी संघर्ष करना पड़ा । अख़बार बहुत मुश्किल से मिलना शुरू हुआ । जो कुछ वहा लिखा वह जेल क अफसरों ने संभवतः खुद ही रख लिया आगे नहीं भेजा । जो लिखा गया उसकी भी पड़ताल की जाती । बाहर से जो पत्र आता वह भी नहीं मिलता । जेल में महिला बंदियों की स्थिति कैसी है के जवाब में सीमा ने कहा -महिला बैरक में भी बहुत ख़राब हालत है । औसतन साठ सत्तर बंदी रहती है पर बुनियादी सुविधाएँ भी न की बराबर है । संख्या के लिहाज से टायलट बहुत कम है । वहां भी बहुत सी महिला बंदी ऎसी है जो जमानत न मिलने की वजह से जेल में है । उनकी यह स्थिति नहीं कि अदालत जा सके हाईकोर्ट जाना तो बहुत बड़ी बड़ी बात है । यह बहुत ही गंभीर सवाल है जिनकी बारे में मानवाधिकार संगठनों को आगे आना चाहिए । इस बीच कुछ संगठन भारत छोड़ो आंदोलन की 70वीं सालगिरह के मौक़े पर कल 9 अगस्त से लखनऊ में जनद्रोही क़ानूनों और राज्य दमन के ख़िलाफ़ साझा दस्तक देने जा रहे है । सांस्कृतिक संगठन दख़ल की पहल पर आयोजित हो रहे इस सात दिवसीय कार्यक्रम का समापन स्वाधीनता दिवस, 15 अगस्त को होगा। कार्यक्रम का मक़सद है- जनद्रोही क़ानूनों और राज्य दमन के ख़िलाफ़ लोगों को जगाना और जोड़ना, सच्ची आज़ादी के लिए आवाज़ बुलंद करना। कार्यक्रम का नारा है- देशभक्ति का स्वांग बंद करो, जनद्रोही क़ानून रद्द करो, पिंजरा खोलो, जनता को आज़ादी दो।कार्यक्रम के साझीदारों में राष्ट्रीय स्तर पर गठित काला क़ानून एवं दमन विरोधी मंच और सीमा-विश्वविजय रिहाई मंच के अलावा अमुक आर्टिस्ट ग्रुप, भारतीय जन संसद, इंडियन वर्कर्स कौंसिल, इनसानी बिरादरी, क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच, मज़दूर परिषद आदि जनपक्षधर संगठन शामिल हैं।इस साझा कार्यक्रम का पहला पड़ाव धरना स्थल होगा जहां 9 अगस्त को शाम 3 से 5 बजे तक नुक्कड़ सभा होगी। सभा में शायर तश्ना आलमी अपना कलाम भी पेश करेंगे। 15 अगस्त को कार्यक्रम का समापन भी धरना स्थल पर होगा। बाक़ी पांच दिन शहर के विभिन्न इलाक़ों में नुक्कड़ सभाएं होंगी। jansatta

Tuesday, August 7, 2012

जनसत्ता' ने बहुत साथ दिया -सीमा आजाद

अंबरीश कुमार
सीमा आजाद अब उन राजनैतिक बंदियों की लड़ाई शुरू करेंगी जो विभिन्न मामलों में उत्तर प्रदेश की जेलों में है । सीमा आजाद ने आज इस संवाददाता से बात करते हुए यह जानकारी दी । सीमा कल ही जेल से बाहर आई है । आज सुबह उनसे बात हुई तो कई महत्वपूर्ण जानकारी भी मिली । जेल में किस तरह का व्यवहार हुआ यह भी बताया । करीब ढाई साल का समय जेल में गुजारने वाली सीमा आजाद अब नए सिरे से अपना जीवन शुरू करने जा रही है । फिलहाल न उनके पास कोई कंप्यूटर है और न फोन । कैसे संपर्क कर रही है यह पूछने पर जवाब था -फिलहाल पापा के फोन से बात हो रही है । बातचीत लंबी हुई जिसे लिख रहा हूँ । पर सीमा आजाद ने यह जरुर कहा -'इस लड़ाई में आपने आर आपके अख़बार 'जनसत्ता ' ने बहुत साथ दिया जब सब साथ छोड़ चुके थे । लखनऊ आना है और आपसे मुलाकात भी करनी है । ' चितरंजन सिंह के मुताबिक इस मामले में लदी गई लड़ाई में जनसत्ता की ख़बरों का हवाला भी दिया गया था । गौरतलब है कि पांच फरवरी २०१० को दिल्ली के पुस्तक मेले से झोला भर किताबो के साथ इलाहाबाद लौट रही सीमा आजाद को पुलिस ने गिरफ्तार कर मार्क्स ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तकों को माओवादी साहित्य बताकर जो जेल भेजा तो वे तबसे बाहर नही आ पाई और बाद में निचली अदालत ने न सिर्फ उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी बल्कि अस्सी हजार का जुर्माना भी ठोक दिया । इस सजा को सुनकर उत्तर प्रदेश के जन संगठन और बुद्धिजीवी हैरान थे । न कोई हथियार ,न कोई खून खराबा न कोई गंभीर जुर्म और सारा जीवन जेल में ।मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को मानना है कि उत्तर प्रदेश में जहाँ ज्यादातर माफिया और बाहुबली हत्या जैसे गंभीर मामलों में बरी कर दिए जा रहे हो वह झोला भर किताब के नाम पर आजीवन कारावास की सजा न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रही है । ठीक विनायक सेन की तरह सीमा आजाद को भी सजा सुनाई गई थी ।

सोनी सोरी से बदला ले रही है रमन सरकार

अंबरीश कुमार
लखनऊ, ७ अगस्त । मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने आज छत्तीसगढ़ की जेल मे बंद सोनी सोरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट से तत्काल दखल देने की मांग की है जिस जेल में नंगा कर जमीन पर बैठाने के साथ बुरी तरह प्रताड़ित किया जा रहा है । माओवाद के नाम पर जेल में बंद यह सोनी सोरी वही आदिवासी महिला है जिसके गुप्तांगों में कंकड़ डालने का मामला सामने आने पर सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया और उसका इलाज हुआ । पर अब उसे फिर प्रताड़ित किया जा रहा है और दबाव साला जा रहा है कि वह मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वालों को फंसाने वाला कबूलनामा लिख कर दे । यह जानकारी पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव और छत्तीसगढ़ के प्रभारी चितरंजन सिंह ने जनसत्ता को यहाँ दी । उन्होंने सोनी सोरी के उस पत्र की प्रतिलिपि भी दी और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार हनन के हालात की जानकारी भी दी ।इसके साथ ही पीयूसीएल ने इस मामले में उच्च स्तरीय जाँच की मांग की है और विभिन्न जन संगठनों से भी आगे आने की अपील की है ! मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का यह पुराना आरोप है कि रमन सरकार के राज में आदिवासी अंचल में पुलिस का दमन बढ़ता जा रहा है जिसके निशाने पर वे लोग सबसे आगे है जो जल ,जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे है या सरकार के उत्पीडन के खिलाफ खड़े हुए है । चितरंजन सिंह ने कहा - सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद भी सोनी को थाने में पीता जाता रहा । शर्मनाक तो यह है कि बिजली के झटके देते समय एसपी अंकित गर्ग सोनी से यही तो जिद कर रहा था कि सोनी एक झूठा कबूलनामा लिख कर दे दे जिसमे वो यह लिखे कि अरुंधती राय , स्वामी अग्निवेश , कविता श्रीवास्तव , नंदिनी सुंदर , हिमांशु कुमार, मनीष कुंजाम और उसका वकील सब नक्सली हैं ! ताकि इन सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक झटके में जेल में डाला जा सके ! सोनी सोरी ने २७ जुलाई को जेल से सुप्रीम कोर्ट के नाम भेजे गए पत्र में कहा है - आज जीवित हूं तो आपके आदेश की वजह से ! आपने सही समय पर आदेश देकर मेरा दोबारा इलाज कराया !एम्स अस्पताल दिल्ली में इलाज के दौरान बहुत ही खुश थी कि मेरा इलाज इतने अच्छे से हो रहा है ! पर जज साहब, आज उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है ! मुझ पर शर्मनाक अत्याचार प्रतारणा की जा रही है ! आपसे निवेदन है , मुझ पर दया कीजिए ! ..इस वख्त मानसिक रूप से अत्यधिक पीड़ित हूं ! मुझे नंगा कर के ज़मीन पर बिठाया जाता है !भूख से पीड़ित किया जा रहा है । मेरे अंगों को छूकर तलाशी किया जाता है! जज साहब छतीसगढ़ सरकार , पुलिस प्रशासन मेरे कपडे कब तक उतरवाते रहेंगे ? मैं भी एक भारतीय आदिवासी महिला हूं ! मुझे में भी शर्म है, मुझे शर्म लगती है ! मैं अपनी लज्जा को बचा नहीं पा रही हूं ! शर्मनाक शब्द कह कर मेरी लज्जा पर आरोप लगाते हैं ! जज साहब मुझ पर अत्याचार, ज़ुल्म में आज भी कमी नहीं है !आखिर मैंने ऐसा क्या गुनाह किया जो ज़ुल्म पर ज़ुल्म कर रहे हैं !.. जज साहब मैंने आप तक अपनी सच्चाई को बयान किया तो क्या गलत किया आज जो इतनी बड़ी बड़ी मानसिक रूप से प्रतारणा दिया जा रहा है ? क्या अपने ऊपर हुए ज़ुल्म अत्याचार के खिलाफ लड़ना अपराध है ? क्या मुझे जीने का हक़ नहीं है ? क्या जिन बच्चों को मैंने जन्म दिया उन्हें प्यार देने का अधिकार नहीं है ? पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ प्रभारी चितरंजन सिंह ने आगे कहा -रामन सिंह सरकार की शाह पर पुलिस अब बर्बरता के नए रिकार्ड बना रही है ! जो अफसर प्रताड़ित करने के लिए एक आदिवासी महिला के गुप्तांगों में कंकड़ डाल दे उसे वीरता का पुरुस्कार देने की सिफारिश करने वाली सरकार की मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है ! इस सरकार ने जिस तरह विनायक सेन को प्रताड़ित किया वह सामने आ चुका है ! छत्तीसगढ़ में सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मीडिया का रक हिस्सा पुलिस के निशाने पर है और मौका पड़ने पर कुछ पत्रकारों को भी फर्जी मामलों में फंसाया जा सकता है ! इसलिए मीडिया को भी काफी सतर्क रहने की जरुरत है ! गौरतलब है कि पिछले कुछ समय में छत्तीसगढ़ में मीडिया पर भी हमले बढे है ! jansatta

जिसने पूरी राजनीति बदल दी

लखनऊ ।आज 7 अगस्त के दिन पूर्व प्रधानमंत्री
ने ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके वह महान ऐतिहासिक काम कर दिया जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक कोई दूसरा नेता नहीं कर पाया था । 7अगस्त,१९९0 में प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की तो पूरे उत्तर भारत में राजनैतिक भूचाल आ गया था। मंडल के बाद ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की जो राजनीति बदली, उसने पिछड़े तबके के नेताओं को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक अगड़ी जतियों की जगह पिछड़ी जतियों ने लेना शुरू किया। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति तो ऐसी बदली कि डेढ़ दशक बाद भी कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। उत्तर भारत की राजनीति बदलने वाले वीपी सिंह अगड़ी जतियों और उच्च-मध्यम वर्ग के खलनायक भी बन गए।जनादेश शुरू करने के लिए वीपी सिंह ने ही पहला लेख लिखा जो किसानो पर था । बाद में जब चेन्नई में जनादेश का उद्घाटन जयप्रकाश नारायण के सहयोगी और रामनाथ गोयनका मित्र रहे शोभाकांत दस ने किया तो उन्होंने काफी ख़ुशी जताई थी । वीपी सिंह पर एक रपट भी देखे जो २००८ में लिखी गई थी । Thursday, November 27, 2008 जाना एक फकीर का अंबरीश कुमार भारतीय राजनीति में पिछड़े तबके को राजनैतिक ताकत दिलाने और समाज में उनकी नई पहचान बनाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं रहे। अंतिम समय तक वे सामाजिक बदलाव के संघर्ष से जुड़े रहे। गुरूवार दोपहर करीब ढाई बजे उनका निधन हुआ जबकि बुधवार की रात जन मोर्चा के नेताओं से उनकी राजनैतिक चर्चा भी हुई। जन मोर्चा वीपी के नेतृत्व में जल्द ही उत्तरांचल में सम्मेलन करने ज रहा था तो १५ दिसम्बर को संसद घेरने का कार्यक्रम तय था। वीपी सिंह अंतिम समय तक सेज के नाम पर किसानों की जमीन औने-पौने दाम में लिए जने के खिलाफ आंदोलनरत थे। ७७ वर्ष की उम्र में १६ साल वे डायलिसिस पर रहकर लगातार आंदोलन और संघर्ष से जुड़े रहे। अगस्त,१९९0 में प्रधानमंत्री के रूप में जब उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की तो पूरे उत्तर भारत में राजनैतिक भूचाल आ गया था। मंडल के बाद ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की जो राजनीति बदली, उसने पिछड़े तबके के नेताओं को नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक अगड़ी जतियों की जगह पिछड़ी जतियों ने लेना शुरू किया। बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति तो ऐसी बदली कि डेढ़ दशक बाद भी कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। उत्तर भारत की राजनीति बदलने वाले वीपी सिंह अगड़ी जतियों और उच्च-मध्यम वर्ग के खलनायक भी बन गए। यह भी रोचक है कि लालू यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव तक को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाने का राजनैतिक एजंडा तय करने वाले वीपी सिंह एक बार जो केन्द्र की सत्ता से हटे तो फिर दोबारा सत्ता में नहीं आए। मंडल के बाद ही मंदिर का मुद्दा उठा जिसने भगवा ब्रिगेड को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचा दिया। लोगों को शायद याद नहीं है कि लाल कृष्ण आडवाणी का रथ बिहार में जब लालू यादव ने रोक कर गिरफ्तार किया था तो देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे। इसी के चलते लालू यादव आज भी अल्पसंख्यकों के बीच अच्छा खासा जनाधार रखते हैं। २५ जून, १९३१ को जन्म लेने वाले वीपी सिंह इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी मंत्रिमंडल तक में शामिल रहे। कांग्रेस से उनका टकराव बोफोर्स को लेकर हुआ था जिसने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। आज भी बोफोर्स का दाग कांग्रेस के माथे पर से हट नहीं पाया है। कुछ दिन पहले ही वीपी सिंह की कविता की एक लाइन प्रकाशित हुई थी-रोज आइने से पूछता हूं, आज जाना तो नहीं है। पता नहीं आज उन्होंने यह सवाल किया था या नहीं पर वे आज चले गए। राजनीति के बाद उनका ज्यादातर समय कविता और पेंटिंग में गुजरता था। अगड़ी जतियों के वे भले ही खलनायक हों लेकिन पिछड़ी जतियों, दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के वे हमेशा नायक ही रहे। मुलायम सिंह के शासन में उन्होंने दादरी के किसानों का सवाल उठाया तो वह प्रदेश व्यापी आंदोलन में तब्दील हो गया। इससे पहले बोफोर्स का सवाल उठाकर जब वे उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में घूमें तो नारा लगता था-राज नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। वीपी सिंह लगातार आंदोलनरत रहे और समाज पर उनकी छाप अमिट रहेगी। चाहे मंडल का आंदोलन हो या फिर मंदिर आंदोलन के नाम पर सांप्रदायिक ताकतों का विरोध करना या फिर किसानों के सवाल पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलख जगाना, इन सब में वीपी सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बाद वीपी सिंह दूसरे नेता रहे जिन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा। यही वजह है कि बाद में उनके समर्थकों ने उन्हें जन नायक का खिताब दिया। पर उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का था। जिसके बाद उन्हें मंडल मसीहा कहा जने लगा। यह बात अलग है कि मंडल के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं ने उन्हें हाशिए पर ही रखा। यही वजह है कि उत्तर भारत की राजनीति को बदलने वाले वीपी सिंह कई वर्षो से किसी भी सदन के सदस्य नहीं रहे। आज भी उनके परिवार का कोई सदस्य विधानसभा या संसद में नहीं है। उनके पुत्र अजेय सिंह पिछले कुछ समय से किसानों के सवाल को लेकर सामने आ चुके हैं पर किसी राजनैतिक दल से उनका कोई संबंध नहीं रहा है। वीपी सिंह से करीब १५ दिन पहले फोन पर बात हुई तो उन्होंने किसानों के सवाल को लेकर आंदोलन की योजना की बारे में बताया था। यह भी कहा था कि वे जल्द ही विदर्भ के किसानों के सवाल को लेकर न सिर्फ वहां जएंगे बल्कि वहां धरना भी देंगे। इससे पहले दादरी के मुद्दे को लेकर उन्होंने उत्तर प्रदेश में व्यापक आंदोलन छेड़ा। डेरा डालो-घेरा डालो आंदोलन के जरिए उन्होंने देवरिया से दादरी तक किसानों को लामबंद किया था। इसके अलावा बुंदेलखंड में जब किसानों की खुदकुशी का सिलसिला शुरू हुआ तो वीपी सिंह कई क्षेत्रों में गए। बाद में जन मोर्चा और किसान मंच ने वामदलों के साथ बुंदेलखंड में आंदोलन भी छेड़ा। एक दौर में उनके आंदोलन के साथ राष्ट्रीय लोकदल, भाकपा, माकपा, भाकपा माले, इंडियन जस्टिस पार्टी और कई छोटे-छोटे दल जुड़ गए थे। मुलायम सिंह के खिलाफ राजनैतिक माहौल बनाने में वीपी सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह बात अलग है कि छोटे-छोटे दलों के नेताओं की बड़ी महत्वाकांक्षाओं को वे संभाल नहीं पाए। और इसका फायदा विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को मिला। कुछ महीने से उनकी तबियत काफी खराब चल रही थी पर पिछले २0-२५ दिन से वे स्वस्थ थे। सारी तैयारी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पंजब और महाराष्ट्र में किसान आंदोलन को लेकर चल रही थी। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के ११ जिलों में वीपी सिंह का किसान मंच पिछले एक साल से सक्रिय है। अब दिसम्बर से महाराष्ट्र के किसानों को लेकर नए सिरे से आंदोलन की तैयारी थी। हालांकि आंदोलन का नेतृत्व अजेय सिंह ने संभाल लिया था पर वीपी सिंह की उपस्थिति से ही राजनैतिक माहौल बनता। वीपी सिंह के अचानक गुजर जने से देश के किसानों के आंदोलन को गहरा ङाटका लगा है। वीपी सिंह १९६९ से ७१ तक विधायक रहे। १९७१ में वे पांचवी लोकसभा के लिए चुने गए। १९८0 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और १९८२ तक इस पद पर रहे। १९८३ से १९८८ तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। १९८४ से १९८७ तक राजीव गांधी मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे। बाद में वे १९८७ में रक्षा मंत्री बने।जनसत्ता से

Monday, August 6, 2012

यह जश्न का नहीं संघर्ष तेज करने का समय है

अंबरीश कुमार लखनऊ,६ अगस्त ।मानवाधिकार कार्यकर्त्ता
की जमानत के बाद उत्तर प्रदेश में उन राजनैतिक बंदियों की उम्मीद बढ़ गई है जो देशद्रोह या इससे मिलते जुलते अपराध के चलते जेल में है । सीमा आजाद और विश्वविजय की जमानत मिलने के बाद प्रदेश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के हौंसले बुलंद हो गए है और वे अब इस संघर्ष और आगे बढ़ने जा रहे है ।सीमा आजाद को लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर देश के कुछ हिस्सों में आंदोलन चला था । पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने कहा -यह जश्न का नहीं संघर्ष तेज करने का समय है ,सीमा आजाद को अभी सिर्फ जमानत मिली है और जबतक मुकदमा ख़त्म न हो जाए लडाई जारी रहेगी । यह मामला एक नजीर बनेगा जिससे अन्य राजनैतिक बंदियों की रिहाई का रास्ता साफ़ हो सकता है । मानवाधिकार कार्यकर्ताओ का यह आरोप है कि सीमा आजाद को जमानत दिए जाने और आजीवन कारावास की सजा पर रोक लगाये जाने से यह भी साफ़ हुआ कि निचली अदालते पुलिस की जाँच पड़ताल को अंतिम सत्य मानकर चलती है जिससे बेगुनाह को भी सजा हो सकती है । गौरतलब है कि मिर्जापुर से लेकर वाराणसी तक की जेलों में सौ से ज्यादा राजनैतिक बंदी सालों से बंद है । नक्सली आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किये गए इन बंदियों में ज्यादातर बेगुनाह है पर इनकी जमानत लेने वाला कोई नहीं है । परिवार ने साथ छोड़ा और जिस संगठन के नाम पर ये बदलाव की राजनीति करने निकले उसने भी किनारा कर लिया । नक्सल आंदोलन के नाम पर प्रदेश के विभिन्न जेल में सौ से ज्यादा लोग सालों से पड़े है जिसमे महिलाएं भी शामिल है । मिर्जापुर जेल में बंद सोमरी उर्फ बबिता ,सरिता चेरो और कुसुम आदि इसका उदाहरण है । नौजवानों के बीच सीमा आजाद की रिहाई की मुहिम चलने वाले मानवाधिकार कार्यकर्त्ता शाहनवाज और राजीव यादव ने कहा -पिछली सरकार के कार्यकाल में अगर कोई मुस्लिम फंसा तो उसे आतंकवादी और हिन्दू फंसा तो उसे माओवादी घोषित करने में जरा भी देर नहीं की जाती थी । दुर्भाग्य तो यह रहा कि मीडिया का एक हिस्सा भी पुलिस की जबान बोलता नजर आया था । दूसरी तरफ मायावती सरकार के राज में कई माफिया जो गंभी आपराधिक मामलो में फंसे थे उन्हें धीरे धीरे बरी किया गया । सीमा आजाद के मामले में पुलिस ने शुरू से ही गुमराह करने का काम किया था ।दिल्ली के पुस्तक मेले से वामपंथी धारा की पुस्तके लेकर आने की वजह से उन्हें इलाहाबाद में गिरफ्तार किया गया था । तब इलाहाबाद के डीआईजी प्रेमप्रकाश से यह पूछने पर कि सीमा को क्यों गिरफ्तार किया है, जवाब था -वो देश विरोधी हैं और माओवाद समर्थक हैं और उनके पास से माओवादी साहित्य मिला है । मार्क्स ,लेनिन और चेग्वेरा की पुस्तकों को हर जगह पढ़ाया जाता है पर उत्तर प्रदेश के पुलिस विभाग के अफसर यह नहीं जानते । दुर्भाग्य तो यह है कि पुलिस के वे लोग जो माओवाद विरोधी अभियान की कमान संभाले है उन्हें न तो वामपंथियों के वैचारिक मतभेद का पता है और न यह पता कि वामपंथ की कौन सी धारा हिंसा के विरोध में है । पर सीमा आजाद का मामला अलग था और गिरफ्तारी से पहले वह पूर्वांचल में प्राकृतिक संसाधनों की लूट और घोटालों पर लिख चुकी थी जिससे पुलिस का एक तबका नाराज था । सीमा की गिरफ्तारी के बाद एक पुलिस अफसर से बात हुई तो उसका जवाब था -जाँच अधिकारी जब आरोप पत्र दाखिल कर दे तो अदालत भी कुछ नहीं कर सकती । यह टिपण्णी बताती है कि मौजूदा कानून व्यवस्था में पुलिस का अर्थ क्या है और यही वजह है कि दर्जनों बेगुनाह राजनैतिक बंदी आज भी जेल में है ।

Sunday, August 5, 2012

नए राजनैतिक समीकरण की आहट !

अंबरीश कुमार लखनऊ , अगस्त । आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर नए राजनैतिक समीकरण की आहट महसूस हो रही है । भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी की टिपण्णी को भी इसी रोशनी में देखा जा रहा है । लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बाद सबसे पड़ी पार्टी के रूप में समाजवादी पार्टी के उभरने की संभावना है और मुलायम सिंह यादव इसे देखते हुए अभी से पार्टी और सरकार को कसने में जुट गए है । यह माना जा रहा है कि चुनाव के साथ ही पुराने समीकरण टूटेंगे और नए बनेगे । इस समीकरण में दक्षिण भारत के राजनैतिक दलों के साथ उत्तर और पूर्वोत्तर के राजनैतिक दलों की भूमिका भी बदलेगी । ऐसे में मुलायम सिंह संख्या बल के आधार पर भी महत्वपूर्ण भूमिका में होंगे । यही वजह है कि मुलायम सिंह संगठन को लगातार तैयार कर रहे है । मुलायम सिंह ने यहाँ पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं और नेताओं से कहा - आप लोग संगठन की मजबूती पर जोर दें। पांच वर्षो के संघर्ष के बाद समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है और अब सन् 2014 के चुनावों के लिए जो लक्ष्य है उसे संगठन की एकता और कार्यकर्ताओं के परिश्रम से ही पाया जा सकता है। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा का बहुमत नहीं आएगा। अपने-अपने राज्यों से क्षेत्रीय दलों के सांसद जीतकर आएगें। ऐसे में समाजवादी पार्टी की केन्द्र में प्रभावी और महत्वपूर्ण भूमिका होगी। मुलायम सिंह संगठन पर काफी जोर दे रहे है पर चुनाव के पहले ही सरकार की उपलब्धियां भी बहुत मायने रखेंगी ।उत्तर प्रदेश सरकार जिसे अभी चार महीने हुए है और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मुताबिक उन्हें काम करने का वक्त सिर्फ दो महीने मिला है क्योकि बड़ा समय आचार संहिता और विधान सभा सत्र में चला गया । ऐसे में कानून व्यवस्था का मामला हो या चुनावी वायदों के नतीजे देने का दोनों पर असर पड़ा है । दूसरे यह सभी जानते है कि यह मंत्रिमंडल मुलायम सिंह की पुरानी टीम का ज्यादा है
का बहुत कम ,जहा हर मंत्री चाचा ताऊ की भूमिका में है । यही वजह है कि मुलायम सिंह को बार बार उन मंत्रियों को आगाह करना पड़ रहा है जो पुरानी संस्कृति छोड़ नहीं पा रहे है । यह दिक्कत उन पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ भी है जो राजनैतिक बदलाव को गंभीरता से नहीं ले रहे और उनकी अराजकता से कई बार प्रशासन की फजीहत भी होती है । वरिष्ठ भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -यह तय है कि आगामी लोकसभा चुनाव बाद केंद्र में कांग्रेस या भाजपा की सरकार बनाना बहुत मुश्किल है और ऐसे में क्षेत्रीय दलों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होगी । इन दलों में समाजवादी पार्टी करीब चालीस सीट तक जीत गई तो बड़ी भूमिका में रहेगी । क्योकि तेलुगू देशम ,बीजू जनता दल से लेकर पूर्वोत्तर के दल नए समीकरण बना सकते है । जब नौ सीट वाले दल सरकार पर दबाव बना सकते है तो ज्यादा सीट वाले दल की भूमिका तो महत्वपूर्ण होगी ही । पर अब अखिलेश सरकार को अब नतीजे देने होंगे और पार्टी कार्यकर्ताओं की अराजकता पर कड़ी कार्यवाई करनी होगी तभी उनकी अलग छवि बनेगी ।आए दिन सपा का कोई न कोई कार्यकर्त्ता किसी न किसी जिले में गुंडागर्दी करता पकड़ा जाता है और पुलिस पर धौंस भी जमाता है । दरअसल समाजवादी पार्टी के सामने अपनी पुरानी राजनैतिक संस्कृति के साथ सरकार की उपलब्धियां दोनों बड़ी चुनौती है ।ऐसा नहीं कि कुछ बदलाव नहीं आया है ।समजवादी पार्टी की सरकार आने बाद राजनैतिक संस्कृति भी बदली है । विरोध प्रदर्शन की परंपरागत जगह बहाल हुई । आम लोग मुख्यमंत्री तक पहुंचे । राजनैतिक कटुता में कमी आई । यह वही समाजवादी पार्टी है जिसके नेताओं पर मायावती पर हमला करने का मामला दर्ज हुआ था और अबक जब मायावती की मूर्ति तोडी गई तो न सिर्फ मुलायम सिंह बल्कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उसकी कड़ी निंदा की और दस घंटे में नई मूर्ति लगा दी गई ।यह बदलती राजनैतिक संस्कृति को दर्शाता है । यही वजह है कि अब मुलायम सिंह अपने कार्यकर्ताओं और मंत्रियों को नसीहत देते हुए कहते है कि उन्हें रागद्वेष से काम नहीं करना है। घमंड नहीं करना है। लालच में नही पड़ना है। कार्यकर्ताओं को ट्रांसफर पोस्टिंग के काम में नही लगना है। ध्यान रखना होगा कि भ्रष्टाचार और पक्षपात का आरोप सरकार पर न लगे। जिम्मेदारी बड़ी है उसे बड़प्पन के साथ ही निभाना होगा। यह बताता है कि लक्ष्य २०१३-१४ का लोकसभा चुनाव है । jansatta

Saturday, August 4, 2012

लाल मिटटी का कच्चा रास्ता

अंबरीश कुमार निवाडी के आगे बढ़ने पर दूर एक महल दिखा पर यह साफ़ नहीं था कि यह गढ़ कुंडार है या कोई और । बरसात जारी थी और सड़क खाली । बीच में कही कही बकरियों के झुंड आ जाते । अचानक एक रपटा ( छोटी नदी या बरसाती नाला पर बना पुल ) नजर आया जिसके दाहिने ओर बरगद का बड़ा सा पेड़ देखकर सविता ने रुकने को कहा । इस बीच सड़क पर कुछ बकरिया भी आ गई । चारो ओर हरियाली देखते बनती थी । सड़क भी धुली हुई । कुछ ही देर में फिर बरसात शुरू हो गई ।शाम हो चुकी थी और काले बदल उसे और गहरा कर रहे थे ।कुछ देर बाद किला दूर दिखा पर जो सड़क किले की तरफ जा रही थी पर किले का रास्ता बताने वाला बोर्ड उसके बजाय बाएं तरफ एक कच्चा रास्ता की ओर इशारा कर रहा था ।सविता कच्चे रस्ते पर उतर गई और रास्ता दिखाने लगी ।कुछ देर में ही एक गाँव भी आया जिसमे दर्जन भर कच्चे मकान नजर आए । रक युवक दिखा तो उसे कुछ पूछने की कोशिश की गई पर वह ज्यादा बता नहीं पाया । कच्चा रास्ता और लाल मिटटी ।सविता को लगा यह लाल मिट्टी लेकर चला जाए पर रखने के लिए कोई बैग नहीं था । अब किले का उपरी हिस्सा दिखने लगा था जो एक टूटा हुआ बुर्ज था । पर रास्ता बहुत ही उबड़ खाबड़ और चारो ओर पत्थर फैले हुए । कोई कुछ बताने वाला नहीं । दूर एक महिला बकरियां चराती नजर आई तो सविता ने उसे बुन्देलखंडी में आवाज दी और कुछ देर में वह सामने थी । पानी की एक बोतल और डंडे के साथ । रास्ते भर जितने भी चरवाहे दिखे सभी पानी की बोतल के साथ नजर आए । सववान के जो झूले दिखे वह भी रस्सी नही टायर जोड़कर बनाए हुए थे । वैसे भी गाँव गाँव में दो चीज ऐसी दिखी जो ठीक से पहुंचा दी गई है जिसमे एक सेब है तो दूसरी शराब । एक दवा का विकल्प है तो दूसरी दारू । तीन चार दशक पहले गाँव में सब तभ आता था जब कोई बीमार हो । पर जो कई बदलाव हुए है उनमे एक यह भी है । खैर वह गडरिया महिला सामने आ गई थी और सविता उससे बात करती रही जो ठेठ बुन्देलखंडी में थी जो मै ज्यादा समझ नहीं पा रहा था । बाद में एक पथरीले रास्ते की तरफ उस महिला ने इशारा किया जो सीधी चढ़ाई वाला था । उस यास्ते पर चलना मुश्किल था ड्राइवर को भेजा आगे जाकर असता देखे जाया जा सकता है या नहीं । ड्राइवर ने लौट कर बताया इतनी बड़ी गाड़ी जा नहीं पाएगी । सविता ने कहा ,पैदल चलते है । मैंने कहा ,बरसात कभी भी हो सकती है और पैदल जाने में अँधेरा हो जाएगा । अब कई पुरानी रोमांचक यात्रा को फिर दोहराना नहीं चाहता हूँ । बाद में जब पढ़ा कि इस किले में बिना गाइड के जाने पर बाहर निकलना मुश्किल है तब समझा आया कि एक और संकट से बच गए वर्ना सविता की जिद में पहले भी मौत के मुंह से वापस आ चुके है ( चकराता और गोवा के जंगल में फंस चुके है ) इसलिए ठीक ही फैसला रहा । जब किले से चले तो अँधेरा हो चूका था और झाँसी में सविता का घर जाना भी मुश्किल था क्योकि सैट बज चुके थे और बरसात बढती जा रही थी । अंबर का टेस्ट था इसलिए देर रात लखनऊ पहुंचना जरुरी था । इसलिए कही नहीं रुके और रात डेढ़ बजे घर लौट चुके थे । पर वह किला बार बार दिमाग में उमड़ रहा था । इस किले के बारे में वृन्दालाल वर्मा ने अपनी पुस्तक में जो लिखा है उसका एक अंश आप भी पढ़े - तेरहवीं शताब्दी का अंत निकट था, महोबे में चंदेलों की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसको आज बुंलेदखंड कहते हैं, उस समय उसे जुझौति कहते थे। जुझौति के बेतवा, सिंध और केन द्वारा सिंचित और विदीर्ण एक बृहत् भाग पर कुंडार के खंगार राजा हुरमतसिंह का राज्य था।कुंडार, जो वर्तमान झाँसी से पूर्व-पूर्वोत्तर कोने की तरफ तीस मील दूर है, इस राज्य की समृद्धि-संपन्न राजधानी थी। कुंडार का गढ़ अब भी अपनी प्राचीन शालीनता का परिचय दे रहा है। बीहड़ जंगल, घाटियों और पहाड़ों से आवृत्त यह गढ़ बहुत दिनों तक जुझौति को मुसलमानों की आग और तलवार से बचाए रहा था।महोबा के राजा परमर्दिदेव चंदेल के पृथ्वीराज चौहान द्वारा हराए जाने के बाद से चंदेले छिन्न-भिन्न हो गए। पृथ्वीराज ने अपने सामंत खेतसिंह खंगार को कुंडार का शासक नियुक्त किया। उसी खेतसिंह का वंशज हरमतसिंह था। हरमतसिंह लड़ाकू, हठी और उदार था। परंतु वृद्धावस्था में उसकी उदारता अपने एकमात्र पुत्र नागदेव के निस्सीम स्नेह में परिवर्तित हो गई थी। नागदेव प्रायः बेतवा के पूर्वी तट पर स्थित देवरा, सेंधरी माधुरी और शक्तिभैरव के जंगलों में शिकार खेला करता था। सेंधरी और माधुरी अभी बाकी हैं, शक्तिभैरव, जो पूर्वकाल में एक बड़ा नगर था, आजकल लगभग भग्नावस्था में है। वर्तमान चिरगाँव से पूर्व की ओर छः मील पर एक घाट देवराघाट के नाम से प्रसिद्ध है। देवरा का और कुछ शेष नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में देवरा एक बड़ा गाँव था। अब तो खोज लगाने पर विशाल बेतवा-तल की ऊँची करार पर कहीं-कहीं पुरानी ईंटे और कटे हुए पत्थर, गड़े हुए मिलते हैं। कुंडार से आठ मील उत्तर की ओर देवरा की चौकी चमूसी पड़िहार के हाथ में थी, जो हुरमतसिंह का एक सामंत था। बेतवा के पश्चिमी तट पर देवल, देवधर (देदर), भरतपुरा, बजटा सिकरी रामनगर इत्यादि की चौकियाँ भरतपुरा के हरी चंदेल के हाथ में थीं। इसकी गढ़ी भरतपुरा में थी। यह बेतवा के पश्चिमी किनारे पर ठीक तट के ऊपर थी। यहाँ से कुंडार का गढ़ पूर्व और दक्षिण के कोने की पहाड़ियों में होकर झाँकता-सा दिखाई पड़ता था। अब उस गढ़ी के कुछ थोड़े से चिह्न हैं। किसी समय इस गढ़ी में पाँच सौ सैनिकों के आश्रय के लिए स्थान था। वर्तमान भरतपुरा अब यहाँ से दो मील उत्तर-पश्चिम के कोने में जा बसा है। प्राचीन गढ़ी के पृथ्वी से मिले हुए खंडहर में अब वन्यपशु विलास किया करते हैं, और नीचे से बेतवा पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है। यही हालत बजटा की है। केवल कुछ थोड़े-से चिह्न-मात्र रह गए हैं। तेरहवीं शताब्दी में बजटा अहीरों की बस्ती थी, जो खेती कम करते थे और पशु-पालन अधिक। देवल में, तेरहवीं शताब्दी में, देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर था। पुराना देवल मिट गया है, और उसका पुराना देवालय भी। केवल कुछ टूटी-फुटी मूर्तियाँ वर्तमान देवल के पीछे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। पुराने देवल के धुस्स बेतवा के बैजापारा नामक घाट के पश्चिमी कूल पर फैले हुए हैं, जो खोज लगाने पर भी नहीं मिलते। कभी-कभी कोई गड़रिया बरसात में यहाँ पर भेड़-बकरी चराता-चराता कहीं कोई स्थान खोदता है, तो अपने परिश्रम के पुरस्कार में एक-आध चंदेली सिक्का या चंदेली ईंट पा जाता है। देवधर का नाम देदर हो गया है। रामनगर, सिकरी इत्यादि मौजूद हैं, परंतु अपने प्राचीन स्थानों से बहुत इधर-उधर हट गए हैं। कुछ तो इसका कारण बेतवा की प्रखर धार है, जिसने लाखों बीघे भूमि काट-कूटकर भरकों में लौट-पलट कर दी है, और कुछ इसका कारण आक्रमणकारियों की आग और तलवार है। आजकल देवराघाट के पूर्वी किनारे पर, जिसके मील-भर पीछे दिग्गज पलोथर पहाड़ी है, करधई के जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परंतु जिस समय का वर्णन हम करना चाहते हैं, उस समय वहाँ कुछ भूमि पर खेती होती थी। शेष आजकल की तरह वन था। पीछे पहाड़, बीच में हरी-भरी खेती और इधर-उधर जंगल। उसके बाद नील तरंगमय दो भागों में विभक्त बेतवा। एक धारा देवल के पास से निकलकर देवधर (वर्तमान देदर) के नीचे पश्चिम की ओर देवरा से आधा मील आगे चलकर पूर्व की ओर दूसरी धार से मिल गई है। दोनों भागों के बीच लगभग एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा एक टापू बन गया है, जिसे अब बरौल का सूँड़ा कहते हैं। इसके दक्षिणी सिरे पर शायद खंगारों के समय से पहले की एक छोटी-सी गढ़ी और चहारदीवारी बनी चली आती थी, जो अब बिलकुल खंडहर हो गई है। आजकल इसमें तेंदुए और जंगली सुअर विहार करते हैं। देवल, देवरा और देवधर में बड़े-बड़े मंदिरों की काफी संख्या थी। दुर्गा और शिव की पूजा विशेष रूप से होती थी। इन मंदिरों की रक्षा के लिए और कुंडार में मुसलमानों और अन्य शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन सब चौकियों में खंगारों के करीब दो सहस्र सैनिक रहा करते थे। टापू की चौकी किशुन खंगार के आधिपत्य में थी। कुंडार-राज की सेना में पड़िहार, कछवाहे, पँवार, धंधेरे, चौहान, सेंगर, चंदेले इत्यादि राजपूत और लोधी, अहीर, खंगार इत्यादि जातियों के लोग थे। खास कुंडार में करीब बाईस सहस्र पैदल और घुड़सवार थे। शक्तिभैरव नगर इस नाम के मंदिर के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध था। दो सौ वर्ष के लगभग हुए, तब मंदिर बिलकुल ध्वस्त हो गया था। कहते हैं, ओरछा के किसी संपन्न अड़जरिया ब्राह्मण को शिव की मूर्ति ने स्वप्न में दर्शन देकर अपना पता बतलाया था और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करा दिया था। यह मंदिर शक्ति, भैरव और महादेव का था। मंदिर के अहाते के एक कोने में भैरवी-चक्र की एक शिला अब भी पड़ी हुई है। उस नगर के वर्तमान भग्नावशेष को लोग आजकल सकतभैरों कहते हैं। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इस नगर की कुछ श्री शेष रही। परंतु उसके पश्चात् एकदम उसका अंत हो गया। वहाँ के अनेक वैश्य और सुनार झाँसी, चिरगाँव और अन्यान्य कस्बों में चले गए और वहाँ ही जा बसे। यद्यपि जुझौति का सब कुछ चला गया, मान-मर्यादा गई, स्वाधीनता गई, समृद्धि गई, बल-विक्रम भी चला गया-तो भी चंदेलों के बनाए अत्यंत मनोहर और करुणोत्पादक मंदिर और गढ़ अब भी बचे हुए हैं और बची हुई हैं चंदेलों, की झीलें, जिनके कारण यहाँ के किसान अब भी चंदेलों का नाम याद कर लिया करते हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य जिनका सौंदर्य और भयावनापन अपनी-अपनी प्रभुता के लिए परस्पर होड़ लगाया करता है, अब भी शेष है। पलोथर की पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखनेवाले को कभी अपना मन सौंदर्य के हाथ और कभी भय के हाथ में दे देना पड़ता है। ऐसा ही उस समय भी होता था, जब संध्या समय पलोथर के नीचे बेतवा के दोनों किनारों पर शंख और घंटे तथा कुंडार के गढ़ से खंगारों की तुरही बजा करती थी। और अब भी है जब पलोथर की चोटी पर खड़ा होकर नाहर अपने नाद से देवरा, देवल, भरतपुरा इत्यादि के खंडहरों को गुंजारता और बेतवा के कलकल शब्द को भयानक बनाता है। अब कुंडार में तुरही नहीं बजती। उसमें करधई का इतना घना जंगल है कि साँभर, सुअर और कभी-कभी तेंदुआ भी छिपाव का स्थान पाते हैं।