Wednesday, September 26, 2018

काकपिट में मटका!

काकपिट में मटका! अंबरीश कुमार अस्सी के दशक में एयर इंडिया /इंडियन एयरलाइन्स की कई नियमित उड़ान के पायलट रहे .मुख्य रूट था कलकत्ता /भुवनेश्वर /विशाखापत्तनम और हैदराबाद .रत का पड़ाव हुआ हैदराबाद में रुके नहीं तो कोलकता वापस .टालीगंज में रहते थे .बीच बीच में दिल्ली /कोलकोता या कोलकोता सिंगापूर /ढाका आदि भी .दिल्ली से कई ऐसी भी उड़ान में पायलट रहे जिसमे मुख्य पायलट राजीव गांधी होते थे .कैप्टन श्रीवास्तव याद करते हुए बोले ,ऐसा व्यक्तिव मैंने बहुत कम देखा .इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी .कोलकोता से लौटे और हम होटल अशोका में चले गए तो राजीव गांधी एक सफदरजंग .उड़ान से पहले जब पायलट और को पायलट का परिचय दिया जाता तो राजीव गांधी का आग्रह होता कि उनके गांधी सरनेम का उल्लेख न किया जाए .सिर्फ कैप्टन राजीव कहा जाए .और यही कहा भी जाता .पायलट के प्रशिक्षण में हैदराबाद में वे भी अन्य पायलट के साथ रहते और किसी को यह अहसास नहीं होता कि ये प्रधानमंत्री के पुत्र हैं . खैर कैप्टन श्रीवास्तव अस्सी पार कर चुके हैं .दो ढाई साल पहले .पायलट की नौकरी से रिटायर हुए तो रामगढ़ में बस गए .गोंडा में उनके पिता जो मशहूर डाक्टर रहें हैं उनकी काफी बड़ी कोठी आज भी है .रहने वाले चार प्राणी और चौबीस कमरे .क्या देखें और कैसे देखें .अभी भी ज्यादा समय पहाड़ पर अकेले रहते हैं .खानपान में कोई बदलाव नहीं आया है .पांच किलोमीटर तो चलते ही हैं .पायलट रहे तो देश विदेश घूमना होता ही था .पर नियमित उड़ान पर भी जाते तो कुछ न कुछ जरुर लाते .चाहे पूर्वोत्तर का संतरा हो या भुवनेश्वर /विशाखापत्तनम का झींगा .भुवनेश्वर की उड़ान से लौटते तो चिलिका झील का मशहूर झींगा जरुर रहता .वह भी पानी भरे छोटे से घड़े में .बोइंग तो बाद में आया फोकर और एवरो भी खूब उड़ाया .बोले ,काकपिट में पीछे की तरफ अपने सामान के साथ यह घड़ा संभाल कर रखता और आराम से कलकत्ता आ जाता .पर समस्या कार से घर जाने पर होती .इसे हाथ में पकड़ना पड़ता .खैर वह भी दौर था .अब वे नैनीताल जाते हैं तो हैम /सलामी /सासेज ले आते हैं जो फ्रीजर में पड़ा रहता है . उम्र के चलते बगीचा देखना संभव नहीं होता .अच्छी प्रजाति के सेब और बबूगोशा होता है .घर के सामने खुबानी का पड़ा कलमी आम जैसा लगता है जिसके नीचे उनकी यह फोटो है .बगल में ही रस्तोगी जी का घर था ,अब बिक गया .रस्तोगी जी के बारे में कुछ दिन पहले लिखा था .दो साल पहले वे यहां से अपने पुत्र कर्नल अभय के पास चंडीगढ़ चले गए थे .जाते समय कैप्टन श्रीवास्तव से बोले ,मै यहां से जा तो रहा हूं पर अब मेरी उम्र आधी रह जाएगी .जड़ से काटने पर ऐसा ही तो होता है .यही वजह है कैप्टन श्रीवास्तव यह जगह नहीं छोड़ते ,भले अकेले रहना पड़े .

Friday, September 21, 2018

बरसात में बस्तर

अंबरीश कुमार कांकेर के आगे बढ़ते ही तेजी से दिन में ही अंधेरा छा गया था। सामने थी केशकाल घाटी जिसके घने जंगलों में सड़क आगे जाकर खो जाती है। साल, आम, महुआ और इमली के बड़े दरख्त के बीच सुर्ख पलाश के हरे पेड़ हवा से लहराते नजर आते थे। जब तेज बारिश की वजह से पहाड़ी रास्तों पर चलना असंभव हो गया तो ऊपर बने डाक बंगले में शरण लेनी पड़ी। कुछ समय पहले ही डाक बंगले का जीर्णोद्घार हुआ था इसलिए किसी तीन सितारा रिसार्ट का यह रूप लिए हुए था। शाम से पहले बस्तर पहुंचना था इसलिए चाय पीकर बारिश कम होते ही पहाड़ से नीचे चल पड़े। बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में अब यह क्षेत्र भी शामिल हो चुका है और पीपुल्स वार (अब माओवादी) के कुछ दल इधर भी सक्रिय हैं। केशकाल से आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे आम के घने पेड़ों की कतार दूर तक साथ चलती है तो बारिश में नहाये शाल के जंगल साथ-साथ चलते हैं, कभी दूर तो कभी करीब आ जाते हैं। जंगलों की अवैध कटाई के चलते अब वे उतने घने नहीं हैं जितने कभी हुआ करते थे। कोण्डागांव पीछे छूट गया था और बस्तर आने वाला था। आज भी गांव है, वह भी एक छोटा सा गांव। जिला मुख्यालय जगदलपुर है जो ग्रामीण परिवेश वाला आदिवासी शहर है। बस्तर का पूरा क्षेत्र अपने में दस हजार साल का जिन्दा इतिहास संजोए हुए है। हम इतिहास की यात्रा पर बस्तर पहुंच चुके थे। दस हजार साल पहले के भारत की कल्पना सिर्फ अबूझमाड़ पहुंच कर की जा सकती है। वहां के आदिवासी आज भी उसी युग में हैं। बारिश से मौसम भीग चुका था। हस्तशिल्प के कुछ नायाब नमूने देखने के बाद हम गांव की ओर चले, कुछ दूर गए तो हरे पत्तों के दोने में सल्फी बेचती आदिवासी महिलाएं दिखीं। बस्तर के हाट बाजर में मदिरा और सल्फी बेचने का काम आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। सल्फी उत्तर भारत के ताड़ी जैसा होता है पर छत्तीसगढ़ में इसे हर्बल बियर की मान्यता मिली हुई है। यह संपन्नता का भी प्रतीक है सल्फी के पेड़ों की संख्या देखकर विवाह भी तय होता है। बस्तर क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा जाता है। समता मूलक समाज की लड़ाई लड़ने वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमांडर अलग होते हैं। यह वही दंडकारणय है जहां कभी भगवान राम ने वनवास काटा था। वाल्मीकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहां दण्डकारण्य वन में गुजारा था। इस दंडकारणय की खूबसूरती अद्भुत है। घने जंगलों में महुआ-कन्दमूल, फलफूल और लकड़ियां चुनती कमनीय आदिवासी बालाएं आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं। यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़ती हैं। असंख्य झरने, इठलाती बलखाती नदियां, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियां। कुटुम्बसर की रहस्यमयी गुफाएं और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियां, यह इसी दण्डकारण्य में है। शाम होते ही बस्तर से जगदलपुर पहुंच चुके थे क्योंकि रुकना ही डाकबंगले में था। जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है जिसकी एक सीमा आंध्र प्रदेश से जुड़ी है तो दूसरी उड़ीसा से। यही वजह है कि यहां इडली डोसा भी मिलता है तो उड़ीसा की आदिवासी महिलाएं महुआ और सूखी मछलियां बेचती नजर आती हैं। जगदलपुर में एक नहीं कई डाकबंगले हैं। इनमें वन विभाग के डाकबंगले के सामने ही आदिवासी महिलाएं मछली, मुर्गे और तरह-तरह की सब्जियों का ढेर लगाए नजर आती हैं। बारिश होते ही उन्हें पास के बने शेड में शरण लेना पड़ता है। हम आगे बढ़े और जगदलपुर जेल के पास सर्किट हाउस पहुंचे। इस सर्किट हाउस में सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं आंध्र और उड़ीसा के नौकरशाहों और मंत्रियों का आना जाना लगा रहता है। कमरे में ठीक सामने खूबसूरत बगीचा है और बगल में एक बोर्ड लगा है जिसमें विशाखापट्नम से लेकर हैदराबाद की दूरी दर्शायी गई है। जगदलपुर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसंदीदा जगह रही है। मासूम आदिवासियों का लंबे समय तक यहां के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाकबंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं। पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी बड़े मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसंद करते हैं। यह झाबुआ के मशहूर कड़कनाथ मुर्गे के समकक्ष माने जाते हैं। सुबह तक बरसात जारी थी। पर जैसे ही आसमान खुला तो प्रमुख जलप्रपातों की तरफ हम चल पड़े। तीरथगढ़ जलप्रपात महुए के पेड़ों से घिरा है। सामने ही पर्यारण अनुकूल पर्यटन का बोर्ड भी लगा हुआ है। यहां पाल और दोने में भोजन परोसा जाता है तो पीने के लिए घड़े का ठंडा पानी है। जलप्रपात को देखने के लिए करीब सौ फिट नीचे उतरना पड़ा पर सामने नजर जाते ही हम हैरान रह गए। पहाड़ से लिपटती जैसे कोई नदी रुक कर आ रही हो। यह नजारा कोई भूल नहीं सकता। कुछ समय पहले एक उत्साही अफसर ने इस जलप्रपात की मार्केटिंग के लिए मुंबई की खूबसूरत माडलों की बिकनी में इस झरने के नीचे नहाने के दृश्यों की फिल्म बना दी। आदिवासी लड़कियों के वक्ष पर सिर्फ साड़ी लिपटी होती है जो उनकी परंपरागत पहचान है उन्हें देखकर किसी को झिझक नहीं हो सकती पर बिकनी की इन माडलों को देखकर कोई भी शरमा सकता है। जगदलपुर के पास दूसरा जलप्रपात है चित्रकोट जलप्रपात। इसे भारत की मिनी नियाग्रा वाटरफाल कहा जता है। बरसात में जब इंद्रावती नदी पूरे वेग में अर्ध चंद्राकार पहाड़ी से सैकड़ों फुट नीचे गिरती है तो उसका बिहंगम दृश्य देखते ही बनता है। जब तेज बारिश हो तो चित्रकोट जलप्रपात का दृश्य कोई भूल नहीं सकता। बरसात में इंद्रावती नदी का पानी पूरे शबाब पर होता है झरने की फुहार पास बने डाक बंगले के परिसर को भिगो देती है। बरसात में बस्तर को लेकर क िजब्बार ढाकाला ने लिखा है- वर्ष के प्रथम आगमन पर, साल वनों के जंगल में, उग आते हैं अनगिनत द्वीप, जिसे जोड़ने वाला पुल नहीं पुलिया नहीं, द्वीप जिसे जाने नाव नहीं पतवार नहीं। बरसात में बस्तर कई द्वीपों मे बंट जता है पर जोड़े रहता है अपनी संस्कृति को, सभ्यता को और जीवनशैली को। बस्तर में अफ्रीका जैसे घने जंगल हैं, दुलर्भ पहाड़ी मैना है तो मशहूर जंगली भैसा भी हैं। कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा आज भी रहस्यमयी नजर आती है। करीब तीस फुट संकरी सीढ़ी से उतरने के बाद हम उन अंधी मछलियों की टोह लेने पहुंचे जिन्होंने कभी रोशनी नहीं देखी थी। पर दिल्ली से साथ आई एक पत्रकार की सांस फूलने लगी और हमें फौरन ऊपर आना पड़ा बाद में पता चला उच्च रक्तचाप और दिल के मरीजों के अला सांस की समस्या जिन लोगों में हो उन्हें इस गुफा में नहीं जाना चाहिए क्योंकि गुफा में आक्सीजन की कमी है। गुफा से बाहर निकलते ही हम कांगेर घाटी के घने जंगलों में वापस लौट आए था। दोपहर से बरसात शुरू हुई तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लिया। हमें जाना था दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी का मंदिर देखने। छत्तीसगढ़ की एक और विशेषता है। यह देवियों की भूमि है। केरल को देवो का देश कहा जाता है तो छत्तीसगढ़ के लिए यह उपमा उपयुक्त है क्योंकि यहीं पर बमलेश्वरी देवी, दंतेश्वरी देवी और महामाया देवी के ऐतिहासिक मंदिर हैं। उधर जंगल, पहाड़ और नदियां हैं तो यहां की जमीन के गर्भ में हीरा और यूरेनियम भी है। दांतेवाड़ा जाने का कार्यक्रम बारिश की जह से रद्द करना पड़ा और हम बस्तर के राजमहल परिसर चले गए। बस्तर की महारानी एक घरेलू महिला की तरह अपना जीवन बिताती हैं। उनका पुत्र रायपुर में राजे-रजवाड़ों के परंपरागत स्कूल(राजकुमार कॉलेज) में पढ़ता है। बस्तर के आदिवासियों में उस राजघराने का बहुत महत्व है और ऐतिहासिक दशहरे में राजपरिवार ही समारोह का शुभारंभ करता है। इस राजघराने में संघर्ष का अलग इतिहास है जो आदिवासियों के लिए उसके पूर्व महाराज ने किया था। दंतेवाड़ा जाने के लिए दूसरे दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया गया। रात में एक पत्रकार मित्र ने पास के गांव में बने एक डाक बंगले में भोजन पर बुलाया। हमारी उत्सुकता बस्तर के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की थी। साथ ही आदिवासियों से सीधे बातचीत कर उनके हालात का जायजा लेना था। यह जगह डाक बंगले के परिसर में कुछ अलग कटहल के पुराने पेड़ के नीचे थी। आदिवासियों के भोजन बनाने का परंपरागत तरीका देखना चाहता था। इसी जगह से हमने सर्किट हाउस छोड़ गांव में बने इस पुराने डाक बंगले में रात गुजरने का फैसला किया। अंग्रेजों के समय से ही डाक बंगले का बार्चीखाना कुछ दूरी पर और काफी बनाया जता रहा है। लकड़ी से जलने वाले बड़े चूल्हे पर दो पतीलों में एक साथ भोजन तैयार होता है। साथ ही आदिवासियों द्वारा तैयार महुआ की मदिरा सल्फी के बारे में जनना चाहते थे। आदिवासी महुआ और चाल से तैयार मदिरा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। साथ बैठे एक पत्रकार ने बताया कि पहली धार की महुआ की मदिरा किसी महंगे स्काच से कम नहीं होती है। दो पत्तों के दोनों में सल्फी और महुआ की मदिरा पीते मैंने पहली बार देखा। गांव का आदिवासी खानसामा पतीलों में दालचीनी, बड़ी इलायची, काली मिर्च, छोटी इलाइची, तेजपान जैसे कई मामले सीधे भून रहा था। मुझे हैरानी हुई कि यह बिना तेल-घी के कैसे खड़े मसाले भून रहा है तो उसका जब था यहां देसी मुर्गे बनाने के लिए पहले सारे मसाले भून कर तैयार किए जते हैं फिर बाकी तैयारी होती है। बारिश बंद हो चुकी थी इसलिए हम सब किचन से निकल कर बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए। जगदलपुर के पत्रकार मित्रों ने आदिवासियों के रहन-सहन, शिकार और उनके विवाह के तौर तरीकों के बारे में रोचक जानकारियां दी। पहली बार बस्तर आए पत्रकार मित्र के लिए समूचा माहौल सम्मोहित करने वाला था। दूर तक फैले जंगल के बीच इस तरह की रात निराली थी। शाम होते-होते हम केशकाल घाटी से आगे जा चुके थे। केशकाल की घाटी देखकर साथी पत्रकार को पौड़ी की पहाड़ियां याद आ रही थीं। पर यहां न तो चीड़ था और न देवदार के जंगल। यहां तो साल के जंगलों के टापू थे। एक टापू जाता था तो दूसरा आ जता था। बस्तर की पहली यात्रा काफी रोमांचक थी। ऐसे घने जंगल हमने पहले कभी नहीं देखे थे। आदिवासी हाट बाजरों में शोख चटख रंग में कपड़े पहने युतियां और बुजुर्ग महिलाएं सामान बेचती नजर आती थीं। पहली बार हम सिर्फ जनकारी के मकसद से बस्तर गए थे पर दूसरी बार पत्रकार के रूप में। इस बार जब दिनभर घूम कर खबर भेजने के लिए इंटरनेट ढूंढना शुरू किया तो आधा शहर खंगाल डाला पर कोई साइबर कैफे नहीं मिला। सहयोगी पत्रकार का रक्तचाप बढ़ रहा था और उन्हें लग रहा था कि खबर शायद जा ही न पाए और पिछले दो दिन की तरह आज भी कोई स्टोरी छप पाए। खैर, एक साइबर कैफे भी तो उसमें उनका इमेल खुलने का नाम न ले। अंत में मेरे याहू आईडी से बस्तर की खबर उन्होंने भेजी और हजार बार किस्मत को कोसा। खबर भेजने के बाद हम मानसिक दबाव से मुक्त हुए और जगदलपुर के हस्तशिल्प को देखने निकले। आदिवासियों के बारे में काफी जनकारी ली और दिन भर घूम कर हम फिर दूसरे डाक बंगले में बैठे। कुछ पत्रकार भी आ गए थे और फिर देर रात तक हम जगदलपुर की सड़कों पर टहलते रहे। इस बार तीरथगढ़ जलप्रपात देखने गए तो जमीन पर महुए के गुलाबी फूल बिखरे हुए थे। उनकी मादक खुशबू से पूरा इलाका गमक रहा था। महुआ का फूल देखा और यह क्या होता है जानने का प्रयास किया। वे महुए की दोनों में बिकती मदिरा भी चखना चाहतीं पर वह दोनों हाइजनिक नहीं लगा इसलिए छोड़ दिया। एक गांव पहुंचे तो आदिवासियों के घोटूल के बारे में जानकारी ली। घोटूल अब बहुत कम होता है। विवाह संबंध बनाने के रीति-रिवाज भी अजीबो गरीब हैं। आदिवासी यु्वक को यदि युवती से प्यार हो जए तो वह उसे कंघा भेंट करता है और यदि युवती उसे बालों में लगा ले तो फिर यह माना जता है कि युवती को युवक का प्रस्ताव मंजूर है। फिर उसका विवाह उसी से होना तय हो जता है। बस्तर का पूरा इलाका देखने के लिए कम से कम हफ्ते भर का समय चाहिए। पर समय की कमी की वजह से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में इस आदिवासी अंचल को देखा पर पूरा नहीं देख पाया हूं।

Wednesday, September 5, 2018

इंदर बहादुर चला गया

कल भवाली से जैसे ही लौटा कृष्णा जोशी के यहां अख़बार लेने के लिए आगे बढ़ा तो सामने बुजुर्ग डालाकोटी मिले .बोले ,आपका टाइगर गुजर गया अभी उसे दफना कर आ रहे हैं .झटका सा लगा .अभी कुछ दिन पहले ही तो बस स्टेशन पर पहुंचते वह आ गया और अंबर को देखकर उछलने लगा .सविता ने बिस्कुट का पैकेट लिया और उसे खिलाया .वापसी में वह दीपा कौल के काटेज तक आया .इसके आगे वह नहीं आता था .शायद डर या अपनी मां के गुजर जाने का दुःख हो .करीब पांच साल पहले ही उसकी मां जिसे हम घोटू कहते थे उसे बाघ का बच्चा उठा ले गया था .उसके बाद टाइगर बाजार चला गया और बहुत कोशिश के बावजूद नहीं लौटा .घर पर कोई था भी तो नहीं .इंदर बहादुर की बीबी पहले गई ,फिर दोनों बच्चे चले गए कमाने खाने .बहादुर जिसे सारा रामगढ़ इंदर बहादुर कहता था वह बीबी आशा के भाग जाने के बाद विक्षिप्त हो गया .अपने से बात करने लगा .रात में जोर जोर से चिल्लाता .फिर अशक्त होगया और उसके बच्चे एक दिन हल्द्वानी ले गए . फिर कुछ वर्षों तक कोई खबर नहीं मिली .आज राजेंद्र तिवारी के बनते हुए घर को देखने गया तो बात बात में ढेला जी ने बताया कि बहादुर तो काफी दिन पहले गुजर गया .सन्न रह गया .पच्चीस साल से पहले मिला था .सेवक भी तो चौकीदार भी .परिवार का सदस्य जैसा .आज अपना जो बगीचा है उसको गढ़ा बहादुर ने ही था .गर्मी हो या बरसात जुटा रहता .हाइड्रेंजिया के सारे पौधे उसी ने लगाए तो किवी का पौधा भी और देवदार भी .गाय पालने को बोला तो एक गाय खरीदवा दी .एक दिन बाघ ने गाय के बछड़े पर हमला किया और लेकर नीचे कूदा तो बहादुर फ़ौरन निकला और कूद गया .बछड़ा का आधा गला बाघ ने काट लिया था .पर इलाज चला और वह बछड़ा बच गया .पर बीबी जब उसे छोड़ के भाग गई तो यह झटका बर्दाश्त नहीं कर पाया .कुछ महीने तक तो बुरी तरह चिल्लाता हुआ घूमा .फिर कुछ सामन्य हुआ पर खुद से बोलना जारी रहा .आलोक तोमर आते तो उसे ऊपर के कमरे में बुलाते एक पौव्वा देते और उसकी बाते सुनते सब याद आया .नेपाल के जुमला जिले के दूर दराज के गांव का रहने वाला था .पिता ग्राम प्रधान थे .सेब के बगीचे और खेती भी थी .पर कमाने के लिए भवाली आया और फिर शिवाजी ठेकेदार के यहां मजदूरी करने लगा .अपने को करीब पच्चीस साल पहले दिसंबर में मिला .बर्फ पड़ी हुई थी और यह भीतर कमरे में तराई कर रहा था .बोला साब आप हमें चौकीदार रख लो .दूर से आना पड़ता है .उमागढ़ की पहाड़ी पर एक गोदाम में रहता था .अपने को अद्भुत किस्म का लगा और फिर वह अपने परिवार के सदस्य जैसा हो गया .शाम के बाद आसपास के नेपाली भी उसके झोपडी नुमा रसोई में जुटते .प्लम के पेड़ के नीचे एक बड़ी झोपडी में रसोई घर बनाया था .कई बार अपनी रोटी भी चूल्हे पर बना कर लाता .कई लोगों ने उसकी बनाई रोटी खाई है .यह सब किसी फिल्म की तरह सामने से गुजर रहा है . कुछ साल पहले धनंजय बाबा आये तो अपने ब्लॉग पर उसके बारे में कुछ ऐसे लिखा था - बहादुर.वैसे उसका नाम इन्दर है पर इन लोगों को हमारे देश में बहादुर कहा जाता है.ये यहां अम्बरीश जी का पुराना सहयोगी है. खासियत पता चली की ये हमेशा अपने से बात करता रहता है और बात होती है उसकी पत्नी और बिहार के बारे में,कारण उसकी पत्नी एक बिहारी श्रमिक के साथ पलायित हो चुकी है क्योंकि वह बहादुर से कम दारु पीता था.पता चला की इस प्यारे कसबे में ढेर सारे रसूख वालों की बड़ी बड़ी कोठियां हैं, जहाँ ऐसे ही बाहदुर ही रहते हैं.कुछ की पत्नियाँ भी साथ हैं और कुछ की भाग गयी हैं.इन बहादुरों के सहयोगी के रूप में मालिक की हैसियत के हिसाब से कुत्ते भी हैं.जो फलों पर टूटते बंदरों को शुरू में हड़काते हैं.पर पता चला की बन्दर बड़े कायदे से कुत्तों को पकड़ कर झपड़िया देते हैं,जिसके बाद कुत्ते भोंकना भी भूल जाते हैं.न तो रामगढ़ के कुत्ते आप को बोलेंगे और न बन्दर.बंदरों के सुख को देख कर लगा की अगले जनम मोहे रामगढ़ का वानर ही कीजो,चारों तरफ रसीले फलों के जंगल,अपने हिसाब से चुनने और खाने की आजादी.अँधेरा घिरता जारहा था और आकाश में तारे बस हाथ बढ़ा के छु लेने की दूरी पर लग रहे थे.जाहिर है सोने की इच्छा तो नहीं थी पर टैगोर टॉप जाने की इच्छा के साथ जून के महीने में कम्बल तान लेट गया.सुबह टैगोर टॉप.

Sunday, September 2, 2018

द्वारका में कृष्ण

अंबरीश कुमार पापा रेलवे में रहे तो दादी को चारो धाम की यात्रा कराई .बहुत छोटा था फिर भी कुछ धुंधली याद है .अपने को ट्रेन में चलना अच्छा लगता था .वे इंजीनियर थे तो उस समय परिवार के लिए फर्स्ट क्लास का एक पूरा डिब्बा मिलता था .बर्थ तो चार ही होती पर उसमे खाने के लिए टेबल और बाथरूम में नहाने के लिए शावर भी होता था .दादी ट्रेन में खाना नहीं खाती थी इसलिए जब कहीं ट्रेन रूकती कुछ समय के लिए तो वह काला बक्सा उतारा जाता जिसमे आटा ,दाल ,चावल और अन्य सामान होता .स्टोप अलग होता .अमूमन रिटायरिंग रूम में जाते और फिर खाना /नाश्ता बनता .कई जगह रिटायरिंग रूम नहीं मिलता तो प्लेटफार्म पर ही किसी जगह पर कैम्प लग जाता .तब छोटे छोटे स्टेशन पर इतनी भीड़ भी नहीं होती थी .एक बार कांचीपुरम गए तो शाम को स्टेशन मास्टर आया और बोला कि वह सब बंद कर जा रहा है क्योंकि रात में इस लूप लाइन पर कोई ट्रेन ही नहीं आती थी .इसी तरह द्वारका स्टेशन पर भी चाय आदि बनाई गई थी .कुछ साल पहले मै परिवार के साथ फिर द्वारका गया .द्वारका से सोमनाथ मंदिर होते हुए दीव का कार्यक्रम था .द्वारका में सुबह सुबह मंगला आरती में शामिल होकर निकलना था .इसलिए टैक्सी वाले को स्टेशन ही बुला लिया ताकि नहा कर सीधे मंदिर चले जाएं . द्वारका स्टेशन पहुंच तो भोर में ही गए पर पता चला कि रिटायरिंग रूम /वेटिंग रूम का कायाकल्प हो रहा है .वोटिंग रूम भी छोटा सा था .खैर एक घंटे में हम लोग तैयार हो गए .बिजली वाली केतली जो साथ लेकर चलता हूं उससे चाय बन गई और फिर द्वारका स्टेशन पर टहलने लगे .बहुत लंबा सा और साफ सुथरा प्लेटफार्म था .कल यहां पहाड़ में सविता ने जन्माष्टमी की पूजा की तो यह सब याद आया . गुजरात का द्वारका शहर वह स्थान है जहां मान्यता के हिसाब से 5000 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद द्वारका नगरी बसाई थी और भगवान कृष्ण के राज्य की प्राचीन और पौराणिक राजधानी कहा जाता है।.जिस स्थान पर उनका निजी महल ‘हरि गृह’ था वहाँ आज प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है.आठवीं शताब्दी के हिन्दू धर्मशास्त्रज्ञ और दार्शनिक आदि शंकराचार्य के बाद, मंदिर भारत में हिंदुओं द्वारा पवित्र माना गया ‘चार धाम’ तीर्थ का हिस्सा बन गया. अन्य तीनों में रामेश्वरम, बद्रीनाथ और पुरी शामिल हैं, यही नहीं द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से एक है. यह मंदिर एक परकोटे से घिरा है जिसमें चारों ओर एक द्वार है. इनमें उत्तर दिशा में स्थित मोक्ष द्वार तथा दक्षिण में स्थित स्वर्ग द्वार प्रमुख हैं. सात मंज़िले मंदिर का शिखर 235 मीटर उंचा है. इसकी निर्माण शैली बड़ी आकर्षक है. शिखर पर क़रीब 84 फुट लम्बी बहुरंगी धर्मध्वजा फहराती रहती है. द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है.मंदिर में दर्शन कर निकले तो दक्षिण भारतीय और गुजराती नाश्ता हुआ .फिर समुंद्र के किनारे किनारे सोमनाथ की तरफ चले .इस बीच दिल्ली से केपी सिंह का फोन आया .बोले सोमनाथ कब तक पहुंचेंगे ?मैंने बताया सड़क बहुत ही ज्यादा खराब है इसलिए समय लग रहा है .वे चौंक कर बोले ,आप गुजरात की सड़क को खराब बता रहे हैं ,यह तो विकास का प्रतीक अंचल है . अब सड़क के गड्ढे तो खुद भर नहीं जाते जबतक कोई प्रयास न हो .बहरहाल यह हाल दीव की सीमा तक रहा .दीव की सड़कें हवाई पट्टी की तरह थी .