Friday, September 28, 2012

वेगाटार समुन्द्र तट की एक शाम

अंबरीश कुमार पणजी से फेरी जैसे ही मांडोवी नदी पर करती है एक छोटा सा गाँव बेती आता है जहाँ से कलंगूट के लिए बस मिलती है ।पणजी और बेती के बीच मांडोवी नदी है जिसमे अरब सागर का पानी भी आ मिलता है ।इस पर एक पुल भी बना है जिसका रास्ता काफी लम्बा है जिसकी वजह से आमतौर पर लोग फेरी से बेती जाते है ।बनती से
का सफ़र करीब एक घंटे का है हालाँकि दूरी सिर्फ सोलह किलोमीटर है लेकिन यह बस हर गाँव में रुकते हुए चलती है ।रस्ते में पड़ने वाले गाँव लैंडस्केप की तरह नजर आते है ।इन गांवों का हर मकान वास्तुकला का खूबसूरत नमूना है ।आखिर गरीब लोग तो गोवा में भी है लेकिन उत्तर भारत की तरह उनके रहन सहन से गरीबी की कोई झलक नही मिलती ।चाहे ईसाई हो या हिन्दू या फिर मुसलमान सभी के घर एक जैसे और काफी साफ़ सुथरे है । घर से बाहर एक छोटा सा बगीचा और उसमे दौड़ते कुत्ते बिल्ली के बच्चे ।समूचे गोवा में लोग बिल्ली पालते है । पुर्तगाली और फ्रांसीसी वास्तुकला का असर भी देखने को मिलता है ।गाँव का कोई भी घर उजाड़ या पुराना नजर नहीं आता । रंगों का प्रयोग खूबसूरती से किया दिखता है ।गोवानी समाज अपनी इसी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है ।यहाँ का समाज न सिर्फ खुला समाज है बल्कि उसे अपनी परम्पराओं और संस्कृति से काफी लगाव है ।यह बात सभी धर्मो में बराबर है ।गोवा ही देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ सामान धार्मिक कानून लागू है ।लोगो को यहाँ धर्म संबंधी सारी आजादी भी है । यहाँ के लोगों को सबसे ज्यादा खतरा सांस्कृतिक प्रदूषण से नजर आता है यह बात कलंगूट ,वेगाटार ,अंजुना और बागा बीच जाने पर साफ़ हो जाती है । एक समय कलंगूट और अंजुना समुंद्र तट हिप्पियों के चलते रष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गए थे । हिप्पियों की अपसंस्कृति का मुकाबला गोवानी समाज ने काफी समय तक किया । आज से करीब दो दशक पहले कलंगूट का समुंद्र तट ऐसा नहीं था । शाम होते ही कलंगूट का यह छोटा सा गाँव किसी बड़े क्लब और कैसिनो में तब्दील हो जाता था । समुंद्र तट की रेट पर ही बीयर और फेनी की बोतले खुलती थी । कुकुरमुत्तों की तरह पसरे दर्जनों ढाबों में अंग्रेजी गानों की आवाज दूर तक गूंजती थी । गोवा को देखने के लिए पणजी से ओल्ड गोवा की यात्रा इतिहास में पहुँचाने वाली है । मांडोवी के किनारे किनारे सेंत आगस्टीन चर्च चर्च तक पहुँचने में कई भव्य चर्च नजर आते है । इसमे सबसे भव्य है 'बासिलिका आफ बोम जोसस '। १६ वीं शताब्दी में बने इस चर्च की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति है । इसमे सेंट फ्रांसिस जेवियर का शरीर रखा गया है ,पर यह 'ममी ' नहीं है क्योकि इसपर रसायनों का लेप या पट्टी आदि नहीं है । उसे एक शीशे के बाक्स में रखा गया है जिसको लेकर कई तरह की किवदंतियां है । यह चर्च नवजात जीसस को समर्पित किया गया है । यही वह जगह है जिसे १५१० में अफोंसों डे अल्बुकर्क ने जीत कर पुर्तगाली साम्राज्य का पूर्वी मुख्यालय बना दिया था । बासिलिका आफ बीम जोसस की यह इमारत गोथिक वास्तुकला का नायब नमूना है । इस चर्च को अब विश्व परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है । इसके आलावा कैथेड्रिल है जो एक मस्जिद की जगह बनाया गया है । यह चर्च पहले सेंट कैथरीन को समर्पित किया गया था । इसी में मशहूर गोल्डेन बेल है जिसकी आवाज कभी पणजी तक सुनी जाती थी । चर्च में लगी यह घंटी दुनिया भर में मशहूर है । कभी इसका इस्तेमाल लोगों को दुश्मनों के हमले से आगाह करने के लिए किया जाता था । इसकी एक और खासियत इसमे बनी कब्रें है जिनमे इसके वास्तुशिल्पी की कब्र भी शामिल है । यह चर्च करीब नब्बे वर्ष में बनकर तैयार हुआ जिसकी शुरुआत १५१० में हुई थी । इसके अन्दर दो बालकनी भी नजर आती है जिसमे एक शासकों के परिवार के लिए बनाई गई थी । इसके अलावा ओल्ड गोवा के प्रमुख चर्चों में सेंट फ्रांसिस आफ अस्सीसी ,काजेरान , चर्च आफ अवर लेडी आफ रोजरी और नन्री आफ शांता मोनिका भी शामिल है । गोवा के शांत खड़े चर्च सैकड़ों साल का इतिहास समेटे हुए है जिनकी भव्यता आज भी बरकरार है । चर्च के अलावा गोवा में कई मशहूर मंदिर भी है जिनमे मंगेशी और सीता दुर्गा मंदिर शामिल है । मंगेशी गाँव के पास यह मंदिर बना हुआ है । इसी गाँव के लोग आपने नाम के आगे ' मंगेशकर 'लगाते है । गोवा में चर्च है तो मंदिर मसजिद और किले भी कम नहीं । मसजिदों में १५६० में इब्राहिम आदिलशाह की बनवाई शफा मसजिद भी मशहूर है । गोवा का आगुदा फोर्ट पुर्तगालियों ने १६०९ में बनवाया हा ताकि ओल्ड गोवा को दुश्मनों के हमले से बचाया जा सके । फिलहाल यह किला जेल में तब्दील हो चुका है । इस किले के पास से पणजी का खुबसूरत दृश्य नजर आता है । फिर भी गोवा का मुख्य आकर्षण यहाँ के समुंद्र तट ही साबित होते है । वेगातार समुंद्र तट तक पहुँचते पहुँचते शाम हो जाती है । लेकिन चट्टानों पर आघात करती लहरों को हम देखते ही रह जाते । यहाँ सामने एक रेस्तरां नजर आता है । बेगाटार पणजी से २२ किलोमीटर दूर एक शांत जगह है । एक तरफ नारियल के जंगल है तो दूसरी तरफ समुंद्र । खेत काफी पीछे रह गए है । यहाँ से बागा तट का रास्ता हैरान कर देने वाला है । दूर तक फैले धान के खेतों में सड़क एक पगडंडी जैसी नजर आती है । बीच में एक जगह सड़क के दोनों ओर नारियल के पेड़ों की कतार नजर आई जिसके ख़त्म होते ही लहर जैसी कोई नदी । पुल से कुछ आगे जाने पर ही बागा तट आ जाता है । समुंद्र में डूब रहे सूरज को देखते समय आवाज थी तो सिर्फ लहरों की और अँधेरा गिरने लगा था । काफी देर बैठे रहे समुंद्र के सामने पड़े पत्थरों पर ।

बनवारी लाल शर्मा कौन थे

अरुण कुमार त्रिपाठी
कम लोग जानते हैं कि बनवारी लाल शर्मा कौन थे। जो जानते हैं उनमें से भी कम लोग उनके कामों को सफल मानने को तैयार होंगे। मुख्यधारा का मीडिया और उसकी दैनिक खुराक बन चुकी राजनीति को उनके जैसे लोगों से क्या लेना देना। हर कोई यह सवाल करने लगता है कि आखिर वैश्वीकरण और उदारीकरण का विरोध करके बनवारी लाल शर्मा ने क्या कर लिया? क्या वह नीतियां रुक गईं? क्या बहुराष्ट्रीय कंपनियां भाग गईं? क्या उदारीकरण की गति धीमी पड़ गई? इस तरह के सवालों से उनका मूल्यांकन करने वाले या तो हकीकत से मुंह चुराते हैं या अपने झूठ की आंधी चलाते रहते हैं। वे दुनिया की हकीकत से बाखबर होकर भी अपने प्रचार की झोंक में विकल्प के उन विमर्शों को भूल जाते हैं जो पूरी दुनिया में चल रहे हैं और जिनके कारण वैश्वीकरण की नीतियां आज चकरघिन्नी हो रही हैं। पर बनवारी लाल शर्मा थे इसीलिए हमारा समाज है और आगे भी रहेगा। वे चले गए इससे खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ईमानदार, कर्मठ, मेधावी व्यक्ति अपनी जितनी भूमिका निभा सकता है उतनी निभा कर वे चले गए। कल जब उनके निधन की खबर आई तो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रेम सिंह दुखी मन से कहा कि एक दिन उन्हीं की तरह हम लोग भी खामोशी से चले जाएंगे। पर मेरा मानना है कि बनवारी लाल शर्मा जैसे लोग खामोशी से नहीं गए न ही प्रेम सिंह जैसे लोगों की आवाज आसानी से खामोश होने वाली है। बनवारी लाल ने जो अलख जगाई वह जलती रहेगी और उनके नारों, विमर्शों और व्याख्यानों की आवाज देर तक गूंजती रहेगी। वह आवाज इसलिए भी गूंजती रहेगी कि उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए हो रहे वैश्वीकरण की अमानवीय नीतियों का विरोध ही नहीं मानवता के पक्ष में वैश्वीकरण किए जाने का मुकम्मल आह्वान है। बनवारी लाल कोई कूढ़ मगज और नामसझ और कोरी भावुकता वाले इंसान नहीं थे। वे गणित की ऐसी शाखा के विद्वान थे जिसको पढ़ने वाले दुनिया में कम लोग मिलते हैं। उन्होंने उसमें फ्रांस से डीएससी की थी और उनके पढ़ाए हुए छात्र आज देश दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों में गणित पढ़ाकर रिटायर भी हो चुके हैं। लेकिन उन्होंने जब देखा कि दिसंबर 1984 में आधी रात के समय यूनियन कार्बाइड नाम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने भारत के मध्य में स्थित भोपाल शहर में हजारों लोगों को मार कर और सैकड़ों लोगों को अपाहिज बना दिया और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया, उल्टे भारत सरकार उसके अधिकारी की खैरख्वाही करती पाई गई तो उनका मन विचलित हो गया। उन्होंने तभी से ठान लिया कि वे इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की करतूतों का खुलासा करते रहेंगे और उसके लिए मानवता के पक्ष में जितना बनेंगे उतना करेंगे। तब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी सत्ता में आए थे और भारत में उदारीकरण का दौर शुरू नहीं हुआ था। उनकी आशंकाएं सही निकलीं और जल्दी ही भारत ही नहीं पूरी दुनिया पर वाशिंगटन सहमति के आधार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां लागू की जाने लगीं। डंकेल का प्रस्ताव उस दिशा में लाया गया पहला दस्तावेज था। जब वह प्रस्ताव आया तो देश में जो तीन वरिष्ठ लोग मुखर रूप से उस प्रस्ताव के विरोध में आए उनमें बनवारी लाल शर्मा, किशन पटनायक और डा ब्रह्मदेव शर्मा प्रमुख थे। बाद में उसमें एक नाम प्रभाष जोशी का भी जुड़ा। प्रभाष जोशी तो पत्रकार थे लेकिन बाकी तीनों शिक्षक, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनके साथियों की अपनी अपनी टोलियां थीं। अगर किशन पटनायक के साथियों ने- गुलामी का खतरा-- नाम से पुस्तक प्रकाशित की तो बनवारी लाल शर्मा ने इलाहाबाद के कुछ साथियों की मदद से आजादी बचाओ आंदोलन की स्थापना की और-- नई आजादी उद्घोष-- के नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की। इन लोगों की विद्वता, निष्कलंक जीवन और तर्कों और तथ्यों की स्पष्टता ने देश और विशेषकर हिंदी इलाके के तमाम नौजवानों को दीक्षित कि या। उन्हीं में एक युवा राजीव दीक्षित भी थे जो अपने साम्राज्यवादी विमर्श को सांप्रदायिकता तक लेकर चले गए और बनवारी लाल शर्मा से दूर होते गए। राजीव दीक्षित और उनके जैसे युवाओं के कारण ही कई लोग बनवारी लाल शर्मा में भी सांप्रदायिकता के प्रति नरमी या उसके प्रति झुकाव देखते थे। पर उन्होंने उधर ध्यान दिए बिना अपना काम जारी रखा। आज पलट कर देखा जाए तो बनवारी लाल शर्मा अपने पीछे जनविरोधी आर्थिक नीतियों के विरोध ही नहीं विकल्प की एक लंबी और जुझारू विरासत छोड़ गए हैं। इस टिप्पणीकार से एक बार समाजवादी नेता विजय प्रताप ने- आजादी बचाओ आंदोलन- पर अध्ययन कर किताब लिखने को कहा था। वह काम नहीं हो पाया। उसका मलाल है पर एक बात की खुशी जरूर है कि इस टिप्पणीकार ने डा कमल नयन काबरा और डा एके अरुण के साथ 2001 में बनारस से जौनपुर के बीच डेढ़ सौ किमोमीटर घूम कर वह मानव श्रृंखला देखी थी जो उनके और साथियों की मेहनत से पेप्पी कोक और दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरोध के लिए बनी थी। उसके बाद उस आयोजन पर जनसत्ता के रविवारी में कवर स्टोरी भी की थी जो काफी चर्चित रही। जिसका जिक्रसमाजवादी विचारक सुरेंद्र मोहन जी रवींद्र त्रिपाठी को श्रेय देते हुए करते थे। आज बनवारी लाल जी के जीवन और उनके अथक संघर्ष की थाती को आगे बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि उन्होंने जिस सुबह का सपना देखा था उसे आने में बहुत देर नहीं है। वैश्वीकरण की लड़खड़ाती नीतियां अब दुनिया में ज्यादा दिन की मेहमान नहीं हैं। भले बनवारी जी अपने जीवन में वो मंजर नहीं देख पाए और उदारीकरण समर्थकों के ताने सुनते रहे पर उनके साथियों को वह ज्यादा दिन तक नहीं सुनने पड़ेगे। यही उनकी ताकत है यही उनकी सफलता है।

मालिक तो खूब ही कमात है, पत्रकार भाई खाली हाथ है!

मालिक तो खूब ही कमात है, पत्रकार भाई खाली हाथ है! 31 JULY 2010 5 COMMENTS अंबरीश कुमार श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का सवाल उठाया और बोर्ड ने इस सिलसिले ठोस कदम उठाने का संकेत भी दिया है : मॉडरेटर देश के विभिन्न हिस्सों में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने वाले पत्रकारों का जीवन संकट में है। चाहे कश्मीर हो या फिर उत्तर पूर्व या फिर आबादी के लिहाज से देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश। सभी जगह पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ समय में आधा दर्जन पत्रकार मारे जा चुके हैं। इनमें ज्यादातर जिलों के पत्रकार हैं। खास बात यह है कि पचास कोस पर संस्करण बदल देने वाले बड़े अखबारों के इन संवादाताओं पर हमले की खबरें इनके अखबारों में ही नहीं छप पातीं। अपवाद एकाध अखबार हैं। इलाहाबाद में इंडियन एक्सप्रेस के हमारे सहयोगी विजय प्रताप सिंह पर माफिया गिरोह के लोगों ने बम से हमला किया। उनकी जान नहीं बचायी जा सकी, हालांकि एक्सप्रेस प्रबंधन ने एयर एम्बुलेंस की व्यवस्था की पर सरकार को चिंता सिर्फ अपने घायल मंत्री की थी। कुशीनगर में एक पत्रकार की हत्या कर उसका शव फिंकवा दिया गया। गोंडा में पुलिस एक पत्रकार को मारने की फिराक में है। लखीमपुर में समीउद्दीन नीलू को पहले फर्जी मुठभेड़ में मारने की कोशिश हुई और बाद में तस्करी में फंसा दिया गया। लखनऊ में सहारा के एक पत्रकार को मायावती के मंत्री ने धमकाया और फिर मुकदमा करवा दिया। यह बानगी है उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर मंडरा रहे संकट की। बावजूद इसके पत्रकार ही ऐसा प्राणी है जिसका कोई वेतनमान नहीं, सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा नहीं। और न ही जीवन की अंतिम बेला में जीने के लिए कोई पेंशन। असंगठित पत्रकारों की हालत और खराब है। जिलों के पत्रकार मुफलिसी में किसी तरह अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं। दूसरी तरफ अखबारों और चैनलों का मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। इंडियन एक्सप्रेस समूह के दिल्ली संस्करण में छह सौ पत्रकार – गैर पत्रकार कर्मचारियों में दो सौ वेज बोर्ड के दायरे में हैं, जो महीने के अंत में उधार लेने पर मजबूर हो जाते हैं। दूसरी तरफ बाकी चार सौ में तीन सौ का वेतन एक लाख रुपये महीना है। हर अखबार में दो वर्ग बन गये है। देश भर में मीडिया उद्योग ऐसा है, जहां किसी श्रमजीवी पत्रकार के रिटायर होने के बाद उसका परिवार संकट में आ जाता है। आजादी के बाद अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों की दूसरी पीढ़ी अब रिटायर होती जा रही है। पत्रकार के रिटायर होने की उम्र ज्यादातर मीडिया प्रतिष्ठानों में 58 साल है। जबकि वह बौद्धिक रूप से 70-75 साल तक सक्रिय रहता है। जबकि शिक्षकों के रिटायर होने की उम्र 65 साल तक है। इसी तरह नौकरशाह यानी प्रशासनिक सेवा के ज्यादातर अफसर 60 से 65 साल तक कमोबेश पूरा वेतन लेते हैं। इस तरह एक पत्रकार इन लोगों के मुकाबले सात साल पहले ही वेतन भत्तों की सुविधा से वंचित हो जाता है। और जो वेतन मिलता था उसके मुकाबले पेंशन अखबार भत्ते के बराबर मिलती है। इंडियन एक्सप्रेस समूह में करीब दो दशक काम करने वाले एक संपादक जो 2005 में रिटायर हुए, उनको आज 1048 रुपये पेंशन मिलती है और वह भी कुछ समय से बंद है, क्‍योंकि वे यह लिखकर नहीं दे पाये कि मैं अभी जिंदा हूं। जब रिटायर हुए तो करीब चालीस हजार का वेतन था। यह एक उदाहरण है कि एक संपादक स्तर के पत्रकार को कितनी पेंशन मिल रही है। हजार रुपये में कोई पत्रकार रिटायर होने के बाद किस तरह अपना जीवन गुजारेगा। यह भी उसे मिलता है, जो वेज बोर्ड के दायरे में है। उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण और देना चाहता हूं, जहां ज्यादातर अखबार या तो वेज बोर्ड के दायरे से बाहर है या फिर आंकड़ों की बाजीगरी कर अपनी श्रेणी नीचे कर लेते हैं। इससे पत्रकारों का वेतन कम हो जाता है। जब वेतन कम होगा तो पेंशन का अंदाजा लगाया जा सकता है। जबकि इस उम्र में सभी का दवाओं का खर्च बढ़ जाता है। अगर बच्चों की शिक्षा पूरी नहीं हुई तो और समस्या। छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर प्रदेश तक बड़े ब्रांड वाले अखबार तक आठ हजार से दस हजार रुपये में रिपोर्टर और उप संपादक रख रहे हैं। लेकिन रजिस्टर पर न तो नाम होता है और न कोई पत्र मिलता है। जबकि ज्यादातर उद्योगों में डाक्टर, इंजीनियर से लेकर प्रबंधकों का तय वेतनमान होता है। सिर्फ पत्रकार है, जिसका राष्ट्रीय स्तर पर कोई वेतनमान तय नहीं। हर प्रदेश में अलग अलग। एक अखबार कुछ दे रहा है, तो दूसरा कुछ। दूसरी तरफ रिटायर होने की उम्र तय है और पेंशन इतनी कि बिजली का बिल भी जमा नहीं कर पाये। गंभीर बीमारी के चलते गोरखपुर के एक पत्रकार का खेत-घर बिक गया, फिर भी वह नहीं बचा। अब उसका परिवार दर दर की ठोकरें खा रहा है। कुछ ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि रिटायर होने के बाद जिंदा रहने तक उसका गुजारा हो सके और बीमारी होने पर चंदा न करना पड़े। बेहतर हो वेज बोर्ड पत्रकारों की सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा की तरफ ध्यान देते हुए ऐसे प्रावधान करे जिससे जीवन की अंतिम बेला में पत्रकार सम्मान से जी सके। पत्रकारों को मीडिया प्रतिष्ठानों में प्रबंधकों के मुकाबले काफी कम वेतन दिया जाता है। अगर किसी अखबार में यूनिट हेड एक लाख रुपये पाता है, तो वहां पत्रकार का अधिकतम वेतन बीस-पच्चीस हजार होगा। जबकि ज्यादातर रिपोर्टर आठ से दस हजार वाले मिलेंगे। देश के कई बड़े अखबार तक प्रदेशों से निकलने वाले संस्करण में पांच-दस हजार पर आज भी पत्रकारों को रख रहे हैं। मीडिया प्रतिष्ठानों के लिए वेतन की एकरूपता और संतुलन अनिवार्य हो खासकर जो अखबार संस्थान सरकार से करोड़ों का विज्ञापन लेते हैं। ऐसे अखबारों में वेज बोर्ड की सिफारिशें सख्ती से लागू करायी जानी चाहिए। एक नयी समस्या पत्रकारों के सामने पेड न्यूज़ के रूप में आ गयी है। अखबार मालिक खबरों का धंधा कर पत्रकारिता को नष्ट करने पर आमादा हैं। जो पत्रकार इसका विरोध करे उसे नौकरी से बाहर किया जा सकता है। ऐसे में पेड न्यूज़ पर पूरी तरह अंकुश लगाने की जरूरत है। खबर की कवरेज के लिए रखा गया पत्रकार मार्केटिंग मैनेजर बन कर रह जाएगा। और एक बार जो साख खतम हुई, तो उसे आगे नौकरी तक नहीं मिल पाएगी। इस सिलसिले में निम्न बिंदुओं पर विचार किया जाए… 1.) शिक्षकों और जजों की तर्ज पर ही पत्रकारों की रिटायर होने की उम्र सीमा बढायी जाए। 2.) सभी मीडिया प्रतिष्ठान इसे लागू करे, यह सुनिश्चित किया जाए। 3.) जो अखबार इसे लागू न करे, उनके सरकारी विज्ञापन रोक दिये जाएं। 4.) सरकार सभी पत्रकारों के लिए एक वेतनमान तय करे जो प्रसार संख्या की बाजीगरी से प्रभावित न हो। 5.) पेंशन निर्धारण की व्यवस्था बदली जाए। 6.) पेंशन के दायरे में सभी पत्रकार लाये जाएं, चाहे वेज बोर्ड के दायरे में हों या फिर अनुबंध पर। 7.) न्यूनतम पेंशन आठ हजार हो। 8.) पेंशन के दायरे में अखबारों में काम करने वाले जिलों के संवाददाता भी लाये जाएं। 9.) पत्रकारों और उनके परिवार के लिए अलग स्वास्थ्य बीमा और सुविधा का प्रावधान हो। 10.) जिस तरह दिल्ली में मान्यता प्राप्त पत्रकारों को स्वास्थ्य सुविधा मिली है, वैसी सुविधा सभी प्रदेशों के पत्रकारों को मिले। 11.) किसी भी हादसे में मारे जाने वाले पत्रकार की मदद के लिए केंद्र सरकार विशेष कोष बनाये। प्रमोद जोशी की पोस्ट पर इसी देना था पर लग नहीं पाया यह मोहल्ला ने भी दिया था जिससे लेकर दे रहा हूँ http://mohallalive.com/2010/07/31/journalists-plight-and-wage-board/

Tuesday, September 25, 2012

अखिलेश सरकार को कही संकट में न डाल दे दंगों की साजिश !

अंबरीश कुमार
लखनऊ,२५ सितंबर।उत्तर प्रदेश फिर बारूद के ढेर पर बैठा नजर आ रहा है । पिछले छह महीने में छह बार कट्टरपंथी ताकतें प्रदेश को मजहबी दंगों की आग में झोंकने का प्रयास कर चुकी है पर फिलहाल उन्हें यह सफलता नहीं मिली । पर पुलिस प्रशासन की भूमिका कई जगह विवादों में रही है । खास बात यह है कि इस बार प्रदेश की कट्टरपंथी हिंदू ताकतों की जगह बाहरी ताकत की भूमिका नजर आ रही है जो अल्पसंख्यकों को भड़का रही है । चाहे लखनऊ हो या मसूरी दोनों जगह अल्पसंख्यकों को मोहरा बनाने की कोशिश हुई और वे बने भी ।ख़ुफ़िया सूत्रों के मुताबिक नवरात्र के साथ ही एक बार यह कोशिश की जाएगी जब दुर्गा पूजा और दशहरा का उत्सव मन रहा होगा । फिलहाल अभी तक जिस अंदाज में पुलिस प्रशासन ने दंगों से निपटने का प्रयास किया है यदि उसमे बदलाव नहीं हुआ तो अखिलेश सरकार के दमन पर बड़ा दाग भी लग सकता है ।खास बात यह है कि इस बार जिस तरह का फसाद हो रहा है उसमे वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों एक ही भाषा बोल रहे है ।बहरहाल अब सरकार और सत्तारूढ़ दल दोनों इसे लेकर गंभीर हुए है । मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आज साफ़ कहा कि सांप्रदायिक ताकतों का मजबूती से मुकाबला किया जाएगा । समाजवादी पार्टी इसके पीछे राज्य के राजनैतिक दलों की भूमिका भले देखे पर यह साफ़ है कि कट्टरपंथी हिंदू ताकते उस तरह नजर नहीं आती जैसे पहले के दंगों में दिखाई पड़ी थी । पूर्वांचल में जहाँ योगी का दबदबा रहा है वहा अभी तक कोई ऐसी शुरुआत नहीं हुई है । गोरखपुर ,बस्ती ,बलरामपुर ,आजमगढ़ और आसपास के अन्य जिलों में इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है ।उलटे दूसरे और नए शहर निशाने पर है ।पर इन दंगों के पीछे कौन है यह सवाल पूछने पर भाकपा के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने कहा -चाहे लखनऊ हो या मसूरी ,पहली बार अल्पसंख्यक तबका आक्रामक होता नजर आ रहा है । पहले जिस तरह संघ परिवार के संगठन इस तरह की गतिविधियों में नजर आते थे वे दिख नहीं रहे ।लखनऊ में जो फसाद हुआ उसकी प्रतिक्रिया जैसी मेरी थी ठीक वही लालजी टंडन की थी । यह पहले कभी नहीं हुआ ।बहरहाल अभी तक यह मजहबी टकराव में नहीं बदला है यह गनीमत है पर अब मुख्यमंत्री को आगाह हो जाना चाहिए ।दूसरी तरफ भाजपा प्रवक्ता ह्रदय नारायण दीक्षित ने कहा -लखनऊ ,कानपुर ,इलाहाबाद और मसूरी सब जगह देख ले किसने शुरुआत की । जब किसी को यह महसूस हो जाए कि सरकार ने उन्हें छूट दे दी है तो यह होगा ही । पुलिस को जब यह सन्देश हो कि एक खास समुदाय पर कड़ाई न होने पाए तो वही होगा जो गाजियाबाद में हुआ ।यह हो सकता है कि बाहरी लोग भड़का रहे हो पर ये इतनी जल्दी भड़क क्यों जाते है । इस बीच समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में आनेवाले दिनों में सांप्रदायिक हिंसा होने की आईबी (इंटेलीजेंस ब्यूरो) की आशंका गम्भीर मामला है। समाजवादी पार्टी की सरकार इस सम्बन्ध में पहले से सचेत है क्योंकि जातीय और सांप्रदायिक ताकतें विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त खाकर कुंठित और हताश है। राज्य सरकार इन तत्वों की साजिशों को किसी भी सूरत में कामयाब नहीं होने देगी। अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही यह घोषणा की थी कि समाजवादी पार्टी सरकार में सांप्रदायिक शक्तियों को सिर उठाने का मौका नहीं दिया जाएगा। प्रदेश के किसी भी हिस्से में सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वालों के प्रति कठोरता से पेश आया जाएगा और इस सम्बन्ध में कलेक्टर और एसपी जिम्मेदार होंगे । जनसत्ता

Thursday, September 20, 2012

सुरजीत जैसी भूमिका में मुलायम

अंबरीश कुमार लखनऊ, सितंबर। मुलायम सिंह यादव अब राष्ट्रीय फलक पर वह भूमिका निभा सकते है जो कभी वीपी सिंह ,वामपंथी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से लेकर देवीलाल तक निभा चुके है । आज केंद्र की आर्थिक नीतियों के खिलाफ हुए आठ दलों के साझा प्रदर्शन ने के बाद वाम दलों के रूख से यह साफ़ हो गया है । माकपा नेता प्रकाश करात से लेकर भाकपा नेता अशोक मिश्र तक की प्रतिक्रिया साफ संकेत दे रही है कि साझा संघर्ष ,साझा कार्यक्रम के साथ एक गैर भाजपा गैर कांग्रेस विकल्प कुछ समय में आकार ले सकता है । खास बात यह है कि कोई भी हड़बड़ी में नहीं है न मुलायम और न वाम दल । प्रकाश करात ने जो कहा वही प्रदेश के वामपंथी नेताओं ने कहा । भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -सवाल सरकार गिराने का नही है बल्कि साझा कार्यक्रमों और संघर्षों के आधार पर चुनाव तक एक ठोस विकल सामने आए। इसमें कुछ समयी भी लग सकता है । आज जिस तरह समाजवादी पार्टी ने वाम दलों और अन्य दलों के साथ सड़क के संघर्ष में साथ आकर केंद्र की आर्थिक नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोला है वह एक बड़ा राजनैतिक संकेत है । प्रकाश करात ने तो कहा भी कि मुलायम सिंह संसद से सड़क तक संघर्ष का नेतृत्व करे हम साथ है । कभी इस तरह की भूमिका वीपी सिंह ,देवीलाल और सुरजीत ने निभाई थी । इस समय राजनैतिक ताकत के हिसाब से कांग्रेस और भाजपा के बाद मुलायम सिंह ही ऐसे नेता नजर आते है जो गैर भाजपा गैर कांग्रेस दलों से सकारात्मक संवाद कर सकते है । अभी तक यह दुविधा थी कि एटमी करार को लेकर सपा की भूमिका से वाम दलों की जो नाराजगी थी वह आड़े न आए । पर आज वाम दलों ने मुलायम की बड़ी भूमिका को रेखांकित भी कर दिया । वैसे भी देश के सबसे बड़े सूबे में अभूतपूर्व बंद समाजवादी पार्टी की वजह से ही हुआ जिसके कार्यकर्ताओं ने जिलों जिलों में अपनी ताकत दिखाई । दरअसल कई राजनैतिक दलों की निगाह गुजरात के चुनाव पर भी है । यही वजह है कि पहले क्षेत्रीय सालों और वाम दलों के बीच नए सिरे से संबंधो की बात हो रही है । कोई भी यह जोखम नहीं लेना चाहता है कि केंद्र से एक धर्म निरपेक्ष सरकार गिराकर भाजपा को कोई अप्रत्यक्ष लाभ लेने का मौका दिया जाए । समाजवादी पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -हम कांग्रेस की जन विरोधी और किसान विरोधी नीतियों का पुरजोर विरोध करते है पर इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसा कोई फैसला हड़बड़ी में ले ले जिससे मजहबी राजनीती करने वालों को ताकत मिले । पार्टी नेतृत्व इस बारे में सही समय पर सही फैसला लेगा । समाजवादी धारा के लोग भी मुलायम से अब बड़ी भूमिका की उम्मीद में है । किसान मंच के महासचिव और महाराष्ट्र के किसान नेता प्रताप गोस्वामी ने कहा -राष्ट्रीय स्तर पर मुलायम सिंह में ही यह माद्दा नजर है जो कांग्रेस और भाजपा को बड़ी चुनौती दे सके । दूसरे वे ग्रामीण पृष्ठभूमि के कद्दावर नेता है जैसे कभी देवीलाल थे । ऐसे में उनकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है । अब वाम दलों के रूख के बाद यह और साफ हो गया है । संघर्ष वाहिनी मंच के संयोजक राजीव हेम केशव ने कहा -मौजूदा राजनैतिक हालात में मुलायम सिंह की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है वे कांग्रेस भाजपा के खिलाफ एक राष्ट्रीय स्तर पर ठोस पहल कर नया रास्ता बना सकते । जनसत्ता

Saturday, September 15, 2012

हावड़ा ब्रिज के सामने

अंबरीश कुमार
हम जिस नदी के किनारे खड़े थे वह बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तट से १८० किलोमीटर दूर हुगली नदी के नाम से जानी जाती है और देश का सबसे बड़ा और पहला महानगर कोलकता इसके तट पर बसा है । सामने हावड़ा ब्रिज था जिसके बारे में बचपन से सुनता आ रहा था । हावड़ा ब्रिज 1943 के फरवरी महीने में तैयार हुआ था जो 2,300 फुट लंबा है. गर्मी के दिनों में इसकी लंबाई तीन फुट तक बढ़ सकती है। भागते भागते यहाँ पहुंचे पर कोलकता की सडको पर अपनी टैक्सी जिस तरह बार बार बस ,रिक्सा और ट्राम के बीच फंस रही थी उससे पहले ही आभास हो चुका था कि हावड़ा ब्रिज तक पहुँचते पहुँचते रोशनी गायब हो जाएगी । देर तो निकलते समय ही हो चुकी थी । एक वजह होटल हयात रीजेंसी में रुकना भी था जो मुख्य शहर से दूर साल्ट लेक में है जहाँ कुछ साल पहले छोटे छोटे तालाब और खेत थे ।बीच बीच में खेत तो अभी भी दिख जा रहे थे और तालाब या झील के नाम पर साल्ट लेक बची हुई है जिसके किनारे दिन में कुछ समय गुजरा था । लेक के किनारे एक प्लेटफार्म पर कुर्सियों पर तब तक बैठे रहे जबतक बरसात तेज नही हो गई । झील के किनारे एक क़तर में लगे नारियल के पेड़ तेज हवा से लहरा रहे थे और घने बादल आसमान को ढकते जा रहे थे । हटने का मन नहीं हो रहा था पर जब भीगने लगे तो शेड में आ गए पर निगाह वाही लगी रही । राजेंद्र चौधरी शिकायत कर रहे थे कि मई उनकी फोटो क्यों नहीं ले रहा हूँ खासकर इस रूमानी मौसम में जब साल्ट लेक के पानी में तेज हवा के चलते लहर भी उठ रही हो । तभी किनारे आती मोटर बोट दिखी जिस पर छाते लदे हुए थे । यह शायद वहा कुछ वरिष्ठ नेताओं को भीगने से बचाने के लिए मंगाए गए थे । हम लोग एक बड़ी छतरी के नीचे रखी कुर्सियों पर जम गए थे और चाय का इंतजार कर रहे थे । साथ आए रंजीव और भवेश ने चौधरी साहब को आवाज दी तो वे सर पर अख़बार रख कर बरसात से बचाते आए । फोटो लेने लगा तो बोले ,देखिए ऎसी फोटो आनी चाहिए कि यह साल्ट लेक समुंद्र जैसी लगे । कुछ फोटो ली तभी देखा एक मोहतरमा अपने अर्दली से फोटो लेने को कह रही थी और झील के किनारे होने की वजह से तेज हवा में उनकी जुल्फे लहरा रही थी जिसे वे बार बार हाथ से दुरुस्त कर रही थी । कई फोटो खिंचवाने के बाद उन्होंने अर्दली को अपनी कुर्सी दी और खुद मोबाइल से फोटो उतारने लगी । अद्भुत समाजवादी दृश्य था जिसे देख रुका नहीं गया और हमने इनकी फोटो भी ले ली । बाद में पता चला वे उत्तर प्रदेश के एक मंत्री की पुत्री है । तभी कुछ और पत्रकार मित्रों से मुलाकात हुई जो यहाँ कवरेज प़र आए थे । इनमे आजतक की मनोज्ञ ,हिंदुस्तान के सुहैल हामिद और सतेन्द्र प्रताप सिंह आदि शामिल थे । खैर दिन से जो बरसात शुरू हुई वह रुक रुक शाम तक चलती रही जिसके चलते हावड़ा ब्रिज पहुँचते पहुँचते अँधेरा छा गया था । साथ चल रहे भवेश ने यह भी जानकारी दी कि पूरब के इस अंचल में सुबह जल्दी और शाम भी जल्दी हो जाती है । मज़बूरी थी पर सामने हुगली को निहारते रहे तभी एक बड़ी नव दिखी तो मैंने भवेश से कहा देखे नाव जा रही है इस पर वहां बैठे एक युवक ने कहा -यह नाव नही स्टीमर है । हमें कहा हाँ ,गोवा में भी इसी तरह की फेरी से मंडोवी नदी पार की जाती है । बचपन का बड़ा हिस्सा मुंबई में गुजरा तो जवानी का दिल्ली में । कोलकता से कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया । सिर्फ बंगाली लेखकों के उपन्यासों से कोलकता को देखा था और पढ़ा था । फिर पढ़ा ' यह आधुनिक भारत के शहरों में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। १६९० में इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी "जाब चारनाक" ने अपने कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी। १६९८ में इस्ट इंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार परिवार सावर्ण रायचौधुरी से तीन गाँव (सूतानीति, कोलिकाता और गोबिंदपुर) के इजारा लिये। अगले साल कंपनी ने इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटी के रूप में करना शुरू किया। १७२७ में इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वतीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गयी। कोलकाता नगर निगम की स्थापना की गयी और पहले मेयर का चुनाव हुआ। १७५६ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कोलिकाता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम "अलीनगर" रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इस पर पुन: अधिकार हो गया। १७७२ में वारेन हेस्टिंग्स ने इसे ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दी। कुछ इतिहासकार इस शहर की एक बड़े शहर के रूप में स्थापना की शुरुआत १६९८ में फोर्ट विलियम की स्थापना से जोड़कर देखते हैं। १९१२ तक कोलकाता भारत में अंग्रेजो की राजधानी बनी रही। इसके आधुनिक स्वरूप का विकास अंग्रेजो एवं फ्रांस के उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा है। आज का कोलकाता आधुनिक भारत के इतिहास की कई गाथाएँ अपने आप में समेटे हुये है।शहर को जहाँ भारत के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रारम्भिक केन्द्र बिन्दु के रूप में पहचान मिली है वहीं दूसरी ओर इसे भारत में साम्यवाद आंदोलन के गढ़ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। महलों के इस शहर को सिटी ऑफ़ जॉय के नाम से भी जाना जाता है।' पार ऐसा कोलकता दिखा नहीं । एक दिन पहले शाम को जिस इलाके से निकले वह झुग्गी झोपड़ियों वाला वह इलाका था जो गंदगी के ढेर प़र बढ़ता जा रहा था । वैसे भी इस महानगर के मुख्य इलाके आज भी पचास साल पहले जैसे दीखते है । दिल्ली,मुंबई और बंगलूर जैसे शहर के विकसित इलाकों जैसी जगह यहाँ कम दिखती है । रोजगार की तलाश में आने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग बहुतायत में है तो उत्तर पूर्व के लोग भी अच्छी संख्या में है । बहरहाल एक बात जो अच्छी लगी वह यह कि यह शहर दिल्ली मुंबई की तरह भागता हुआ नहीं दिखता । पार्क स्ट्रीट की गलियों में तो यह उत्तर भारत के किसी आम शहर की तरह ही धीमी रफ़्तार से चलता नजर आता है तो हावड़ा ब्रिज से पहले जाम में फंसी ट्राम को देख किसी बड़े महानगर का अहसास नहीं होता । पार्क स्ट्रीट एक गली में हाथ रिक्शा चलाने वाले गोपाल से बातचीत हुई तो हमने इस तरह का अमानवीय काम करने की वजह पूछ ली तो बोले -बिहारी हो न ,जल्दी समझोगे कैसे । दस आदमी का परीवार इसी से चलता है । छह हजार से ज्यादा ऐसा रिक्शा यहाँ है ,मजाल नहीं कोई बंद करा से । भवेश ने बताया मै उत्तर प्रदेश का हूँ तो उसका जवाब था उससे क्या फर्क पड़ता है सब एक जैसे है । बाद में पता चला यह हाथ का रिक्शा चलाने से इन्हें ज्यादा पैसा मिलता है क्योकि इस प़र आभिजात्य वर्ग चलता है । कोलकता की गलियों में जब घुटने भर से ऊपर पानी आ जाए तो यही रिक्शा आराम से घर पहुंचा देता है क्योकि इसकी ऊँचाई ज्यादा होती है । मारवाड़ी महिलाओं को इसकी सवारी भी ज्यादा भाती है क्योकि उन्हें बैठने की पर्याप्त जगह भी मिल जाती है । इस हाथ रिक्शा को लेकर काफी शोर शराबा हो चुका है प़र कोई बंद नहीं कर पाया ।

Sunday, September 9, 2012

नितीश,मोदी को पीछे छोडा अखिलेश ने

अंबरीश कुमार
लखनऊ , सितंबर । सत्तर के दशक में कालेज और विश्वविद्यालयों में एक नारा चलता था ' रोजगार दो या बेरोजगारी भत्ता दो ' जिसे बाद में कुछ राज्यों ने लागू भी किया ।इन राज्यों में बंगाल ,हरियाणा और बिहार शामिल थे पर अब यह सब जगह बंद हो चुका है ऐसे में दस हजार बेरोजगार नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देकर जो शुरुआत अखिलेश यादव ने की है वह केंद्र समेत सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए एक बड़ी लकीर की तरह है ।अखिलेश यादव ने अपनी चुनावी सभाओ में जो एलान किया था उसमे एक सबसे बड़ा वादा बेरोजगारी भत्ता देने का था ।आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा भी -जो कहा था उसे पूरा किया और अन्य सभी वायदे भी पूरे होंगे । जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्त्ता महात्मा भाई ने कहा -इस कदम से अखिलेश यादव ने बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार और विकास के प्रतीक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पीछे छोड़ दिया है ।अब अन्य राज्यों के सामने यह चुनौती है कि वे अपने प्रदेश के बेरोजगार नौजवानों के लिए क्या पहल करते है । सत्ता में आने के छह महीने के भीतर उस वायदे पर पहल कर देना जिसने प्रदेश के नौजवानों को सबसे ज्यादा आकर्षित किया यकीनन अखिलेश यादव के लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है ।भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने कहा -यह तय रूप से सार्थक और ठोस पहल है । हम लोग छात्र जीवन में नारा देते थे काम दो या बेरोजगारी भत्ता दो । बाद में केरल और बंगाल में दिया भी गया पर अब देश में कही पर भी नहीं दिया जाता है इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण कदम है ।भाकपा की तरह अन्य राजनैतिक दल के नेता भी इसे बड़ा कदम मानते है पर खुलकर कुछ कहने को तैयार नहीं । इसलिए अखिलेश यादव का यह कदम राजनैतिक चुनौती के रूप में भी उभरने वाला है । संघर्ष वाहिनी मंच के राष्ट्रीय संयोजक राजीव हेम केशव ने कहा -अखिलेश यादव की इस पहल ने उन्हें देश के अग्रणी मुख्यमंत्रियों की कतार में तो खड़ा कर ही दिया है । इसे नौजवानों के बीच उनकी साख भी बड़ी है जो लोकसभा चुनाव में मदद भी करेगी । दरअसल अभी तक अखिलेश यादव की किसी भी पहल ने उन्हें राष्टीय फलक पर चर्चित नहीं किया था ।बेरोजगारी भत्ता और फिर लैपटाप की योजना उन्हें नई पहचान दिलाने जा रही है । समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा - यह तो शुरुआत हुई है डा लोहिया के सपनो को पूरा करने की । दस हजार को बेरोजगारी भत्ता दिया गया और नौ लाख नौजवानों को दिया जाएगा । बहुत से कदम उठाए जाने है । उदाहरण के रूप में देखे तो मुख्यमंत्री ने शासन सँभालते ही लोकतंत्र सेनानियों के प्रति पूर्ववत् सम्मान की भावना रखी और चुनाव घोषणा पत्र में लोकतंत्र रक्षक सेनानियों के साथ किए वायदे को निभाने में देर नहीं की। प्रदेश की राज्य सरकार ने लोकतंत्र रक्षक सेनानियों को मुफ्त सरकारी बसों से यात्रा, एक सहायक को भी साथ यात्रा की अनुमति देने, चिकित्सा सुविधा के साथ तीन हजार रूपए मासिक की पेंशन देने की भी घोषणा की है। मुलायम सिंह यादव ने अपने समय में लोकतंत्र रक्षक सेनानियों की पेंषन राशि एक हजार रूपए रखी थी। अखिलेश यादव ने इस राशि में तीन गुना बढ़ोत्तरी कर दी है। पर सरकार की सोच सिर्फ बेरोजगारी भत्ते तक ही नही है बल्कि रोजगार की तरफ भी है । आज समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि उनकी पार्टी की सरकार बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराने की भी व्यवस्था करेगी और जो रोजगार से वंचित रहेंगे उन्हें बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा। जनसत्ता

Saturday, September 8, 2012

कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग से बेनी बाबू बाहर

अंबरीश कुमार लखनऊ , सितंबर । आगामी लोकसभा के लिए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अब नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग करने जा रही है हालाँकि इस कवायद से कांग्रेस के खांटी समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा को अलग रखा गया है ।प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष निर्मल खत्री और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी यह सोशल इंजीनियरिंग करने जा रही है ।राजनीति में कभी भी कुछ नए समीकरण बन सकते है और कांग्रेस भी इस उम्मीद में है कि राष्ट्रीय स्तर पर अगर मुकाबला सीधा हुआ तो पार्टी की यह कवायद रंग लाएगी ।कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गाँधी होने पर ज्यादा फायदा कांग्रेस को होगा पर इसके लिए एक प्रभावी रणनीति और मजबूर संगठन जरुरी होगा ।इसीलिए उत्तर प्रदेश में संगठन के मोर्चे पर निर्मल खत्री के नेतृत्व में नौजवान नेताओं की दूसरी कतार खड़ी की जा रही है । इसमे अगड़े है तो पिछड़े भी ,दलित है तो ब्राह्मण राजपूत और मुस्लिम भी ।प्रदेश को आठ जोनं में बांटकर जो आठ संयोजक बनाए गए है उनमे पीएल पुनिया ,आरपीएन सिंह ,जितिन प्रसाद .रसीद मसूद ,अनुग्रह नारायण सिंह ,राजाराम पाल ,विवेक सिंह और बृजेंद्र सिंह शामिल है । कांग्रेस के मीडिया प्रभारी सिराज मेंहदी ने कहा - निर्मल खत्री संगठन के नेता रहे है और उनके नेतृत्व में पार्टी को नई ताकत मिलेगी जो कई जमीनी नेताओं को अलग अलग क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंपकर संगठन को मजबूत करने जा रहे है ।खास बात यह है कि वे प्रदेश संगठन की गुटबाजी तोड़कर पार्टी को नए रास्ते पर ले जा सकते है ।संगठन को सबसे ज्यादा नुकसान गुटबाजी से हुआ और वह ख़त्म हो गई तो हमारी ताकत और बढ़ेगी।यह पूछने पर कि बेनी बाबू को इस तरह की किसी जिम्मेदारी से दूर क्यों रखा गया ,सिराज मेहंदी ने कहा - वे कांग्रेस के कद्दावर नेता है उन्हें छोटी मोटी जिम्मेदारी में क्यों फंसाया जाए ।हालाँकि पिछली बार यानी विधान सभा चुनाव में उन्हें प्रदेश के अवध क्षेत्र की अप्रत्यक्ष जिम्मेदारी दी गई थी पर उनके बडबोलेपन के चलते फायदा कम नुकसान ज्यादा हुआ ।हो सकता है पार्टी उन्क्की प्रतिभा का इस्तेमाल इस बार राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहे क्योकि उन्होंने ही सबसे पहले यह दावा किया था कि अगला चुनाव राहुल गाँधी बनाम नरेंद्र मोदी होगा ।जिसके बाद से राजनैतिक हलकों में इस संभावना पर भी गंभीरता से बहस शुरू हुई । कांग्रेस इस समय जिस तरह की विवादों से घिरी है उसे देखते हुए पार्टी को यह रास्ता ज्यादा आसान लगता है । पर इसके लिए कांग्रेस को सबसे पहले उत्तर प्रदेश के अपने जनाधार को बचाना बड़ी चुनौती होगी । पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मुसलमानों की मुलायम सिंह से नाराजगी का जो फायदा उठाया वह विधान सभा चुनाव में पलट गया । मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा हिस्सा फिर समाजवादी पार्टी की तरफ लौट गया । अब मोदी के नाम पर कांग्रेस को उम्मीद है कि मुस्लिम एक बार फिर उसके साथ आ सकते है । हालाँकि सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी के मुताबिक लोकसभा चुनाव में सपा को सबसे ज्यादा फायदा होगा और मुसलमान पूरी ताकत से मुलायम सिंह के साथ खड़ा रहेगा । भ्रष्टाचार का मुद्दा प्रभावी होगा और कांग्रेस व भाजपा क और नुकसान उठाना होगा । जाहिर है ऐसे हालात में कांग्रेस के लिए भी चुनौती बहुत कड़ी है । जनसत्ता

Tuesday, September 4, 2012

बर्फ में वे दस दिन

अंबरीश कुमार
श्रीनगर के हब्बाकदल में राजा घर जो रुके तो दस दिन तक रुकना पड़ा क्योकि जम्मू श्रीनगर राजमार्ग भारी बर्फ़बारी के चलते बंद हो गया था । पर इतने समय में ध्रीनगर को जमकर देखा । मंदिर मस्जिद ,झील झेलम और मुग़ल बादशाहों के बाग़ । शाहजहां ने चश्म-ए-शाही बाग़ बनवाया जहाँ एक चश्मे के आसपास हरा-भरा बगीचा है। पास ही शिकोह का परी महलसे लेकर निशात बाग हैं तो जहाँगीर का बनवाया हुआ शालीमार बाग जो नूरजहां को समर्पित था । यह बाग़ नही मुग़ल बादशाहों के प्रकृति प्रेम और रोमांस के स्मारक की तरह नजर आते है । जहाँ पहुंचकर ऐसा लगता है मानो आप किसी चित्रकला के भीतर पहुँच गए है । इन बागों को जिस खूबसूरती से बनाया गया वह हैरान करता है । हरे भरे पेड़ पौधों के साथ बहता पानी और दूर तक जाती बर्फीली चोटिया । यही पर 1623 में सादिक खान का बनवाया बगीचा और ईशरत महल है तो मशहूर हजरतबल मस्जिद जो डल झील के किनारे है। दूसरी तरफ समुद्र तल से 1100 फीट की ऊंचाई पर बना शंकराचार्य मंदिर है। शहर से करीब दस किलोमीटर दूर निशात बाग़ 1633 बनाया गया था जहाँ से डल झील देखते बनती है । कश्मीर में जब बर्फ पड़ी हो तो सब कुछ सदेद ही दिखता है । बाग बगीचे से लेकर घर तक पर बर्फ की चादर लिपटी नजर आती है । लाल चौक के पास एक घर के ऊपर जमी बर्फ को हटाने के लिए लोग काफी मशक्कत करते नजर आए । दिसंबर का महीना और कड़ाके की ठंड । बचे सिर्फ इसलिए रहे क्योकि राजा ने स्वेटर से लेकर ओवरकोट तक दे दिया था ।अपने पास और कोई काम नहीं था सिर्फ इसके कि बस अड्डे जाकर सड़क खुलने की जानकारी लेना और फिर जगह जगह घूमना । रात में खाने के समय समूचा परिवार एक साथ जमीन पर बैठ कर खाना खाता था और कई विषयों पर चर्चा होती थी खासकर कश्मीरी पंडितों के रीत रिवाज पर । बहुत कुछ जानने को भी मिला । रात में खाने के बाद जब सोने जाते तो पहले लिहाफ के भीतर कांगड़ी रखकर उसे गर्म किया जाता ।लिहाफ भी काफी भारी और तीन तरफ से मोड़कर बंद किया हुआ ताकि ठंडी हवा न जा सके । सोते समय भी वे लोग लिहाफ के भीतर कांगड़ी रखने को दे देते पर मुझे कांगड़ी के साथ सोना रास नहीं आया ।वहा सुबह सात बजे तक अँधेरा रहता था और मुझे रोज सुबह उठकर बस का पता करना पड़ता था । खैर चाय और कहवा के साथ सुबह होती तो देखता परंपरागत तरीके से पानी गर्म कर हर सदस्य को दिया जाता था । ठंढे पानी में हाथ भी नहीं डाल सकते थे । नाश्ता करने के बाद राजा दफ्तर जाते समय मुझे भी ले जाते जहाँ से मै घूमने निकल जाता । राजा की मम्मी यानी रानी आंटी से अपने लोगों का पारिवारिक संबंध था जो लखनऊ में थी और कश्मीरी व्यंजनों का स्वाद मुझे उन्ही के हाथ से मिला था । कश्मीरी त्योहारों के बारे में भी इसी परिवार से जानकारी मिली । कश्मीर में राजा के मामा से दोस्ती हो गई जो अपने गाइड भी थे । वे बर्फ गिराने के बावजूद फेरन के भीतर कांगड़ी लेकर मुझे काफी हाउस लेकर जाते । पहली बार किसी काफी हाउस में मैंने गद्दे के परदे देखे । बताया गया कि हाड कंपा देने वाली सर्द हवा को रोकने के लिए मोटे गद्दे वाले परदे टांगे गए है ।काफी हाउस के भीतर फायर प्लेस में लकड़ी के मोटे लठ्ठे सुलगते नजर आते जिसकी वजह से भीतर का तापमान गर्म रहता । काफी हाउस में आमतौर पर राजनैतिक बहस का लम्बा दौर चलता और फेरन पहने लोग हाथ में अख़बार मोड़कर आते दिखते । अपन भी रात आठ बजे तक काफी हाउस में जमे रहते और फिर घर लौट जाते । दसवें दिन खबर मिली कि रास्ता साफ होगया है और सुबह जम्मू के लिए बस सेवा शुरू हो जाएगी । खैर वे दस दिन आज भी नहीं भूलते है ।

Monday, September 3, 2012

तीसरी ताकतों से आशंकित है कांग्रेस और भाजपा

अंबरीश कुमार लखनऊ, सितबंर।तीसरे विकल्प को लेकर सबसे ज्यादा आशंकित कांग्रेस और भाजपा है जो लगातार इन्हें ख़ारिज करने में एक दूसरे को पीछे छोड़ रही है । जबकि वामदल अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में पहले ही यह साफ़ कर चुके है कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करना है और भाजपा को सत्ता में आने नही देना है ।जाहिर है ऎसी कोई भी पहल जो कांग्रेस और भाजपा को सत्ता में आने से रोके उस पर सवाल खड़ा कर उनकी साख ख़राब करने में दोनों राष्ट्रीय दल पीछे नहीं रहना चाहते ।वामपंथी समाजवादी धारा के लोगो का मानना है कि उत्तर प्रदेश में जिस तरह भाजपा और कांग्रेस का घमंड टूटा है वह आने वाले दिनों का भी संकेत दे रहा है । इस बार केंद्र की राजनीति में भी राजनैतिक समीकरण बदलेंगे और सत्ता की चाभी तीसरी ताकतों के हाथ होगी । भाकपा नेता अशोक मिश्र ने कहा -वाम दलों का साफ रुख है कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करना है और भाजपा को सत्ता में आने नही देना है । पटना के राष्ट्रीय महाधिवेशन में भाकपा ने यह साफ़ निर्णय लिया तो तमिलनाडु सम्मलेन में माकपा का भी यही रुख था । अब साफ़ लग रहा है कि कांग्रेस के हाथ से सत्ता जा रही है तो भाजपा के हाथ आ भी नहीं रही ।ऐसे में जोड़तोड़ के सहारे सत्ता में आने का सपना देखने वाली पार्टियाँ किस तरह तीसरी ताकतों को बर्दाश्त कर सकती है ।यही वजह है कि वे तीसरे विकल्प के नाम से भड़क जाती है । दूसरी तरफ फॉरवर्ड ब्लाक के प्रदेश अध्यक्ष राम किशोर ने कहा -ये दोनों दल यानी कांग्रेस और भाजपा इस देश में भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी है । जबकि वाम दलों के राज वाले केरल और बंगाल में हमारे किसी नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप कोई नहीं लगा सकता । ये तो काजल की कोठरी में बैठे है । इनके हाथ सत्ता भी नहीं आनी ऐसे में वे किसी तीसरे विकल्प की बात पर इनका भडकना स्वभाविक है । इससे इनकी हताशा को भी समझा जा सकता है । गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव साफ कर चुके है कि लोकसभा चुनाव में संख्या का राजनैतिक समीकरण बनेगा इसलिए पहले संख्या आ जाए फिर सब साफ़ हो जाएगा । पर समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेद्र चौधरी के मुताबिक देश तीसरे नंबर की पार्टी सपा होगी । साफ है समाजवादी पार्टी सत्ता की चाभी अपने हाथ में ही मानती है । चौधरी ने कहा -जिस तरह अब चुनावी घोषणाओं पर अमल शुरू हुआ है वह कुछ ही समय में महौल बदल देगा ।राजनैतिक टीकाकार सीएम शुक्ल ने कहा - जो माहौल दिख रहा है उसमे न कांग्रेस सत्ता में लौटती नजर आ रही है और न भाजपा बहुत ज्यादा बढ़ती । ऐसे में राजनैतिक समीकरण वाम ताकतों और क्षेत्रीय ताकतों के हाथ में ही जाता दिख रहा है ।

Sunday, September 2, 2012

क्या समाजवादी मोर्चा बना पाएंगे मुलायम !

अंबरीश कुमार
लखनऊ, सितबंर। देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में एक गैर कांग्रेस और गैर भाजपा विकल्प को लेकर अन्य राजनैतिक धाराओं के कार्यकर्ताओं के बीच सुगबुगाहट तेज होती जा रही है जिसमे बिहार से लेकर ओड़िसा तक विभिन्न जन आंदोलनों के कार्यकर्त्ता भी शामिल है । खास बात यह है कि तीसरे खेमे के नेतृत्व के नाम पर मुलायम सिंह यादव का नाम चर्चा में आ रहा है पर उनका आंदोलनकारी जमात से फिलहाल कोई संवाद नहीं है और उनका रुझान दलीय धुर्वीकरण की तरफ ज्यादा है । जबकि बड़े बदलाव के लिए इन ताकतों को एकजुट करने से समाजवादी पार्टी का दायरा और व्यापक हो सकता है । राजनैतिक हलकों में माना जा रहा है कि संसद में धरना देकर मुलायम सिंह ने पहली बार कांग्रेस को चुनौती देने का सन्देश दिया है जिससे उनकी साख बढ़ी पर अगर इसके आगे वे नहीं बढे तो ज्यादा दूर तक की राजनीति नहीं हो पाएगी । उनसे लोग बड़ी भूमिका की उम्मीद कर रहे है जैसे कभी देवीलाल ,वीपी सिंह या एनटी रामराव जैसे नेताओ से की थी ।क्यों नहीं वे सभी समाजवादी ,गाँधीवादी और क्षेत्रीय ताकतों का मोर्चा बनाने की दिशा में पहल करते है । पार्टी उत्तर प्रदेश के साथ जबतक अन्य राज्यों में अपनी ताकत नही बढ़ाएगी तबतक उसकी क्षेत्रीय पहचान ही बनी रहेगी । मुलायम सिंह के साथ रहे मध्य प्रदेश के किसान नेता डा सुनीलम के मुताबिक देश में जिस बड़े पैमाने पर गांधीवादी, सर्वोदयी संस्थाएं काम करती हैं यदि वे समाजवादियों के साथ खड़ी हो जाएं तो देश को हिलाने का काम कर सकती है।सुनीलम की यह टिपण्णी महत्त्वपूर्ण है क्योकि आज समाजवादी धारा की सबसे बड़ी पहचान मुलायम सिंह ही है जो गैर कांग्रेस और गैर भाजपा किसी नए धुर्वीकरण को आकर दे सकते है । पर इसके लिए उन्हें अन्य दूसरे राज्यों में अपना जनाधार बढ़ाना होगा या समाजवादी ,गांधीवादी धारा के साथ अन्य जनसंगठनों को एकजुट कर उन्हें ताकत देनी होगी जो ज्यादा आसान रास्ता है । दूसरी तरफ संघर्ष वाहिनी मंच के संयोजक राजीव हेम केशव ने कहा - पिछले छह महीने की राजनीति में पहली बार बड़ा राजनैतिक सन्देश मुलायम सिंह ने संसद में धरना देकर दिया वर्ना वे कांग्रेस के संकटमोचक ही बने हुए थे । दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की सरकार का अभी कोई राष्ट्रीय स्तर का राजनैतिक संदेश नहीं गया है और सभी कुछ दिन और इंतजार भी कर रहे है । पर मुलायम सिंह को तो अब बड़ी भूमिका का कोई संदेश तो देना ही होगा । उनसे लोग अब देवीलाल या रामराव जैसी भूमिका की उम्मीद कर रहे है ।वे क्यों नहीं समाजवादी ताकतों के साथ अन्य धर्म निरपेक्ष ताकतों का मोर्चा बनाते है । नाम तो कोई भी हो सकता है ।वे कई नई पहल कर सकते है ।देश में ऐसे बीस पच्चीस संसदीय क्षेत्र है जहाँ से दिग्गज समाजवादी नेता चुनाव जीतते रहे है । महाराष्ट्र तो समाजवादी आन्दोलन का गढ़ रहा है । यदि समाजवादी धारा के इन गढ़ों में फिर से जान फूंकी जाए तो समाजवादी आंदोलन की एक राष्ट्रीय पहचान तो स्थपित हो ही सकती है । दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा -समाजवादी आन्दोलन के लोगों को यह तो समझना चाहिए कि आज समाजवाद की धारा को संघर्ष कर जिन्दा रखने का काम मुलायम सिंह ने ही किया है । विचार के साथ जबतक जमीनी संघर्ष नहीं होगा कुछ नहीं हो सकता । देश के सबसे बड़े सूबे में समाजवादी धारा की सरकार मुलायम सिंह ने ही बनाई है और वे अब राष्ट्रीय फलक पर इसका विस्तार देने की कवायद में जुटे है । पार्टी कुछ ही दिनों में बड़ा राजनैतिक संदेश अपने कार्यक्रमों पर अमल कर देगी । जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्त्ता महात्मा भाई ने कहा -आज देश में कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जो समाजवादी धारा या अन्य धर्म निरपेक्ष ताकतों को जोड़ सके । हालाँकि मुलायम सिंह चाहे तो वे इस दिशा में पहल कर समाजवादी आंदोलन को ताकत दे सकते है । दलीय राजनीति में मुलायम या नीतीश ही ऐसे नेता नजर आते है जिनसे राष्ट्रीय स्तर पर लोग अपेक्षा कर सकते है । दुर्भाग्य की बात यह है कि जयप्रकाश ,मधु दंडवते से लेकर किशन पटनायक जैसे नेता के गढ़ में भी आज कोई समाजवाद का झंडा उठाने वाला नहीं है । इस दिशा में यदि कुछ हो सके तो यह समाजवादी आन्दोलन को ताकत देगा ।

Saturday, September 1, 2012

दस महीने से बीस कदम नही चली फ़ाइल

अंबरीश कुमार
लखनऊ , सितंबर । जौनपुर जिले में दस महीने से एक फ़ाइल बीस कदम का सफ़र नही तय कर पा रही है क्योकि उसका किराया डेढ़ हजार रुपया माँगा गया था । इसी तरह सीतापुर के सकरन थाना में एक विकलांग गरीब जब अपनी चौदह साल की बेटी के बलात्कार की फ़रियाद के लिए कागज पतर लेकर कुछ मील दूर एसपी के दफ्तर से लेकर राजधानी तक दौड़ रहा है पर उसका भी कागज कही आगे नहीं बढ़ पा रहा । शुक्रवार को इस फरियादी को हरैया की बाजार में दोनों बदमाश मिले और बोले -साले लखनऊ बहुत दौड़ रहे हो ,जान से मार डालब । दो दिन पहले ही यह सत्तारूढ़ दल यानी समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में अपनी फ़रियाद लेकर गया था उसके बाद बदमाशो ने फिर जान से मारने की धमकी दी । इससे पहले जब यह फरियादी सीतापुर के सकरन थाना में अपनी चौदह साल की बेटी के बलात्कार की रपट दर्ज करने कई बार गया तो दिलीप कुमार नामक पुलिस वाले ने कहा -अब आए तो यही थाने में पेट्रोल डालकर फूंक दूंगा । यह दोनों घटनाएँ गाँव देहात में पुलिस प्रशासन के कामकाज की एक बानगी है । इन घटनाओं को देख मशहूर लेखक श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी का एक किरदार लंगड़ याद आता है जो नक़ल के लिए दौड़ता रहता है । पहली घटना जौनपुर जिले के बदलापुर तहसील से करीब दो कोस की दूरी पर स्थित पूरालाल गाँव की है । इस गाँव में मशहूर चित्रकार चंचल ने कुछ समय पहले बच्चों के लिए एक पुस्तकालय खोलने की योजना बनाई । पुस्तकालय का नाम है समताघर पुस्तकालय पूरालाल। इसके लिए समताघर ने एक जनप्रतिनिधि सांसद धनंजय सिंह से संपर्क साधा तो उन्होंने सांसद निधि से दो कमरों के लिए पांच लाख आवंटित कर दिया । फ़ाइल विकास भवन में आ गयी .यह वाकया दस माह पुराना है .तब से फ़ाइल चल रही है .जिस डीलिंग क्लर्क से यह फ़ाइल शुरू होती है वह एक सामाजिक प्राणी है ,उसने समाज के तौर तरीके के मुताबिक़ कहा ,-कुल डेढ़ दो हजार लगेगा सब हो जाएगा । पर समताघर ने तय किया कि न देंगे न लेंगे बस बात बिगड गयी । हर तीसरे दिन समता घर को कोइ न कोइ कागज जमा करना पड़ता ।कागज जमा करते गए .और फ़ाइल फूल गई ।चंचल ने कहा -इस बीच पता चला कि परियोजना अधिकारी का तबादला हो गया है नए साहब आ रहें हैं ।.नए साहब .वो सरकारी जाति के हैं ,सरकार के मुताबिक़ काम करते हैं ,कलेक्टर से बात हुई तो उन्होंने क्लर्क का नाम पूछा हमने कहा छोटा नौकर है मारा जाएगा ।.कलेक्टर ने कहा मै देखता हूँ ।.तब से वे देख रहें हैं ।हालाँकि कलेक्टर के दफ्तर और परियोजना अधिकारी के दफ्तर का फासला सिर्फ बीस कदम का है । दूसरी घटना सीतापुर की है । सीतापुर के सकरन थाना से करीब तीन मील की दूरी पर बसा है देवमान बेलवा गाँव । गाँव में ज्यादातर लोग लोनिया ,चमार और पासी बिरादरी के है । यही करीब पैतालीस साल का सुरेश रहता है जिसके पास ढाई बीघा खेत है पास के स्कूल में तो मिड डे मील बनाने का काम मिला हुआ है । उसकी चौदह साल की बेटी जब शाम के समय खेत में गई हुई थी तभी गाँव के दो बिगड़े हुए युवको ने उसके साथ बलात्कार किया । सुरेश जब थाने गया तो थाने में वही हुआ जो आमतौर पर पुलिस करती है । थानेदार ने रपट न लिखाने की सलाह देते हुए समझाया कि गाँव का मामला है इस सब चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए । लड़की को अलग धमकाया गया । तबसे सुरेश दौड़ रहा है । काभी थाने तो कभी एसपी के दफ्तर । बाद में उसे बताया गया सूबे में समाजवादी सर्कार है जो वंचितों को इंसाफ दे सकती है । वह सपा मुख्यालय पहुंचा और अपना कागज देकर फ़रियाद की । दफ्तर के रजिस्टर में उसका ब्यौरा लिख लिया गया । गाँव लौटा और जब बाजार पहुंचा तो दोनों बदमाश कमलेश और बिहारी बोले ,बहुत चक्कर काट रहे हो काट डालूँगा और पुलिस कुछ नहीं करेगी । सुरेश ने जनसत्ता से कहा - जब पुलिस बदमाश का साथ दे तो कौन हिफाजत करेगा । अब तो नेता जी यानी मुलायम सिंह के यहाँ भी गुहार लगा चुके है ।इस घटना से साफ़ है कि जिलों तक इस सरकार की आवाज और धमक पहुँच नहीं पा रही या फिर कुछ अफसर नौजवान मुख्यमंत्री की छवि पर बट्टा लगाने की कोशिश कर रहे है ।जनसत्ता

बर्फ से ढकी झेलम के हाउसबोट पर

अंबरीश कुमार
बात पुरानी है । किसी काम से दूसरी बार पठानकोट तक गया था तो वहां से घूमते हुए जम्मू पहुँच गया । जम्मू और श्रीनगर दोनों जगह अपने बचपन के मित्र थे । पता चला जम्मू से रात भर में श्रीनगर पहुंचा जा सकता है । अकेले था इसलिए जाने का फैसला आनन् फानन में कर लिया । देर शाम एक खटारा सी बस मिल गई जिसपर बैठते ही काफी थके होने की वजह से नींद भी आ गई । अचानक ठंढ और तेज हवा चलने जैसी आवाज से नींद खुली तो चारो और सफेदी नजर आई । बगल के मुसाफिर ने बताया पटनीटाप आ गया है और भारी बर्फबारी की वजह से बर्फ रुक गई है । अपने पास कुल एक हाफ स्वेटर था जिसे निकाल लिया । जीवन में पहली बार बर्फ गिरते देख रहा था । बहार निकला तो महसूस हुआ कोई रुई के फाहे ऊपर फेंक रहा है । पास ही चाय की दुकान पर लोग इकठ्ठा रहे । चाय पी गई और कुछ देर बाद बस चल पड़ी । आँखों में नीद भारी थी और बगल वाले ने तरस खाकर कम्बल दे दिया जिससे गरमी मिली और फिर उठे तो बताया गया जवाहर टनल के आगे बर्फ के चलते रास्ता बंद है । वही पास के ढाबे में चाय और अंडा पराठा का नाश्ता हुआ और तबतक बर्फ साफ़ करने वाले कर्मचारियों ने रास्ता साफ़ कर डाला था । चारो और बर्फ और खाई में गिरे ट्रक भी नजर आ रहे थे जिनसे गिरा सेव बिखरा हुआ था । सफ़र फिर शुरू हुआ और दोपहर तक श्रीनगर पहुंचे तो अभिभूत थे । यह वाही जगह थी जिसे देख मुगल बादशाह जहांगीर ने कहा था ‘गर फ़िरदौसे बर रुए ज़मीन अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त.’ मतलब ‘यदि जमीन पर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है। अब हम स्वर्ग में थे और एक ही दिन रुक कर वापस लौटना चाहते थे इसलिए हाउसबोट तलाशने लगे तो किसी ने झेलम का रास्ता बता दिया और मोलभाव कर एक हाउसबोट में रुक गए । जिसके बारे में लिखा हुआ मिला 'आज हाउसबोट एक तरह की लग्जरी में तब्दील हो चुके हैं और कुछ लोग दूर-दूर से केवल हाउसबोट में रहने का लुत्फउठाने के लिए ही कश्मीर आते हैं। हाउसबोट में ठहरना सचमुच अपने आपमें एक अनोखा अनुभव है भी। पर इसकी शुरुआत वास्तव में लग्जरी नहीं, बल्कि मजबूरी में हुई थी। कश्मीर में हाउसबोट का प्रचलन डोगरा राजाओं के काल में तब शुरू हुआ था, जब उन्होंने किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा कश्मीर में स्थायी संपत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय कई अंग्रेजों और अन्य लोगों ने बडी नाव पर लकडी के केबिन बना कर यहां रहना शुरू कर दिया। फिर तो डल झील, नागिन झील और झेलम पर हाउसबोट में रहने का चलन हो गया। बाद में स्थानीय लोग भी हाउसबोट में रहने लगे। आज भी झेलम नदी पर स्थानीय लोगों के हाउसबोट तैरते देखे जा सकते हैं। ' बर्फ इस कदर फैली हुई थी कि झेलम पर बने लकड़ी का पुल पर करने के बाद कई बार फिसले और गिरे भी । रहने की जगह जब मिल गई तो अपने मित्र राजेंद्र कौल को तलाशने निकला जो श्रीनगर दूरदर्शन में कैमरामैन थे । दूरदर्शन परिश्र परिसर में पहुँचने पर पता चला वे घर जा चुके है जो हब्बाकदल में है । इस बीच फिर बर्फ गिरने लगी थी और भूख भी लग रही थी । लाल चौक में काफी हाउस दिखा तो कुछ देर वहा बैठे भी क्योकि बहार कड़ाके की ठंढ भी थी । शाम अँधेरे इ बदल चुकी थी और बर्फ के बीच बरसात भी । हब्बाकदल की गलियों में राजा का घर तलाशते तलाशते रात के आठ बज गए । खैर तीन मंजिल का लकड़ी का वह घर मिल ही गया । भीगने और अँधेरे की वजह से राजा एकदम से पहचान नहीं पाया और फिर जैसे समझ आई गले से लिपट चुके थे । वह हैरान इस आंधी पानी में मै कैसे यहाँ पहुँच गया । फिर अपने कपडे दिए और बोला -पहले बोट से सामान लाते है । बहुत मना किया पर माना नहीं । एक ऑटो लिया और बरसात में झेलम के हाउस बोट पर पहुँच गए । उसका भुगतान किया और सामान लेकर राजा के घर में । थोड़ी देर बाद खाने का बुलावा आया । सबसे ऊपर की मंजिल में नीचे ही समूचा परिवार बैठा था और बड़ी गोल थाली में तरह तरह के व्यंजन । इन दोनों कश्मीरी परिवारों से बचपन से सम्बन्ध रहा है इसलिए कहवा ,रोगन होश से लेकर 'हाक ' जैसे साग से पहले से वाकिफ था । कश्मीरी लोग तेल घी का ज्यादा इस्तेमाल करते है और मांस उनके भोजन का अनिवार्य अंग भी होता है । गुस्तावा के बारे में तो तब पता चला जब छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी ने दावत पर बुलाया और हिन्दू की आरती धर से कश्मीरी व्यंजनों पर लम्बी चर्चा की । जोगी भी खाने के बहुत शौकीन है और एक ज़माने में शिकार भी करते थे तब कोई प्रतिबन्ध नहीं था । खैर खाने पर राजा के परिवार की आवभगत हमेशा याद आती है । जारी