Wednesday, December 16, 2015

प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस परिवार

प्रभाष जोशी और इंडियन एक्सप्रेस परिवार अंबरीश कुमार इसे संयोग ही कहेंगे कि चार नवंबर 2009 यानी निधन से ठीक एक दिन पहले प्रभाष जी ने लखनऊ में एक्सप्रेस की सहयोगी मौलश्री की तरफ घूमकर हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा.इंडियन एक्सप्रेस से उनका संबंध कैसा था इसी से पता चल जाता है. प्रभाष जोशी करीब 3० घंटे पहले चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे. करीब ढाई घंटे साथ रहे.एक्सप्रेस समूह से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताया.रामनाथ गोयनका और अपने संबंधों के बारे में बताया. यह भी बताया कि संपादकीय मामले में दखल देने पर किस तरह उन्होंने हरियाणा के मुख्यमंत्री देवीलाल से किनारा कर लिया था. देवीलाल जिनसे वे हर दो चार दिन बाद मिलते थे , उन्हें पोस्टकार्ड लिख कर कहा था -देवीलाल जी हरियाणा की सरकार आप चलायें जनसत्ता हमें चलाने दें.ऐसे कई किस्से उन्होंने एक्सप्रेस के पत्रकारों के साथ साझा किये.यह उनकी अंतिम बैठक साबित हुई जिसमे एक्सप्रेस ,फाइनेंशियल और जनसत्ता के पत्रकार शामिल थे. पिछले दिनों एक पुस्तक के सिलसिले में सारा दिन एक्सप्रेस की लाइब्रेरी में गुजरा अस्सी के दशक में जो लिखा उसमें बहुत कुछ मिला तो काफी कुछ छूट भी गया.पर अस्सी के अंतिम दौर और नब्बे की शुरुआत में जनसत्ता में जो लिखा गया फिर देख कर इतिहास में लौटा .राजेंद्र माथुर ,रघुवीर सहाय ,शरद जोशी से लेकर नूतन का जाना और राजनैतिक घटनाक्रम पर प्रभाष जोशी का लिखा फिर पढ़ा .कुछ हैडिंग देखे .प्रभाष जोशी ने दलबदल पर लिखा ' चूहे के हाथ चिंदी है ' फिर एक हैडिंग -चौबीस कहारों की पालकी ,जय कन्हैया लाल की ' और एक की हेडिंग थी -नंगे खड़े बाजार में .यह भाषा , यह शैली प्रभाष जोशी को अमर कर गई . एक ही दिन बाद पांच नवंबर की देर रात दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे. मुझे लगा चक्कर आ जायेगा और गिर पडूंगा .चार नवम्बर को वे लखनऊ में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे. मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अंबरीश कुमार कहां हैं.यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ .मेरे दफ्तर पहुंचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है.प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मैं खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा . चार नवंबर 2009 की शाम थी. मैं लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता के दफ्तर में पहली मंजिल पर किसी खबर को भेज रहा था तभी राममिलन ने आकर कहा ,साहब कोई प्रभाष जोशी जी सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ रहे है .मै खड़ा हुआ और उससे कहा पहले क्यों नहीं बताया उन्हें ऊपर आने से रोकना चाहिये था हम लोग नीचे ही जाकर मिलते .तबतक प्रभाष जी सामने थे .रोबदार आवाज में बोले , क्यों पंडित क्या हो गया तबियत को .उन्हें बैठाया और तबतक इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस के ज्यादातर पत्रकार उनके आसपास आ चुके थे .अचानक बहुत सारी घटनायें याद आ गईं करीब डेढ़ घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गांधी आदि के बारे में बात कर पुरानी याद ताजा कर रहे थे. तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संस्करण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है .प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,मौलश्री सेठ ,दीपा आदि भी मौजूद थीं . प्रभाष जी से इस अंतिम मुलाकात के साथ यह भी याद आया कि मेरी प्रभाष जी से पहली मुलाकात कितनी कठिन रही और वह इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका के कहने के बावजूद नहीं हो पाई थी। वर्ष 1987 की बात है जब इंडियन एक्सप्रेस समूह के तत्कालीन चेयरमैन रामनाथ गोयनका से मुलाकात हुई नई दिल्ली के सुंदर नगर स्थित एक्सप्रेस के उस गेस्ट हाउस में जो उनका दिल्ली में ठिकाना था .गोयनका को लोग आरएनजी कहते थे और मुझे भेजा था चेन्नई में जयप्रकाश नारायण के सहयोगी शोभाकांत दास ने .तब बंगलूर के एक अख़बार में थे और आमतौर पर हर दूसरे रविवार चेन्नई चला जाता था शोभाकांत जी के घर . उनके पुत्र प्रदीप कुमार से हम उम्र होने के नाते बनती थी साथ ही वे जेपी की बनाई छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के तमिलनाडु के संयोजक भी थे .बिहार से आकर दक्षिण के तबके मद्रास में बसे इस परिवार से अपना संबंध भी अस्सी के दशक के शुरुआती दौर का है .छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ा होने के नाते मद्रास के गुडवान्चरी स्थित प्रभावती देवी ट्रस्ट के आश्रम में वाहिनी के एक शिविर में बुलाया गया था .तभी से इस परिवार से संबंध बना .मद्रास सेंट्रल के ठीक बगल में 59 गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट पहुंचा था और बगल में ठहरने का इंतजाम था .बहुत ही अलग अनुभव था . उनका जड़ी बूटियों का बड़ा कारोबार स्थापित हो चुका था . शोभाकांत दास खुद तेरह साल की उम्र में वे आजादी की लड़ाई से जुड गए थे और जवान होते- होते आंदोलन और जेल के बहुत से अनुभव से गुजर चुके थे . हजारीबाग जेल में जेपी को क्रांतिकारियों का पत्र पहुंचाते और उनका संदेश बाहर लेकर आते थे .बाद में सरगुजा जेल में खुद रहना पड़ा जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी के नाम उन्होंने गुडवंचारी में आश्रम बनवाया जिसके ट्रस्ट में तमिलनाडु के सभी महत्वपूर्ण लोग शामिल थे और आसपास के तीस गांवों में इसका काम फैला हुआ था.तब बिहार के सभी वरिष्ठ नेता जो मद्रास आते थे शोभाकांत जी के ही मेहमान होते थे .एम करूणानिधि समेत तमिलनाडु के शीर्ष राजनीतिक भी उनके मित्र ही थे . रामनाथ गोयनका का घर उनके घर के बगल में ही था और उनसे उनके पारिवारिक संबंध थे. शोभाकांत जी चाहते थे कि मद्रास से हिंदी की पाक्षिक पत्रिका शुरू करूं .पर अपना मन बना नहीं .फिर उन्होंने कहा अगर दक्षिण में काम करने की इच्छा नहीं है तो रामनाथ जी के अख़बार से जुड़ना चाहिए जो बहुत अच्छा अख़बार है .मैंने जवाब दिया कि इतनी दूर से दिल्ली जाऊं और वहा कोई पहचाने नहीं तो फिर बैरंग लौटना पड़ेगा .शोभाकांत जी ने कहा कि रामनाथ गोयनका महीने कम से कम एक हफ्ते दिल्ली रहते है .उनसे मै बात करता हूं वे जैसा बतायेंगे फिर वैसा करना .खैर दिल्ली पहुंचा पर इतने बड़े व्यक्तित्व से अकेले मिलने में कुछ झिझक हुई तो पुराने साथी आलोक जोशी जो अब सीएनबीसी आवाज के कार्यकारी संपादक है उन्हें साथ ले गया .सुंदर नगर के गेस्ट हाउस में जब मैनेजर के जरिए सूचना भिजवाई तो खुद गोयनका बाहर निकले .पास आये और गले में हाथ डालकर कमरे में ले गये .बैठाया और बोले ,``देखो एक्सप्रेस में कितना बेसी स्टाफ हो गया है .दो मैनेजर हो गये है .कुछ देर बात करने के बाद आरएनजी ने कहा -ऐसा करो प्रभाष जोशी से जाकर मिल लो .जनसत्ता में सभी का इम्तहान होता है ,तुम्हारा भी होगा .’’ दूसरे दिन बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थित इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में जनसत्ता के दफ्तर गया . प्रभाष जोशी के सचिव राम बाबू से मैंने कहा - रामनाथ गोयनका जी ने भेजा है प्रभाष जी से मिलना चाहता हूं .राम बाबू ने इंटरकाम पर प्रभाष जोशी से बात की ,बताया कि रामनाथ गोयनका ने किसी को भेजा है . फिर जवाब दिया - प्रभाष जी के पास तीन महीने तक मिलने का कोई समय नही है इसके बाद संपर्क करे .खैर यह घटना याद आई और यह भी कि तीन महीने बाद प्रभाष जी का पत्र मिला .परीक्षा हुई आठ घंटे की .इंटरव्यू हुआ और मै इंडियन एक्सप्रेस परिवार का हिस्सा बना . उनके साथ तकरीबन बीस साल का जुड़ाव रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. भाषा, साहस, ईमानदारी और पत्रकार होने के साथ राजनीतिक कार्यकर्ता होने का जज्बा. उन्होंने मेरे जैसे कितने ही लोगों में यह जज्बा पैदा किया और कितनों को बड़े काम करने लायक बनाया. वे सब उनके ऋणी हैं. उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का दायित्व निभाया और यही वजह है कि पत्रकारों को लोकतंत्र का पहरुआ कहा भी जाता है. वही प्रभाष जोशी चार नवंबर 2009 को सामने थे. हमें लगता था अभी फिर मिलेंगे और बहुत कुछ सीखेंगे और उनके नेतृत्व में कुछ नया सामाजिक काम भी करेंगे. वे हिंद स्वराज पर अभियान भी चला रहे थे. उस दिन वे करीब ढाई घंटे साथ रहे और जब एअरपोर्ट के लिए रवाना होने से पहले पैर छूने के लिए झुका तो बोले कंधे पर हाथ रखकर बोले, सेहत का ध्यान रखो पंडित बहुत कुछ करना है. लेकिन किसे पता था कि यह आखिरी मुलाकात होगी. और दूसरे ही दिन देर रात वे हम सबको छोड़ चल दिए. शायद ऊपर इंडियन एक्सप्रेस परिवार को अपना घर बनाने. शुक्रवार

Saturday, December 5, 2015

राम की अग्नि परीक्षा

प्रभाष जोशी राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिखपोत दी.हिंदू आस्था और जीवन परंपरा में विश्वास करने वाले लोगों का मन आजदुख से भरा और सिर से झुका हुआ है. अयोध्या में जो लोग एक-दूसरे को बधाई दे रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विवादितढांचे को ढहाना हिंदू भावनाओं का विस्फोट बता रहे हैं – वे भले ही अपने को साधु-साध्वी, संत– महात्मा और हिंदू हितों का रक्षक कहते हों उनमें और इंदिरा गांधी की हत्या की खबर पर ब्रिटेन में तलवार निकाल कर खुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है. एक निरस्त्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य जितना राक्षसी है उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्मस्थल को ध्वस्त करना नहीं है. वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मंदिर भी. ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मंदिर बनाएंगे वे राम को मानते, जानते और समझते नहीं हैं. राम के रघुकुल की रीत है- प्राण जाए पर वचन न जाई. उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार, भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सुप्रीम कोर्ट, संसद और राष्ट्र की जनता को वचन दिया था कि विवादित ढांचे को हाथ नहीं लगाया जाएगा. लेकिन कल अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट, संसद और देश को धोखा दिया गया. कहना कि यह हिंदू भावनाओं का विस्फोट है झूठ बोलना है.जिस तरह से ढांचे को ढहाया गया वह किसी भावना के अचानक फूट पड़ने का नहीं सोच-समझ कर रचे गए षड्यंत्र का सबूत है.भाजपा के ही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी वहां मौजूद थे.वे साधु- महात्मा भी वहां थे जिन्हें मार्गदर्शक मंडल कहा जाता है.विहिप, भाजपा और संघ को अपने अनुशासित कारसेवकों और स्वयंसेवकों पर बड़ा गर्व है.लेकिन वे सब देखते रहे और ढांचे को ढहा दिया गया.ढांचा ढहाते समय रामलला की मूर्तियां ले जाना और फिर ला कर रख देना भी प्रमाण है कि जो हुआ वह योजना के अनुसार हुआ है.भाजपा की सरकार के प्रशासन और पुलिस का भी कुछ न करना कल्याण सिंह सरकार का इस षड्यंत्र में शामिल होना है. कल्याण सिंह ने पहले इस्तीफा दिया और फिर भारत सरकार ने उन्हें डिसमिस कर के उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया है. भाजपा की एक सरकार ने बता दिया है कि वह अपना जनादेश किस तरह पूरा करती है.उसमें न सैद्धांतिक निष्ठा थी, न सवैधानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी को वहन करने की शक्ति.वह जिस मौत मारी गई उसी के योग्य थी.क्योंकि वह उग्रवादियों के हाथों का खिलौना हो गई थी और षड्यंत्रकारियों ने उसका इस्तेमाल ढांचा ढहाए जाने तक किया.वे डेढ़ साल से कल्याण सिंह की सरकार को मंदिर बनाने की बाधाएं दूर करने का साधन बनाए हुए थे. अपने संवैधानिक, संसदीय और नैतिक कर्त्तव्य से समझते –बूझते हुए पलायन करने वाली सरकार के लिए कोई आंसू नहीं बहाएगा लेकिन जनता फिर से ऐसी सरकार बनने देगी? भारत सरकार ने राष्ट्रपति शासन जरूर लगाया है लेकिन इतने महीनों से वह उत्तर प्रदेश सरकार और भाजपा को जिम्मेदार बनाने की राजनैतिक खेल में लगी हुई थी. अब ऐसी हालत उसके सामने है कि अयोध्या में दो–तीन लाख लोग इकट्ठे हैं. पुलिस और अर्धसैनिक बलों को वहां पहुंचने में अनेक बाधाएं हैं. जो टकराव वह टालना चाहती है अब उसमें वह गले–गले पहुंच गई है.ढांचे की रक्षा, संविधान और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सम्मान उसकी भी उतनी ही जिम्मेदारी थी जितनी उत्तर प्रदेश सरकार की.क्या उसने एक प्रदेश की निर्वाचित सरकार पर विश्वास कर के गलती नहीं की?क्या उसे संविधान की रक्षा के लिए गैर सवैधानिक कदम उठाने चाहिए थे?इन सवालों के जवाब आसान नहीं होंगे लेकिन इतिहास में वह कोई कारगर सरकार नहीं मानी जाएगी. कोई नहीं जानता कि भारत सरकार अब अयोध्या में कितना कुछ कर सकेगी लेकिन देश का जनमत उसे बख्शेगा नहीं. सही है कि सभी राजनैतिकों और राजनैतिक पार्टियों ने अयोध्या के मामले को उलझाया है. सभी ने उसका राजनैतिक उपयोग किया है और कल जो हुआ है उसमें इस राजनीति का भी हाथ है.लेकिन राम मंदिर निर्माण का आंदोलन विश्व हिंदू परिषद चला रही थी.यह संस्था संघ की बनाई हुई है.कल से शुरू होने वाली कार सेवा का भार संघ ने लिया था.बजरंग दल और शिवसेना के लोग क्या कर सकते हैं इसे संघ परिवार जानता था. लेकिन उनने लोगों की भावनाओं को भड़काया और उन्हें बड़ी संख्या में अयोध्या में जमा किया. राजनैतिक पार्टियों के खेल तो सब जानते हैं लेकिन संघ, हिंदू समाज को हिंदू संस्कृति के अनुसार संगठित करने का दावा करने वाला संगठन है और विश्व हिंदू परिषद मंदिर और वह भी राम का मंदिर बनाने निकली संस्था है. आप कांग्रेस और भाजपा को राजनैतिक पार्टियों की तरह कोस सकते हैं. लेकिन संघ परिवार को क्या कहेंगे जिसने धर्म और समाज के लिए लज्जा का यह काला दिन आने दिया? देश का बृहत्तर हिंदू समाज अयोध्या में जो हुआ उस पर शर्मिंदा है और देश कौ कैसे बचाना यह उसी की उदार और सहिष्णु परंपरा में स्थापित है.वह पूछेगा कि राम का मंदिर वचन तोड़ कर, धोखाधड़ी और बदले की नींव पर बनाओगे? और जो कहेगा कि हां, उससे वह पूछेगा, कि यह हिंदू धर्म है? कोई नहीं कह सकता कि कार सेवा के नाम पर ढांचा इसलिए ध्वस्त हुआ कि अचानक भड़की भावनाओं को रोका नहीं जा सकता था. मुलायम सिंह की तरह अयोध्या जाने पर किसी ने पाबंदी नहीं लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने कार सेवा की इजाजत दी थी. जिस इलाहाबाद हाईकोर्ट पर फैसले को टांगे रखने का आरोप है वह पांच दिन बाद अधिग्रहीत भूमि पर निर्णय देने वाला था. तब तक कार सेवा ठीक से चल सके इसकी कोशिशों में केंद्र सरकार ने सहयोगी रूख अपनाया था. उत्तर प्रदेश की सरकार ने पुलिस की तैनातगी इतनी कम कर दी थी कि उसे देख कर किसी के भड़कने की संभावना नहीं थी. कार सेवा में जिन रोड़ों की बातें भाजपा-विहिप आदि करते रहे हैं वे सभी हटे हुए थे. और ऐसा भी नहीं कि 'गुलामी' के तथाकथित प्रतीक उस ढांचे को कारसेवकों और उनके नेताओं ने पहली बार देखा हो कि वे एकदम भड़क उठे. वह ढांचा वहां साढ़े चार सौ साल से खड़ा था और उसमें कोई तिरयालीस साल से रामलला विराजमान थे और वहां पूजा-अर्चना की कोई मनाही नहीं थी.फिर उसे गिराने और इस तरह गिराने की अनिवार्यता क्या थी? यह भी नहीं कहा जा सकता कि वहां केंद्र ने टकराव मोल लिया हो. लोगों को भड़काया हो. भाजपा और संघ के ही नहीं विहिप और बजरंग दल जैसे उग्रवादी संगठनों ने भी कहा था कि केंद्र करेगा तो ही टकराव होगा. लेकिन केंद्र कल दिल्ली में सात घंटे तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा और तथाकथित कारसेवकों ने अपने नेताओं की उपस्थिति में उग्र-से-उग्र काम कर डाला. कोई नहीं कह सकता कि उन्हें उत्तेजित किया गया.कोई नहीं कह सकता कि यह भावनाओं का अचानक विस्फोट था. यह जबरदस्ती और सोच-समझ कर किया गया अपकर्म है. इसमें जो धोखाधड़ी है वह हमारे लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष संविधान को दी गई चुनौती नहीं है. यह पूरे हिंदू समाज की विश्वसनीयता, वचनबद्धता और उत्तरदायित्व को नुकसान पहुंचाया गया है. संघ परिवार को फैशनेबल धर्मनिरपेक्षता की चिंता न भी हो तो कम-से-कम उस समाज की परंपरा, वचनबद्धता और विश्वसनीयता की फिक्र तो करनी चाहिए जिसे वह विश्व का सबसे उन्नत और संस्कृत समाज मानता है. इसके बाद हम सिख आतंकवादियों के धर्म की आड़ में चलते खालिस्तान और कश्मीर के मुसलमान आतंकवादियों की आजादी के जिहाद का क्या जवाब देंगे?ताकत भी दिखाने के धर्मनिष्ठ, पारंपरिक, सवैधानिक और संसदीय रास्ते हिंदू समाज के लिए खुले हुए थे फिर क्यों उसे इस मध्ययुगीन बर्बरता में डाला गया?जो मानते हैं कि ढांचा ध्वस्त कर के वे हिंदुत्व की नींव रख रहे हैं जल्द ही देखेंगे कि हिंदू समाज उन्हें कहां पहुंचाता है.बदले की भावना से कांपने वाले प्रतिक्रियावादी कायरों के अलावा किसी हिंदू हृदय ने इस विध्वंस का समर्थन किया है? देश, केंद्र सरकार और हिंदू समाज के सामने आजाद भारत का सबसे बड़ा संकट मुंह बाए खड़ा है. अगले कुछ दिनों में उन्हें अग्नि परीक्षा में से गुजरना है. संविधान और संसदीय परंपरा उनके साथ है और उन्हें एकता और अखंडता की ही रक्षा नहीं उन परंपराओं का भी निर्वाह करना है जो हजारों सालों से इस देश को धारण किए हुए हैं और जिनके नष्ट हो जाने से न भारत भारत रहेगा, न हिंदू समाज हिंदू. इस संकट में वे भगवान राम से भी प्रेरणा ले सकते हैं जिन्होंने ऐसे संकट में विवेक के साथ मर्यादा की स्थापना और रक्षा की है. छह दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद लिखा गया और 7 दिसम्बर को जनसत्ता में छपा प्रभाष जोशी का यह लेख सहिष्णुता और असहिष्णुता पर मचे मौजूदा घमासान के इस दौर में बेहद प्रासंगिक है. यह न सिर्फ हिंदुत्ववादी ताकतों के असली चरित्र को उजागर करता है बल्कि प्रभाष जोशी की निर्भीक और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता का प्रमाण भी है.यह उन लोगों के लिए आइना भी है जो उनके नाम पर भोजन और भजन की पत्रकारिता करते हैं.प्रभाष जी ने 17 नवम्बर 1983 को जिस जनसत्ता को शुरू किया वह अपने समय से आगे का अखबार था और इस साल उसने 32 वर्ष पूरे कर लिये.संयोग से पांच नवम्बर प्रभाष जी कि पुण्यतिथि भी थी. इस मौके पर हम उनका पुण्य स्मरण करते हुए कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे है

Thursday, December 3, 2015

रियो टिंटो पर मेहरबान है शिवराज सिंह सरकार

धीरज चतुर्वेदी छतरपुर . उच्च न्यायालय ने छतरपुर जिले के बकस्वाहा में हीरा कंपनी रियोटिंटो के पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी है. पहल संस्था की याचिका पर उच्च न्यायालय ने इसे पर्यावरण और जीव जंतुओं के लिए नुकसानदायक बताया. हीरा कंपनी रियोटिंटो को मई 2006 में बकस्वाहा के जंगलों को काटकर हीरा ढूंढने का लाइसेंस दिया था. ये जंगल करीब 2329 हेक्टेंयर में फैला हुआ है. बुंदेलखंड से जुड़ा ये पूरा इलाका सूखे की मार झेलता रहता है. पर यहां जंगलों की कोख में बेशकीमती हीरे के मिलने के आसार हैं. ऐसे में गरीबी की मार झेल रहे इस क्षेत्र पर सरकार की नजर यहां के बेशकीमती हीरे पर गड़ गयी है. इसलिए इस जंगल को उजाड़ने की भी तैयारी हो रही है. मध्य प्रदेश में आने वाले बुंदेलखंड इलाके के छतरपुर के लोगों को विकास का सपना दिखाकर अब तबाह करने का खाका तैयार कर चुकी है. इसका जिम्मा सरकार ने रियोटिंटो कंपनी को दिया है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कंपनी के प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन भी कर गये हैं. कंपनी के साथ मुख्यमंत्री भी बुंदेलखंड के अति पिछडे़ छतरपुर जिले के बक्सवाहा इलाके में विकास की गंगा बहा देने का सपना भी दिखा गये हैं. लेकि‍न उस तबाही की अनदेखी हो रही है. जो दशकों तक गरीबी, भुखमरी और बंजर के रूप में इस क्षेत्र को झेलनी पडे़गी. मुख्यमंत्री की आंखे हीरे की चमक से चौंधिया गयी हैं. तभी तो माइनिंग लीज के लिए हीरा कंपनी 954 हेक्टेयर जमीन के लिए आवेदन देती है और उसे करीब 1200 हेक्टेयर जमीन देने की तैयारी पूरी कर ली गयी है. मध्यप्रदेश सरकार इस कदर मेहरबान है कि रियोटिंटो के कारनामों पर रोक लगाने वाले छतरपुर के दो कलेक्टरों के तबादले किये जा चुके हैं. अब प्रशासनिक अधिकारी न चाहते हुए भी इस बदनाम हीरा कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में काम करते दिख रहे हैं. गौरतलब है कि पहले यह कंपनी अपने कार्यों को लेकर संदिग्ध रही है. वहीं दूसरी तरफ कई लोगों की आवाजें दबा दी जा रही हैं. जो सड़कों पर उतरकर जंगलों की कटाई और दूसरे खतरों से आगाह कर रहे हैं. छतरपुर जिले के बकस्वाहा के जंगलों में ऑस्ट्रेलिया की ब्लैक लिस्टे ड कंपनी की मौजूदगी बीते कुछ सालों से विवादों को जन्मम दे रही है. वन भूमि में अवैध उत्खनन को लेकर 5 साल पहले कलेक्टर उमाकांत उमराव ने कार्रवाई करते हुए कंपनी के उत्खनन पर रोक लगा दी थी. रियोटिंटो की प्रदेश सरकार में घुसपैठ का ही नतीजा था कि कलेक्टर का तत्काल तबादला कर दिया गया. इन चर्चाओं को बल मि‍लने के कई कारण हैं. जि‍नमें से एक कलेक्टर ई रमेश कुमार के जिले का प्रभार संभालते ही रियोटिंटो को दोबारा उत्खनन की अनुमति देना भी है. दूसरा अक्टूबर 2009 को कंपनी के हीरा प्रोसेसिंग प्लांट का खुद मुख्यमंत्री ने आकर उद्घाटन कर दिया. रियोटिंटो पर प्रदेश सरकार की मेहरबानी दिखाती है कि सरकार क्षेत्र विकास की आड़ में बुंदेलखंड की धरोहर को लूटने का काम कर रही है. इस खेल में सरकार के उच्च स्तर की सहभागिता से भी इंकार नहीं किया जा सकता. वन विभाग छतरपुर से हासिल जानकारी के मुताबिक साल 2000 में हीरा खोजने के लि‍ए केंद्र सरकार ने रियोटिंटो को अनुमति दी थी. साल 2009 में इस अनुमति को फिर बढा़ दिया गया. यह वैधता साल 2011 में समाप्त हो चुकी है. रियोटिंटो ने हीरा खोजने के दौरान ही जमीन में कई फुट तक ड्रिलिंग करके जलस्तर को रसातल में पहुंचा दिया है. जिससे जंगलों का सूखना शुरू हो गया है. वहीं संरक्षित वन प्रजातियों सहित जीव-जंतु भी समाप्त होने लगे हैं. पिछली लोकसभा में खजुराहो से भाजपा के सांसद जितेंद्र सिंह बुंदेला ने इस मामले को संसद में उठाया था. लेकि‍न मामला आगे न बढ़ता देख सांसद ने पहले ही चुप्पीर साध ली. केंद्र सरकार ने इस शर्त के साथ अनुमति दी है कि आंवटित भूमि‍ के जो पेड़ काटे जायेंगे उसके बदले में राजस्व की उतनी ही भूमि पर वृक्षारोपण करना होगा. रियोटिंटो ने छतरपुर कलेक्टर और चीफ कंजरवेटर को इस शर्त को पूरा कराने के आधार पर आवेदन दिया है. जो फिलहाल जांच के लिए लंबित है. इस पूरे मामले में जिन जंगलों को काटने की अनुमति दी जा रही है. वह सघन जंगली क्षेत्र हैं. महुआ, अचरवा, शीशम, सागौन जैसे बेशकीमती वन धरोहर से यह इलाका घि‍रा हुआ है. सवाल यह उठता है कि कोई भी पेड़ लगाते ही फल देने लायक नहीं होता. रियोटिंटो के राजस्व भूमि पर वृक्षारोपण के बीस सालों बाद ही पेड़ तैयार होंगे. इस दौरान क्षेत्र के 48 गांवों के हजारों आदिवासी और अन्य जातियों के लोगों का जीवन प्रभावि‍त होगा. जि‍सकी परवाह किसी को नहीं है. एक पहलू यह भी है कि रियोटिंटो को 1200 हेक्टेबयर वन भूमि आंवटित की जा रही है. जो खनन के बाद बंजर हो जायेगी. जिससे क्षेत्रवासियों की निर्भरता ही समाप्त हो जायेगी¬. वैसे भी सरकार के प्रोजेक्ट के तहत रियोटिंटो को 2014 से अगले 30 सालों तक खनन की अनुमति प्रदान की जा रही है. कंपनी का दावा है कि वह अगले तीन सालों में क्षेत्र विकास के लि‍ए कार्य करेगी. साल 2017 से खनन शुरू कर साल 2028 तक पूरा कर लेगी. इस दौरान रियोटिंटो धरती को छलनी कर हीरे का उत्खनन करेगा. लीज समाप्ती के बाद बंजर ईलाके को त्रास भोगने के लिए छोड़ दिया जायेगा. आरोप यह भी हैं कि सर्वे के दौरान रियोटिंटो ने कई कैरट हीरे निकालकर प्रदेश सरकार को गुमराह किया है. नियमानुसार तो सर्वे के दौरान निकलने वाले हीरे की रॅायल्टी जमा होनी चाहिए थी. पर इस पूरे मामले के तार सरकार से जुडे़ लेागो से हैं. यही कारण है कि‍ प्रशासन भी खामोश बैठा है. बताया जाता है कि कलेक्टर उमाकांत उमराव की तरह ही एक और कलेक्टर राजेश बहुगुणा का तबादला भी रियोटिंटो के इशारे पर कि‍या गया था. राजेश बहुगुणा ने रियोटिंटो की फाइलों पर रोक लगा दी थी. गौरतलब है कि‍ प्रदेश सरकार का आईएएस अधिकारियों पर दबाब रहता है. इस सच को खुद भाजपा की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भी कहा था कि अधिकारियों पर दबाव की राजनीति रहती है. ऐसे में रियोटिंटो पर मेहरबानी के कारण बकस्वाहा इलाके को तबाह करने की दांस्ता लिखी जा रही है. जिसके दूरगामी परिणाम इलाके को भोगने होंगे. शुक्रवार में धीरज चतुर्वेदी की रपट