Sunday, February 19, 2012

लो जंगल में फिर दहका बुरांश


नैनीताल से प्रयाग पाण्डे
बसंत और फूल एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ फूल है, वहां बारहों महीने बसंत है। बसंत है, तो फूल हैं। फूल बसंत ऋतु के द्योतक है। वनों को प्रकृति का श्रृंगार कहा जाता है। वनों के श्रृंगार से आच्छादित प्रकृति बसंत ऋतु में रंग-बिरंगे फूलों के नायाब गहनों से सज-संवर जाती है। फूलों का यह गहना प्रकृति के सौंदर्य में चार चाॅद लगा देता है। प्रकृति के हरे परिवेश में सूर्ख लाल रंग के फूल खिल उठे हों तो यह दिलकश नजारा हर किसी का मन मोह लेता है।उतराखंड के हरे-भरे जंगलों के बीच चटक लाल रंग के बुरांश के फूलों का खिलना पहाड़ में बसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। बसंत के आते ही इन दिनों पहाड़ के जंगल बुरांश के सूर्ख लाल फूलों से मानो लद गये है। बुरांश ने धरती के गले को पुष्पाहार से सजा सा दिया है। बुरांश के फूलने से प्रकृति का सौंदर्य निखर उठा है।
बुरांश जब खिलता है तो पहाड़ के जंगलों में बहार आ जाती है। घने जंगलों के बीच अचानक चटक लाल बुरांश के फूल के खिल उठने से जंगले के दहकने का भ्रम होता है। जब बुरांश के पेड़ लाल फूलों से ढक जाते है तो ऐसा आभास होता है कि मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। बुरांश को जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है।उŸाराखण्ड के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में बुरांश का महत्व महज एक पेड़ और फूल से कहीं बढ़कर है। बुरांश उŸाराखण्ड के लोक जीवन में रचा-बसा है। बुराॅश महज बसंत के आगमन का सूचक नहीं है, बल्कि सदियों से लोक गायकों, लेखकों, कवियों, घुम्मकडों़ और प्रकृति प्रेमियांे की प्रेरणा का स्रोत रहा है। बुराॅश उतराखंड के हरेक पहलु के सभी रंगों को अपने में समेटे है।
हिमालय के अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन, प्रियसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन हो या विरह सभी प्रकार के लोक गीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुराॅश है। उतराखंड के कई लोक गीत बुरांश के इर्द-गिर्द रचे गये है। विरह गीतों की मुख्य विषय-वस्तु बुरांश ही है। पहाड़ में बुरांश के खिलते ही कई भूले-बिसरे लोक गीत एकाएक स्वर पा जाते है। “उ कुमूॅ य जां एक सा द्यूं प्यार सवन धरती मैं, “उ कुमूॅ य जां कुन्ज, बुंरूस, चम्प, चमेलि, दगडै़ फुलनी। “
बुरांश का खिलना प्रसन्न्ाता का द्योतक है। बुराॅश का फूल यौवन और आशावादिता का सूचक है। प्रेम और उल्लास की अभिव्यक्ति है। बुराॅश का गिरना विरह और नश्वरता का प्रतीक है। बुराॅश रहित जंगल कितने उदास और भावशून्य हो जाते है। इस पीडा़ को लोकगीतों के जरिये बखूबी महसूस किया जा सकता है।
बुराॅश के फूल में हिमालय की विराटता है। सौंदर्य है। शिवजी की शोभा है। पार्वती की झिलमिल चादर है। शिवजी सहित सभी देवतागण बुरांश के फूलों से बने रंगों से ही होली खेलते है। लोक कवि चारू चन्द्र पाण्डे ने लिखा यह बुराॅश आधारित होली गीत लोक जीवन में बुराॅश की गहरी पैंठ को उजागर करता है- “बुरूंशी का फूलों को कुम-कुम मारो, डाना-काना छाजि गै बसंती नारंगी। पारवती ज्यूकि झिलमिल चादर, ह्यूं की परिन लै रंगै सतरंगी। लाल भई छ हिमांचल रेखा, शिवजी की शोभा पिङलि दनिकारी। सूरजा की बेटियों लै सरग बै रंग घोलि, सारी ही गागरि ख्वारन खिति डारी,...।“
बुराॅश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्य बोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोक गीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुराॅश बना। वहीं पहाड़ के रोजमर्रा के जीवन में बुरांश किसी वरदान से कम नहीं है। बुरांश के फूलों का जूस और शरबत बनता है। इसे हृदय रोग और महिलाओं को होने वाले सफेद प्रदर रोग के लिए रामबाण दवा माना जाता है। बुरांश की पत्तियों को आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। बुराॅश की लकडी़ स्थानीय कृषि उपकरणों से लेकर जलावन तक सभी काम आती है। चैडी़ पत्ती वाला वृक्ष होने के नाते बुरांश जल संग्रहण में मददगार है। पहाडी़ इलाकों के जल स्रोतो को जिंदा रखने में बुरांश के पेडा़े का बडा़ योगदान है। इनके पेडा़े की जडे़ भू-क्षरण रोकने में भी असरदार मानी जाती है।
भारत में बुराॅश के पेड़ उतराखंड और हिमांचल प्रदेश में 1800-3600 मीटर की मध्यम ऊँचाई वाले मध्य हिमालयी क्षेत्र में पाये जाते है। उŸाराखण्ड सरकार ने बुराॅश को राज्य वृक्ष घोषित किया है। नेपाल में बुरांश के फूल को राष्ट्रीय फूल का औहदा हासिल है। बुराॅश सदाबहार पेड़ है। बुरांश बुके पेड़ भारत के अलावा नेपाल, बर्मा, श्रीलंका, तिब्बत, चीन, जापान आदि देशों में पाये जाते है। अंग्रेज इसे रोह्डोडेन्ड्रान कहते है। इस पेड़ की विश्व में एक सौ से ज्यादा प्रजातियाॅ है। प्रजाति और ऊँचाई के आधार पर बुरांश के फूलों का रंग भी अलग-अलग होता है। सूर्ख लाल, गुलाबी, पीला और सफेद। ऊँचाई बढ़ने के साथ बुराॅश का रंग भी बदलता रहता है। कम ऊँचाई वाले इलाकों में बुरांश के फूल का रंग लाल होता है। जबकि अधिक ऊँचाई वाले इलाकों में बुरांश के फूल का रंग सफेद होता है।
दुर्भाग्य से पहाड़ मंे बुरांश के पेड़ तेजी के साथ घट रहे हैं। अवैध कटान के चलते कई इलाकों में बुराॅश लुप्त होने के कगार पर पहुॅच गया है। नई पौधंे उग नहीं रही है। जानकारों की राय में पर्यावरण की हिफाजत के लिए बुराॅश का संरक्षण जरूरी है। अगर बुरांश के पेडों़ के कम होने की मौजूदा रफ्तार जारी रही तो आत्मीयता के प्रतीक बुरांश के फूल के साथ पहाड़ के जंगलों की रौनक भी खत्म हो जाएगी। बुरांश सिर्फ पुराने लोकगीतों में ही रह जाएगा। बसंत ऋतु फिर आएगी। बुरांश विहीन पहाड़ में बसंत के क्या मायने रह जाएगें। नीरस और फीका बसंत।
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