Tuesday, March 13, 2012
नीलगिरी की खुशबू में नीला कैनवस
सविता वर्मा
नीले रंग का कैनवस है नीलगिरी की पहाड़ियां इस पर बदलते हुए बहुरंगी लैंडस्केप उकेरे हुए हैं चाहे कुन्नूर हो या कोत्तागिरी या फिर नीलगिरी जिले का मुख्यालय ऊटी, लगातार बहते हुए लैंडस्केपो को अपने आगोश में समेटते नजर आते है। एक तरफ जंगली फूलों की सैकड़ों किस्में और दूसरी तरफ चाय बागान के हरित विस्तार और इनकी रखवाली करते नजर आते हैं यूकीलिप्टस और देवदार दरख्त ऊटी के नार्थ लेख रोड से अगर बोटेनिकल गार्डेन की पहाड़ियों पर नजर डालें तो हर पांच दस मिनट में बदल जाने वाला एक मनोरम दृश्य दिखता है। यह बदलाव लाते हैं यूकीलिप्टस और देवदार के दरख्तों को घेरे हुए बादल. नीलगिरी की पहाड़ियां सिर्फ रंगों की खूबसूरती ही नहीं समेटे है, इसमें यूकीलिप्टस (नीलगिरी) की ख़ुशबू भी बसी है। जिसमें यह छोटा सा पहाड़ी शहर डूबा रहता है कहीं भी जाएं रेलवे स्टेशन, रेस्तरां, झील या फिर दूर किसी पहाड़ों पर नीलगिरी की ख़ुशबू साथ नहीं छोड़ती। शहर के भीतर जगह जगह पर यूकिलिप्टस का तेल निकलने का लघु उपयोग फैला हुआ है कहीं कहीं इसकी ख़ुशबू को बदबू में भी बदल देता है।
नीलगिरी को आमतौर पर 'नीला गिरी' कहा जाता है। यह नाम पहाड़ियों और पेड़ पौधों की की सघनता से पैदा होने वाली नीली धुंध की वजह से रखा गया था।
ऐसा कहा जाता है कि करीब 850 साल पुराना है पर नीले रंग की चमक आज भी ताजा है। ऊटी इस जिले का मुख्यालय है जो दक्षिण भारत के सबसे खूबसूरत और देश के चंद अच्छे पहाड़ी शहरों में गिना जाता है। इस पहाड़ी शहर को विकसित करने का काम 1819 में कोयम्बतूर के कलेक्टर जान सुलिवान ने किया था। सबसे पहले 1823 में यहां झील बनाने का काम शुरू हुआ। प्राकृतिक झरने के पानी को इकठ्ठा करके उसे झील में तब्दील करने के काम में तीन साल लगे, इस झील का पानी इतना साफ था कि 1877 तक ऊटी के निवासी इसी को पीने के काम में लाते थे। ऊटी में नवधनाढय के पर्यटकों के लिए और मौजूदा पर्यटन संस्कृति के लिहाजा से बहुत आकर्षण है। गोल्फ और रेस कोर्स, घुड़सवारी, उम्दा किस्म के होटल और क्लब हैं। लेकिन ऊटी का असली सौंदर्य बागानों और जंगली फूलों में हैं। झील, अभयारण्य सीढ़ीनुमा खेतों के हरित विस्तार ही ऊटी का असली सौंदर्य है।
हालांकि अब यहां भी उत्तर भारत की 'हिल स्टेशन संस्कृति' पाँव फैलती जा रही है। खासकर कश्मीर, पंजाब, असम,आदि में हिंसक घटनाएं बढ़ने के बाद देशी पर्यटकों का तांता दक्षिण भारत की तरफ बढ़ा है। और गर्मियों में सबसे ज्यादा असर ऊटी को झेलना पड़ रहा है। अभी तक ऊटी को गर्मियों में शुरू होने वाले मशहूर फ्लावर शो का इंतजार रहता था। पर अब यह शो शहर वालों को खलने लगा है। वजह है पर्यटकों की बेतहासा बढती भीड़। करीब दो दिन चलने वाली इस शो के दौरान ऊटी शहर में तिल धरने की जगह नहीं रहती। फ्लावर शो देखने वालों की संख्या कभी कभी ऊटी की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा हो जाती है। और उनके विदा होने के बाद ऊटी की सड़कें और पार्क कूड़ा घर जैसे नजर आते हैं। पर्यटकों की बढती भीड़ से नीलगिरी में प्रदूषण का नया खतरा पैदा हो जा रहा है। जिसे लेकर नागरिक काफी चिंतित हैं। पिछले महीने ऊटी में पर्यावरण प्रदूषण पर एक प्रदर्शनी लगाई गई। इसका समय फ्लावर शो के दौरान ही रखा गया था। ताकि बाहर के लोगों को भी इसका पता चले , हालांकि काफी पहले से ही यहां नीलगिरी बचाओ अभियान चल रहा है। नाराजगी की खास वजह पर्यटकों के नाम पर फैलते जा रहे बेतरतीब निर्माण और उससे जुडी गतिविधियाँ हैं।
नीलगिरी की पहाड़ियां हिम रेखा में नहीं आती गर्मियों में तापमान 25 डिग्री से ऊपर नहीं जाता और रात में तो यह 10 डिग्री तक गिर जाता है। ज्यादातर सैलानी दक्षिण भारतीय हिल स्टेशन होने के कारण तापमान के बारे में भ्रमित होकर आते हैं कि यहां सर्दी ज्यादा नहीं होगी, पर यहां आकर गर्म कपडे खरीदने पड़ते हैं। अगर तेज बौछार पड़ने लगे तो तापमान और ज्यादा गिर जाता है। और यहां बरसात कब होने लगेगी कहा नहीं जा सकता। ऊटी सुन्दर है तो ऊटी पहुंचाने के दोनों रास्ते भी सुन्दर हैं। अगर बंगलूर, मैसूर होते हुए मुदमुलाई अभयारण्य के बीच से निकली सड़क के जरिए यहां पहुंचे तो एक अलग ही अनुभव मिलेगा। एक हजार मीटर कि ऊंचाई और 321 वर्ग किलोमीटर में बेस इस अभयारण्य से शेर, चीते, भेडिए, जंगली बिल्ली, बड़ी गिलहरी, हाथी और तरह तरह के सांप है। लेकिन हाथियों का जमावड़ा अक्सर नजर आता है जो कभी कभी कार या बस के सामने भी जम जाते हैं। इस अभयारण्य के बीच में एलिफैंट कैंप है जहां पालतू हाथी नजर आएँगे। मैसूर से ऊटी की सड़क यात्रा भी कभी भूली नहीं जा सकती। सड़क के दोनों तरफ पहाड़ियों के अदभुत दृश्य नजर आते हैं। दूर तक फैली नीली पहाड़ियां तराशी हुई लगती हैं। इसकी वजह है फैले हुए चाय बागान, जो पहाड़ियों को एक गोल तराश दे देते है। सड़क के दोनों ओर काफी घने पेड़ लगे हैं जो सूरज की रोशनी सड़क तक नहीं पहुंचने देते। सड़क के दोनों ओर सुन्दर पहाड़ियां है। ऊटी पहुंचाने का दूसरा रास्ता कोयम्बतूर से है। वह एक दम फर्क तरह का है। कोयम्बतूर से मट्टूप्लायम पहुंचते ही ऊटी कि पहाड़ियां नजर आंए लगती हैं। मैदानी इलाके में ही कुछ किलोमीटर का रास्ता केरल की हरियाली जैसा है जो जंगलों के बीच से गुजरता है। जंगल में नारियल, खजूर, और ताड़ के अलावा कई खूबसूरत जंगली पौधे नजर आते हैं। पर दूर तक फैले हुए नारियल और ताड़ के पेड़ों की सघनता मोहक है। मट्टूप्लायम से ऊटी तक मांडटेन रेल भी चलती है। यहां से पहाड़ियों कि शुरुवात हो जाती है।
कुन्नूर पहुंचते पहुंचते हवाओं में ठंड और यूकीलिप्टस कि खुशबू होने लगती है। यहीं से दूर तक फैले हुए चाय बागान और आलू और बंद गोभी की सीढ़ीदार खेती नजर आने लगती है। निलगिरी में आलू की कई मशहूर किस्मों का उत्पादन होता है और यहां की मुख्य नकदी फसल भी है। कुन्नूर करीब 13 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ क़स्बा है जिसकी जनसँख्या पचास हजार के आसपास है। जो लोग ऊटी की भीडभाड से बचना चाहते हैं वे यहीं रुक जाते हैं क्योंकि यह ऊटी के मुकाबले काफी शांत है। ऊटी में दर्शनीय स्थलों में मुख्य रूप से डोडाबेट्टा चोटी, कथाटी झरना, कट्टी ब्यू पॉइंट, झील बोटनिकल गार्डेन, सबसे पुराने हैं। यहां का बोटनिकल गार्डन और बच्चों का लेक गार्डन है जिनमें से झील और बोटनिकल गार्डन सबसे पुराने हैं। यहां का बोटनिकल गार्डन 1847 में बनाया गया था जिसमें आज कई दुर्लभ किस्म के फूल पौधे नजर आते हैं। बोटनिकल गार्डन मैदान से शुरू होकर पहाड़ी पर ख़त्म होता है। जिसके बीच बीच में दुर्लभ पौधों और बहुरंगी फूलों का गलीचा नजर आता है। यह बात अलग है कि ज्यादातर फूलों में खुशबू नहीं है।
(बहुत पहले जनसत्ता में प्रकाशित लेख )
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