Friday, February 24, 2012

मुस्लिम वोटों की लड़ाई सिर्फ सपा और बसपा में



सहारनपुर से रोमा
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के छटे और सातवें चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुल 127 सीटों पर चुनाव होने जा रहे हैं , यह दौर सरकार बनाने में एक निर्णायक भूमिका अदा करेगा। इन 127 सीटों में से कम से कम 30 ऐसी विधान सभा सीटें हैं, जहां पर मुस्लिम वोटरों की संख्या 30 से 45 फीसदी तक है। साथ ही प्रदेश का यह पश्चिमी क्षेत्र दलित बहुल्य इलाका भी है। यही मुस्लिम मतदाता इस चुनाव में आगामी सरकार बनाने में एक अहम् भूमिका निभाएगें। गौर तलब है कि इस बार भी मुस्लिम मतदाता के ऊपर एक ऐसी सरकार चुनने की जिम्मेदारी है, जो कि साम्प्रदायिक शक्तियों को चुनौती दे सके। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह है कि 80 और 90 के दशक में यह क्षेत्र भारी दंगों की गिरफ्त में रहा है। जिसमें पसमांदा मुस्लिम समाज ने बहुत तकलीफें झेली हैं। इसलिए मुस्लिम समाज में एक खास वर्ग पसमांदा मुस्लिम समुदाय अपनी मांगों के लेकर काफी मुखर हो कर सामने आ रहा है। इस वर्ग पर ही कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की अलग अलग कारण से नज़र है। चूंकि यह बात इन पार्टियों को अच्छी तरह से मालूम है कि अगर उत्तरप्रदेश की सत्ता के सिंहासन तक पहुंचना है, तो मतों का ध्रुवीकरण होना बहुत ज़रूरी है, चाहे वो हिन्दु हों या फिर मुसलमान। यही वजह है कि मतों का धु्रवीकरण करने में यह राष्ट्रीय पार्टियां अपनी ओर से कोई कोर-ओ-कसर नहीं छोड़ रही हैं वो चाहे भाजपा उमा भारती का सहारा लेकर कर रही हों या फिर कांग्रेस द्वारा कूटनीतिक चाल के तहत साम्प्रदायिक छवि वाले नेताओं को साथ लेकर कर रहे हों।
लेकिन इस बार के चुनाव में यह संभव होता दिखाई नहीं दे रहा है। एक तो इस विस चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा का खौफ नहीं है। और दूसरे कम-अज़-कम मुस्लिम मतदाता तो कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी की नीयत को अच्छी तरह से समझता है। इसलिए कांग्रेस को भले ही यह खुशफहमी हो कि मुस्लिम मतदाता बड़ी संख्या में उन्हें अपना मत देंगे पर ऐसी उम्मीद पर तो यही कहा जा सकता है कि ‘‘दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है‘‘। साम्प्रदायिकता से त्रस्त इन दोनों तबकों के गरीब वर्गों के मतों का ध्रुवीकरण करना इन राष्ट्रीय पार्टियों के लिए आसान नहीं ही है, बल्कि इसकी कोशिश मात्र करना भी इन पाटियों को काफी भारी पड़ सकता है।

इस विधान सभा चुनाव में मुस्लिम जनाधार पर अब तीन पार्टियों की दावेदारी है, बसपा, सपा और कांग्रेस। आज मुस्लिम जनाधार का मतदाता उनके समाज से जुड़े कई बुनियादी मुददों पर मुखर होकर बात कर रहा है। जिसमें पसमंदा मुस्लिम समुदाय जो कि मुस्लिम समुदाय में अति पिछड़े, दलित व अन्य ग़रीब तबकों से आते हैं, के मुददे अब राजनैतिक मुददे बनते जा रहे हैं । ज्ञात हो कि इसी समुदाय के सक्रिय सहयोग ने ही बिहार में नितिश सरकार को दो बार सत्ता में लाने का काम किया है। उत्तरप्रदेश के भी अगले चरण के चुनावों में यही तबका काफी महत्वपूर्ण है, जिसपर यह तीनों पार्टियां अपनी-अपनी दावेदारी कर रही हंै। विश्लेषण के दृष्टिकोण से इन तीनों पार्टियों की दावेदारी में फर्क करना निहायत ज़रूरी है और तीनों के जनाधार को अलग से देखना भी ज़रूरी है। दो दशक पहले की स्थिति को देखें तो मुस्लिम जनाधार सपा के पक्ष में साम्प्रदायिक शक्तियों को चुनौती देने के लिए ही शिफ्ट हुआ था, जो कि एक ज़माने में कांग्रेस का मज़बूत जनाधार था। लेकिन पिछले एक दशक से सपा के इस जनाधार में भी काफी गिरावट आई है, जिसकी वजह पिछले दो चुनावों में पिछड़ों की राजनीति के नाम पर सपा द्वारा कल्याण सिंह से अंदर ही अंदर गठजोड़ करना और वहीं दूसरी और मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों को आगे बढ़ावा देना, जिससे कई जगहों पर भाजपा को फायदा मिलना आदि शामिल है। आज कई मुस्लिम इलाकों में यह बात भी हो रही है कि अगर सपा की सरकार आई तो फिर से दंगे हांेगे। दूसरी और पिछले चुनावों में बसपा को इस मुस्लिम जनाधार का कुछ फायदा ज़रूर मिला था क्योंकि इस जनाधार में पसमंदा मुस्लिम समुदायों की संख्या काफी अधिक है। मुस्लिम जनाधार में बसपा की दावेदारी इस बार और भी मजबूत हुई है, चूंकि इन पांच सालों में उत्तरप्रदेश में साम्प्रदयिक दंगे नहीं हुए। और कुछ जगहों पर अगर छुट-पुट वारदात हुई भी हैं, तो उन को प्रशासनिक कड़ाई से संभाल लिया गया। साथ ही इन पांच सालों में सरकार ने पसमंदा मुस्लिम समुदाय को विकास के कई कार्यक्रमों में शामिल किया। उदाहरण के तौर पर कांशी राम आवास योजना मंे 15 से 20 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय को आवास मिलना जिसमें महिलाओं की संख्या भी है। तीसरी दावेदारी कांग्रेस की है जो कि अपने खोए हुए मुस्लिम जनाधार को बेताबी से वापिस लाने के कयास लगा रही है। जिसके लिए वह सपा और बसपा दोनों के जनाधार में सेंध लगाने के लिए गुणा-भाग के गणित में लगी हुई है। वैसे तो कांग्रेस के लिए बसपा के जनाधार में सेेंध लगाना इतना आसान नहीं है और उत्तरप्रदेश में वह मूल रूप से बसपा के ही टक्कर में है। इस तरह से अगर उसे बसपा को हराना है, तो उसे सपा के जनाधार पर सेंध मारी तो करनी ही होगी। कांग्रेस के लिए मुस्लिम जनाधार इसलिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस वजह से भी कांग्रेस सपा के साथ प्रतिस्पर्धा में है, जिसे लेकर दोनों के बीच एक घमासान मचा हुआ है। इस प्रतिस्पर्धा में कहीं कहीं भाजपा को भी फायदा मिल सकता है।

लेकिन जिस तरह से यह मुस्लिम जनाधार तीन जगहों पर बंट रहा है, उससे कांग्रेस की मुश्किलें भी काफी बढ़ गई है और यह पार्टी इस जनाधार को अपने पक्ष में करने के लिए किसी भी सूरत में मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण करने के लिए किसी भी तरह का हथकंडा अपनाने से गुरेज़ भी नहीं कर रही है। मुस्लिम मतदाता अभी तक कांग्रेस पर अपना भरोसा कायम नहीं कर पाए हैं, जिसकी कई वजह हैं, जैसेः 80 व 90 के दशक में मुरादाबाद, मेरठ, मलियाना आदि के दंगों में नकरात्मक भूमिका, बाबरी मस्जिद का विध्वंस, बटला हाउस कांड आदि जिनके लिए उत्तरप्रदेश का मुस्लिम समुदाय उन्हें कभी माफ नहीं कर पाएगा। लेकिन इस बात को जानते हुए भी इस चुनाव में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम जनाधार को समेटने के लिए फिर से साम्प्रदायिक शक्तियों का ही साथ लिया जा रहा है। जिसकी सबसे बड़ी मिसाल सहारनपुर और मुज़फ्फरनगर विधान सभा की सीटों पर उभरते समीकरण हैं।
कांग्रेस द्वारा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में अपने जनाधार को मज़बूत करने के लिए चुनाव से महज़ एक महीना पहले सहारनपुर में पिछले 30 से अधिक वर्षों से कांग्रेस के धुर विरोधी रहे और सपा से राज्य सभा के सदस्य रहे मुस्लिम नेता रशीद मसूद को पार्टी में शामिल किया गया है। रशीद मसूद पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में गुजरात दंगों के बाद साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं व उनके नेतृत्व में 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा सहारनपुर और मुज़फ्फर नगर की तमाम सीटें हार गई थी। यही नहीं 2007 के विधान सभा चुनाव में रशीद मसूद द्वारा सहारनपुर सीट का धु्रवीकरण कराकर अपनी पार्टी के प्रत्याशी संजय गर्ग को हराकर भाजपा को जिताने की कूटनीतिक चाल भी चली थी। गौरतलब है कि इसी सीट पर 2002 में रशीद मसूद के एकता पार्टी के तहत अप्रत्याशित जीत दर्ज की थी, जब उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी संजय गर्ग को समर्थन दिया था और इस सीट से अपनी धर्मर्निपेक्ष राजनीति के कारण संजय गर्ग को लगभग 49 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे। लेकिन संजय गर्ग की मुस्लिम समुदायों में बढ़ती हुई लोकप्रियता व मुंिस्लम समुदायों द्वारा रशीद मसूद व उनके परिवार पर उठते सवालों को उनके लिए हज़म करना काफी मुश्किल था। इसलिए गुजरात दंगों के बाद अपनी स्वार्थपूर्ण राजनीति को जिंदा रखने के लिए रशीद मसूद ने साम्प्रदायिक राजनीति का सहारा लिया। मौज़ूदा चुनाव में कांग्रेस और रशीद मसूद के बीच जो करारनामा हुआ है, उसे राजनैतिक हलकों में दोनों की मौकापरस्त राजनीति ही कहा जा रहा है व इन दोनों पर साम्प्रदायिक शक्तियों को मजबूत करने का आरोप लग रहा है। कांग्रेस का यह गणित था कि रशीदमसूद को पार्टी में शामिल करने से उनके साथ मुस्लिम जनाधार उनको मिल जाएगा और इस चक्कर में कांग्रेस ने क्षेत्र के पुराने कांग्रेसियों को भी दरकिनार कर दिया और रशीदमसूद के कहे अनुसार सहारनपुर की सात व मुज़फ्फर नगर की तमाम विधानसभा सीटों पर टिकट दे कर इस इलाके में अपनी हार का रास्ता साफ कर लिया है। इस बार कांग्रेस के तमाम प्रत्याशियों का तो अन्य पार्टियां मुकाबला करेंगी ही, लेकिन रशीद मसूद व उनके परिवार की इस स्वार्थपूर्ण और साम्प्रदायिक राजनीति को हराने के लिए सहारनपुर शहर सीट से बसपा प्रत्याशी संजय गर्ग, सांसद जगदीश राणा व कांग्रेस से निकले दिग्गज नेता चै0 यशपाल सिंह ने अपनी कमर को कस लिया है। रशीद मसूद व कांग्रेस की कूटनीति के चलते इस क्षेत्र के कई प्रभावशाली पुराने कांग्रेसी नेता सपा में शामिल हो गए हैं।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस-रशीद मसूद गठजोड़ द्वारा सहारनपुर शहर से संजय गर्ग को हराने के लिए भाजपा को ही मजबूत करने की कोशिश की जा रही है। चूंकि कांग्रेस को यह मालूम है कि कांग्रेस तो जीतने वाली नहीं है और अगर भाजपा जीत जाएगी तो भाजपा का डर दिखा कर अगामी लोकसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस की शरण में आना ही होगा। कांग्रेस-भाजपा गठजोड़ का भंडाफोड़ तो उसी दिन हो गया था, जब नामांकन की आख़री तारीख से ठीक एक रोज़ पहले सहारनपुर की चार सीटों पर भाजपा द्वारा प्रत्याशियों की अदला-बदली की गई । सहारनपुर देहात से भाजपा के प्रत्याशी कुलबीर राणा का टिकट एक दिन पहले ही खारिज कर दिया गया, जिन्होंने प्रेसवार्ता में इस बात का खुलासा किया कि उनका टिकट कांग्रेस को फायदा पहुंचाने के लिए खारिज किया गया है। साथ ही गंगोह व देवबन्द सीट में प्रत्याशियों की नामांकन से ठीक एक दिन पहले की गई अदलाबदली को लेकर भी उन्होंने यही आरोप लगाया। देवबंद में भाजपा की ठाकुर महिला प्रत्याशी को गंगोह भेज दिया गया, चूंकि भाजपा व सपा ने भी ठाकुर समुदाय से ही प्रत्याशी को टिकट दिया था। ठाकुर समुदाय के वोट न बंटे इसलिए यह एडजेस्टमेंट किया गया और गंगोह से गुजर समुदाय के प्रत्याशी को देवबंद भेज दिया गया और इस के बदले में कांग्रेस ने सहारनपुर शहर सीट एक कमज़ोर प्रत्याशी को दिया ताकि भाजपा को फायदा मिल सके और बसपा के प्रत्याशी संजय गर्ग को हराया जा सके। इसी तरह बेहट विधान सभा सीट से भी कांग्रेस और भाजपा द्वारा सैनी प्रत्याशी दिए गए थे, जिसकी जगह पर नामांकन के आख़री दिन भाजपा द्वारा राजपूत प्रत्याशी को लाया गया ताकि सैनियों का वोट विभाजन न हो और बसपा के प्रत्याशी महावीर राणा के राजपूत वोट पर सेंध मार कर उन्हें हराया जा सके।
कांग्रेस द्वारा सहारनपुर एवं मुज़फ़्फरनगर की सीटों पर इस तरह की साम्प्रदायिक गठजोड़ की नीति अपनाई जा रही है। जबकि खासतौर पर सहारनपुर शहर की सीट पर इस समय हिन्दु व मुस्लिम दोनों कट्टरपंथियों के खिलाफ़ एक बहुत बड़ा संघर्ष है। गौर तलब है कि संजय गर्ग अपनी धर्मनिर्पेक्ष छवि के लिए जाने जाते हैं जिन्होंने 1993 में बाबरी विध्वंस के बाद जनता दल से चुनाव लडा था। तब वे 64000 वोट लेकर दूसरे स्थान पर ज़रूर रहे, लेकिन वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ उस माहौल में एक बड़ी चुनौती लेकर उभरे थे। यही वजह थी कि इस मुस्लिम बहुल्य इलाके में वे फिर लगातार 1996 और 2002 में भी भारी मतों से जीत कर आए। फिलहाल शहर प्रत्याशी संजय गर्ग द्वारा अपनी व्यक्गित छवि के चलते इस समय दोनों तरह की साम्प्रदायिकता हिन्दु व मुस्लिम को कड़ी चुनौती देने का काम किया जा रहा है, जिसको बसपा से समर्थन मिल रहा है। कांग्रेस एवं भाजपा द्वारा इस तरह का गठजोड़ अन्य सीटों पर भी किया जा रहा होगा, जिसके ऊपर धर्मर्निपेक्ष ताकतों को पैनी और कड़ी निगाह रखनी होगी।
देखा जाए तो पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मुस्लिम नेता तो बहुत रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के नेता न के बराबर हैं। जोकि पसमंदा मुस्लिम समुदायों के मुद्दों पर इर्मानदारी से काम करें। मुस्लिम समुदाय एक संप्रदाय नहीं बल्कि अलग-अलग जातियों में बंटा हुआ समाज है। मुस्लिम समुदाय में पसमांदा समाज अगर भाजपा को हिन्दु साम्प्रदायिकता फैलाने का दोषी ठहराता है तो मुस्लिम समुदाय के अभिजात वर्ग व धार्मिक नेताओं को भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता फैलाने का भी ज़िम्मेदार ठहराता है। यह समुदाय मुख्य रूप से दस्तकार, बुनकर, रिक्शा चलाने वाले, दर्ज़ी, बढ़ई, लकड़ी कारीगर, नक्काशी करने वाले, खेतीहर मज़दूर, ईंट भट्टों पर काम करने वाले मज़दूरों का एक बड़ा तबका है, जोकि आज अपनी विशिष्ट बुनियादी मांगों के लगातार अनदेखी होने के कारण अपने मुस्लिम नेताओं का बहिष्कार कर रहे हैं और उन ताकतों के साथ जा रहे हैं, जो उनका विकास कर सके, व रूढ़िवादी सोच के बंधन से उनको मुक्त करा सके। इस लिए यही समुदाय बेहद मुखर तरीके से साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी खड़ा है। दूसरी ओर कांग्रेस और सपा के एजेंडे में मुस्लिम समुदाय के अंदर जातिवाद से जूझ रहे पसमंदा मुस्लिम समाज के अधिकारों को लेकर कोई ठोस कार्यक्रम भी नहीं है, बल्कि ये कहा जाए कि इन पार्टियों के राजनैतिक कार्यक्रमों में पसमंदा मुस्लिम समाज के मुद्दे किसी बहस में ही नहीं है। मुस्लिम बनुकरों के लिए कुछ कर्ज़ की स्कीमें या पिछड़ों में डेढ़ प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर के कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। जरूरत है इन तबकों को संगठित करके उनकी सरोकार से कोई दीर्घकालीन कार्ययोजना बनाना। लीपापोती से इन तबकों का सुधार होने वाला नहीं है। सारे मुस्लिम समुदाय को एक मुश्त तरीके से देखना पसमंदा समाज की मांगों को नज़रअंदाज़ करना ही है। ज्ञात हो कि इस मुद्दे पर कई छोटी-छोटी पार्टियां सवाल ज़रूर उठा रही हैं, जिसका असर चुनावी प्रक्रिया में ज़रूर पड़ेगा। यह असर कितना होगा इस बात को तो हर सीट के आधार पर विश्लेषण करके ही सही रूप से समझा जा सकता है। केवल मुस्लिम वोट को आधार मान कर जीत निश्चित नहीं समझी जा सकती है। अन्य समुदायों के और विशेषकर दलित और अति पिछड़ी जातियों के परिपे्रक्ष्य में पसमंदा मुस्लिम समाज की भूमिका को देखना होगा। जहां यह समीकरण बनेंगे यह ग़रीब मुस्लिम वर्ग भी वहीं जाएगा, जो कि जगह जगह पर दलित और अतिपिछड़ों की गोलबंदी से काफी प्रभावित है। 2009 के संसदीय चुनाव में पश्चिमी उत्तरप्रदेश में यह तथ्य एकदम साफ रूप से उभर कर सामने आया था। 90 दशक के शुरू में जब उत्तरप्रदेश भंयकर रूप से हिन्दुवादी साम्प्रदायिकता का दौर चल रहा था उस समय से ही इन समुदायों के बीच भी इस साम्प्रदयिकता के खिलाफ गठजोड़ होना शुरू हो गया था। जिसके परिणामस्वरूप 1993 के विधान सभा चुनाव में हिन्दुवादी शक्तियों को करारा झटका मिला था और प्रदेश में पहली बार सपा-बसपा की साझा सरकार बनी थी। हांलाकि दो साल बाद ही सपा की हठधर्मी के चलते यह राजनैतिक गठबंधन टूट गया लेकिन सामाजिक स्तर पर यह गठबंधन दलित, अतिपिछड़ों और मुसलमानों में खत्म नहीं हुई और उनकी एकता मजबूत होती गई। इन तबकों की चेतना से ही उत्तरप्रदेश दंगों की दूसरी ़त्रास्दी से बच गया नहीं तो यह प्रदेश भी गुजरात बन जाता। बसपा और सपा का राजनैतिक आधार इन्हीं तबकों में है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आगे आने वाले सालों में भी यह राजनीति असर करती रहेगी और यहीं वजह हैं कि कांग्रेस भाजपा लगातार कमजोर होती गई।
अगर कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को उत्तरप्रदेश की कमान संभालनी है, तो उसे इस साम्प्रदायिक राजनीति से बाहर आना होगा। अगर यह काम आज से ही इनके द्वारा शुरू किया जाए तो भी कम से कम उन्हें इस प्रदेश में शासन करने के लिए 20 वर्ष और इंतज़ार करना होगा। लेकिन अभी फिलहाल विधान सभा चुनाव में लड़ाई सपा और बसपा के बीच ही है।
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