Saturday, December 15, 2018

द टेलीग्राफ का ऐसे तनकर खड़ा होना !

आज के दौर में जब मीडिया घुटने टेक रहा हो तो टेलीग्राफ का तन कर खड़ा होना हमें सत्तर ,अस्सी और नब्बे के दशक में इंडियन एक्सप्रेस की याद दिलाता है .अस्सी के दशक के अंतिम दौर में इंडियन एक्सप्रेस समूह के अख़बार ' जनसत्ता ' से जुड़ना हुआ .वह दौर कांग्रेस का था .बहुत ही उठापटक का भी .बोफर्स का दौर देखा और सरकार पर एक्सप्रेस कैसे हमला करता है यह भी देखा ,देखा ही नहीं उसके हरावल दस्ते का हिस्सा भी रहा .और लोग अख़बार का क्या इन्तजार करते होंगे जब एक्सप्रेस समूह के चेयरमैन श्री राम नाथ गोयनका खुद अपने सुंदर नगर स्थित आवास पर सुबह चार बजे उठकर अपने तीनो अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ,जनसत्ता और फाइनेंशियल एक्सप्रेस का इन्तजार करते थे .कई बार हम लोग देर रात की पाली से जब निकलते तो एक्सप्रेस साथ ले जाते .अख़बार क्या होता है ,उसकी क्या ताकत होती है यह तब देखा .अंग्रेजी में अरुण शौरी तो हिंदी में प्रभाष जोशी के लिखे का इंतजार होता .तब कहा जाता था कांग्रेसी जनसत्ता अखबार बाथरूम में पढ़ते हैं क्योंकि पता चल गया तो पार्टी से बेदखल हो जाएंगे .हमले हुए जनसत्ता के पत्रकारों पर ,हड़ताल हुई और लंबी चली पर अख़बार डटा रहा .तिमारपुर में रहता था ज्यादातर सिख परिवार थे .सुबह देखता तो बालकनी में जनसत्ता पढ़ते नजर आते .ऐसी रिपोर्टिंग सिख दंगों की हुई .बिहार प्रेस बिल आया तो इंडिया गेट पर खुद रामनाथ गोयनका ,कुलदीप नैयर और खुशवंत सिंह जैसे दिग्गज हाथ में प्ले कार्ड उठाए नजर आये .अब वह दौर नहीं रहा .मीडिया का बड़ा हिस्सा सत्ता के खिलाफ लिखने बोलने से बच रहा है .वेब साइट जरुर कुछ मोर्चा लिए हैं .पर टेलीग्राफ का ऐसे तनकर खड़ा होना सुखद है .यह लोकतंत्र के लिए शुभ है .हर अख़बार दब नहीं सकता यह सन्देश भी है .

Tuesday, December 11, 2018

क्या टूटने लगा है मोदी का तिलिस्म !

अंबरीश कुमार धान का कटोरा कहे जाने वाले छतीसगढ़ में भाजपा के चाउर वाले बाबा की सरकार जा चुकी है । छतीसगढ़ में भाजपा बुरी तरह हारी है । वोट काटने की रणनीति के चलते खड़े किए गए पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी कोई मदद नहीं कर पाए । राजा महाराजों के अंचल राजस्थान में महारानी का राजपाट भी जा रहा है । सिर्फ मध्य प्रदेश में भाजपा के पिछड़े नेता शिवराज सिंह चौहान ही मुकाबला कर पाए हैं ।हालांकि सपा बसपा ने यह साफ़ कर दिया है कि वह भाजपा के साथ नहीं जाएंगे ऐसे में कांटे के मुकाबले में मध्य प्रदेश में भी भाजपा का रास्ता बहुत आसान नहीं है । तीनो ही हिंदी भाषी राज्यों में शाम तक के रुझान के मुताबिक भाजपा को बड़ा झटका लगा है ।इसके साथ ही भाजपा के शीर्ष नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तिलिस्म टूटता नजर आ रहा है । हिंदी पट्टी जिसे ' गाय पट्टी ' भी कहते है वहां के तीन राज्यों से भारतीय जनता पार्टी पिछले चुनाव के मुकाबले बुरी तरह हार गई है।हालांकि भाजपा कई बार चुनाव हारने के बाद भी जोड़ तोड़ से सरकार बना लेती है।राज्यपाल तो अभी अपनी भूमिका निभाएंगे ही । पर भाजपा और मोदी को बड़ा झटका लग चुका है यह वास्तविकता भी है । ये वही ' गाय पट्टी ' है जहां भाजपा गाय ,गोकशी और मंदिर का मुद्दा लगातार उठा रही थी । पर जमीनी मुद्दों ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया । इन तीनो राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल थी । कहीं नेतृत्व था तो कहीं बिखरा हुआ नेतृत्व था । कांग्रेस के लिए इन राज्यों में कुछ खोने को नहीं था । हालांकि कांग्रेस ने अगर अपना अहंकार छोड़ कर तीनो ही राज्यों में बसपा सपा के साथ गठजोड़ किया होता तो जीत और बड़ी होती । राहुल गांधी के लिए भी यह एक सबक है ।इसके बावजूद राहुल गांधी की राजनैतिक ताकत बढ़ी है । पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी मोदी को सीधी चुनौती देते रहे हैं । राहुल गांधी ने नोटबंदी ,राफेल से लेकर बैंकों को हजारों करोड़ का चूना लगाने वाले उद्योगपतियों का सवाल ढंग से उठाया था । संजोग से आज ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल का पार्टी अध्यक्ष के रूप में एक साल पूरा हुआ है।साल भर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कैसा काम किया यह उसका नतीजा भी है।पिछले एक दशक में की राजनीति में काफी बदलाव आया है । अब वे अपनी तीखी राजनैतिक टिपण्णी की वजह से भी चर्चा में रहते हैं । जैसे कभी मोदी अपने भाषण की वजह से चर्चित हुए थे । पर अब तो मोदी के भाषण भी उनकी हताशा को दर्शा रहे हैं तो सरकार के कामकाज को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं । अब मोदी के भाषण में न तो राजनैतिक धार बची है न ही भाषा की मर्यादा ।' कांग्रेस की विधवा ' वाली टिपण्णी की देशभर में मोदी की निंदा हुई है । बहरहाल सरकार का कामकाज ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है । मोदी सरकार के साढ़े चार साल के कामकाज का भी यह नतीजा है।यह चुनाव नतीजा कामकाज और भाषण के फर्क को भी दर्शाता है।आप बहुत अच्छे वक्ता हो सकते हैं पर अगर सरकार ढंग से नहीं चला सकते हैं तो आम जनता को ज्यादा दिन भरमा नहीं सकते ।साफ़ है केंद्र और राज्य सरकार ने जो भी काम करने का दावा किया था वह जमीनी स्तर पर हवा में था । दूसरे उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में भाजपा जिस हिंदुत्व के मुद्दे को उभारने में जुटी थी उसका कोई बहुत ज्यादा असर इन राज्यों पर नहीं पड़ा । किसानो का सवाल ,नौजवानों का सवाल हो या दलित आदिवासियों का सवाल ज्यादा प्रभावी रहा । इन तीनो हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा सरकार के खिलाफ माहौल बना हुआ था । तरह तरह के घपले घोटाले तो थे ही साथ ही सरकार के कामकाज के तौर तरीकों से हर वर्ग नाराज हो रहा था । सबसे ज्यादा नाराजगी किसानो को की थी .नतीजा सामने है । दो राज्यों में तो काफी लंबे समय से ही भाजपा की सरकार थी.राजस्थान में पांच साल में ही भाजपा सरकार के खिलाफ माहौल बना हुआ था । इन चुनाव नतीजों पर बात करने से पहले देश में पिछले एक वर्ष की घटनाओं पर नजर डालें।सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के चार जज सार्वजनिक रूप से प्रेस कांफ्रेंस करते हैं।वे चीफ जस्टिस की मनमानी के खिलाफ सवाल उठाते हैं।मुद्दा मनचाही बेंच को मनचाहा मामला देने से शुरू हुआ।जानकारी के मुताबिक केस था लालू प्रसाद यादव वाला।विवादों में घिरे चीफ जस्टिस के खिलाफ कांग्रेस महाभियोग प्रस्ताव भी लाती है।हाल में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर हुए जस्टिस कुरियन जोसेफ ने मीडिया कप बताया कि चीफ जस्टिस किसी बाहरी ताकत के इशारे पर काम कर रहे थे।यह आरोप आजाद भारत में पहले कभी नहीं लगा।लोकतंत्र का एक स्तंभ न्यायपालिका की साख किस तरह गिरी यह इस उदाहरण से साफ़ है।अब आइए सीबीआई पर।सीबीआई चीफ को सरकार ने तब छुट्टी पर भेजा जब उनके मातहत अफसर पर सीबीआई ने ही आपराधिक मामला दर्ज कर लिया।इस मामले के तार प्रधानमंत्री कार्यालय तक जुड़े हैं ऐसा आरोप लगा है।सोमवार को रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया।उससे पहले सरकार और रिजर्व बैंक के बीच हुआ विवाद चर्चा का विषय बना रहा।यह बानगी है मोदी सरकार के कामकाज की।नोटबंदी से लेकर जीएसटी जैसे मुद्दों को अलग रखे।डीजल पेट्रोल के लगातार बढती कीमतों को भी अलग रखे तो भी केंद्र सरकार के खिलाफ हिंदी पट्टी में एक आक्रोश तो उभरता हुआ दिख ही रहा था। जिन हिंदी भाषी राज्यों में चुनाव हुए उन सभी राज्यों में अलग अलग मुद्दे प्रभावी हुए। छतीसगढ़ में भाजपा ने चुनाव से पहले ही बहुत जोड़तोड़ किया था पर मामला बना नहीं । अजीत जोगी वाला पैंतरा भी नहीं चला ।भाजपा तो जा ही रही है साथ ही जोगी को भी निपटाती जा रही है । पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण इन तीनो राज्यों के चुनाव के बाद की राजनीति हो गई है । अब लोकसभा का चुनाव सामने है । विपक्ष एकजुट होने लगा है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न सिर्फ एकजुट विपक्ष की बड़ी चुनौती मिलेगी बल्कि पार्टी के भीतर भी चुनौती मिल सकती है । अब मोदी का चेहरा पार्टी को लोकसभा चुनाव में जीत दिला पाएगा या नहीं यह सवाल भी उठ सकता है । पार्टी ही नहीं संघ नेतृत्व में भी मंथन तो होगा ही । संघ अगर भाजपा के लौह पुरुष रहे आडवाणी को हाशिए पर डाल सकता है तो दूसरे को भी उसी रास्ते पर भेजने में वे क्यों हिचकेंगे । इसकी बड़ी वजह उत्तर प्रदेश और बिहार की मौजूदा बदलती राजनैतिक स्थितियां हैं ।बिहार में भाजपा लगातार कमजोर हो रही है ।उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का मुद्दा अब भाजपा के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है । दूसरे बसपा और सपा के बीच गठजोड़ होना तय है ,ऐसे में भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती यूपी से ही मिलेगी ।प्रदेश से भाजपा में सबसे ज्यादा सीटें जीती है । इन तीनो राज्यों के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी असर पड़ना तय है । हालांकि दिल्ली में विपक्ष की राजनीति से समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने जिस तरह दूरी बनाई हुई है वह समझ से बाहर है। जबकि अब क्षेत्रीय दल सीबीआई के खौफ से मुक्त होते जा रहे हैं। ऐसे में भाजपा के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होगा । आज दिल्ली के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित संशोधित टिपण्णी

Sunday, December 9, 2018

मुंबई में लखनऊ देखना है तो आएं !

आलोक जोशी दो हिस्सों में लिखा था। मगर अब पूरा एक साथ लगा रहा हूँ। और जो लोग रह गए उनके लिए एक ख़बर। मजाज़ की दास्तान का एक और शो है मुंबई में। अगले शनिवार पंद्रह दिसंबर । बायकला में। ------------------------- मैंने पहले भी कहा हिमांशु बाजपेयी अपने आप में चलता फिरता लखनऊ हैं। रामगढ़ में एक मुख्तसर सी मुलाक़ात। फेसबुक पर कुछ देखा देखी और कभी कभार फोन पर कुछ सवाल जवाब। यही था मेरा और हिमांशु का रिश्ता। अतुल तिवारी के शब्दों में लखनऊ का लड़का। लखनऊ के बुजुर्ग लड़के नए वालों को ऐसे ही बुलाते हैं। तो जनाब ख़बर मिली कि हिमांशु आ रहे हैं और मजाज़ की दास्तान ला रहे हैं। मन हुआ कि चलो सुना जाए। भाई उस लड़के को क्यों न सुना जाए जो लखनऊ से दिल लगाए है और जिसके दिल में बसा लखनऊ साथ साथ दुनिया का दौरा करता है, अपना रंग बखेरता है। तो हम सुनने गए थे हिमांशु को। लगातार दो दिन। शनिवार और रविवार। दास्तान ए आवारगी यानी क़िस्सा मजाज़ लखनवी का। Dastan-e-Aawaargi ( A Dastangoi Performance by Himanshu Bajpai) शनिवार बांद्रा के कुकू क्लब में फ़ुल हाउस। पहले तो हिमांशु ने सिखाई रिवायत दास्तान गोई की, फिर ये भी बताया कि यहाँ तालियाँ बजाना गुनाह होता है। दिल खुश हो तो दाद दीजिए। मगर दाद की भी कुछ शर्तें हैं, वरना वाह वाह को आह आह में बदलते वक़्त नहीं लगता। ज़ाहिर है, महफ़िल को अदब सिखाना भी तो लखनऊ का फ़र्ज़ है। तो फ़र्ज़ अंजाम दिया गया और शुरू हुई -दास्तान ए आवारगी। बस शुरू होने का ही होश है, बाद उसके तो हम बस घूँट घूँट भरते गए और मजाज़ दिल में उतरते गए। कब कहें वाह! कब न कहें, सोचने की कोई ज़रूरत ही न रही। मजाज़ को जानना हो, गहराई से पहचानना हो और अपने दिल में उतारना हो, तो बस हिमांशु की ये दास्तान सुननी काफी है। और अगर आपने ये न सुनी तो जितना भी मजाज़ पढ़ा सुना हो, सब नाकाफ़ी है। तकलीफ़ सिर्फ ये कि कुकू क्लब में महफ़िल की शुरुआत में ही सख़्त हिदायत दी गई कि मोबाइल बंद कर दें और फ़ोटो खींचने या वीडियो बनाने की जुर्रत न करें। मगर बाद में लगा कि ये तकलीफ़ दरअसल कोई तकलीफ़ नहीं दिमाग का वहम था। ...2 ... आप पूछेंगे कि क्यों था दिमाग का वहम? तो जवाब अगले दिन मिला। जब भवन्स के एस पी जैन कॉलेज में हिमांशु Himanshu Bajpai फिर पहुँचे दास्तान ए आवारगी के साथ। और हम भी पहुँचे। इस बार Namita, Vineeta और Siddharth के साथ। यहाँमाहौल कुछ फ़र्क़ था। Ajay Brahmatmaj जी भी मिल गए और Ila Joshi भी। महफ़िल थी चौपाल। आग़ाज़ ही हुआ अतुल तिवारी की एक शानदार तक़रीर से जिसने ज़मीन बना दी, हवा में नमी घोल दी और हाज़रीन नाज़रीन को बेताब कर दिया सोचने के लिए कि आख़िर अब क्या बचा है जानने को जो हिमांशु की दास्तान में मिलेगा? महफ़िल की शान में चार चाँद लगाने दास्तान सुननेवालों की अगली क़तार में गुलज़ार साहब भी मौजूद थे। फिर शुरू हुआ क़िस्सा असरारुल हक़ ‘मजाज़’ लखनवी का। और फिर महफ़िल पर रंग छाने लगा। यहाँ बहुत से थे जो घूँट घूंट पी रहे थे और वाह वाह बरसा रहे थे। बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डांवाडोल! यहाँ से लेकर, आवारगी को बख़्शी गई इज़्ज़त और न जाने कितनी हसीनाओं के ख़्वाब के तारे, आँख के काजल, दिल के क़रार और अरमानों के क़ुतुबमीनार मजाज़ लखनवी की शायरी में औरत के मेयार पर जो और जिस अंदाज में हिमांशु ने रौशनी डाली वो क़ाबिले ग़ौर नहीं, क़ाबिले तारीफ नहीं सिर्फ क़ाबिले रश्क है। -हाय हिमांशु, ऐसा कभी हम क्यों न कर पाए! ये दूसरी शाम भी दिल में उतर गई, एक जगह घर कर गई। और अब समझिए कि रिकॉर्डिंग न करने की हिदायत तकलीफ़ के बजाय तोहफ़ा क्यों थी। क्योंकि लगातार दो शाम एक ही दास्तान दोबारा सुनने में भी कहीं यूँ नहीं लगा कि ये तो कल ही सुना था। दोनों बार पूरा मजा आया, नए सिरे से आया। कुछ बहुत फर्क भी था। हाजरीन को देखकर अंदाज भी बदल रहा था तो सुननेवालों का मिज़ाज भी। अाखिर में गुलज़ार साहब ने दो लाइनें बोलीं मगर सब कुछ कह दिया। उन्हीं की दो लाइनें - हिमांशु , कहा गया कि आप मजाज़पर तालिबे इल्म ( विद्यार्थी) हैं, मगर आप तो मजाज़ पर पूरे प्रोफ़ेसर निकले। - मार्क्सिज्म के बारे में और कुछ भी कहा जाए लेकिन अगर मार्क्सिज्म ने हमें एक मजाज़ दिया तो उसकी कामयाबीके लिए इतना ही काफी है। बधाई Himanshu Bajpai और शुक्रिया Dastan-e-Aawaargi ( A Dastangoi Performance by Himanshu Bajpai) के लिए।साभार

Wednesday, December 5, 2018

अब यूपी में दंगाई भीड़ को भी मुआवजा !

अंबरीश कुमार लखनऊ .अब यूपी में दंगाई भीड़ को भी मुआवजा देने की शुरुआत हो गई है .यह भाजपा की सुशासन वाली सरकार का काम है . उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में सांप्रदायिक भीड़ एक पुलिस अफसर की हत्या कर देती है .हत्या में जो नामजद होते हैं वे संघ परिवार से जुड़े बजरंग दल के लोग हैं .भीड़ ने किस तरह हत्या की यह वीडियो भी वायरल होता है .सभी हत्यारों के नाम पता भी पुलिस के पास है .पर इस घटना के बाद सूबे के मुख्यमंत्री पुलिस अफसरों के साथ जो बैठक करते हैं लगता है बजरंग दल ने बुलाई है .पुलिस अफसर की हत्या हुई और बैठक की सरकारी प्रेस रिलीज पूरी तरह बजरंग दल को समर्पित नजर आई .पुलिस अफसर की हत्या पर दो शब्द नहीं और गाय के नाम पर हत्यारी भीड़ का नेतृत्व कर रहे को मुआवजा .यह किस तरह का सुशासन उत्तर प्रदेश में भाजपा ला रही है .भाजपा के और भी मुख्यमंत्री हुए हैं .कल्याण सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक .कभी पुलिस अफसर पर हमला करने वाले के सामने कोई सरकार इस तरह नतमस्तक नहीं हुई है .एक वरिष्ठ आईपीएस अफसर ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के दौर की एक घटना का हवाला देते हुए लिखा है कि कैसे उन्हें मुख्यमंत्री ने पार्टी के करीबी बदमाश पर कार्यवाई की पूरी छूट दी .और एक सरकार यह है .जिसने दंगाई भीड़ को भी मुआवजा दे दिया है.यह एक ऐतिहासिक घटना है .इसका असर दूरगामी पड़ेगा .इस घटना से भाजपा के सुशासन के दावे की धज्जियां उड़ गई हैं . शहरी मध्य वर्ग भाजपा का समर्थन तो करता है पर बवाल फसाद के साथ नहीं खड़ा होता .मुलायम सिंह यादव से शहरी मध्य वर्ग की बड़ी खुन्नस उनके लाठी वाले समर्थकों से थी .वे आज भी मुलायम सिंह वाली समाजवादी पार्टी को गुंडों की ही पार्टी मानते हैं .वीपी सिंह ने जब दादरी को लेकर अभियान छेड़ा तो किसान उत्पीडन के साथ मुलायम सिंह यादव की इसी लाठी वाली छवि को मध्य वर्ग के बीच पहुंचा दिया .राज बब्बर ने देवरिया से दादरी तक की जो यात्रा कुशीनगर से शुरू की उस सभा का मुख्य नारा था , जिस गाड़ी पर सपा का झंडा ,उस गाड़ी में बैठा गुंडा .यह वही दौर था जब एक लोहिया के नाती ने कैसरबाग में पुलिस इन्स्पेक्टर को बोनट पर टांग कर घुमाया था .ऐसी ही बहुत सी घटनाएं हुई और मुलायम सिंह सत्ता से बेदखल हो गए .शहरी मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा भाजपाई हो गया है पर कभी अपने बेटे बेटी को हुडदंगी या बजरंगी नहीं बनाना चाहता .वह तो खुद के लिए एक सुरक्षित समाज चाहता है .वह अयोध्या में मंदिर चाहता था और वोट भी दिया .पर दंगा फसाद नहीं चाहता .मुझे याद है यूपी विधान सभा का दो हजार बारह का चुनाव प्रचार जब अखिलेश यादव आगे बढ़ रहे थे और मीडिया उन्हें ख़बरों से बाहर किये था .एक वरिष्ठ पत्रकार ने तब कहा था ,अब भाजपाई चाहे जो कटवा दे ये इस बार सत्ता से बहुत दूर हैं . साफ़ कहना था कि मवेशी कटवाने से हर बार सरकार बना लें यह संभव नहीं है .बुलंदशहर में जो हुआ उसकी खोजबीन अभी हो रही है .पर यह साफ़ है कि साजिश दंगा कराने की थी .वह नाकाम रही .इस घटना से बड़ा हिंदू समाज भी डर गया है .ये किस भीड़ का समर्थन किया जा रहा है जो एक हिंदू पुलिस अफसर को दौड़ा का मार डालती है .और आप इस दंगाई भीड़ के साथ खड़े हो गए हैं .उन्हें मुआवजा दे रहे है .क्या उस पुलिस अफसर की बीबी ,बहन और बेटे की बात सुनी .सुन लीजिये यह भी एक हिंदू परिवार की आवाज है . कार्टून साभार -सत्याग्रह

Monday, December 3, 2018

उनका इस्लाम और हमारा हिंदुत्व

पकिस्तान में कट्टरपंथी मुसलमानों को इस्लाम की शिक्षा दे रहे हैं .कई वर्षों से ,कट्टरपंथियों ने इस्लाम सिखाते सिखाते हजारों मुसलमानों को मार डाला .भारत में यह मौका पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्व सिखाने वालों को खुलकर मिला है .अब अपना हिंदुत्व भी पकिस्तान के कट्टरपंथियों के साथ जुगलबंदी करने लगा है .बुलंदशहर में हिंदुत्व सिखा रही इस भीड़ को देखें ये बेरोजगार हैं जो हिंसक भीड़ में बदल गए नौजवान हैं .बेरोजगार न होते तो ढेला ,पत्थर और कट्टा लेकर सड़क पर कैसे उतरते .बेरोजगार हिंदू भी एक बड़ी ताकत है .जिसका श्रेय सरकार को देना चाहिए .हिंदुत्व के नामपर बड़ा राजनैतिक एजंडा इन्हें दे दिया गया है .आज इन्होने हिंदुत्व सिखाते सिखाते एक थानेदार को मार डाला .वह थानेदार हिंदू ही था .यह वह शुरुआत है जो पकिस्तान में काफी पहले हो चुकी है .हमारे यहां अब हो रही हैं .इस मामले में भाजपा नेताओं का कोई दोष भी नहीं .उनके पुत्र पुत्री तो विदेशों में डाक्टर /इंजीनियर /प्रबंधन की पढ़ाई करते हैं .वे कोई जाहिल नहीं है जो इस रास्ते पर जाएं .इसलिए तो मोदी कहते हैं ,कांग्रेस हमें हिंदुत्व न सिखाए .यह काम तो बेरोजगार हिंदू नौजवानों की भीड़ करने ही लगी है .यह होता है असर धार्मिक और मजहबी एजंडा का .उनको कौन हिंदुत्व सिखा सकता है ,उन्होंने हिंदुत्व सिखाने वाली धर्मान्ध और बेरोजगार हिंसक भीड़ सड़क पर उतार दी है . जो गाय के नाम पर थानेदार तक की हत्या कर देती है . देखिये कभी आपका हिंदू परिवार उनके रास्ते पर न आ जाए .वे किसी को पहचानते नहीं है ,हिंदू को भी नहीं छोड़ेंगे .

Friday, November 30, 2018

जन आंदोलनों का चेहरा हैं मेधा पाटकर

अंबरीश कुमार मेधा पाटकर को जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई .मेधा पाटकर देश में जन आंदोलनों का चेहरा हैं .मैंने बहुत कम लोगों को इस तरह रोज रोज यात्रा करते और जगह जगह आन्दोलन के लिए जाते देखा है .खांटी समाजवादी साथी सुनीलम और विजय प्रताप जैसे कुछ अपवाद जरुर हैं .समाजवादी आंदोलन से ही मेधा भी निकली और लगातार संघर्ष करती रही .कुछ यात्रा अपने साथ भी हुई और काफी यादगार भी खासकर करीब डेढ़ दशक पहले बस्तर की यात्रा .मुझे जगदलपुर जाना था ,मेधा पाटकर रायपुर में थीं उनका फोन आया और कहा कि वे भी साथ चलेंगी .नगरनार स्टील प्लांट का आंदोलन चल रहा था .साथ ही चलीं और मै जगदलपुर के सर्किट हाउस में ठहर गया वे एक वरिष्ठ वामपंथी नेता के घर रुकी और रात के खाने पर वहीँ बुलाया .दिन में नगरनार के आंदोलनकारियों के बीच जाना हुआ .दूसरे दिन सुबह जगदलपुर से रायपुर लौटना था .मै सर्किट हाउस में नाश्ता कर रहा था तभी बाहर से शोर शराबे की आवाज आई .पता चला मेधा मुझसे मिलने आ रही थीं और विकास समर्थक ताकतों को उनके आने की खबर मिल गई और करीब पच्चीस तीस लोग हुल्लड़ मचाते वहां पहुंच गए .ये यूथ कांग्रेसी थे ,लंपट किस्म के .ये आदिवासियों की जमीन छीनकर उन्हें कारपोरेट घरानों को दिए जाने का समर्थन कर रहे थे .कारपोरेट घराने ऐसे विकास समर्थकों पर काफी पैसा खर्च करते हैं .भ्रम मत पालिएगा इसमें कांग्रेसी और भाजपाई साथ साथ होते हैं .खैर अपने साथ जनसत्ता के जगदलपुर संवाददाता वीरेंद्र भी थे जो सेना की नौकरी निकलकर पत्रकारिता में आए .वे भीड़ में घुसे और मेधा को निकाल कर बाहर लाए .तब तक सुरक्षा में तैनात पुलिस भी पहुंच गई . हम लोग सुरक्षित निकले .साथ में डेक्कन हेरल्ड के अमिताभ तिवारी और मेरा छोटा बेटा अंबर भी था जो साथ जरुर जाता .जगदलपुर से कुछ दूर जाने पर बस्तर गांव आया और सड़क के किनारे एक चाय पकौड़ी वाला दिखा .मेधा ने कार रुकवा दी .बोली पकौड़ी खाई जाएगी .साथ ही पानी की बोतल निकाली और बोली इसे नल से भरवा दीजिए .हम हैरान ,अमूमन बाहर इस तरह की पकौड़ी आदि से बचता हूं .पर वे बेफिक्र थी .आटे की पकौड़ी खाई ,चाय पी और हैंड पंप का पानी .बताया कि वे बोतल वाला यानी मिनरल वाटर नहीं पीती हैं जो पानी आम लोग पीते हैं वही वे भी पीती हैं और वैसा ही खानपान भी .चलते चलते काफी बातचीत होती रही .तभी मुख्यमंत्री अजीत जोगी का फोन आया .वे मेधा पाटकर पर बरस पड़े .सारी घटना की जानकारी उन्हें मिल चुकी थी .वे इस बात से नाराज थे कि वे उन्हें बिना बताए जगदलपुर के आंदोलन में गई क्यों ? दूसरे मेरे साथ क्यों गई .अपने साथ भी तबतक सरकार के संबंध खराब हो चुके थे खबरों को लेकर .बहरहाल रात के खाने पर उन्होंने मेधा को बुलाया .हालांकि मेधा पाटकर बहुत आहत हो चुकी थी .खैर यात्रा पूरी हुई .इसके बाद फिर वर्ष दो हजार बारह में नागपुर से छिंदवाडा की यात्रा मेधा के साथ हुई .जिसका लिंक कमेन्ट बाक्स में हैं .मेधा पाटकर जब भी अनशन करती है तो आशंकित हो जाता है .वे जिद्दी हैं इसलिए .देश को उनकी जरुरत हैं .यह दिन बार बार आये .

Thursday, November 29, 2018

राजपथ पर बिवाई फटे नंगे पैर

अंबरीश कुमार सिर्फ किसान ही नहीं आदिवासी ,गरीब और गांव सभी हाशिये पर है। जल, जंगल और जमीन का संघर्ष जगह जगह चल रहा है पर मीडिया में उसे काफी कम जगह मिलती है। किसान जगह जगह संघर्ष कर रहा है ।उत्तर प्रदेश के महोबा से लेकर छत्तीसगढ़ के महासमुंद तक।बंगाल से लेकर महारास्त्र के विदर्भ तक । कही पर खाद ,पानी और बिजली की मांग करता किसान पुलिस की लाठी खाता है तो कही पर संघर्ष का रास्ता छोड़ कर ख़ुदकुशी करने पर मजबूर हो जाता है । बुंदेलखंड से लेकर विदर्भ तक किसान मौत को भी गले लगा रहे है । किसान फिर दिल्ली के राजपथ पर चल रहे है .कोई फर्क नहीं आया पहले से आज के हाल में .कुछ वर्ष पहले ऐसे ही किसान मार्च पर जनसत्ता में एक टिपण्णी लिखी थी वह याद आ गई . हाल ही में लुटियन की दिल्ली के चमचमाते राजपथ पर जब बेवाई फटे नंगे पैर हाथ में गन्ना लिए धोती कुरते वाला किसान नज़र आया तो नव दौलतिया वर्ग ने जो कुछ हिकारत की भाषा में कहा उसे टीवी वालो ने पूरे देश को परोस दिया था। किसान दिल्ली कोई पिकनिक मनाने नहीं आये थे ,वे देश की सबसे बड़ी पंचायत से गुहार लगाने आये थे। वे बिचौलिये की तरह मुनाफा बढाने का नाजायज हथकंडा नहीं अपना रहे थे बल्कि महात्मा गाँधी के रास्ते पर चलते हुए सत्याग्रह करने आये थे।मीडिया के एक तबके ने भी अन्नदाता की खिल्ली उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । पहले भारत की जो छवि विदेशी मीडिया देश के बाहर बनता था आज किसान की वही छवि देसी मीडिया देश में बनता है । सिर्फ किसान ही नहीं आदिवासी ,गरीब और गांव सभी हाशिये पर है। जल, जंगल और जमीन का संघर्ष जगह जगह चल रहा है पर मीडिया में उसे काफी कम जगह मिलती है। किसान जगह जगह संघर्ष कर रहा है ।उत्तर प्रदेश के महोबा से लेकर छत्तीसगढ़ के महासमुंद तक।बंगाल से लेकर महारास्त्र के विदर्भ तक । कही पर खाद ,पानी और बिजली की मांग करता किसान पुलिस की लाठी खाता है तो कही पर संघर्ष का रास्ता छोड़ कर ख़ुदकुशी करने पर मजबूर हो जाता है । बुंदेलखंड से लेकर विदर्भ तक किसान मौत को भी गले लगा रहे है । विदर्भ के ११ जिलों में वर्ष 2001से जनवरी २००९ तक 48०6 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। केंद्र सरकार के पैकेज के बाद औसतन दो किसान रोज खुदकुशी कर रहे हैं। ।साहूकारों के कर्ज में विदर्भ के ज्यादातर किसान परिवार डूबे हैं। इनकी मुख्य वजह वित्तीय संस्थानों और बैंकों का यहां के किसानों की उपेक्षा किया जाना है।विदर्भ में किसान जो कर्ज लेते है उसमे ६५ से 7० फीसदी कर्जा गांव और आसपास के साहूकारों का होता है,जिसके लिए साहूकार 6० से लेकर 1०० फीसदी ब्याज वसूलता है । कर्ज भी नकद नहीं मिलता। गांव में साहूकारों के कृषि केन्द्ग खुले हुए हैं। इन्हीं से किसानों को कर्ज के रूप में बीज, खाद और कीटनाशक मिलता है। विदर्भ की त्रासदी यह है की अब् गाँव गाँव में ख़ुदकुशी कर चुके किसानो की हजारों विधवा औरतें खेत बचाने के लिए संघर्ष के रही है । किसानो का संघर्ष कई जगहों पर अपनी ताकत भी दिखा चूका है । नंदीग्राम से सिन्दूर तक किसानो के आन्दोलन की आंच वाम खेमा न सिर्फ महसूस कर चूका है बल्कि सत्ता से बाहर जाता नज़र आ रहा है। दादरी के किसान आन्दोलन ने मुलायम सिंह को सत्ता से बेदखल कर दिया।पर उस मीडिया को यह समझ नहीं आता जो मोतियाबिंद का शिकार है। फिर भी देश के अलग अलग हिस्सों में किसान एक ताकत बनकर उभर रहा है ।कही पर किसानो के धुर्वीकरण का असर ज्यादा है तो कही कम ।पश्चिमी उत्तर प्रदेश का किसान मजबूती से खड़ा हो जाता है तो विदर्भ का किसान निराश होकर ख़ुदकुशी का रास्ता चुन लेता है।पर वहां भी प्रतिकार के लिए किसान लामबंद हो रहा है। उत्तर प्रदेश में एक तरफ बुंदेलखंड का किसान सालो से सूखा के चलते पलायन कर रहा है तो पूर्वांचल में बाढ़ से तबाह हो गया है । गोंडा,बस्ती से लेकर फैजाबाद जैसे कई जिलों में खाद के लिए किसानी पर पुलिस लाठी भांजती है । सहारनपुर ,मेरठ ,बुलंदशहर और मुज्जफरनगर में गन्ने के खेत में आग लगाकर किसान आत्मदाह कर रहा है । विकास की नई अवधारण में किसान की कोई जगह नहीं बची है।शहर बढ़ रहे है तो गाँव की कीमत पर और गाँव के ख़त्म होने का अर्थ किसान का ख़त्म होना है।लखनऊ शहर के गाँव ख़तम होते जा रहे है ।चिनहट के बाबूलाल के पास सात बीघा जमीन थी जो शहर से लगी थी । लखनऊ की विस्तार योजना में उसकी जमीन चली गई जो पैसा मिला वह शादी ब्याह और मकान बनाने में ख़तम हो गई ।जिसके बाद रिक्शा चला कर परिवार का गुजारा होता है ।बीमार पड़ते ही फांकाकशी की नौबत आ जाती है । यह उनका उदहारण है जो साल भर अपनी खेती से खाते थे और शादी ब्याह का दस्तूर भी निभा लेते थे।गंगा एक्सप्रेस वे और यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर हजारो किसान अपनी खेती से बेदखल होने जा रहे है। जब दादरी में किसानो की जमीन के अधिग्रहण के सवाल पर वीपी सिंह ने आन्दोलन शुरू किया तो देवरिया से दादरी के बीच उनके किसान रथ पर राजबब्बर के साथ हमने भी कवरेज के लिए कई बार यात्रा की ।कई जगह पर रात बारह बजे तक पहुँच पाते थे पर किसान सभा में मौजूद रहते। जगह जगह वीपी सिंह से किसान यही गुहार लगते की जमीन से बेदखल न होने पाए ।जमीन का सवाल किसान के लिए जीवन का सवाल है।यही वजह है की दादरी का आन्दोलन आज भी जिन्दा है और उम्मीद है की किसान अदालती लड़ाई भी जित जायेगा।यह भूमि अधिग्रहण का संघर्ष करने वाले किसानो को नई ताकत भी देगा।यह लड़ाई सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं पूर्वांचल में भी चल रही है ।गंगा एक्सप्रेस वे उदहारण है ।अदालती रोक के बावजूद जेपी समूह के कर्मचारी मिर्जापुर के गावं में पैमाइश कर खूंटा गाद रहे है ।और राजधानी लखनऊ से उन्नाव के बीच लीडा के नाम किसानो के 84 गावं अपना अस्तित्व खोने जा रहे है ।यमुना एक्सप्रेस वे औद्योगिक विकास प्राधिकरण के दायरे में ९५० सौ गाँव आ रहे है। इसी तरह गंगा एक्सप्रेस वे २१ जिलो के कई सौ गाँव को प्रभावित करेगी ।यह सब योजनाये बड़े पैमाने पर किसानो का विस्थापन करेंगी। जबकि दादरी की लड़ाई २७६२ एकड़ जमीन की थी ।दादरी आन्दोलन से जुड़े रहे भाकपा नेता डाक्टर गिरीश यमुना एक्सप्रेस वे प्राधिकरण को लेकर खेती बचाओ -गावं बचाव आन्दोलन में जुटे है ,जमीन के सवाल पर गिरीश ने कहा -किसान जमीन नहीं देगा यह तय कर चूका है।यह फैसला यमुना एक्सप्रेस वे से प्रभावित चारों जिलों के किसानो का है ।इस परियोजना से आगरा ,मथुरा ,हाथरस और अलीगढ के ८५० गावं प्रभावित हो रहे है।यह इलाका आलू की थाली कहलाता है जहाँ का किसान हर साल लाखों का आलू बेचता है।मामला सिर्फ सड़क बनाने का नहीं है ।गिरीश ने आगे कहा -सड़क के दोनों तरफ माल और रीसोर्ट बनाकर किसानो को उनकी जमीन से बेदखल करना क्या विकास है । कुछ महीने पहले नागपुर के आगे हम ऐसे ही एक गावं सीवनगावं में थे जहाँ किसान भूमि अधिग्रहण की लड़ी लड़ रहा था ।यह इलाका संतरा पट्टी के रूप में मशहूर है । करीब दस एकड़ खेत सामने नज़र आता है ,जिसमे संतरा लगा था ,बीच में अरहर ।पक्का घर और दो वाहन खड़े नज़र आते है । एक मारुती वेन और एक इंडिका कार।हाथ पकड़कर किसान भुसारी ने संतरे के खेतो को दिखाते हुए कहा - हमारी दस एकड़ की खेती है। हर साल ५-६ लाख की आमदनी संतरा और अन्य फसलो से हो जाती है पर इस जमीन के बदले उन्हें करीब चार लाख मुआवजा मिल रहा है जिससे आस पास एक बीघा जमीन भी नहीं मिलेगी ।उनका सवाल है -हम लोग क्या करेंगे? पूरा परिवार सदमे में है और यह हाल एक नहीं कई परिवारों का है। इस गांव के आस-पास ग्यारह गांवों तिल्हारा, कलकुही, सुनढाना, रहेगा, खापरी, चिजभवन, जामथा, खुर्सापार, हिंगना और इसासनी गावों की करीब दस हजार ऐकड जमीन मेहान परियोजना की भेंट चढ चुकी है। मेहान का मतलब मल्टी मोडल इंटरनेशनल हब एंड एअरपोर्ट होता है। जो महाराष्ट्र एअरपोर्ट डेवलपमेंट कम्पनी ने बनाया है। जिसके चलते किसानों से एक एकड जमीन पचास हजार से लेकर डेढ लाख रूपए मे ली गई और उद्योगपतियों को पचपन लाख रूपए एकड के भाव दी जा रही है। जिसके चलते आस-पास के इलाकों की जमीन की कीमत और ज्यादा बढ गइ है। जिसमें नेताओं और उद्यमियों ने बडे पैमाने पर निवेश करना शुरू कर दिया है। नागपुर से वर्धा की तरफ बढे तो किसानो के खेत पर उद्योगपतियों का कब्ज़ा नज़र आ जायेगा । सडक के किनारे-किनारे वास्तुलैंड, ग्रेसलैंड, सन्देश रिअल स्टेट, वेंकटेश सिटी, सहारा सिटी, श्री बालाजी रिअल र्टफ जैसे बोर्ड नजर आते। सारा खेल बडे नेताओं और पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने का है। विदर्भ में किसान का बेहाल है ।अकोला ,अमरावती ,वर्धा ,भंडाराकही भी जाये किसानो की बदहाली नज़र आ जाएगी । यह वही इलाका है जहां कभी जमना लाल बजाज ने महात्मा गांधी को लाकर बसाया था। सेवाग्राम में गांधी यहीं के किसानों के कपास से सूत कातते थे। जमना लाल बजाज भी कपास के व्यापारी थे। उस समय विदर्भ का कपास समूचे विश्व में मशहूर था और मैनचेस्टर तक जाता था। आज वही कपास किसान खुदकुशी करने को मजबूर हैं। जवान किसान खुदकुशी कर ले तो उसकी पत्नी किस त्रासदी से गुजरती है, वह यहां के गांव में देखा जा सकता है। खेत से लेकर अस्मत बचाने तक की चुनौती झेल रही इन महिलाओं की कहानी कमोवेश एक जैसी है। अकोला के तिलहारा ताल्लुक की शांति देवी ने से बात हुई तो उसका जवाब था , 'आदमी तो चला गया, अब खेत कैसे बचाएं। खेत गिरवी है। साहूकार रोज तकाजा करता है। एक बेटा गोद में तो दूसरी बच्ची का स्कूल छूट चुका है। पच्चीस हजार रूपए कर्जा लिया था और साहूकार पचास हजार मांग रहा है। नहीं तो खेत अपने नाम कराने की धमकी देता है। फसल से जो मिलेगा, वह फिर कर्जा चुकाने में जाएगा। क्या खाएंगे और कैसे बच्चों को पालेंगे? कर्ज माफ़ी का हमे कोई फायदा नहीं हुआ है ।’ यह एक उदहारण है विदर्भ के ज्यादातर जिलों में यही नज़ारा देखने को मिलेगा । यही हाल छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के ओडिसा से लगे इलाके का है जो कालाहांडी जैसा ही है ।उत्तर प्रदेश की तरफ आये तो भूखे और सूखे बुंदेलखंड में अकाल से लड़ते किसानो को देखा जा सकता है।पिछले साल इसी इलाके में हमने एक किसान परिवार को राख में पानी घोलकर अपने सात साल के बेटे को पिलाते देखा।वजह पूछने पचास साल के दसरथ का जवाब था-जब अन्न नहीं बचा तो क्या करें।यह ख़ुदकुशी के पहले का चरण मन जाता है इसके बाद क्या विकल्प बचेगा।इस दर्द को वे नहीं समझ सकते जो न तो किसान को जानते है और न ही गाँव को।न वह मीडिया जो दिल्ली में अपनी आवाज उठाने आये किसान की पेसाब करते हुए फोटो छापता है।उत्तर प्रदेश के कुछ किसान ही दिल्ली गए थे ,सभी नहीं।प्रदेश में चालीस लाख गन्ना किसान है जो वोट के लिहाज से भी बड़ी ताकत है ।कांग्रेस ने जिस तेजी से किसानो की बात मानी उसके पीछे वोट की ही राजनीति थी ।कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी गाँव और किसान को राजनैतिक एजंडा बनाए हुए है और उत्तर प्रदेश का २०१२ का विधानसभा चुनाव उनके लिए चुनौती बना हुआ है ।ऐसे में गन्ना किसानो की नाराजगी कांग्रेस को भरी पड़ती।राहुल गाँधी ने प्रधानमन्त्री से मुलाकात कर दखल देने को कहा था। उत्तर प्रदेश में करीब सवा सौ चीनी मिलें है जिनमे २४ सहकारी ,११ निगम यानि सरकारी और ९४ निजी चीनी मिले।पूरब से पश्चिम तक की यह चीनी मिले भी गन्ना किसानो का कम शोषण नहीं करती।छोटे किसान को तो गन्ने की पर्ची तक नहीं मिल पाती और वह बिचौलियों को कम दाम पर गन्ना देकर पीछे हट जाता है।छोटा किसान हर जगह नुक्सान उठाता है ।कम कीमत पर गन्ना देना और धर्मकांटा पर घटतौली यानी कम गन्ना तौल कर ठगने की कोशिश करना।इसके आलावा भुगतान समय पर न होने की दशा में ब्याज का प्रावधान है पर चीनी मिल मालिक इसके लिए भी सालों चक्कर कटवाते है। दुसरे राज्यों में चीनी मिल मालिक गन्ना किसानो का गन्ना सीधे खेत से उठाता है पर उत्तर प्रदेश में गन्ना क्रय केंद्र तक गन्ना किसान खुद पंहुचाता है और आगे ले जाने का पैसा भी मिल वाले काटते है ।अपवाद एकाध मिल मालिक है जो चीनी की ज्यादा रिकवरी के लिए गन्ना खेत से उठाते है।इस सब कवायद के बाद गन्ना किसान को पैसा मिलता है।चीनी का दाम आसमान छू रहा है पर गन्ना की कीमत मांगना गुनाह हो गया है। निराश होकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई किसान ख़ुदकुशी कर चुके है।गन्ना किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति भी प्रभावित करते है ,यही वजह है चौधरी अजित सिंह से लेकर महेंद्र सिंह टिकैत तक ने दिल्ली में किसानो की पंचायत बुलाई ।दिल्ली जाने से पहले मेरठ में जो किसान पंचायत बुलाई गई थी उसमे अजित सिंह ने किसानो से कहा था -एक गन्ना और दो लत्ता यानि कपडा लेकर दिल्ली आ जाना ,पूड़ी - सब्जी का इंतजाम कर दूंगा।गन्ना किसान दिल्ली पंहुचा तो सड़क जाम हो गई ,हर तरफ किसान नज़र आ रहा था ।नंगे और बेवाई फटे पैरो वाला किसान दिल्ली वालो को रास नहीं आया।मुझे याद है नब्बे के दशक में जब महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली के बोट क्लब पर डेरा डाला था तो पूरा गाँव बस गया था ।कवरेज के लिए हम दिन भर किसानो के अस्थाई गाँव में रहते जहां मवेशी भी थे और चुल्हा भी जलता था।तब भी दिल्ली वालो को किसानो का यह आन्दोलन रास नहीं आया और कहते -यह सब बोट क्लब गन्दा कर दे रहे है। रविवारीय जनसत्ता से

Thursday, November 15, 2018

होका पाम से घिरे द्वीप पर

अंबरीश कुमार मुंबई से करीब घंटे भर बाद नारियल और होका पाम के पेड़ों से घिरे के हवाई अड्डे पर पाँव रखते ही लगा की समुंद्र में उतरने जा रहे है .यह हवाई अड्डा समुंद्र से लगा हुआ है और अन्य शहरों के मुकाबले काफी छोटा और खुला हुआ है . जो सड़क इसे शहर से जोड़ती है उलटी दिशा में वह नागोवा बीच की तरफ जाती है . चारो और पानी से घिरा यह द्वीप अब सैलानियों के आकर्षण का नया केंद्र बनकर उभर रहा है . दीव जो करीब साढ़े चार सौ साल तक पुर्तगालियों के कब्जे में रहा . आज भी पुर्तगाल की संस्कृति और वास्तुशिल्प की झलक इस शहर में मिलती है . यह शहर आज भी एक कस्बे की तरह है . दीव का बाजार आज भी हाट बाजार की तरह है तो एक भी माल यहाँ नही है और न ही मल्टीप्लेक्स . मछुआरों का परंपरागत व्यवसाय आज भी दीव का प्रमुख व्यवसाय है और ज्यादातर परिवारों का जीवन बसर मछली के कारोबार से जुड़ा है .पर दीव के किले की बुर्ज पर सागर की तरफ तनी हुई तोपों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सैकड़ों सालों तक किस तरह यह द्वीप सामरिक दृष्टि महत्वपूर्ण है . पहले कभी यह समूचा द्वीप इस किले में सिमटा हुआ था पर बाद में दीव किले की दीवारों से आगे बढ़ता गया . किला भी काफी बड़ा है और इसके एक छोर का अवशेष जालंदर समुंद्र तट पर बने सर्किट हाउस के सामने आज भी नजर आता है . अरब सागर की लहरों के थपेड़े से सदियों से मुकाबला कर रही किले की दीवारे अब कमजोर पड़ चुकी है तो बुर्ज भी बदहाल है . किले के भीतर ही ऐतिहासिक चर्च है तो दीव की जेल भी . सामने अरब सागर में एक और किला नजर आता है जो शाम ढलते ही रोशनी से जगमगा जाता है . समूचे दीव में न तो ज्यादा वाहन नजर आते है और न ही शोर शराबा जैसा गोवा में शाम ढलते ही नजर आता है . समर हाउस से पैदल ही बाजार की तरफ चलने पर बाए हाथ विशाल चर्च के सामने दो तीन आटों सैलानियों का इंतजार करते नजर आते है . इनके अलावा करीब दो किलोमीटर चलने पर भी दो चार वहां ही नजर आए इससे दीव के माहौल का अंदाजा लगाया जा सकता है . एक दो रेस्तरां बीच में पड़े जहाँ विदेशी पर्यटक समुंद्री व्यंजन का लुत्फ़ उठाते नजर आए . पर पूरे रास्ते सन्नाटा छाया रहा . बंदर चौक पहुँचने पर जरुर भीड़ नजर आई पर ज्यादातर सैलानी थे जो समुंद्र के किनारे बने रेस्तरां में बैठकर शाम गुजरने आए थे तो कुछ फेरी से समुंद्र का चक्कर काटने के लिए टिकट की लाइन में थे . समुंद्री हवा के बावजूद हलकी सी उमस महसूस हो रही थी जबकी नवंबर का आधा महीना निकल चुका था . पर थोड़ी ही देर में बदल गरजे और तेज बरसात से बचने के लिए बंदर चौक में जेटी के पास बने एक रेस्तरां में शरण लेनी पड़ी . शाम के साढ़े छह बजे थे और पहली मंजिल के इस रेस्तरां में समुंद्र की तरफ लगी सीटों पर बैठे नही कि बेयरा ने बताया कि चाय काफी या कुछ और आधे घंटे से पहले नही मिल सकता . पता चला कि यह रेस्तरां देर शाम खुलता है और रात में देर तक लोग यहाँ से समुंदरी नजारा देखते हुए खाना खाते है . दीव का यही इलाका भीड़ भाड़ वाला है इसके आलावा सिर्फ समुंद्र तट पर सप्ताह के अंत में यानी शनीवार - रवीवार को ज्यदा भीड़ मिलेगी क्योकि तब गुजरात और मुंबई से सैलानियों की भीड़ आ जाती है . गुजरात में नशाबंदी है जिसके चलते शौकीन लोग भी चले आते है . गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भले ही पूरे देश में विकास पुरुष घोषित किया जाए पर दीव के लोग इसे किसी कीमत पर नही मानने वाले क्योकि दीव से समूचे विश्व में मशहूर गीर के जंगल और सोमनाथ की सड़क पर चलते ही गुजरात के विकास का भ्रम दूर हो जाएगा . एक घंटे में बीस किलोमीटर का सफ़र हम तय कर पाए थे . इसकी वजह लोग बारिश बता रहे थे पर समूचे दीव में सडकों पर कही जोड़ का निशान नही नजर आया . केंद्र शासित प्रदेश होने का फायदा दीव को जरुर मिला पर अन्य केंद्र शासित राज्यों के मुकाबले यह जगह काफी बेहतर है . गोवा, दमन और दीव में दीव ही ऎसी जगह नजर आई जो चार पांच दिन से लेकर हफ्ते भर तक लिखने पढने के लिए बेहतर जगह है . भीडभाड से दूर यहाँ कई होटल और गेस्ट हाउस पूरी तरह एकांत में है . जालंदर समुंद्र तट पर दीव का दूसरा सर्किट हाउस ऐसे जगह है जहाँ आसपास कोई आबादी नही है . कैशुरिना और नारियल के पेड़ों से घिरा यह समुंद्र तट पूरी तरह एकांत में है और करीब एक किलोमीटर लंबी सड़क इससे लगी हुई है . एक छोर पर समर हाउस है तो दूसरे छोर पर किले के अवशेष .दीव में होका पाम ( ताड़ ) के खूबसूरत पेड़ नजर आए जो और जगहों पर नही मिलते है . ताड़ के पेड़ आमतौर पर एक शाखा वाले मिलते है पर यहाँ पर कई शाखाओं वाले ताड़ मिलेंगे जो सड़को के किनारे किनारे चलते है . इसे पुर्तगाली अपने साथ पुर्तगाल से लाए थे . इसके आलावा नारियल के घने झुरमुठ भी जगह जगह नजर आते है . दीव का इतिहास तो रोचक है ही भूगोल भी लोगों को आकर्षित करता है . नागोवा बीच से लेकर घोघला बीच उदाहरण है . सप्ताहांत में तो नागोवा बीच में लगता है मेला लग गया है .और शाम ढलते ही लहरों के पीछे एक छोटी पहाड़ी पर नीले लाल रंग में दीव लिखा जगमगाने लगता है . समुंद्र में वाटर स्पोर्ट्स की सुविधा है और बच्चे- बड़े समुंद्र की लहरों में पानी के स्कूटर से लेकर मोटर बोट से वाटर स्कीइंग करते नजर आते है . दूसरी तरफ कुछ शौकीन नौजवान समुंद्र में नहाने के बाद रेत पर ही प्लास्टिक के गिलास में मदिरा उड़ेलते नजर आते है . समुंद्र तट पर ओपन एअर बार कई जगह देखा है और गोवा के कलंगूट बीच पर तो महिलाओं को सर पर टोकरी रखकर बीयर से लेकर फेनी बेचती देख चुका हूँ . पर गुजरात के नौजवानों का इस तरह बैठना हैरान करने वाला था . बीच के किनारे करीब पांच सौ वहां लाइन से लगे थे जिसमे कई तो खाना बनाने की व्यवस्था और तंबू आदि के साथ थे . नागोवा से लौटते समय रास्ते में कई जगह सैलानियों के तंबू और चूल्हे भी जलते नजर आए .दीव शहर की तरफ जाते ही सेंट पॉल चर्च रास्ते में पड़ता है . 17 वीं शताब्दी की शुरुआत में बने इस चर्च को पूरे होने में तकरीबन दस साल का वक्त लगा. पुर्तगालियों ने जो चर्च यहाँ बनवाए उनमे इस चर्च को सबसे भव्य माना जाता है. इसका वुड वर्क दुनिया के बेहतरीन क्राफ्ट वर्क्स में गिना जाता है. इसी के पास ही सेंट थॉमस चर्च है जो अब म्यूजियम में बदल चुका है म्यूजियम में दीव पर राज करने वाले तमाम शासकों और उनके दौर के क्राफ्ट के नमूने हैं. दीव एक और आकर्षण सी-शेल म्यूजियम है जिसे मर्चेंट नेवी के एक कैप्टन ने बनाया है .यहां तकरीबन तीन हजार शेल हैं. यह दुनिया का पहला म्यूजियम है, जहां समुद्र में पाए जाने वाली सीपों और शंखियों को के किनारे पहाड़ी पर बना खुकरी मेमोरियल भारतीय नेवी के शौर्य की अनूठी मिसाल है . खुकरी इंडियन नेवी का एक तेज लड़ाकू जहाज था. 1971 की लड़ाई में इसने पाकिस्तान पर बमबारी की और बाद में नेवी की जांबाजी का परिचय देता हुआ 18 ऑफिसरों और 176 नाविकों सहित समुद्र में समा गया.पुर्तगालियों का बनाया एक और किला समुंद्र के बीच में है जो कभी फोर्ट्रेस आफ पानीकोटा के नाम से जाना जाता था तो आज पानीकोठा भी कहलाता है .इस किले में मोटर बोट से जाया जा सकता है .पर दीव का मुख्य किला ही महत्वपूर्ण माना जाता है जिसका निर्माण १५३५ में नुनो दे कुन्हा ने कराया था बाद में भारत में पुर्तगाल के चौथे वाइसराय (1547-1548) जोआओ दे कास्त्रो ने इस किले का पुनर्निर्माण कराया . किले में चर्च है तो जेल भी और जब यह बना था तो एक छोटा सा पुर्तगाल इसमे समाया हुआ था . इस किले ने कई युद्ध देखे और पुर्तगालियों को बचाया भी . पुर्तगालियों के किले , चर्च और अन्य निर्माण आज भी दीव में है पर अब कोई पुर्तगाली नही बचा है . सभी पुर्तगाल लौट चुके है . पुर्तगालियों की जो पीढी भारत में ही पैदा हुई और जवान हुई वह भी जा चुकी है . गोवा ,दमन और दीव की आजादी के बाद पुर्तगाल ने सभी को वीजा देकर बुला लिया अपवाद है तो गोवा जहा कुछ पुर्तगाली परिवार अभी भी है . जबतक पुर्तगाली शासन रहा पुर्तगाली भाषा आभिजात्य वर्ग की भाषा रही और आज भी कुछ परिवार पुर्तगाली भाषा बोलते नजर आ जाएंगे . पर खानपान और संस्कृति पर पुर्तगाली जो असर छोड़ गए है वह बरकरार है . शाम को खानसामा ने जो सुरमई मछली और किंग प्रान परोसे वह भी पुर्तगाली व्यंजन थे , जो आज भी गोवा ,दमन और दीव में लोकप्रिय है . रिजवान भाई समुंद्र में मछली पकड़ने का कारोबार करते है . खाना बनाने का शौक भी है . रिजवान के शब्दों में - साहब जब समुंद्र में मछली पकड़ने जाते है तब हफ्ता भर रहना पड़ता है . प्लास्टिक के बड़े बड़े डिब्बों जैसे कैशरोल में बर्फ का चूरा लेकर जाते है ताकि मछली पकड़ने बाद उसको रखा जा सके . खाना नहाना सबकुछ छोटे से जहाज पर ही होता है . मै जब खाना बनाने बैठता हूँ तो किसी को हाथ नही लगाने देता . समुंद्र की ताजा मछली होती है और वह मसाले जो पुर्तगाली इस्तेमाल करते थे वही तरीका भी . दीव में आज भी पुर्तगाली खाना बहुत लजीज माना जाता है .यह बानगी है दीव पर पुर्तगाल के असर की . दीव में मदिरा पर टैक्स नही है और काफी सस्ती मिलती है इसलिए दीव के बाहर यानी गुजराज के नौजवानों की भीड़ भी उमडती है और शाम से ही यहाँ के बार गुलजार हो जाते है .जो कुछ और उन्मुक्त होते है वे समुंद्र तट का रुख कर लेते है . पर गोवा की तरह लहराते हुए लोग नही नजर आएंगे . दमन की आबादी में गुजरातियों का बड़ा हिस्सा है और उनके चलते माहौल अलग बना हुआ है खासकर गोवा के मुकाबले . यही वजह है कि दोपहर एक बजते ही बाजार बंद हो जाता है जो शाम को ही खुलता है . सब्जी और मछली बाजार तो दोपहर तक ही लगता है . पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए दीव में मछुआरों का कार्यस्थल भी बदल कर घोघला समुंद्र तट पर बसे गाँव में कर दिया गया है ताकि मछली सुखाने से हवा में जो गंध फैलती है उससे निजात मिले . गोवा ,दमन और दीव को आजाद हुए पचास साल होने जा रहे है और दिसंबर से इसके समारोह भी शुरू हो जाएंगे .

Wednesday, September 26, 2018

काकपिट में मटका!

काकपिट में मटका! अंबरीश कुमार अस्सी के दशक में एयर इंडिया /इंडियन एयरलाइन्स की कई नियमित उड़ान के पायलट रहे .मुख्य रूट था कलकत्ता /भुवनेश्वर /विशाखापत्तनम और हैदराबाद .रत का पड़ाव हुआ हैदराबाद में रुके नहीं तो कोलकता वापस .टालीगंज में रहते थे .बीच बीच में दिल्ली /कोलकोता या कोलकोता सिंगापूर /ढाका आदि भी .दिल्ली से कई ऐसी भी उड़ान में पायलट रहे जिसमे मुख्य पायलट राजीव गांधी होते थे .कैप्टन श्रीवास्तव याद करते हुए बोले ,ऐसा व्यक्तिव मैंने बहुत कम देखा .इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी .कोलकोता से लौटे और हम होटल अशोका में चले गए तो राजीव गांधी एक सफदरजंग .उड़ान से पहले जब पायलट और को पायलट का परिचय दिया जाता तो राजीव गांधी का आग्रह होता कि उनके गांधी सरनेम का उल्लेख न किया जाए .सिर्फ कैप्टन राजीव कहा जाए .और यही कहा भी जाता .पायलट के प्रशिक्षण में हैदराबाद में वे भी अन्य पायलट के साथ रहते और किसी को यह अहसास नहीं होता कि ये प्रधानमंत्री के पुत्र हैं . खैर कैप्टन श्रीवास्तव अस्सी पार कर चुके हैं .दो ढाई साल पहले .पायलट की नौकरी से रिटायर हुए तो रामगढ़ में बस गए .गोंडा में उनके पिता जो मशहूर डाक्टर रहें हैं उनकी काफी बड़ी कोठी आज भी है .रहने वाले चार प्राणी और चौबीस कमरे .क्या देखें और कैसे देखें .अभी भी ज्यादा समय पहाड़ पर अकेले रहते हैं .खानपान में कोई बदलाव नहीं आया है .पांच किलोमीटर तो चलते ही हैं .पायलट रहे तो देश विदेश घूमना होता ही था .पर नियमित उड़ान पर भी जाते तो कुछ न कुछ जरुर लाते .चाहे पूर्वोत्तर का संतरा हो या भुवनेश्वर /विशाखापत्तनम का झींगा .भुवनेश्वर की उड़ान से लौटते तो चिलिका झील का मशहूर झींगा जरुर रहता .वह भी पानी भरे छोटे से घड़े में .बोइंग तो बाद में आया फोकर और एवरो भी खूब उड़ाया .बोले ,काकपिट में पीछे की तरफ अपने सामान के साथ यह घड़ा संभाल कर रखता और आराम से कलकत्ता आ जाता .पर समस्या कार से घर जाने पर होती .इसे हाथ में पकड़ना पड़ता .खैर वह भी दौर था .अब वे नैनीताल जाते हैं तो हैम /सलामी /सासेज ले आते हैं जो फ्रीजर में पड़ा रहता है . उम्र के चलते बगीचा देखना संभव नहीं होता .अच्छी प्रजाति के सेब और बबूगोशा होता है .घर के सामने खुबानी का पड़ा कलमी आम जैसा लगता है जिसके नीचे उनकी यह फोटो है .बगल में ही रस्तोगी जी का घर था ,अब बिक गया .रस्तोगी जी के बारे में कुछ दिन पहले लिखा था .दो साल पहले वे यहां से अपने पुत्र कर्नल अभय के पास चंडीगढ़ चले गए थे .जाते समय कैप्टन श्रीवास्तव से बोले ,मै यहां से जा तो रहा हूं पर अब मेरी उम्र आधी रह जाएगी .जड़ से काटने पर ऐसा ही तो होता है .यही वजह है कैप्टन श्रीवास्तव यह जगह नहीं छोड़ते ,भले अकेले रहना पड़े .

Friday, September 21, 2018

बरसात में बस्तर

अंबरीश कुमार कांकेर के आगे बढ़ते ही तेजी से दिन में ही अंधेरा छा गया था। सामने थी केशकाल घाटी जिसके घने जंगलों में सड़क आगे जाकर खो जाती है। साल, आम, महुआ और इमली के बड़े दरख्त के बीच सुर्ख पलाश के हरे पेड़ हवा से लहराते नजर आते थे। जब तेज बारिश की वजह से पहाड़ी रास्तों पर चलना असंभव हो गया तो ऊपर बने डाक बंगले में शरण लेनी पड़ी। कुछ समय पहले ही डाक बंगले का जीर्णोद्घार हुआ था इसलिए किसी तीन सितारा रिसार्ट का यह रूप लिए हुए था। शाम से पहले बस्तर पहुंचना था इसलिए चाय पीकर बारिश कम होते ही पहाड़ से नीचे चल पड़े। बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में अब यह क्षेत्र भी शामिल हो चुका है और पीपुल्स वार (अब माओवादी) के कुछ दल इधर भी सक्रिय हैं। केशकाल से आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे आम के घने पेड़ों की कतार दूर तक साथ चलती है तो बारिश में नहाये शाल के जंगल साथ-साथ चलते हैं, कभी दूर तो कभी करीब आ जाते हैं। जंगलों की अवैध कटाई के चलते अब वे उतने घने नहीं हैं जितने कभी हुआ करते थे। कोण्डागांव पीछे छूट गया था और बस्तर आने वाला था। आज भी गांव है, वह भी एक छोटा सा गांव। जिला मुख्यालय जगदलपुर है जो ग्रामीण परिवेश वाला आदिवासी शहर है। बस्तर का पूरा क्षेत्र अपने में दस हजार साल का जिन्दा इतिहास संजोए हुए है। हम इतिहास की यात्रा पर बस्तर पहुंच चुके थे। दस हजार साल पहले के भारत की कल्पना सिर्फ अबूझमाड़ पहुंच कर की जा सकती है। वहां के आदिवासी आज भी उसी युग में हैं। बारिश से मौसम भीग चुका था। हस्तशिल्प के कुछ नायाब नमूने देखने के बाद हम गांव की ओर चले, कुछ दूर गए तो हरे पत्तों के दोने में सल्फी बेचती आदिवासी महिलाएं दिखीं। बस्तर के हाट बाजर में मदिरा और सल्फी बेचने का काम आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। सल्फी उत्तर भारत के ताड़ी जैसा होता है पर छत्तीसगढ़ में इसे हर्बल बियर की मान्यता मिली हुई है। यह संपन्नता का भी प्रतीक है सल्फी के पेड़ों की संख्या देखकर विवाह भी तय होता है। बस्तर क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा जाता है। समता मूलक समाज की लड़ाई लड़ने वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमांडर अलग होते हैं। यह वही दंडकारणय है जहां कभी भगवान राम ने वनवास काटा था। वाल्मीकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहां दण्डकारण्य वन में गुजारा था। इस दंडकारणय की खूबसूरती अद्भुत है। घने जंगलों में महुआ-कन्दमूल, फलफूल और लकड़ियां चुनती कमनीय आदिवासी बालाएं आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं। यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़ती हैं। असंख्य झरने, इठलाती बलखाती नदियां, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियां। कुटुम्बसर की रहस्यमयी गुफाएं और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियां, यह इसी दण्डकारण्य में है। शाम होते ही बस्तर से जगदलपुर पहुंच चुके थे क्योंकि रुकना ही डाकबंगले में था। जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है जिसकी एक सीमा आंध्र प्रदेश से जुड़ी है तो दूसरी उड़ीसा से। यही वजह है कि यहां इडली डोसा भी मिलता है तो उड़ीसा की आदिवासी महिलाएं महुआ और सूखी मछलियां बेचती नजर आती हैं। जगदलपुर में एक नहीं कई डाकबंगले हैं। इनमें वन विभाग के डाकबंगले के सामने ही आदिवासी महिलाएं मछली, मुर्गे और तरह-तरह की सब्जियों का ढेर लगाए नजर आती हैं। बारिश होते ही उन्हें पास के बने शेड में शरण लेना पड़ता है। हम आगे बढ़े और जगदलपुर जेल के पास सर्किट हाउस पहुंचे। इस सर्किट हाउस में सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं आंध्र और उड़ीसा के नौकरशाहों और मंत्रियों का आना जाना लगा रहता है। कमरे में ठीक सामने खूबसूरत बगीचा है और बगल में एक बोर्ड लगा है जिसमें विशाखापट्नम से लेकर हैदराबाद की दूरी दर्शायी गई है। जगदलपुर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसंदीदा जगह रही है। मासूम आदिवासियों का लंबे समय तक यहां के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाकबंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं। पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी बड़े मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसंद करते हैं। यह झाबुआ के मशहूर कड़कनाथ मुर्गे के समकक्ष माने जाते हैं। सुबह तक बरसात जारी थी। पर जैसे ही आसमान खुला तो प्रमुख जलप्रपातों की तरफ हम चल पड़े। तीरथगढ़ जलप्रपात महुए के पेड़ों से घिरा है। सामने ही पर्यारण अनुकूल पर्यटन का बोर्ड भी लगा हुआ है। यहां पाल और दोने में भोजन परोसा जाता है तो पीने के लिए घड़े का ठंडा पानी है। जलप्रपात को देखने के लिए करीब सौ फिट नीचे उतरना पड़ा पर सामने नजर जाते ही हम हैरान रह गए। पहाड़ से लिपटती जैसे कोई नदी रुक कर आ रही हो। यह नजारा कोई भूल नहीं सकता। कुछ समय पहले एक उत्साही अफसर ने इस जलप्रपात की मार्केटिंग के लिए मुंबई की खूबसूरत माडलों की बिकनी में इस झरने के नीचे नहाने के दृश्यों की फिल्म बना दी। आदिवासी लड़कियों के वक्ष पर सिर्फ साड़ी लिपटी होती है जो उनकी परंपरागत पहचान है उन्हें देखकर किसी को झिझक नहीं हो सकती पर बिकनी की इन माडलों को देखकर कोई भी शरमा सकता है। जगदलपुर के पास दूसरा जलप्रपात है चित्रकोट जलप्रपात। इसे भारत की मिनी नियाग्रा वाटरफाल कहा जता है। बरसात में जब इंद्रावती नदी पूरे वेग में अर्ध चंद्राकार पहाड़ी से सैकड़ों फुट नीचे गिरती है तो उसका बिहंगम दृश्य देखते ही बनता है। जब तेज बारिश हो तो चित्रकोट जलप्रपात का दृश्य कोई भूल नहीं सकता। बरसात में इंद्रावती नदी का पानी पूरे शबाब पर होता है झरने की फुहार पास बने डाक बंगले के परिसर को भिगो देती है। बरसात में बस्तर को लेकर क िजब्बार ढाकाला ने लिखा है- वर्ष के प्रथम आगमन पर, साल वनों के जंगल में, उग आते हैं अनगिनत द्वीप, जिसे जोड़ने वाला पुल नहीं पुलिया नहीं, द्वीप जिसे जाने नाव नहीं पतवार नहीं। बरसात में बस्तर कई द्वीपों मे बंट जता है पर जोड़े रहता है अपनी संस्कृति को, सभ्यता को और जीवनशैली को। बस्तर में अफ्रीका जैसे घने जंगल हैं, दुलर्भ पहाड़ी मैना है तो मशहूर जंगली भैसा भी हैं। कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा आज भी रहस्यमयी नजर आती है। करीब तीस फुट संकरी सीढ़ी से उतरने के बाद हम उन अंधी मछलियों की टोह लेने पहुंचे जिन्होंने कभी रोशनी नहीं देखी थी। पर दिल्ली से साथ आई एक पत्रकार की सांस फूलने लगी और हमें फौरन ऊपर आना पड़ा बाद में पता चला उच्च रक्तचाप और दिल के मरीजों के अला सांस की समस्या जिन लोगों में हो उन्हें इस गुफा में नहीं जाना चाहिए क्योंकि गुफा में आक्सीजन की कमी है। गुफा से बाहर निकलते ही हम कांगेर घाटी के घने जंगलों में वापस लौट आए था। दोपहर से बरसात शुरू हुई तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लिया। हमें जाना था दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी का मंदिर देखने। छत्तीसगढ़ की एक और विशेषता है। यह देवियों की भूमि है। केरल को देवो का देश कहा जाता है तो छत्तीसगढ़ के लिए यह उपमा उपयुक्त है क्योंकि यहीं पर बमलेश्वरी देवी, दंतेश्वरी देवी और महामाया देवी के ऐतिहासिक मंदिर हैं। उधर जंगल, पहाड़ और नदियां हैं तो यहां की जमीन के गर्भ में हीरा और यूरेनियम भी है। दांतेवाड़ा जाने का कार्यक्रम बारिश की जह से रद्द करना पड़ा और हम बस्तर के राजमहल परिसर चले गए। बस्तर की महारानी एक घरेलू महिला की तरह अपना जीवन बिताती हैं। उनका पुत्र रायपुर में राजे-रजवाड़ों के परंपरागत स्कूल(राजकुमार कॉलेज) में पढ़ता है। बस्तर के आदिवासियों में उस राजघराने का बहुत महत्व है और ऐतिहासिक दशहरे में राजपरिवार ही समारोह का शुभारंभ करता है। इस राजघराने में संघर्ष का अलग इतिहास है जो आदिवासियों के लिए उसके पूर्व महाराज ने किया था। दंतेवाड़ा जाने के लिए दूसरे दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया गया। रात में एक पत्रकार मित्र ने पास के गांव में बने एक डाक बंगले में भोजन पर बुलाया। हमारी उत्सुकता बस्तर के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की थी। साथ ही आदिवासियों से सीधे बातचीत कर उनके हालात का जायजा लेना था। यह जगह डाक बंगले के परिसर में कुछ अलग कटहल के पुराने पेड़ के नीचे थी। आदिवासियों के भोजन बनाने का परंपरागत तरीका देखना चाहता था। इसी जगह से हमने सर्किट हाउस छोड़ गांव में बने इस पुराने डाक बंगले में रात गुजरने का फैसला किया। अंग्रेजों के समय से ही डाक बंगले का बार्चीखाना कुछ दूरी पर और काफी बनाया जता रहा है। लकड़ी से जलने वाले बड़े चूल्हे पर दो पतीलों में एक साथ भोजन तैयार होता है। साथ ही आदिवासियों द्वारा तैयार महुआ की मदिरा सल्फी के बारे में जनना चाहते थे। आदिवासी महुआ और चाल से तैयार मदिरा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। साथ बैठे एक पत्रकार ने बताया कि पहली धार की महुआ की मदिरा किसी महंगे स्काच से कम नहीं होती है। दो पत्तों के दोनों में सल्फी और महुआ की मदिरा पीते मैंने पहली बार देखा। गांव का आदिवासी खानसामा पतीलों में दालचीनी, बड़ी इलायची, काली मिर्च, छोटी इलाइची, तेजपान जैसे कई मामले सीधे भून रहा था। मुझे हैरानी हुई कि यह बिना तेल-घी के कैसे खड़े मसाले भून रहा है तो उसका जब था यहां देसी मुर्गे बनाने के लिए पहले सारे मसाले भून कर तैयार किए जते हैं फिर बाकी तैयारी होती है। बारिश बंद हो चुकी थी इसलिए हम सब किचन से निकल कर बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए। जगदलपुर के पत्रकार मित्रों ने आदिवासियों के रहन-सहन, शिकार और उनके विवाह के तौर तरीकों के बारे में रोचक जानकारियां दी। पहली बार बस्तर आए पत्रकार मित्र के लिए समूचा माहौल सम्मोहित करने वाला था। दूर तक फैले जंगल के बीच इस तरह की रात निराली थी। शाम होते-होते हम केशकाल घाटी से आगे जा चुके थे। केशकाल की घाटी देखकर साथी पत्रकार को पौड़ी की पहाड़ियां याद आ रही थीं। पर यहां न तो चीड़ था और न देवदार के जंगल। यहां तो साल के जंगलों के टापू थे। एक टापू जाता था तो दूसरा आ जता था। बस्तर की पहली यात्रा काफी रोमांचक थी। ऐसे घने जंगल हमने पहले कभी नहीं देखे थे। आदिवासी हाट बाजरों में शोख चटख रंग में कपड़े पहने युतियां और बुजुर्ग महिलाएं सामान बेचती नजर आती थीं। पहली बार हम सिर्फ जनकारी के मकसद से बस्तर गए थे पर दूसरी बार पत्रकार के रूप में। इस बार जब दिनभर घूम कर खबर भेजने के लिए इंटरनेट ढूंढना शुरू किया तो आधा शहर खंगाल डाला पर कोई साइबर कैफे नहीं मिला। सहयोगी पत्रकार का रक्तचाप बढ़ रहा था और उन्हें लग रहा था कि खबर शायद जा ही न पाए और पिछले दो दिन की तरह आज भी कोई स्टोरी छप पाए। खैर, एक साइबर कैफे भी तो उसमें उनका इमेल खुलने का नाम न ले। अंत में मेरे याहू आईडी से बस्तर की खबर उन्होंने भेजी और हजार बार किस्मत को कोसा। खबर भेजने के बाद हम मानसिक दबाव से मुक्त हुए और जगदलपुर के हस्तशिल्प को देखने निकले। आदिवासियों के बारे में काफी जनकारी ली और दिन भर घूम कर हम फिर दूसरे डाक बंगले में बैठे। कुछ पत्रकार भी आ गए थे और फिर देर रात तक हम जगदलपुर की सड़कों पर टहलते रहे। इस बार तीरथगढ़ जलप्रपात देखने गए तो जमीन पर महुए के गुलाबी फूल बिखरे हुए थे। उनकी मादक खुशबू से पूरा इलाका गमक रहा था। महुआ का फूल देखा और यह क्या होता है जानने का प्रयास किया। वे महुए की दोनों में बिकती मदिरा भी चखना चाहतीं पर वह दोनों हाइजनिक नहीं लगा इसलिए छोड़ दिया। एक गांव पहुंचे तो आदिवासियों के घोटूल के बारे में जानकारी ली। घोटूल अब बहुत कम होता है। विवाह संबंध बनाने के रीति-रिवाज भी अजीबो गरीब हैं। आदिवासी यु्वक को यदि युवती से प्यार हो जए तो वह उसे कंघा भेंट करता है और यदि युवती उसे बालों में लगा ले तो फिर यह माना जता है कि युवती को युवक का प्रस्ताव मंजूर है। फिर उसका विवाह उसी से होना तय हो जता है। बस्तर का पूरा इलाका देखने के लिए कम से कम हफ्ते भर का समय चाहिए। पर समय की कमी की वजह से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में इस आदिवासी अंचल को देखा पर पूरा नहीं देख पाया हूं।

Wednesday, September 5, 2018

इंदर बहादुर चला गया

कल भवाली से जैसे ही लौटा कृष्णा जोशी के यहां अख़बार लेने के लिए आगे बढ़ा तो सामने बुजुर्ग डालाकोटी मिले .बोले ,आपका टाइगर गुजर गया अभी उसे दफना कर आ रहे हैं .झटका सा लगा .अभी कुछ दिन पहले ही तो बस स्टेशन पर पहुंचते वह आ गया और अंबर को देखकर उछलने लगा .सविता ने बिस्कुट का पैकेट लिया और उसे खिलाया .वापसी में वह दीपा कौल के काटेज तक आया .इसके आगे वह नहीं आता था .शायद डर या अपनी मां के गुजर जाने का दुःख हो .करीब पांच साल पहले ही उसकी मां जिसे हम घोटू कहते थे उसे बाघ का बच्चा उठा ले गया था .उसके बाद टाइगर बाजार चला गया और बहुत कोशिश के बावजूद नहीं लौटा .घर पर कोई था भी तो नहीं .इंदर बहादुर की बीबी पहले गई ,फिर दोनों बच्चे चले गए कमाने खाने .बहादुर जिसे सारा रामगढ़ इंदर बहादुर कहता था वह बीबी आशा के भाग जाने के बाद विक्षिप्त हो गया .अपने से बात करने लगा .रात में जोर जोर से चिल्लाता .फिर अशक्त होगया और उसके बच्चे एक दिन हल्द्वानी ले गए . फिर कुछ वर्षों तक कोई खबर नहीं मिली .आज राजेंद्र तिवारी के बनते हुए घर को देखने गया तो बात बात में ढेला जी ने बताया कि बहादुर तो काफी दिन पहले गुजर गया .सन्न रह गया .पच्चीस साल से पहले मिला था .सेवक भी तो चौकीदार भी .परिवार का सदस्य जैसा .आज अपना जो बगीचा है उसको गढ़ा बहादुर ने ही था .गर्मी हो या बरसात जुटा रहता .हाइड्रेंजिया के सारे पौधे उसी ने लगाए तो किवी का पौधा भी और देवदार भी .गाय पालने को बोला तो एक गाय खरीदवा दी .एक दिन बाघ ने गाय के बछड़े पर हमला किया और लेकर नीचे कूदा तो बहादुर फ़ौरन निकला और कूद गया .बछड़ा का आधा गला बाघ ने काट लिया था .पर इलाज चला और वह बछड़ा बच गया .पर बीबी जब उसे छोड़ के भाग गई तो यह झटका बर्दाश्त नहीं कर पाया .कुछ महीने तक तो बुरी तरह चिल्लाता हुआ घूमा .फिर कुछ सामन्य हुआ पर खुद से बोलना जारी रहा .आलोक तोमर आते तो उसे ऊपर के कमरे में बुलाते एक पौव्वा देते और उसकी बाते सुनते सब याद आया .नेपाल के जुमला जिले के दूर दराज के गांव का रहने वाला था .पिता ग्राम प्रधान थे .सेब के बगीचे और खेती भी थी .पर कमाने के लिए भवाली आया और फिर शिवाजी ठेकेदार के यहां मजदूरी करने लगा .अपने को करीब पच्चीस साल पहले दिसंबर में मिला .बर्फ पड़ी हुई थी और यह भीतर कमरे में तराई कर रहा था .बोला साब आप हमें चौकीदार रख लो .दूर से आना पड़ता है .उमागढ़ की पहाड़ी पर एक गोदाम में रहता था .अपने को अद्भुत किस्म का लगा और फिर वह अपने परिवार के सदस्य जैसा हो गया .शाम के बाद आसपास के नेपाली भी उसके झोपडी नुमा रसोई में जुटते .प्लम के पेड़ के नीचे एक बड़ी झोपडी में रसोई घर बनाया था .कई बार अपनी रोटी भी चूल्हे पर बना कर लाता .कई लोगों ने उसकी बनाई रोटी खाई है .यह सब किसी फिल्म की तरह सामने से गुजर रहा है . कुछ साल पहले धनंजय बाबा आये तो अपने ब्लॉग पर उसके बारे में कुछ ऐसे लिखा था - बहादुर.वैसे उसका नाम इन्दर है पर इन लोगों को हमारे देश में बहादुर कहा जाता है.ये यहां अम्बरीश जी का पुराना सहयोगी है. खासियत पता चली की ये हमेशा अपने से बात करता रहता है और बात होती है उसकी पत्नी और बिहार के बारे में,कारण उसकी पत्नी एक बिहारी श्रमिक के साथ पलायित हो चुकी है क्योंकि वह बहादुर से कम दारु पीता था.पता चला की इस प्यारे कसबे में ढेर सारे रसूख वालों की बड़ी बड़ी कोठियां हैं, जहाँ ऐसे ही बाहदुर ही रहते हैं.कुछ की पत्नियाँ भी साथ हैं और कुछ की भाग गयी हैं.इन बहादुरों के सहयोगी के रूप में मालिक की हैसियत के हिसाब से कुत्ते भी हैं.जो फलों पर टूटते बंदरों को शुरू में हड़काते हैं.पर पता चला की बन्दर बड़े कायदे से कुत्तों को पकड़ कर झपड़िया देते हैं,जिसके बाद कुत्ते भोंकना भी भूल जाते हैं.न तो रामगढ़ के कुत्ते आप को बोलेंगे और न बन्दर.बंदरों के सुख को देख कर लगा की अगले जनम मोहे रामगढ़ का वानर ही कीजो,चारों तरफ रसीले फलों के जंगल,अपने हिसाब से चुनने और खाने की आजादी.अँधेरा घिरता जारहा था और आकाश में तारे बस हाथ बढ़ा के छु लेने की दूरी पर लग रहे थे.जाहिर है सोने की इच्छा तो नहीं थी पर टैगोर टॉप जाने की इच्छा के साथ जून के महीने में कम्बल तान लेट गया.सुबह टैगोर टॉप.

Sunday, September 2, 2018

द्वारका में कृष्ण

अंबरीश कुमार पापा रेलवे में रहे तो दादी को चारो धाम की यात्रा कराई .बहुत छोटा था फिर भी कुछ धुंधली याद है .अपने को ट्रेन में चलना अच्छा लगता था .वे इंजीनियर थे तो उस समय परिवार के लिए फर्स्ट क्लास का एक पूरा डिब्बा मिलता था .बर्थ तो चार ही होती पर उसमे खाने के लिए टेबल और बाथरूम में नहाने के लिए शावर भी होता था .दादी ट्रेन में खाना नहीं खाती थी इसलिए जब कहीं ट्रेन रूकती कुछ समय के लिए तो वह काला बक्सा उतारा जाता जिसमे आटा ,दाल ,चावल और अन्य सामान होता .स्टोप अलग होता .अमूमन रिटायरिंग रूम में जाते और फिर खाना /नाश्ता बनता .कई जगह रिटायरिंग रूम नहीं मिलता तो प्लेटफार्म पर ही किसी जगह पर कैम्प लग जाता .तब छोटे छोटे स्टेशन पर इतनी भीड़ भी नहीं होती थी .एक बार कांचीपुरम गए तो शाम को स्टेशन मास्टर आया और बोला कि वह सब बंद कर जा रहा है क्योंकि रात में इस लूप लाइन पर कोई ट्रेन ही नहीं आती थी .इसी तरह द्वारका स्टेशन पर भी चाय आदि बनाई गई थी .कुछ साल पहले मै परिवार के साथ फिर द्वारका गया .द्वारका से सोमनाथ मंदिर होते हुए दीव का कार्यक्रम था .द्वारका में सुबह सुबह मंगला आरती में शामिल होकर निकलना था .इसलिए टैक्सी वाले को स्टेशन ही बुला लिया ताकि नहा कर सीधे मंदिर चले जाएं . द्वारका स्टेशन पहुंच तो भोर में ही गए पर पता चला कि रिटायरिंग रूम /वेटिंग रूम का कायाकल्प हो रहा है .वोटिंग रूम भी छोटा सा था .खैर एक घंटे में हम लोग तैयार हो गए .बिजली वाली केतली जो साथ लेकर चलता हूं उससे चाय बन गई और फिर द्वारका स्टेशन पर टहलने लगे .बहुत लंबा सा और साफ सुथरा प्लेटफार्म था .कल यहां पहाड़ में सविता ने जन्माष्टमी की पूजा की तो यह सब याद आया . गुजरात का द्वारका शहर वह स्थान है जहां मान्यता के हिसाब से 5000 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद द्वारका नगरी बसाई थी और भगवान कृष्ण के राज्य की प्राचीन और पौराणिक राजधानी कहा जाता है।.जिस स्थान पर उनका निजी महल ‘हरि गृह’ था वहाँ आज प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है.आठवीं शताब्दी के हिन्दू धर्मशास्त्रज्ञ और दार्शनिक आदि शंकराचार्य के बाद, मंदिर भारत में हिंदुओं द्वारा पवित्र माना गया ‘चार धाम’ तीर्थ का हिस्सा बन गया. अन्य तीनों में रामेश्वरम, बद्रीनाथ और पुरी शामिल हैं, यही नहीं द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से एक है. यह मंदिर एक परकोटे से घिरा है जिसमें चारों ओर एक द्वार है. इनमें उत्तर दिशा में स्थित मोक्ष द्वार तथा दक्षिण में स्थित स्वर्ग द्वार प्रमुख हैं. सात मंज़िले मंदिर का शिखर 235 मीटर उंचा है. इसकी निर्माण शैली बड़ी आकर्षक है. शिखर पर क़रीब 84 फुट लम्बी बहुरंगी धर्मध्वजा फहराती रहती है. द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है.मंदिर में दर्शन कर निकले तो दक्षिण भारतीय और गुजराती नाश्ता हुआ .फिर समुंद्र के किनारे किनारे सोमनाथ की तरफ चले .इस बीच दिल्ली से केपी सिंह का फोन आया .बोले सोमनाथ कब तक पहुंचेंगे ?मैंने बताया सड़क बहुत ही ज्यादा खराब है इसलिए समय लग रहा है .वे चौंक कर बोले ,आप गुजरात की सड़क को खराब बता रहे हैं ,यह तो विकास का प्रतीक अंचल है . अब सड़क के गड्ढे तो खुद भर नहीं जाते जबतक कोई प्रयास न हो .बहरहाल यह हाल दीव की सीमा तक रहा .दीव की सड़कें हवाई पट्टी की तरह थी .

Monday, July 30, 2018

एक वीरान समुंद्र तट पर

अंबरीश कुमार समुंद्र की कई यात्रा की और समुंद्र के तट पर कई बार ठहरना हुआ .लक्ष्यद्वीप ,कोवलम ,दमन ,दीव ,कन्याकुमारी ,महाबलीपुरम ,विशाखापत्तनम से लेकर गोवा के बहुत से तट पर .पर लक्ष्यद्वीप के अगाती और बंगरम समुंद्र तट के बाद यह पहला समुंद्र तट मिला जो वीरान था .हम लोग रात में करीब ग्यारह बजे दापोली के इस तट पर पहुंचे थे .जिस सागर हिल रिसार्ट में जाना था वह सड़क के दाईं तरफ था और सड़क के दूसरी तरफ अरब सागर .कमरे की बालकनी की तरफ जो दीवार थी वह शीशे की थी ,दरवाजा छोड़कर .कमरे में जाते ही सामने अरब सागर की लहरे दौडती हुई आती दिख रही थी . बरसात हो चुकी थी और हवा में ठंढ भी थी .तटीय इलाकों में उमस ज्यादा होती है इसलिए इंतजाम में लगे रवींद्र से मैंने एक एसी कमरे के लिए कहा था .कमरे तो सभी एसी वाले थे पर वे जून से सितंबर तक उसे बंद कर देते है .खिड़की खोलते ही ठंढी हवा का झोंका आया तो लगा इधर फिलहाल एसी की जरुरत ही नहीं है .तबतक खाने का बुलावा आ गया .रात के बारह बज रहे थे .साल ,नारियल ,सुपारी ,आम आदि के घने जंगल से होते हुए आये थे .पहाड़ी और घुमावदार रास्ता था .थकावट महसूस हो रही थी .गर्म पानी से नहाने के बाद खाने के लिए ऊपर लगी मेज कुर्सियों के पास पहुंचे तो लगा किसी जहाज के डेक पर बैठे हैं .सामने सागर और किनारे पर नारियल के लहराते पेड़ .हल लोग कुल पंद्रह लोग थे .शिक्षक ,लेखक ,एक्टिविस्ट ,फोटोग्राफर और यायावर .रेलवे के एक आला अफसर भी थे तो पत्रकार भी .ज्यादातर से परिचय भी रास्ते में या फिर खाने की मेज पर हुआ .यह का वह समूह था जो मौसम बदलने पर देश के विभिन्न हिस्सों में किसी एक जगह का चयन कर मिलता है .मकसद है देश के अलग अलग अंचल में गांव ,आदिवासी समाज के बीच जाना और उन्हें जानना समझना .ताकि किसी रचनाकार को अपने रचनाकर्म में मदद मिले .इसके सूत्रधार हैं लेखक ,यायावर सतीश जायसवाल .वे हर कार्यक्रम की व्यवस्था किसी स्थानीय मित्र को देते हैं . अमूमन वे गांव कस्बे /डाक बंगले में रुकने की सस्ती व्यवस्था करते हैं .पर इस जगह तो गांव ही रिसार्ट में बदल गया था और आफ सीजन डिस्काउंट के बाद धर्मशाला वाले किराए में ही यह कमरे मिल गए थे .खानपान भी सामान्य ही था .पहाड़ का एक बालक जब कोंकड़ी व्यंजन बनाए तो स्वाद की बहुत चिंता नहीं करनी चाहिए .पर जगह उत्तम थी .गांव के सरपंच सचिन जब दूसरे दिन आए तो बताया कि यह दापोली का पहला रिसार्ट है जो नब्बे के दशक में बना .ऐसी लोकेशन किसी और की नहीं है .दूसरे दिन नाश्ते के बाद जब समुंद्र किनारे किनारे गांव की तरफ गए तो बदलता हुआ दापोली नजर आया .दरअसल गांव पीछे चला गया था और होटल रिसार्ट आगे हो गए थे .यह मछुवारों का गांव रहा है जिन्होंने बाद में सैलानियों की बढती आवाजाही के बाद अपने घर पीछे कर दिए और होटल रिसार्ट आगे बना दिए .इससे आमदनी का नया जरिया मिला .हर्ले बंदरगाह कुछ किलोमीटर दूर ही है जहां शिवाजी के दो किलों के खंडहर अभी भी मौजूद हैं .शिवाजी का नाम लेने वाली सरकार ने इन किलों को तो बदहाल कर ही रखा है साथ ही उधर जाने वाली सड़क ऐसी बना रखी है कि ज्यादा लोग जाने ही न पाएं .खैर यह दापोली का वर्षावन जैसा अंचल है .बरसात होती है तो जमकर होती है .कई दिन तक होती रहती है .ज्यादातर घरों और होटल रिसार्ट में जगह जगह जमी काई से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है .बरसात जमकर होती है इसलिए हरियाली भी देखने वाली होती है .कई जगहों पर दूर तक फैली हरी घास को देखकर किसी बड़े चरागाह का आभास होता है .गांव में छोटे छोटे फ्रेंच टाइल्स की छत वाले घर के आगे नारियल ,काजू ,सुपारी से लेकर कई तरह के क्रोटन दिखते हैं .गोवा की तरह .पर नए निर्माण तो लिंटर वाली छत के हो रहे हैं .फिलहाल समुंद्र तट के गांव पीछे जा रहे हैं देर सबेर दूसरे गांव भी पहाड़ पर और ऊपर चले जाएंगे ,विकास को रास्ता और जगह देते हुए .जारी

Wednesday, July 4, 2018

और एक ये हैं प्रचारक कुलपति

चंचल पढ़ाई में एक विषय है समाजशास्त्र । इस विषय के जनक हैं , राजाराम शास्त्री । काशी विद्यापीठ के कुलपति रहे हैं । हम सौभाग्यशाली हैं कि उनके कार्यकाल में उनका विद्यार्थी रहा । यह जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति ने निहायत ही शर्मनाक और बेहूदी हरकत की है । लडकिया कई एक लड़के अपनी मांग को लेकर अनशन पर थे । कुलपति के 'आदेश ' पर पुलिस ने जिस तरीके से इन बच्चों को गिरफ्तार किया वह बहुत कमीन हरकत लगी । हम कहां जा रहे हैं ? क्या कहा है उस लड़की ने जिसके चलते उसके प्रवेश पर रोक लगा है ? कुछ यो शर्म करो । हमने श्री राजाराम शास्त्री का जिक्र किया । बहुत बड़े आदमी रहे । कोई सुरक्षा नही , कोई आडंबर नही , खादी का कुरता धोती पहने काशी विद्यापीठ में प्रवेश करते थे , ठकुराइन ने कुलपति को रोक लिया । - शास्त्री जी ! तुमही फैसला करो । ई बकरी अधिया पे मुमताज ने शकील को दिया । इस छेण्ड ने तीन बच्चे जने , बंटवारा में कुल सात रुपये का फर्क आ रहा है यह कौन देगा ? शास्त्री जी चुप रहे , फिर बोले - ठकुराइन ! ई झगड़ा ना है , इसे रगड़ा कहते हैं , सात रुपये राजाराम देगा । और कुलपति राजाराम शास्त्री ने जेब से सात रुपये निकलाल कर ठकुराइन के हाथ पर रख दिये । कम्बख्हत कुलपति लखनऊ विश्वविद्यालय ! हटोगे ओहदे से कोई जिक्र नही होगा , कुलपति का जिक्र होगा तो आचार्य नरेन्द्रदेव , राजाराम शास्त्री , डॉ त्रिगुण सेन ,डॉ इकबाल नारायण का होगा । कुलपति का ओहदा होता है मात्र छात्र की वजह से । इतनी समझ रख लो किलपति यस पी सिंह । हटना तो हॉइ ही कैसे भागोगे वहः रास्ता तय करो । आज बच्चों की गिरफ्तारी ने हमे विचलित किया है. (छात्रा पूजा शुक्ल का गिरफ़्तारी के बाद अस्पताल में भी अनशन जारी )

Friday, June 1, 2018

टूट रहा है ब्रांड मोदी का तिलिस्म !

अंबरीश कुमार देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उप चुनाव के बाद से भाजपा सदमे में है .उसके सबसे बड़े ब्रांड यानी ' मोदी मैजिक ' का तिलिस्म टूटता नजर आ रहा है .बीते कुछ महीने के सभी चुनाव पर नजर डाल ले .गुजरात में नरेंद्र मोदी ने पूरा जोर लगा लिया पर बहुत मुश्किल से बचे .क्या नहीं बोले .पकिस्तान को तो वे हर चुनाव में ले आते है .याद है न गुजरात चुनाव में पाकिस्तान से उड़ा वह सी प्लेन भी आया था जिसे साबरमती पर उतार कर विकास की झलकी उन्होंने दिखाई थी .फिर वह जहाज अपने देश चला गया .विकास यहीं रह गया .कर्नाटक चुनाव हुआ तो वे फिर अपने भाषणों में पकिस्तान चले गए .बची खुची कसर चेलों ने पूरी कर दी जिन्ना की फोटो का विवाद उछालकर .यह बात अलग है उसी दौर में जिन्ना के देश की चीनी का स्वाद भी देश ने ले लिए .कर्नाटक चुनाव में तो लोकतंत्र को ताक पर रख कर सरकार बनाने और खरीद फरोख्त करने का प्रयास भाजपा नेतृत्व ने किया .और भाजपा के राज्यपाल ने इसमें पूरी मदद की .न्यायपालिका की जो थोड़ी बहुत साख बची हुई है उसके चलते कर्नाटक में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी .पर इससे भी कोई सबक पार्टी ने नहीं लिया .यह इन उप चुनाव के नतीजों से साफ़ हो गया है . इन चुनाव में क्या नहीं किया भाजपा और योगी, मोदी ने .योगी ने यूपी के में सीधे मजहबी गोलबंदी का प्रयास किया और विपक्ष पर हमला करने में वे मुख्यमंत्री की मर्यादा तक भूल गए .और मोदी ने एक उप चुनाव में प्रचार करने के लिए जो भौंडा तरीका अपनाया वह कोई भूल नहीं सकता .बगल के जिलें में कार्यक्रम लगवा कर प्रचार किया और चुनाव आयोग कठपुतली की तरह देखता रहा .पर इस सबका जवाब किसानों ने दे दिया .पूरी आईटी सेल लगी रही पर पर माहौल बिगाड़ने का कोई हथकंडा काम नहीं आया तो ईवीएम को लू लगवा दी गई .गोरखपुर में भी यही सब हथकंडा अपनाया गया था पर वहां भी भाजपा हारी और माहौल बिगाड़ कर कैराना जीतने की योजना भी धरी रह गई .इस चुनाव में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से प्रचार किया था फिर भी हारे .जबकि न मायावती ने प्रचार किया न मुलायम ने .न ही अखिलेश यादव निकले .साफ़ है मोदी ब्रांड का तिलिस्म अब टूट रहा है .वजह जातीय /धार्मिक दुर्भावना और सुशासन में नाकाम होना .इसी कैराना के आसपास दलितों का उत्पीडन हुआ .दलित नेता चंद्रशेखर को जेल में ठूंस दिया गया गंभीर धाराओं में .इसका हिसाब भी इस चुनाव में हुआ है .दूसरे गन्ना किसानो से जो धोखाधड़ी इस सरकार ने वादा कर की थी उसका भी हिसाब हुआ है . यूपी के लोग लगातार तरह तरह के नाटक देख रहे है .चाहे रोमियो स्क्वायड हो या कसाइयों के खिलाफ अभियान या फिर गाय भैंस का मुद्दा .इससे देश के सबसे बड़े सूबे की सरकार कितने दिन चलेगी .विकास के मुद्दे को तो पलीता लगाया जा चुका है .सिर्फ भाषण से ज्यादा दिन शासन नहीं किया जा सकता .अब छतीसगढ़ ,मध्य प्रदेश और राजस्थान की बारी है .बाबू राजनाथ सिंह ने पता नहीं मोदी पर तंज कसते हुए कहा या मजाक किया कि कुछ कदम पीछे हटना पड़ता है उंची छलांग के लिए .तीन राज्य और हैं इस प्रयोग के लिए .बाकी ब्रांड मोदी का तिलिस्म टूटा तो बड़ी छलांग राजनाथ सिंह की ही होगी .

Saturday, May 5, 2018

मै संघी बनते बनते रह गया !

अंबरीश कुमार यह एक रोचक किस्सा है .कैसे बच्चों का दिमाग प्रदूषित किया जाता है और क्या से क्या बन जाते है .बहुत छोटा था .साठ का दशक .पापा सीडीआरआई में इंजीनियर थे .मुंबई से भाभा एटामिक एनर्जी जैसे संस्थान की नौकरी दादी के निधन में न पहुंच पाने के ताने की वजह से छोड़ के आये थे .लखनऊ के टैगोर मार्ग पर आर्ट्स कालेज से लगी कालोनी में पहला नंबर का घर अपना था आर्ट्स कालेज के आगे नदवा कालेज था और तब आर्किटेक्ट विभाग होता था आर्ट्स कालेज का .मंकी ब्रिज घुमावदार था और अमलतास के पेड़ों से घिरा था .घर में .आगे लान पीछे किचन गार्डन और बगीचा जिसमे मुझे अक्सर जोत दिया जाता था .जो मेरे पुराने साथी हैं सब उस घर में आये हैं .सामने गोमती और तब मंकी ब्रिज हुआ करता था जिसके नीचे चौदहवी का चांद जैसी फिल्म की शूटिंग हो चुकी थी .अपने घर में महात्मा गांधी की आदमकद फोटो थी शीशे में मढ़ी हुई .इसलिए उसे सीमेंट की खुली आलमारी के सबसे ऊपर के हिस्से में रखा जाता था .वह बड़ी फोटो पापा रेलवे की नौकरी के समय से संभाल कर रखते थे .वैज्ञानिक ,रिसर्च असिस्टेंट ,क्लर्क से लेकर असिस्टेंट डाइरेक्टर तक उस कालोनी में रहते थे .उनमे एक अंकल से करीबी रिश्ता था .अमूमन शाम को आ जाते .अपना परिवार अन्य मध्य वर्ग परिवारों की तरह कांग्रेसी था तब .पर एक अंकल जब भी आते वे गांधी की फोटो देख चिढ़ते और बोलते इसने तो देश बांट दिया ठीक किया गोडसे ने जो मार दिया .बच्चे थे पर बात तो सुनते ही रहते थे .धीरे धीरे दिमाग बन गया और उस फोटो से चिढ पैदा हो गई .सामने एक सरदारजी का बेटा बब्बू अपना साथी था .चिलबिल के बीज निकालने ,जंगल जलेबी तोड़ने से लेकर आम तोड़ने तक साथ देता था .अपने को पापा ने एक खिलौने वाली बंदूक दी थी जिसमे कार्क लगाकर निशाना लगाया जाता था .अपन ने बब्बू से कहा ,हम भी गोडसे बनेंगे और इस शीशे की फोटो को तोड़ देंगे .साजिश बनी और खिड़की के पास से निशाना लिया गया .कार्क की जगह कंचे की गोली डाल दी गई .जैसे ही ट्रिगर दबाया फोटो का शीशा तेज आवाज के साथ टूट कर फर्श पर आ गया .मम्मी भी दौड़ कर आई और देख कर हैरान .पिटाई ठीक से की .शीशा साफ़ किया गया .शाम को आये पापा ,उन्हें बताया गया तो उन्होंने फिर बिना मुरव्वत और ठीक से पीटा.फिर पूछा गया कि यह किया क्यों तो मैंने बताया अंकल ही तो रोज रोज कहते थे ,गोडसे ने ठीक किया .यह सुनकर उनका पारा और चढ़ गया .एक रूल लेकर फिर पिटाई की ,कहा तू गोडसे बनेगा ,मूर्ख ,बौड़म ,वे तो आरएसएस के हैं अफवाह फैलाकर बेवकूफ बनाते है .समझ नहीं आया तो रात में मम्मी से पूछा की ये आरएसएस क्या होता है .वे भी बहुत ज्यादा नहीं जानती थी गोरखपुर के बडहल गंज के पास के गांव मरवट की थी .स्कूल तक की शिक्षा हुई .आगे पढ़ाने का कोई प्रचलन भी नहीं था .हालांकि मेरी सारी किताबे पढ़ जाती थी हिंदी वाली .गांव की थी पर ये जानती थी कि गांधी को इन लोगों ने मारा था .बहरहाल अब मै सतर्क था .मै तो पीटा ही गया बब्बू के घर वालों ने उसकी भी पिटाई की .उस घटना के बाद उन अंकल ने बहुत कोशिश की आगे कुछ समझाने की पर मै और बब्बू दोनों तय कर चुके थे इन आरएसएस वालों के चक्कर में फिर नहीं फंसना है .उसके बाद कभी फंसे भी नहीं .शाखा वाले गुरूजी जब आते तो बब्बू पहले ही बता देता ,इनसे दूर रहना है ये फिर फंसा सकते हैं .उस पिटाई ने बचा लिया वर्ना मै भी कोई बड़ा प्रचारक तो बन ही जाता . बहरहाल इस कहानी का सिर्फ एक किरदार मै ही बचा हूं .न वे अंकल रहे ,न पापा रहे न अपना बचपन का मित्र सरदार रहा .बहुत कम उम्र में ही वह दिल के एक वाल्व में छेद होने की वजह से गुजर गया .पर संघ से आगाह कर गया था . फोटो -उस घर (नीचे वाला )की कुछ समय पहले की फोटो .अब बगीचा पाट दिया गया है और पक्की बाउंड्री बना दी गई है .हरियाली खत्म हो गई .वह लान भी जिसमे होली के मौके पर लोग जुटते थे

Friday, April 27, 2018

झरनों के एक गांव में

अंबरीश कुमार उत्तर काशी में रात बिताने के बाद सुबह करीब नौ बजे हर्षिल के लिए निकले . अब वाहन बदल चुका था मारुती की जगह अम्बेसडर और रफ़्तार भी ज्यादा नहीं . मारुती वैन की जगह अम्बेसडर लेने की ख़ास वजह थी .टिहरी से जब निकले तो मुसलाधार बरसात हो रही थी .रास्ता गंगा के ठीक ऊपर चल रहा था .तब टिहरी शहर आबाद था और टिहरी के आगे का भूगोल भी नहीं बदला था .मारुती वैन का ड्राइवर आगाह करने के बावजूद तेज रफ़्तार से ही गाडी चला रहा था .एक मोड़ पर अचानक सामने से एक मोटर साइकिल आ गई .ड्राइवर ने पूरी ताकत से ब्रेक लगाया जिससे गाड़ी एक सौ अस्सी डिग्री घूम कर सड़क के किनारे तक आ गई .एक फुट की जगह बची थी वर्ना हम सब गंगा में समां ही जाते .ड्राइवर पर बहुत गुस्सा आया .उत्तरकाशी पहुंचते ही पहला काम यह किया कि टैक्सी मालिक को फोन कर अम्बेसडर भेजने को कहा .रात में उत्तरकाशी में गंगा के किनारे रुके .करीब ढाई दशक पहले उत्तरकाशी का नजारा भी अलग था .गंगा का पानी और उसकी रफ़्तार दोनों देखने वाली थी .दुसरे दिन सुबह ही सविता एक स्थानीय मंदिर गई फिर आगे की यात्रा शुरू हुई . उत्तरकाशी से आगे चढ़ाई बढ़ती जाती है और पहाड़ नंगे होते नजर आते है . रास्ता भी बहुत संकरा और नीचे खाई की तरफ देखते ही डर लगता है . रास्ते में पड़े एक मंदिर में गर्म पानी के श्रोत से हाथ मुंह धोया और बाहर बैठकर चाय पी . आगे बढे सुखी टाप से आगे बढ़ते ही बर्फ से सामना हुआ पहले सड़क के किनारे किनारे फिर बीच बीच में भी . बर्फ गिराने के बाद अगर ओस पड़ जाए तो यह बर्फ काफी कड़ी हो जाती है और उसपर वाहन फिसलने लगता है . दोपहर में गंगोत्री के मुख्य रास्ते से बाई और मुड़े तो सामने जो गाँव था उसका नाम 'हर्षिल ' था . इसे देखते ही मुंह से निकला अद्भुत . वाकई गजब का नजारा था . इसका परिचय जो मिला उसमे कहा गया है - यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में है. बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है. मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है. यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ मीठे सेब के लिये मशहूर है. अंग्रेज विल्सन को यहां सेब जैसा फल लाने का श्रेय जाता है .शौकीन व्यक्ति थे ,उनका अलग इतिहास है .विल्सन काटेज भी दिखाया गया जहां वे रहते थे .इस काटेज के चारों और देवदार से घिरे पहाड़ थे तो इन पहाड़ से उतरती कई नदियां भी .ये नदियां पहाड़ से देवदार के जंगल पार करती हुई उतरती और सामने गंगा में समा जाती .वे अलग अलग रास्तों से गंगा तक पहुंचती .इन छोटी नदियों के किनारे सेब के कई बगीचे भी नजर आए . हर्षिल में ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, और हरे चारागाह आदि शामिल हैं.' खैर ,हम यहां सेना की एक शोध यूनिट के मेहमान थे .यह यूनिट तो ऊपर पहाड़ पर थी पर हमें नीचे पीडब्लूडी के एक डाक बंगले में ठहराया गया . सेना का एक जवान जो गाइड के रूप में था वह पीडब्लूडी के छोटे से डाक बंगले में ले गया जिसपर उत्तरकाशी के भूकंप के चलते दरार के निशान दिख रहे थे . दो कमरे थे जिसमे एक जो ज्यादा बेहतर था वह हमें दिया गया . थोड़ी देर बाद वह जवान चाय बिस्कुट के साथ आया और फिर इस जगह के बारे में बताने लगा . सुरेश नामका वह जवान फिर यह भी बोला -राजकपूर साब यही रुके थे ,राम तेरी गंगा मिली की शूटिंग के लिए ,इसी रूम में . कुछ देर बाद उसने बताया कि रात का खाना ऊपर पहाड़ पर स्थित मेस से ही आएगा और रात करीब नौ बजे तक क्योकि वह दूर है . चाय की व्यवस्था यहां थी . कुछ देर बाद बाहर निकले तो सामने भागीरथी का चौड़ा पाट था . किनारे पर ग्लास की एक बंद झोपडी जिसे ग्लास हाउस कहा जा रहा था उसके भीतर जाकर बैठे तो बर्फीली हवा से रहत मिली . दूर तक फैली सफ़ेद बालू पर गोल हो चुके पत्थरों की चादर बिछी थी और भागीरथी इन पत्थरों को छूती हुई गुजर रही थी . पीछे की तरफ ही वह मशहूर विल्सन काटेज था . हर्षिल में चारो ओर पहाड़ से गिरती करीब दस नदिया है जो झरने में बदल जाती है . ये झरने जब फिर नदी में बदलकर हर्षिल की जमीन पर आते है तो कई जगह टापू में बदल जाती है . पहाड़ पर देवदार के घने जंगल ,सेब के बगीचों के बगल से गुजरती एक नदी और उसके पारदर्शी पानी का जो दृश्य बन रहा था वह आर्ट्स कालेज के एक चित्रकार के कैनवास पर तो कई बार देखा पर साक्षात् पहली बार दिख रहा था . इन नदियों ,झरनों और वादियों को देखकर समझ आया राजकपूर ने क्यों इस जगह को चुना था . कुछ देर बाद गंगा के किनारे गए तो आकाश छोटे गोल पत्थरों से खेलने लगा .गंगा का इतना चौड़ा पाट पहाड़ पर पहले कभी नहीं देखा था .किसी समुद्र तट जैसा किनारा .दूर तक सफ़ेद बालू और सफ़ेद गोल पत्थरों के किनारे बहती गंगा का नीला पानी .याद है इस यात्रा पर जनसत्ता के रविवारीय में जो रपट लिखी थी उसका शीर्षक भी पहाड़ पर गंगा का समुद्र तट जैसा कुछ दिया गया था .आज भी वह तट भूलता नहीं .और गंगा का उद्गम भी तो ज्यादा दूर नहीं था .आकाश को लेकर इस गंगा तट पर कुछ देर चले कि बादल गरजने लगे .और एक झटके से बरसात शुरू हो गई .हम लोग दौड़ कर ग्लास हाउस के भीतर पहुंचे .पहाड़ की बरसात वह भी इतनी उंचाई पर ,फ़ौरन ठंढ महसूस होने लगी .हम लोगों ने वही पर चाय ली .चाय देने के साथ ही सेना के जवान ने बता दिया था कि खाना कुछ देर से मिलेगा .कमरे में आग का प्रबंध कर दिया गया था और उसकी वजह से कुछ राहत मिल गई थी .डाक बंगला की दीवार पर कुछ समय पहले आए भूकंप का असर मौजूद था .राजकपूर जैसे अभिनेता को भी इसी काम चलाऊ कमरे में ही रुकना पड़ा था क्योंकि कोई और जगह थी ही नहीं उस दौर में .अब तो बताते है कि कई गेस्ट हाउस खुल गए हैं .रात को करीब सवा नौ बजे जवान टिफिन लेकर आ गया और बोला - सर ,.अपने आफिसर के डिनर से पहले खाना सर्व नहीं हो सकता था इसलिए थोडा देर हुआ . टिफिन भी काफी भारी .चार आदमी के खाने लायक खाना .फिर खाना होते होते रात के दस बज गए और एक चक्कर बाहर शोर मचा रही भागीरथी का काट सोने चले गए .सुबह उठे तो सामने हिमालय नजर आया तो सामने गंगा .हमें गंगोत्री की तरफ जाना था .रास्ते में कई जगह बर्फ की वजह से रास्ता संकरा और खतरनाक हो चुका था .रात ही चौकीदार ने बताया कि बर्फ हटाने वाला एक वाहन पहाड़ से गिरे बर्फ के सैलाब में बह कर खाई में जा चुका है .ऐसे में कुछ डर भी लग रहा था आगे की यात्रा को लेकर . फोटो -पहली दो फोटो किसी अन्य की है .तीसरी फोटो सविता ने खीची है और अंतिम दो अजीत अंजुम की खींची फोटो है जो पिछले वर्ष वहां गए थे

Friday, March 30, 2018

यह फोटो बिहार चुनाव का पोस्टर है !

यह फोटो बिहार चुनाव का पोस्टर है ! अंबरीश कुमार पहले जेल जाने के बाद गंभीर रूप से बीमार पड़े राष्ट्रीय जनता दल के नेता के इलाज में कोताही बरती गई .फिर जब डाक्टरों ने उन्हें दिल्ली के एम्स में इलाज करने को कहा तो भाजपा सरकार ने उन्हें आधा भारत का दर्शन करा दिया .बीमार लालू यादव को रेलगाड़ी से दिल्ली भेजा .जी रेलगाड़ी से .जिन इलाकों से यह रेलगाड़ी गुजरी है उन इलाकों से संसद में सवा सौ से ज्यादा सांसद पहुंचते है .इन्ही के बूते भाजपा सत्ता में दोबारा आई है .इस संख्या को और इस पट्टी को समझना चाहिए ,याद भी रखना चाहिए . वे कोई राम रहीम जैसे बलात्कार के आध्यात्मिक अपराधी तो थे नहीं जो उन्हें आसमान के रास्ते दिल्ली भेजते .याद है न बलात्कार के आरोपी को हेलीकाप्टर से सरकार ने भिजवाया था जेल तक . सरकार की यह हरकत राजनीति में प्रतिशोध की भावना से फैसला किए जाने का नया पड़ाव है .पता नहीं लोगों को याद रहता है कि नहीं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किस तरह भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी को इलाज के लिए विदेश भेजा उन्हें संसदीय दल में शामिल कर .इस बाक्त को वाजपेयी जैसे राजनेता कभी भूले नहीं और कहते भी रहे .आज उनके राजनैतिक उतराधिकारी इतना नीचे गिरे कि एक पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री को इलाज के लिए भारत दर्शन करवा कर दिल्ली लाए .पर नतीजा क्या हुआ .हिंदी पट्टी की लालू की यह ट्रेन यात्रा राजनीति का नया एजंडा बना गई .हर स्टेशन पर स्वागत .बीमार लालू ट्रेन से बाहर आते ,हाथ जोड़ का अभिवादन का जवाब देते .इतने बीमार लालू यादव को देख गरीब तबका तो आहत हो ही गया है .दिल्ली स्टेशन पर जिस तरह कुलियों ने नारा लगाकर लालू यादव का स्वागत किया उसका एक राजनैतिक संदेश बिहार और देश में गया है .लालू जेल में हैं और बिहार जल रहा है .जलाया जा रहा है .वे ताकतें सर उठा रही हैं जीने लालू ने सत्ता में आने के बाद कुचल दिया था .याद करिए सत्तर के दशक का बिहार .गांव ,खेत और खलिहानों में जब सामंत की कचहरी लगती थी और दलित पिछड़ी जातियों पर जुल्म होता था .लालू यादव के सत्ता में आने के बाद ही पिछड़ी जातियों को मान सम्मान और ताकत हासिल हो पाई .इस तथ्य को किसी घोटाले के पर्दे से ढक नहीं सकते .मुस्लिम यादव समीकरण ने बिहार की राजनीति बदल दी बिहार बदल दिया .सामंतों की कचहरी बंद हो गई .अगड़ों के जोर जुल्म का दौर ख़त्म हुआ .इस तथ्य को बिहार का गरीब जानता है .लालू यादव की हाथ जोड़े जो फोटो सोशल मीडिया पर चल रही है यह बिहार में होने वाले अगले लोकसभा चुनाव का पोस्टर है .और इस पोस्टर का जमीनी असर बिहार ही नहीं यूपी झारखण्ड तक पड़ेगा .

Tuesday, March 20, 2018

एक नदी ,एक भाषा !

अंबरीश कुमार बनगांव में हम इच्छामती नदी के किनारे हैं .यह सरहद की नदी है .कई किलोमीटर तक सीमा बनाती है . यह उनकी भी नदी है और यह हमारी भी नदी है .इस नदी में पद्मा का पानी भी आ जाता है तो हिल्सा भी .ऐसा बताया गया .आज इक्कीस फरवरी का दिन है और हम सरहद से लौट कर इस नदी के किनारे रुक गए .बनगांव के कुछ आगे ही बांग्ला देश की सीमा में भी गए जो आज खुली हुई थी .और जश्न दोनों तरफ मनाया जा रहा था .यह मातृभाषा का जश्न था .इस पार भी बांग्ला भाषी थे तो उसपार भी .एक नदी और एक भाषा .स्कूली बच्चों की भीड़ दोनों तरफ थी जो अपने स्कूल कालेज से इस जश्न में शामिल होने आए थे .किसी भाषा का ऐसा जश्न हम पहली बार देख रहे थे जिसमे सरहद खुली हुई थी और बिना पासपोर्ट कोई भी आ जा सकता था .इसका इतिहास भी बहुत महत्वपूर्ण है .बांग्ला देश जब पूर्वी पकिस्तान था तब वहां की सरकार ने उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने का एलान किया .बांग्ला भाषी नौजवानों ने इसका विरोध किया .वर्ष 1952 में पाकिस्तानी सेना ने उर्दू को राष्ट्रभाषा को बनाए जाने का विरोध कर रहे छात्रों पर गोली चला दी .करीब आधा दर्जन छात्रों की मौत हो गई .मातृभाषा के सवाल पर शहीद हुए इन छात्रों की याद में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है .इस मौके पर दोनों देश की सरहद खोल दी जाती है और लोग एक दूसरे से मिलते हैं ,मिठाई खिलाते हैं .सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है .सरहद पर ही .दोनों तरफ पांडाल लगे थे .छोटी बच्चियों से लेकर युवतियां तक अपनी परम्परागत पोशाक में नजर आ रही थी .यह जश्न अपने को हैरान भी कर रहा था .हमने सीमा पर खड़े बीएसएफ जवानो से उधर जाने के बारे में पूछा तो उसने मुस्करा कर कहा ,बिलकुल जाएं .मै सविता और अंबर दूसरे देश यानी बांग्ला देश के भीतर चले गए .भाषा तो समझ में आ नहीं रही थी पर बड़े बड़े होर्डिंग /कट आउट पर रविंद्रनाथ टैगोर और काजी नजरुल इस्लाम को तो पहचान ही सकते थे .टैगोर बांग्ला देश के भी नायक है .उनका गांव भी उधर ही पड़ता है .और बांग्ला देश का राष्ट्रगान ' आमार सोनार बांग्ला ... भी उन्ही का लिखा था . यह बात अलग है कि उसपार तो टैगोर की होर्डिंग और कट आउट तो नजर आ रहे थे पर इस तरफ ऐसा कुछ भी नहीं था .शायद इसलिए भी क्योंकि मातृभाषा की शहादत तो उधर वालों ने दी थी .खैर भाषा का ऐसा रंग बिरंगा उत्सव पहली बार देखा .पर इसकी कोई खबर कोलकोता के किसी भी अखबार में मुझे दूसरे दिन नहीं दिखी . दरअसल हम आए थे ' आपसदारियां ' के बनगांव पड़ाव में शामिल होने के लिए .' आपसदारियां ' मित्र मंडली का मै नया और गैर साहित्यिक सदस्य हूं .यह समूह ऋतू के हिसाब से देश के दूर दराज के हिस्से में मिलता है .इसमें ज्यादातर साहित्यकार हैं तो कुछ फिल्म वाले भी .मकसद गांव ,समाज ,संस्कृति और प्रकृति को करीब से देखना जिससे रचनाकर्म में मदद मिले .इससे पहले मै छतीसगढ़ के चिल्फी घाटी के कार्यक्रम में शामिल हुआ था .यह दूसरा आयोजन था .हालांकि मोबाइल संपर्क कट जाने की वजह से हम सरहद पर नहीं मिल सके .पर बाद में बैठे और अपने अनुभव भी साझा किए . पर इससे पहले कोलकोता के बालीगंज जहां हम ठहरे हुए थे वहां से करीब सौ किलोमीटर बनगांव के इस इच्छामती नदी के घाट पर पहुंचे थे .दोपहर हो गई थी .पर रास्ते भर वर्षा वृक्ष यानी विलायती सिरिस के बड़े बड़े दरख्त सड़क पर धूप को रोके हुए थे .इस दरख्त के बारे में जानकारी दी प्रकृति और विज्ञान के मशहूर लेखक देवेन मेवारी ने .करीब सौ साल के ऐसे दरख्त पहली बार देखे जिसपर छोटे छोटे पौधो ने अपना ठिकाना बना लिया था .यह इस तरफ से चलते हुए देश पार कर गए थे .मेवारी ने बताया कि ये ' रेन ट्री' हैं. इन्हें हिंदी, मराठी, बांगला भाषा में विलायती सिरिस कहा जाता है. मैंने रेन ट्री के खूबसूरत पेड़ कुछ वर्ष पहले होमी भाभा विज्ञान शिक्षण केंद्र, मुंबई के हरे-भरे प्रांगण में देखे थे. इनका वैज्ञानिक नाम ' अलबिज़िया समान ' है.अंग्रेजी में यह ' सिल्क ट्री' भी कहलाता है. इनके फूल गुलाबी-सफेद और रेशमी फुंदनें की तरह होते हैं और बेहद खूबसूरत लगते हैं. इसकी फलियां मीठी और गूदेदार होती हैं जो गिलहरियों तथा बंदरों को बहुत पसंद हैं. इसलिए इस पेड़ को मंकी पौड भी कहा जाता है.खास बात यह है कि भारत में इसे सौ साल से भी पहले अंग्रेज लाए. यह मूल रूप से मध्य अमेरिका और वेस्टइंडीज का निवासी है. हमारे यहां की आबोहवा इसे खूब पसंद आई और यह देश भर में पनप गया. एक और खासियत यह है कि रेन ट्री दूसरे बड़े छायादार पेड़ों के विपरीत एक दलहनी पेड़ है. इसे मटर का बिरादर कह सकते हैं. इसका मतलब यह है कि इस पेड़ की जड़ों में गांठें होती हैं जिनमें वे बैक्टीरिया रहते हैं जो हवा से नाइट्रोजन लेकर इसे भी देते हैं और जमीन को उपजाऊ भी बनाते हैं. जो भी बांग्ला देश को जाती इस सड़क पर गए होंगे उन्हें इतनी जानकारी इस दरख्त के बारे में शायद ही होगी .इसके अलावा जगह जगह ताल तालाब के किनारे केला ,नारियल और सुपारी के लम्बे दरख्त भी दिखे . इच्छामती नदी के दोनों किनारे भी नारियल लहरा रहे थे .नदी का हरा पानी ठाहर हुआ था और किनारे पर जलकुम्भी का अतिक्रमण बढ़ता नजर आ रहा था .बीच धार में एक नाव अकेली थी .न कोई चप्पू न कोई मछुवारा .नदी तो अब बदहाल होती जा रही है .बनगांव के लोग ही इसकी बदहाली के जिम्मेदार है .उधर बांग्ला देश वाले भी इस काम में बराबर के हिस्सेदार हैं .यही तो वह नदी है जिसके बारे में रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था ,' बारिशों का मौसम है.और मैं नाव पर इस छोटी से नदी इच्छामति से उस पार जा रहा हूं . इसके दोनों किनारों पर गांवों की कतारें हैं .गन्ना,बेंत और पटुवाके पौधे सभी जगह उग आयें हैं .ऐसा लगता है किसी कविता का छंद बार बार दोहराया जा रहा है .और इस वक्त उसका मजा भी लिया जा सकता है .पद्मा जैसे विशाल नदी का छंद याद करना मुश्किल है .लेकिन इस छोटी सी नदी की बलखाती चाल जो बारिश से घटती है और बढ़ती है, एक न भूलने वाला छंद के जैसा ही है. (संदर्भ - टैगोर की चिट्ठियां : पाबना के रास्ते ). नदी के किनारे कुछ देर रहे फिर शहर की तरफ बढे .बांग्ला देश की तरफ से बनगांव की तरफ चलेंगे तो इच्छामती नदी पर बना पुल पार करते ही शहर शुरू हो जाता है .कुछ आगे बढ़ने पर एक रास्ता बाएं घूम जाता है .हम इसी रास्ते पर चल पड़े .हम बनगांव जंक्शन जा रहे थे .यह बांग्ला देश से पहले भारत का प्रमुख स्टेशन है .इसके बाद पेट्रोपोल पड़ता हैं जहां पासपोर्ट /वीजा की औपचारिकता पूरी की जाती है .यह स्टेशन हमें सीमा पर दिखा भी था .पर बनगांव बड़ा स्टेशन है इसलिए इधर आए .दो पटरियों वाले स्टेशन पर लोग कोलकता की तरफ जाने के लिए आते हैं तो बांग्ला देश की तरफ जाने के लिए भी .हालांकि यह देश के अन्य स्टेशन की तरह ही मामूली सा स्टेशन लगा जिसके प्रवेश का रास्ता काफी संक्रा था .स्टेशन पर न तो कोई ट्रेन खड़ी थी न किसी ट्रेन के आने का समय हो रहा था .इसलिए भीड़ भी नहीं थी .प्लेटफार्म नंबर एक पर कुछ देर गुजारने के बाद हम लौट आए .ड्राइवर का कहना था कि शाम से पहले अगर कोलकता से करीब नहीं पहुंचे तो अंधेरा होते ही समस्या हो जाएगी .उसे रात में सामने से गाड़ियों की रौशनी से दिक्कत होती है .बनगांव कोलकता का रास्ता भी काफी पुराना और संकरा है .ट्रैफिक दिन में बढ़ जाता है इसलिए रफ़्तार भी कम रखनी पड़ती है . फिर विलायती सिरिस के बड़े दरख्त से घिरी सड़क पर लौट आए . भारत बांग्ला देश सीमा पर गांव एक जैसे ही हैं .चाहे इस पार हो या उस पार .खान पान ,भाषा और संस्कृति सब एक जैसे .ज्यादातर गांव के कुछ घर के आगे ताल तालाब जरुर मिला .ताल के किनारे नारियल ,सुपारी और केले के साथ ताड़ भी .तालाब से पानी भी ये लेते हैं तो मछली भी .कई जगह धान के खेत से घिरे ताल देखते बनते थे .आज सड़क पर भी कुछ ज्यादा ही ट्रैफिक था .वजह भाषा दिवस के चलते बहुत से लोग सीमा पर होने वाले कार्यक्रम में जा रहे थे या लौट रहे थे .इनमे स्कूल कालेज के बच्चों की संख्या ज्यादा थी .सजी संवरी बच्चियां और युवतियां शायद सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आई थी .दरअसल सीमा पर दोनों और ही सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे .भारतीय सीमा से पहले कुछ लड़कों ने गाडी रोकी और कहां कि इधर ही पार्किंग में गाडी खड़ी कर दे आगे जाने नहीं मिलेगा .बात सही निकली .सड़क पर काफी भीड़ थी .सीमा पर कुछ दूकानों पर टूटी फूटी हिंदी भी मिली .खास बात यह थी कि करेंसी दोनों देशों की चल रही थी .जो भी सामान लेना चाहा तो कीमत टका में बताई गई .बाद में पता चला यह बांग्ला देश की करेंसी की बात कर रहा है .भारतीय मुद्रा भारी थी टका पर .नेपाल की तरह .सीमा पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बारे में सोच रहा था तभी ड्राइवर ने कहा ,साहब यहां चाय पी लेते हैं .कोई छोटा सा क़स्बा था .मिटटी के छोटे छोटे कुल्हड़ देखा तो कार से उतर आया और बिना चीनी की चाय के लिए बोला .खाने के लिए मुरी यानी चटपटी लाई के पैकेट थे .बहुत अच्छी चाय वह भी खूबसूरत से छोटे कुल्हड़ में मिली .आमतौर पर अब प्लास्टिक के छोटे से कप में चाय पकड़ा दी जाती है .इसलिए अच्छा लगा . कोलकता हवाई अड्डे से पहले ही हमने ड्राइवर से कहा कि हमें हुगली किनारे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर जाना है .इस मंदिर में १८५६ में रामकृष्ण परमहंस को पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया. विशाल मंदिर परिसर के मध्य भाग में काली मंदिर में दर्शन करने वालों की लाइन लगी हुई थी .परिसर में और तो बहुत सी फोटो थी पर शहीद भगत सिंह की फोटो ने जरुर ध्यान आकर्षित किया .मंदिर परिसर हुगली यानी गंगा नदी से लगा हुआ है .हुगली के किनारे कुछ देर बैठे तो अच्छा लगा .अब लौटना था .भूख भी लग रही थी .दरअसल सुबह जो भारी नाश्ता किया था उसके बाद से कही खाने की ढंग की जगह नहीं दिखी .हम बालीगंज के सनी एपार्टमेंट स्थित एक गेस्ट हाउस में ठाहरे हुए थे .वहा सुविशा तो सब तरह की थी .लेकिन सामने सड़क पार करते ही हल्दी राम का पांच मंजिला रेस्तरां था इसलिए वही नाश्ता करने चले जाते थे.इससे पहली रात जो सिटी माल के पास ' शोला (सोलह ) आना बंगाली ' में बंगाली भोजन करने गए ठेव .इसके बारे में जनसत्ता के अपने सहयोगी पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी ने बताया था .दरअसल अपने को हिल्सा यानी इलिश का स्वाद लेना था इसलिए गए .सविता तो शुद्ध शाकाहारी है इसलिए उनके लिए पोस्तो आलू से लेकर बैगन भाजा तक मंगाया .पर मैंने अपने और अंबर के लिए इलिश के साथ चिंगरी यानी झींगा चावल का आर्डर दिया था .अच्चा रेस्तरां है.पर सभी को इसका स्वाद पसंद आए यह जरुरी नहीं .आज दूसरी जगह जाना था इसलिए जल्दी बालीगंज पहुंचना चाहता था .