Sunday, October 29, 2017

एक शाम सूपखार के डाक बंगला में

अंबरीश कुमार यह सूपखार का डाक बंगला है .अब तक देश में सौ से ज्यादा डाक बंगले में रुक चुका हूं पर ऐसा डाक बंगला कभी नहीं देखा .पीले फूलों के किनारे जंगल के उबड़ खाबड़ रास्ते से होते हुए जब इस डाक बंगला में पहुंचे तो फूस की छत वाले पिरामिड आकार में बनी इस संरचना को देखते ही रह गए .यह अद्भुत है .यह सौ साल से भी ज्यादा पुराना डाक बंगला है .कई विशिष्ट अतिथि इसमें ठहर चुके है जिसमे प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी शामिल हैं .मुझे इसके बारे में पत्रकार और साहित्यकार सतीश जायसवाल ने बताया था .देश के डाक बंगलों के बारे में लिख रहा हूं इसलिए जब कवर्धा के जंगल में ' आपसदारियां ' कार्यक्रम बना तभी इसमें आने का कार्यक्रम बना लिया .कवर्धा से भोरमदेव अभ्यारण्य के सम्मोहक रास्ते से होते हुए यहां पहुंचा .यह घने जंगल के बीच है .यह गर्मियों में भी ठंढा रहता है .इसमें कोई पंखा नहीं बल्कि छत से दरी बांधकर हवा देने की व्यवस्था है .यह व्यवस्था कभी जेलों में जेलर के कमरे में होती थी .मैंने इसे सबसे पहली बार जेलर ताऊ जी के घर नैनी जेल के घर में देखा था .सत्तर के दशक में .दो कैदी दिन में इस तरह का पंखा चलाते थे .आज वह फिर याद आया .वैसे देश के बहुत से डाक बंगलों में पहले रुक चुका हूं जिसमे न बिजली न फोन और न पानी का नल था .चकराता के डाक बंगला से लेकर छतीसगढ़ के देवभोग स्थित तौरंगा का डाक बंगला इसमें शामिल है .पर ऐसा विशाल परिसर ,ऐसा भव्य फूस का डाक बंगला पहली बार देखा .जंगल में ठहरना हो तो इस डाक बंगला में जरुर ठहरना चाहिए .ठंड का ही असर होगा जो चीड प्रजाति का दरख्त भी यहां है तो शाल किसी पहरेदार की तरह खड़े हैं .सामने के परिसर में इसका एक अपना और बहुत खूबसूरत जंगल है .ठीक उसी तरह जैसे मालदीव और लक्ष्यद्वीप के बीच रिसार्ट में समुद्र के किनारे हर काटेज का अपना निजी समुद्र होता है .शाम और सुबह के समय धुंध में यह डाक बंगला बहुत रहस्मय लगता है .लंबे बरामदे में बैठे या आराम कुर्सी लेकर सामने के जंगल में बैठ जाएं ,इसे देखते ही रह जाएंगे .

Saturday, October 28, 2017

जंगल में शिल्प का सौंदर्य

अंबरीश कुमार जंगल में भटकते भटकते शाम हो चुकी थी .पहाड़ पर पैदल चलने की वजह से थकावट ज्यादा थी .वैसे भी कल सुबह रायपुर से जल्दी निकलना हुआ और जो नाश्ता पैक कराया वह वैसे का वैसा ही रात तक पड़ा रहा .कान्हा जंगल के चिल्फी द्वार के पास पहले खाने का कार्यक्रम बना पर सतीश जायसवाल के साथ बाहर से आए मित्रों के साथ ही दोपहर के भोज में शामिल होने का फैसला हुआ .बाद में बैठना था ,एक दूसरे से परिचय और फिर अपने अनुभव साझा करने थे .इसलिए कान्हा मुक्की जंगल के द्वार से चिल्फी लौट आए . सुबह कवर्धा के डाक बंगले से चले तो अनिल चौबे ने रसोइये को रात के खाने के लिए कह दिया था क्योंकि कब लौटेंगे यह तय नहीं था .सिर्फ रोहू मछली और भात बना कर रखने को कहा गया था .कवर्धा में नदी और ताल की मछलियां काफी मिलती हैं .वैसे तो समूचा छतीसगढ़ ही लबालब ताल तालाब वाला अंचल है .चार मील चले तो कोई न कोई बड़ा ताल मिल ही जाएगा और रोहू तो बंगाल तक जाती है .यही वजह है कि दो दिन से एकल समय रोहू चावल ही रात के खाने में चल रहा था .खैर चले तो पहला पड़ाव भोरमदेव था .यह छतीसगढ़ का कला तीर्थ भी कहलाता है .गोंड आदिवासियों के उपास्य देव माने जाते हैं और उन्ही के नाम पर यह मंदिर बना है .वे महादेव के रूप हैं .छतीसगढ़ के पूर्व मध्य काल यानी राजपूत काल में बने सभी मंदिरों में यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है .जिसका निर्माण लक्ष्मण देव राय ने कराया था .मंदिर की बाहरी दीवार पर नायक नायिकाओं ,अप्सराओं और नर्तक नर्तकियों की प्रतिमाओं के साथ मिथुन मूर्तियां भी है .इसी वजह से इसे छतीसगढ़ का खजुराहों भी कहा जाता है .चारो ओर जंगल से घिरा पहाड़ है तो सामने के ताल में लगा कमल ध्यान खींचता है .दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी में यह अंचल कला संस्कृति के क्षेत्र में कितना समृद्ध था इसका पता भोरमदेव मंदिर की इन प्रतिमाओं को देख कर पता चलता है .मंदिर के दक्षिण में करीब आधा मील दूर एक शिव मंदिर है जिसे मंडवा महल के नाम से जाना जाता है .इसका निर्माण 1349 ईस्वी में फणी नागवंशी शासक रामचंद्र का हैहयवंशी राजकुमारी अंबिका देवी के साथ विवाह के उपलक्ष्य में कराया गया था .पश्चिम की तरफ मुख किए यह मंदिर आयताकार है .इस मंदिर के भी बाहरी भाग में मिथुन मूर्तियां नजर आती है .जंगल के बीच शिल्प के इस सौन्दर्य को देख कोई भी चकित हो सकता है . भोरमदेव का यही अंचल ऐसा है जो अपने छतीसगढ़ प्रवास के दौरान छूट गया था .तब बस्तर की तरफ ज्यादा जाना होता था खबर की वजह से .खैर कुछ देर बाद भोरमदेव से आगे बढे तो फिर जंगल के बीच काफी देर चलना पड़ा .कान्हा गेट पर नेटवर्क भी नहीं मिला न ही वायरलेस से जंगलात विभाग के किसी आला अफसर से बात हो सकी .हम चिल्फी लौटे तो पंगत पर लोग बैठ चुके थे .एचएमटी प्रजाति के धान से तैयार चावल ,अरहर की दाल ,आलू की सब्जी और चटनी परोसी गई .खाने के बाद सतीश जायसवाल और बाहर से आए लेखक ,पत्रकार और फिल्मकार बैठे .अपने अनुभव साझा किए .तय हुआ करीब बारह किलोमीटर दूर पहाड़ पर एक आदिवासी गांव में आदिवासियों के साथ कुछ घंटे बैठा जाएं .उनसे संवाद हो .उनका रहन सहन और खानपान देखा जाए .साथ भोज हो और रात में लौटा जाए .पर अल्लू चौबे पैदल नहीं चल सकते थे इसलिए जिस जगह तक वाहन जंगल में गए वे वही बैठ गए .हम सब आगे बढे .जंगल का रास्ता और बीच में नदी नाला भी .पर आदिवासियों ने जिस उत्साह से करमा नृत्य से अपना स्वागत किया उससे थकान महसूस नहीं हुई .काफी देर गांव के कुछ घरों को देखते रहे .मुझे अंधेरा होने से पहले लौटना था क्योंकि भोरमदेव अभ्यारण्य का द्वार शाम छह बजे के बाद बंद कर दिया जाता है जानवरों की वजह से .दूसरे चौबे को अकेला जंगल में छोड़ कर आया था .लौटा तो वे गाडी में सोते मिले .अभी अंधेरा नहीं हुआ था पर जंगल पार करते करते रौशनी जा चुकी थी .बहुत प्रयास के बावजूद समय पर भोरमदेव गेट पर नहीं पहुंच पाए और लंबे रास्ते से लौटना पड़ा .रात के करीब आठ बजे डाक बंगला में लौटे .

Sunday, October 1, 2017

गांधी के गांव में एक दिन

अंबरीश कुमार सेवाग्राम (वर्धा), अक्टूबर। महात्मा गांधी की कुटिया के आगे खड़े हुए तो आजादी की लड़ाई का दौर याद आ गया। जिसके बारे में हमने सुना था या पढ़ा था। इस आश्रम को महात्मा गांधी ने नया केन्द्र तब बनाया जब वे १९३४ की मुंबई कांग्रेस में अपना प्रस्ताव नामंजूर हो जने की वजह से नाराज हुए। महात्मा गांधी ने तब कांग्रेस पार्टी के संविधान में वैधानिक और शांतिपूर्ण शब्द की जगह सत्य और अहिंसा रखने का प्रस्ताव किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। जिसके बाद नाराज गांधी ने वर्धा के इस आश्रम में आकर रहना शुरू किया। इसी आश्रम में एक कुटिया के भीतर लकड़ी का बड़ा बक्सा रखा है जिसमें सांप रखे जते थे। पता चला कि अहिंसा के चलते गांधी जी की हिदायत थी कि सांप भी मारे नहीं जएंगे, उन्हें पकड़कर इस बक्से में रखा जएगा और बाद में जंगल में छोड़ दिया जएगा। गांधी का अहिंसा का यह दर्शन आतंकवाद के नए दौर में फिर प्रासंगिक नजर आ रहा है। हालांकि १९३४ की मुंबई कांग्रेस में कांग्रेस ने गांधी के प्रति पूर्ण आस्था का प्रस्ताव भी पास किया था। गांधी कांग्रेस से नाराज हुए पर कांग्रेस के दिग्गज नेता उनकी शरण में ही रहे। आतंकवाद के इस दौर में बापू की अहिंसा फिर एक बड़ा राजनैतिक हथियार साबित हो सकती है। इतिहासकार प्रोफेसर प्रमोद कुमार ने कहा,‘जिस अहिंसा के लिए महात्मा गांधी ने कांग्रेस से नाराज हो वर्धा के मदनवाड़ी आश्रम को अपना नया केन्द्र बनाया, उसने समूचे देश की राजनीति बदल दी। यह बात अलग है कि कांग्रेस पार्टी ने आज तक अपने संविधान में गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रस्ताव को शामिल नहीं किया। आज कोई सोच भी नहीं सकता कि राज्य अहिंसक हो सकता है पर यदि इसे एक बार फिर से अपनाया जए तो आतंकवाद का मुकाबला किया ज सकता है।’ सेवाग्राम के आश्रम में हम वहां खड़े थे जहां कभी महात्मा गांधी सूर्य स्नान किया करते थे। दाहिने हाथ गांधी की कुटिया थी। कुटिया के भीतर गांधी की बैठक जिसमें जमीन पर चटाई बिछी थी। बगल में लकड़ी की वह चौकी थी जिस पर वह सोते थे। यह कुटिया गांधी की सादगी भरी अलग जीवन शली को दर्शाती थी। उनका छोटा पर साफ-सुथरा बाथरूम जिसमें अखबार, पत्र व पत्रिकाएं रखने की भी जगह थी। वे समय का पूरा सदुपयोग करते हुए जरूरी पत्रों तक को वहां पढ़ा करते थे। कुटिया से बाहर निकलने पर सामने घने छायादार वृक्ष नजर आते हैं जो गांधी जी के उस दौर की याद दिलाते हैं। सुबह के दस बजे भी सेवाग्राम परिसर में सन्नाटा पसरा नजर आता है। नागपुर से करीब घंटे भर बाद हम आश्रम पहुंचे तो पता चला कि आजदी के आंदोलन की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी के आश्रम में न तो महाराष्ट्र से कोई नेता सुध लेने आता है और न राष्ट्र से। नागपुर के सामाजिक कार्यकर्ता बाबा डाबरे ने कहा,‘यहां यदा-कदा ही कोई बड़ा नेता आता है। आमतौर पर नागपुर आने वाले या फिर नागपुर से गुजरने वाले पर्यटक तक इधर नहीं आते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि राज्य सरकार ने इसे कोई तवज्जो तक नहीं नहीं दी है। नई पीढ़ी को तो ऐसी जगहों को दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जना चाहिए। यह हमारे इतिहास का स्वर्णिम क्षेत्र रहा है।’ चेन्नई में हमने द्रमुक के संस्थापक अन्नादुरै का स्मारक देखा है जहां हमेशा भीड़ लगी रहती है और उनके समर्थक महिला पुरूष समाधि स्थल के आसपास दंडवत नजर आते हैं। दक्षिण के दलित आंदोलन के महानायक के प्रति लोगों की आस्था कोई भी मरीना समुद्र तट पर जकर देख सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस आश्रम में आज बहुत कम लोग नजर आते हैं। गांधी ने यहां १२ साल गुजरे। यहां से जब वे नोवाखाली के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए निकले तो फिर लौट कर नहीं आए। इससे पहले इसी आश्रम में पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर मुहम्मद अली जिन्ना तक उनसे विचार विमर्श के लिए आते-जते रहे। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म का वह दृश्य याद आता है जिसमें नेहरू और जिन्ना महत्वपूर्ण विषय को लेकर गांधी से चर्चा करना चाहते हैं पर गांधी सहज भाव से बकरी को पो खिलाते नजर आते हैं। महात्मा गांधी की उस जीवन शली को इस आश्रम में आकर कोई भी महसूस कर सकता है। सेवाग्राम के बारे में यह भी कहा जाता है गाँधी वर्धा के इस गावं में ३० अप्रैल १९३६ की सुबह करीब 5 बजे पहुचे थे। साथ थी बा। उन्होंने गावं वालो से बसने की चर्चा की और इजाजत मांगी .पहले इस गावं का नाम सेगावं था जहा एक पगडण्डी आती थी .पोस्ट ऑफिस नही था और साथ ही एक दूसरे गावं का नाम सेगावं था .इस वजह से गांधी जी ने इसका नाम सेवाग्राम रखाबाद में १९४० से यह सेवाग्राम के नाम से जाने लगा.जब गांधी यहाँ आए तो वे ६७ साल के थे .तब यह इलाका साँप और बिचू के चलते बदनाम भी था. सेवाग्राम के इस आश्रम में मिले सीता राम राठौर ने कहा,‘आए दिन बम फट रहे हैं और देश का नौजवान बंदूक उठाकर हिंसा के रास्ते पर चल रहा है। ऐसे में फिर उस संत की याद आती है जिसने अहिंसा का रास्ता पूरी दुनिया को दिखाया। आज के समय में महात्मा गांधी ज्यादा प्रासंगिक हैं जिनके मूल्यों को लेकर समाज में नई पहल की ज सकती है।’ महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के साठ साल पूरे हो चुके हैं और देश आतंकवाद की नई चुनौती ङोल रहा है। ऐसे में वर्धा का यह आश्रम अंधेरे में एक चिराग की तरह नजर आता है।02 October 2008