Saturday, March 10, 2012

अखिलेश के कसीदे काढ़ने से पहले इंतज़ार करें



राजेंद्र तिवारी
उत्तर प्रदेश में नयी राजनीति का दौर शुरू हो रहा है। सभी लोग इसे मान रहे हैं क्योंकि जल्द ही मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले 38 वर्षीय युवा नेता अखिलेश यादव ने ऐसा कहा है। यह चर्चा भी हो रही है कि उत्तर प्रदेश युवा नेतृत्व में उत्तम प्रदेश बन सकता है। मेरे मन दो-तीन सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल कि मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में ऐसा क्या अंतर है जो अखिलेश के सत्तासीन होने के साथ नई राजनीति का दौर शुरू हो जाएगा। दूसरा सवाल, युवा नेता का तमगा देने को लेकर है और तीसरा सवाल यह है कि लैपटाप बांट कर, कृषि ऋण माफ करके व बेरोजगारी भत्ता से क्या प्रदेश चमकने लगेगा या प्रदेश को चमकाने के लिए दूर दृष्टि की जरूरत होगी, और क्या वह दूरदृष्टि अखिलेश में है?
पहले सवाल पर आते हैं। मुलायम जमीनी संघर्ष के साथ समाजवादी मूल्यों से प्रभावित होकर राजनीति में आए थे। मुलायम ने जब राजनीति शुरू की थी, उस समय कांग्रेस की तूती बोलती थी। यानी उनमें सत्ता से ज्यादा समाजवादी विचारधारा और मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता रही होगी। एक समतामूलक समाज बनाने का सपना रहा होगा। यह बात दीगर है कि जब वे सत्ता में आए सबकुछ बदल गया। अनिल अंबानी, अमर सिंह, जयाप्रदा से लेकर डीपी यादव, राजा भैय्या और न जाने कितने बाहुबली, छात्रों को नकल की छूट और गुंडों को गुंडागर्दी की छूट जैसे काम वे करने लगे। इस बार वह कुछ ज्यादा नहीं बोल रहे हैं, सिर्फ अखिलेश और धर्मेंद्र ही बोल रहे हैं। अखिलेश राजनीति में किस सपने के साथ आए, यह तो अब तक किसी को मालूम नहीं लेकिन हां वे इतना जरूर कह रहे हैं कि धनबल व पशुबल की राजनीति नहीं चलेगी। उन्होंने चुनाव से काफी पहले अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान को बाहुबली डीपी यादव को पार्टी टिकट देने को लेकर दरकिनार कर दिया था और कहा था कि मैं पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से कह रहा हूं कि बाहुबली डीपी यादव का पार्टी टिकट नहीं मिलेगा। लेकिन सवाल अपनी जगह है कि क्या अखिलेश समाज को लेकर किसी सपने के साथ राजनीति में हैं। यह आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा। अलबत्ता, इतना जरूर है कि मुलायम भले ही अपने सपने से दूर हो गये हों लेकिन जिस तरह समाजवादी विचारधारा से प्रेरित होकर वह राजनीति के संघर्ष में उतरे थे, अखिलेश के साथ ऐसा प्रतीत नहीं होता। अखिलेश को अपनी राजनीतिक जमीन बनाने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। उनको राजनीतिक जमीन विरासत में मिली। महबूबा मुफ्ती का उदाहरण है जिनको राजनीतिक जमीन विरासत में मिली लेकिन उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए कनविक्शन के साथ एक रास्ता सोचा और उसके लिये संघर्ष के रास्ते पर चलीं जिससे जम्मू-कश्मीर में तमाम तरह के सकारात्मक बदलाव ठोस स्वरूप लेने लगे। इन बदलावों को कश्मीर में कम हुई हिंसा, चुनावों में बढ़ती हिस्सेदारी और दरकिनार होते अलगाववादियों के रूप में देखा जा सकता है।
दूसरा सवाल, अखिलेश युवा नेता हैं तो राहुल गांधी, जितिन प्रसाद, सिंधिया, पायलट, उमर, राजा, दयानिधि मारन आदि भी युवा नेता है। इन नेताओं पर मैगजीनों ने न जाने कितनी बार अपने कवर रंगे लेकिन क्या कोई बताएगा कि इन युवा नेताओं ने भारतीय राजनीति में ऐसा क्या चारित्रिक बदलाव किया जिससे हम गौरव महसूस कर रहे हों? ये सब लोग लगभग 10 साल से राजनीति में हैं और अपनी-अपनी पार्टी में प्रभावशाली भी। लेकिन आज आप सोचिए इन युवा नेताओं ने देश को क्या दिया? आप पाएंगे कि इनमें से किसी ने कुछ दिया नहीं बल्कि लिया है। हमसे वोट लिये, कानून निर्माता का दर्जा-रुतबा लिया और हमें प्रजातंत्र में भी अपनी प्रजा की तरह ट्रीट करते रहे। क्योंकि इनके पिता राजा हैं या थे। ये राजनीति में इसलिए आए कि इनके पिता राजनीति में थे। ये राजनीति में इसलिए नहीं आए कि इनकी आंखों में देश, समाज, जमीन को लेकर कोई सपना था, इस सपने को साकार करने का जुनून इन्हें राजनीति में नहीं लाया। ये राजनीति में इसलिए आए कि इनका रुतबा बना रहे, बस। अब राजनीति में आए हैं तो कुछ तो दिखाना पड़ेगा, सो ये कुछ बयानबाजी, भाषणबाजी करते रहते हैं जिससे इनके वोटर और वोटर का मानस तैयार करने वालों को लगता रहे कि ये युवा नेता बहुत कुछ नया करने का जज्बा और साहस रखते हैं। इनमें वोट हासिल करने के अलावा, किसी चीज को लेकर कोई कनविक्शन नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता, तो ये लोग अपने-अपने मंत्रालयों में कुछ ऐसा करते जो दूसरे बुजुर्ग नेताओं के लिए मिसाल होता या फिर नयी लीडरशिप के लिए रास्ता बनता। लेकिन जरा नजर दौड़ाइये और देखिए किसने क्या किया? जवाब में आपको 2जी जैसी न जाने कितनी चीजें नजर आएंगी। अखिलेश को देखें तो वह भी राजनीति में इसलिए आए कि उनके पिता जी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हैं।
तीसरी बात, समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में जो कुछ कहा गया है, उससे तो नहीं लगता कि अखिलेश एक कनविक्शन के साथ राजनीति में हैं लेकिन यह बात भी सही है कि घोषणापत्रों को गंभीरता से कौन लेता है। इसलिए हो सकता है कि वोटलुभावन घोषणापत्र के बावजूद, वे मुख्यमंत्री बनकर बुनियादी चीजों पर काम शुरू करें और जिससे यह पता चल सके कि वे कनविक्शन के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरे हैं न कि सिर्फ विरासत संभालने के लिए। सिर्फ विदेश में पढ़े होने से किसी को दृष्टिवान नहीं माना जा सकता। अगर पैसा हो तो हममें से हर एक अपने नाकारा से नाकारा संतान को आस्ट्रेलिया, स्विटरजरलैंड, इंगलैंड, कनाडा, अमेरिका, कहीं भी पढ़ने भेज सकता है। जिस राज्य के सरकारी स्कूलों में लाइब्रेरी न हो, प्रयोगशाला न हो, शिक्षक पढ़ाते न हों, इंटर-साइंस में 80 फीसदी अंक लाने वाले छात्र भी वर्नियर कैलीपर्स से अपरिचित हों, उस राज्य में इंटर के छात्रों को लैपटाप देकर किसका भला होगा? निश्चित तौर पर लैपटाप सप्लाई करने वाली फर्मों व संबंधित विभाग के अधिकारियों का और प्रकारांतर से मंत्रियों का। बेरोजगारी भत्ता, बेरोजगार नौजवानों का दर्द दूर करने के लिए दिया जा रहा है या बेरोजगारों का वोट खरीदने के लिए? किसान ऋण माफ करने का वादा किसानों को मदद पहुंचाने के लिहाज से किया गया या 2009 के आमचुनाव में कांग्रेस को मिली सीटों को देखते हुए। 2009 के आम चुनाव से पहले केंद्र की कांग्रेस सरकार ने पूरे देश में किसानों के 50 हजार तक ऋण माफ कर दिये थे और विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस को मिली सीटों में नरेगा के साथ-साथ इस ऋण माफी का भी योगदान था। इसलिए अभी से अखिलेश को लेकर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हमको इंतजार करना चाहिए कसीदे गढ़ने से पहले।

और अंत में शमशेर की कविता...

हां, तुम मुझसे प्रेम करो
जैसे मछलियां लहरों से करती हैं
जिनमें वे फंसने नहीं आतीं।
जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं,
जिसको वे गहराई तक नहीं दबा पातीं।
हां तुम मुझसे प्रेम करो
जैसे मैं तुमसे करता हूं।
कसीदे काढ़ने से पहले इंतज़ार करें

(प्रभात ख़बर में राजेंद्र तिवारी के कालम से)

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