Sunday, October 27, 2019

महाबलीपुरम के समुद्र तट पर कमल सक्सेना का वह काला चश्मा !

अंबरीश कुमार बात काफी पुरानी है .साल याद नहीं .हम लोग बंगलूर ,मैसूर ,ऊटी ,महाबलीपुरम जैसी जगह घूमने गए थे .मै ,अपूर्व ,कमल सक्सेना ,रवि जुनेजा और बाबू सिंघा थे .गजब का अनुभव हुआ उस दौरे में .फस्ट क्लास का डब्बा जो लखनऊ से चला वह झांसी में उस ट्रेन से काट कर अलग कर दिया गया .फिर कुछ घंटे बाद उसे किसी दूसरी ट्रेन में जोड़ दिया गया .हम विजयवाड़ा पहुंचे तो तो फिर .फस्ट क्लास का यह डिब्बा काट दिया गया और बताया गया दस घंटे बाद यह किसी दूसरी ट्रेन में जोड़ा जायेगा तबतक यह डिब्बा यार्ड में खड़ा होगा .हम लोग अपने केबिन में ताला बंद कर विजयवाड़ा शहर घूमने निकले .खाना खाया और काफी कुछ देखा .फिर डिब्बे में लौटे .यह डिब्बा अपना होटल बन गया था जो बंगलूर तक चला .बंगलूर स्टेशन पर आधी रात के बाद पहुंचा .वोटिंग रूम में चले गए .चादर वगैरह तो थी पर ठंढ बढ़ेगी यह अंदाजा नहीं था .अप्पू जिधर सोया था उसके बगल में कोई सज्जन होल्डाल बिछा कर सो रहे थे .ठंढ बढी तो अप्पू ने उसका कंबल खीच लिया .सुबह के समय उसने अप्पू को उठाया और कहा ,भईया मेरी ट्रेन आ गई है अब कंबल दे दें .तब उसे कंबल देना ही पड़ा .फिर बंगलूर शाहे मैसूर आदि घूमते हुए ऊटी पहुंचे .महंगा हिल स्टेशन था .ज्यादा पैसे थे नहीं .तय हुआ लंच कांटिनेंटल होगा और खुद बनाया जायेगा .ऊटी की सब्जी मंडी गए .प्याज ,पत्ता गोभी ,टमाटर ,मिर्च आदि खरीदी गई और बंद भी .फिर झील के किनारे सैंडविच बनाकर खाया गया .काफी सामने के रेस्तरां में पी गई .फिर कई शहर घूमते हुए महाबलीपुरम पहुंचें .इस बीच बाबू सिंघा ,रवि जुनेजा और अप्पू किसी बात पर कमल से खुन्नस खा गए .दरअसल वह काम नहीं करता था और पेंट शर्ट के साथ बूट पहनकर हमेशा स्मार्ट बनकर घूमता था .एक कोई महंगा चश्मा भी पहनता था .एक बार वह चश्मा महाबलीपुरम के सी बीच पर छूट गया .कमल को पता नहीं चला .खुन्नस खाए मित्रों को मौका मिला .तय हुआ इसे छुपा दिया जाए .पर फिर सोचा गया अगर बाद में यह मिल गया तो कमल घर जाकर सबकी शिकायत करेगा .बड़ी समस्या सामने थी .अंततः रवि ने कहा सबूत को मिटाना पड़ेगा इसे इधर ही समुद्र तट की रेत में गाड़ दिया जाए .बाबू सिंघा ,अप्पू आदि ने गड्ढा खोदा .पहली फोटो में इसी मंदिर से पहले के कुंड के कोने में ,इसी जगह पर उस महंगे गागल्स का अंतिम संस्कार किया गया .सब लोग चाहे तो आज भी वह चश्मा वहां मिल सकता है क्योंकि प्लास्टिक /शीशा ख़राब तो होता नहीं .इस तरह कमल के उस चश्मे का राज आज मै खोल दे रहा हूं वे चाहे तो सबसे उसका हर्जाना ले सकते हैं .दौरे की कुछ फोटो भी देखें

Saturday, September 28, 2019

डाक बंगला

डाक-बंगलों के साथ उनका अपना इतिहास भी जुड़ा होता है।उसके साथ उसके किस्से-कहानियों के सिलसिले भी होते हैं।उनको अनुभूति के तल पर पकड़ पाने के लिए अपने भीतर एक साथ साहित्य- बोध और सन्धान दृष्टि, दोनों का होना जरूरी होता है।यह मणि-कांचन योग होता है।डाक-बंगलों का अपना सौंदर्य होता है।उस स्थान का भी अपना सौंदर्य होता है, जहां-कहीं का होने पर भी वह डाक-बंगला विशिष्ट हो जाता है.जाने माने यायावर सतीश जायसवाल ने जल्द आने वाली अपनी पुस्तक ' डाक बंगला 'जो भूमिका लिखी है यह दो लाइन उसी की है .' डाक बंगला 'का एक अंश धुंध से जंगल में रास्ता भी ठीक से नहीं दिख रहा था . घने जंगलों के बीच करीब पंन्द्रह किलोमीटर चलने के बाद हम जंगलात विभाग के निशानागाढा गेस्टहाउस पहुंचे. यहां बिजली नहीं है और पानी भी हैंडपंप का। दो मंजिला गेस्टहाउस के बगल में रसोई घर है जिसका रसोइया शाम होते ही सहमा-सहमा नजर आता है। घर बगल में ही है जहां एक-दो कर्मचारी और रहते हैं। पर उसके डर की वजह है बाघ के शैतान बच्चे। पता नहीं उसका भ्रम है या हकीकत। पर बाघ के इन बच्चों के आधी रात को दरवाजा थपथपाने से भयभीत रहता है। कतरनिया घाट वन्य जीव अभ्यारण के रेंजर ने बताया कि बाघ शाम से ही इस क्षेत्र में विचरण करने लगते हैं। अंग्रेजों के बनाए निशानगाढ़ा गेस्टहाउस का नज़ारा उस जमाने के नबाबों राजओं के शिकारगाह से मिलता-जुलता है। जिसके चारों ओर घने जंगल हैं और जानवरों और पक्षियों की अजीबो-गरीब आवाज सन्नाटें को तोड़ती रहती है। नीचे का बरामदा लोहे की ग्रिल से पूरी तरह बंद नजर आता है। पूछने पर पता चला कि यह बड़े जानवरों से हिफ़ाजत का इंतजम है। शाम के बाद गेस्टहाउस के आसपास निकलना भी जोखिम भरा माना जता है।

Friday, June 14, 2019

भटनी -बरहज लूप लाइन

अंबरीश कुमार यह 55103 अप पैसेंजर है .यह ट्रेन भटनी से बरहज बाजार तक जाती है .लूप लाइन है .पिकोल ,सलेमपुर ,देवरहा बाबा रोड ,सतरांव ,सिसई गुलाबराय होते हुए बरहज पहुंचाती है .सिसई गुलाबराय नाम अपने परिजनों के परिवार के नाम पड़ा .इस हाल्ट स्टेशन की जिम्मेदारी भी कुछ दिन उन लोगों ने उठाई . पापा रेलवे में इंजीनियर रहे तो रेल की यात्रा खूब हुई और तरह तरह की ट्रेन और डब्बों में भी .तब उन्हें जो फर्स्ट क्लास मिलता था वह पूरा डिब्बा ही होता था ,चार बर्थ का .बाथरूम में नहाने की भी व्यवस्था .डिब्बा इतना बड़ा होता था कि ट्रेन जब खड़ी हो तो स्टोप जलाकर चाय बन जाए .इसपर दूसरी पोस्ट में विस्तार से .फिलहाल लूप लाइन की इस ट्रेन पर .इसमें शशि थरूर के शब्दों में सिर्फ कैटल क्लास ही होता .इसलिए लोग बकरी /बकरा लेकर भी यात्रा कर लेते .खिड़की वाली सीट के लिए मारामारी होती .लकड़ी वाली सीट .और स्टेशन पर शरबत जैसी चाय और समोसा के अलावा चना मुरमरा से लेकर मौसमी फल भी मिल जाता .भटनी से साढ़े तीन बजे यह लूप लाइन की ट्रेन निकलती और शाम करीब पांच बजे बरहज बाजार पहुंचा देती .गांव से आई बैलगाड़ी से आगे का करीब तीन किलोमीटर का सफ़र होता .पर इस ट्रेन में हर तरह का मनोरंजन भी होता तो राजनैतिक चर्चा भी .कुछ लोग ताश भी खेलते तो बीड़ी का धुआं भी भर जाता .खिड़की खुली रहती और जब आम के बगीचे के बगल से गुजरती तो आम तोड़ने की बड़ी इच्छा भी होती .सिसई गुलाबराय हाल्ट स्टेशन के बगल में ही फूफा जी का भी आम का बगीचा दिखता .सभी देसी आम के पेड़ .बाढ़ के समय सरजू नदी का पानी भी पास आ जाता .लूप लाइन की ट्रेनों में कोई आपाधापी नहीं होती न ही किसी और दिशा से कोई ट्रेन आती .यह तो बैलगाड़ी की तरह एक लीक पर चलने वाली ट्रेन होती है और भटनी -बरहज की दूरी भी डेढ़ दो घंटे की .कभी लूप लाइन की ट्रेन की यात्रा भी करें ,जनरल डिब्बे में .गांव के लोग भी तब चलते थे अब तो सत्तर साल में खुद की गाड़ी ले ली है तो सीधे देवरिया निकल जाते हैं .ज्यादातर गरीब गुरबा ही इस ट्रेन पर चलता है . Bhatni Junction 15:30 -- 1 0.0 39 75m NER Junction Point - SV/GKP/MAU, Uttar Pradesh 2POKL Peokol 15:38 15:39 1 1m 1 5.2 61 80m NER Deoria, Uttar Pradesh 3SRU Salempur Junction 15:44 15:45 -- 1m 1 10.3 19 76m NER Salempur, Uttar Pradesh 4DRBR Deoraha Baba Road 16:10 16:11 -- 1m 1 18.3 42 71m NER Salempur, Uttar Pradesh 5STZ Satraon 16:19 16:20 -- 1m 1 24.0 29 72m NER Satraon, Uttar Pradesh 6SSGR Sisai Gulabrai 16:28 16:29 -- 1m 1 27.8 11 70m NER Barhaj, Uttar Pradesh 7BHJ Barhaj Bazar

Monday, June 10, 2019

विशाखापत्तनम किरंदुल पैसेंजर

अंबरीश कुमार जगदलपुर के सर्किट हाउस से निकले तो देर हो चुकी थी .दरअसल बीती रात से ही बरसात हो रही थी और रात का खाना पीना ही काफी देर से हुआ .दरअसल जनसंपर्क विभाग के एक आदिवादी अधिकारी कुरेटी का आग्रह था कि बस्तर आए और कड़कनाथ का स्वाद नहीं लिया तो यात्रा का क्या अर्थ . चित्रकोट जल प्रपात और आसपास घूमकर लौटे तो सर्किट हाउस के एक कोने में जिधर कटहल का पेड़ लगा था उधर ही बैठकर चाय पी और खानसामा से बात करते लगा .वह कडकनाथ का इंतजाम करने निकल रहा था .यह पुराना सर्किट हाउस है पर सामने छोटा सा बगीचा होने की वजह से काफी हराभरा दिखता है .वैसे भी चारो तरफ जंगल ही जंगल तो है .हमें जाना अरकू घाटी और फिर उसके बाद विशाखापत्तनम था .दफ्तर की गाड़ी थी पर अपना ड्राइवर चंद्रकांत को साथ लेकर आया था ताकि वह हमें किरंदुल पैसेंजर पर बिठाकर रायपुर लौट जाए .अपने को इस पैसेंजर से ही अरकू घाटी तक जाना था .पर स्टेशन पर जब टिकट लेने गए तो पता चला सिर्फ फर्स्ट क्लास में ही आरक्षण होता है और बाकी सारी ट्रेन जनरल डब्बे वाली है .खैर टिकट ले ही रहे थे तभी ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ दिया .चंद्रकांत ने कहा ,सर चिंता न करें हम इस ट्रेन को अगले स्टेशन तक पकड़ लेंगे . दरअसल पैसेंजर ट्रेन थी और हर स्टेशन पर एक मिनट ही रूकती पर रफ़्तार बहुत ज्यादा नहीं थी इसलिए दो स्टेशन छोड़कर हम छोटे से स्टेशन अमगुडा पर पहुंचे तो ट्रेन दूर से आती हुई दिखी .इससे पहले ट्रेन को पीछे छोड़ते हुए हम तेज रफ़्तार से सड़क पर आगे बढ़ रहे थे .बरसात बंद हो चुकी थी पर सड़क पर कोई ख़ास ट्रैफिक नहीं था..यह ओडिशा का ग्रामीण अंचल है जो काफी हराभरा है .इस ट्रेन से अमूमन गरीब आदिवासी ही सफ़र करते हैं .गांव से फल सब्जी आदि लेकर वे दूसरे कस्बे तक जाते हैं .ज्यादातर के हाथ में लाठी भी नजर आ रही थी .ट्रेन के फर्स्ट क्लास में एक केबिन अपना ही हो गया क्योंकि हम चार लोग थे और चार बर्थ थी .बहुत दिन बाद ऐसे डिब्बे में बैठना हुआ जिसमें खिड़की का सीसा उठा दिया तो बाहर से भीगी हुई ताज़ी हवा आ रही थी .बरसात की वजह से मौसम सुहावना हो चुका था .थर्मस में काफी थी और दोपहर का खाना सर्किट हाउस के खानसामा नें ठीक से बांध कर रख दिया था .पराठा ,सब्जी ,दही और अचार मिर्च भी .कुछ देर खिड़की पर बैठने के बाद आकाश ,अंबर ऊपर की बर्थ पर जाकर सो गए .सविता कोई उपन्यास पढने लगी तो मै अख़बार देखने लगा .करीब साढ़े ग्यारह पर जब जयपोर स्टेशन पहूंचे तो काफी पीने की इच्छा हुई .स्टेशन का नाम हिंदी में जयपुर लिखा था पर बोल रहे थे जयपोर .उड़िया में यही कहते होंगे .यह ट्रेन छतीसगढ़ के पहाड़ों से होते हुए पहले ओड़िसा से गुजरती है फिर आंध्र प्रदेश में समुद्र तट पर बसे अत्याधुनिक शहर विशाखापत्तनम तक जाती है .पर हमें बीच में ही अरकू घाटी में उतरना था .यह एक छोटा सा पहाड़ी सैरगाह है .कोरापुट के बाद एक छोटा सा स्टेशन आया सुकू .नीचे उतरे और छोटे से स्टेशन का जायजा लिया . रायपुर से बस्तर तक कोई रेलगाड़ी नही जाती पर बस्तर में जो रेलगाड़ी चलती है उसका सफ़र कभी भूल नही सकते .छत्तीसगढ़ से सटा एक खूबसूरत पहाड़ी सैरगाह अरकू घाटी तेलुगू फिल्म निदेशकों की पसंदीदा लोकेशन भी है .देश में सबसे ज्यादा ऊँचाई पर चलने वाली ब्राड गेज ट्रेन का सफ़र हमने बस्तर से शुरू किया .किरंदुल विशाखापत्तनम पसेंजर सुबह दस बजने में दस मिनट पहले जगदलपुर से छूटती है.रायपुर से धमतरी होते हुए जब हम जगदलपुर के आसपास घूम कर सर्किट हाउस पहुंचे तो शाम हो चुकी थी .रात सर्किट हाउस में बिता कर सुबह ट्रेन पकडनी थी .बस्तर के अपने संवाददाता वीरेंदर मिश्र साथ थे .यह इलाका तीन राज्यों आंध्र ,ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ से घिरा है और यहाँ की संस्कृति पर भी इसका असर दिखाई पड़ता है . साल ,आम, महुआ और इमली के पेड़ों से घीरें इस इलाके घने जंगलों की वजह से जमकर बरसात होती है और देखने वाली होती है ..खैर बस्तर पर बाद में पहले अरकू घाटी की तरफ बढ़ें .बाग- बगीचे , जंगल ,पहाड़ और समुंद्र के सम्मोहन से मै बच नही पाता हूँ .बचपन मुंबई में गुजरा .पापा भाभा एटामिक एनर्जी में इंजीनियर थे और इसका आवासीय परिसर चेम्बूर में जहाँ पर था उसके रास्ते में एक बड़ा गोल्फ मैदान ,आरके स्टूडियो और फिल्म अभिनेता राजकपूर का घर भी पड़ता था .उनके घर के आगे बड़े बड़े पेड़ थे जिससे भीतर का हिस्सा ज्यादा नहीं दिखता था .तब पैदल ही स्कूल जाता और कई बार गोल्फ मैदान में देर तक घूमता .मुंबई का वह इलाका काफी हरा भरा था और तब कैनेरी की गुफा देखने गए तो वहां का जंगल देख कर हैरान रह गए .आज भी वह जंगल याद आता है .पर छत्तीसगढ़ के जंगलों के आगे कही के जंगल नही टिकते है .याद है एक बार अजित जोगी ने कहा था - अफ्रीका के बाद उतने घने जंगल सिर्फ बस्तर में ही है . हेलीकाप्टर से बस्तर का दौरा करने पर जंगल का विस्तार ढंग से दिखता है .और इन्ही जंगलों के बीच से आंध्र प्रदेश की अरकू घाटी का रास्ता भी गुजरता है पर ज्यादा हिस्सा ओड़िसा और आंध्र का पड़ता है . जंगल ,पहाड़ और चौड़े पाट वाली नदियों के ऊपर से गुजरती रेल अचानक हरियाली में प्रवेश करती है .दूर दूर तक फैले धान के हरे भरे खेत और उनके बीच चटख रंगों की साड़ी में आदिवासी महिलाए काम करती नज़र आती है .इससे पहले जब हमारा ड्राइवर चंद्रकांत गाड़ी लेकर जगदलपुर स्टेशन पंहुचा तो गाड़ी रेंगने लगी थी और दो बच्चों के साथ ट्रेन पकड़ना संभव नहीं था .तभी चंद्रकांत ने कहा -अगला स्टेशन अमगुडा कुछ किलोमीटर दूर है वहां से गाड़ी पकड़ लेंगे .अगले स्टेशन पर हम पहुंचे ही ट्रेन आती दिख गई .इस ट्रेन में एक डिब्बा प्रथम श्रेणी का लगता है .जगदलपुर से अरकू घाटी का प्रथम श्रेणी का रेल का किराया तब २६७ रुपए था . बच्चों का किराया आधा हो जाता है . चार लोग थे इसलिए पूरा कूपा मिल गया था .अभी बैठे कुछ देर ही हुए कि छोटा सा स्टेशन आ गया .स्टेशन भी बहुत छोटा सा .हमारा डिब्बा पीछे था जहां तक चाय वाले भी नहीं पहुँच पाते कि ट्रेन छूट जाती.गनीमत थी कि सर्किट हाउस से फ्लास्क में काफी और नाश्ता/खाना लेकर चले थे .अम्बागांव , जयपोर ,चट्रिपुट जैसे स्टेशन गुजरने के बाद एक बड़ी नदी आई और फिर पहाडी जंगल में ट्रेन भटक गई .हम खिड़की से बहार का बदलता भूगोल ही देखते जा रहे थे .छोटे स्टेशनों पर दक्षिण भारतीय व्यंजन मिल रहे थे पसिंजर ट्रेन होने के बाद भी हर स्टेशन पर यह समय से छूट रही थी .दो इंजन के सहारे यह ट्रेन करीब साढ़े तीन बजे अरकू पहुंची तो पहले इस छोटे से पहाड़ी हिल स्टेशन पर काफी पीने की इच्छा हुई .फोटो साभार इंडिया हेराल्ड जारी

Tuesday, June 4, 2019

एक वीरान समुंद्र तट पर

अंबरीश कुमार आगे सड़क खत्म हो गई थी .अपनी बस यहीं रुक गई .बालू वाला एक रास्ता दो बड़ी नावों के बीच से समुंद्र तट को जा रहा था .दूसरा पथरीला रास्ता कच्ची सड़क के रूप में करीब एक फर्लांग दूर एक किले में बने लाइट हाउस की तरफ जा रहा था .हम लाइट हाउस की तरफ जाने की बजाय बड़ी नाव के पास ही रुक गए . सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला के नीचे बहते अरब सागर के एक कोने में हम खड़े थे .यह कोंकण के रत्नागिरी जिले के दापोली तालुका का ग्राम पंचायत हरणे है .नाव के सामने मराठी में ग्राम पंचायत हरणे का एक बोर्ड लगा हुआ था . यह मछुवारों का गांव है .जहां इस अंचल का बहुत पुराना बंदरगाह है .लाइट हाउस से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितना पुराना है .मानसून की वजह से मछुवारे अभी समुंद्र में नहीं जा रहे थे .छोटी नाव से कुछ मछुवारे जरुर निकलते दिखे .जो दो पहियों वाले स्केटनुमा किसी जुगाड़ पर अपनी नाव चढ़ा कर समुंद्र में ढकेल कर ले जा रहे थे .यह दृश्य अपने लिए नया नहीं था .कालीकट और दमन के समुंद्र तट पर देख चुका था .इस बीच अचानक आई बरसात से बचने के लिए बस में चढ़ गया और ड्राइवर से बात करने लगा .वह हमे जिस गांव के बीच से लाया था उसके संकरे रास्ते में भी छोटी से मछली बाजार पड़ी .बांगडा से लेकर मझोले आकार का झींगा बिक रहा था .मछलियों की गंध चारो तरफ फैली हुई थी .हम कल देर रात दापोली पहुंचे थे .पर दापोली बंद की वजह से आसपास के पूर्व निर्धारित कार्यक्रम को बदलना पड़ा और मछुवारों के इस गांव में बने बंदरगाह के साथ शिवाजी का किला देखने इस तरफ आ गए .यह अपने रिसार्ट से करीब दस किलोमीटर दूर था . हमने समुंद्र की कई यात्रा की और समुंद्र के तट पर कई बार ठहरना हुआ .लक्ष्यद्वीप ,कोवलम ,दमन ,दीव ,कन्याकुमारी ,महाबलीपुरम ,विशाखापत्तनम से लेकर गोवा के बहुत से तट पर .पर लक्ष्यद्वीप के अगाती और बंगरम समुंद्र तट के बाद यह पहला समुंद्र तट मिला जो वीरान था .हम लोग रात में करीब ग्यारह बजे दापोली के इस तट पर पहुंचे थे .जिस सागर हिल रिसार्ट में जाना था वह सड़क के दाईं तरफ था और सड़क के दूसरी तरफ अरब सागर .कमरे की बालकनी की तरफ जो दीवार थी वह शीशे की थी ,दरवाजा छोड़कर .कमरे में जाते ही सामने अरब सागर की लहरे दौडती हुई आती दिख रही थी . बरसात हो चुकी थी और हवा में ठंढ भी थी . तटीय इलाकों में उमस ज्यादा होती है इसलिए इंतजाम में लगे रवींद्र से मैंने एक एसी कमरे के लिए कहा था .कमरे तो सभी एसी वाले थे पर वे जून से सितंबर तक उसे बंद कर देते है .खिड़की खोलते ही ठंढी हवा का झोंका आया तो लगा इधर फिलहाल एसी की जरुरत ही नहीं है .तबतक खाने का बुलावा आ गया .रात के बारह बज रहे थे .साल ,नारियल ,सुपारी ,आम आदि के घने जंगल से होते हुए आये थे .पहाड़ी और घुमावदार रास्ता था .थकावट महसूस हो रही थी .गर्म पानी से नहाने के बाद खाने के लिए ऊपर लगी मेज कुर्सियों के पास पहुंचे तो लगा किसी जहाज के डेक पर बैठे हैं .सामने सागर और किनारे पर नारियल के लहराते पेड़ .हल लोग कुल पंद्रह लोग थे .शिक्षक ,लेखक ,एक्टिविस्ट ,फोटोग्राफर और यायावर .रेलवे के एक आला अफसर भी थे तो पत्रकार भी .ज्यादातर से परिचय भी रास्ते में या फिर खाने की मेज पर हुआ .यह आपसदारियां का वह समूह था जो मौसम बदलने पर देश के विभिन्न हिस्सों में किसी एक जगह का चयन कर मिलता है .मकसद है देश के अलग अलग अंचल में गांव ,आदिवासी समाज के बीच जाना और उन्हें जानना समझना .ताकि किसी रचनाकार को अपने रचनाकर्म में मदद मिले .इसके सूत्रधार हैं लेखक ,यायावर सतीश जायसवाल .वे हर कार्यक्रम की व्यवस्था किसी स्थानीय मित्र को देते हैं . अमूमन वे गांव कस्बे /डाक बंगले में रुकने की सस्ती व्यवस्था करते हैं .पर इस जगह तो गांव ही रिसार्ट में बदल गया था और आफ सीजन डिस्काउंट के बाद धर्मशाला वाले किराए में ही यह कमरे मिल गए थे .गांव के सरपंच सचिन जब दूसरे दिन आए तो बताया कि यह दापोली का पहला रिसार्ट है जो नब्बे के दशक में बना .ऐसी लोकेशन किसी और की नहीं है .दूसरे दिन नाश्ते के बाद जब समुंद्र किनारे किनारे गांव की तरफ गए तो बदलता हुआ दापोली नजर आया .दरअसल गांव पीछे चला गया था और होटल रिसार्ट आगे हो गए थे .यह मछुवारों का गांव रहा है जिन्होंने बाद में सैलानियों की बढती आवाजाही के बाद अपने घर पीछे कर दिए और होटल रिसार्ट आगे बना दिए .इससे आमदनी का नया जरिया मिला .हर्ले बंदरगाह कुछ किलोमीटर दूर ही है जहां शिवाजी के दो किलों के खंडहर अभी भी मौजूद हैं .शिवाजी का नाम लेने वाली सरकार ने इन किलों को तो बदहाल कर ही रखा है साथ ही उधर जाने वाली सड़क ऐसी बना रखी है कि ज्यादा लोग जाने ही न पाएं .खैर यह दापोली का वर्षावन जैसा अंचल है .बरसात होती है तो जमकर होती है .कई दिन तक होती रहती है .ज्यादातर घरों और होटल रिसार्ट में जगह जगह जमी काई से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है .बरसात जमकर होती है इसलिए हरियाली भी देखने वाली होती है .कई जगहों पर दूर तक फैली हरी घास को देखकर किसी बड़े चरागाह का आभास होता है . हम लोग आसपास के कई गांव में गए .गांव के लोगों से बात हुई और उन्ही के घर बना भोजन किया .यह आपसदारियां कार्यक्रम की परिपाटी में बदल रहा है .जिस भी गांव में जाएं वहां के लोगों का बनाया स्थानीय भोजन करें .उन्हें जाने समझे .उनकी संस्कृति को समझे और उनके खानपान का स्वाद भी लें .दिन में भी हम सभी ने कोंकड़ी थाली मंगवाई और स्वाद लिया था .दापोली के डा बाला साहेब सांवत कोंकड़ कृषि विद्यापीठ से लौटते हुए .भोजन के बाद हापूस आम की सरकारी नर्सरी में गए तो साथ आई मृदुला ने कुछ पौधे लिए .उन्हें देख मैंने भी हापुस आम का एक पौधा ले लिया .बाद में उसे पैक कराने के लिए स्थानीय बाजार छान डाला पर कुछ नहीं मिला .वजह मुंबई से लखनऊ की उड़ान में उसे ले जाने देंगे या नहीं यह संशय था .खैर मुंबई में सीएनबीसी के प्रबंध संपादक और अपने बचपन के साथी आलोक जोशी ने यह समस्या सुलझा दी और एक विदेशी लंबा डिब्बा दिया जिसमे यह पौधा डाल कर लखनऊ ले गए और अपने घर पर लगा भी दिया .

Thursday, May 30, 2019

ब्रिगेडियर जानसन की पीली कोठी

अंबरीश कुमार वर्ष 1890 के आसपास ब्रिगेडियर जानसन कुमायूं के रामगढ़ में आ बसे .शौकीन मिजाज जानसन को प्रकृति से लगाव था वर्ना काठगोदाम से अल्मोड़ा के पैदल रास्ते पर घोड़े से करीब पचास किलोमीटर का रास्ता तय कर इतनी उंचाई पर न आते .उन्होंने बहुत शानदार कोठी उस समय बनवाई जो आज भी खड़ी है और ग्वालियर के सिंधिया परिवार के पास है .इस कोठी में राजमाता सिंधिया समेत उनके परिवार के सभी सदस्य सत्तर अस्सी के दशक तक आते रहे .उनके साथ गांधी परिवार भी छुट्टियां बिताने इधर आता .संजय गांधी इसी परिसर में परिंदों का शिकार करते .पर यह कोठी बनती उजडती भी रही . ब्रिगेडियर जानसन ने बड़े शौक से यह कोठी बनवाई .आज भी समूचे रामगढ़ में इसके फायर प्लेस की डिजाइन की तारीफ़ होती है .अपने कैप्टन साहब एक बार बर्फ में ऐसे फंसे कि नीचे के रास्ते पर जाना मुश्किल हो गया तो एक रात इसी कोठी में गुजारी .उन्होंने बताया कि बाहर बर्फ गिर रही थी और वे भीतर के कमरें में फायर प्लेस के सामने बैठ गए .ओवर कोट से लेकर मफलर स्वेटर सब लादे हुए थे .पर आधे घंटे बाद वे सिर्फ पैंट शर्ट में आ गए .ऐसा फायर प्लेस जिससे भीतर जरा सा भी धुआं नहीं रुकता .हालांकि अब इस कोठी का रखरखाव बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता . जब यह कोठी बनी थी तो बहुत कम घर आसपास में थे .इसके जैसा तो कोई था ही नहीं .पर ब्रिगेडियर जानसन ने दो दशक के भीतर ही इसे ब्रिटिश सेना के एक अफसर लिंकन को बेच दी .जिसके बाद यह लिंकन स्टेट कहलाई .लिंकन ने इसे सजाया और संवारा .इसे ' एप्पल गर्थ ' का नाम दिया गया .उन्होंने ब्रिटेन से सेब की करीब सौ प्रजातियों के सेब अपने 410 एकड़ के फार्म में लगा दिए .इनमें कुछ प्रजातियां थी 'ब्यूटी आफ बाथ ,विंटर बनाना ,किंग डेविड और न्यूटन आदि .रामगढ़ अगर आज कुमायूं की फल पट्टी बना हुआ है तो उसका ज्यादा श्रेय लिंकन को भी जाता है . पर वर्ष 1930 में लिंकन को भी भारत छोड़ना पड़ा और उहोने मध्य प्रदेश के महाराजा अजय गढ़ को सेब का यह बड़ा बगीचा और कोठी बेच दी .महाराजा अजय गढ़ से सिंघिया परिवार ने साठ के दशक में यह आर्चिड और कोठी ले ली .सिंधिया ने इसका नाम वृंदावन आर्चिड रखा .पर उसी दौर में सीलिंग के चलते सरकार ने 320 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर ली .अब नब्बे एकड़ जमीन बची जिसके बीच में आज भी यह कोठी मौजूद है .अब यह सिंधिया के पारिवारिक ट्रस्ट के हाथ में है .और जैसे ट्रस्ट चलते हैं वैसे ही यह भी चल रहा है .इस कोठी के कई किस्से कहानियां भी हैं .एक दौर में शाम होते ही इस कोठी की रौनक बढ़ जाती थी .दिन में आसपास के घने जंगल में लोग शिकार करते और रात में महफ़िल जमती .

Wednesday, May 29, 2019

कैम्पटी जल प्रपात का मोनाल डाक बंगला

अंबरीश कुमार यह जंगलात विभाग का मोनाल डाक बंगला है . मोनाल उत्तराखंड का राज्य पक्षी और नेपाल का राष्ट्रीय पक्षी है जिसके नाम पर यह डाक बंगला समर्पित है .कुछ साल पहले जब मंसूरी के कांदिखाल गया था राष्ट्र सेवा दल के एक शिविर में भाग लेने के लिए तो एनएपीएम के संयोजक जबर सिंह ने मुझे जंगलात विभाग के डाक बंगले में ठहराया था .मैंने उनसे कहा था कि मुझे कैम्पटी जल प्रपात के सामने ठहरना है .साथ में जनसत्ता के समाचार संपादक अरविंद उप्रेती भी थे देहरादून पहुंचा तो जबर सिंह ने बताया कि लोक गायक बल्ली सिंह चीमा को भी आपके साथ इधर आना है .चीमा का मशहूर गीत ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के ,आंदोलनों में काफी गाया जाता है .उन्हें साथ लेकर चला .कुछ देर मंसूरी में चाय के लिए रुके फिर इस डाक बंगले आ गए .दो सूट का यह डाक बंगला भीतर से बहुत साफ सुथरा था और एक आलमारी पुस्तकों से भरी थी .किसी डाक बंगले में पुस्तकालय हो यह बहुत कम देखा है .पता चला इस अंचल की डीएफओ कोई मोहतरमा हैं जिन्हें पढने का शौक है जिसके चलते उन्होंने यह व्यवस्था की .यह बहुत अच्छा लगा .रात में बरसात हुई और हम शमशाद बेगम को सुनते रहे और सामने झरने की आवाज भी सम्मोहित कर रही थी .बहरहाल अब उस पक्षी पर आते हैं जिसके नाम पर इस डाक बंगले का नामकरण किया गया है .यह मोनाल है . मोनाल को स्थानीय भाषा में ‘मन्याल” व ‘मुनाल’भी कहा जाता है. उत्तराखंड के उत्तरकाशी, मसूरी, केदारनाथ, पिथौरागढ़, टिहरी, बदरीनाथ, रामनगर, पौड़ी और बागेश्वर के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इस खूबसूरत पक्षी के दर्शन होते हैं.मोनाल नर का रंग नीला भूरा होता है एवं सिर पर तार जैसी कलगी होती है. मादा भूरे रंग की होती है. यह भोजन की खोज में पंजों से भूमि अथवा बर्फ खोदता हुआ दिखाई देता है. कंद, तने, फल-फूल के बीज तथा कीड़े-मकोड़े इसका भोजन है. मोनाल एक पहाड़ी पक्षी है और यह हिमालय के 8 से 15 हजार फिट की उंचाई पर पाया जाता है पर ठंढ और बरसात के दिनों में पहाड़ के निचले हिस्से में चला जाता है.चिंता की बात यह है कि इसकी आबादी घट रही है .जो बचे हैं वे शिकारियों की भेंट चढ़ जा रहे हैं .वैसे भी इस समय इधर के जंगलों में जो आग लगी हुई है उससे सबसे ज्यादा परेशान जंगली जानवर और पक्षी हैं .बड़ी संख्या में पक्षी इन आग के शिकार हो रहे हैं ,उनके घोसले जल रहे हैं छोटे बच्चे कहीं भाग भी नहीं सकते .जंगल की आग को लेकर कोई रणनीति काम नहीं कर रही .अंतिम फोटो मोनाल पक्षी की और उससे पहले कैम्पटी की .

Saturday, March 16, 2019

कैंडोलिम के समुद्र तट पर कुछ दिन

अंबरीश कुमार यह कैंडोलिम का समुद्र तट है . दूर तक जाती हुई सफ़ेद रेत . कौन जाने कितनी दूर तक ,इतना चलने की अपनी हिम्मत भी नहीं थी . सुबह के साढ़े पांच थे पर अंधेरा पूरा छटा नहीं था . रात करीब एक बजे गोवा के इस छोटे से कस्बे में पहुंचे थे . रात दिल्ली से चले और गोवा के डाबोलिम हवाई अड्डे से बाहर आते आते बारह बज ही चुके थे . जाना दूर था . करीब पचास किलोमीटर था अपना कैंडोलिम का ठिकाना . इस बार अपन होटल की बजाए एपार्टमेंट में रुके थे . चाय ,काफी ,नाश्ता के अलावा मन हो तो खाना भी बना सके इस वजह से . रात एक बजे जब कैंडोलिम के समुद्र तट के इस कस्बे में पहुंचे तो नजारा ही अलग था . हम तो डर रहे थे की बोतल बंद पानी मिल पाएगा या नहीं क्योंकि दिल्ली से जो पानी लेकर चले थे वह खत्म हो गया था . एयरपोर्ट में टैक्सी लेने की आपाधापी में भूल ही गए . पर जिस न्यूटन सुपर मार्केट के पीछे अपना ठिकाना था उसके सामने और आसपास ज्यादातर रेस्तरां और बार खुले हुए थे . हमें पंजिम का पुराना अनुभव था जहां रात ग्यारह बजे सारे रेस्तरां /बार बंद हो जाते हैं और आटो भी मिलना मुश्किल होता है . जबकि वह गोवा की राजधानी है . और इस समुद्र तटीय कस्बे में रात चार बजे तक रेस्तरां खुले रहते हैं . भारतीय तो कम मिलेंगे पर विदेशी जमे रहते है . पश्चिमी संगीत बजता रहता है . सड़क के ठीक किनारे बैठकर वे अपनी मनपसंद शराब पीते रहतें हैं . कोई रोकटोक नहीं . कैंडोलिम में बहुत कम भीड़ होती है और समुद्र तट साफ़ सुथरा है . कैंडोलिम गोवा का बहुत खूबसूरत समुद्र तटीय गांव है जो यह गांव सोलहवीं शताब्दी में पूरी तरह ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया था . पंजिम शहर रात ग्यारह बजे भले ही सो जाता हो पर कैंडोलिम के होटल रेस्तरां रात चार बजे तक खुले रहते हैं . राष्ट्रवादी सरकार है पर गैर राष्ट्रवादी सभी सामग्री जगह जगह उपलब्ध है खान पान और संस्कृति पर (पुर्तगालियों ) ईसाइयों का ज्यादा प्रभाव है . यहां सब कुछ खाने को मिलेगा जिसका नाम लेने पर उत्तर भारत में लोग डर जाते हों . सुपर मार्किट में सभी तरह की मदिरा मिलती है . लोग चावल दाल शाक सब्जी के साथ विह्स्की से लेकर वाइन तक खरीदते मिल जाएंगे . इनमे सत्तर साल के बुजुर्ग भी होते है . ईसाई समाज बहुत खुला हुआ होता है और वह सब यहां दिखता भी है . इसबार होटल रिसार्ट और गेस्ट हाउस से बचते हुए दो बेडरूम एपार्टमेंट में ठहरना ठीक लगा जिसमे रसोई और बर्तन होते है . वीएन राय साब ने यह सुझाव दिया था . वे कड़ाके की ठंढ के समय महीना भर इस अंचल में रहते हैं . जगह तो बहुत अच्छी है पर खानपान को लेकर कुछ व्यावहारिक दिक्कत आती है . . अपने को सरसों के तेल में खाना ठीक लगता है और सविता शुद्ध शाकाहारी है जिन्हें उन होटल में जाने में दिक्कत होती है जो लोबस्तर ,प्रान और बीफ आदि परोसते हैं . इसलिए वे नाश्ता भी खुद बना रहीं है और खाना भी . इसलिए सब्जियों के भाव भी पता चले . पहाड़ और मैदान में जो हरी मटर तीस रुपए किलो है वह यहां अस्सी रुपए . खीरा साठ रुपए तो सेब दो सौ रुपए . पर विह्स्की /फेनी तो हर दूकान पर और कोल्ड ड्रिंक के दाम में भी मिल जाएगी . पर हवाई आड़े से यह जगह करीब पचास किलोमीटर दूर है . देर रात में टैक्सी का भाड़ा तीस फीसदी बढ़ जाता है ,दो हजार पड़ा . हमें लगा था रात एक बजे तो सन्नाटा होगा पर पता चला चार बजे तक पूरी रौनक रहती है समुद्र तट के होटल रिसार्ट में . गोवा एक राज्य है और इसके चार समुद्र तट पर रुकना हो चुका था इसलिए अबकी बारी वेगाटार ,बागा और कैंडोलिम समुद्र तट को देखना ठीक लगा . कई महीने बाद गर्म कपड़ों से भी निजात मिली . अगला पड़ाव था सालिगाव . यह उत्तरी गोवा का छोटा सा गांव है . कलंगूट से ढाई किलोमीटर और कैंडोलिम से नौ किलोमीटर दूर . हम कैंडोलिम से करीब ग्यारह बजे चले . धूप थी पर बहुत तेज नहीं . टैक्सी वाले सात आठ सौ रुपए मांग रहे थे . ज्यादा लगा इसलिए बस में बैठ गए . दस रुपए एक आदमी का भाड़ा था दो बैग थे इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं हुई . गोवा की बसों में दक्षिण के अन्य राज्यों की तरह महिलाओं के लिए कई सीट आरक्षित रहती है . पर सभी को जगह मिल गई . थोड़ी देर का ही रास्ता था पर बस हर जगह रूकती हुई चल रही थी . नारियल के पेड़ों से घिरा रास्ता . दोनों तरफ छोटे पर खूबसूरत घर . कुछ देर में ही हम सालिगाव चौराहे पर उतर गए . यहां समस्या हो गई . ओवाईओ के जिस एपार्टमेंट में फ़्लैट बुक कराया था उसका कोई बोर्ड नहीं लगा था . जिसे ढूंढने में दिक्कत हुई और खीज भी . गुस्से में इसके करता धर्ता को डांट भी दिया . दरअसल यह रिसेप्शन विहीन व्यवस्था थी . यहां आपको कोई व्यक्ति नहीं मिलना था ,सारा इंतजाम खुद करना था . मोबाइल पर एक कोड भेजा गया . इस कोड से फ़्लैट पर लगा एक बड़ा ताला खुला और उसमे से मुख्य दरवाजे की चाभी निकली . दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुए . भीतर से फ़्लैट ठीक ठाक था . लिविंग रूम में सोफे टीवी के साथ डाइनिंग टेबल थी . दो बेडरूम थे एसी वाले . हर बेडरूम बालकनी के साथ था . सामने बड़ी बालकनी . बालकनी के ठीक सामने से नारियल के बाग़ में बना एक पुराना चर्च दिख रहा था . हम लोग हल्का नाश्ता करके चले थे ,इसलिए फिर कुछ खाने की इच्छा हुई . चार दिन से ऐसे ही एपार्टमेंट में थे इसलिए सारा सामान था . किचन में बिजली वाला चूल्हा और बर्तन के साथ आरओ भी चालू था . सब्जी फल और ब्रेड मक्खन को फ्रीज में रख दिया गया . गाजर ,मटर ,भुनी मूंगफली ,धनिया मिर्च और चिवड़ा था ही इसलिए सविता ने पोहा बनाया . अपने पास इंदौर की अच्छी नमकीन भी थी . पत्रकार धरा पांडे जब लखनऊ आई तो दे गई थी . वह रखा था . पोहा के साथ भुजिया /नमकीन और नींबू का प्रचलन है . नागपुर की तरफ तली हुई हरी मिर्च नमक और नींबू के साथ दी जाती है . दरअसल पोहा आदि का नाश्ता अपने पुरबिया परिवार में सविता के आने के बाद शुरू हुआ . वे बुन्देलखंड की है जिसपर मराठा खानपान का असर रहा . इसी वजह से पोहा अपने घर में भी ज्यादा बनने लगा . खैर इस एपार्टमेंट के किचन में भी बालकनी थी जो आम और नारियल के बगीचे में खुलती थी . वहीँ कुर्सी लेकर बैठ गया . आम में बौर आ चुके थे . कई जगह आम के टिकोरे दिखे भी . यह आबोहवा का असर था . कुछ देर बाद नीचे उतरे और आसपास निकले . कार्यक्रम बना कि वेगाटार समुद्र तट निकला जाए मापुसा होकर . पीछे ही सालिगाव का मशहूर चर्च था . यह पुराना चर्च है . Mãe de Deus Parish Church 1873 में बना था . इसे देखने लोग दूर दूर से आते हैं . पर सलिगाव इधर चर्चा में आया पानी बचाने को लेकर . भूजल का दोहन इधर काफी तेज हुआ है जिसे लेकर यहां के लोगों ने चिंता जताई . दरअसल बगल में गोवा का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल कलंगूट है . इधर से पानी उधर जाता है और उधर का कूड़ा कचरा इधर डंप किया जाता है .

Monday, March 4, 2019

इस अहलुवालिया ने तो हवा ही निकाल दी !

अंबरीश कुमार नई दिल्ली .अद्भुत सरकार है यह .ऐसी सर्जिकल स्ट्राइक की कि देश के लोगों का दिमाग घूम गया है .कहां मारा गया ,किसे मारा गया और कितने मारे गए . जिस पार्टी की सरकार है उसका मुखिया कह रहा है कि पकिस्तान में आतंकवादियों के ठिकाने पर हमला कर ढाई सौ से ज्यादा आतंकवादी मार गिराए गए .दूसरी तरफ पार्टी अध्यक्ष के इस दावे की हवा खुद सरकार के केंद्रीय मंत्री एसएस अहलुवालिया ने ही निकाल दी .केंद्रीय मंत्री एसएस अहलुवालिया ने कहा है कि इस हमले का उद्देश्य मानवीय क्षति पहुंचाना नहीं बल्कि एक संदेश देना था कि भारत दुश्मन के क्षेत्र में अंदर दूर तक घुसकर प्रहार कर सकता है. अहलुवालिया ने कहा कि न तो प्रधानमंत्री और न ही किसी सरकारी प्रवक्ता ने हवाई हमले के हताहतों पर कोई आंकड़ा दिया है. बल्कि यह तो भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया ही था जहां मारे गए आतंकवादियों की अपुष्ट संख्या की चर्चा हो रही थी. उन्होंने शनिवार को सिलीगुड़ी में संवाददाताओं से सवाल किया कि हमने भारतीय मीडिया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खबरें देखी हैं और यह भी देखा कि मोदीजी ने क्या कहा था.यह कहकर उन्होंने भाजपा के चुनावी गुब्बारे की हवा ही निकाल दी है .हो सकता है वे कल को खंडन कर दे पर जो फजीहत वे सरकार की कर चुके हैं उसकी भरपाई संभव नहीं है .अब सभी सरकार की इस कार्यवाई को शक की नजर से देखने लगे हैं . इससे पहले विदेश सचिव ने इस मामले पर गोलमोल जवाब देकर पल्ला झाड लिया .दरअसल रायटर्स ,बीबीसी और अल जजीरा आदि की रपट के बाद सरकार घिर गई है .सरकार सिर्फ इसलिए घिरी क्योंकि वह सेना के पराक्रम को अपने चुनावी पराक्रम में बदलना कहती थी .वर्ना हमले के दस बारह घंटे बाद ही यह कह सकती थी कि इस हमले का मकसद सिर्फ पकिस्तान को सांकेतिक चेतावनी देना था ,किसी को मारना नहीं .इससे सरकार की प्रतिष्ठा कम नहीं होती . दरअसल इस हवाई हमले की नाकामी हमारे ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी है दूसरे यह हमारी विदेश नीति की भी नाकामी है .अगर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने दुनिया भर में हल्ला नहीं मचाया होता कि भारत पकिस्तान पर कुछ बड़ा करने जा रहा है तो शायद बालाकोट के आतंकी शिविर खाली नहीं मिलते .ट्रंप को इस मामले में डालने का यह बड़ा नुकसान हुआ .दूसरे जिस कश्मीर को हम दो देशों का मुद्दा मानते आएं हैं वह अब पंचायती हुक्का बन चुका है .अब अमेरिका हर बातचीत में दखल भी देगा .यह विदेश नीति में हुए बदलाव का नतीजा है .ओआईसी में बची खुची कसर निकल गई जिसने अपने प्रस्ताव में भारत को कश्मीर में आतंक फैलाने वाला देश घोषित कर दिया .सुषमा स्वराज के लिए इससे ज्यादा फजीहत की बात क्या होगी .चीन किस तरफ है यह सभी को पता है .दरअसल पकिस्तान अपनी भौगोलिक स्थित के चलते कई देशों की जरुरत बना हुआ है .जिसमे चीन सबसे ऊपर है तो अमेरिका भी उसके बाद ही है .यह बात समझनी चाहिए .ऐसे में बहुत संभल संभल कर कदम रखने की जरुरत थी . पर मोदी के लिए चुनाव सबसे ऊपर है .जब सीमा पर बम गोला चल रहा था तो भी वे देश में बूथ मजबूत करने में जुटे थे .जब पुलवामा हमला हुआ तो भी वे शूटिंग और चुनाव प्रचार में लगे थे .जब सैनिक का शव पटना आ रहा था तो भी वे रैली में ही थे .कोई मंत्री तक इन शहीदों के घर झांकने नहीं गया . पर चुनाव प्रचार में सैनिक की फोटो ये ढाल बना चुके हैं .इससे न सिर्फ विश्व मंच पर देश की फजीहत हो रही है बल्कि विदेशी मीडिया में भी खिंचाई हो रही है .हमले में मारे गए लोगों की संख्या से यह शुरुआत हुई .सरकार ने जानबूझ कर पहले तीन सौ /चार सौ लोगों के मारे जाने की खबर लीक कराई .ताकि चुनावी प्रचार में माहौल बने और विपक्ष ठंढा पड़ जाए .पर मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इस सर्जिकल स्ट्राइक को मनोरंजन में बदल दिया .कोई सैनिक बनकर टीवी पर आ गया तो कोई तोप तमंचा लेकर .जो संख्या ठीक लगी वह चला दी ,चार सौ कुछ कम लगी तो छह सौ तक पहुंच गए .पर जब अंतरराष्ट्रीय एजंसियों ने खबर लेनी शुरू की तो मामला गड़बड़ा गया .दरअसल सारा मामला ख़ुफ़िया जानकारी का ही था .इसमें चूक हुई होगी यह माना जा रहा है .ख़ुफ़िया तंत्र हमारा इतना लचर कभी नहीं रहा जितना देसी जेम्स बांड डोवाल के समय में हो गया है .वर्ना अर्ध सैनिक बल के इतने बड़े दस्ते के रास्ते में तीन सौ किलो विस्फोटक न आता .घाटी में रोज अपने जो जवान मारे जा रहे हैं उसके पीछे भी ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता बड़ी वजह है . पर सरकार तो चुनाव का बूथ मजबूत करने में लगी है .लोग समझ नहीं पा रहें हैं कि पचास सैनिक हमारे मारे गए .एक को पकिस्तान ने हमें दिया .नुकसान हमारा ज्यादा हुआ फिर भी ढोल नगाड़ा हम ही बजा रहें है .हम क्यों उत्सव मना रहे हैं यह एक सैनिक परिवार ने भी पूछा .पर कौन सुनता है किसी सैनिक की आवाज .सैनिक की फोटो को जीप के बोनट पर डाल कर वोट जो मांगना है .पर इसमें अहलुवालिया ने खलल डाल दिया है .आप दिग्विजय सिंह को क्या घेरेंगे ,मीडिया को क्या घेरेंगे पहले अपने मंत्री से तो निपट लें जिसने सेना के पराक्रम को पार्टी पराक्रम में बदलने की योजना में पलीता लगा दिया है .

Saturday, March 2, 2019

कभी इस गांव में भी रुके

अंबरीश कुमार का छोटा सा गांव है .कलंगूट से ढाई किलोमीटर और कैंडोलिम से नौ किलोमीटर दूर .हम कैंडोलिम से करीब ग्यारह बजे चले .धूप थी पर बहुत तेज नहीं .टैक्सी वाले सात आठ सौ रुपए मांग रहे थे .ज्यादा लगा इसलिए बस में बैठ गए .दस रुपए एक आदमी का भाड़ा था दो बैग थे इसलिए कोई दिक्कत भी नहीं हुई .गोवा की बसों में दक्षिण के अन्य राज्यों की तरह महिलाओं के लिए कई सीट आरक्षित रहती है .पर सभी को जगह मिल गई .थोड़ी देर का ही रास्ता था पर बस हर जगह रूकती हुई चल रही थी .नारियल के पेड़ों से घिरा रास्ता .दोनों तरफ छोटे पर खूबसूरत घर .कुछ देर में ही हम सालिगाव चौराहे पर उतर गए .यहां समस्या हो गई .ओवाईओ के जिस एपार्टमेंट में फ़्लैट बुक कराया था उसका कोई बोर्ड नहीं लगा था .जिसे ढूंढने में दिक्कत हुई और खीज भी .गुस्से में इसके करता धर्ता को डांट भी दिया .दरअसल यह रिसेप्शन विहीन व्यवस्था थी .यहां आपको कोई व्यक्ति नहीं मिलना था ,सारा इंतजाम खुद करना था .मोबाइल पर एक कोड भेजा गया .इस कोड से फ़्लैट पर लगा एक बड़ा ताला खुला और उसमे से मुख्य दरवाजे की चाभी निकली .दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुए . भीतर से फ़्लैट ठीक ठाक था .लिविंग रूम में सोफे टीवी के साथ डाइनिंग टेबल थी .दो बेडरूम थे एसी वाले .हर बेडरूम बालकनी के साथ था . सामने बड़ी बालकनी .बालकनी के ठीक सामने से नारियल के बाग़ में बना एक पुराना चर्च दिख रहा था .हम लोग हल्का नाश्ता करके चले थे ,इसलिए फिर कुछ खाने की इच्छा हुई .चार दिन से ऐसे ही एपार्टमेंट में थे इसलिए सारा सामान था .दरअसल कैंडोलिम में चारो ओर जो होटल रेस्तरां थे उसमे बीफ के व्यंजन भी थे .सविता ठहरी शुद्ध शाकाहारी .साफ़ मना कर दिया कि इन किसी भी होटल में नहीं खाएंगे खुद एपार्टमेंट के किचन में बनाया जायेगा .ठीक बगल में न्यूटन सुपर मार्किट थे .सब्जी भाजी फल से लेकर दाल चावल और फ्रोजेन रोटी तक ले ली गई .मछली भी थी ,अपनी इच्छा भी हुई पर कौन झमेला करता इसलिए मै भी शाकाहारी हो गया .वह सब सामान था ही .किचन में बिजली वाला चूल्हा और बर्तन के साथ आरओ भी चालू था .सब्जी फल और ब्रेड मक्खन को फ्रीज में रख दिया गया .गाजर ,मटर ,भुनी मूंगफली ,धनिया मिर्च और चिवड़ा था ही इसलिए सविता ने पोहा बनाया .अपने पास इंदौर की अच्छी नमकीन भी थी .धरा पांडे जब लखनऊ आई तो दे गई थी .वह रखा था .पोहा के साथ भुजिया /नमकीन और नींबू का प्रचलन है .नागपुर की तरफ तली हुई हरी मिर्च नमक और नींबू के साथ दी जाती है . दरअसल पोहा आदि का नाश्ता अपने पुरबिया परिवार में सविता के आने के बाद शुरू हुआ .वे बुन्देलखंड की है जिसपर मराठा खानपान का असर रहा .इसी वजह से पोहा अपने घर में भी ज्यादा बनने लगा .खैर इस एपार्टमेंट के किचन में भी बालकनी थी जो आम और नारियल के बगीचे में खुलती थी .वहीँ कुर्सी लेकर बैठ गया .आम में बौर आ चुके थे .कई जगह आम के टिकोरे दिखे भी .यह आबोहवा का असर था .कुछ देर बाद नीचे उतरे और आसपास निकले .कार्यक्रम बना कि वेगाटार समुद्र तट निकला जाए मापुसा होकर .पीछे ही सालिगाव का मशहूर चर्च था .यह पुराना चर्च है .Mãe de Deus Parish Church 1873 में बना था .इसे देखने लोग दूर दूर से आते हैं .पर सलिगाव इधर चर्चा में आया पानी बचाने को लेकर .भूजल का दोहन इधर काफी तेज हुआ है जिसे लेकर यहां के लोगों ने चिंता जताई .दरअसल बगल में गोवा का सबसे बड़ा पर्यटन स्थल कलंगूट है .इधर से पानी उधर जाता है और उधर का कूड़ा कचरा इधर डंप किया जाता है .सभी सैरगाहों में कूड़ा कचरा डंप करने की बड़ी समस्या आ रही है .मोदी जी ने स्वच्छता अभियान जो चलाया उसका कुछ असर तो सरकारी स्तर पर हुआ है .यह हमें कैंडोलिम में भी दिखा .वहां सुबह छह बजे से लेकर शाम तक कूड़ा उठाने वाले ट्रक कई बार आते थे .पर ये कूड़ा लेकर जाते कहां थे मालूम नहीं .जारी

Friday, March 1, 2019

बदलते हुए इस पाकिस्तान को भी देखें

अंबरीश कुमार विंग कमांडर अभिनंदन जो पाकिस्तान का जहाज गिरा कर उधर ही गिर गए थे वे लौट आएं हैं . पकिस्तान कट्टरपंथियों का देश रहा है कोई लोकतांत्रिक देश नहीं जिससे दुश्मन देश के किसी सैनिक से सम्मानजनक बर्ताव की उम्मीद की जाए .वे क्या जिनेवा समझौता मानेगा जिसने अपने ही जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटका दिया था .भुट्टो की बेटी बेनजीर को इसी देश में चुनाव प्रचार के दौरान बम से उड़ा दिया गया .सौरभ कालिया याद है न और अजय आहूजा भी .ऐसे देश से अपना एक बहादुर सैनिक सकुशल लौट आए तो यह ख़ुशी का मौका है ही .पर इसके पीछे कई और वजह भी है .पकिस्तान का नेतृत्त्व कुछ तो बदला रहा है .रोज मुठभेड़ होने के बावजूद भी .गौरतलब है कि विभाजन के बाद भारत ने धर्म निरपेक्ष रास्ता अपनाया तो पकिस्तान मजहबी कट्टरपंथ के रास्ते पर चला गया .जिसका असर उसके चौतरफा विकास पर पड़ा और अर्थव्यवस्था भी बिगड़ती गई .पाकिस्तान की राजनीति कट्टरपंथियों और सेना के कब्जे में चली गई .कश्मीर के अलगाववाद को उसने हवा दी तो खुद भी आतंकवादियों का शिकार होता रहा है .लंबी सूची है पकिस्तान के उन महत्वपूर्ण लोगों की जिनकी जान आतंकवादियों ने ली .बेनजीर भुट्टो भी उन्ही का निशाना बनी थी .पर अब उसी पाकिस्तान की नई पीढी का रास्ता बदलता हुआ नजर आ रहा है . अभी तक हमारे जैसे ज्यादातर लोग पाकिस्तान को धर्मांध ,जाहिल और बर्बर मुल्क के रूप में ही देखते रहें हैं .हालांकि कुछ समय पहले एनडीटीवी की रिपोर्टर ने जब पाकिस्तानी छात्राओं से बातचीत की तो काफी हैरानी हुई थी .ये छात्राएं भारत आना चाहती थी ,लोगों से मिलना जुलना चाहती थी .भारत पकिस्तान के बीच नए सिरे से संबंध विकसित हो इस पक्ष में थी .बहुत ज्यादा इस रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया था .पर दो दिन पहले लाहौर प्रेस क्लब पर पकिस्तान के नौजवानों के प्रदर्शन की जो फोटो देखी तो हैरान रह गया .इसमें छात्र छात्राएं भी थी तो बड़े भी .ये भारतीय विंग कमांडर अभिनंदन की रिहाई की मांग कर रहीं थी .उस पकिस्तान में जो विश्व के सबसे ज्यादा आतंकी संगठनों से घिरा हुआ है .वह पाकिस्तान जो कट्टरपंथ के रास्ते पर है .हर रोज ये कट्टरपंथी लोगों को निशाना बनाते हैं . ऐसे में नौजवान लड़के लड़कियों का यह प्रदर्शन पकिस्तान की नई पीढ़ी में आ रहे बड़े बदलाव को दर्शा रहा है .इसके पीछे पाकिस्तान के मीडिया की भी भूमिका है .समूचा मीडिया तो नहीं पर बड़ा हिस्सा काफी समय से अपनी निष्पक्षता को बनाए हुए है .वह सरकार से सवाल भी पूछता है और अपनी राय भी मजबूती से रखता है .भारतीय विंग कमांडर अभिनंदन की वीरता के किस्से पहले वहीँ सामने आए जबकि भारतीय मीडिया इस घटना को ही दबाने में जुटा था .मीडिया की खबरों के चलते ये नौजवान सड़कों पर उतरे और एक भारतीय सैनिक को छोड़ने की मांग की . वह भी उस माहौल में जब ज्यादर भारतीय चैनल उन्माद फैलाने में जुटे थे .बालाकोट में हवाई कार्यवाई को पर चैनलों ने तीन सौ से लेकर छह सौ आतंकवादी मारे जाने का दावा कर दिया .जबकि रायटर्स ,बीबीसी से लेकर अल जजीरा की रिपोर्ट इन दावों की हवा निकाल रही थी .रायटर्स ने तो सिर्फ एक कौव्वा मारे जाने की भी खबर दी .चूंकि सेना या विदेश मंत्रालय ने मारे गए आतंकवादियों की संख्या या नाम को लेकर कोई पुख्ता जानकारी नहीं दी इसलिए जो जिसके मन में आया वह संख्या देने लगा .हिंदी चैनल वैसे भी रिसर्च आदि की ज्यादा जहमत उठाते भी नहीं हैं .खैर ऐसे तनाव वाले माहौल में भारतीय मीडया युद्ध का उन्माद फैला रहा था तो प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने की बजाए पार्टी का बूथ मजबूत करने के कार्यक्रम में जुटे थे .जबकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने देश की संसद में भारतीय विंग कमांडर को छोड़ने का एलान किया .इसपर वहां की संसद में तालियां भी बजी .यह पहली बार हुआ .नौजवान तो सड़क पर उतरे एक भारतीय सैनिक के समर्थन में तो पकिस्तान की संसद ने उस सैनिक की रिहाई का स्वागत किया .यह बदलाव मामूली बदलाव नहीं है . यह उसी पकिस्तान में हुआ जहां जुल्फिकार अली भुट्टों हजार साल तक लड़ने की बात करते थे .जहां अलगाववादी नेता भारत को नेस्तनाबूद करने की कसम खाया करते थे .उस पकिस्तान में इमरान खान शांति की बात कर रहे हैं .विदेश मामलों के जानकार पत्रकार वेद प्रताप वैदिक इसे इमरान खान की बड़ी कुटनीतिक जीत के रूप में देखते है .विदेशी मीडिया भी इस बदले हुए तेवर की तारीफ़ कर रहा है .थोडा सा पीछे जाएं. इन्ही इमरान खान ने ही करतार साहिब का कारिडोर खोला था .यह कितनी पुरानी मांग थी सिखों की .पाकिस्तान में पहली बार कोई हिंदू महिला जज भी बनाई गई जो अघोषित इस्लामी देश है .ये वही पाकिस्तान है जिसमे सरदार भगत सिंह को शहीद का दर्जा दिलवाया .भगत सिंह के नाम पर लोग सड़कों पर निकल आ रहें है .भगत सिंह के नाम पर चौक बनाने की मांग भी तो नौजवानों ने ही की थी . क्या यह सब बदलाव नए नहीं हैं .ये नई पीढ़ी अब इतिहास को पढ़ रही है और दोनों देशो का इतिहास देख भी रही है .वे तुलना भी तो करते होंगे .भारत कहां से कहां पहुंच गया .शिक्षा में ,स्वास्थ्य के क्षेत्र में ,तकनीक के क्षेत्र में .और पाकिस्तान को कट्टरपंथ की कितनी कीमत चुकानी पड़ी है .ऐसी बहुत सी वजह होगी इस बदलाव के पीछे .पर अगर हम इस बदलाव को अब नहीं देख पाए ,नहीं समझ पाए तो फिर टकराव कभी खत्म नहीं होगा .जिन्हें राजनीति में पिछड़ने की आशंका है वे अब युद्ध का अंतिम हथियार निकालना चाहते हैं .पाकिस्तान बदल रहा है ,कट्टरपंथ के रास्ते से आगे बढ़ना चाहता है और हम पीछे जाने का प्रयास कर रहे हैं .मीडिया का क्या वह तो कभी सरजू लाल कर अयोध्या सामने कर देगा तो कभी भाड़े की वर्दी पहन कर सैनिक बन जाएगा .इसलिए बदलते पाकिस्तान के साथ बातचीत का रास्ता खोलना चाहिए .