Monday, July 30, 2012

बेतवा से सपरार बांध के डाक बंगले तक

अंबरीश कुमार
ओरछा में बेतवा रिट्रीट से आगे बड़े ही थे की जोर की बरसात शुरू हो गई । इससे पहले पत्रकार हृदेश तिवारी और उनके फिल्कर पिता जगदीश तिवारी के साथ बैठे और ओरछा से बुंदेलखंड पर चाय के साथ लम्बी चर्चा चली वे लोक संस्कृति पर भी काम कर रहे है । चाय से पहले बेतवा तट और बुंदेले राजाओं की छतरियां देखने गए थे । बेतवा के तट पर बादल मंडरा रहे थे और दूसरे किनारे का हरा भरा जंगल आने का आमंत्रण दे रहा था पर गाड़ी का रास्ता बंद था और बरसात कभी भी हो सकती थी । तभी हृदेश ने बताया कि आम के रस की वह विज्ञापन फिल्म इन्ही पेड़ों के झुरमुठ में बनाई गई थी और आम लाकर पेड़ पर लटगाए गए थे । रा वन जैसी कुछ और फिल्मो की शूटिंग भी यही हुई थी । खैर शाम ढल चुकी थी और जाना जंगल के डाक बंगले में था इसलिए निकल गए । रास्ता भी पदादों पर कभी ऊपर जाता तो कभी नीचे आता । दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली ,वह भी ऐसी की आँख झपकाने का मन न करे । बगल के पहाड़ों पर पत्थर इस तरह एक दूसरे के ऊपर खड़े थे मनो किसी न हाथ से खड़ा किया हो । तेज बरसात में ओरछा रेल क्रासिंग पर कार रुकी तो बगल में गायों का झुंड खड़ा नजर आया । दो गाय बगल की झोपड़ी में बरसात से बचने के लिए आसरा लिए हुए थी । बहुत दिन क्या सालों बाद दोनों बच्चों के बिना निकले थे क्योकि दोनों व्यस्त थे । बाहर निकलने में पूरे साजो सामन के साथ निकलना पुराना नियम है जिसमे बिजली की चाय की केतली ,पावडर दूध के पाउच ,शुगर क्यूब और डिप वाली चाय । इसके अलावा सब्जी सलाद का सामान रास्ते से लेना ताकि रात में दिक्कत न हो । बरुआ बाजार में सविता को सब्जी देख रहा नहीं गया और भुट्टा ,हरा बैगन ,खीर टमाटर आदि सब ले लिया । इस बीच सपरार बांध के डाक बंगला से संपर्क करने का प्रयास कर रहे थे ताकि खाने की व्यवस्था का पता किया जा सके । एक तो बरसात दूसरे जंगल की व्यवस्था । अगर कोई भी व्यवस्था न हो तो चूल्हे पर खाना बन सके इसलिए कच्चा सामान जरुती था । हिमाचल ,उतराखंड और छत्तीसगढ़ में इसका अनुभव हो चूका है । हालाँकि छत्तीसगढ़ में हर जगह व्यवस्था हो गयी थी सिर्फ उदयन्ती अभ्यारण्य के तौरंगा डाक बंगले को छोड़ पर वहा जो खाना ले गए थे वह काम आ गया था । खैर बरुआ सगर से आगे अँधेरा घिर गया था और बरसात से गाड़ी की रफ़्तार भी काफी कम थी । गजब का मौसम । तभी सुनील ने फोन कर बताया कि खाना पैक कराकर ले जाना होगा क्योकि वहा गैस ख़त्म हो चुकी है । रात के करीब आठ बज चुके थे । फिर सुधीर जी इसकी जानकारी दी तो उन्होंने कहा ,रास्ते में नवोदय विद्यालय में मई हूँ वहा से होकर जाए व्यवस्था हो जाएगी । मौउरानीपुर सविता के पिता जी का ननिहाल भी है इसलिए वे चाह रही थी कि रिश्ते की एक दादी जिन्दा हो तो उनसे मिल लें । रिश्तेदारी निभाने में बहुत कमजोर हूँ और गोरखपुर जाने पर भी बाहर रुकना ही पसंद करता क्योकि मम्मी पापा जल्दी सोने वाले रहे और मै देर तक कई लोगों के साथ बैठने वालों में । अब मम्मी रही नहीं और पापा से औपचारिक बातचीत होती है वे भी अस्सी पार हो चुके है पर घूमने का शौक बरक़रार है । करीब छह महिना पहले कैंसर से ठीक हुए तो गोरखपुर रहने की जिद की क्योकि पेड़ पौधों की हिफाजत करना चाहते थे और फिर तबियत बिगड़ी तो बहन के पास बनारस भेजा । अपने से नाराज रहते है इसलिए लखनऊ /रामगढ नहीं आते । अब उन्हें दिल्ली से गोरखपुर लौटना था । पर इस बीच जब रास्ते में था तभी अमेरिका बस गए छोटे भाई की तरफ से उन्हें बुलाने की जानकारी मिली ,करीब बीस घंटे की बदल कर जाने वाली फ्लाईट । मेरा कहना था गोरखपुर जाने में भी तो इतना ही वक्त ट्रेन से लगेगा । पर चिंता बढ़ गई थी ।मेरे पास लैपटाप नहीं था और उनके टिकट मुझे मेल किये गए थे । यह सब सोचते सोचते अचानक गाड़ी रुकने से ध्यान भंग हुआ । आगे निकल आए थे । करीब चार किलोमीटर पीछे गए तो वहा सुधीर हैं कुछ साथियों के साथ खड़े थे । कुछ देर बैठे तभी तीन टिफिन गाड़ी में रखवा दिए गए । उन्होंने रास्ता भी बताया और फिर आगे चल पड़े । पर शहर में जो घुसे तो निकलना मुश्किल लगने लगा । पूछते पूछते आगे बढे तो शहर पार करते घुप अँधेरा । तीन चार किलोमीटर दूर बताया गया था और सात किलोमीटर दूर आ चुके थे । सड़क के दोनों किनारों पर पानी भरा जंगल नजर आ रहा था । एक जगह लालटेन टिमटिमाती दिखी तो पता किया और उसने बताया अभी आगे जाकर बाएं मुड़ना होगा । सन्नाटा और अँधेरा दोनों डराने वाला था । एक कच्ची सड़क पर कुछ दूर जाने के बाद निरीक्षण भवन का छोटा बोर्र्ड नजर आया आगे गेट बंद था । कुछ देर हार्न देने के बाद दो लोग नजर आए और गेट खुला । किनारे का कमरा खोला जो पुराने जमाने के फर्नीचर वाला था ।अँधेरे में बाहर कुछ दिख नहीं रहा था । जारी

Sunday, July 29, 2012

बुंदेलखंड के रंग

बुंदेलखंड के रंग

बुंदेलखंड पर मंडराता हरा भरा अकाल

अंबरीश कुमार
सपरार बांध (मऊँरानीपुर ) ,२९ जुलाई । उरई से ओरछा होते हुए बुंदेलखंड के इस अंचल में पहुँचने पर चारो और हरियाली ही हरियाली नजर आती है । पर दुर्भाग्य यह है कि इस हरियाली पर अकाल की छाया मंडरा रही है । पानी तो बरस भी रहा है पर जितना पानी चाहिए उतना नहीं बरसा है । जिसके चलते किसान परेशान है तो सीमांत किसान और मजदूर पलायन कर रहा है । छोटे पहाड़ों के बीच से आती और मनोरम दृश्य दिखाती सपरार नदी पर बना यह बांध पानी के संकट को दर्शाता है । इस बांध का जलस्तर २२४ मीटर की जगह २१६ मीटर है पर आकड़ों का खेल है । बांध में पानी का जल स्तर समुन्द्र तल से नापा जाता है जो देखने में कही ज्यादा नजर आता है जबकि मौके पर यह बहुत कम दिखता है । इसी तरह इस अंचल के अन्य बांध मसलन माताटीला ,सुंक्वा ढुकवा बांध ,लहचूरा बांध ,पथराई बांध से लेकर बधवार झील तक में इस मौसम में पानी अपने स्तर से काफी कम है । ओरछा में भी बेतवा का वह प्रवाह बही दिखता जो इस मौसम में होना चाहिए । पानी के चलते जालौन ,हमीरपुर और महोबा में ज्यादा संकट है और किसानो की फसल ख़त्म होती जा रही है । झांसी ,ललितपुर ,छतरपुर और टीकमगढ़ में स्थिति कुछ बेहतर है इसलिए यहाँ पर इन तीन जिकों जैसा संकट नहीं है । फिर भी झांसी के आसपास मूंगफली की पंद्रह फीसद फसल ख़त्म हो चुकी है तो तिल की फसल तीस फीसद से ज्यादा बर्बाद हो चुकी है । पानी के इस संकट की एक वजह बुंदेलखंड के करीब हजार साल पुराने आठ हजार ताल तालाब का बर्बाद होना भी है । इस अंचल के ताल तालाब खुद तो बदहाल हो रहे है पर इनके नाम पर नेता ,अफसर और ठेकेदार मालामाल भी हो रहे है । यह बात आज मऊँरानीपुर में नए बुंदेलखंड के विमर्श पर उभर कर सामने आई । इस विमर्श में बुंदेलखंड के तेरह जिलों से रखी गई अध्ययन रपट में इस अंचल की जो त्रासदी सामने आई वह सभी के लिए आँख खोलने वाली है । जब यह बताया गया कि चंदेल कालीन ताल तालाबों के लिए पिछले पांच साल में बारह सौ करोड़ खर्च किए गए और तालाब वैसे ही है तो केंद्रीय मंत्री प्रदीप ने इसकी जाँच करने को भी कहा । खास बात यह है की इस क्षेत्र की विधायक रश्मि आर्य खुद एक बड़े तालाब वाजपेयी ताल को बचाने की लड़ाई लड़ रही है ।तीस एकड़ में फैला यह तालाब मऊँरानीपुर के जल स्तर को बचाने में महत्यपूर्ण भूमिका निभाता रहा है । ताल तालाब कैसे बचाए जाए इसके लिए बृज फाउंडेशन की तरफ से विनीत नारायण ने एक वीडियो प्रस्तुति भी की जिसमे बृज क्षेत्र में किस तरह बड़े पैमाने पर ताल ,तालाब और कुंड बचाए गए है यह बताया गया ।प्रवास सोसायटी ,वीर बुंदेलखंड समाजोत्थान संस्थान ,परमार्थ समाजसेवी संस्थान और एकेडमी आफ जर्नलिस्ट की तरफ से कराए गए इस विमर्श में विशेषग्य और जन संगठनों ने हिस्सा लिया ।उरई से सुनील शर्मा की रपट में कालपी के वाल्मीकि आश्रम तालाब पर प्रकाश डाला गया जो आठ एकड़ में फैला है और सदियों से लोगो की प्यास बुझाता रहा है । इसी तालाब के चलते बारह गांवों के हैंडपंप रिचार्ज होते रहे है ।पर अब यह बदहाल है जिसे जल्द न बचाया गया तो यह ऐतिहासिक ताल भी अपना वजूद खो देगा । महोबा से आई रपट में बताया गया कि पिछले पांच सालों में चंदेल कालीन तालाबों के लिए बारह सौ करोड़ रुपये खर्च किए गए पर इन तालाब पर कोई असर नहीं पड़ा क्योकि सब कुछ कागजों में हुआ । पिछले कुछ सालों में बुंदेलखंड के नाम पर किस तरह लूट हुई इसका यह महत्वपूर्ण उदाहरण है। धीरज चतुर्वेदी की रपट में कहा गया कि विध्यं की सुरमय पर्वत श्रृखंलाओ से घिरे हुए इस भूभाग के सौंदर्यीकरण के लिए राजाओ ने यहां एक विशाल झील का निर्माण किया था। जिसे विलंवत डांग नाम दिया गया। जिसके किनारे असंख्य खजूर के वृक्ष थे जिससे इसका नाम खजूरवाहक या खजुराहो पडा। कांलातर पूर्व की विशाल झील छोटे-छोटे जलाशयो के रूप में आज भी दिखाई देती है। जिसके किनारे कई गांव बस गये। खजराहो में आज भी दो महत्वपूर्ण जलाशय है। खजुराहो गांव से लगा हुआ निनौरा ताल पुरानी बस्ती के नजदीक है एंव दूसरा शिवसागर ताल जो मंदिरो के पश्चिमी समूह से लगा हुआ है। इन दोनो तालाबो का पुर्ननिर्माण लगभग 160 से 200 वर्ष पूर्व के बीच हुआ था। यहाँ का ननौरा तालाब तीन दशक पूर्व तक खजुराहो की शोभा कहलाता था। जिसके लगभग 80 एकड के क्षेत्र में पानी का भराव होता था। लेकिन आज यह दुर्दशा का शिकार है। बंधान से अनवरत रिसाव होने से बारिश के कुछ माह बाद ही यह तालाब सूख जाता है। शिवसागर तालाब- मुख्य मार्ग पर पश्चिमी समूह के मंदिर के बाजू में ऐतिहासिक शिवसागर तालाब स्थित है। पर ज्यादातर तालाब बदहाल है जिन्हें बचाना बहुत जरुरी है । जबकि बांदा से आये आशीष सागर ने कहा - जल संसाधन और प्रबंधन के कारण ही बांदा जैसे पिछड़े बुन्देलखण्डी क्षेत्र वर्ष 1887 से 2009 तक 17 सूखे झेलने के बाद भी विषम जलवायु परिवर्तन के झंझावत सहने में सक्षम हुए है। पुरातन तालाब पद्धति, जल संग्रहण तकनीकि और उनमें लगी मानवीय श्रमशक्ति का बदलते विकास के परिदृश्य में बिखराव प्राचीन प्राकृतिक संसाधनो को नष्ट करने की प्रवृत्ति को रेखांकित करता है। जिनके संरक्षण की आवश्यकता है । बांदा की भौगोलिक ऊबड़-खाबड़ जमीन, धरातलीय बसावट है। भूगर्भ जल रिचार्ज करने, जल संरक्षण के लिये चलायी जा रही लोकशाही योजनायें विफल रही है। बुन्देलखण्ड विकास निधि, बुन्देलखण्ड पैकेज, मनरेगा, कूप योजना के तहत करोड़ो रूपयो की बंधियां , मेडबन्दी, माडल तालाब-बांध बनाये गए लेकिन फिर भी वह सब अपने किरदार के साथ ईमानदार सिद्ध नहीं हुए ।सतही जल के रूप में पराम्परागत जल स्रोतो के स्वरूप तालाब, कुएं, पोखर, जलाशय, चोहडधीरे-धीरे इतिहास बनते जा रहें है। प्राचीन प्रसिद्ध तालाबों में शामिल गणेश बाग, कोठी तालाब, गोल तालाब , दुर्गा साहब तालाब तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बिखरे 687 तालाब जर्जर अवस्था में आज भी उपस्थित है।

Thursday, July 26, 2012

सड़कों पर बच्चा जनती महिलाएं

अशोक निगम
बांदा। जननी सुरक्षा योजना! धत्त तेरे की। जब सड़क में ही बच्चे जनने हैं तो सरकार की ऐसी योजनायें किस काम की? गरीबी की वजह से यहां एक ही दिन तीन महिलाओं को सड़क में बच्चा जनना पड़ा। लोग देखते रहे। शरमाते रहे। पर स्वास्थ्य विभाग को लाज नहीं आई। भीड़भाड़ वाली सड़कांे में खुले आसमान के नीचे यह तीनों बेपर्द जच्चे-बच्चे घंटों बिलखते-तड़पते रहे। एक नवजात बच गया। दो नहीं बच पाये। भगवान को प्यारे हो गये। ममतामयी मातृत्व के अंतस से फूटी रुलाई ने मानवीय संवेदनाओं को भी गोठिल कर दिया। आसपास के राहगीरों, महिलाओं ने किसी तरह पर्दा किया। प्रसव कराया। स्वास्थ्य विभाग के अफसर इनकी कुशल क्षेम तक पूछने नहीं आये। यह तीनों वाकये बीते बुधवार के हैं। मंगलवार की रात महोखर गांव के रामचंद्र विश्वकर्मा की पत्नी विद्या को प्रसव पीड़ा शुरू हुई। परिजन उसे जिला महिला अस्पताल लेकर आये। विद्या को भर्ती कर लिया गया। दूसरे दिन बुधवार को दोपहर दो बजे आपरेशन की बात कहकर 15 हजार रुपए मांगे गये। परिजन नहीं दे पाये तो अस्पताल से डिस्चार्ज कर भगा दिया गया। विद्या को लेकर परिजन प्राइवेट नर्सिंग होमों में भटकते रहे। किन्तु बिना पैसे के कोई डाक्टर प्रसव कराने को तैयार नहीं हुआ। एक अन्य नर्सिंग होम जाते वक्त रात 8 बजे कचेहरी रेलवे क्रासिंग के पास बीच सड़क पर विद्या को प्रसव हो गया। राहगीर ठिठककर रुक गये। कुछ महिलायें आगे बढ़ी। आसपास के घरों से चादर आदि मंगाकर पर्दा किया गया। किन्तु सड़क पर गिरने से नवजात शिशु की मौत हो गई। प्रसूता विद्या को किसी तरह बचा लिया गया। सड़क पर बच्चा जनने की दूसरी घटना मानिकपुर कस्बे में हुई। यहां के मोहल्ला बालमीक नगर के जोगेन्द्र की पुत्री नीतू को मंगलवार की दोपहर पीड़ा हुई। उसे कस्बे के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में भर्ती कराया गया। प्रारंभिक उपचार के बाद डाक्टरों ने उसे घर भेज दिया। रात में फिर दर्द हुआ। परिजन फिर नीतू को लेकर स्वास्थ्य केन्द्र पहंुचे। स्टाफ नर्स और डाक्टर ने मनमुताबिक फीस मांगी। न देने पर हालत गंभीर बताकर रेफर कर दिया। परिजन नीतू को लेकर घर जा रहे थे। जैसे ही सुबह स्वास्थ्य केन्द्र से बाहर निकले नीतू ने सड़क पर बच्चा जन दिया। इस पर हड़कंप मच गया। लोगों के गुस्से को देखते हुए डाक्टर और नर्स फौरन भागे। नीतू को अस्पताल में भर्ती किया। जच्चा और बच्चा दोनों बच गये। अगर लोगांे ने दबाव न बनाया होता तो निश्चित ही जच्चा और बच्चा में किसी एक की जान इलाज के अभाव में चली जाती। सड़क पर बच्चा जनने की तीसरी घटना बुधवार को ही तिंदवारा गांव में हुई। यहंा के अर्जुन रैदास की पत्नी रूपा (22) की मंगलवार को हालत बिगड़ने लगी। परिजन उसे जिला महिला अस्पताल ले गये। डाक्टरों ने उसे अगले दिन बुधवार को लाने को कहा। बुधवार को अस्पताल आते वक्त सड़क में ही प्रसव हो गया। जच्चा को किसी तरह बचा लिया गया। किन्तु नवजात बच्चा धरती में गिरते ही दम तोड़ गया। बांदा के मुख्य चिकित्साधिकारी केएन श्रीवास्तव का कहना है कि जिला महिला अस्पताल की सीएमएस मनमानी कर रही है। उनका फोन तक रिसीव नहीं करती। सड़क पर बच्चा जनने की घटनाओं की जांच कराई जाएगी। दोशी डाक्टरों और कर्मचारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी।

मायावती की मूर्ति अखिलेश सरकार ने स्थापित की

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २७ जुलाई । गुरुवार को लखनऊ में बसपा की मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की मूर्ति तोड़े जाने के कुछ ही घंटो के भीतर उनकी दूसरी मूर्ति लगा दी गई है । यह पहल मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने की ।मायावती की संगमरमर की जो मूर्ति तोडी गई थी उसे ठीक करना संभव नहीं था । इसके बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मायावती की दूसरी मूर्ति का पता करने को कहा । प्रशासन ने जैसे ही यह जानकारी दी कि मायावती की दूसरी मूर्ति है ,मुख्यमंत्री ने रात में ही वह मूर्ति लगाने को कहा और गुरुवार की रात ग्यारह बजे तक वह मूर्ति लगा दी गई । इससे पहले मायावती की मूर्ति तोड़े जाने के बाद उत्तर प्रदेश का राजनैतिक माहौल गरमा गया था । एक अनाम से संगठन नव निर्माण सेना ने पहले प्रेस कांफ्रेस के सरकार को ७२ घंटे का अल्टीमेटम दिया कि वे मायावती की मुर्तिया हटाए नहीं तो इन्हें तोड़ दिया जाएगा । पर ७२ मिनट के भीतर ही इस संगठन के चार लोगों हथौड़ा लेकर आंबेडकर पाक स्थित मायावती की मूर्ति को बुरी तरह तोड़ दिया और सुरक्षा गार्ड उनतक पहुँचते उससे पहले वे भाग निकले । घटना के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फ़ौरन इसकी निंदा करते हुए फिर से वहा मायावती मूर्ति लगाने और इस घटना के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाई का एलान किया । पर घटना की जानकारी जैसे ही लोगों तक पहुंची इसका कई जगह विरोध शुरू हो गया । झाँसी ,सुल्तानपुर ,कानपुर ,मुजफ्फरनगर ,लखीमपुर,आजमगढ़ और गाजियाबाद समेत कई जगह विरोध प्रदर्शन हुआ और कुछ जगह पुलिस को लाठीचार्ज भी करना पड़ा । इस घटना का मुख्य अभियुक्त अमित जानी मेरठ का है जिसके खिलाफ कई आपराधिक मामले है और वह अपने को सपा का कार्यकर्त्ता भी बता चुका है । हालाँकि समाजवादी पार्टी ने साफ़ किया है कि पार्टी से इस संगठन और उसके कार्यकर्ताओं का कोई संबंध नहीं है । इस मामले में पुलिस ने मामला दर्ज कर चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया है । विभिन्न राजनैतिक दलों ने इस घटना की निंदा की है । महाराष्ट्र के नव निर्माण सेना की तर्ज पर बनाई गई इस नव निर्माण सेना ने एक दिन पहले सम्मलेन किया था जिसका मीडिया में कोई संज्ञान नहीं लिया गया पर आज उन्होंने ध्वंस जैसा जो किया उसका सभी ने संज्ञान लिया । इसलिए यह भी माना जा रहा है कि खबर और चर्चा में आने के लिए भी यह कदम उठाया जा सकता है । मूर्ति तोड़ने वाले युवक मौके पर कुछ पर्चे छोड़कर फरार हो गए। पर्चों में उत्तर प्रदेश नवनिर्माण सेना का जिक्र है और मायावती पर कई घोटाले करने का आरोप लगाया गया है। पर माना जा रहा है यह अराजक किस्म के कुछ लोगों का काम है । पर इस घटना से समाजवादी पार्टी और सरकार दोनों बचाव की मुद्रा में है और यकीनन फौरी राजनैतिक फायदा मायावती को हुआ है । पिछले कुछ दिन से बसपा यह आरोप लगा रही थी कि प्रदेश में दलितों का उत्पीडन हो रहा है ।जिलों के नाम बदलने के बाद से बसपा के कार्यकर्त्ता नाराज थे जिसके बाद आज की घटना ने उन्हें और उत्तेजित कर दिया । करीब दर्जन भर जिलों में इस घटना के बाद विरोध प्रदर्शन हुआ । कई जगह गिरफ़्तारी और लाठीचार्ज भी हुआ । बसपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा -प्रदेश में दलितों का उत्पीडन बढ़ता जा रहा है । कई जगहों पर मंदिरों में रोका गया तो कई जगह जातीय हिंसा का शिकार बनाया गया । आज की घृणित मानसिकता का उदाहरण है । उन्होंने राज्य की कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़े किए और कहा कि मूर्तियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है । बसपा नेताओं द्वारा समय-समय पर लगातार इनकी सुरक्षा की मांग की जाती रही है। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस घटना की निंदा की है । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अम्बेडकर पार्क स्थित पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की मूर्ति क्षतिग्रस्त किए जाने की निन्दा करते हुए कहा कि यह कृत्य प्रदेश के सौहार्दपूर्ण वातावरण को दूषित करने का सुनियोजित प्रयास है। उन्होंने कहा कि इसके लिए दोषी लोगों के विरूद्ध सख्त कार्रवाई करने और क्षतिग्रस्त मूर्ति को तुरंत ठीक कराने के निर्देश दे दिए गए हैं। इस बीच सपा ,भाकपा ,भाजपा ,कांग्रेस ,जन संघर्ष मोर्चा और भाकपा (माले) ने मायावती की मूर्ति तोड़े जाने की कड़ी निंदा की है।भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -यह घटना जातीय वैमनस्य फ़ैलाने के लिए की गई है जिसपे सरकार को कड़ी कार्यवाई करनी चाहिए । समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -यह घटना सरकार की छवि ख़राब करने के मकसद से की गई है जिससे किसी राजनैतिक साजिश की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता ।भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा -यह घटना इस सरकार के कामकाज पर भी टिपण्णी है । लगातार यह संदेश जा रहा है कि सपा राज में दलितों का मान सम्मान सुरक्षित नहीं है । भाकपा के राज्य सचिव सुधाकर यादव ने अखिलेश सरकार से मांग की है कि वह मूर्ति तोड़ने वालों को सख्त सजा दे और ऐसी हरकतों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए प्रभावी कदम उठाए ताकि उत्तर प्रदेश का माहौल न बिगड़े।

Tuesday, July 24, 2012

किंग जार्ज पंचम को सलामी देता नया समाजवाद !

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २४ जुलाई । सत्तर के दशक में लोहिया का नारा उछालते हुए उत्तर प्रदेश की इस राजधानी में अंग्रेजी का इतना तीखा विरोध होता था कि अंग्रेजी में लिखे सारे होर्डिंग्स पर कालिख पोत दी जाती थी । उस दौर में समाजवादी युवजन सभा ने सभी दुकानों से अंग्रेजी में लिखे बोर्ड हटवा दिए थे । समाजवादियों के आंदोलन के चलते हाई स्कूल में अंग्रेजी विषय को ऐच्छिक कर दिया गया था । पर पिछले विधान सभा चुनाव में समाजवाद का चाल, चरित्र और चेहरा तीनो जो बदला तो अन्य दल भी सकते में आ गए । समाजवादी पार्टी के नए चेहरे अखिलेश यादव ने टैबलेट और लैपटाप का नया नारा दिया और अपन पुराना रिकार्ड तोड़ बहुमत के साथ सत्ता में आई । अब कुछ महीनों बाद छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्विद्यालय जिसे पहले किंग जार्ज मेडिकल कालेज के नाम से जाना जाता था उसका नाम सोमवार को अखिलेश सरकार ने फिर बहाल कर दिया फर्क सिर्फ इतना कि कालेज की जगह विश्विद्यालय हो गया । इसके साथ ही कुछ जिलों के पुराने नाम भी बहाल हो गए । इस फैसले से उतर प्रदेश में बहस शुरू हो गई है । समाजवादी धारा के कार्यकर्ताओं ने चिंता जताई क्योकि यह ऐसा कोई काम नहीं था जिए यह सरकार प्राथमिकता पर करे खासकर बिजली से लेकर किसानो की अन्य समस्यायों को देखते हुए । रोचक तथ्य यह है कि लखनऊ के मशहूर चिड़ियाघर का नाम आज भी प्रिंस आफ वेल्स जुलोजिकल गार्डन के रूप में जाना जाता है । न तो कभी मायावती के राज में यह बदला न मुलायम के राज में । हालाँकि एक तबका यह भी मानता है कि नाम रखना ही था तो समाजवादी परंपरा के आचार्य नरेंद्रदेव, एसएम जोशी, लोहिया, जय प्रकाश नारायण, मधु दंडवते, मधु लिमये, किशन पटनायक, सुरेंद्र मोहन, मृणाल गोरे जैसे बहुत से नेता थे किंग जार्ज के मुकाबले । राजनैतिक विश्लेषक सीएम शुक्ल ने कहा - पता नहीं कौन सलाहकार है जो अच्छी भली सरकार की फजीहत करा रहा है ,इतने सालों बाद एक ऐसा नौजवान मुख्यमंत्री आया जो जातीय पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर कुछ सोच रहा है तो लगातार उसकी छवि चौपट करने वाले फैसले करवा दिए जाते है । अब ऐसा लग रहा है कि कुछ नए समाजवादी किंग जार्ज पंचम को सलामी देने में जुट गए है । दूसरी तरफ इस फैसले के समर्थन में भी एक तबका है खाकर मध्य वर्ग का । यह वह तबका है जो सामाजिक न्याय के परम्परागत संघर्ष से पूरी तरह कटा हुआ है । पिछले चुनाव में यह तबका भी सपा के समर्थन में आया था जो 'ब्रांड ' के चश्मे से समाज को देखता है और उसका मानना है कि अखिलेश सरकार के इस फैसले से मेडिकल क्षेत्र में फिर से प्रदेश की प्रतिष्ठा बहल होगी । गौरतलब है कि किंग जार्ज मेडिकल कालेज के पूर्व छात्र अपने को 'जार्जियन ' कहते है और उन्हें मायावती सरकार का नाम बदल कर छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्विद्यालय रखा जाना कत्तई पसंद नहीं था और वे लगातार इसका विरोध भी करते रहे । कल इस फैसले का जर्जियंस ने जोरदार स्वागत किया और ऎसी व्यवस्था करने को कहा ताकि दोबारा इसका नाम न बदला जा सके । और तो और इस विश्विद्यालय के कुलपति डीके गुप्त ने कहा -उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम स्वागत योग्य है इससे इस विश्विद्यालय का पुराना वजूद लौट आया है । यह नजरिया न सिर्फ इस विश्विद्यालय के छात्रों का है बल्कि ऊच्च माध्यम वर्ग का भी है जो विश्विद्यालयों के नामकरण के खिलाफ है क्योकि इससे शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित ब्रांड के आगे नए नाम के चलते प्रदेश के विश्विद्यालय पिछड़ जाते है । प्रदेश के तकनीकी विश्विद्यालय का नाम गौतम बुद्ध के नाम किया गया तो काफी दिक्कते आई दूसरी जगह प्रवेश में । इसी तरह केजीएमसी का नाम बदलने पर भी इस संसथान की डिग्री का महत्व घट गया था । इस बहस के साथ यह साफ हो रहा है कि अखिलेश यादव मध्य वर्ग के इस हिस्से को भी साथ लेकर चलना चाहते है । इनमे अगड़ी जातियों के लोग ज्यादा है जो मायावती के नाम बदलने के खिलाफ भी रहे । जिलों के नाम बदलने से यह तबका खुश है । पर इसकी वजह से दलितों का एक हिस्सा जो समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा हुआ था वह आहत हुआ है यह भी ध्यान रखना होगा । बसपा के एक नेता ने नाम न देने की शर्त पर कहा -फैसल तो बहन जी के समय में भी गलत हुए पर इतनी जल्दी नहीं । अखिलेश यादव के ब्राह्मण सलाहकार इस तरह के फैसलों से मायावती की मदद कर रहे है । jansatta

जन्म का दिन

अंबरीश कुमार सुबह करीब साढ़े तीन बजे बारीश की आवाज से नींद टूटी तो मोबाईल में एक सन्देश भी चमका जन्म दिन की बधाई का । आँगन का दरवाजा खोला तो गजब की बारिश ।सविता को हिलाकर जगाया और पूछा -बरसात में भीगना है तो जवाब मिला 'खुद भीगो मुझे ठंढ लग रही है ।'मै बरसात देखते हुए कंप्यूटर पर आया तो कई मेल जन्म दिन की बधाई के थे । फेसबुक पर तो बहुत से मित्रों ,शुभचिंतको ने बधाई दी है उनका नाम लिखने में काफी समय लगेगा इसलिए सभी का आभार । घरवालों ने भी कभी जन्म दिन मनाया नहीं इसलिए बाद में भी इसे लेकर कोई उत्साह नहीं रहा । करीब के लोग इसे जानते है । पर फेसबुक अलग ढंग का मंच है जहाँ बहुत से लोगों को मित्रों का जन्मदिन याद दिलाया जाता है और लोग मुबारक देते है । पर कुछ लोगों ने बधाई देने से भी आगे बढ़कर जो लिखा उससे मै ज्यादा विचलित हो गया । भावनाओं में बहकर मित्र और शुभचिंतकों ने कुछ ज्यादा ही लिख दिया है । खासकर हिमांशु वाजपेयी ,नीलाक्षी ,राजकुमार सोनी और पूजा शुक्ल ने । आप सभी का आभार पर इस तरह की तारीफ़ लायक मै अपने को नहीं समझता हूँ । उम्मीद है इसे अन्यथा नहीं लेंगे । बहुत वरिष्ठ लोग है जिन्हें उस ढंग से याद नहीं किया जाता मसलन बनवारी ,जवाहर लाल कौल ,चंचल आदि जो आज भी पत्रकारिता के बड़े स्तम्भ है । बहरहाल पत्रकारों में जन्मदिन का पहला बड़ा आयोजन मैंने प्रभाष जोशी का इंदौर में देखा और दिल्ली से करीब पचास लोगों को इंदौर ले जाने का ईंतजाम भी अपने जिम्मे ही रहा था । स्लीपर का एक पूरा डिब्बा पत्रकारों से भरा था । एसी में सिर्फ तीन टिकट मिले थे जिनमे एक पर राय साब तो बाकि दोनों पर सविता और आकाश थे और मै भी बाद में सोने आ गया था । उसकी एक वजह दूसरे डब्बे में सोना मुश्किल था । रात भर लोग जगे रहे । कई दौर भी चले तो गर्मागर्म बहस भी हुई । आलोक तोमर ,कुमार आनंद ,जवाहर लाल कौल ,एनके सिंह ,संजय सिंह ,सुमित आदि समेत बहुत से पत्रकार थे । आलोक तोमर के साथ इस तरह की यात्रा का अनुभव भी गजब का रहा । रातभर में ही प्ताभाश जोशी से लेकर राजेंद्र माथुर पर जमकर बहस चली । बाद में प्रभाष जोशी के साठ साल पूरे होने का कार्यक्रम इंदौर में बहुत धूमधाम से मना था । उनके अलावा किसी पत्रकार का जन्मदिन अपन ने इस अंदाज में मनता नहीं देखा । पर आज जो लिखा गया उसे पढ़कर मुझे भी हैरानी हुई । हिमांशु वाजपेयी
ने लिखा - जो लोग कहते हैं कि पत्रकारिता से सत्ता विरोधी स्वर. तेवर, सरोकार, जन-आंदोलन गायब हो रहे हैं उन्हे Ambrish Kumar की रिपोर्ट्स पढ़नी चाहिए. नए लौंडों को गरियाने वाले तो बेशुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं लेकिन अंबरीश जी की तरह उन्हे सिखाने वाले और आगे बढ़ाने वाले बहुत ज्यादा नहीं हैं. हमारी पीढ़ी ने पत्रकारिता के जनसत्ताई दौर के बारे में सिर्फ सुना है, उसे देखा नहीं है लेकिन इस बात की तसल्ली है कि अंबरीश जी आज भी जनसत्ता में उसी दौर का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, हम सब उन्हे पढ़ रहे हैं और जनसत्ता आज भी हम सबका प्रिय अखबार है. जिस तरह अंबरीश जी को गर्व है कि उन्हे प्रभाष जोशी ने सिखाया, मुझे गर्व है कि मुझे अंबरीश जी से सीखने को मिला. अभी पिछले दिनों ही उन्होने अपने एक सहयोगी से मेरे बारे में कहा था- 'ये हिमांशु हैं जो बजाज की तारीफ करने वाली पत्रकारिता के दौर में मजाज़ की तारीफ कर रहे हैं.'इसके तुरंत बाद उन्होने आत्म-ग्लानि भरे स्वर में कहा- 'हिमांशु इन दिनों गुस्सा बहुत आने लगा है इसे काबू करने की कोशिश कर रहा हूं.' इस पर मैने असहमति जताते हुए कहा- 'मै तो ये गुस्सा हमेशा से देख रहा हूं,लेकिन ये भी है कि ये गुस्सा जिससे मिस हुआ वो सीखने वाली बहुत सारी चीजें भी मिस कर देगा.' मेरे हिसाब से इन दिनों अंबरीश जी को गुस्सा नहीं बल्कि फोटोग्राफी खूब आ रही है और बहुत खूब आ रही है. आज उनका जन्मदिन है, उन्हे ढेर सारी शुभकामनाएं. सर आप इसी तरह डटे रहें और इस पूरे साल भर हमें आपकी खींची बहुत सारी खूबसूरत तस्वीरें देखने को और ढेर सारी मजबूत खबरें पढ़ने को मिलें. नीलाक्षी ने लिखा - साथ हवा के ये कैसी खुशबू आई, अंबर के आँगन में ये कैसी चाँदनी छाई, पेड़ों की शाखों ने हलके से किसको सहलाया.. ओह, याद आया.. अंबरीश सर का जन्म-दिवस है आया. जन्म-दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ अंबरीश सर ! और पूजा शुक्ल ने कहा - कम करके ज्यादा दिखाने वालो की चमकदार दुनिया में एक सितारा ऐसा भी है जो चमकता तो है पर गुमनाम सितारे की तरह, दशको से जनसत्ता के माध्यम से जनसरोकारो से जुड़े रहने के बावाजूद बहुत ढूंढने पर भी अंतरजाल के मायाजाल में इनके चित्र को ना पा सकी, हर जगह दिखती है तो बस इनकी कलम,गोयनका परंपरा के रहज़न और रहबर, ऐसे है हमारे प्रकृति प्रेमी Ambrish कुमार जी, जिनका आज का लेख भी प्रकृति दोहन के राजनैतिक दुष्परिणामो पर है. अब आप सोच रहे होंगे की इनपर आज ही इतना कुछ क्यों लिखा जा रहा है तो भई उसकी भी वजह है..... आज इनका जन्मदिन है और वे अपनी वाल पोस्ट बंद किये हुए है इसलिए अपनी वाल पोस्ट से ही शुभकामनायें लिख रही हूँ . सर जन्मदिवस की अनेको अनेक शुभकामनायें यह अपनी भूमिका के मुकाबले बहुत ज्यादा है । ।

Monday, July 23, 2012

अजित सिंह का विकल्प तैयार कर रही है समाजवादी पार्टी

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २३ जुलाई । समाजवादी पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी अजित सिंह के मुकाबले खांटी समाजवादी राजेंद्र चौधरी को खड़ा कर रही है । राजेंद्र चौधरी लगातार पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दौरा कर रहे है और जाट बिरादरी को पार्टी के पक्ष में लामबंद करने का प्रयास कर रहे है ।पिछले तीन दिन से वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों का दौरा कर रहे है । कई जगहों पर जाट बिरादरी ने न सिर्फ उन्हें हाथोहाथ लिया बल्कि उन्हें चौधरी चरण सिंह का असली वैचारिक और राजनैतिक उत्तराधिकारी भी बताया । दरअसल समाजवादी पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बनाने के प्रयास में है जिसके लिए उसे जाटों के बीच अपनी पैठ बनाना जरुरी है । इसीलिए राजेंद्र चौधरी को लगातार पश्चिमी उत्तर प्रदेश भेजा जा रहा है और उस अंचल के लोगों से मिलने के लिए वे हर हफ्ते समय भी दे रहे है । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सबसे कद्दावर नेता चोधरी चरण सिंह के नेतृत्व में राजनीति का ककहरा सीखने वाले राजेंद्र चौधरी पार्टी के प्रवक्ता के साथ विधान परिषद के सदस्य भी है । पर समाजवादी पार्टी के इस बार सत्ता में आने के बाद पार्टी राजेंद्र चौधरी को पार्टी के जाट चेहरे के रूप में तैयार कर रही है । चाहे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव हो या खुद मुलायम सिंह जब भी मीडिया से मुखातिब होते है तब राजेंद्र चौधरी ही उनके बगल में होते है । इसकी मुख्य वजह पिछले विधान सभा चुनाव से काफी पहले से वे समाजवादी पार्टी की तरफ से मायावती सरकार के खिलाफ लगातार मोर्चा खोले रहे । चुनाव के दौरान जब कोई भी पार्टी के बहुमत से सत्ता में आने की बात कहने में हिचक रहा था तब उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों से मिल रही जानकारी के आधार पर पार्टी को दो सौ बीस सीटने का दावा किया था । दरअसल राजेंद्र चौधरी उन नेताओं में है जिनके चलते समाजवादी पार्टी की समजवादी छवि बरक़रार है ।संघर्ष वाहिनी मंच के अध्यक्ष राजीव हेम केशव ने कहा -राजेंद्र चौधरी को हम जयप्रकाश आन्दोलन के दिनों से जानते है जो अपने संघर्ष की वजह से ही आपातकाल में पूरे समय जेल में रहे । वे आज की राजनीति में एक संत राजनीतिक है जो अपनी सादगी और जुझारू तेवर के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तेजी से उभर रहे है । जाट बिरादरी भी आज उनके पीछे इसीलिए खड़ी हो रही है क्योकि वे आचार और व्यवहार में चौधरी चरण सिंह की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते है । समाजवादी पार्टी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक जाट नेता की जरुरत थी जिसकी भरपाई वे कर सकते है । पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभाओं में उन्हें सुनाने के लिए काफी लोग आते है । रविवार को मेरठ में किसान संघर्ष समिति की तरफ से आयोजित विशाल किसान रैली में उन्हें सुनने भारी संख्या में लोग जुटे । इस मौके पर राजेंद्र चौधरी ने कहा -किसानों का भला समाजवादी पार्टी सरकार में ही हो सकता है। इनके लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव योजना बना रहे हैं और बजट भी पास किया है।उन्होंने आगे कहा कि समाजवादी पार्टी सरकार चैधरी चरण सिंह और श्री मुलायम सिंह यादव के रास्ते पर चल रही है। पिछली सरकार में किसानों का जो अपमान और नुकसान हुआ उसकी भरपाई के लिए मुख्यमंत्री संकल्पित हैं। कृषि क्षेत्र में उत्पादन एवं उत्पादकता बढ़ाने एवं कृषकों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से नई कृषि नीति बनाए जाने का निर्णय लिया गया है। ऊसर- बंजर तथा बीहड़ जमीन पर खेती के लिए भूमिसेना बनाई गई है। गन्ना किसानों के बकाया गन्ना मूल्य भुगतान के लिए 400 करोड़ रूपये की व्यवस्था की गई है। इस अवसर पर किसानों की ओर से राजेन्द्र चौधरी को सात लाख रुपए की थैली भेंट की गई। किसान संघर्ष समिति के संयोजक राजपाल सिंह ने कहा -राजेंद्र चौधरी से इस अंचल के लोगों को काफी उम्मीद है और वे इधर के किसानो का सवाल भी उठा रहे है । jansatta

मायावती ने कहा -महापुरुषों का अपमान किया ,हिसाब लिया जाएगा

लखनऊ: जुलाई।उत्तर प्रदेश सरकार ने आज प्रदेश के उन आठ जिलों के नाम बदल दिए जिनके नाम पिछली मायावाती सरकार के दौरान बदले गए थे। साकार के इस फैसले पर बहुजन समाज पार्टी ने कड़ी आपति दर्ज कराई है ।उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने आज कहा कि उनके शासनकाल के दौरान बनाए गए नए जिलों का नामकरण दलित एवं अन्य पिछड़े वर्गोंमें जन्में महान सन्तों, गुरूओं व महापुरूषों के नाम पर रखे गये थे ताकि वे समाज के लिये आगे भी हमेशा प्रेरणा का स्रोत बने रहें, पर उत्तर प्रदेश की वर्तमान सपा सरकार इनका नाम बेवजह बदलकर और ऐसा नाम रख जिसकी कोई गम्भीर अर्थ नहीं है, महापुरूषों का अपमान कर रही है, जिसके लिये समाज और इतिहास उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा। जिन जिलों के नाम बदले गए है उन जिलों में पंचशील नगर का नाम बदलकर हापुड़, ज्योतिबा फूले नगर का नाम अमरोहा, महामाया नगर का नाम हाथरस, कांशीराम नगर का नाम कासगंज, रमाबाई नगर का नाम कानपुर देहात, प्रबुद्ध नगर का नाम शामली और भीमनगर का नाम बदलकर बहजोई कर दिया गया है। इन जिलों में ज्यादातर के नाम वही रखे गए हैं, जिन नामों से इन जिलों को पहले जाना जाता था।छत्रपति शाहूजी महाराज नगर का नाम बदलकर गौरीगंज कर दिया गया है। पहले इस जिले का नाम अमेठी था, जिसे मायावती सरकार ने बदल दिया था। आज कैबिनेट की बैठक में यह फैसला लिया गया। इसके अलावा कैबिनेट की बैठक में फैसला लिया गया कि छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल यूनिवर्सिटी का नाम फिर से पुराना ही होगा। इसे केजीएमयू कहा जाएगा।इस फैसले पर बसपा ने जोरदार वितोध जताया है ।मायावती ने आज यहाँ अपने एक बयान में कहा कि जिलों का नाम बदले जाने की चर्चा मीडिया में काफी पहले से आ रही थी, लेकिन उनको विश्वास नहीं था कि दुर्भावना के तहत् काम करते हुए दलित व अन्य पिछड़े वर्गों में जन्में महान् सन्तों, गुरूओं व महापुरूषों के प्रति विरोध व नफरत में उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार इस हद तक आगे चली जाएगी कि उनके नाम पर रखे गये जिलों आदि का नाम तक बदल कर उनका अपमान करने पर उतारू हो जाएगी । इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का आज का फैसला अत्यन्त दुःखद है एवं इसकी जितनी भी निन्दा की जाए कम है। मैं समझती हूँ कि ऐसा करके सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव और उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश यादव ने इतिहास के पन्नों में अपना नाम काले अक्षरों में दर्ज करा लिया है। जाति-व्यवस्था से पीडि़त भारतीय समाज में ‘‘सामाजिक परिवर्तन‘‘ के तहत् देश में जाति-विहीन समतामूलक समाज व्यवस्था स्थापित करने के लिये अपना पूरा जीवन कठिन संघर्ष व बेमिसाल त्याग को समर्पित करने वाले इन महापुरूषों को अपमानित करने वालो को समाज ने काफी कड़ा सबक पहले भी सिखाया है और निश्चय ही आने वालों दिनों में इस प्रकार के लगातार अपमानों को यह समाज कतई बर्दास्त नहीं करेगा, ऐसा मेरा अनुभव व विश्वास है। मायावती ने कहाकि आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विशाल व कुव्यवस्था से त्रस्त सर्वसमाज की गरीब जनता को बेहतर प्रशासन व्यवस्था उपलब्ध कराने के उद्देश्य से ही उनके सभी चार शासनकालों में नयी तहसील, नये जिले, नये मण्डल व नये पुलिस रेंज इत्यादि बनाये गये थे। मेरी सरकार ने कभी भी किसी जिले का नामांतरण नहीं किया, बल्कि नया जिला बनाकर उसका नया ‘‘प्रेरणादायी‘‘ नाम रखा। इतना ही नहीं, बल्कि नए जिलों की स्थापना के लिए काफी ज्यादा स्थान व समुचित धन भी उपलब्ध कराया गया है एवं यथासम्भव नए जिलों के मुख्यालयों के लिए उसी तहसील को चुना गया जो सर्वाधिक उपयुक्त थे तथा उनका नाम भी वही रखा गया है जो पहले से प्रचलित थे। इसके बावजूद भी इन फैसलों का विरोध करना और उन्हें बदलना सपा सरकार का पूर्णरूप से दुर्भावना से ग्रसित कदम है जो उसकी तुच्छ मानसिकता का प्रतीक है। उत्तर प्रदेश की सपा सरकार को उसकी इस प्रकार की करतूतों का खामियाजा भुगतने के लिये तैयार रहने की चेतावनी देते हुये मायावती ने कहाकि उनकी सरकार में कभी भी सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिये काम नहीं किया है जिस कारण ही उनकी पार्टी व सरकार की एक अलग पहचान बनी हुई है, परन्तु दुर्भावना के साथ-साथ विरोध के लिये विरोध‘‘ करने वाली पार्टी सपा को कभी भी माफ नहीं किया जा सकता है।वर्तमान सपा सरकार की घोर दलित व पिछड़ा वर्ग एवं सर्वसमाज के गरीब-विरोधी नीति के खिलाफ बसपा . अपने संघर्ष को और ज्यादा तीव्र करेगी एवं समय आने पर इन ज्यादतियों का पूरा-पूरा हिसाब-किताब जरूर लिया जाएगा ।

Sunday, July 22, 2012

सूखे और भूखे बुंदेलखंड पर फिर अकाल की छाया

अंबरीश कुमार
लखनऊ ,२२ जुलाई । सूखे और भूखे बुंदेलखंड पर अकाल की छाया मंडरा रही है ।रविवार की सुबह तक हमीरपुर और जालौन में कुल ७२ मिमी वर्षा रिकार्ड की गई जबकि पिछले साल इसी दौर में ३११ मिमी वर्षा रिकार्ड की गई थी । झाँसी से लेकर ललितपुर वर्षा कुछ ज्यादा हुई पर पिछले बार के मुकाबले आधी भी नहीं । हालत यह है कि खरीफ की फसल बर्बाद हो रही है । दलहन में अरहर बुरी तरह प्रभावित हुई तो उड़द ,मूंग और तिल आदि की फसल कही दस फीसद बची है तो कही बीस फीसद । हफ्ता भर और बरसात नहीं हुई तो यह भी बर्बाद हो सकती है । सावन में पानी के इस संकट ने किसानो को चिंतित कर दिया है और पलायन भी बढ़ गया है । पलायन की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जालौन में मनरेगा का ३८ करोड़ रुपया बचा हुआ है और काम के लिए मजदूर नहीं मिल रहे है । बुंदलखंड के मौजूदा हालत पर राजनैतिक दलों से लेकर सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने चिंता जताई है । जन संघर्ष मोर्चा के अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा -पानी का संकट तो समूचे प्रदेश में है पर इधर सोनभद्र ,मिर्जापुर के आलावा बुंदेलखंड में काफी ज्यादा है । यह समस्या अवैध खनन और पानी के परंपरागत स्रोतों को बर्बाद करने से बड़ी है । अब यह आपराधिक लापरवाही होगी अगर हफ्ते भर के भीतर बुंदेलखंड के ज्यादा प्रभावित इलाकों के किसानो को किसी भी तरह पानी नही मुहैय्या कराया गया । सरकार को बुंदेलखंड के बारे में युद्ध स्तर पर पहल करनी होगी । इसके लिए विशेषज्ञों की एक टीम बनाने की जरुरत है । गौरतलब है कि बुंदेलखंड में पानी का संकट कोई नया नहीं है । पर जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट हुई है उससे हालत बुरी तरह बिगड़ गए है । आज चंदेल कालीन दर्जन भर तालाब सूखे पड़े है वर्ना किसान को इन्ही तालाबो से मदद मिल जाती । उरई से सुनील शर्मा ने कहा -अगर हफ्ते भर और बरसात न हुई तो अकाल की नौबत आ जाएगी । खरीफ की फसल तो दस फीसदी भी नहीं बची है ऐसे में किसान पलायन पर मजबूर हो रहा है । इस बीच आगामी २९ जुलाई को झांसी के पास मउरानीपुर में बुंदेलखंड के विकास के लिए ठोस पहल के वास्ते एक कार्यशाला रखी गई है जिसमे चंदेल कालीन तालाबों के जल प्रबंधन ,पर्यटन और रोजगार के सवाल पर विभिन्न क्षेत्रों के विशेषग्य अपनी बात रखेंगे । हालाँकि सरकारी स्तर पर किसी ने भी इसमे फिलहाल कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है । बुंदेलखंड को लेकर गैर सरकारी पहल होती रही है पर उन्हें कोई मदद नही मिलती । बुंदेलखंड में कुछ संस्थाओं ने जो पहल की है उससे इस अंचल के विकास का एक खाका तैयार करने में नदाद मिल सकती सकती है । एसेस न्यूज़ एंड व्यूज की तरफ से इस कार्यशाला के प्रबंध में जुटी सुविज्ञा जैन ने कहा -यह कार्यक्रम बुंदेलखंड के मौजूदा हालात को देखते हुए काफी महत्वपूर्ण है । बुंदेलखंड से हर साल लाखो लोग पलायन कर रहे है जिसकी मुख्य वजह पानी का संकट और रोजगार का न होना है । अगर बुंदेलखंड का जल प्रबंधन दुरुस्त किया जा सके और रोजगार की संभावनाओ पर गौर किया जा सके तो बहुत कुछ हो सकता है । इस दिशा में कई विशेषग्य काम का रहे है और वे मउरानीपुर में होने जा रही कार्यशाला में इस पर रोशनी डालने वाले है । jansatta

Thursday, July 19, 2012

पर आसान नहीं है राहुल गाँधी का आगे का रास्ता

अंबरीश कुमार लखनऊ ,१९
जुलाई । कांग्रेस में बड़ी जिम्मेदारी सँभालने जा रहे राहुल गाँधी के लिए देश से लेकर प्रदेश तक आगे का रास्ता बहुत आसान नही है ।उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद उनकी लंबे समय तक दूरी पार्टी कार्यकर्ताओं को और खली । प्रदेश में चुनाव के दौरान दो नौजवान प्रचार में जुटे थे और तब कहा जा रहा था ' एक नौजवान गुस्से में घूम रहा है तो दूसरा मुस्कराता हुआ ।' साफ़ तौर पर यह इशारा राहुल गाँधी कि तरफ था जो बहुत कमजोर पार्टी संगठन और लचर किस्म के प्रदेश नेतृत्व के साथ बहुजन समाज पार्टी से लड़ने का दिखावा कर रहे थे पर लड़ रहे थे समाजवादी पार्टी से । दूसरी तरफ पार्टी के नेता सब जगह यह प्रचार करने में जुटे थे कि बिना कांग्रेस के समर्थन के कोई सरकार प्रदेश में नहीं बन सकती ।यानी कांग्रेस पहले से यह मान कर चल रही थी कि वह अपनी ताकत पर सत्ता में नही आने वाली है ।जबकि भाजपा के नेताओं ने चुनाव के पहले दौर के बाद ही यह कहना शुरू कर दिया कि त्रिशंकू विधान सभा आने वाली है ।ऐसे में समाजवादी पार्टी जो पूर्ण बहुमत के लिए लड़ रही थी उसे बहुमत मिला और रणनीतिक गलती के बाद कांग्रेस और भाजपा बुरी तरह हारी । राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश कीं जनता खासकर दलितों ,मुसलमानों और किसानो को लगातार यह सन्देश देने का प्रयास किया कि कांग्रेस उनके साथ है ।इसके लिए वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वांचल के किसानो के बीच गए भी । दलितों के घर रुके और उनके हाथ का बना खाना भी खाया ,हैंडपंप के पानी से नहाया भी ।आजादी के बाद इस तरह गांधी परिवार का कोई नेता गांव तक नहीं पहुंचा । पर उनका यह सब करना एक राजनैतिक सन्देश ही बनकर रह गया । राहुल गाँधी की प्रतिबद्धता और सदाशयता पर किसी को कोई शक नहीं था।वाराणसी में चुनाव के दौरान जब वे दलितों के साथ खाना खा रहे थे तो एक दलित बुजुर्ग ने आंसू पोछते हुए कहा था -कभी सोचा नहीं था इंदिरा जी का पोता हमारे साथ बैठकर खाना खाएगा । इससे उनके असर का अंदाजा लगाया जा सकता है । पर उनके पास वह संगठन नहीं था जो यह भरोसा दिलाता कि कांग्रेस सत्ता में आएगी ।दूसरे वे उत्तर प्रदेश सँभालने को तैयार भी नहीं थे । यह पार्टी के रणनीतिकारों की दूसरी बड़ी भूल थी । अत्तर प्रदेश की राजनीति को करीब से देखने वाले प्रोफ़ेसर प्रमोद कुमार ने कहा -अगर कांग्रेस राहुल गाँधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर मैदान में उतारती तो कमजोर संगठन के बावजूद राहुल गांधी को बहुमत मिल सकता था । इसके बाद वे केंद्र की राजनीति में जाते तो रास्ता आसान होता । अब प्रदेश का चुनाव हरने के बाद इंदिरा नेहरु परिवार का करिश्मा टूटता नजर आ रहा है ।तीन पीढ़ियों बाद वैसे भी कोई डाइनेस्टी नही चल पाती।' पर राजनीति में भविष्यवाणी आसान नहीं होती इसलिए गांधी परिवार को पूरी तरह ख़ारिज कर देना ठीक नहीं लगता । लेकिन राहुल गाँधी की आगे की राजनीति पर उत्तर प्रदेश हावी रहेगा यह भी सच है । लोकसभा चुनाव में फिर उन्हें दूसरी परीक्षा देनी होगी । वे पार्टी में कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जा सकते है पर इसके बावजूद उत्तर प्रदेश उनका घर ही माना जाएगा ।इसलिए बड़े चुनाव यानी लोकसभा चुनाव में उन्हें काफी परिश्रम करना पड़ेगा ।अखिलेश यादव सरकार जो बेरोजगारी भत्ता ,टैबलेट और लैपटाप के नारे के साथ विधान सभा चुनाव में बहुमत लेकर आई है वह इस रणनीति को फिर लोकसभा में दोहरा कर अपनी लोकसभा सीटों को काफी ज्यादा बढा सकती है । हालाँकि विधान सभा जैसा प्रदर्शन सपा कर पाएगी यह नहीं लगता और तब कुछ और समय बीत चूका होगा । फिर भी सपा पूरी तैयारी में जुट रही है । पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -लोकसभा में सपा अपनी पूरी ताकत दिखाएगी और किसी पार्टी से तालमेल का सवाल भी नहीं है । पार्टी के इस रुख से साफ़ है कि कांग्रेस को इस चुनाव में कोई बैसाखी भी नही मिलनी ।इस सबको देखते हुए राहुल गाँधी ने अगर उत्तर प्रदेश में पार्टी संगठन में जान नहीं फूंकी तो उनका देश का रास्ता भी आसान नहीं होगा ।

Wednesday, July 18, 2012

उत्पीडन की बढती घटनाओं के बाद दलितों की नजर मायावती पर

अंबरीश कुमार
लखनऊ , । कुछ जगहों से दलित उत्पीडन की ख़बरों के बाद दलितों की नजर फिर मायावती पर टिक गई है । मायावती वैसे भी उत्तर प्रदेश में अपनी राजनैतिक जमीन मजबूत करने की फ़िराक में है । लक्ष्य अगला लोकसभा चुनाव है । विधान सभा चुनाव में करारी हार के सदमे से पार्टी उबरती जा रही है । उत्तर प्रदेश में पार्टी सार्वजनिक रूप से अभी कोई राजनैतिक पहलकदमी नही करने जा रही है । बसपा ने तय किया है कि छह महीने तक वह इस सरकार के खिलाफ नहीं बोलेगी क्योकि इतना समय किसी भी सरकार को दिया जाना चाहिए । विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष और बसपा के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने जनसत्ता से कहा -'उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की नहीं भगवन भरोसे सरकार चल रही है । समूचे प्रदेश में दलित उत्पीडन की घटनाओं में तेजी से इजाफा हो रहा है और इन सबपर पार्टी नजर रख रही है । जिलों जिलों से कमजोर तबके के दमन और उत्पीडन की खबरे आ रही है । हम इस सब पर नजर रख रहे है । इस सरकार को छह महीना तो देना ही है उसके बाद लड़ाई शुरू होगी । ' गौरतलब है कि बीते सोमवार को आजमगढ़ में दलित नेता बलिराम ने मेहता पार्क में अंबेडकर प्रतिमा के नीचे आत्मदाह कर लिया । आग लगाने से पहले उसने सल्फास भी खाया । करीब अस्सी साल के बलराम आंबेडकर समाज पार्टी से जुड़े थे और व्यवस्था के अन्याय से संघर्ष कर रहे थे । वे रोज धरना स्थल पर आते बैठते और चले जाते । जब लगा कि कोई सुनवाई नहीं होगी तो जान दे दी । एक दलित युवक सूरन ने कहा -अब फिर बड़ी जाति के लोगों के जुल्म की खबरे बढती जा रही है । मायावती के राज में हमन के जान मॉल की हिफाजत तो थी । मामला सिर्फ एक दो जगहों का नहीं है चंदौली के सैयदराजा में काजीपुर गाँव में शिव मंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई । वजह किसी ने अफवाह उड़ा दी थी कि दलितों ने मंदिर में मुर्गे की बलि दे दी थी जिसके चलते गाँव के भोला यादव की तबियत ख़राब हो गई । इसी के बाद दलितों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । खास बात यह है की मंदिर में दलितों को रोकने का काम पुलिस ने किया । इसी तरह एक और घटना में नॉएडा के शिव मंदिर में पुजारी ने दलित महिलाओं और बच्चो को जलाभिषेक करने से रोक दिया| शिवपुरा और सैनी गाँव के बीच काफी पुराना शिव मंदिर है जिसे भोले बाबा का सिद्ध पीठ कहा जाता है| मंगलवार को जब शिवपुरा गाँव की दलित महिलाये जलाभिषेक के लिए शिव मंदिर की लाईन में लगी तो पुजारी ने रोक दिया । राजनैतिक टीकाकार वीरेंद्र नाथ भट्ट ने कहा जिस तरह कई अंचल से गरीबो के उत्पीड़न की खबरे आ रही है यह नई सरकार के लिए ठीक नहीं है| एक नहीं कई जिलो से इस तरह की खबरे आई है यह चिंता का विषय है । लखनऊ जैसे शहरी इलाको में भी सत्तारूढ़ दल के पार्षद जिस तरह की हरकतें कर रहे है उससे लोगो में नाराज़गी बढ़ रही है।एक पार्षद ने चुनाव जीतते ही चौराहे पर अवैध दुकान खड़ी कर उस पर समाज वादी पार्टी का रंग पुतवा दिया जो बड़ी मुश्किल से नियंत्रण में आया ।इसी तरह कई और इलाको में भी सभासदों ने आम लोगो के लिए दिक्कते पैदा कर रखी है| पर समाजवादी पार्टी इन आरोपों को बेबुनियाद बताती है ।पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -पहले मायावती के राज्य में ये घटनाएं दर्ज ही नहीं होती थी इसलिए सामने नहीं आती थी ।समाजवादी पार्टी की सरकार आने के बाद सभी तरह की घटनाएं दर्ज हो रही है ।जहाँ से भी कमजोर तबके के दमन और उत्पीडन की खबरे मिलती है फ़ौरन कार्रवाई की जाती है। मायावती के राज्य में दलितों के उत्पीडन की सबसे ज्यादा घटनाएं हुई ।बहुत सी दलित युवतियों के साथ दुराचार हुआ और समाजवादी पार्टी ने ही उनकी आवाज़ उठाई और संघर्ष किया ।इसलिए दलित उत्पीड़न बढ़ा है यह कहना पूरी तरह गलत है।jansatta

जाना एक सुपर स्टार का

अंबरीश कुमार
साठ के अंतिम दौर से लेकर सत्तर के दशक का बड़ा हिस्सा सुपर स्टार राजेश खन्ना का का रहा । वह राजेश खन्ना जिसने उस दौर की नौजवान पीढी को दीवाना बना दिया और बताया जीवन में रोमांस क्या होता है । बचपन में दिल्ली के गोलचा में पापा मम्मी के साथ राजेश खन्ना की पहली फिल्म आखिरी ख़त देखी तो कई दिन तक विचलित रहा । फिर स्कूल से भागकर जितनी फिल्मे देखी उनमे राजेश खन्ना की फिल्मे सबसे ज्यादा थी । वह राजेश खन्ना का गजब का दौर था जब बालों से लेकर कपड़ों तक की नक़ल होती थी । पहले के नायक खो रहे थे और नए नायक का उदय हो रहा था । हमने तो देखा है वह दौर वह दीवानापन । आजादी के बाद फिल्म इंडस्ट्री पर हर दौर की राजनीति का असर पड़ा और उसी के हिसाब से नायक भ खड़े हुए । राजकपूर ,देवानद और दिलीप कुमार उस दौर के नायक रहे । नए बनते हुए देश और नए समाज की कहानिया आई और ये नायक छा गए थे । रोमांटिसिज्म का एक दौर था । कालेज और विश्विद्यालयों में भी एक अलग दौर था । पर चीन और पाकिस्तान के युद्ध के बाद से राजनैतिक हालात बदलने लगे थे । यथार्थ की राजनीति रोमांस के उस दौर पर भारी पड़ने लगी थी । सत्तर के दशक में ही समूचे विश्व में युवा आक्रोश उभरने लगा था । रोटी ,शिक्षा और रोजगार का सवाल उठने लगा था । राजेश खन्ना इसके पहले सुपर स्टार के यूप में स्थापित हो चुके थे । पर जो यूवा आक्रोश समूचे विश्व में उभरा उसका असर देश पर भी पड़ा । नक्सलबाड़ी से निकली चिंगारी बिहार के खेत और खलिहानों से बढती हुई देश के अन्य हिस्सों में फैलने लगी । इसी दौर में गुजरात के छात्रों ने जो आन्दोलन छेड़ा वह चौहत्तर आन्दोलन में बदला । कांग्रेस के कोटा परमिट से लेकर भ्रष्टाचार का मुद्दा नई पीढी को बेचैन कर चुका था । इसी दौर में अमिताभ बच्चन का उदय होता है जो युवा आक्रोश का प्रतीक बन जाता है । फिल्म दीवार में अमिताभ बच्चन जब कुली की भूमिका में पहली बार भिड़ते है गुंडों से तो वह पूरी भाव भंगिमा और आक्रोश नौजवानों को एक नए प्रतीक के रूप में दिखता है । बाद की फिल्मे खासकर अमिताभ को व्यवस्था से एक नाराज एक नौजवान के रूप में पेश करती है । यही से रोमांस के उस दौर पर युवा आक्रोश भारी पड़ने लगता है और राजेश खन्ना शिखर से नीचे उतरने लगते है । सुपर स्टार पर महानायक निजी और फिल्म दोनों जगह हावी होने लगता है । राजेश खन्ना उस दौर और उस माहौल को समझने में चूक जाते है और अपनी रोमांटिक छवि को बार बार आजमाते है । उनके अन्दर का सुपर स्टार किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं होता । यह समस्या देव आनंद के साथ भी आई पर वे शराब में न डूबे और न संघर्ष से पीछे हटे । राजेश खन्ना से अपना भी परिचय रहा और उनका प्रशंसक था और रहूँगा । पर जब भी मिला एक दर्द महसूस हुआ । जो फिल्म इंडस्ट्री का बादशाह था उससे लोगों ने बाद में किनारा कर लिया । जिन्हें आगे बढाया वे भी साथ छोड़ गए । डिम्पल का साथ भी छूटा । एक के बाद एक बड़े झटको ने राजेश खन्ना को तोड़ दिया और उन्हें यह लगा की शराब साथ दे रही है । राजनीति का भी अजीब खेल है । कांग्रेस में सुपर स्टार से लेकर महानायक दोनों को दांव दिया पर अमिताभ परिवार के साथ थे और परिवार उनके साथ बाहर से भी हमेशा खड़ा दिखा पर राजेश खन्ना के साथ सिर्फ उनके चंद यार बचे थे। कई मित्रों के जाने का बहुत दुःख होता है पर इनमे कई ने तो जल्दी जाने का इंतजाम भी किया था । राजेश खन्ना भी उसी रास्ते पर गए । जीवन जीने की अराजकता भी कई बार भारी पड़ती है । पर राजेश खन्ना बहुत कुछ देकर भी गए है । यह सुनकर संतोष हुआ कि अंतिम साँस राजेश खन्ना ने डिम्पल का हाथ पकड़ कर ली ।

Sunday, July 15, 2012

दुराग्रह छोड़कर देखें , जनसत्ता आज भी अलग नजर आएगा

ओम थानवी
विडंबना ही है कि प्रभाष जी को हम इस तरह याद करें कि वे आज होते तो पचहत्तर के होते। वे असमय विदा हुए। सेहत में व्याधियां थीं। फिर भी जैसा उन्हें देखा, यह अंदेशा मेरे मन में कभी नहीं उठा कि उनकी अमृत जयंती हम भूतकाल में मनाएंगे। विधि आखिर विधि है, पर ऐसी घड़ी में आकर विधि का विधान खुद एक व्याधि लगने लगता है। विचलन के जिस दौर में देश की पत्रकारिता, समाज और राजनीति को प्रभाष जी जैसे विवेक की उत्कट जरूरत थी, वे हमारे बीच नहीं रहे। भीतर की चिकित्सक जानें, हमारे देखे जब वे गए पूरे सक्रिय थे। नियमित लिखते थे। नियमित यात्राएं करते थे। मैदान में जाकर खेल देखते थे। घर पर आकर बच्चों के साथ खेलते थे। सभा-बैठकों में योजनाओं के खाके बनाते थे। दुनिया-जहान की हर गतिविधि को लेकर सजग थे। उनके न रहने का बोध परिवार में, समाज में अपनी जगह होगा। मेरे समक्ष उनकी गैर-मौजूदगी कदम-कदम पर पीड़ा का अहसास है। वे जनसत्ता संपादकीय सलाहकार कहने भर को थे, सही मायने में वे जनसत्ता के लिए सब-कुछ थे। ‘तात, बंधु, सखा, चिर सहचर’। जनसत्ता उन्हीं का अखबार है। उन्हीं की कल्पना का साकार रूप, उन्हीं के परिश्रम का प्रतिफल। उनकी उपस्थिति हमारे लिए अपने में सबसे बड़ी सलाह थी। आशा है शोध-प्रेमी इस कथन में व्यंजना न ढूंढ़ेंगे। जब मुझे जनसत्ता सम्हालने को कहा गया, तभी यह खयाल कौंधा था कि लोग जल्द और संपादकों से नहीं, प्रभाष जी के दौर से मिलान करने बैठेंगे। इससे बड़ी ज्यादती क्या हो सकती है? हालांकि अच्छी बातें करने वाले भी मिलते हैं। वे जनसत्ता की तारीफ करते-न-करते, उसकी बराबरी अंग्रेजी के दैनिक द हिंदू से करने लगते हैं। उनका बड़प्पन है, पर यह दूसरी किस्म की अतिरंजना है। तुलना तभी उचित होती है जब दोनों अखबारों के साधन-स्रोत बराबर हों। प्रभाष जी ने जनसत्ता को एक अपूर्व ऊंचाई पर पहुंचाया। व्यावसायिक सफलता के अर्थ में भी। अखबार का प्रसार उसके प्रकाशन के दूसरे ही वर्ष इस कदर बढ़ा कि उन्हें पाठकों से जनसत्ता मिल-बांटकर पढ़ने की अपील करनी पड़ी। लेकिन उनके देखते प्रसार घटा भी। अखबार का आकार भी घटा। इर्द-गिर्द बहुरंगी और बहुपृष्ठी बाजारू अखबारों की भीड़ छाने लगी। लोकरुचि वक्त के साथ बदलती है। उसके साथ अखबारों के सरोकार भी बदल जाते हैं। पर जनसत्ता के सरोकार नहीं बदले, मैं इस संतोष और गुरूर में ही अखबार की मौजूदा भूमिका को देखता हूं। जब चंडीगढ़ से दिल्ली आया और जनसत्ता का काम देखने लगा, सहयोगी लोग कागज आदि पर मेरे नाम की जगह ‘संपादक जी’ लिखते थे। एकदिन सूचना-पट्ट पर मैंने लिखकर नोट लगाया कि मुझे मेरा नाम बहुत प्यारा नहीं, पर ‘संपादक जी’ की जगह कृपया नाम का इस्तेमाल करें। ‘संपादक जी’ प्रभाष जी थे और रहेंगे। क्या यह महज संयोग है कि प्रभाष जी के बाद तीन संपादक हुए, तीनों कार्यकारी संपादक के रूप में जाने गए। प्रभाष जी की जगह कोई नहीं ले सकता। यह दूसरी बात है कि वे अपने निकट सहयोगियों के लिए जल्दी ही ‘संपादक जी’ से ‘प्रभाष जी’ हो जाते थे। हमेशा के लिए। भोपाल में पत्रकारिता पर एक संगोष्ठी हुई। उसमें प्रभाष जी मौजूद थे। निर्मल वर्मा भी थे। और भी अनेक संपादक और वरिष्ठ पत्रकार। मैंने कहा कि संपादन का बोझ मुझ पर आ पड़ा है जिसे प्रभाष जी के नाम से निभा भर रहा हूं। मैंने ‘पादुका के प्रसंग की तरह’ कहा तो सदा-मायूस आलोक मेहता को बहुत हैरानी हुई। सचाई यही है कि सीमाओं और परिस्थितियों की पहचान के बावजूद जनसत्ता प्रभाष जी के आदर्शों से हट न पाए, अब भी सबकी यही भरसक कोशिश रहती है। इसमें कितनी सफलता मिलती है और किन कारणों से कितनी नहीं मिल पाती, इसकी गहराई में अभी नहीं जाना चाहता। तमाम सीमाओं के बावजूद जनसत्ता उपेक्षणीय नहीं हो सकता; उसका विवेचन लोग करते हैं, आगे भी करेंगे। रोजगार के नाते नहीं, पर मेरे जैसे पाठक जनसत्ता से तभी जुड़ गए थे, जब अखबार 1983 में फिर निकलना शुरू हुआ। जनसत्ता एक बार पहले भी निकला था (मेरे जन्म से पहले की बात है!), पर प्रभाष जी के संपादन में आया जनसत्ता दो टूक भाषा और साफगोई के अंदाज में हिंदी का पहला ‘बोल्ड’ अखबार था। हिंदी समाज ने उसे हाथों-हाथ लिया। उसकी कई चीजों पर फिदा होकर मैं बेहद खुश होता, कभी बेचैन भी हो उठता। बनवारी जी से मेरा संपर्क तब से था, जब मैं जयपुर में कुछ समय के लिए राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ का प्रभारी था। पत्रिका के लिए अर्थव्यवस्था पर बनवारी जी ने लिखा भी। जनसत्ता ने शीर्षकों में जो बांकपन दिया, वह अखबारों में जड़ता तोड़ने की बड़ी कार्रवाई था। बाद में और अखबार (फिर टीवी) भी उसी रास्ते पर चले। लेकिन मैंने बनवारी जी से उलटी प्रतिक्रिया जाहिर की। मैंने कहा, जनसत्ता ने पुरानी शीर्षक शैली (राष्ट्रपति उपवास रखेंगे) को बांकपन (उपवास रखेंगे राष्ट्रपति)से बदला। लेकिन अगर हर शीर्षक के साथ वही बर्ताव किया जाता है तो एक जड़ता तोड़कर आप जल्दी ही नई जड़ता कायम करने लगेंगे। बनवारी जी को मेरी बात जंची। हालांकि उसका खास असर देखने में नहीं आया, पर इस तरह जनसत्ता से मेरा जुड़ाव बना। जनसत्ता में प्रभाष जी मुझे तेईस साल पहले लाए। यह प्रसंग तफसील में पहले लिख चुका हूं। 1989 में मैंने जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण का जिम्मा सम्हाला, तब जनसत्ता छह साल पुराना अखबार था। चंडीगढ़ संस्करण को दो साल हुए थे। वितरण के हिसाब से एक शिखर पर पहुंचने का कीर्तिमान बहुत जल्द धुंधला चुका था। जनसत्ता जब शुरू हुआ, पंजाब का खालिस्तानी भटकाव पंजाब ही नहीं, पंजाब के बाहर भी हिंदू मानस को गोलबंद कर रहा था। हिंदी-पंजाबी के नाम पर खालिस्तान की मुहिम ने हिंदू-सिख भावनाओं को ही हवा दी। फिर आॅपरेशन ब्लू-स्टार हुआ। स्वर्णमंदिर पर टैंक चढ़े। सिख समाज का तीर्थ अकाल तखत लगभग ध्वस्त हो गया। हरमंदिर साहब के स्वर्ण-पटल गोलियों से छिद गए। दुर्दांत भिंडरांवाले सहित बड़ी तादाद में आतंकवादी भी मारे गए। चूंकि खालिस्तान के अलगाववादी खेल से सारा देश त्रस्त था, धर्मस्थल में सैनिक कार्रवाई की इंदिरा गांधी की ‘ऐतिहासिक भूल’ (जिसे कालांतर में कांग्रेस ने भी माना) को प्रभाष जी ने कुछ भावुक होकर देखा। मुझे याद है, उस वक्त मैं जयपुर में केसरगढ़ (पत्रिका मुख्यालय) के टेलीप्रिंटर कक्ष में ‘टिकर’ को टकटकी लगाए देख रहा था। ब्लू-स्टार की कार्रवाई संपन्न हो चुकी थी। उस रोज सिर्फ एक व्यक्ति ने स्वर्णमंदिर में सेना की कार्रवाई का विरोध किया था। चंद्रशेखर ने, जो कुछ वर्ष बाद प्रधानमंत्री हुए। प्रभाष जी ने पहले पन्ने पर सैनिक कार्रवाई का स्वागत करते हुए लेफ्टिनेंट जनरल रणजीत सिंह दयाल को ‘पूरे देश की ओर से’ सत श्री अकाल कहा। जनरल दयाल सिख अधिकारी थे, जिन्होंने (जनरल बराड़ के साथ) ब्लू-स्टार की योजना बनाई और उसे ‘सफलतापूर्वक’ अंजाम दिया। हालांकि प्रभाष जी ने तब भी पंजाब समस्या के राजनीतिक हल की जरूरत पर बल दिया था, पर ‘आॅपरेशन’ को उन्होंने जायज बताया: ‘‘स्वर्ण मंदिर की देखादेखी काशी विश्वनाथ या तिरुपति का मंदिर या दिल्ली की जामा मस्जिद आज नहीं तो कल ऐसे किले बन जाते।... स्वर्ण मंदिर में सेना का घुसना कितना ही दुखदाई हो पर अनिवार्य था क्योंकि स्थापित होना था कि राष्ट्र के खिलाफ काम करने वाला कोई भी मंदिर राष्ट्र से ऊपर नहीं है।’’ ब्लू-स्टार के बाद देश में घटनाओं-हादसों का सिलसिला-सा चला: श्रीमती गांधी की हत्या, सिखों का कत्लेआम, खालिस्तान की मांग का दबदबा, राजीव गांधी की ताजपोशी, संत लोंगोवाल की हत्या, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सत्ता, मंडल-कमंडल, नरसिंह राव, बाबरी ध्वंस, अटल राज...। जनसत्ता का धारदार तेवर उसे ऊंचा उठाता गया। लेकिन प्रसार के मामले में जो कीर्तिमान श्रीमती गांधी की हत्या के बाद के दौर में बना, वह वापस कभी देखने को नहीं मिला। उसके नाम पर ताने जरूर आज तक सुनने को मिलते हैं- कि देखिए, एक वह वक्त था! वक्त बदलते हैं। और लोग भी। आॅपरेशन ब्लू-स्टार के प्रभाष जी बाबरी ध्वंस के बाद एक अलग अवतार में सामने आए। उदात्त, मगर निर्मम। जनसत्ता निरा खबर लेने-देने वाला अखबार नहीं रहा। वह समाचार से ज्यादा विचार के लिए जाना जाने लगा। संघ परिवार और हुड़दंगी-बजरंगी शिव सैनिकों के छद्म और क्षुद्र हिंदुत्व की प्रभाष जी ने अनंत बखिया उधेड़ी। अपनी जान पर खेल कर एक विचार के लिए हिंसक मानसिकता से जूझने का दूसरा उदाहरण पत्रकारिता के इतिहास में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। ‘पेड न्यूज’ के मामले में पत्रकारिता के भ्रष्टाचार से लड़ना उनके उसी अवतार का दूसरा बाजू था। और जीते रहते तो वे उस मुहिम को तार्किक परिणति पर न सही तार्किक मोड़ तक जरूर ले आते, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं। कुमार गंधर्व के निर्भय निर्गुण स्वर सुनते हुए सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार के खिलाफ कलम के सहारे अनवरत संघर्ष का उनमें अद्भुत माद्दा था। यह माद्दा न होता तो प्रसार संख्या ढलान पर आने के बावजूद अयोध्या कांड में वह तेवर अख्तियार न करते, जिसका हवाला मैंने ऊपर दिया है। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के साथ एक बार उन हिंदुओं में भी मंदिर-राग फूट पड़ा था, जो सांप्रदायिक नहीं थे। उस हवा की फिक्र न कर धार्मिक उन्माद की घड़ी में उन्होंने अपने दायित्व की परवाह की। 1993 में जब जनसत्ता के दस वर्ष हुए, हरियाणा के सुनसान-से ‘पर्यटक-स्थल’ दमदमा साहब में उन्होंने वरिष्ठ सहयोगियों की एक बैठक की। प्रादेशिक अखबारों के प्रसार के बीच जनसत्ता अपनी भूमिका बरकरार रखते हुए क्या परिवर्तन करे, इस पर विचार हुआ। सुबह हाफ-फेंट पहन कर हाथ में जंगली झाड़ी वाली छड़ी लिए वे पास की पहाड़ी पर चढ़ गए। दिल के मरीज थे (चंद महीनों बाद बाइपास हुआ), इसके बावजूद उनका यह दुस्साहसी उपक्रम जनसत्ता के सहयोगियों के समक्ष किसी पराक्रम से कम नहीं था। सहयोगियों से भी शायद वे ऐसे ही जीवट और एडवेंचर की आशा करते थे। पर सहयोगियों में एडवेंचर की किस्में भिन्न थीं। कुछ सहयोगियों को उन्होंने बाद में खुद अशोभनीय आरोपों के चलते शहर से- किसी को अखबार से ही- रुखसत कर दिया। लोकतंत्र में मेरी आस्था कम नहीं, पर प्रभाष जी अपने स्वभाव में अति-लोकतांत्रिक थे। वे किसी को छूट देते थे और छुट्टा छोड़ देते थे। इससे जिम्मेवारी का अहसास बढ़ता ही होगा। पर कुछ मनमानी का खतरा भी पलता था। चंडीगढ़ मैं दस वर्ष रहा। काम की इतनी आजादी कि मंडल आंदोलन भड़का तो दैनिक के पन्नों पर मैंने मंडल आयोग की पूरी की पूरी रिपोर्ट सरल अनुवाद में छाप दी। इसलिए कि लोगों को पता चले उस रिपोर्ट में सचमुच क्या है और क्या नहीं। शायद वह मेरा भावोद्रेक था। वरना राष्ट्रीय दैनिक के प्रादेशिक संस्करण को एक आयोग की रिपोर्ट का पोथा छापने की क्या गरज! दूसरी मिसाल देखिए। प्रभाष जी अयोध्या जुनून के बरखिलाफ थे। बाबरी विध्वंस पर आहत और विचलित थे। लखनऊ से हमारे सहयोगी हेमंत शर्मा अयोध्या पहुंचे। वे जानते थे कि प्रभाष जी का दृष्टिकोण क्या है। वे कहते हैं, ‘‘छह दिसंबर को जब मैंने अयोध्या के एक पीसीओ से प्रभाष जी को बाबरी ध्वंस की जानकारी देने के लिए फोन किया... प्रभाष जी रोने लगे। कुछ देर चुप रहे। फिर कहा- यह धोखा है, छल है, कपट है। यह विश्वासघात है। यह हमारा धर्म नहीं है। हम इन लोगों से निपटेंगे।... दूसरे रोज प्रभाष जी ने लिखा: राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम की रघुकुल रीति पर कालिख पोत दी।...’’ (साहित्य अमृत में हेमंत का लेख, बाद में राजकमल से प्रकाशित प्रभाष पर्व में संकलित) एक रिपोर्टर को संपादक की ओर से- बल्कि उनके श्रीमुख से- इससे साफ लाइन नहीं मिल सकती। लेकिन मित्रवर हेमंत ने उस घड़ी जनसत्ता की सेवा कम की, कारसेवकों की शायद ज्यादा। और पाठकों का नहीं पता, मैं चंडीगढ़ में बैठा अपने अखबार में अयोध्या की रिपोर्टिंग देखकर हैरान था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने बनवारी जी को फोन कर अपनी राय प्रकट की। हालांकि वे अखबार का विचार पक्ष देखते थे, समाचार का पहलू हरिशंकर व्यास के जिम्मे था। वर्षों बाद हेमंत को अपने काम पर खेद-सा अनुभव हुआ। उसी लेख में उन्होंने लिखा: ‘‘मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि अयोध्या से भेजी जाने वाली खबरों में मैं प्रभाष जी से उलट लाइन ले रहा था, क्योंकि जमीनी उत्साह और जन आक्रोश का मुझ पर प्रभाव था। फिर विहिप ने मुस्लिम तुष्टीकरण के सवाल पर देशभर में जो आंदोलन खड़ा किया था, उसका आधार इतना व्यापक था कि मैं भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।’’ हेमंत कहते हैं कि प्रभाष जी ने संपादकीय सहयोगियों से साफ कहा कि मैंने एक लाइन ली है, इसे खबरों की लाइन न समझा जाए। प्रभाष जी ने उन्हें ‘रामभक्त पत्रकार’ घोषित कर दिया, जनसत्ता में ही अपने लेखों में उन्हें इस नाम से संबोधित किया। उनकी खबरों को खारिज करते हुए संपादकीय लिखे। हेमंत बताते हैं, मैं पूरे आंदोलन में प्रभाष जी की लाइन के खिलाफ था। वे ठीक कहते हैं कि रिपोर्टर को इतनी आजादी कोई संपादक नहीं देगा। हेमंत ने यह भी लिखा है कि दुर्भाग्यवश प्रभाष जी के बाद के संपादक इसे समझ नहीं पाए। जाहिर है, मैं भी उनमें शामिल हूं। मैं प्रभाष जी की बराबरी का साहस अपने खयालों के पल्लू से भी दूर समझता हूं। पर हेमंत से सहमत हूं। मैं प्रभाष जी की जगह होता तो हेमंत की पहली रिपोर्ट देखने के बाद उनसे बात करता और डेस्क को भी चौकन्ना करता। हो सकता है यह भी कहता कि अपने इस जनसत्ता-सेवक का यही हाल रहे तो हर कापी मुझसे ओके करवाएं (इस तरह उन्हें भावी पछतावे से भी उबारता); शायद एक दूसरा संवाददाता भी वहां तैनात करता (तब तो स्टाफ बहुत था!)। खबरों और लेखों में बहुत फासला होता है, जो बना रहना चाहिए। यही नहीं कि वह मामला कितना नाजुक था। संवाददाता की आजादी तथ्यों के साथ भावना में बहने की छूट नहीं देती। आजादी के साथ बुनियादी जिम्मेवारी बुरी तरह चिपकी हुई है। फिर अखबार के दफ्तर में संवाददाताओं के अलावा तीस-पैंतीस दूसरे सहयोगी काम करते हैं। आजादी का यह भावुक रूपक अखबार में तथ्यों से लेकर वर्तनी तक की मनोरंजक और लोमहर्षक अराजकता पैदा कर सकता है। पर प्रभाष जी यह जोखिम ले सकते थे। यह उनकी महानता थी। शायद सहयोगी ही उनकी परीक्षा लेते थे और प्रभाष जी हमेशा उस पर खरे उतरते थे। लोग प्रसार को लेकर अखबार की बात करते हैं तो मुझे बरबस वितरण विभाग के प्रबंधक या टीवी चैनलों के टीआरपी-प्रेमी संपादक-प्रबंधक खयाल आने लगते हैं। प्रसार न अखबार की गुणवत्ता की कसौटी है, न संपादक की प्रतिभा की। किसी शरीफ के विवेक को क्या आप उसके बैंक-बैलेंस से नापेंगे? मेहरबानी कर इसे आज जनसत्ता के कम प्रसार की कैफियत न समझें। कारण कई हैं। पर थोड़े सही, अच्छे पाठक जनसत्ता को हासिल हैं। उनकी संख्या बढ़ेगी। जो दिल छोटा ही किए बैठे रहते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि कुछ वर्ष पहले जनसत्ता के निंदक सुबह-शाम उसके बंद होने की बात करते थे। उनके मुंह फिलहाल बंद हैं। अखबार का आकार और पन्ने बढ़े हैं। एजंसियों पर निर्भरता घटी है। चंडीगढ़ संस्करण फिर शुरू हो गया है। हिंदी के उत्कृष्ट लेखक जनसत्ता के लिए लिख रहे हैं। खबरों का पहलू कमजोर है, पर वह भी जल्द बेहतर होगा। अफवाहों के चलते कुछ योग्य साथी अलग हो गए। पर नए सहयोगी जुड़ेंगे। लेकिन देखने की असल बात यह है कि जनसत्ता अपने संस्थापक-संपादक के बुनियादी नजरिए और सरोकारों पर कायम है या नहीं। जवाब मिलेगा- हां। दुराग्रह छोड़कर देखें तो अखबारों की भीड़ में जनसत्ता आज भी अलग नजर आएगा। इसमें कोई शक न हो कि देर-सबेर जनसत्ता और प्रभाष जी के समानधर्मा ही प्रभाष-परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। फिरकापरस्त नरसंहार के प्रतीक-पुरुष नरेंद्र मोदी में देश की रहनुमाई देखने वाले नहीं। अंत में रह-रह कर बंद-बंद का राग जपने वाले शुभचिंतकों से इल्तिजा: जनसत्ता एक संस्था है और संस्थाएं ऐसे नहीं डिगतीं। जिन्हें आदतन शुबहा है, भले वे दिन में तीन बार डम-डम डिगा-डिगा सुनें या गाएं।jansatta

मोहन सिंह को लेकर समाजवादी पार्टी फिर सांसत में ?

अंबरीश कुमार
लखनऊ ,जुलाई । वरिष्ठ समाजवादी नेता मोहन सिंह पार्टी के लिए संकट की वजह बन गए है । उनकी राजनैतिक टिप्पणी पार्टी के लिए संकट पैदा कर रही है । ताजा मामला राजा भैया को मंत्रिमंडल में शामिल होने से लेकर विवेकाधीन कोटे से विधायको को वहाँ दिए जाने के फैसले को लेकर है जिससे पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह के लिए असहज स्थिति पैदा हो गई है । जब अखिलेश सरकार का गठन हुआ था तब भी यह मुद्दा उठा था और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस पर सफाई भी दी कि उनपर कोई भी नया मामला दर्ज नही हुआ है । वे मुलायम सिंह सरकार में भी मंत्री रहे है । अब सरकार बनाने के चार महीने बाद मोहन सिंह ने फिर एक विवादास्पद टिपण्णी कर नया संकट पैदा कर दिया है । दूसरी टिपण्णी विवेकाधीन कोटे से बीस लाख तक का वहाँ खरीदने के फैसले को लेकर की गई । उन्होंने कहा कि इस फैसले से मुलायम सिंह नाराज थे और उन्होंने इसे वापस करवाया । इससे पहले विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान बाहुबली डीपी यादव को पार्टी में लेने के मामले में उनकी टिपण्णी से अखिलेश यादव के लिए अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई थी । अखिलेश यादव ने प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से साफ़ किया था कि डीपी यादव को पार्टी में शामिल नही किया जाएगा । इस सार्वजनिक बयान के बाद भी मोहन सिंह ने बतौर राष्ट्रीय प्रवक्ता कहा कि इसका फैसला पार्टी को लेना है । इससे पार्टी की किरकिरी हुई और अंततः समाजवादी पार्टी ने मोहन सिंह को राष्ट्रीय प्रवक्ता पद की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया। इस सबके बावजूद मोहन सिंह राजनैतिक मुद्दों पर पार्टी और सरकार के अन्तर्विरोधो पर बोल रहे है । वे समाजवादी पार्टी के बहुत वरिष्ठ नेता रहे है इसलिए उन्हें लेकर पार्टी भी साफ़ साफ़ कुछ कहने से कतरा रही है । फिलहाल आज समाजवादी पार्टी ने बाकायदा बयान जारी कर कहा - मुख्यमंत्री पद की 15 मार्च 2012 को शपथ ग्रहण के साथ ही अखिलेश यादव ने अपने मंत्रिमण्डल का गठन किया था जिसमें अनुभव और नयेपन का समावेश है। मंत्रिमण्डल के सदस्यों का चयन मुख्यमंत्री के विवेक पर होता है। अखिलेश यादव जी ने बिना किसी दबाव के अपने सहयोगियों का चयन किया। उन्होंने कानून व्यवस्था की बिगड़ी स्थिति पर नियंत्रण किया। बिजली, पानी, सड़क को प्राथमिकता दी। वायदे के अनुसार लैपटाप और बेकारी भत्ता देने की व्यवस्था की।इस बयान के राजनैतिक सन्देश को आसानी से समझा जा सकता है । जो यह साफ़ कर रहा है कि मंत्रिमंडल में शामिल करने का फैसला किसका था । यह बिना खंडन के खंडन जैसा है । पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने आगे कहा - मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दिखा दिया है कि राजनीति में वह नए नहीं हैं। वे कन्नौज से 1999 में पहली बार सांसद बने। उसके बाद कन्नौज की जनता ने उन्हें फिर दो बार अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजा। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उन्होंने न केवल संगठन को मजबूत किया अपितु चुनाव पूर्व समाजवादी क्रान्तिरथ यात्रा से उन्होंने प्रदेश में एक ऐसी लहर पैदा की कि चुनाव में समाजवादी पार्टी को प्रचंड बहुमत भी हासिल हुआ। समाजवादी पार्टी के इतिहास में यह अभूतपूर्व उपलब्धि रही है। उनकी राजनीतिक परिपक्वता का प्रदर्शन कई मौकों पर हो चुका है। उसके लिए सिर्फ इतना ही बताना काफी होगा कि किसी भी अपराधिक छवि वाले को पार्टी में न लेने का एलान कर अखिलेश यादव ने क्षण भर में पार्टी की छवि बदल दी थी। लोगों का विश्वास है कि समाजवादी पार्टी मजबूत रास्ते पर है।

प्रयोगधर्मी पत्रकार थे प्रभाष जोशी -अखिलेश यादव

लखनऊ ,जुलाई । हिंदी पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष प्रभाष जोशी के ७५ वें जन्म दिन पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश य
,भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता कलराज मिश्र ,वामपंथी नेता अखिलेन्द्र प्रताप सिंह समेत कई जन संगठनों और बुद्धिजीवियों ने उन्हें याद किया । जन संगठनो ने कहा कि लोकतंत्र की देशज चेतना पर प्रभाष जोशी की अद्भुत पकड़ थी जिसकी छाप उनके लेखन में दिखी और उसने हिन्दी पट्टी की राजनीति को प्रभावित किया था । समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आज यहाँ कहा कि हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जी एक अलग नाम है। अपने अंदाज, भाषा और तेवर के साथ उन्होंने कई दशकों तक अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई थी। तमाम पाठक उनको पढ़ने के लिए बेचेैन रहते थे तो ऐसे भी कम नहीं थे जिन्हें उनकी हर बात की आलोचना करने में रस आता था। आज वे जिंदा होते तो उनका 75 वां जन्म दिवस मनाया जा रहा होता। लेकिन क्रूर काल ने तीन साल पहले हमसे वह अवसर ही छीन लिया।उन्होंने कहा कि प्रभाष जोशी एक प्रयोगधर्मी पत्रकार थे। उन्होंने ‘‘जनसत्ता’’ को एक नया भाषा-संस्कार नए तेवर के साथ दिया। उन्होंने बाजारवाद और सांम्प्रदायिकता के खिलाफ खूब लिखा। धर्म निरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बेमिसाल थी। उन्होंने कभी बड़ंे से बडे़ नेता का भी लिहाज नहीं किया। आपात काल के विरोध में उन्होंने कोई डर नहीं महसूस किया। इधर समाचार पत्रों में ‘‘पेड न्यूज’’ की बढ़त से वे बहुत चिंतित थे और लगातार अपने लेखन और वक्तव्यों में वे इसका विरोध कर रहे थे। जोशी अपनी बात पर अडिग रहने वाले इंसान थे। ‘कांगद कोरे’ उनका स्तम्भ था, जिसमें बेबाक ढंग से वे अपने जीवन प्रसंगों की भी चर्चा करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर पैनी निगाह रखते थे। खेल की खबर को पहले पेज पर भी महत्व देने की उन्होंने नई परम्परा बनाई थी। वैश्वीकरण के गुण दोष पर कितने ही सटीक आलेख उन्होंने लिखे। पत्रकारों की स्वतन्त्रता के वे सच्चे हिमायती थे। उनकी स्मृति को मेरा शतषः नमन।वरिष्ठ वामपंथी नेता अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने कहा -सामाजिक सरोकार के जितने भी प्रश्न थे प्रभाष जोशी ने उसमे हस्तक्षेप किया और वे बदलाव की राजनीति में सक्रिय ढंग से दखल देने वाले थे पर असमय जाने की वजह से यह संभव नही हुआ । वे जन पक्षधर पत्रकारिता के सबसे बड़े पैरोकार थे । भाजपा नेता कलराज मिश्र ने कहा -हिन्दी पत्रकारिता को प्रभाष जोशी ने एक नई दिशा दी ,नई भाषा दी और देशज शब्दों के जरिए उसे लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचाया । आज प्रभाष जोशी की पत्रकारिता कि ज्यादा जरुरत समाज को महसूस होती है । पत्रकारिता की नई पीढ़ी के लिए प्रभाष जोशी एक आदर्श है । संघर्ष वाहिनी मंच के अध्यक्ष राजीव हेम केशव ने कहा -लोकतंत्र कि देशज चेतना पर प्रभाष जोशी की जबदस्त पकड़ थी जिसकी छाप उनके लेखन में दिखती रही और उनके लेखन ने हिंदी पट्टी की राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया । इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट के अध्यक्ष के विक्रम राव ने कहा -प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता को एक नई पहचान दी और हिंदी भाषा को नया आवरण दिया । पराडकर के बाद हिंदी पत्रकारिता में बहुत कम संपादक हुए जिन्होंने नए शब्द गढे और नए मुहावरे दिए । प्रभाष जोशी कि कलम धारदार रही तो शैली में रवानगी । नए दौर के पत्रकार प्रभाष जोशी को पढकर बहुत कुछ सीख सकते है । वेब पोर्टल एसोसिएशन ने मौजूदा हालत में एक और प्रभाष जोशी की जरुरत बताई जो समाज को नई दिशा दे सके । पचहत्तर के प्रभाष जोशी प्रभाष जोशी पर अपने अख़बार जनसत्ता के वरिष्ठ सहयोगियों का लिखा पढ़ा और फिर पुरानी यादों में खो गया।यकीन नही होता उन्हें गए तीन साल नवम्बर में हो जाएंगे।लिखने का कोई बहुत मन नहीं था पढना ज्यादा चाहता था ,पर कुछ मित्रों कहा तो लिखने बैठा ।प्रभाष जी से अपनी अंतिम मुलाकात इसी लखनऊ में उनके निधन से ठीक एक दिन पहले तब हुई जब वे तबियत ख़राब है यह सुनकर एक्सप्रेस दफ्तर में मिलने आए । तबियत तो ज्यादा ख़राब नहीं थी प्रभाष जी से कुछ नाराजगी थी एक सज्जन को लेकर जिनका नाम लिखना ठीक नहीं ।इसलिए जब वे एक कार्यक्रम में (जो अंतिम कार्यक्रम साबित हुआ ) यहाँ आए तो तारा पाटकर से मैंने कहा -कार्यक्रम में प्रभाष जी पूछे तो टाल देना कहना तबियत ख़राब थी इसलिए नहीं आ पाए । बाद में दफ्तर पहुंचा तो तारा पाटकर का फोन आया और सीधे बोले प्रभाष जी बात करना चाहते है । उधर से प्रभाष जी की रोबदार आवाज गूजी -क्यों पंडित ,क्या हुआ यहाँ आए नही । मैंने वही बहाना दोहरा दिया और कहा -भाई साहब ,कुछ तबियत गड़बड़ थी ।प्रभाष जी ने फिर कहा -ठीक है पंडित ,अपन देखने आते है ।

पचहत्तर के प्रभाष जोशी

अंबरीश कुमार
प्रभाष जोशी पर अपने अख़बार जनसत्ता के वरिष्ठ सहयोगियों का लिखा पढ़ा और फिर पुरानी यादों में खो गया।यकीन नही होता उन्हें गए तीन साल नवम्बर में हो जाएंगे।लिखने का कोई बहुत मन नहीं था पढना ज्यादा चाहता था ,पर कुछ मित्रों कहा तो लिखने बैठा ।प्रभाष जी से अपनी अंतिम मुलाकात इसी लखनऊ में उनके निधन से ठीक एक दिन पहले तब हुई जब वे तबियत ख़राब है यह सुनकर एक्सप्रेस दफ्तर में मिलने आए । तबियत तो ज्यादा ख़राब नहीं थी प्रभाष जी से कुछ नाराजगी थी एक सज्जन को लेकर जिनका नाम लिखना ठीक नहीं ।इसलिए जब वे एक कार्यक्रम में (जो अंतिम कार्यक्रम साबित हुआ ) यहाँ आए तो तारा पाटकर से मैंने कहा -कार्यक्रम में प्रभाष जी पूछे तो टाल देना कहना तबियत ख़राब थी इसलिए नहीं आ पाए । बाद में दफ्तर पहुंचा तो तारा पाटकर का फोन आया और सीधे बोले प्रभाष जी बात करना चाहते है । उधर से प्रभाष जी की रोबदार आवाज गूजी -क्यों पंडित ,क्या हुआ यहाँ आए नही । मैंने वही बहाना दोहरा दिया और कहा -भाई साहब ,कुछ तबियत गड़बड़ थी ।प्रभाष जी ने फिर कहा -ठीक है पंडित ,अपन देखने आते है । अजीब स्थिति हो गई ।खैर थोड़ी देर बाद प्रभाष जोशी सीधी चढ़कर आए और करीब दो घंटे साथ रहे ।लम्बी और रोचक चर्चा हुई ।समूचा एक्सप्रेस परिवार उनके चारो और बैठ गया । आखिर वे एक्सप्रेस के भी संपादक रहे और शेखर गुप्ता को बतौर प्रशिक्षु उन्होंने ही रखा था ।खैर जब चले और परम्परा के विपरीत जब मै उनके पैर छूने लगा तो गले में हाथ डालकर बोले -अम्बरीश ,अपन की पहचान सिर्फ लिखने से है ,लिखना जारी रहना चाहिए ।प्रभाष जोशी अपने संपादक रहे ,गुरु रहे और पाठक भी रहे । पत्रकारिता की कोई पढाई नहीं की जो सीखा वह जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकारिता से ही सीखा । मंगलेश जी का लिखा पढ़ रहा था कि किस तरह अखबार निकाला जाता था और कैसा अख़बार निकाला जाता था । कुछ लोगों की जानकारी भी बढ़ाना चाहता हूँ कि जनसत्ता में हर धारा के लोग रहे संघी से लेकर समाजवादी और धुर वामपंथी भी । महिला मुक्ति समर्थक से लेकर मंडल और दलित समर्थक भी । मंगलेश डबराल ,अभय कुमार दुबे ,शम्भुनाथ शुक्ल ,अरविन्द उप्रेती श्रीश चन्द्र मिश्र ,पारुल ,नीलम गुप्ता ,सतेन्द्र रंजन ,अरुण त्रिपाठी ,संजय स्वतंत्र ,प्रदीप श्रीवास्तव ,ओमप्रकाश ,सुशील कुमार सिंह ,संजय सिंह ,सुमित मिश्र से लेकर मनोहर नायक आदि बहुत लोग प्रगतिशील धारा के पत्रकार रहे है । इसलिए यह धारणा बनाना गलत है की जनसत्ता में प्रगतिशील धारा के लोग कम थे । यूनियन चुनाव में यह और खुलकर आया जब मै लगातार चुनाव जीता । जनसत्ता में चयन का मानदंड टेस्ट होता था जिसमे किसी तरह का आरक्षण नहीं था । प्रभाष जोशी के बाद दूसरा बड़ा नाम बनवारी का था और कई मामलों में वे प्रभाष जोशी पर भारी भी पड़ते । बनवारी समाजवादी आन्दोलन से निकले पर बाद में उनकी धारा बदल गई और भारतीय संस्कृति ,परम्परा और रीति रिवाज पर उनके लेखन में यह दिखने भी लगा । सती प्रथा पर वह विवादास्पद सम्पादकीय बनवारी ने लिखा था जिसका बचाव संपादक होने के नाते प्रभाष जोशी अंत तक करते रहे । प्रभाष जोशी ने संपादक होने के नाते यह जिम्मेदारी निभाई थी जिसे हम लोग जानते भी थे । बनवारी से प्रभाष जोशी का यह वैचारिक टकराव तब बढ़ा जब बाबरी मस्जिद गिरा दी गई । मुझे याद है मै जनरल डेस्क पर बैठा था और टेलीप्रिंटर पर बाबरी ध्वंस की खबरे आ रही थी । बनवारी ने साधू संतों की नाराजगी का जैसे ही तर्क दिया पास खड़े प्रभाष जोशी भड़क उठे और बोले -ये साधू संत नहीं हत्यारे है जो देश को तोड़ने पर आमादा है । माहौल तनावपूर्ण हो गया था और बनवारी कुछ देर में वहा से चले गए । उसी दौर में एक रात मै नाईट ड्यूटी पर था और हरिशंकर व्यास का मंदिर आन्दोलन पर पहले बेज पर बाटम जा रहा था । रात करीब ग्यारह बजे प्रभाष जोशी वही आ गए और पहला पेज देखने लगे और उनकी नजर बाटम पर गई । प्रभाष जोशी ने कहा -यह स्टोरी नही जाएगी इसे बदल दो । यह पहली घटना थी संपादक स्तर के पत्रकार की रपट हटा दी गई हो । १९९२ के बाद के प्रभाष जोशी कितने अलग थे इसका एक और उदहारण दिलचस्प है । अपने समाजवादी मित्र दिल्ली विश्विद्यालय के राजकुमार जैन प्रभाष जोशी के उन लेखों से बहुत नाराज थे जो चंद्रशेखर पर तीन अंकों में लगातार लिखा गया और पहले की हेअडिंग थी -'भोंडसी के बाबा '। बाद में एक सभा में प्रभाष जोश बोल रहे थे तो राजकुमार जैन वहा पहुँच गए और बोले -प्रभाष जी जब आपने चंद्रशेखर पर लिखा तो मैंने तय कर किया था समाजवादी कार्यकर्त्ता की तरह आपकी सभा में चप्पल जरुर फेंकूंगा पर बाबरी ध्वंस पर जो आपने लिखा उसके बाद मै आपके चरण छूना चाहता हूँ । यह घटना बहुत कुछ बताती है । जनसत्ता एक परिवार की तरह रहा जिसमे हम एक दुसरे के दुखदर्द में शामिल होते रहे वैचारिक मतभेद के बावजूद । सबकी खबर दे -सबकी खबर ले का नारा देने वाले कुमार आनंद (अब भाषा के संपादक) को प्रभाष जोशी इंतजाम बहादुर भी कहते थी । उनके घर की दावते कभी भूल नही सकता । मेरे विवाह से पहले साथियों की दावत उन्ही के घर हुई और रात भर चली । तब मै दाढी रखता था और सुबह शताब्दी पकड़ने से पहल दाढी भी उनके घर से बनाकर निकला क्योकि घरवालों का दबाव था । कल कुमार आनंद ने कहा -अब समाज से कट गया हूँ भाषा का काम भी बहुत थका देता है । मेरी वजह से ही कुमार आनंद को जनसत्ता से इस्तीफा देना पड़ा था क्योकि यूनियन चुनाव जीतने के बाद मेरे समर्थन में नारे लगे तो किसी ने प्रभाष जी के खिलाफ नारा लगा दिया था जिसके बाद हिंसा हुई और मामला विवेक गोयनका तक पहुंचा .जीएम को हटना पड़ा तो कुमार आनंद पर दबाव पड़ा । झुकने और सफाई देने की बजाय कुमार आनंद ने इस्तीफा दे दिया । प्रभाष जोशी को लेकर हम तब भी संवेदनशील थे और आज भी है । virodh blog se

Saturday, July 14, 2012

सच्चर की सिफारिशों के लिए पहल करेंगे अखिलेश यादव

अंबरीश कुमार
लखनऊ, 14 जुलाई।उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आज साफ़ संकेत दिया कि उत्तर प्रदेश में सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्र कमेटी की संस्तुतियों को लागू करने की दिशा में ठोस पहल हो सकती है । जानकारी के मुताबिक इसके लिए तीन स्तरीय कमेटी बनाई जा सकती है जो इन सिफारिशों का अध्ययन कर राज्य से संबंधित मुद्दों को चिन्हित कर सरकार को सुझाव दे सकती है ।अखिलेश यादव ने आज यहाँ एक कार्यक्रम में कहा -सरकार उत्तर प्रदेश में सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्र कमेटी की संस्तुतियों को लागू करने पर विचार करेगी ।सरकार इन सिफारिशों को तरजीह देती है ।इस बीच आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य जफरयाब जिलानी ने कहा -मुख्यमंत्री ने एक नई पहल का संकेत दिया है जो स्वागत योग्य है । हम लोगों ने पहले ही इन सिफारिशों के अमल के लिए एक कमेटी बनाने का सुझाव दिया था । जिसमे वरिष्ठ अफसर ,संबंधित मंत्री और मुस्लिम नुमाइंदे आदि शामिल हो ताकि इस पर जल्द कार्यवाई हो सके । समाजवादी पार्टी का यह चुनाव का वादा है जिसे वे जल्द पूरा करे तो बड़ा सन्देश जाएगा। अखिलेश यादव ने आगे कहा कि उनकी सरकार सभी समुदायों को बराबरी का दर्जा देती है। शासन की तरफ से मुस्लिम समुदाय की हाईस्कूल पास लड़कियों को तीस हजार रूपये की आर्थिक मदद दी जाएगी। साथ ही सरकार की तरफ से दिए जाने वाले वाले टैबलेट एवं लैपटाप का उल्लेख करते हुये उन्होंने कहा कि इनमें हिन्दी और अंग्रेजी के साथ-साथ उर्दू भाषा में काम करने का भी विकल्प उपलब्ध रहेगा। मुख्यमंत्री आज यहां हिन्दी पाक्षिक पत्रिका स्वच्छ संदेश के विशेषांक विमोचन के बाद बोल रहे थे। अखिलेश यादव ने कहा कि चार माह के कार्यकाल में उनकी सरकार ने कई महत्वपूर्ण फैसले किए हैं। इनमें से कुछ फैसलों को वापस भी लेना पड़ा, क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष और मीडिया की भी बात पर विचार करना पड़ता है। अखिलेश की यह सफाई भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है ।जो राजनैतिक लचीलापन भी दिखाती है ।बहरहाल सच्चर और रंगनाथ मिश्र कमेटी की सिफारिशों पर पहल समाजवादी पार्टी सरकार की यह बड़ी राजनैतिक पहलकदमी मानी जा रही है । भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -अगर वोटों की राजनीति से ऊपर उठकर मुस्लिम समुदाय की बेहतरी के लिए वे सच्चर और रंगनाथ कमेटी की सिफारिशों को लागु करने की दिशा में पहल करते है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए । पर मामला किसी कमेटी के चलते और न लटके इसका ध्यान भी रखना होगा । समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -हमने चुनाव में जो भी वादे किए सब पूरा किया जाएगा और उसमे सच्चर की सिफारिशे भी शामिल है । जन संगठन तहरीके निस्वां की अध्यक्ष ताहिर हसन ने कहा -अपने मनिफेस्टो में किए वादे को पूरा करते हुए उत्तर प्रदेश के चीफ मिनिस्टर अखिलेश यादव ने सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का जो बयान दिया है शायद मुख्यमंत्री बनने के बाद यह उनका पहला परिपक्व और सराहनीय कदम है । हालांकी विपक्ष के साथ साथ मीडिया भी इसे अल्पसंख्यको को लुभाने वाला क़दम बता रहा है। हैरत की बात है की इतनी बड़ी कमेटियो की सिफारिशों जिसमे मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर बताई गयी है ना लागू करना अल्पसंख्यक विरोधे नहीं होता,, लेकिन लागू करना तुष्टिकरण और लुभाने वाला क़दम माना जाता है। दरअसल उत्तर प्रदेश कि राजनीति के लिहाज से भी अखिलेश यादव का यह कदम महत्वपूर्ण माना जा रहा है ।jansatta

खामोश नही रहते प्रभाष जोशी

मंगलेश डबराल
आज प्रभाष जोशी का ७५ वां जन्मदिन है लेकिन फर्क यह है कि उनके न रहने के बावजूद उनका जन्मदिन है । इसलिए भी यह महत्वपूर्ण है क्योकि वे बेजोड परंपरा छोड़ गए है । यह बेजोड परंपरा है साहसिक और लोकोन्मुखी पत्रकारिता की । यह दोनों ही बात आज की पत्रकारिता में नजर नही आती है । आज की पत्रकारिता में तमाम तरह का समर्पण दिखता है जो एक ओर कारपोरेट घरानों ,निगमों और सरकारों के प्रति है । दूसरी ओर लोकोंमुखता के नाम पर बाजार के प्रति समर्पण । सवाल यह है कि अगर आज वे होते तो उनकी भूमिका में क्या क्या होता जो हिंदी समाज के ज्यादातर बड़े हिस्से को जागरूक बनाते हुए उसमे प्रतिरोध ,आलोचनात्मक निगाह और सवाल उठाने की क्षमता का विकास करता । आज ये बाते उनका नाम याद आने पर याद आती है । दूसरी बात जो है वह यह कि उनकी पत्रकारिता अलग तरह की थी । उनका यह दौर जनसत्ता के शुरुआती चौदह सालों के अंकों को उलट कर देखने पर ज्यादा समझा जा सकता है । (यह वह दौर था जब प्रभाष जोशी ने संपादक की भूमिका निभाई थी )यह अलग तरह की पत्रकारिता थी जिसमे सामाजिक घटनाओं से लगाव ,भाषा ,भाषा वर्तनी ,भाषा लिपि और फौंट आदि शामिल था । तब आठ कालम में प्रचलित अख़बारों की बजाय छह कालम का ले आउट ,ख़बरों का चयन ,लेखन की विविधिता भी झलकती थी । जीवन का कोई भी क्षेत्र अखबार के दायरे से ना छूटे और तमाम तरह की ख़बरें ली जाए इस पर भी जोर दिया गया । जनसत्ता अलग तरह का अखबार था जिसमे विविधिता थी । जहाँ गीत कभी नही छपे हालाँकि हमपर गीत छापने का दबाव हमेशा रहा । गीतकार कवि प्रभाष जोशी से शिकायत करते तो उन्हें समझाने का प्रयास किया जाता और बाद में 'संपादक जी '(वे मुझे संपादक जी कहते थे )के पास उन्हें भेज दिया जाता । उन्होंने कभी मेरे काम में हस्तक्षेप नही किया । उनका लेखन ,संगीत ,राजनीति ,लोकजीवन और सामाजिक राग विराग के बारे में रहा । वे और उनके मित्र संपादक राजेंद्र माथुर ,दोनों का लेखन ,समझ ,अध्ययन और संपर्क न केवल हिंदी बल्कि लोक भाषा मालवी से लेकर अंग्रेजी तक में व्यापक लेखन से दिखता है । आज के संपादक में कितने है जो ऐसे लोगों से संपर्क रखते हुए अपने लेखन और अध्ययन को पैना रख पाए । प्रभाष जी जीवन जीते थे । चाहे क्रिकेट हो या संगीत हर कही उनमे बड़े पारखी तरीके से विषय को प्रस्तुत करने की माहिती थी । मेरा उनका रिश्ता कुमार गन्धर्व के कारण बना था । जनसत्ता पहला अखबार था जो पहले दिन से ऐसा दिखा कि इस अखबार में सबका सबकुछ छपेगा । यह दृष्टि अब दुर्लभ है । मै रविवारीय जनसत्ता में था तो वहाँ गंभीर रचनाओं को भी पढता । ऎसी कहानियां ,संगीत ,सिनेमा और यात्रा वृतांत जैसी सारगर्भित सामग्री छपी जिसपर आरोप लगाया गया कि यह बहुत गंभीर है । वहाँ काम करते हुए यह सब इतना सहज हो गया था कि हम ज्यादा बेहतर तरीके से सामग्री का चयन करते और प्रकाशित करते क्योकि कोई दबाव नही था । जब भी संगीतकर्मी ,रंगकर्मी ,लेखक साहित्यकार यहाँ तक कि विज्ञान और राजनीति से जुड़े लोग भी जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव पर मसलन साठ साल या पिचहत्तर साल के होते तो उनपर जनसत्ता अलग पहल लेता । ऐसे लोगो के निधन पर पहले पेज पर खबर होती । उस ज़माने वेब आधारित लेखन सुलभ नही था । हम सब इस तरह की सूचना पाते ही रातदिन एककर सारी सामग्री तैयार करते । हमने रघुवीर सहाय,नामवर सिंह ,त्रिलोचन ,नागार्जुन से लेकर विष्णु चिंचालकर आदि पर एक एक पेज की सामग्री छापी । भारत भवन पर भी छापा गया ।यह सामग्री आज भी याद की जाती है । आज समाज और भी संकट के दौर में है ऐसे में पत्रकार ,संपादक और लेखक प्रभाष जोशी की कमी खलती है ।मै प्रायः सोचता हूँ कि आज अपने ही देश में आदिवासियों के इलाके में जो हिंसा हो रही है उसपर प्रभाष जी का क्या रवैया होता ।आज जबकि ज्यादातर अखबार पिछले कई सालों से वहाँ आपरेशन ग्रीन हंट के चलते वहाँ की ख़बरें नही देते है ऐसे में प्रभाष जोशी कि क्या प्रतिक्रिया होती ।निश्चित ही वे लोकोन्मुखी रहते हुए आदिवासियों के पक्ष में सक्रिय होते और पूरे देश की चिंता करते हुए जनमानस को खंगालने का काम करते ।बस इतना ही । मंगलेश डबराल रविवारीय जनसत्ता के संपादक रह चुके है और प्रभाष जोशी की टीम के स्तंभ भी ।

एक और प्रभाष जोशी की जरुरत है

कुमार आनंद
प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता जगत के वह अनमोल स्तंभ हैं जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता । इस समय का कोई भी संपादक उनके आसन के आस पास भी नहीं पहुंच पाया है । प्रभाष जोशी ने अपने समय में हिंदी पत्रकारिता जगत के बौद्धिक समाज का नेतृत्व किया है । वह ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे जिनके बोलने और लिखने की शैली में कोई अंतर नहीं था । उनकी तरह के व्यक्तित्व का व्यक्ति मिलना आजकल के समाज में असंभव है । संपादक के रूप में उन्होंने अपने साथ काम करने वाले साथी सहयोगियों को हमेशा लिखने की आजादी दी । वहीँ आजकल के संपादक जहां अंकुश में ज्यादा विश्वास रखतें हैं । प्रभाष जोशी हमेशा सामाजिक सरकारों और जनपक्षधरता से जुड़े मुद्दों के पत्रकारिता पर विश्वास रखते थे । वैचारिक मुद्दों की पत्रकारिता में वह हमेशा अपने साथी सहयोगिओं से विचार विमर्श किया करते थे । अपने साथी सहयोगिओं के दुःख सुख हमेशा शामिल रहते थे । यही कारण था जो भी उनसे जुड़ा था उसका उनके साथ दिल से जुड़ाव था । जोकि आजकल के संपादकों में नजर नहीं आता । प्रभाष जोशी के समय हिंदी पत्रकारिता जगत के पत्रकारों को अंग्रेजी अख़बार के पत्रकारों के समतुल्य माने जाते थे । जनसत्ता अख़बार निकलने से पहले और बाद के अख़बारों का अध्ययन करें तो आपको साफ़ पता चल जाएगा प्रभाष जोशी के संपादक काल में हिंदी पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्ति की सीमा को लांघ कर एक प्रभावशाली वृद्धि हुई थी । आज हिंदी पत्रकारिता को एक और प्रभाष जोशी की जरुरत है । हिंदी पत्रकारिता को जो भाषा और तेवर प्रभाष जी ने दिया उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता । आज प्रभाष जोशी की पत्रकारिता की ज्यादा जरुरत महसूस की जाती है क्योकि संकट भी पहले से कही ज्यादा है । उदारीकरण के जिन खतरों को प्रभाष जोशी ने तब पहचाना और जमकर लिखा वह पत्रकारिता के छात्रों के लिए अध्ययन का विषय हो सकता है । उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को अंग्रेजी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था यह माद्दा आज कितने पत्रकारों में है । (जनसत्ता का मशहूर जुमला 'सबकी खबर ले ,सबकी खबर दे ' गढ़ने वाले कुमार आनंद प्रभाष जोशी की टीम के सबसे तेज तर्रार पत्रकार रहे है और इंडियन एक्सप्रेस के यूनियन के चुनाव में अम्बरीश कुमार की जीत के साथ ही जब विरोधी पक्ष ने प्रभाष जोशी के खिलाफ नारा लगाया तो हिंसा हुई और प्रबंधन व संपादक के विवाद के चलते कुमार आनंद ने सबके मना करने के बावजूद खुद्दारी में एक्सप्रेस से इस्तीफा दे दिया था । वे फिलहाल भाषा के संपादक है )

प्रभाष जोशी की प्रासंगिकता

विभांशु दिव्याल मालवा से निकल देश की राजधानी दिल्ली आकर समूची हिंदी पत्रकारिता के पितृ- पुरुष बन जाने वाले प्रभाष जोशी की प्रासंगिकता का प्रश्न उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के प्रशस्तिवाचन और नई पत्रकार पीढ़ी को उनका अनुसरण करने का उपदेशामृत पिलाने जैसी विरुदावलि के साथ तो सरलता से निपट सकता है, लेकिन जब इस प्रश्न को निरंतर क्षरणकारी पत्रकारीय मूल्य और अर्वाचीन भारत की जटिल राजनीतिक- सामाजिक अंत:प्रक्रियों के समक्ष खड़ा किया जाए तो अनेकानेक प्रति-प्रश्न मुंह बाने लगते हैं। पहली बात यह कि प्रभाष जी न तो अजातशत्रु थे और न निर्विवाद। उनके समकालीन बहुत से कथित बड़े पत्रकार ऐसे थे, जो उन्हें पसंद नहीं करते थे। उनके लेखों को भरपूर पसंद करने वाले, चाहने वाले और सहमत होने वाले पत्रकारों- पाठकों की संख्या किसी भी अन्य की तुलना में बहुत बड़ी थी, जो उनकी लेखकीय सत्ता को हर समय मजबूत बनाए रखती थी मगर ऐसे राजनीतिक पाठकों की संख्या भी खासी बड़ी थी जो उनसे बाकायदा चिढ़ते थे, उनके आलोचक थे और निंदक भी। यह दीगर बात है कि उनके विरुद्ध ऐसे लोगों को प्रतिवार करने के लिए तार्किक और संगत भाषाई या वैचारिक औजार नहीं मिलते थे लेकिन उनका भावुक विरोध अपनी जगह कायम रहता था। वस्तुत: जो सर्वप्रिय हो, किसी की चेतना को कोंचता न हो, जिसे कोई भी अपना शत्रु न मानता हो, जिससे कोई भी असहमति नहीं रखता हो, वह कुछ भी हो सकता है पर बड़ा पत्रकार नहीं। इस दृष्टि से प्रभाष जी सचमुच बड़े पत्रकार थे, बहुत बड़े पत्रकार थे और सीधे कहें तो प्रभाष जोशी थे। दूसरी बात यह कि कुछ भी और होने से पूर्व प्रभाष जी अपने सभी रागद्वे षों सहित एक इंसान थे, इंसान यानी जो अपनी तमाम अर्जित विशिष्टताओं के बावजूद इंसान होता है- खूबियों और खामियों का पुंज। इसलिए प्रशस्ति और निंदा से परे उनके ‘प्रतिपक्षी’ रूप में गोता लगाया जाए तो जरूर कुछ संग्रहणीय मोती हाथ लगते हैं। वह संस्कारी हिंदू थे मगर पत्रकारीय धारा के प्रतिपक्ष थे। वह राजनीतिक विश्लेषक-चिंतक थे परंतु मौजूदा लोकतंत्र में विकसित संसदीय पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रतिपक्ष थे। पत्रकार या लेखक के तौर पर एक व्यक्ति सबल प्रतिपक्ष तभी बनता है, जब उसके पास अपने समय को परखने के अपने निज के सैद्धांतिक मापदंड हों और उसके अंदर इतना साहस हो कि ऐसी परख करते हुए और उसको अभिव्यक्ति देते हुए अपनी कलम को सधा हुआ रख सके। प्रभाष जी के पास दोनों ही थे-मापदंड भी और साहस भी। साहस यानी बहुत कुछ खो देने की आशंकाओं के बीच अपने वैचारिक आग्रहों के साथ खड़े रहने की क्षमता और अपनी प्रखरता के बल पर सत्ता से बहुत कुछ पा लेने की असीम संभावनाओं के बीच स्वयं को लोभग्रस्त न होने देने की दृढ़ता। प्रभाष जी में यह साहस था, इसीलिए वह सबल और सचेत प्रतिपक्षी थे। अगर वह हिंदू थे तो उनकी आस्था उस गांधीवादी हिंदुत्व में थी जिसकी केंद्रीय शक्ति उदात्त, सर्वसमावेशी और सर्वकल्याणकारी है अपनी इसी उदात्त हिंदू मनीषा के बल पर वह उस हिंदुत्व के प्रतिपक्ष बने रहे जो व्यवहार में राजनीति से लेकर समाज-संस्कृति के हर स्तर पर या तो मानवीय विद्वेष को प्रश्रय दे रहा था या फिर अंधआस्थावादी जड़ता को। प्रभाष जी ने इस भ्रष्ट हिंदुत्व को लगातार अपनी कलम के निशाने पर रखा। प्रभाष जी अगर पत्रकार थे तो उनकी आस्था उन पत्रकारीय मूल्यों में अडिग रही, जिन्हें स्वस्थ और सरोकारी पत्रकारिता की नींव माना जाता है। तमाम तरह के विचलनों और दबावों के बावजूद वह अपने बूते आजीवन प्रयास करते रहे कि पत्रकारिता धंधा और दलाली का पर्याय न होने पाए। अपने अंतिम दिनों में वह पत्रकारिता में नव प्रविष्ट प्रवृत्ति, खबर की बिकवाली को लेकर बेहद क्षुब्ध थे और इसके विरुद्ध एक खासा अभियान चला रहे थे। इसी तरह, अगर वह राजनीतिक थे तो लोकतांत्रिक राजनीतिक के सैद्धांतिक विचलन, लोकतांत्रिक संस्थाओं की विफलता, राजनीतिक दलों की दिशाहीनता, राजनेताओं की भ्रष्ट अवसरवादिता, अंतिम व्यक्ति की बढ़-चढ़कर बात करते हुए भी समूचे लोकतंत्र को अंतिम व्यक्ति से छीनकर काली पूंजी की गोद में बिठाल देने की बेलगाम राजनीतिक कोशिशों जैसी प्रवृत्तियों के विपक्ष में पूरी शक्ति के साथ खड़े रहने की राजनीति की उन्होंने यानी प्रभाष जोशी एक आपाद प्रतिपक्ष। एक सरोकारी जनपक्षीय प्रतिपक्ष। सजग-सचेत लोगों के मन में सम्मान जगाने वाला प्रतिपक्ष। किस खांचे में समायोजित करें उनके अवदान को? एक लेखक-विचारक-पत्रकार के तौर पर प्रभाष जोशी की यह भूमिका, उनका अवदान निस्संदेह अप्रतिम और अविस्मरणीय है। लेकिन इससे आगे? प्रभाष जोशी के पत्रकारीय अवदान और उनकी अविस्मरणीयता का क्या करें? और क्या सचमुच इनका कुछ हो सकता है? क्या इन्हें वर्तमान के किसी खांचे में समायोजित किया जा सकता है? या सीधी बात यह कि क्या प्रभाष जोशी को आगे के किसी मूल्यचेता पत्रकारीय संघर्ष के लिए किसी अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है? यानी क्या आज ईमानदारी से पत्रकारों का आह्वान किया जा सकता है कि वे प्रभाष जोशी जैसा बनकर दिखाएं और उनका अनुसरण करें? इन सवालों के जवाब प्रभाष जोशी की प्रासंगिकता का भी निर्धारण कर सकते हैं और हिंदी पत्रकारिता के भविष्य का भी। प्रभाष जोशी प्रखर बौद्धिक प्रतिभा, गांधीवादी विचार की उत्प्रेरणा और राष्ट्रवादी नैतिकता के समांतर विकसित ऐतिहासिक परिस्थितियों की निर्मिति थे। इस निर्मिति के लिए ऐतिहासिक तौर पर स्थान उपलब्ध था। जिस पत्रकारिता का अभ्युदय आजादी के संघर्ष और उससे संबंद्ध राजनीतिक-सामाजिक मू्ल्यों के बीच हुआ था और जिसे राष्ट्रवादी धनपतियों का प्रश्रय प्राप्त था, वह प्रभाष जोशी के काल तक लगातार क्षीण होते जाने पर भी स्वीकार्य और स्वागतेय बनी हुई थी। उसने प्रभाष जोशी को अपना सरोकारी प्रतिपक्ष रचने का भरपूर अवसर दिया। प्रभाष जोशी ने अखबार में लिखा तो अखबार का पाठक उनका बना, टेलीविजन पर वक्तव्य दिया तो दर्शक उनका बना और जब कभी सभा में श्रोताओं को संबोधित किया तो श्रोता उनका बना। इस पाठक दर्शक-श्रोता ने उनकी अपनी एक जनसत्ता स्थापित कर दी थी और साथ ही उनका एक ब्रांड बाजार मूल्य भी तैयार कर दिया था, जिसके सहारे वह अपने प्रतिपक्ष का प्रभावी निर्वाह कर सके। लेकिन उनकी प्रतिपक्षी की भूमिका की परिणति क्या हुई? बस औपचारिक स्मरण प्रभाष जी निज की पत्रकारीय सत्ता के बूते या बावजूद न तो उस विपथगामी हिंदुत्व के प्रभाव में कोई बाधा खड़ी कर पाए जिसका उन्होंने भरपूर विरोध किया, न उस लंपट राजनीति की देह पर एक खरोंच बना पाए जिस पर वह आजीवन तीखे प्रहार करते रहे और न उस बिकाऊ पत्रकारिता की बिकवाली रोक सके, जिसके विरुद्ध अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अभियान ही चला रखा था। कथित उदार अर्थतांत्रिक लोकतंत्र ने ऐतिहासिक तौर पर पत्रकारिता की मुख्यधारा में प्रभाष जी जैसे पत्रकारों की भूमिका निषिद्ध कर दी है। मुख्यधारा की पुंश्चली पूंजी नियंत्रित पत्रकारिता और उसके अलमबरदार पत्रकार इस पूंजी और राजनीतिकारों के बीच सुदृढ़ सेतु का काम तो कर सकते हैं लेकिन प्रभाष जोशी की तरह चिंतातुर प्रतिपक्ष नहीं रच सकते। अगर कोई सिराफिरा ऐसी हिमाकत करने का दुस्साहस करता भी है तो उसे कान पकड़कर बाहर कर दिया जाएगा। वह एकाकी पल्राप तो करते रह सकता है लेकिन प्रभाष जी की तरह अपनी पाठकीय सत्ता स्थापित नहीं कर सकता यानी कोई प्रभावी प्रतिरोध पैदा नहीं कर सकता। समय की बेहूदगी से मुठभेड़ करने के लिए प्रभाष जोशी जैसे पत्रकारों को होना चाहिए, यह उनकी छायावादी प्रासंगिकता है। समय की बेहूदगी इतनी व्यापक और सर्वग्रासी है कि कोई अगला प्रभाष जोशी पैदा नहीं हो सकता, यह उनकी यथार्थवादी अप्रासंगिकता है। वर्तमान में हम उनका केवल औपचारिक स्मरण भर करते रह सकते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। पत्रकार या लेखक के तौर पर एक व्यक्ति सबल प्रतिपक्ष तभी बनता है, जब उसके पास अपने समय को परखने के अपने निज के सैद्धांतिक मापदंड हों और उसके अंदर इतना साहस हो कि ऐसी परख करते हुए और उसको अभिव्यक्ति देते हुए अपनी कलम को सधा हुआ रख सके। प्रभाष जी के पास दोनों ही थे- मापदंड भी और साहस भी। साहस यानी बहुत कुछ खो देने की आशंकाओं के बीच अपने वैचारिक आग्रहों के साथ खड़े रहने की क्षमता और अपनी प्रखरता के बल पर सत्ता से बहुत कुछ पा लेने की असीम संभावनाओं के बीच स्वयं को लोभग्रस्त न होने देने की दृढ़ताsahara

प्रभाष जोशी ने अखबारों को नई भाषा दी

शंभूनाथ शुक्ल
हिंदी पत्रकारिता में जनसत्ता के योगदान को जब भी याद किया जाएगा प्रभाष जोशी जरूर याद आएंगे। प्रभाष जोशी के बिना जनसत्ता का कोई मतलब नहीं होता हालांकि प्रभाष जोशी का मतलब जनसत्ता नहीं है। उन्होंने तमाम ऐसे काम किए जिनसे जनसत्ता के तमाम वरिष्ठ लोगों का जुड़ाव वैसा तीव्र नहीं रहा जैसा कि प्रभाष जी का स्वयं। मसलन प्रभाष जी का १९९२ के बाद का रोल। यह रोल प्रभाष जी की अपनी विशेषता थी। जनसत्ता में तो तब तक वे लोग कहीं ज्यादा प्रभावशाली हो गए थे जो छह दिसंबर १९९२ की बाबरी विध्वंस की घटना को राष्ट्रीय गर्व के रूप में याद करते हैं। लेकिन प्रभाष जी ने इस एक घटना के बाद एक सनातनी हिंदू का जो धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिखाया वह शायद प्रभाष जी के अलावा और किसी में संभव नहीं था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक दल भाजपा के इस धतकरम का पूरा चिट्ठा खोलकर प्रभाष जी ने बताया कि धर्म के मायने क्या होते हैं। आज प्रभाष जी की परंपरा को जब हम याद करते हैं तो उनके इस योगदान पर विचार करना बहुत जरूरी हो जाता है। प्रभाष जी ने जनसत्ता की शुरुआत करते ही हिंदी पत्रकारिता से आर्यासमाजी मार्का हिंदी को अखबारों से बाहर करवाया। उन्होंने हिंदी अखबारनवीसों के लिए नए शब्द गढ़े जो विशुद्घ तौर पर बोलियों से लिए गए थे। वे कहा करते थे जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखेंगे। और यही उन्होंने कर दिखाया। जनसत्ता शुरू करने के पूर्व एक-एक शब्द पर उन्होंने गहन विचार किया। कठिन और खोखले शब्दों के लिए उन्होंने बोलियों के शब्द निकलवाए। हिंदी के एडजक्टिव, क्रियापद और सर्वनाम तथा संज्ञाओं के लिए उन्होंने नए शब्द गढ़े। संज्ञा के लिए उनका तर्क था देश के जिस किसी इलाके की संज्ञा जिस तरह पुकारी जाती है हम उसे उसी तरह लिखेंगे। अमरेंद्र नामकी संज्ञा का उच्चारण अगर पंजाब में अमरेंदर होगा तो उसे उसी तरह लिखा जाएगा। आज जब उड़ीसा को ओडीसा कहे जाने के लिए ओडिया लोगों का दबाव बढ़ा है तब प्रभाष जी उसे ढाई दशक पहले ही ओडीसा लिख रहे थे। उसी तरह अहमदाबाद को अमदाबाद और काठमांडू को काठमाड़ौ जनसत्ता में शुरू से ही लिखा जा रहा है। प्रभाष जी के बारे में मैं जो कुछ लिख रहा हूं इसलिए नहीं कि मैने उनके बारे में ऐसा सुना है बल्कि इसलिए कि मैने एकदम शुरुआत से उनके साथ काम किया और उनको अपना पहला पथ प्रदर्शक व गुरू माना तथा समझा। प्रभाष जी को मैने पहली दफा तब ही देखा था जब मैं जनसत्ता की लिखित परीक्षा देने दिल्ली आया था। लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा जुड़ाव हुआ कि मेरे लिखने-पढऩे में हर वक्त प्रभाष जी ही हावी रहते हैं। २८ मई १९८३ को मैने प्रभाष जी को पहली बार देखा था और ४ जून २००९ को, जब मैं लखनऊ में अमर उजाला का संपादक था, वे लखनऊ आए थे और वहीं एअरपोर्ट पर विदाई के वक्त उनके अंतिम दर्शन किए थे। जनसत्ता में हमारी एंट्री अगस्त १९८३ में हो गई थी लेकिन अखबार निकला नवंबर में। बीच के चार महीनों में हमारी कड़ी ट्रेनिंग चली। प्रभाष जी रोज हम लोगों को हिंदी का पाठ पढ़ाते कि जनसत्ता में कैसी भाषा इस्तेमाल की जाएगी। यह बड़ी ही कष्टसाध्य प्रक्रिया थी। राजीव शुक्ला और मैं जनसत्ता की उस टीम में सबसे बड़े अखबार से आए थे। दैनिक जागरण भले ही तब क्षेत्रीय अखबार कहा जाता हो लेकिन प्रसार की दृष्टि से यह दिल्ली के अखबारों से कहीं ज्यादा बड़ा था। इसलिए हम लोगों को यह बहुत अखरता था कि हम इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार और मध्य प्रदेश के प्रभाष जोशी से खांटी भाषा सीखें। हमें अपने कनपुरिया होने और इसी नाते हिंदी भाषा व पत्रकारिता की प्रखरता पर नाज था। प्रभाष जोशी तो खुद ही कुछ अजीब भाषा बोलते थे। मसलन वो हमारे और मेरे को अपन तथा चौधरी को चोदरी कहते। साथ ही हमारे बार-बार टोकने पर भी अपनी बोली को ठीक न करते। एक-दो हफ्ते तो अटपटा लगा लेकिन धीरे-धीरे हम उनकी शैली में पगने लगे। प्रभाषजी ने बताया कि हम वही लिखेंगे जो हम बोलते हैं। जिस भाषा को हम बोल नहीं पाते उसे लिखने का क्या फायदा? निजी तौर पर मैं भी अपने लेखों में सहज भाषा का ही इस्तेमाल करता था। इसलिए प्रभाष जी की सीख गांठ से बांध ली कि लिखना है उसी को जिसको हम बोलते हैं। भाषा के बाद अनुवाद और अखबार की धारदार रिपोर्टिंग शैली आदि सब चीजें प्रभाष जी ने हमें सिखाईं। अगस्त बीतते-बीतते हम जनसत्ता की डमी निकालने लगे थे। सितंबर और अक्तूबर भी निकल गए लेकिन जनसत्ता बाजार में अभी तक नहीं आया था। उसका विज्ञापन भी संपादकीय विभाग के हमारे एक साथी कुमार आनंद ने ही तैयार किया था- जनसत्ता, सबको खबर दे सबकी खबर ले। १९८३ नवंबर की १७ तारीख को जनसत्ता बाजार में आया। प्रभाष जी का लेख- सावधान आगे पुलिया संकीर्ण है, जनसत्ता की भाषानीति का खुलासा था। हिंदी की भाषाई पत्रकारिता को यह एक ऐसी चुनौती थी जिसने पूरी हिंदी पट्टी के अखबारों को जनसत्ता का अनुकरण करने के लिए विवश कर दिया। उन दिनों उत्तर प्रदेश में राजभाषा के तौर पर ऐसी बनावटी भाषा का इस्तेमाल होता था जो कहां बोली जाती थी शायद किसी को पता नहीं था। यूपी के राजमार्गों में आगे सकरा रास्ता होने की चेतावनी कुछ यूं लिखी होती थी- सावधान! आगे पुलिया संकीर्ण है। अब रास्ता संकीर्ण कैसे हो सकता है, वह तो सकरा ही होगा। हिंदी की एक समस्या यह भी है कि चूंकि यह किसी भी क्षेत्र की मां-बोली नहीं है इसलिए एक बनावटी व गढ़ी हुई भाषा है। साथ ही यह अधूरी व भावों को दर्शाने में अक्षम है। प्रकृति में कोई भी भाषा इतनी अधूरी शायद ही हो जितनी कि यह बनावटी आर्या समाजी हिंदी थी। इसकी वजह देश में पहले से फल फूल रही हिंदी, हिंदवी, रेख्ता या उर्दू भाषा को देश के आम लोगों से काटने के लिए अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम में बैठकर एक बनावटी और किताबी भाषा तैयार कराई जिसका नाम आधुनिक हिंदी था। इसे तैयार करने का मकसद देश में देश के दो बड़े धार्मिक समुदायों की एकता को तोडऩा था। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिंदी को हिंदुओं की भाषा हिंदी को हिंदुओं के लिए गढ़ तो लिया गया लेकिन इसका इस्तेमाल करने को कोई तैयार नहीं था यहां तक कि वह ब्राह्मïण समुदाय भी नहीं जिसके बारे में मानकर चला गया कि वो हिंदी को हिंदू धर्म की भाषा मान लेगा। लेकिन बनारस के ब्राह्मïणों ने शुरू में इस बनावटी भाषा को नहीं माना था। भारतेंदु बाबू को बनारस के पंडितोंं की हिंदी पर मुहर लगवाने के लिए हिंदी में उर्दू और बोलियों का छौंक लगवाना पड़ा था। हिंदी का अपना कोई धातुरूप नहीं हैं, लिंगभेद नहीं है, व्याकरण नहीं है। यहां तक कि इसका अपना सौंदर्य बोध नहीं है। यह नागरी लिपि में लिखी गई एक ऐसी भाषा है जिसमें उर्दू की शैली, संस्कृत की धातुएं और भारतीय मध्य वर्ग जैसी संस्कारहीनता है। ऐसी भाषा में अखबार भी इसी की तरह बनावटी और मानकहीन खोखले निकल रहे थे। प्रभाष जी ने इस बनावटी भाषा के नए मानक तय किए और इसे खांटी देसी भाषा बनाया। प्रभाष जी ने हिंदी में बोलियों के संस्कार दिए। इस तरह प्रभाष जी ने उस वक्त तक उत्तर भारतीय बाजार में हावी आर्या समाजी मार्का अखबारों के समक्ष एक चुनौती पेश कर दी। इसके बाद हिंदी जगत में प्रभाष जी की भाषा में अखबार निकले और जिसका नतीजा यह है कि आज देश में एक से छह नंबर तो जो हिंदी अखबार छाए हैं उनकी भाषा देखिए जो अस्सी के दशक की भाषा से एकदम अलग है। प्रभाष जी का यह एक बड़ा योगदान है जिसे नकारना हिंदी समाज के लिए मुश्किल है। शंभूनाथ शुक्ल प्रभाष जोशी की टीम के सदस्य रहे है