Friday, July 17, 2015

यहां कानून का नहीं देवता का राज है.

यहां कानून का नहीं देवता का राज है जबरसिंह वर्मा करीब सात हजार फुट से अधिक की ऊंचाई पर बसा उत्तराखंड का जौनसार बाबर क्षेत्र अपनी प्राकृतिक खूबसूरती के लिए जाना जाता है लेकिन साथ-साथ यह सामाजिक भेदभाव और शोषण आधारित व्यवस्था के लिए बदनाम भी है. यहां आज भी देश का नहीं बल्कि 'मंदिर' का कानून चलता है, विभिन्न मान्यताओं, परंपराओं, नीतियों और रीति-रिवाज के नाम पर दलितों का शोषण होता है. हिमालय के अंचल में बसे इस क्षेत्र की भौगोलिक विशेषता के कारण यहां के सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) भी जनजाति घोषित हैं इसलिए यहां अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम (एससीएसटी एक्ट) भी लागू नहीं है. यह क्षेत्र सन 1967 से ही जनजाति घोषित है और यहां के सवर्णों को जनजातीय आरक्षण का लाभ मिलता है, नतीजा तकरीबन हर घर में सरकारी अधिकारी मिलते हैं. आश्चर्य नहीं कि जौनसार बाबर को उत्तराखंड के सबसे संपन्न क्षेत्रों में से एक माना जाता है. बहरहाल यह संपन्नता पूरी तरह आर्थिक प्रतीत होती है क्योंकि अगर समृद्धि का एक कतरा भी मानसिक स्तर पर पहुंचा होता तो रीति रिवाज के नाम पर दलितों का जो शोषण हमें देखने को मिल रहा है, वह न होता. दरअसल जौनसारियों के अराध्य देव महासू हैं. उनके कई भव्य मंदिर भी वहां हैं. माना जाता है कि महासू देवता के रहते कानून, पुलिस, प्रशासन की यहां कोई जरूरत नहीं है. नतीजतन, देवता के नाम पर कायदे कानून बनाने और दंड आदि देने का अधिकार इन मंदिरों के पुजारियों और संरक्षकों आदि ने हथिया रखा है. यह व्यवस्था दलितों के शोषण की बुनियाद बनती है. यह पूरा क्षेत्र आज भी डायन और दासी प्रथा जैसी रुढिय़ों को ढो रहा है. यही वजह है कि हनोल स्थित महासू देवता के मंदिर में क्षेत्र के प्रसिद्ध लोक गायक नंदलाल भारती ने अलबम की शूटिंग के दौरान मंदिर के दरवाजे के भीतर सर क्या डाला, तमाशा ही खड़ा हो गया.मंदिर के पुजारी नाराज हो गये और न केवल मंदिर परिसर में गंगा जल छिडक़ कर उसे पवित्र किया बल्कि खुद भी स्नान को चले गये. मानो इतना ही काफी नहीं था, उन्होंने भारती को भरपूर भला बुरा कहने के बाद जुर्माना चुकाने का आदेश भी सुना दिया. विडंबना देखिये कि भारती खुद महासू देवता की स्तुति में गीत गाने के लिये प्रसिद्ध हैं. इस घटना के साल भर बाद जब राखी नामक दलित युवती ने मंदिर में जाने की जुर्रत की तो पुजारियों ने उसे अर्द्धनग्न करके लोगों के सामने बाहर खदेड़ दिया. इसी तरह लखवाड़ स्थिति महासू मंदिर में जौनसार से दुल्हन को लेकर लौटी गढ़वाल क्षेत्र के कांडी गांव की एक बारात को ग्रामीणों ने इसलिए दो घंटे तक घेर कर रखा, क्योंकि दूल्हा दुल्हन मंदिर के आंगन के उस हिस्से तक चले गये थे जहां सवर्ण जाति के लोग अपने जूते रखते हैं. इस 'अपराध' के लिये दोनों पक्षों को न केवल सार्वजनिक माफी मांगनी पड़ी बल्कि एक बकरा और 501 रुपये तुरंत देने के अलावा यह आश्वासन देना पड़ा कि मंदिर में चांदी के सिक्के चढ़ायेंगे. दलित सामाजिक कार्यकर्ता ध्वजवीरसिंह इस विडंबना की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि देवता के मंदिर बनाने, धार्मिक अनुष्ठान करने के लिये दलितों से चंदा आदि वसूला जाता है, मंदिर निर्माण में भी उनका योगदान लिया जाता है, राजमिस्त्री, मिस्त्री, मजदूर से लेकर मूर्तिकार तक सब उनके होते हैं लेकिन मंदिर तैयार होते ही उनको अछूत ठहराकर प्रवेश तक से वंचित कर दिया जाता है. मंदिरों में पुजारी- पुरोहित दलितों का चढ़ावा सीधे हाथ में लेने की बजाय पहले जमीन पर रखवाते हैं, फिर वहां से उठाते हैं. तर्क है कि दलित के हाथ के नीचे सवर्ण (पुजारी) का हाथ नहीं रहना चाहिए. मंदिर में चढ़ावा जमीन पर रखकर नहीं देने पर कई बार दलितों संग मारपीट हो चुकी है. पेयजल के स्रोतों पर दलितों को यह कह कर नहीं जाने दिया जाता है कि वह अपवित्र हो जायेगा. नतीजतन दलित गंदा पानी पीकर बीमार होने को अभिशप्त हैं. महासू के किसी भी मंदिर में आप यदि गये तो पुजारी 'आप किस जाति के हो' ये पूछने की बजाय सीधे कहेगा 'आप राजपूत हो या ब्राहमण' ? वजह साफ है, यहां इन जातियों के सिवाय किसी को प्रवेश की इजाजत ही नहीं. चकराता तहसील मुख्यालय से सटे बाडो गांव में दलितों की स्थिति की असली तस्वीर दिखती है. जो दलित महिला या पुरुष गांव में सवर्णों के साथ काम पर (पशु चराने, घास काटने, खेतों में काम करने) जाता है, उसके लिए टूटे-फूटे बर्तन अलग स्थान पर रखे होते हैं। खाना खाते समय दलित खुद इन बर्तनों को निकालेगा और खाने के बाद धोकर वहीं रखेगा. बमुश्किल 100 मीटर के दायरे में बसे करीब 40 परिवारों के बाडो गांव में 14 दलित परिवारों का 10 फुट की संकरी गली में बना एक खंडहरनुमा सामुदायिक भवन है, वहां से 50 फुट की दूरी पर 25 सवर्ण परिवारों का दो मंजिला आलीशान भवन है. त्रासदी तो यह है कि यहां दलित अपने सामुदायिक भवन में भी प्रवेश नहीं कर सकते. जबकि सामुदायिक भवन तथा वहां मौजूद तमाम चीजें सरकारी पैसे से लोगों के उपयोग के लिये खरीदी गयी हैं. कुछ गांवों में दलित मंदिर के सामने से और गांव के सार्वजनिक रास्ते से गुजरते समय जूते उतारकर गुजरते हैं. कालसी गांव में दलित प्रधान ध्यानचंद के वकील बेटे ने प्रेम प्रसंग के चलते सर्वण युवती संग विवाह रचा लिया, तो पूरे क्षेत्र के सवर्ण उन पर टूट पड़े. बुजुर्ग, महिला से लेकर बच्चे तक की पिटाई की, हड्यिां तक तोड़ दीं. बुलडोजर की मदद से नया घर ध्वस्त कर दिया गया. सवर्णों की इस भीड़ का नेतृत्व भाजपा के एक विधायक कर रहे थे. एक विवाह समारोह में सवर्णों की पंक्ति में बैठकर खाना खा रहे दलित युवक की न केवल पिटायी की गयी बल्कि उससे भारी जुर्माना भी लिया गया. ये घटनायें रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं. इन पर न मीडिया कान देता है न प्रशासन. सरकारी स्कूलों में दलित बच्चे जरूर पढ़ रहे हैं लेकिन मध्याह्न भोजन बनाने वाली कोई स्त्री दलित नहीं है. दलित जनप्रतिनिधियों के साथ प्रताडऩा, मारपीट, छेडख़ानी और बलात्कार की घटनाएं आये दिन होती रहती हैं. उनकी सुनवाई न आकाश में बैठे देवता कर रहे हैं न ही जमीन पर लोकतंत्र के 'मंदिर' में बैठे नये देवता. कानून बना मजाक जौनसार के सवर्ण अनुसूचित जनजाति में आते हैं यही वजह है कि यहां यदि कोई सवर्ण किसी दलित के साथ ज्यादती करता है तो वह एससीएसटी एक्ट के तहत कार्रवाई भी नहीं कर पाता क्योंकि सवर्ण खुद एसटी घोषित है. दलितों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की राह में यह सबसे बड़ा अड़ंगा है. 'मान्यता, संस्कृति, आस्था और परंपरा के नाम पर दलितों के मंदिर प्रवेश पर रोक को जायज नहीं ठहराया जा सकता. पार्टियों और सरकारों को यह सुनिचित करना चाहिए कि दलित समुदाय को उनके संवैधानिक अधिकार प्राप्त हों.' - डा. सुनीलम, राष्ट्रीय संयोजक, समाजवादी समागम ------ ' जौनसारी कोई समुदाय नहीं, बल्कि जाति आधारित समाज है. जौनसार-बाबर में कोई जनजाति निवास नहीं करती. यहां समूचे उत्तराखंड की ही तरह जाति व्यवस्था विद्यमान है और दलितों के साथ छुआछूत होता है, बल्कि जौनसार में जातिगत भेदभाव ज्यादा ही है. क्षेत्र के आधार पर जनजाति घोषित होने से यहां के सवर्णों को आरक्षण मिल रहा है, जो खत्म होना चाहिए. संसद की एक समिति ने जौनसार क्षेत्र का दौरा करके अपनी रिपोर्ट में जौनसार-बाबर को जाति आधारित समाज बताते हुए इसे जनजाति क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की है। एलबीएसएनएए मसूरी के प्रशिक्षु अधिकारियों की रिसर्च रिपोर्ट में भी जौनसार को जनजाति क्षेत्र से बाहर करने की सिफारिश की गई है. यह गंभीर मामला है, जिस पर भारत सरकार को त्वरित कार्यवाही करनी चाहिए.' - प्रदीप टम्टा, पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता उत्तराखंड ---- 'जौनसार की कुल आबादी में कोल्टा जाति करीब 40 फीसदी है, जो पूरे उत्तराखंड में अनुसूचित जाति में शामिल है लेकिन, जौनसार में इसे राजनैतिक लाभ देने के लिए साजिशन अनुसूचित जनजाति घोषित कर दिया गया. इससे वहां की विधानसभा सीट जनजाति के लिए आरक्षित हो गई है, जबकि पंचायत चुनावों में भी जनजाति को ज्यादा सीटें मिलती हैं. एक तरफ जहां कोल्टा जनजाति में होने से अल्पसंख्यक हैं और राजनीति में पूरी तरह निष्प्रभावी, वहीं शेष दलितों का भी यही हाल है. उत्तराखंड विधानसभा को कोल्टा समुदाय को एससी में शामिल करने के लिए संकल्प प्रस्ताव पारित कर जल्द से जल्द केंद्र को भेजना चाहिए. रहा मंदिर प्रवेश का सवाल तो दलितों को मंदिरों में जाने की जरूरत ही क्या है? इससे दलितों को कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि हताशा ही हाथ लगेगी. मंदिर में चले भी गए तो पुजारी नहीं बनने दिया जाएगा.' चंद्रसिंह, पूर्व आईएएस-कमिश्नर, उत्तराखंड (शुक्रवार )