Tuesday, December 12, 2017

जहाज का विकास

अंबरीश कुमार अमदाबाद में आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सी प्लेन की यात्रा चर्चा में है .इसे विकास का भी मानक बताया जा रहा है .हालांकि देश में यह सेवा कई वर्ष पहले अंडमान में शुरू हो चुकी है और बहुत लोकप्रिय भी है .इसलिए इसे देश में पहली बार शुरू किया गया यह कहना ठीक नहीं है .पूर्वोत्तर भारत और समुद्री द्वीप में भी छोटे जहाज और हेलीकाप्टर की सेवा जारी है .एक दिलचस्प तथ्य यह भी बताया जा रहा है कि जिस दस सीट और सिंगल इंजन वाले कोडियाक 100 सी प्लेन में मोदी आज अमदाबाद में चढ़े वह इससे पहले पाकिस्तान के कराची में था .चुनाव की इस बहस में यह तथ्य भी अद्भुत है . इस बहस से याद आया कि मैंने नब्बे के दशक में पहली बार समुद्री जहाज से यात्रा की की .गया सवारी और कार्गो जहाज से तो लौटा लक्जरी क्रूज वाले जहाज से .कावरेत्ती से अगाती फिर बंगरम द्वीप जाना था .साधन था हेलीकाप्टर जिसका भाड़ा था अस्सी रुपए सवारी .होवर क्राफ्ट भी थे पर गहरे समुद्र में तेज रफ़्तार की वजह से बेटे को उल्टी जैसा महसूस होता था और हेलीकाप्टर पर चढ़ने की इच्छा भी इसलिए उसी से गए .यह वहां के निवासियों के लिए आम साधन जैसा था जिसके लिए सरकार सब्सिडी भी देती . कावरेती से बंगरम द्वीप जाने वाले सैलानी भी इन हेलीकाप्टर या फिर छोटे जहाज का इस्तेमाल करते .आम लोग भी द्वीप के बीच की यात्रा इन हेलीकाप्टर से करते .यह कोई विलासिता का मामला भी नहीं था बल्कि जरुरत थी लोगों की .क्योंकि दो द्वीप को जोड़ने का दो ही रास्ता था .समुद्र का या हवा का .इसलिए छोटे जहाज और हेलीकाप्टर का इस्तेमाल आम बात थी . करीब ढाई दशक पहले उधर आम जनता के लिए यह सेवा थी .पूर्वोत्तर में भी कई जगह है .पर यह विकास का कोई मानक बन जाए यह कैसे संभव है .इन द्वीप से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों के हालात सभी को पता है .अपना यूपी बहुत पिछड़ा माना जाता है .वर्ष बारह में यानी पांच साल पहले अमदाबाद जिस दिन पहुंचा था उसी दिन राज्य की पहली लो फ्लोर बस का उद्घाटन हो रहा था .मोदी ही कर रहे थे . अपने यहां लखनऊ में इंदिरा नगर से हजरत गंज तक मै ऐसी कई बसों में बैठ चुका था .गुजरात की बसे ठीक चेन्नई जैसी नजर आ रही थी बहुत पुराने ढंग की खिडकियों वाली .वही लाल रंग वाली बसे .द्वारका से दीव की यात्रा की तो सड़क इतनी खराब थी की पीठ दर्द होने लगी . आवागमन के साधन की बात हो तो मेट्रो तो कोलकोता में पहले आई फिर दिल्ली मुंबई और अब लखनऊ में भी बैठ सकते हैं .विकास को खाली बस ट्रेन पानी वाले जहाज से न नापे .किसान किस हाल में है नौजवान किस हाल में है .शिक्षा स्वास्थ्य का क्या हाल है .इन सब मानक पर भी बात होनी चाहिए .दलित पिछड़े अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित हैं इसे मानक माना जाना चाहिए .बेटियां कितनी सुरक्षित हैं इसे मानक माना जाना चाहिए .सी प्लेन पर सभी नहीं चढ़ने वाले और जिन्हें चढ़ना है वे शानदार जहाज पर कहीं भी चढ़ लेंगे . पहली फोटो -अंडमान का सी प्लेन दूसरी नब्बे के दशक से सवारी ढोते लक्ष्यद्वीप के हेलीकाप्टर

Wednesday, November 1, 2017

जंगल में एचएमटी का भात और चटनी

अंबरीश कुमार भोरमदेव जंगल से होते हुए चिल्फी घाटी पार कर कान्हा गेट पर पहुंच चुके थे .हल्की बरसात से जंगल भीगा भीगा था .हरा भरा और खाली पड़ा रास्ता अच्छा लग रहा था .बीच बीच में अल्लू चौबे कोई फल या मिठाई के लिए बैग तलाशते तो ध्यान भटक जाता था .वे शुगर कम न हो इस वजह से कुछ देर बाद हल्का नाश्ता या फल आदि ले ले लेते .कवर्धा से चले तो डाक बंगले के रसोइये को निर्देश दे दिया था कि सिर्फ सरसों वाली रोहू और भात बना कर रखे ,आते समय देर हो सकती है क्योंकि जंगल का रास्ता अगर शाम को बंद हो गया तो फिर लंबा रूट लेना पड़ेगा .और रात में हुआ भी वही .खैर हम आगे बढे .दोपहर में हमें भोजन के समय चिल्फी में जंगलात विभाग के डाक बंगले में पहुंच जाना था .कार्यक्रम के आयोजकों ने बता रखा था कि भोजन के बाद बैठना है 'आपसदारियां ' कार्यक्रम में और उसके बाद एक बैगा आदिवासी गांव में जाना है .पर जंगल में घूमने का अपना जो पूर्व अनुभव रहा है उसे देखते हुए सुबह ही लंच पैक करा लिया गया था ताकि कोई दिक्कत न आए .जिन लोगों को शुगर की दिक्कत हो वे इसे समझ सकते है .समय पर खाना न मिलने से बहुत दिक्कत हो जाती है .रास्ते में भोरमदेव मंदिर में कुछ देर रुके फिर चिल्फी घाटी की तरफ चल पड़े .यह घाटी छतीसगढ़ का कश्मीर कहलाती है हालांकि ऐसा कुछ नजर नहीं आया .पर जंगल अभी भी अपने बचपन में है .कुछ समय पहले ही इसे भोरमदेव अभ्यारण्य में बदला गया है .इसलिए जंगल कम बगीचा सा ज्यादा नजर आता है .साल सागौन के पेड़ है पर बहुत बड़े नहीं हुए है .जंगलात विभाग वालों ने बताया कि जानवर है पर बाघ की मौजूदगी कम नजर आती है .कभी कभार कान्हा की तरफ से कोई भटकता हुआ बाघ इस तरफ आ जाए तो बात अलग है .फिर भी यह अभ्यारण्य का रास्ता सुबह छह बजे खुलता है और शाम छह बजे बंद कर दिया जाता है .रात में किसी को भी भीतर जाने की इजाजत नहीं है . जंगल पार करते करते दिन के दो बज चुके थे और हम कान्हा के चिल्फी गेट पर पहुंच चुके थे .कुछ तकनीकी दिक्कत आई क्योंकि वायरलेस से जंगलात विभाग के किसी अफसर से संपर्क नहीं हो पा रहा था .मोबाइल में कोई सिग्नल भी नहीं था .कान्हा का कोर क्षेत्र यही से शुरू हो रहा था .कुछ देर जंगल में घूमे .चौबे बोले ,भूख लग रही है .दाल भात खाने की इच्छा है .जो खाना पैक था उसमे सब्जी पराठा ही था जिसे खाने की कोई इच्छा नहीं थी .तय हुआ बैठक स्थल पर चल कर भोजन किया जाए .जंगल से बाहर निकले और मंडला की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गए .जंगलात विभाग का डाक बंगला कुछ आगे थे .पर खाने का इंतजाम बगल में .गेट पर पहुंचे तो देखा लोग पंगत में बैठकर खाना खा रहे हैं .हल लोग बरामदे में रखे तखत के पास बैठे तो नजर जनसत्ता मुंबई के पुराने सहयोगी दीपक पांचपोर पर पड़ी .वे बड़ी गर्मजोशी से मिले और खाना परोस रही आदिवासी महिला को पत्तल लगाने को कहा .पत्तल में भात दाल आलू की सब्जी और हरी चटनी दी गई .भात बहुत स्वादिष्ट लगा तो पूछा .पता चला यह एचएमटी नाम के धान से बना है .चटनी तो अद्भुत थी .अल्लू चौबे बार बार मांग रहे थे .जी भर कर दाल भात खाने के बाद उठे तो बैठक शुरू हो चुकी थी .

Sunday, October 29, 2017

एक शाम सूपखार के डाक बंगला में

अंबरीश कुमार यह सूपखार का डाक बंगला है .अब तक देश में सौ से ज्यादा डाक बंगले में रुक चुका हूं पर ऐसा डाक बंगला कभी नहीं देखा .पीले फूलों के किनारे जंगल के उबड़ खाबड़ रास्ते से होते हुए जब इस डाक बंगला में पहुंचे तो फूस की छत वाले पिरामिड आकार में बनी इस संरचना को देखते ही रह गए .यह अद्भुत है .यह सौ साल से भी ज्यादा पुराना डाक बंगला है .कई विशिष्ट अतिथि इसमें ठहर चुके है जिसमे प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद भी शामिल हैं .मुझे इसके बारे में पत्रकार और साहित्यकार सतीश जायसवाल ने बताया था .देश के डाक बंगलों के बारे में लिख रहा हूं इसलिए जब कवर्धा के जंगल में ' आपसदारियां ' कार्यक्रम बना तभी इसमें आने का कार्यक्रम बना लिया .कवर्धा से भोरमदेव अभ्यारण्य के सम्मोहक रास्ते से होते हुए यहां पहुंचा .यह घने जंगल के बीच है .यह गर्मियों में भी ठंढा रहता है .इसमें कोई पंखा नहीं बल्कि छत से दरी बांधकर हवा देने की व्यवस्था है .यह व्यवस्था कभी जेलों में जेलर के कमरे में होती थी .मैंने इसे सबसे पहली बार जेलर ताऊ जी के घर नैनी जेल के घर में देखा था .सत्तर के दशक में .दो कैदी दिन में इस तरह का पंखा चलाते थे .आज वह फिर याद आया .वैसे देश के बहुत से डाक बंगलों में पहले रुक चुका हूं जिसमे न बिजली न फोन और न पानी का नल था .चकराता के डाक बंगला से लेकर छतीसगढ़ के देवभोग स्थित तौरंगा का डाक बंगला इसमें शामिल है .पर ऐसा विशाल परिसर ,ऐसा भव्य फूस का डाक बंगला पहली बार देखा .जंगल में ठहरना हो तो इस डाक बंगला में जरुर ठहरना चाहिए .ठंड का ही असर होगा जो चीड प्रजाति का दरख्त भी यहां है तो शाल किसी पहरेदार की तरह खड़े हैं .सामने के परिसर में इसका एक अपना और बहुत खूबसूरत जंगल है .ठीक उसी तरह जैसे मालदीव और लक्ष्यद्वीप के बीच रिसार्ट में समुद्र के किनारे हर काटेज का अपना निजी समुद्र होता है .शाम और सुबह के समय धुंध में यह डाक बंगला बहुत रहस्मय लगता है .लंबे बरामदे में बैठे या आराम कुर्सी लेकर सामने के जंगल में बैठ जाएं ,इसे देखते ही रह जाएंगे .

Saturday, October 28, 2017

जंगल में शिल्प का सौंदर्य

अंबरीश कुमार जंगल में भटकते भटकते शाम हो चुकी थी .पहाड़ पर पैदल चलने की वजह से थकावट ज्यादा थी .वैसे भी कल सुबह रायपुर से जल्दी निकलना हुआ और जो नाश्ता पैक कराया वह वैसे का वैसा ही रात तक पड़ा रहा .कान्हा जंगल के चिल्फी द्वार के पास पहले खाने का कार्यक्रम बना पर सतीश जायसवाल के साथ बाहर से आए मित्रों के साथ ही दोपहर के भोज में शामिल होने का फैसला हुआ .बाद में बैठना था ,एक दूसरे से परिचय और फिर अपने अनुभव साझा करने थे .इसलिए कान्हा मुक्की जंगल के द्वार से चिल्फी लौट आए . सुबह कवर्धा के डाक बंगले से चले तो अनिल चौबे ने रसोइये को रात के खाने के लिए कह दिया था क्योंकि कब लौटेंगे यह तय नहीं था .सिर्फ रोहू मछली और भात बना कर रखने को कहा गया था .कवर्धा में नदी और ताल की मछलियां काफी मिलती हैं .वैसे तो समूचा छतीसगढ़ ही लबालब ताल तालाब वाला अंचल है .चार मील चले तो कोई न कोई बड़ा ताल मिल ही जाएगा और रोहू तो बंगाल तक जाती है .यही वजह है कि दो दिन से एकल समय रोहू चावल ही रात के खाने में चल रहा था .खैर चले तो पहला पड़ाव भोरमदेव था .यह छतीसगढ़ का कला तीर्थ भी कहलाता है .गोंड आदिवासियों के उपास्य देव माने जाते हैं और उन्ही के नाम पर यह मंदिर बना है .वे महादेव के रूप हैं .छतीसगढ़ के पूर्व मध्य काल यानी राजपूत काल में बने सभी मंदिरों में यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है .जिसका निर्माण लक्ष्मण देव राय ने कराया था .मंदिर की बाहरी दीवार पर नायक नायिकाओं ,अप्सराओं और नर्तक नर्तकियों की प्रतिमाओं के साथ मिथुन मूर्तियां भी है .इसी वजह से इसे छतीसगढ़ का खजुराहों भी कहा जाता है .चारो ओर जंगल से घिरा पहाड़ है तो सामने के ताल में लगा कमल ध्यान खींचता है .दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी में यह अंचल कला संस्कृति के क्षेत्र में कितना समृद्ध था इसका पता भोरमदेव मंदिर की इन प्रतिमाओं को देख कर पता चलता है .मंदिर के दक्षिण में करीब आधा मील दूर एक शिव मंदिर है जिसे मंडवा महल के नाम से जाना जाता है .इसका निर्माण 1349 ईस्वी में फणी नागवंशी शासक रामचंद्र का हैहयवंशी राजकुमारी अंबिका देवी के साथ विवाह के उपलक्ष्य में कराया गया था .पश्चिम की तरफ मुख किए यह मंदिर आयताकार है .इस मंदिर के भी बाहरी भाग में मिथुन मूर्तियां नजर आती है .जंगल के बीच शिल्प के इस सौन्दर्य को देख कोई भी चकित हो सकता है . भोरमदेव का यही अंचल ऐसा है जो अपने छतीसगढ़ प्रवास के दौरान छूट गया था .तब बस्तर की तरफ ज्यादा जाना होता था खबर की वजह से .खैर कुछ देर बाद भोरमदेव से आगे बढे तो फिर जंगल के बीच काफी देर चलना पड़ा .कान्हा गेट पर नेटवर्क भी नहीं मिला न ही वायरलेस से जंगलात विभाग के किसी आला अफसर से बात हो सकी .हम चिल्फी लौटे तो पंगत पर लोग बैठ चुके थे .एचएमटी प्रजाति के धान से तैयार चावल ,अरहर की दाल ,आलू की सब्जी और चटनी परोसी गई .खाने के बाद सतीश जायसवाल और बाहर से आए लेखक ,पत्रकार और फिल्मकार बैठे .अपने अनुभव साझा किए .तय हुआ करीब बारह किलोमीटर दूर पहाड़ पर एक आदिवासी गांव में आदिवासियों के साथ कुछ घंटे बैठा जाएं .उनसे संवाद हो .उनका रहन सहन और खानपान देखा जाए .साथ भोज हो और रात में लौटा जाए .पर अल्लू चौबे पैदल नहीं चल सकते थे इसलिए जिस जगह तक वाहन जंगल में गए वे वही बैठ गए .हम सब आगे बढे .जंगल का रास्ता और बीच में नदी नाला भी .पर आदिवासियों ने जिस उत्साह से करमा नृत्य से अपना स्वागत किया उससे थकान महसूस नहीं हुई .काफी देर गांव के कुछ घरों को देखते रहे .मुझे अंधेरा होने से पहले लौटना था क्योंकि भोरमदेव अभ्यारण्य का द्वार शाम छह बजे के बाद बंद कर दिया जाता है जानवरों की वजह से .दूसरे चौबे को अकेला जंगल में छोड़ कर आया था .लौटा तो वे गाडी में सोते मिले .अभी अंधेरा नहीं हुआ था पर जंगल पार करते करते रौशनी जा चुकी थी .बहुत प्रयास के बावजूद समय पर भोरमदेव गेट पर नहीं पहुंच पाए और लंबे रास्ते से लौटना पड़ा .रात के करीब आठ बजे डाक बंगला में लौटे .

Sunday, October 1, 2017

गांधी के गांव में एक दिन

अंबरीश कुमार सेवाग्राम (वर्धा), अक्टूबर। महात्मा गांधी की कुटिया के आगे खड़े हुए तो आजादी की लड़ाई का दौर याद आ गया। जिसके बारे में हमने सुना था या पढ़ा था। इस आश्रम को महात्मा गांधी ने नया केन्द्र तब बनाया जब वे १९३४ की मुंबई कांग्रेस में अपना प्रस्ताव नामंजूर हो जने की वजह से नाराज हुए। महात्मा गांधी ने तब कांग्रेस पार्टी के संविधान में वैधानिक और शांतिपूर्ण शब्द की जगह सत्य और अहिंसा रखने का प्रस्ताव किया था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। जिसके बाद नाराज गांधी ने वर्धा के इस आश्रम में आकर रहना शुरू किया। इसी आश्रम में एक कुटिया के भीतर लकड़ी का बड़ा बक्सा रखा है जिसमें सांप रखे जते थे। पता चला कि अहिंसा के चलते गांधी जी की हिदायत थी कि सांप भी मारे नहीं जएंगे, उन्हें पकड़कर इस बक्से में रखा जएगा और बाद में जंगल में छोड़ दिया जएगा। गांधी का अहिंसा का यह दर्शन आतंकवाद के नए दौर में फिर प्रासंगिक नजर आ रहा है। हालांकि १९३४ की मुंबई कांग्रेस में कांग्रेस ने गांधी के प्रति पूर्ण आस्था का प्रस्ताव भी पास किया था। गांधी कांग्रेस से नाराज हुए पर कांग्रेस के दिग्गज नेता उनकी शरण में ही रहे। आतंकवाद के इस दौर में बापू की अहिंसा फिर एक बड़ा राजनैतिक हथियार साबित हो सकती है। इतिहासकार प्रोफेसर प्रमोद कुमार ने कहा,‘जिस अहिंसा के लिए महात्मा गांधी ने कांग्रेस से नाराज हो वर्धा के मदनवाड़ी आश्रम को अपना नया केन्द्र बनाया, उसने समूचे देश की राजनीति बदल दी। यह बात अलग है कि कांग्रेस पार्टी ने आज तक अपने संविधान में गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रस्ताव को शामिल नहीं किया। आज कोई सोच भी नहीं सकता कि राज्य अहिंसक हो सकता है पर यदि इसे एक बार फिर से अपनाया जए तो आतंकवाद का मुकाबला किया ज सकता है।’ सेवाग्राम के आश्रम में हम वहां खड़े थे जहां कभी महात्मा गांधी सूर्य स्नान किया करते थे। दाहिने हाथ गांधी की कुटिया थी। कुटिया के भीतर गांधी की बैठक जिसमें जमीन पर चटाई बिछी थी। बगल में लकड़ी की वह चौकी थी जिस पर वह सोते थे। यह कुटिया गांधी की सादगी भरी अलग जीवन शली को दर्शाती थी। उनका छोटा पर साफ-सुथरा बाथरूम जिसमें अखबार, पत्र व पत्रिकाएं रखने की भी जगह थी। वे समय का पूरा सदुपयोग करते हुए जरूरी पत्रों तक को वहां पढ़ा करते थे। कुटिया से बाहर निकलने पर सामने घने छायादार वृक्ष नजर आते हैं जो गांधी जी के उस दौर की याद दिलाते हैं। सुबह के दस बजे भी सेवाग्राम परिसर में सन्नाटा पसरा नजर आता है। नागपुर से करीब घंटे भर बाद हम आश्रम पहुंचे तो पता चला कि आजदी के आंदोलन की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी के आश्रम में न तो महाराष्ट्र से कोई नेता सुध लेने आता है और न राष्ट्र से। नागपुर के सामाजिक कार्यकर्ता बाबा डाबरे ने कहा,‘यहां यदा-कदा ही कोई बड़ा नेता आता है। आमतौर पर नागपुर आने वाले या फिर नागपुर से गुजरने वाले पर्यटक तक इधर नहीं आते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि राज्य सरकार ने इसे कोई तवज्जो तक नहीं नहीं दी है। नई पीढ़ी को तो ऐसी जगहों को दिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जना चाहिए। यह हमारे इतिहास का स्वर्णिम क्षेत्र रहा है।’ चेन्नई में हमने द्रमुक के संस्थापक अन्नादुरै का स्मारक देखा है जहां हमेशा भीड़ लगी रहती है और उनके समर्थक महिला पुरूष समाधि स्थल के आसपास दंडवत नजर आते हैं। दक्षिण के दलित आंदोलन के महानायक के प्रति लोगों की आस्था कोई भी मरीना समुद्र तट पर जकर देख सकता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस आश्रम में आज बहुत कम लोग नजर आते हैं। गांधी ने यहां १२ साल गुजरे। यहां से जब वे नोवाखाली के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए निकले तो फिर लौट कर नहीं आए। इससे पहले इसी आश्रम में पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर मुहम्मद अली जिन्ना तक उनसे विचार विमर्श के लिए आते-जते रहे। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म का वह दृश्य याद आता है जिसमें नेहरू और जिन्ना महत्वपूर्ण विषय को लेकर गांधी से चर्चा करना चाहते हैं पर गांधी सहज भाव से बकरी को पो खिलाते नजर आते हैं। महात्मा गांधी की उस जीवन शली को इस आश्रम में आकर कोई भी महसूस कर सकता है। सेवाग्राम के बारे में यह भी कहा जाता है गाँधी वर्धा के इस गावं में ३० अप्रैल १९३६ की सुबह करीब 5 बजे पहुचे थे। साथ थी बा। उन्होंने गावं वालो से बसने की चर्चा की और इजाजत मांगी .पहले इस गावं का नाम सेगावं था जहा एक पगडण्डी आती थी .पोस्ट ऑफिस नही था और साथ ही एक दूसरे गावं का नाम सेगावं था .इस वजह से गांधी जी ने इसका नाम सेवाग्राम रखाबाद में १९४० से यह सेवाग्राम के नाम से जाने लगा.जब गांधी यहाँ आए तो वे ६७ साल के थे .तब यह इलाका साँप और बिचू के चलते बदनाम भी था. सेवाग्राम के इस आश्रम में मिले सीता राम राठौर ने कहा,‘आए दिन बम फट रहे हैं और देश का नौजवान बंदूक उठाकर हिंसा के रास्ते पर चल रहा है। ऐसे में फिर उस संत की याद आती है जिसने अहिंसा का रास्ता पूरी दुनिया को दिखाया। आज के समय में महात्मा गांधी ज्यादा प्रासंगिक हैं जिनके मूल्यों को लेकर समाज में नई पहल की ज सकती है।’ महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के साठ साल पूरे हो चुके हैं और देश आतंकवाद की नई चुनौती ङोल रहा है। ऐसे में वर्धा का यह आश्रम अंधेरे में एक चिराग की तरह नजर आता है।02 October 2008

Wednesday, September 27, 2017

बार नवापारा जंगल का डाक बंगला

अंबरीश कुमार बारह नवंबर की सुबह रायपुर के सर्किट हाउस में नाश्ता कर ही रहा था कि अनिल चौबे आ गये. सर्किट हाउस की कैटरिंग इंडियन काफी हाउस संभालता है इसलिये खानपान पर दक्षिण भारतीय असर ज्यादा रहता है. इडली डोसा का भारी नाश्ता किया क्योंकि दिन भर जंगल में रहना था. बारनवापारा वन्य जीव अभ्यारण्य के बीच जंगलात विभाग के उस डाक बंगले की फोटो लेनी थी जो करीब डेढ़ सौ साल पुराना है. उसी वजह से यह यात्रा कर रहा था. उसके बाद उदंती वन्य जीव अभ्यारण्य के तौरंगा डाक बंगले की तरफ जाना था. दरअसल उन डाक बंगलों पर एक काफी टेबल बुक का मन बना है जो सौ साल से ज्यादा पुराने हैं और जहां मैं रुक चुका हूं. पुराने सहयोगी पत्रकार राजकुमार सोनी से पहले ही कहा था कि इन दोनों जगहों पर जाना है इसलिए वे न सिर्फ साथ चलेंगे बल्कि इन जगहों पर ठहरने की व्यवस्था भी करा कर रखेंगे. यह इसलिए क्योंकि बरसात के बाद वन्य जीव अभ्यारण्य नवंबर के पहले हफ्ते में ही खुलते हैं और सैलानियों की भीड़ भी होती है. अगर पहले से बुकिंग न हो तो रात में रुकने में दिक्कत हो सकती है. हालांकि रायपुर में बारह तारीख को ही दिन में मुख्यमंत्री रमन सिंह से मुलाकात का समय तय था पर देर रात ही अनिल चौबे ने उसे आगे बढ़ा देने के लिए कह दिया था. खैर नोटबंदी के बाद का यह तीसरा दिन था और रायपुर एयरपोर्ट पर खुद अल्लू चौबे गाड़ी लेकर आ गये थे इसलिए दिक्कत नहीं हुई. दो हजार के कुछ नोट थे जिन्हें बचा कर रखे हुए था. काफी हाउस का बिल भी स्वाइप मशीन से चुकता किया. अब जंगल में तो यह सब चलने वाला नहीं था. सोनी को घर से लेकर महासमुंद की तरफ बढे तो सड़क बदली हुई नजर आयी. नवंबर के दूसरे हफ्ते में हलकी ठंड तो थी पर चढ़ते सूरज के साथ ठंड कम होती जा रही थी. शहर से निकलते ही मुझे लखौली में सिंचाई विभाग का वह डाक बंगला ध्यान आया जिसमें हर रविवार अपनी मंडली जुटती थी. ग्यारह की शाम रायपुर प्रेस क्लब ने खुद ही मेरी यात्रा संस्मरण पर आधारित पुस्तक घाट घाट का पानी का विमोचन कार्यक्रम रखा था. इस कार्यक्रम में राजकुमार सोनी ने भी इस डाक बंगले में उन दावतों का जिक्र किया जो मैं रायपुर में जनसत्ता का छतीसगढ़ संस्करण निकालने के बाद दिया करता था. उस मंडली में अपने बंगाली साथी प्रदीप मैत्र जो उन दिनों हिंदुस्तान टाइम्स के ब्यूरो चीफ हुआ करते थे वे तो रहते ही साथ ही ओडिशा के रहने वाले पीटीआई के प्रकाश होता भी जरुर होते. इनके अलावा कई और मित्र भी. छतीसगढ़ में ताल तालाब बहुत हैं और रोहू काफी होती है इसलिए हम सब भी इसके मुरीद थे. पर अल्लू चौबे ने बताया कि वह निकल चुका है. तभी फल बेचती एक महिला दिखी तो गाड़ी रुकवा ली. ताजे अमरुद और सेब ले लिए. दोनों एक ही भाव थे सौ रूपये किलो. दोपहर में कुछ न मिले तो इससे काम चल जायेगा यह सोच कर ले लिया था. गाड़ी से बाहर निकले तो हल्की ठंड का अहसास हुआ. यह नयी बनी चार लेन की सड़क मुंबई कोलकाता राजमार्ग संख्या छह थी जो ओडिशा के संबलपुर भुवनेश्वर होते हुए कोलकाता की तरफ जाती है. रायपुर से करीब सौ किलोमीटर दूर पिथौरा से हमें मुड़ना था. सड़क के दोनों और नये लगे पेड़ अब जंगल जैसे लगने लगे थे. पिछली बार जब इस वन्य जीव अभ्यारण्य में आया था तो बहुत कम पेड़ थे. जाहिर है कि ये बाद में लगाये गये थे. दूर तक जाते ये जंगल अच्छे लगते हैं. पिथौरा आया तो मुख्य सड़क से बारनवापारा अभ्यारण्य के लिये मुड़े ही थे कि गायों का झुंड सामने आ गया. कुछ देर बाद ही आगे बढ़ पाये. इस बीच सोनी से पूछा कि बारनवापारा के डाक बंगले में रुकने के लिए बुकिंग करा ली है तो बात कर उन्हें सूचित कर दें कि हम लोग घंटे भर में पहुंच जायेंगे. इसके आगे मोबाइल मिलना मुश्किल होगा. सोनी ने जंगलात विभाग के किसी अफसर से बात कर बताया कि वहां सूचना जा चुकी है. करीब आधे घंटे बाद हम बारनवापारा अभ्यारण्य के तेंदुआ द्वार तक पहुंच चुके थे. यहां से प्रवेश का परमिट मिलता. गेट पर पता चला कि उनके पास कोई संदेश भीतर के अतिथि गृह से नहीं आया है इसलिये परमिट नहीं मिलेगा. दूसरे यहां मोबाइल काम नहीं करता इसलिये रायपुर से किसी संपर्क भी नहीं हो सकता. गेट पर बैठे गार्ड को बताया गया कि हम लोगों की बुकिंग है पर वह सुनने को तैयार ही नहीं. खैर कुछ देर की जद्दोजहद के बाद प्रवेश मिला तो वहां नकद देना था और कोई स्वाइप मशीन भी नहीं. मेरे पास कुछ छुट्टा था इसलिए दिक्कत नहीं आयी. भीतर प्रवेश करते ही दोनों तरफ घने जंगल और बीच से सीधी गुजरती कच्ची सड़क थी. साल,सागौन, सरई, साजा, महुआ से लेकर हर्र बहेड़ा तक. यह घना जंगल था. हर कुछ दूरी पर बार अभ्यारण्य की दूरी दिखाते साइन बोर्ड लगे थे जिसपर हिरन, सांभर,चीतल से लेकर बाघ तक की फोटो लगी हुई थी. कुछ देर बाद ही हम बारनवापारा पर्यटक ग्राम के चीतल रेस्तरां पहुंच चुके थे. यह जंगल के बीच सैलानियों के ठहरने के लिए जंगलात विभाग का रिसार्ट था जिसे कुछ साल पहले ही बनाया गया था. इसमें काफी पर्यटक रुक सकते हैं और रेस्तरां में खाने का अच्छा इंतजाम है. कुछ देर में ही जंगलात विभाग के स्थानीय प्रभारी संजू निहलानी आ गये और उन्होंने बताया कि हम लोगों के रुकने की व्यवस्था का संदेश मिल चुका था पर संचार व्यवस्था गड़बड़ा जाने की वजह से गेट पर जानकारी नहीं दी जा सकी थी जिसके लिये खेद भी जताया. यह रिसार्ट निहलानी के दिमाग की ही उपज थी जिसे शुरू हुये तीन साल हुआ है . इस साल यह करीब चौहत्तर लाख रुपये की कमाई करने जा रहा है. इस परियोजना पर राज्य सरकार ने करीब पांच करोड़ खर्च किये थे जिसकी भरपाई इस साल ही हो जाने की उम्मीद है. यहां रौशनी की व्यवस्था सौर उर्जा से की गयी है इसलिए बिजली आने जाने की कोई समस्या नहीं है. काटेज काफी भव्य बनाये गये हैं और उनके चारों तरफ सजावटी पेड़ पौधे और फूल भी लगाये गये हैं. शाम होते ही पक्षियों और जानवरों की आवाज सुनाई पड़ने लगती हैं. पर्यटक ग्राम से हम खाना खाकर निकले तो फारेस्ट विभाग के डाक बंगले में पहुंच गये. इस डाक बंगले का दो साल पहले कायाकल्प किया गया है जिसके बाद यह अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है. इस डाक बंगले में करीब सौ साल पहले के उन अंग्रेज अफसरों का फोटो भी लगाया गया है जो मध्य प्रदेश के इस अंचल में तैनात थे. उनका ब्यौरा भी दिया गया है. इस डाक बंगले में करीब डेढ़ दशक पहले रुका था. दीपावली के ठीक बाद की बात है. चारों तरफ साल के सूखे पत्तों से घिरे इस डाक बंगले में डेक्कन हेरल्ड के साथी अमिताभ के और अपने परिवार के साथ देर शाम पहुंचा था क्योंकि जंगल के बीच से गुजरने वाली कच्ची सड़क बहुत ख़राब थी. तब आसपास कोई घर भी नहीं था. इस डाक बंगले में पहुंच कर बैठे ही थे कि एक बुजुर्ग खानसामा चाय लेकर हाजिर हो गया. उसने रात के खाने के बारे में पूछा तो उसे बता दिया गया. तीन बच्चे और चार वयस्क थे जिनमें ज्यादातर शुद्ध शाकाहारी. मुझे और अमिताभ को छोड़कर. तब यह डाक बंगला किसी पुरानी रहस्य रोमांच वाली फिल्म के सेट जैसा लग रहा था. डाक बंगला का वास्तुशिल्प भी देश भर में एक जैसा ही होता है. सामने बरामदा. भीतर जाते ही भोजन कक्ष जिसमें बैठने के लिए बड़े सोफे भी होते हैं और फायर प्लेस यह बताता है कि जाड़ों में इस जंगल में बिना आग तापे रहना मुश्किल होता है. इसी भोजन कक्ष से दो सूट अगल बगल जुड़े रहते हैं. रसोई करीब पचास फुट पीछे की तरफ होती है. सभी डाक बंगलों का वास्तुशिल्प ऐसा ही होता है चाहे उतराखंड का चकराता हो या फिर मध्य प्रदेश का बैतूल. उस दौर में इस डाक बंगले में लालटेन की रौशनी में बैठना पड़ा. पुराने ढंग का फर्नीचर और पलंग था. खिड़की के एक दो शीशे टूटे हुए थे जिनपर दफ्ती लगा कर रखा गया था. चौकीदार ने बता दिया था कि सावधानी बरतनी चाहिये क्योंकि जंगली जानवर के साथ सांप भी निकल आते हैं. कुछ समय पहले बरसात भी हो चुकी थी इसलिए सावधानी जरुरी थी. घने जंगल के बीच इस पुराने डाक बंगले में जानवरों की आवाज सुनाई पड़ रही थी. कुछ देर बाद हम सभी समय काटने के लिए पीछे बने रसोई घर में चले गये जहां खाना तैयार हो रहा था. लकड़ी से जलने वाले चार चूल्हों पर खाना बन रहा था. इस बीच एक आदिवासी महुआ की पहली धार वाली मदिरा ले आया जिसकी मांग अमिताभ ने की थी. उनका दावा था यह किसी भी स्काच से बेहतर होती है और आदिवासी इसी का नियमित सेवन करते हैं. मैं उस बुजुर्ग खानसामा दशरथ से बात करने लगा जो खड़े मसाले भून रहा था. भूनने के बाद उसे सिलबट्टे पर पीसना था. वह बताने लगा कि इस डाक बंगले से उसका संबंध साठ साल से ज्यादा का है. उसके पिता भी यहीं पर खानसामा थे. उस दौर में इस डाक बंगले की कई कहानियां सुनाई जाती थीं. अंग्रेजो के दौर में यह अफसरों का पसंदीदा शिकारगाह हुआ करता था. वे अफसर तीन चार दिन तक रहते और शिकार होता. तीतर बटेर ,जंगली मुर्गे ,हिरन से लेकर जंगली सूअर तक बनता. आजादी के बाद भी कई सालों तक शिकार होता रहा. यहां आना मुश्किल होता था इसलिए बहुत कम अफसर आते थे. अपने साजो सामान के साथ. इस जंगल में बहुत से पक्षी हैं. जंगली मुर्गा, पटकी, रगार, काला बगुला, किलकिला, ब्राह्मणी चील, लालमुनिया, हरेबा, गिद्ध, सिल्ही, अंधा बगुला, तीतर, बटेर, कठफोड़वा, किंगफिशर आदि. पर ज्यादातर जंगली मुर्गा ही इनके हत्थे चढ़ता. खैर अब न शिकारी रहे न शिकार की परम्परा. पर विकल्प में आसपास खासकर बफर जोन के गांवों से देसी मुर्गे आ जाते है. कान्हा वन्य जीव अभ्यारण्य में भी देसी मुर्गों का ज्यादा प्रचलन है और हर होटल या रिसार्ट में आसानी से उपलब्ध हो जाता है. अल्लू चौबे ने यहां भी उसका इंतजाम कर रखा था. पर रात में खाना खाने निकले तो एक बड़ा बिच्छू अनिल चौबे के पैर के नीचे आ गया. चप्पल पहने थे इसलिए बच गये. पर दहशत ऐसी की रसोई तक जाकर लौट आये. खाना कमरे पर ही देने को कह दिया. इससे पहले तीसरे पहर जंगल में निकले तो जिप्सी से इतने हिचकोले लगे कि बैठना मुश्किल हो गया. यह जंगल भी जंगल जैसा है. हर चार कदम पर जिप्सी के आसपास बड़ी मकड़ी का कोई न कोई जाला आ जाता. सूरज उतर रहा था. कही धूप कही छाया थी. जंगल के सामने के एक हिस्से में तालाब पर सूरज की रौशनी चमक रही थी. तालाब के एक तरफ घोस्ट ट्री यानी भुतहा पेड़ था. इस पेड़ की सुनहरी शाखायें पत्तियां गिरने के बाद भुतही नजर आती हैं, ऐसा साथ चल रहे फारेस्ट गार्ड ने बताया. सामने एक गोल पत्थर पर बैठी किंगफिशर की फोटो लेने के लिए कैमरा निकाला तो दोनों साथी फोटो खिंचने की मुद्रा में आ चुके थे. यह जंगल जानवरों से भरा हुआ है. इस तालाब पर शाम होते होते कई जानवर पानी पीने आते हैं. पर उस दिन कुछ परिंदों के अलावा कोई नजर नहीं आया. ये उनका सौभाग्य भले हो अपना तो दुर्भाग्य था. पर जंगल ने निराश नहीं किया. हिरन, चीतल और सांभर तो आसानी से दिखे पर रोमांचक रहा जंगली भालू और बायसन यानी जंगली भैंसा का दर्शन. जंगल से लौटते समय दो जंगली भालू दिखे जो दीमक खाने में इतने मशगूल थे कि सिर ऊपर ही नहीं कर रहे थे. जिप्सी को ज्यादा पास ले जाना ठीक नहीं था. फारेस्ट गार्ड ने चेतावनी दी कि इनके खाने में विघ्न डाला तो ये हमला कर सकते हैं. तबतक जंगल धुंध में डूबने लगा था. हम डाक बंगले में लौटे तो वह धुंध से घिरा हुआ था.

Friday, September 22, 2017

बेटियों से युद्ध नहीं संवाद करे सरकार

अंबरीश कुमार जेएनयू गया तो दिल्ली विश्विद्यालय भी नहीं बचा .अब यूपी के छात्रों से टकराव ठीक नहीं .आज तो मोदी आरती के लिए निकले तो रूट बदलना पड़ा .क्योंकि रास्ते में ये बेटियां खड़ी थी .बता रहे है कि नवरात्र में इन बेटियों पर लाठी चली है . बनारस हिंदू विश्विद्यालय की एक फोटो आई है .छात्राओं के आंदोलन से निपटने के लिए पुलिस के साथ सुरक्षा बल का वह दस्ता लगाया गया है जो दंगो से निपटता है .ये छात्राएं भी तो वही बेटियां हैं जिनके बचाने का नारा सरकार के शीर्ष पर बैठे नेता दे रहे हैं .बनारस तो देश के सबसे बड़े चौकीदार का राजनैतिक घर है .अब चौकीदार के घर में भी बेटियां सुरक्षित नहीं रहेंगी तो कहां रहेंगी .कल एक बेटी के साथ छेड़खानी हुई और एक बडबोले और बौड़म कुलपति के चलते छात्राओं को ही छात्रावास में कैद कर दिया गया .छात्राओं ने विरोध शुरू किया तो दबाने के लिए दंगा निपटाने वाले जवानो को आगे कर दिया गया .आप सोच कर देखे कि आपकी बहन बेटी घर से दूर छात्रावास में रह रही हो और कोई लंपट उसके साथ छेड़खानी करे तो किससे कार्रवाई की अपेक्षा रखेंगे . साफ़ है विश्विद्यालय प्रशासन से .और जब प्रशासन ही इन बेटियों की आवाज दबाने में जुट जाए तो कौन खड़ा होगा .प्रदेश की यह सरकार जब सत्ता आई थी तो एक एंटी रोमियो स्क्वायड बना कर पुलिस वालों को एक साथ जा रहे लड़की और लड़के को प्रताड़ित करने का हथियार दे दिया गया था .भाई बहन तक थाने में बैठाए गए तो पति पत्नी तक को नहीं छोड़ा .जब एकाध अफसर नेता के परिजन भी फंसे तो यह कवायद बंद हो गई .किसी भी जिले में चले जाएं अगर किसी लड़की महिला से छेड़खानी या बलात्कार का कोई मामला आएगा तो पहला प्रयास यह होगा कि लड़की वाले को थाने से ही बिना शिकायत लिखे भगा दिया जाए .और बलात्कारी बड़े घर का हुआ तो पैसे लेकर मामला रफा दफा कर दिया जाए .यह पुलिसिया चरित्र है .यह कोई योगी सरकार में नहीं बना सभी सरकार में रहा .पर यह तो संस्कार वाली सरकार है ,कुछ तो नई पहल करे कि लड़की सुरक्षित रहे .और जब कोई घटना घटे तो जल्द से जल्द और प्रभावी कार्यवाई हो .क्या यह बेहतर नहीं होता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कम से कम अपने निर्वाचन क्षेत्र में हुई इस घटना की जानकारी लेकर खुद कोई पहल करते .इससे उनका कद ही बढ़ता .विश्विद्यालय से लेकर जिला प्रशासन तक तो जिस लीपापोती में लगा हुआ है उससे लोगों का आक्रोश बढ़ रहा है . यह सिर्फ बनारस हिंदू विश्विद्यालय का मामला नहीं है .लखनऊ विश्विद्यालय से लेकर इलाहाबाद विश्विद्यालय तक में छात्राओं को किस तरह दबाया जा रहा है .लखनऊ विश्विद्यालय में छात्रा पूजा शुक्ल को जेल भेज दिया गया .और बडबोला प्राक्टर इस बहाने दूसरों को धमकाने में जुट गया .इलाहाबाद में ऋचा सिंह को किस तरह प्रताड़ित किया गया यह सभी ने देखा है .क्या इस सबसे यह छात्राएं दब जाएंगी .यह संभव नहीं है .हम लोग आंदोलन में रहे है ,देखा है .छात्रों को दबाकर कोई प्रशासन जीत नहीं पाता .लाठी गोली के बाद जेल भी छात्र जाते रहे और लड़ते रहे .इसलिए सरकार इन बेटियों से युद्ध न करे ,संवाद करे .एक परिसर में माहौल ख़राब हुआ तो दूसरा भी नहीं बचेगा .जेएनयू गया तो दिल्ली विश्विद्यालय भी नहीं बचा .अब यूपी के छात्रों से टकराव ठीक नहीं .आज तो मोदी आरती के लिए निकले तो रूट बदलना पड़ा .क्योंकि रास्ते में ये बेटियां खड़ी थी .बता रहे है कि नवरात्र में इन बेटियों पर लाठी चली है .

Wednesday, September 6, 2017

सोशल मीडिया के ये अघोरी !

अंबरीश कुमार सोशल मीडिया में तरह तरह के तत्व पहले से हैं .कुछ पेड हैं तो कुछ अनपेड है .कुछ वेतनभोगी हैं तो कुछ शौकिया भिड़ते है .इन्हें अंग्रेजी में लोग ट्रोल कहते हैं पर अपनी भाषा में ये लंपट किस्म के कार्यकर्त्ता हैं .छवि निर्माण के साथ सामने वाले की छवि ध्वस्त करने के लिए इनका इस्तेमाल राष्ट्रवादी के मौजूदा नेतृत्व ने शुरू किया था .पहले इस प्रकार की कवायद राजनैतिक विरोधियों को निपटाने के लिए नहीं होती थी .पर बहुत कम .भाजपा तो पुरानी पार्टी है .हम जैसे पत्रकार तीन दशक से इसे कवर करते रहे हैं .बहुत से मित्र भी इस पार्टी में हैं .पर वे तो ऐसे नहीं थे .पार्टी ही बदल रही है .याद आता है नारा ,भाजपा के तीन धरोहर -अटल ,आडवाणी और मुरली मनोहर .अब न ये नारा रहा न ये नेता धरोहर रहे .ये सब शीर्ष नेता निपटा दिए गए हैं .जब कोई नेतृत्व अपनी ही विरासत को निपटा दे तो उसके लिए क्या समाज ,क्या मीडिया और क्या लेखक होंगे .जो विरोध करे उसका चरित्र हनन करो और खत्म करो .यह नई राजनीति है .दीन दयाल उपाध्याय के विचार वाली उस पार्टी की जिसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी का सम्मान समूचा विपक्ष करता था .उनका एक जरुरी आपरेशन होना था तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने जुगत जुगाड़ से इन्हें विदेश भिजवाया ताकि वे स्वस्थ हो सके .यह राजनैतिक शिष्टाचार का दौर हम लोगों ने देखा है . और अब देखिए इसी धारा के बेलगाम अघोरी एक पत्रकार की हत्या के बाद उसके चरित्र का पोस्ट मार्टम कर रहे है .तरह तरह के मूर्खतापूर्ण कुतर्क और सवाल ये उठा रहे है .प्रेस क्लब में एक बैठक हुई जिसमे राजनातिक दल के लोग भी आ गए .वे भी इस समाज के हैं .हत्या पर विरोध जताना चाहते थे आए .सभी जगह यह होता है .और सिर्फ एक पार्टी का चश्मा लगाने वाली जमात बोल रही है इसे राजनीति से दूर रखों .राजनीति अभी भी इतनी ख़राब नहीं हुई है जितने सोशल मीडिया के चंद अघोरी समाज को खराब क्र रहे हैं .इनकी भाषा देखिए ,इनकी गालियां देखिए इनकी पोस्ट देखिए .क्या इसे ये अपने भाई बहन ,पुत्र पुत्री के साथ शेयर कर सकते हैं .एकाध मेरी सूची में भी है पर सब अराजनैतिक फ्रीलांस किस्म के लोग .संघ के ,भाजपा के कई मित्र हैं पर इस तरह की बेहूदी टिपण्णी वे नहीं करते जैसे कुछ कर रहे हैं .मैंने अपने एक संघी साथी से पूछा तो बोले ,ये कुछ आईटी सेल के अप्रशिक्षित .अराजनैतिक लोग है .इनका पार्टी की विचारधारा से कुछ नहीं लेना .पर इनका किया धिया सब पार्टी के ही खाते में जा रहा है .जब आप किसी की हत्या पर जश्न मनाने लगे तो ,किसी की हत्या के बाद उसपर सवाल उठाने लगे तो आपकी सोच साफ़ हो जाती है .सत्ता पक्ष के साथ खड़े हो ,उनकी चापलूसी भी करे ठीक है वह आपकी नौकरी का हिस्सा है .पर समाज के प्रति भी आपकी कुछ जिम्मेदारी है .समाज को बनाया जाता है बिगाड़ा नहीं जाता .क्या यह समाज सिर्फ गाय ,गो मूत्र और गोबर की रक्षा से ही आगे बढेगा .आज देश की सर्वोच्च अदालत को तथाकथित गो रक्षकों की गुंडागर्दी पर कार्यवाई के लिए अगर निर्देश देना पड़ा है तो चेत जाइए .अगला नंबर सोशल मीडिया के अघोरियों का भी होगा .बेहतर हो इन्हें आप पहचान ले .

Tuesday, August 8, 2017

मोर्चे पर डटा है ' भारत छोडो ' आंदोलन का सिपाही


अंबरीश कुमार मुंबई .भारत छोडो आंदोलन का एक सिपाही आज भी मोर्चे पर डटा हुआ है । ये हैं दिग्गज समाजवादी जीजी पारीख जो वर्ष 1942 में भारत छोडो आंदोलन में भाग लेंने की वजह से दस महीने तक वर्ली की अस्थाई जेल में रहे । वे इस समय 93 वर्ष के हैं और समाजवादी आंदोलन का दिया जलाए हुए है ।वे न कभी चुनाव लड़े और न कोई शासकीय पद लिया । दिग्गज समाजवादी जीजी पारीख से पनवेल के युसूफ मेहर अली सेंटर में जो बातचीत हुई थी उसके अंश- सवाल -आप किसी प्रेरणा से भारत छोडो आंदोलन से जुड़े ?- यह उस समय का देश का माहौल था । लोग आजादी की बात करते थे ।जेल जाने की बात करते थे ।इस सबका असर मेरे ऊपर भी पड़ा ।गांधी और कांग्रेस की हवा बह रही थी जिसका असर मेरे घर पर भी पड़ा ।शुरुआत कहा से हुई ?एआईसीसी का मुंबई में भारत छोडो आंदोलन का जो सेशन हुआ उसमे एक वालंटियर के रूप में मै भी शामिल हुआ था ।अन्य नेताओं के साथ महात्मा गाँधी मंच पर थे ।उनके भाषण से प्रभावित हुआ और फिर इस आंदोलन का हिस्सा बन गया । समाजवादियों की कई बार एकजुटता की कोशिश हुई ,कई बार बिखराव हुआ ।आप इसे कैसे देखते है ?-मै सोशलिस्ट पार्टी में हमेशा विभाजन के खिलाफ रहा ।इस मामले में डा राम मनोहर लोहिया से भी सहमत नहीं था ।हमें जोड़ना चाहिए तोडना नहीं । महाराष्ट्र में लम्बे समय से है यहां की राजनीति में शिवसेना के उदय को किस तरह देखते है ? मै खुद गुजरात से हूँ पर पचास साठ के दशक में मुंबई के कल कारखानों में जिस तरह मराठी लोगों की उपेक्षा हुई उसी से यह सब शुरू हुआ ।जो पहल समाजवादियों को करनी चाहिए थी उसे बाल ठाकरे ने किया और वे कामयाब भी हुए ।नौकरी में जब स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी नहीं होगी तो यह सब होगा । इस युसूफ मेहर अली सेंटर में अस्पताल है ,स्कूल है लड़कियों का छात्रावास है और बड़ी संख्या में स्टाफ है ,इसका खर्च कैसे निकलता है ?-इन सब जनहित के कामो में काफी पैसा लगता है कुछ हमारे अपने संसाधनों से मिलता है तो ज्यादा हिस्सा जनता से मांगता हूँ ।हर साल करीब दो करोड़ का खर्च आता है जो मांग कर इकठ्ठा करता हूँ । समाजवादियों की नई पहल से क्या उम्मीद है ? जिस तरह लोगों ने यहां आकर अपनी बात रखी और समाजवादी आंदोलन के लिए समय देने का संकल्प लिया है उससे अभी भी बहुत उम्मीद है ।हमने कई बदलाव देखे है और फिर बदलाव होगा । (डा. जीजी पारिख को कई तरह से लोग जानते हैं, सन 42 के भारत छोडो आंदोलन में दस महीने तक जेल में रहने वाले जीजी समाजवादी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, गांधीवादी और पेशेवर चिकित्सक के रूप में जाने जाते है । उन्हें सबसे ज्यादा युसुफ मेहरअली सेंटर के संस्थापक के तौर पर जाना जाता है, जिसकी स्थापना उन्होंने 52 साल पहले महाराष्ट्र में रायगढ़ जिले के तारा गांव में की थी, जहां हिंदी, उर्दू तथा मराठी भाषा में चार स्कूलों का संचालन किया जा रहा है। जिनमें ढाई हजार से भी ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। यहां ग्रामीणों के लिए निशुल्क अस्पताल चलाया जाता है। खादी ग्रामाद्योग भी स्थापित हैं। सेंटर की 11 राज्यों में शाखाएं संचालित की जा रही हैं। उन्होंने अपना अधिकतर समय रचनात्मक कार्यों मंे तथा प्राकृतिक आपदा से पीडि़त लोगों के पुनर्वास में लगाया है। लातूर, कश्मीर हो या गुजरात के कच्छ का भुकंप, दक्षिण भारत में सूनामी आई हो या उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा, जीजी के नेतृत्व में युसुफ मेहरअली सेंटर द्वारा बढ़चढ़ कर पुनर्वास का कार्य किया गया। गुजरात में सौराष्ट्र के सुरेंद्रनगर (बधवान कैंप) में गुणवंत राय पारिख का जन्म 30 दिसंबर 1924 को हुआ था। पिता स्व. श्री गणपत लाल पारिख जयपुर स्टेट के डाक्टर थे, जो बाद में राजस्थान चिकित्सा सेवाओं के डायरेक्टर बने। जीजी की माता का नाम श्रीमति विजया पारिख था, जिनके छह बच्चों में से एक जीजी थे। जीजी की सुरेंद्रनगर के विभिन्न स्कूलों में पढ़ाई हुई। स्कूल के दिनों में ही वे छात्र आंदोलन से जुड़ गए तथा 1942 में हुए भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने हिस्सेदारी की, जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर 10 महीने वर्ली की अस्थाई जेल में रखा गया तथा एक महीने थाणे की जिला जेल में रहे। जीजी के व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव महात्मा गांधी, अच्युत पटवर्धन, युसुफ मेहरअली, जयप्रकाश नारायण तथा ब्रिटेन के समाजवादियों का पड़ा। 1946 में वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गए तथा श्रमिक आंदोलन और सहकारिता आंदोलन से जुड़ गए। वे छात्र कांग्रेस की मुंबई शाखा के अध्यक्ष हुए। 1949 में उनका विवाह सुश्री मंगला से हुआ, जो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी। उन्होंने मृणाल गोरे, प्रमिला दंडवते के साथ मिलकर समाजवादी महिला आंदोलनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। जीजी सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे। वे अशोक मेहता, नाना साहेब गोरे, मधु दंडवते के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहे। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू किए जाने के बाद 23 अक्टूबर को सोशलिस्ट पार्टी की मंुबई शाखा के अध्यक्ष होने के नाते उन्हें जाॅर्ज फर्नाडिज के साथ बड़ौदा डायनामाईट कांड में गिरफ्तार किया गया। जिसके परिणामस्वरूप वे 20 महीने पुणे की यरवादा जेल में रहे। बाद में उनका तबादला दिल्ली की तिहाड़ जेल में किया किया गया। चुनाव की घोषणा के बाद जीजी रिहा हुए। श्रीमति मंगला पारिख जी प्रमिला दंडवते के साथ 18 महीने यरवदा तथा धुले जेल में रहीं। उनकी बेटी सोनल ने 19 वर्ष की आयु में आपात काल के खिलाफ सत्याग्रह किया, जिसके चलते उन्हें चार सप्ताह मंबई की आर्थर रोड़ जेल में रखा गया। 1940 में ही राजनीति मंे प्रवेश करने साथ ही जीजी ने तय कर लिया था कि वे ना तो कभी चुनाव लड़ेंगे, न ही कोई शासकीय पद लेंगे। इस कारण उन्होंने जीवनभर तमाम बार पार्टी टिकट का प्रस्ताव मिलने के बावजूद कभी चुनाव नहीं लड़ा, न ही कोई शासकीय पद लिया। )

Saturday, July 1, 2017

तौरंगा का डाक बंगला

अंबरीश कुमार यह सवा सौ साल से भी ज्यादा पुराना है .सन 2001 में पहली बार यहां गया था .देवभोग की हीरा खदान पर इंडियन एक्सप्रेस में जो स्टोरी की थी उसपर संसद में विवाद हुआ और केंद्रीय मंत्री पटवा भी इस विवाद में फंसे .खैर इस सिलसिले में दोबारा देवभोग जाना हुआ तो एक सहयोगी पत्रकार भी साथ थी .देवभोग क्षेत्र में रुकने की कोई जगह नहीं थी और हीरा खदान क्षेत्र को देख कर गांव वालों से बात कर लौटने में देर हो चुकी थी .देवभोग पुलिस थाने को पहले ही अपने दौरे को लेकर सूचित किया जा चुका था क्योंकि यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र भी था .थाना प्रभारी का फोन बार बार आ रहा था .हम लोग उससे मिले और बताया कि कल फिर दूसरे गांव की तरफ जाना है .स्टोरी काफी संवेदनशील थी इसलिए कोई कोर कसर छोड़ने का सवाल ही नहीं था .तौरंगा के डाक बंगले पर रुकने की व्यवस्था जंगलात विभाग ने कर रखी थी पर थाना प्रभारी परेशान था .उसका कहना था रात में रुकना ठीक नहीं है .जंगली जानवरों का खतरा है तो नक्सली भी हमला कर सकते हैं .पर हमने कहा ,अब तो यहीं रुकना है .तौरंगा का डाक बंगला साल के घने जंगल से घिरा था .जब पहुंचे तो शाम हो चुकी थी .खानसामा साहू इंतजार कर रहा था क्योंकि उसे जंगलात विभाग के वायरलेस से सूचना कर दी गई थी .इस जगह कोई मोबाइल काम नहीं करता है .फोन भी नहीं था न बिजली आ रही थी .जो पानी लेकर आया वह बहुत ठंढा था पता चला बहुत पुराने कुवें का पानी है . तौरंगा का डाक बंगला परिसर भी जंगल जैसा ही था .साल के कई उंचे उंचे दरख्त से घिरे इस डाक बंगला में दो सूट थे और बीच में डाइनिंग हाल जो पीछे की तरफ से भी खुला हुआ था ,पर दरवाजा था .पीछे आम और कटहल के पेड़ के नीचे रसोई घर था जहां से धुवां निकल कर फ़ैल रहा था .एक बार बरसात हो चुकी थी जिसका असर बरक़रार था .हवा की नमी भी महसूस हो रही थी .थोड़ी ही देर में चाय और बिस्कुट वह ले आया .तब उससे बात शुरू हुई .खानसामा ने बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी को यह डाक बंगला बहुत पसंद आया था .वे यहां रुके थे .दोपहर के समय आए और दूसरे दिन लौटे थे .शाम के समय परिंदों की चहचहाट से डाक बंगला गुलजार था .हम लोग भी काफी देर तक बरामदे के आगे बने बगीचे में बैठे रहे .गुलाब के फूलों की खुशबू फैली हुई थी .यह बगीचा साल के पेड़ों से घिरा हुआ था .अंधेरा होते ही साहू लालटेन लेकर आया और बरामदे में टांग गया .मोबाइल में नेटवर्क नहीं था इसलिए किसी से किसी तरह का संपर्क होने का सवाल ही नहीं था .मैंने लालटेन की रौशनी में उस स्पाइरल डायरी में नोट दिन में गांव वालों से हुई बातचीत को देखना चाह पर कुछ देर बाद उसे बंद करना पड़ा .ड्राइवर के रात में सोने की व्यवस्था करने के बाद करीब आधा घंटा और बाहर बैठे पर ठंढ के चलते कमरे में जाना पड़ा .हवा भी तेज हो चुकी थी .करीब नौ बजे खानसामा ने बताया कि खाना डाइनिंग हाल में लग चुका है . डाक बंगला के खानसामा भी बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन बनाते हैं .कड़कनाथ का स्वाद भी इन्ही खानसामा से मिला था .कुछ देर हम रसोई घर में भी रहे और खाना बनाने का तौर तरीका भी देखा .जिसपर आदिवासियों का असर बरक़रार था .पहले खड़े मसलों को देर तक भूनना फिर सिलबट्टे पर पीसना .रसोई में महुआ की पहली धार वाली मदिरा भी उपलब्ध थी जो वे अपने लिए रखे हुए थे .एक बार बार नवापारा वन्य जीव अभ्यारण्य में ठहरने पर डेक्कन हेराल्ड के साथी अमिताभ ने इसका स्वाद भी चखाया था .उनका दावा था ये किसी भी स्काच से बेह्त्ज़र होती है .खैर दिन भर की भागदौड से इतना थके हुए थे की खाना खाने बाद जो नींद आई तो सुबह पांच बजे ही उठ पाए .जबकि इतनी जल्दी बहुत कम सोना होता था .बहरहाल तौरंगा का यह डाक बंगला अद्भुत है .अब मुख्य भवन का कायाकल्प हो रहा है .कुछ महीने पहले अल्लू चौबे और राजस्थान पत्रिका के पत्रकार राज कुमार सोनी के साथ यहां फिर कुछ समय गुजारने का मौका मिला .

Friday, June 9, 2017

वे भी लड़ाई के लिए तैयार है !

वे भी लड़ाई के लिए तैयार है ! अंबरीश कुमार इमरजेंसी में जेल जाने वाले इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक कुलदीप नैयर कल प्रेस क्लब में पत्रकारों की भीड़ देख कर उत्साहित थे .जिस तरह मीडिया का बड़ा तबका राजा का बाजा बना हुआ है उसे देखते हुए किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि प्रेस क्लब में इतनी बड़ी संख्या में पत्रकार जुटेंगे .कुलदीप नैयर के साथ एक्सप्रेस के दूसरे संपादक अरुण शौरी ,एक्सप्रेस के एक और पूर्व संपादक एचके दुआ ,एस निहाल सिंह केव्साथ
और मशहूर विधिवेत्ता फली एस नरीमन की मौजूदगी के राजनैतिक संकेत साफ़ है .इंडिया टुडे समूह के मालिक अरुण पूरी का लिखित संदेश पढ़ा गया जो अभिव्यक्ति की आजादी पर होने वाले हमले के विरोध में था .इन दिग्गज पत्रकारों ने इस उम्र में साथ आकर नौजवान पत्रकारों को तो झकझोर ही दिया है .सरकार की मनमानी के खिलाफ बहुत से हाथ खड़े हो चुके हैं .हाल के दो दशक में इस तरह की एकजुटता तो मुझे नहीं दिखी . बिहार प्रेस बिल के समय जरुर दिखी थी जब एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका से लेकर खुशवंत सिंह और स्टेट्समैन तक के मालिक बोट क्लब पर प्रेस की आजादी वाले प्ले कार्ड लिए खड़े थे .एनडीटीवी के मालिक प्रणय राय पर जिस समय छापा पड़ा उसके ठीक पहले उनके चैनल की एक एंकर ने भाजपा के एक प्रवक्ता को बहस से बाहर कर दिया था .ऐसे में सभी का ध्यान इसी पर गया भी .प्रणय राय पर कितना कर्ज है कितने मामले है और सत्ता पक्ष से कैसा रिश्ता है यह सब मीडिया से जुड़े लोग ठीक से जानते हैं .जो नहीं जानते थे उन्हें राष्ट्रवादी पत्रकारों ने कैरेवान पत्रिका का पुराना लिंक देकर जागरूक भी करने का सार्थक प्रयास किया .जो भी अख़बार पत्रिका या चैनल चलाता है उसे बैंक का कर्ज लेना पड़ता है और उसकी वसूली ,भारी ब्याज आदि के विवाद से लगातार जूझना पड़ता है .इंडियन एक्सप्रेस में यह सब मैंने गोयनका जी के समय से देखा है .तब तो न्यूज प्रिंट के कोटा का भी खेल होता था और सरकार चाहती तो किसी भी मामले में आसानी से फंसा सकती .पर एनडीटीवी के मामले में ऐसा कुछ नहीं था जो था वह खबरों को लेकर ज्यादा था .हालांकि इंडियन एक्सप्रेस और टेलीग्राफ की चोट और तीखी होती पर शायद इन अखबारों से ज्यादा लोगों तक पहुंच रखने और सत्ता विरोधी विचार पहुंचाने की वजह से यह चैनल हमेशा भाजपा नेताओं के निशाने पर रहा .यह बात अलग है कि ज्यादातर चुनाव में इसे विपक्ष को ही हराया पर धारणा यही बनी कि यह सत्ता के खिलाफ है क्योंकि इसके कुछ कार्यक्रम खबरों की चीड़ फाड़ ठीक से करते रहे है .बहरहाल ताजा विवाद भाजपा के एक बडबोले प्रवक्ता था जिसे बहस से बाहर करने के बाद ही प्रणय राय के घर सीबीआई का छापा पड़ा .इससे पहले डीएवीपी के नियमों में बदलाव लाकर बड़ी संख्या में लघु और मझोले अखबारों का सरकारी विज्ञापन बंद किया जा चुका था .कुछ अख़बार सिर्फ फ़ाइल कापी निकालते होंगे पर सभी तो ऐसा नहीं करते थे .मीडिया को लेकर केंद्र सरकार की नीति साफ़ हो चुकी है .खुद प्रधानमंत्री मोदी कभी बड़ी प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते न ही बाहर के दौरे पर उस तरह पत्रकारों को साथ ले जाते हैं जैसे अन्य प्रधानमंत्री ले जाते थे .एकाध प्रायोजित इंटरव्यू जरुर अपवाद है .हालांकि मीडिया का बड़ा तबका वैसे ही उनका समर्थन करता है .पर अगर कोई सत्ता विरोधी खबर या विश्लेष्ण करे तो वह उनके निशाने पर आ जाता है .राज्य सभा टीवी में जो हाल में हुआ वह सामने था .कई अखबारों को यह साफ़ कह दिया गया है कि कुछ पत्रकारों के लेख नहीं लिए जाएं .खासकर संपादकीय पृष्ठ पर .ऐसे हालात पहले कभी नहीं थे . कांग्रेस ने इमरजंसी में यह सब किया और नतीजा भी भुगतना पड़ा .ऐसे में मौजदा सरकार जिसे सिर्फ सकारात्मक खबरे और लेख पसंद है उसके खिलाफ लिखने और बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी .एंकर निधि राजदान के सहस की कीमत सीबीआई का छापा है .यह हथकंडा पुराना है पर बार बार यही इस्तेमाल होता है .आगे भी होगा .इसलिए प्रेस क्लब आफ इंडिया परिसर में पत्रकारों के इस जमावड़े को गंभीरता से लेना चाहिए .कुलदीप नैयर ने बताया भी कि इमरजंसी में तो तो सिर्फ तिहत्तर पत्रकार ही समर्थन में खड़े हुए पर आज तो बड़ी संख्या में पत्रकार आए .इसका संकेत सरकार को भी समझना चाहिए .अब पुलिस या सीबीआई से मीडिया को धमका ले यह आसान नहीं है .कल जो एकजुटता दिल्ली के प्रेस क्लब में दिखी उसका संदेश देश के कोने कोने में जा चुका है .देश के बहुसंख्यक पत्रकार भी लड़ाई के लिए तैयार है .

Tuesday, March 28, 2017

पहाड़ भी बदल रहा है

अंबरीश कुमार शाम को स्टेशन की तरफ गए तो कुछ पक्षियों की फोटो ली .तभी धर्मेंद्र के पिता जो सेना से सूबेदार के रूप में रिटायर हुवे वे वृंदावन आर्चिड की ढलान पर मिल गए .चौथे पहर में भी धूप पूरी तरह खिली हुईं थी .सिंधिया के शिकारगाह के पीछे से हिमालय की बर्फ से ढकी चमक रही थी .एक परिंदा अखरोट के पेड़ से उड़ा तो ठीक सामने फूलों से लादे एक दरख्त पर बैठ गया .कैमरा निकाला तभी एक लंगूर तभी खुबानी के पेड़ पर नजर आया .फोटो लेते हुए सूबेदार साहब से बात हुई .आगे बढे तो गेट पार करते ही किच्छा से रोज मछली लेकर आने वाला दिख गया तो हैरानी हुई .क्योंकि भवाली में तो आज शाकाहारी दिवस मनाया जा रहा था .आगे बढे तो पुलिस चौकी के बगल में बकरा और मुर्गा भी दिख गया .पूछा तो पता चला इधर मिल रहा है भवाली में दिक्कत है .दिन में ही भीमताल में ही हिंदू जागरण मंच जैसे किसी संगठन का जुलूस सामने पड़ा तो कुछ देर खड़े रहना पड़ा .उग्र भाव भंगिमा वाले नौजवान हुल्लड़ मचाते हुए नारे लगाते हुए दर्जनों मोयर साईकिल के साथ गुजर गए .पता चला पहाड़ पर लोग उत्तर प्रदेश के पहाड़ी मुख्यमंत्री बनने से बम बम है .हालांकि इससे पहले भी अविभाजित उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री पहाड़ के हुए है .पर आदित्यनाथ योगी की बात कुछ अलग है .वे न सिर्फ उतराखंड और उत्तर प्रदेश के बीच नया संबंध विकसित कर रहे है बल्कि हिंदुत्व की वह अलख जो उन्होंने पूर्वांचल में जगाई थी अब उसकी उम्मीद उतराखंड में भी दिख रही है .अपने साथ चल रहे एसके सिंह भी योगी से काफी प्रभावित रहे हैं .हालांकि अपने ज्यादातर राजपूत मित्र योगी में देश का नया राजपूत नेतृत्व देख रहे हैं .खैर एसके सिंह ने भवाली में चिकन लेना चाहा पर समूचा भवाली बाजार छान लेने के बावजूद कही उन्हें चिकन नहीं मिला .पता चला आज मंगलवार है और कहीं भी चिकन नहीं मिलेगा .तभी ड्राइवर ने बताया कि हाल में इस तरह की सख्ती बढ़ गई है .पहाड़ के अपने ज्यादातर मित्र सामिष है और वे किसी खास दिन का भी परहेज नहीं रखते है .पर पहली बार पहाड़ में इस तरह की प्रवृति नजर आई .तभी ड्राइवर ने यही भी बताया कि मंगलवार के दिन नाई की भी दूकान जबरन बंद करा दी जाती है .पहाड़ पर इस तरह का सांस्कृतिक बदलाव पहली बार दिखा .बाजार में ही चिंटू पांडे तिलक लगाए मिल गए .वे वर्षों से तिलक लगा कर ही दूकान जाते है .उनकी दूकान मुख्य बाजार से कुछ दूर पर है जहां एक छोटा मोटा पहाड़ी मोहल्ला बस गया है .सामने बिजली विभाग का दफ्तर है .चिंटू पांडे कर्मकांडी हिंदू है और ब्राह्मण होने की वजह से हम सब से अतिरिक्त सम्मान की अपेक्षा रखते है .उनका व्यापारिक हिसाब भी बहुत साफ़ है .जो सामान मुख्य बाजार में बीस रुपये का मिलता है उसमे वे दस फीसद यानी दो से तीन रुपए सीधे बढ़ा देते है जैसे एक पैकेट दही बाईस रुपए का मिलेगा तो तेल में यह इजाफा दस फीसद का कर देते हैं .वे इस फर्क का तार्किक आधार दूरी बताते है .करीब एक किलोमीटर पर वे दस फीसद की सात्विक किस्म की बढ़ोतरी करते है .अगर उनकी दूकान चार पांच किलोमीटर दूर होती तो उपभोक्ता पर कितना बोझ पड़ता अंदाजा लगाया जा सकता है .खैर मूल मुद्दे पर लौटे .सीधे बोले ,अरे ये हो गया यूपी में .अब समय आ गया है कि ये लोग देश छोड़ कर चले जाएं .उनकी मंशा सामने आ चुकी थी .वैसे दबी छुपी मंशा यह बहुत से लोगों की है .भवाली में पिछले एक दशक में बाहर के लोगों ने भी बहुत निवेश किया है .इस निवेश का एक धार्मिक आधार भी देखा जा रहा है .इस अंचल के दलित लोग ही इसे लेकर सवाल उठाते रहें है .इससे सामाजिक समीकरण को समझा जा सकता है .यूपी में भाजपा की जीत से पहाड़ पर लोगों में नई उम्मीद जगी है .हालांकि खानपान के नियंत्रण को ल्रेकर कुछ शंका भी है .धर्म कर्म करते रहें पर खानपान पर किसी तरह का अंकुश क्यों .

Sunday, March 19, 2017

शुरुआत तो ठीक ही हुई है महाराज !

शुरुआत तो ठीक ही हुई है महाराज ! अंबरीश कुमार लखनऊ । सबका साथ और सबका विकास होगा ।यह टिपण्णी आज उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री की थी ।पूर्वांचल में हिंदुत्व की नर्सरी चलाने वाले आदित्यनाथ योगी अब मुख्यमंत्री हैं देश के सबसे बड़े सूबे के । आज ही शपथ ली और मंत्रिमंडल की बैठक के बाद मीडिया से भी मिले । साफ़ किया कि हर तबके का विकास होगा । यह योगी का नया चेहरा है । वे योगी जो हिंदुत्व का कट्टर चेहरा माने जाते रहें है । जिन्हें लेकर तरह तरह की आशंका भी समाज के एक तबके में है । तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक तबका है जिसे बहुत उम्मीद भी है ।पर योगी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना पहला संदेश बहुत ही संतुलित और संयमित दिया है । मंदिर निर्माण को लेकर कोई बात नहीं की । खेत, खेती और किसान को प्राथमिकता पर रखा तो साथ ही लचर कानून व्यवस्था को भी । विपक्ष पर भी कोई ज्यादा हमला न कर आगे की योजना पर फोकस किया । योगी की पहली प्रेस कांफ्रेंस से उम्मीद जगती है । वैसे भी वे युवा और उर्जावान नेता हैं । जो उन्हें करीब से जानते हैं उन्हें पता है कि वे सुबह तीन बजे उठकर दिन की शुरुआत करते हैं और रात बारह बजे तक जनता के बीच रहते है । गोरखपुर में एक बार मुझे भी रात साढ़े ग्यारह बजे इंटरव्यू का समय मिला था तभी यह जानकारी हुई । रात में भी वे फ़रियाद सुनते हैं । दिन में वे मंदिर परिसर में जनता से मिलते हैं तो अस्पताल में जाकर मरीजों का भी हालचाल लेते हैं । मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी जिम्मेदारी और बढ़ चुकी है । अब वे गोरखनाथ मंदिर परिसर के महाराज ही नहीं हैं बल्कि समूचे प्रदेश के ' महाराज ' बन चुके है । अब उनपर सिर्फ एक धर्म एक तबके की ही नहीं हर धर्म और हर तबके की सुरक्षा की जिम्मेदारी आ चुकी है । इसलिए अब उन्हें अपने परम्परागत एजंडा की जगह समूचे प्रदेश का एजंडा तय करना है । इसका संकेत उन्होंने आज दे भी दिया है । वे जिस गोरखपुर से आते हैं वह पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के जाने के बाद जो पिछड़ा तो कभी आगे नहीं बढ़ पाया । जापानी बुखार से हर साल हजारों बच्चे मरते है । टूटी फूटी सड़क .गंदगी का अंबार और दम तोडती नदियां । यह हाल समूचे पूर्वांचल का है । बनारस से बलिया तक । वीर बहादुर सिंह को लोग आज भी याद करते हैं तो सिर्फ उनके काम की वजह से । अब प्रदेश की बागडोर फिर पूर्वांचल के हाथ है तो सबकी नजर भी योगी पर टिक गई है । इंतजार करना चाहिए ,उम्मीद भी रखनी चाहिए बदलाव की । फिलहाल शुरुआत तो ठीक ही हुई है महाराज ।

Saturday, March 11, 2017

उत्तर प्रदेश में मोदी का रामराज !

उत्तर प्रदेश में मोदी का रामराज ! अंबरीश कुमार लखनऊ. उत्तर प्रदेश में रामराज आ गया है. पूरी ताकत के साथ लोगों ने इसके लिए वोट दिया है. हो सकता है यह किसी प्रतिक्रिया में हो पर यह हिंदू लहर है. इस लहर में अखिलेश का विकास का एजेंडा भी बह गया तो मायावती जैसी आयरन लेडी के कुशल प्रशासन की धमक भी ध्वस्त हो गयी. ऐसी लहर होगी यह कोई नहीं समझ पाया था. हम भी इस लहर को नहीं देख पाये. पर यह लहर मोदी की रणनीति से बनी जिसकी तैयारी उन्होंने काफी पहले शुरू कर दी थी. पहले सोशल इंजीनियरिंग की फिर प्रदेश के समूचे हिंदू मन को प्रभावित कर मजहबी गोलबंदी कर दी. वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में जो मोदी की लहर चली उसमे हिंदुत्व के चूल्हे पर चढ़ी रोटी को तवे पर एक तरफ से पलट दिया गया था, इस बार वह रोटी दूसरी तरफ से भी पलट दी गयी है. मोदी ने चुनाव प्रचार में झूठ बोला हो या सच, लोगों ने उनपर भरोसा किया. अखिलेश, राहुल और मायावती पर भरोसा नहीं किया, यह सच है. ये नेता अब आत्ममंथन करें कि आखिर ऐसा क्यों हुआ. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश को लेकर हर तरह की रणनीति बनायी और उसमे वे कामयाब भी हुए. पहले पिछड़ों को जोड़ा. एक-एक करके प्रदेश अध्यक्ष बदला. पार्टी के संगठन में गैर यादव पिछड़ी जातियों को जोड़ने का काम किया तो उन्हें उम्मीदवार भी बनाया. ऐसे राजनैतिक दलों से तालमेल किया जो अति पिछड़ी जातियों में जनाधार रखते हैं. भारतीय समाज पार्टी हो या अपना दल. वे तिनका तिनका जोड़ रहे थे, काफी समय से. भाजपा किसी वार रूम के भरोसे नहीं थी. उसके साथ वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता, पत्रकार और बुद्धिजीवी जमात थी. और अंत में वे उस मजहबी गोलबंदी में भी कामयाब हुए जो उनका अंतिम अस्त्र था. पर यह सब एक के बाद एक रणनीति के साथ हुआ. अमित शाह और मोदी ने एक-एक जिले और एक एक बूथ के समीकरण को समझा .परस्पर विरोधी धारा वाले नेताओं को साथ खड़ा कर दिया .यह सब उनकी जीत की वजह बने. पर समाजवादी तो तिनका-तिनका बिखेर रहे थे. सत्ता,पैसा और आर्थिक लूट को लेकर सरकार लगातार घिरी तो अंत में सैफई का परिवारवाद भी विपक्ष के निशाने पर रहा. इस सबके बावजूद समाजवादी विचार धारा से जुड़े बहुत से नेता ,कार्यकर्त्ता और बुद्धजीवी जो मदद भी करना चाहते थे उनसे भी कोई संवाद करने को तैयार नहीं नजर आया. कुछ समाजवादी धारा के कार्यकर्त्ता जो चुनाव में प्रचार में भी जुटे उन्हें भी किसी ने गंभीरता से नहीं लिया. फिर भी अन्य राजनैतिक दलों के कार्यकर्त्ता अपने स्तर पर काम करते रहे. यही राजनैतिक अहंकार उन्हें ले डूबा. कांग्रेस तो इसमें और आगे थी. इसी अहंकार का नतीजा था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को किसी ने प्रचार में बुलाने तक की जहमत तक किसी ने नहीं उठाई . इस बारे में केसी त्यागी ने जब खुद फोन किया तो कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ने फोन तक नहीं उठाया. समाजवादी पार्टी ने एक बार भी प्रयास नहीं किया कि इन दिग्गज नेताओं की मदद ली जाये. सोशल इंजीनियरिंग का यह हाल था जो अति पिछड़ा बहुल इलाका था वहां अगड़ा उम्मीदवार दे दिया. कई ऐसे उम्मीदवारों का टिकट पारिवारिक विवाद में कट गया जो जीत सकते थे . कौमी एकता दल के साथ तालमेल सिर्फ मुख्तार अंसारी के नाम पर ख़ारिज कर देना बड़ी रणनीतिक भूल थी. अखिलेश यादव सिर्फ मुस्लिम -यादव समीकरण के भरोसे विकास के एजेंडा पर चुनाव लड़ रहे थे वह भी अराजनैतिक किस्म के वार रूम के जरिये. जबकि चुनाव में अन्य जातियों की भी बड़ी भूमिका होती है. दूसरी जातियों के बीच यह धारणा बन चुकी है कि समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद गाजियाबाद से लेकर गाजीपुर तक के थाने में सिर्फ अहीर थानेदार नियुक्त होता है. यह स्थिति कई बड़े पदों पर भी होती है. हालांकि अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी की जातीय छवि को तोड़ने का प्रयास भी किया पर वे भी इस धारणा को तोड़ नहीं पाये. अखिलेश यादव से कभी यह आभास नहीं मिला कि वे दलितों और अति पिछड़ी जातियों के लोगों को भी सत्ता में हिस्सेदारी देंगे. यह क्यों नहीं हो सकता था. आम लोगों से संवाद तो उन्होंने पहले ही बंद कर दिया था. सिर्फ सड़क बिजली और पानी के जरिये ही चुनाव नहीं जीता जा सकता है यह उन्हें सोचना चाहिये. मायावती तो अपना परंपरागत वोट बैंक भी नहीं सहेज सकी यह और दुर्भाग्यपूर्ण है. हालांकि पहले चरण से यह हवा मीडिया के जरिए फैलाई गयी कि बसपा सत्ता में आ रही है. सिर्फ इसलिए ताकि मुस्लिम वोटों का बंटवारा हो सके और वह हुआ भी. समाजवादी पार्टी इस अफवाह तक का मुकाबला नहीं कर सकी और बहुत सी जगहों पर मुस्लिम वोट ठीक से बंटा भी. साफ़ है राजनैतिक रणनीति में मोदी और शाह की जोड़ी भारी पड़ी.

Monday, March 6, 2017

लुट जाओगे सरकार बनारस की गली में ...

अंबरीश कुमार छह मार्च यानी सोमवार की शाम चार बजे से ही वाराणसी के बाबतपुर हवाई अड्डे पर नेताओं की भीड़ लगने लगी थी .सब लौट रहे थे .उत्तर प्रदेश के चुनाव का प्रचार थम चुका है .थके हुए नेता ,कुछ अभिनेता और पत्रकार आदि भी .सवाल यही था इस चुनाव में हासिल क्या होगा . अपना साफ़ मानना है कि नतीजा चाहे जो हो इस चुनाव का हासिल राहुल और अखिलेश की राजनीतिक जोड़ी हैं .इस चुनाव में ये लालू और नीतीश की तरह एक जोड़ी के रूप में उभरे .प्रदेश के करीब आधा दर्जन बड़े शहरों में राहुल और अखिलेश ने साझा रैली की .मोदी पर अपने अंदाज में निशाना साधा और अंततः मोदी इस जोड़ी के जाल में फंस ही गए .जिसके चलते मोदी इस चुनाव में अपनी विशिष्ट शैली से बाहर चले गए .जिसके चलते कभी गधा चुनाव के एजंडा में आया तो कभी अनानास को नारियल समझने और समझाने की गल्ती वे कर बैठे .वे मेट्रो का टिकट किस खिड़की पर मिलेगा यह पूछने लगे जब लखनऊ में मेट्रो का ट्रायल रन शुरू हो चुका था .यह कुछ ज्यादा ही लग रहा था .ठीक है वे गुजरात में मेट्रो न शुरू कर पाए पर देश के किसी भी हिस्से में अगर मेट्रो की शुरुआत हो रही हो तो प्रधानमंत्री को उसकी खिल्ली उडाना शोभा नहीं देता .यह बात आम लोग कर रहे हैं .बैंक गया था तो प्रभात कुमार से बनारस पर बात हुई कोई सज्जन जो पैसा निकलवाने आए थे बीच में कूद पड़े ,बोले -प्रधानमंत्री को तीन दिन तक बनारस में डेरा डालना और भाषा का स्तर गिराना शोभा नहीं देता .यह एक मध्य वर्गीय पढ़े लिखे जमात की आम राय है .उनकी नहीं जो अगड़ी जातियों के दिमागी ताले में बंद हो .प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने चुनावी भाषण में कर्बला और कब्रिस्तान का हवाला देकर अपने विकास के एजंडा का मजाक बना दिया .रही सही कसर बनारस की गली गली छानकर पूरी कर दी . दूसरी तरह अखिलेश यादव ने चुनाव के शुरू से लेकर अंत तक अपने चुटीले अंदाज को नहीं छोड़ा ,मुस्कुराना नहीं छोड़ा .तब भी नहीं छोड़ा था जब मुलायम सिंह ,अमर सिंह और शिवपाल उनके खिलाफ विद्रोह में जुटे थे .तब भी लोग कहते थे मुलायम के बिना अखिलेश कुछ नहीं है .पर देश के सबसे बड़े सूबे का चुनाव समाजवादी पार्टी ने सिर्फ अखिलेश यादव के कंधे पर रख कर लड़ा .तीन चरण बाद डिंपल यादव निकली और वे भी लोकप्रिय हुई अपने अंदाज से .अब सीटें चाहे जितनी आएं समाजवादी पार्टी को नया नेता मिल चुका है जो दो दशक से ज्यादा की पारी खेलने की तैयारी में है .ख़ास बात यह है कि अखिलेश का रुख लचीला है ,जोड़तोड़ वाला दिमाग नहीं है .इसी वजह से कांग्रेस से तालमेल भी हुआ . यह ठीक है कि अभी उनका राजनैतिक अनुभव मुलायम जैसा नहीं है न ही उनके साथ जनेश्वर मिश्र ,बृजभूषण तिवारी ,कपिल देव सिंह .मोहन सिंह जिजसे खांटी समाजवादियों की कोई टीम है .उनके टीम में नए लोग है .पर वे लोग है जिन्होंने संघर्ष के दौर में छोड़ा नहीं था और पुलिस की बर्बरता के शिकार भी हुए .बहुत से फैसले अखिलेश ने दबाव में लिए और खुद भी कई गलत फैसले किए .पर यह राजनैतिक प्रक्रिया में हमेशा से होता आया है .कई को दबाव में साथ लिया तो कई को अपनी नासमझी में भी .ये ही गायत्री प्रजापति हैं जिनके चक्कर में पिता और चाचा दोनों से झगड़ा हुआ और अंततः टिकट भी देना पड़ा .तब जितने लोग मुलायम के पक्ष में खड़े थे सब गायत्री को भी पवित्र बनाए हुए थे .गायत्री पर खनन के भारी खेल का आरोप है ठीक उसी तरह जैसे बाबू सिंह कुशवाहा पर था .बाकी दो साल उनके साथ रहने वाली महिला के मामले में राज्यपाल राम नाइक ने जितनी दिलचस्पी दिखाई वह भी समझ में आ रही थी .रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी के मामले में अपनी केंद्रीय मंत्री को कैसे बचाया जाता है ,यह सब इनसे सीखना चाहिए .खैर ऐसे तत्वों से अखिलेश को दूर रहना चाहिए और इसका संकेत वे दे चुके है .उन्होंने जिनको जिनको पार्टी से बाहर किया सब को भाजपा और बसपा ने शरण दी .माफिया सरगना की दूसरी पीढ़ी को भाजपा ने भी खाद पानी दिया है तो बसपा तो उन्हें मजलूमों का मसीहा ही मानती है .सपा में अभी भी दागी है पर बाकी दलों के मुकाबले कम ,जिन्हें बाहर करना बेहतर है . पर असली मुद्दा राजनैतिक है .अखिलेश यादव ने अपने दम पर यह चुनाव लड़ा उस पार्टी का जिसपर मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता का साया दो महीने पहले तक रहा .साथ ही राहुल गांधी से उनकी राजनैतिक केमेस्ट्री बनती नजर आई .कांग्रेस प्रदेश में बहुत ही बुरी स्थिति में रही है .ऐसे में अगर इस गठबंधन को वोट का फायदा होता है तो यह जोड़ी लोकसभा चुनाव तक आराम से चलेगी .दूसरे यह लोकसभा चुनाव को लेकर देश में एक व्यापक गठबंधन की दिशा में भी पहल कर सकती है .समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में नीतीश कुमार को जोड़ने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की .अगर ऐसा करते तो उसका राजनैतिक संदेश दूर तक जाता .फिर भी अखिलेश और राहुल गांधी ने समूची भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को जिस तरह बचाव की मुद्रा में लाने पर मजबूर किया वह ऐतिहासिक है .वे बनारस की गलियों में जिस तरह निकले और जैसी सफाई थी वह भी लोग याद रखेंगे .रोड शो को नादान कलेक्टर ने बताया कि वे दर्शन करने जा रहे थे .क्या कोई व्यक्ति दो क्विंटल फूल रास्ते भर उछालता हुआ बाबा विश्वनाथ के दर्शन करे जाता है काशी में .पर उससे भी क्या होगा .नजीर बनारसी ने जो लिखा है उसपर भी एक नजर डाल लें तो सब समझ में आ जाएगा . ऎसा भी है बाजार बनारस की गली में ,बिक जाए खरीदार बनारस की गली में ,सड़कों पे दिखाओगे अगर अपनी रईसी,लुट जाओगे सरकार बनारस की गली में .

Tuesday, February 28, 2017

कालीकट का समुद्र तट

अंबरीश कुमार अभी अभी अख़बार में सोनल मान सिंह का एक लेख पढ़ा तो उनसे हुई पुरानी मुलाक़ात याद आ गई .कालीकट भी याद आया और उमेश सिंह चौहान साहब भी .यही वह शहर है जहां पुर्तगाल से आकर वास्को डी गामा उतरा था .देश में पुर्तगालियों का प्रवेश द्वार .फोटो में वह समुद्र तट भी है तो वास्को का स्मारक भी . नब्बे के दशक की बात है .कालीकट महोत्सव देखने के लिए चेन्नई से कालीकट पहुंचे थे ट्रेन से .सुबह के पांच बजे थे .विश्विद्यालय के पुराने साथी और कालीकट के कलेक्टर चौहान साहब स्टेशन आए थे .नई जगह थी इसलिए उनके आने से सुविधा हो गई .बताया कि वे घंटे भर भर पहले आए थे फिल्म अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्रि को लेने .वे ही आयोजक थे इसलिए दौड़ धूप भी कर रहे थे .शहर के बीच का होटल था नाम संभवतः मालाबार पैलेस था .लाबी में प्रवेश करते ही पानी के पुराने जहाज का बड़ा सा माडल रखा हुआ था .आकाश के लिए यह अजूबा सा था इसलिए वहां से हटा तो विशाल एक्युरियम में शार्क मछली देखने लगा .हम लोग ऊपर की दूसरी मंजिल पर रुके हुए थे .बगल में नौशाद ,नृत्यांगना सोनल मानसिंह और मीनाक्षी शेषाद्रि भी .नौशाद से यही शाम को मुलाकात हुई .लखनऊ से लेकर मुंबई के किस्से सुनाने लगे .अच्छा लगा उनसे मिल कर .फिल्म ,साहित्य और संगीत नृत्य के क्षेत्र में अपनी कोई खास जानकारी नहीं रही है .आम दर्शक की तरह ऐसे मशहूर लोगों से मिलकर अच्छा लगता है . रात को बताया गया कि डिनर सोनल मान सिंह के साथ नीचे रेस्तरां में है .हम कुछ मिनट पहले पहुंच गए थे .कुछ देर में सोनल मानसिंह भी आई .परिचय पहले ही हो चुका था .उन्होंने सरसों में बनी मछली और चावल मंगाया .बताया कि कई घंटे की मेहनत के बाद उनका प्रिय भोजन यही होता है .सविता उनसे नृत्य की शुरुआत के बारे में देर तक बात करती रही .कई घंटे तक रियाज करना फिर कार्यक्रम .यह कार्यक्रम समुद्र तट पर था जिसकी रिपोर्ट भी जनसत्ता मे दी थी हालांकि नृत्य संगीत के कार्यक्रम के बारे में पहले कभी लिखा नहीं था .इस दौरे में ही वह समद्र तट देखा जहां पुर्तगाल से आकर वास्को उतरा था .वह अकेले नहीं आया एक संस्कृति के साथ आया जिसने तटीय इलाकों में बहुत कुछ बदल दिया .खानपान ,वास्तुशिल्प से लेकर रीति रिवाज तक . गोवा उदाहरण है .

Sunday, February 12, 2017

कोई काम न हो तो उपन्यास लिखे

उज्जवल भट्टाचार्य उपन्यास लिखने के लिये सबसे ज़रूरी बात यह है कि आपके पास कोई क़ायदे का काम-धाम न हो, और आप ऐसी बेकार बातों के लिये अपना वक़्त ज़ाया कर सकें. लेकिन इतना काफ़ी नहीं है. उपन्यास लिखने का फ़ैसला करने के तुरंत बाद एक नाम ढूंढ़ना पड़ता है. आप कोई नाम चुन सकते हैं, मसलन हेमा मालिनी. प्रकाशक अपनी ग़लतफ़हमी के चलते उसे छाप देगा, पाठक कुछ और सोचकर उसे ख़रीद लेगा, और सबसे बड़ी बात कि गूगल में खोजने वाले बिना चाहे आपके उपन्यास की ओर भटक जायेंगे, और जो लोग गूगल में एंट्री के आधार पर किताब खरीदने का फ़ैसला करते हैं – मसलन पुस्तकालयों के अधिकारी – उनके बीच आपके अच्छे अवसर होंगे. या कुछ इस किस्म का नाम हो सकता है - भरी टोकरी के नीचे. आप संस्कृत नाम भी रख सकते हैं - उदाहरण के लिये अंतर्यापन या भीष्मायमान. इसके बाद आपको विषय ढूंढ़ना पड़ेगा. विषय तीन तरीक़े से ढूंढ़े जा सकते हैं : आप शुरू में अपना विषय तय कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर आप तय कर सकते हैं कि आप सापेक्ष मौलिकतावाद पर एक उपन्यास लिखना चाहते हैं. या फिर लिखते-लिखते आप का विषय बन सकता है. मसलन उपन्यास तैयार हो जाने के बाद आप पा सकते हैं कि यह जादुई भौतिकतावाद का विमर्श हो चुका है. तीसरा तरीका यह है कि न तो शुरू में और न ही आखिर में कोई विषय हो, भले ही आपका उपन्यास तैयार हो जाय. हर हालत में आपके दो तरह के मित्र होने चाहिये. कुछ ऐसे, जो आपके उपन्यास को एक सशक्त हस्ताक्षर, वर्तमान दौर की एक उल्लेखनीय घटना या क्लासिकीय आयाम का नव उन्मेषवाद कहें, और दो-तीन ऐसे जो कड़ी भाषा में सिर्फ़ उपन्यास की निंदा ही न करें, बल्कि आपको व्यक्तिगत रूप से भारी-भरकम गाली-गलौजों से नवाज़ें. दूसरी किस्म के मित्र ज़्यादा ज़रूरी हैं, उनके बिना कोई उपन्यास सफल नहीं हो सकता. परंपरागत पाठकों और ऋषि-मुनि हो चुके आलोचकों की ख़ातिर उपन्यास में कुछ विवादास्पद मुद्दे भी होने चाहिये. ज़ाहिर है कि आपके उपन्यास के एक बड़े हिस्से में दर्शन शास्त्र के लेक्चर होंगे, पर उनसे यह उम्मीद मत रखिये कि वे आपके उपन्यास को विवादास्पद होने में मदद करेंगे. पाठक हो या आलोचक, कोई भी उन्हें नहीं पढ़ेगा. प्रकाशक सिर्फ़ इतना पूछेगा कि कितनी पर्सेंट फिलासफी है. अगर वह 35 पर्सेंट से ज़्यादा हो, तो सीधे-सीधे कह देगा : दो-तीन पर्सेंट घटा दीजिये, उसकी जगह बेडरुम वाले सीन को लंबा कर दीजिये. उपन्यास की सफलता के लिये ज़रूरी है कि उसमें एक-तिहाई चटखारी बातें हो, एक-तिहाई समझ में न आने वाली बातें हों, और शेष एक-तिहाई उन शब्दों से भर दिये जायं, जो लिखते समय दिमाग में आते हों. अगर कोई शब्द न आये, तो उसकी जगह कोई दूसरा शब्द लिख दीजिये. अगर वह पाठक की समझ में न आवे तो यह आपकी ख़ुशकिस्मती है, वह इसे एक सारगर्भित रचना मानेगा. समय का मैनेजमेंट उपन्यास लेखन के लिये सबसे महत्वपूर्ण बात है. आप लिखेंगे, प्रकाशक फ़ैसला लेने के लिये थोड़ा समय लेगा, छापने व मार्केटिंग की व्यवस्था के लिये थोड़ा समय चाहिये, इस दौरान प्रकाशक आपसे कुछ व्यक्तिगत योगदान की भी उम्मीद रखेगा – मसलन अगर आप जालसाज़ी के मुकदमे में दो-चार महीनों के लिये जेल घूम आते हैं, तो उपन्यास का दूसरा संस्करण 6 महीनों के अंदर ही निकल सकता है. अगर कुछ न हो तो एक गंदा सा डाइवोर्स भी मददगार हो सकता है, आये दिन अखबारों में जिसकी चर्चा हो. इन सबके बाद आपका उपन्यास बिल्कुल ऐसे समय में छपकर बाहर आना चाहिये, जब सात-आठ दिनों के अंदर पुस्तक मेला शुरू होने वाला हो. किताब छपने से पहले आलोचकों को समय पर उसकी ख़बर भी देनी पड़ती है, ताकि बाज़ार में आने के एक दिन बाद से ही वे इस उपन्यास के बारे में अपनी गहन वैचारिक टिप्पणियां दे सकें. इस समय सारिणी का ख़्याल न रख पाने के कारण दोस्तोयेव्स्की या वैन गॉग जैसे लेखक ज़िंदगीभर ग़रीब रह गये. वैन गॉग बेचारे की तो कोई भी किताब आजतक नहीं छप पाई. उपन्यास का आकार लगभग तीन से चार सौ पृष्ठों तक का होना चाहिये. इससे कम हो सकता है, लेकिन उस हालत में यह ख़तरा मौजूद रहता है कि प्रकाशक का संपादक उसे पढ़ने की हिम्मत कर ले और आपका उपन्यास छपने से रह जाय. अगर उपन्यास चार सौ पृष्ठों से अधिक का हो, तो छपाई में कागज़ ज़्यादा बरबाद होगा, प्रकाशक का नुकसान हो जाएगा. इसलिये काफ़ी संभावना है कि वह इसे छापने से इंकार कर दे. किसी भी हालत में प्रकाशन से पहले उसके अंश किसी पत्रिका को छापने के लिये न दें. इससे आपके भावी उपन्यास की छवि ख़राब हो सकती है. उपन्यास छपने से पहले आपको इन बातों का ध्यान रखना पड़ेगा : - दो-तीन टीवी जर्नलिस्टों को बीच-बीच में दारू पिलाते रहिये, ताकि वक्त पर वे अपने पर्दे पर आपके उपन्यास की चर्चा करें. अगर वे उसे विवादास्पद घोषित कर सकें, फिर तो आपको चर्चित, यानी महान लेखक बनने से कोई नहीं रोक सकता. उस हालत में मुहल्ले के कुछ लड़कों को बहलाकर अपने घर के सामने प्रदर्शन और तोड़फोड़ करवा दीजिये. - फ़िल्म जगत के एक-आध परिचित को फ़ांसकर यह अफ़वाह फैला दीजिये के आपके उपन्यास पर एक फ़िल्म बनाई जाने वाली है. खुद प्रकाशक से यह बात मत कहिये, बल्कि किसी से कहलवा दीजिये. अगर प्रकाशक आपसे पूछे, तो कहिये कि अभी इस पर बात करना ठीक नहीं होगा. - उपन्यास के प्रकाशन से 6 माह पहले से ही सार्वजनिक रूप से दोस्तों के साथ दारू पीना बंद कर दीजिये, ताकि यह अफ़वाह फैल जाय कि आप इन दिनों रचनाकर्म में व्यस्त हैं और आपका उपन्यास आने वाला है. बस समझ लीजिये कि आपका उपन्यास सफल हो गया. अब सिर्फ़ लिख डालने की देर है.

Monday, January 2, 2017

चार लोग भी नहीं मिले आज मुलायम को !

अंबरीश कुमार अठहत्तर साल के मुलायम सिंह यादव आज शाम जब दिल्ली में निर्वाचन आयोग के दफ्तर गए तो उनके साथ चार नेता भी नहीं थे .यह उस पार्टी के अध्यक्ष का हाल था जिसने देश के सबसे बड़े सूबे में तीन बार खुद मुख्यमंत्री रहे ,देश के रक्षा मंत्री रहे और प्रधानमंत्री बनतेबनते रह गए .यूपी में उनकी सरकार है पर साथ कौन लोग थे अमर सिंह .जयाप्रदा और शिवपाल .ये तीन नेता किस राजनैतिक संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं ,यह किसी को बताने की जरुरत नहीं है .यह देख बहुत ही खराब लगा. जो व्यक्ति अपनी राजनैतिक दबंगई के लिए मशहूर था वह कितना असहाय नजर आ रहा था . मुलायम सिंह यूपी में पिछड़ी जातियों की आक्रामक राजनीति के प्रतीक रहे .एक बार उन्होंने कहा था कि अगर इटावा के अहीरों को पता चल जाए कि मै प्रधानमंत्री बनने जा रहा हूं तो यह खबर सुनने के घंटे भर के भीतर वे उत्तेजित होकर किसी का भी सिर फोड़ सकते हैं .पर दुर्भाग्य देखिए उन्ही मुलायम को निर्वाचन आयोग यह बताने के लिए खुद जाना पड़ा कि वे ही समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष हैं .इससे पहले उनकी पार्टी मुख्यालय भी छीन लिया गया और उन्हें ऐसा ' रहनुमा ' बना दिया गया जिसपर कर दल का पानी पीने वाले नरेश अग्रवाल भी हल्की टिपण्णी कर रहे थे .पर क्या खुद मुलायम सिंह इन हालात के लिए जिम्मेदार नहीं है .उन्होंने समाजवाद को अपने परिवार की राजनैतिक ढाल बना दिया .किसी भी खांटी समाजवादी को उन्होंने वह ताकत ही नहीं दी कि वह परिवार से अलग अपनी कोई जगह बना सके . मोहन सिंह ,बृजभूषण तिवारी से लेकर जनेश्वर मिश्र जैसे समाजवादी पर अमर सिंह ज्यादा भारी पड़ते थे .क्योंकि मुलायम सिंह ने ही अमर सिंह को समाजवाद के सिर पर बैठा रखा था .जुझारू समाजवादी राजबब्बर को किस तरह बेइज्जत कर पार्टी से बाहर किया गया ,यह कोई भूला नहीं है . खैर मामला यहीं तक नहीं रुका .उन्होंने राजनीति में अपराधियों को जमकर बढ़ावा दिया ..प्रदेश के हर माफिया डान का समाजवादी पार्टी में स्वागत होता था .हत्या और अपहरण के आरोपी अमरमणि त्रिपाठी को तो उन्होंने प्रदेश को बचाने वाला महापुरुष घोषित कर दिया था .कौन बाहुबली बचा था उस दौर में जो समाजवादी नहीं कहलाता था .जिस गाडी पर सपा का झंडा उस गाड़ी में में बैठा गुंडा , जैसा नारा उसी दौर का तो है .मुलायम सिंह ने दांव भी सभी को दिया .न चंद्रशेखर बचे न वीपी .और आगे बढाने को तो अपने जिले के कप्तान को भी वे कैबिनेट मंत्री बना सकते थे .पर दुर्भाग्य देखिये ये सब संकट की घड़ी में उनका साथ छोड़ गए .मुझे याद है लखनऊ से गोरखपुर फिर जौनपुर जा रहा था .हेलीकाप्टर में जोई सज्जन मुलायम के साथ बैठे थे उन्हें मै पहचानता नहीं था .उनसे मैंने कहा आप सामने की सीट पर आ जाएं मुझे बात करनी है .वे फ़ौरन मेरी सीट पर आ गए .बाद में मुलायम के सुरक्षा प्रभारी शिवकुमार ने कहा ,आप इन्हें नेताजी के साथ बैठने दे ये बंगाल के बड़े नेता है .बाद में पता चला कि ये किरणमय नंदा थे जिन्होंने बाद में उस सम्मलेन की अध्यक्षता की जिसमे मुलायम सिंह को ' रहनुमा ' बना दिया गया .किरणमय नंदा को क्या नहीं दिया मुलायम सिंह ने पर वे भी साथ छोड़ गए .वजह वे लोग रहे जिन्हें मुलायम सिंह यादव ने आगे बढाया .अमर सिंह ,शिवपाल और गायत्री से लेकर मुख़्तार अंसारी और अतीक अहमद जैसे बहुत से उदाहरण है .एक तरफ परिवार के लोग तो दूसरी तरफ तरह तरह के दागी .टकराव तब बढ़ा जब मुलायम सिंह ने अपनी दूसरी पत्नी के दबाव में कुछ फैसले लिए .इसे अमर सिंह ,शिवपाल और गायत्री आदि ने शाह दी .अखिलेश यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से इसी दबाव में मुलायम सिंह ने हटाया और उसी के बाद पार्टी बंटने लगी और अब बंटी नहीं पूरी तरह एक तरफ चली गई है .यही वजह है आज चार कद्दावर नेता भी मुलायम को नहीं मिले .दुःख हुआ ' धरती पुत्र ' को धरती पर गिरते देख .यह तय है जिस चुनाव चिन्ह को वे बचाने गए थे वह अंततः जब्त ही होना है .

Sunday, January 1, 2017

चूहे के हाथ तो चिंदी है !

चू अंबरीश कुमार नोटबंदी के पचास दिन बीत गए .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पचास दिन ही तो मांगे थे .उसके बाद के तीन दिन भी बीत गए .अब नया साल भी शुरू हो गया है .पर बीते साल की नोटबंदी ने कई घरों में अंधेरा छाया हुआ है .बीते साल के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोले .पर ऐसा कुछ नहीं बोले जिसकी देश के लोगों को उम्मीद थी .इससे पहले भी बोले थे तो चूहे की बात कही .वे अपने अंदाज में बोले ,' एक नेता कहते हैं कि मोदी ने खोदा पहाड़ और निकली चुहिया. मैं बता दूं कि मैं चुहिया ही चाहता था. क्योंकि वो ही सभी कुतर-कुतर के खा जाती है.' प्रधानमंत्री ने ही कहा कि वे सिर्फ चुहिया ही निकालना चाहते थे .इससे ज्यादा कुछ नहीं .शेर का पिंजड़ा लगाकर उन्होंने जिस चुहिया को पकड़ा उसके हाथ तो सिर्फ चिंदी लगी है .क्या आपने सुना किसी बड़े कारपोरेट घराने का कोई बड़ा काला धन पकड़ा गया .क्या कोई बड़ा नेता काला धन के साथ पकड़ा गया ,क्या कोई बड़ा आतंकवादी काला धन के साथ पकड़ा गया .ये तो काला धन के जंगल के शेर चीते है .पर मोदी ने चुहिया पकड़ी है .क्या देश इसी ' चुहिया ' को पकड़ना चाहता था .क्या इसी चुहिया को पकड़ने के लिए करीब सवा सौ लोग घोषित रूप से कतार में शहीद हो गए .अघोषित यानी नकदी के आभाव में गंभीर रूप से बीमार लोग जो मर गए वे अलग हैं .जिन घरों में शादियां टूट गई वे परिवार अलग है .छोटे मझोले उद्योगों के जो मजदूर शहर से गांव लौट आए वे अलग है .जो किसान रबी की फसल समय पर कर्ज के बावजूद नहीं बो पाए वे अलग है .कर्ज भी तो पुरानी करेंसी में था .पर इस सब पर प्रधानमंत्री खामोश रहे .वे आगे बोले , 'यही देश, यही लोग, यही कानून, यही सरकार और यही फाइलें थीं. वो भी वक्त था कि जब सिर्फ जाने की चर्चा होती थी. ये भी एक वक्त है कि अब आने की चर्चा होती है. देश के लिए जज्बा, लोगों के प्रति समर्पण हो तो कुछ करने के लिए ईश्वर भी ताकत देता है.पर मोदी जी माल्या को क्यों भूल जाते हैं .मध्य प्रदेश के व्यापम को क्यों भूल जाते हैं .छतीसगढ़ के अनाज घोटाले को क्यों भूल जाते है .आपके राज में भी बहुत माल जा रहा है . वे कल बोले पर बहुत सपाट सा बजट भाषण जैसा .चेहरे पर थकावट का भाव .यह उम्मीद तो किसी को नहीं थी .सभी मान कर चल रहे थे कि प्रधानमंत्री बताएंगे कि देश को कितना काला धन मिला .कितने उद्योगपति पकडे गए ,कितने नेता धरे गए .पर उन्होंने इसपर कुछ नहीं कहा क्योंकि नोटबंदी से इनपर कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पडा .पकडे गए तो चंद मिठाई वाले ,दवाई वाले या कुछ बैंक मैनेजर .क्या इन्ही के लिए देश को आर्थिक आपातकाल का सामना करना पड़ा .कृषि के जानकार देवेंद्र शर्मा ने बताया है कि इस नोटबंदी से किस तरह छोटे और मझोले किसान तबाह हो गए .तराई के इलाके में दलहन की फसल पर बुरा असर पड़ चुका है .पर इनके अर्थशास्त्री भी गजब के हैं जो बता रहें हैं कि इस नोटबंदी में किसानो ने झूम कर बुआई कर डाली है .बंपर फसल होगी .जब सबकुछ कागज पर ,भाषण में ही करना है तो कोई भी सब्जबाग दिखा सकते है .ये गंजों के शहर में कंघे का कारोबार कर सकते है .यूपी का चुनाव होने जा रहा है .वे कल भी बोलेंगे .पर देखिएगा अबकी कितना गजब का बोलेंगे .हाथ हिलाकर ,चेहरा बनाकर .वाराणसी याद है न किस तरह राहुल गांधी के कथित घूस के आरोप पर नाटकीय अंदाज में तालियां बटोर ली थी .पर याद रहे सारे नाटकीय अंदाज के बावजूद न ये दिल्ली बचा पाए न बिहार .अब यूपी की बारी है .यूपी की नजर भी उसी ' चूहे ' पर है जिसकी तलाश में इन्होने किसानो का खेत खलिहान खोद डाला .उद्योग धंधे की नीव खोद डाली .पर उस चूहे के हाथ तो चिंदी है .बड़े लोग तो निकल चुके हैं .