Friday, January 5, 2018
फिर सरयू किनारे
फिर सरयू किनारे
अंबरीश कुमार
अपना गांव सरयू किनारे है .बाबा दादी ,चाचा चाची सभी इसे सरजू माई बोलते रहे .पांच जनवरी की दोपहर में जब इस नदी किनारे खड़े हुए तो हाड़ कांपने वाली ठंढ और देह भेदने वाली हवा चल रही थी .शाल भी ओढना मुश्किल हो रहा था .हम सरयू नदी के किनारे आए थे .जाना नदी की मुय्ख्य धारा तक था पर एक छोटी धारा सामने थी .मल्लाह ने कहा ,कहां इतनी दूर जाएंगे इसी धारा में नहा लीजिए .अपना जवाब था हम बालू का रेता पार कर मुख्य धारा तक ही जाएंगे .ठंढ औए तेज हवा में और कोई तो नजर भी नहीं अ रहा था .कुछ देर बाद सरयू की मुख्य धारा तक पहुंच ही गए .नदी का पानी साफ़ था .दो बड़ी नाव कुछ दूर पानी में खड़ी थी .वहां तक घुटने भर पानी में चल कर जाना था .अमेरिका में बस चुके छोटे भाई अपूर्व के लिए यह नया अनुभव था .हालांकि बचपन में वह भी इस सरयू में कई बार नहाया था . इस नदी तक पहुंचने से पहले बरहज बाजार का बाबा राघव दास महाविद्यालय दिखा जहां पाप पढ़े थे और कई बार भटनी से छोटी लाइन की और छोटी ट्रेन पकड़ कर जब बरहज आते तो इसी तरफ से जाना होता .बगल से एक रास्ता सिसई गांव तक जाता जिसपर कई बार पैदल ,साईकिल मोटर साईकिल और पिछली बार कार से जाना हुआ .बचपन की बहुत इस याद इस अंचल से जुडी हैं .पापा का तो समूचा बचपन इसी अंचल में गुजरा .सरयू नदी के उस पार अपना खेत खलिहान रहा .दो तीन बार नाव से नदी पार कर अपना भी आना जाना हुआ .गोइठे की आग पर पके दूध की गाढ़ी गुलाबी दही का स्वाद अभी भी नहीं भूलता .यही सरयू रोहू भी देती थी तो झींगा भी जो दूर तक मशहूर थे .घर में शाकाहारी भोजन ही बनता था इसलिए .घर में काम करने वाली लोचन बो के घर मछली बनती थी .उसका घर भी बगल में ते .लोचन तब कलकत्ता के किसी मिल में काम करता था और स्टीमर से गांव तक आता था .शुक्रवार को उसका घर भी दिखा तो सामने की जमीन भी .यह जमीन उसने अपने घर परिवार के लोगों को बाद में बेच दी पर उसके बाद सामने रहने वाले अहीर परिवार ने दावा किया कि यह जमीन उसे भी बेच दी गई थी .अब कई सालों से मुक़दमा भी चल रहा है .गांव में यह सब आम बात है .घर दरवाजे की जमीन को लेकर विवाद चलते रहते है .मुकदमेबाजी तो ग्रामीण समाज की दिनचर्या में बदल चुका है .खैर नदी तक पहुंचा तो गांव भी गया .वह गांव जहां बगल के छोटे से स्कूल में क ख ग सीखा था .खड़िया पट्टी पर .बाद में नरकट की कलम भी इस्तेमाल की .कदम का वह पेड़ तो नहीं मिला जिसके नीचे बैठता था पर वही बेल लदे दो पेड़ मिले .बाई तरफ पुरानी रियासत की छोटी बहू की जर्जर होती कोठी भी दिखी .बताते है की जब उनके पति गुजर गए तो फिर वे उस कोठी में कभी नहीं गई और बनारस से आई इस छोटी बहू की कोठी सामने बनाई गई .रियासत के किस्से अब बंद हो गए क्योंकि रियासत वाली इमारते भी ढहने लगी है और रियासत वाले भी छोटे मोटे काम कर जीवन चला रहे है .ठीक वैसे ही जैसे कई नवाबों के वंशज इक्का तांगा चलाते नजर आ जाएंगे .वर्ना तो एक दौर था पड़ोस की इस रियासत की इमारत के सामने न कोई जूता पहन कर निकल सकता था न टोपी पहन कर .आज उसी रियासत की जर्जर ईमारत के सामने एक ढाबा नजर आया तो तखत लगा कर दाल रोटी से लेकर चिकन कोरमा बेच रहा था .ऐसा लोकतंत्र पहली बार दिखा .
पूर्व प्रधान राम चंदर यादव ने हमें भी वही पर कुल्हड़ में चाय पिलाई .बोले कि एक दिन तो रुकिए सालों बाद आए है .रामचंदर यादव अपने से छोटे हैं पर बहुत बड़े नजर आ रहे थे .यह खानपान ,आबोहवा के साथ शहर और गांव का भी फर्क है .
अपना पुराना घर खपरैल का था .सामने का जो ओसारा था उसमे पच्चीस तीस चारपाई बिछ जाती थी .दाहिने दूर से ही सरयू के दर्शन हो जाते थे जो बाढ़ में दरवाजे तक आ जाती थी .पापा को पेड़ पौधो का शौक था .एक बार करीब दो दर्जन बड़े पौधे उन्होंने छोटे भाई अनिल के साथ गांव भेज दिए .इनमे दशहरी आम ,अमरूद ,कटहल आदि थे .छांगुर बाबा बोले कटहल नहो लगाया जाता है ,घर में झगड़ा होता है .खैर जब भेजा गया तो मैंने उसे लगाया भी .इनमे से दो तीन पेड़ आज भी फल देते है .दशहरी आम और कटहल भी .कभी खाया नहीं .कल राजू ने वे पेड़ भी दिखाए तो छांगुर बाबा याद आए और झगड़े वाली बात भी .झगड़ा ,विवाद और मुकदमा सब तो हुआ पर इसका दोष कटहल के उस पेड़ को क्या देना जो लखनऊ से आया और मैंने सरयू के किनारे इसे लगाया था .वह तो आज भी फल देता है और बेतियाहाता वाली दादी कटहल मंगवाती भी थी .अच्छा लगता था उन्हें .सब याद आ रहा था बगीचे में घूमते हुए .बरामदे में पहुंचे तो बाबूजी की वह पुरानी आराम कुर्सी दिखी जिसपर लेटकर कई उपन्यास पढ़ डाले थे .जब वे नैनी जेल में जेलर थे .सामने पुराना क्रोटन था .गांव में ज्यादा देर रुकना नहीं हुआ .घर से निकले और फिर उस सरयू के दर्शन किए जिसकी मुख्य धारा में दोपहर में पापा का अस्थि विसर्जन करके आए थे . यह पापा की इच्छा थी .वे सरयू तक जाना चाहते थे जिसके किनारे वे बड़े हुए .
पहली फोटो सरयू की तो दूसरी गांव में छोटकी बहू की कोठी और तीसरी बाबूजी की आराम कुर्सी
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