Tuesday, March 20, 2012

हर रविवार लखौली के डाक बंगले में



अंबरीश कुमार
वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रदीप श्रीवास्तव ने रायपुर की याद दिलाई जहाँ वे पहली बार जा रहे है .मै भी जब पहली बार रायपुर जा रहा था तो दो लोगों ने मदद की थी एक कांग्रेस के तत्कालीन प्रवक्ता और सांसद अजित जोगी और दूसरे मध्य प्रदेश सूचना विभाग की एक आकर्षक मोहतरमा जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा है .अपना नया नया तबादला हुआ था और लोगों ने बताया काफी गर्म जगह होती है .जनसत्ता के वरिष्ठ सहयोगी मनोहर नायक ने दो पत्रकारों के नाम दिए और पत्र भी दिया था .एक नवभारत के तत्कालीन संपादक बब्बन प्रसाद मिश्र और दूसरे मध्य प्रदेश के दिग्गज पत्रकार रम्मू श्रीवास्तव .दोनों लोगों से मिला और काफी मदद भी मिली .इंडियन एक्सप्रेस के मौजूदा कार्यकारी संपादक उन्नी राजन शंकर तब ईएनएस यानी एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस के संपादक थे और एक दिन फोन आया ,अम्बरीश जल्दी से सरगुजा चले जाओं और जूदेव पर धर्म परिवर्तन की एक स्टोरी छह घंटे में भेज दो जो इंडियन एक्सप्रेस के न्यूयार्क एडिशन में भी जानी है और उसकी डेड लाइन बहुत कम बची है .मैंने पता किया तो मालूम हुआ जहां जाना है वहां पहुँचने में पंद्रह घंटे लग सकते है .तब बब्बन जी के पास गया और पूछा कि कोई संवादाता उस क्षेत्र में है .फिर बब्बन जी ने बात कर वहां से पूरी जानकारी मंगवा दी और वह खबर एक्सप्रेस में पूरी प्रमुखता से छपी .खैर इससे समझा जा सकता है रायपुर में कई वरिष्ठ पत्रकारों ने कैसे मदद की .रम्मू श्रीवास्तव के यहाँ तो रोज शाम बैठता था और कई बार उन्होंने न सिर्फ खबर बताई बल्कि इंट्रो भी लिखा .धीरे धीरे छत्तीसगढ़ को समझा तभी जनसत्ता निकालने की जिम्मेदारी दी गई और लिखना पढना सब बंद हो गया क्योकि सुबह दस बजे से रात बारह बजे तक दफ्तर .सिर्फ खाना खाने बीच में जाता पर ज्यादातर अपना ड्राइवर चंद्रकांत खाना लेकर आ जाता .इस पर एक दिन हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ प्रदीप मित्र ने कहा ,अम्बरीश जी आप सब एडिटर की तरह क्यो काम करते है सारा घूमना फिरना बंद हो गया .तब तय किया रवीवार का दिन बाहर काटा जाएगा .अपनी मंडली में उस समय प्रदीप मैत्र ,प्रकाश होता ,लव कुमार मिश्र ,अमिताभ तिवारी ,आरती आदि थी .वरिष्ठ अफसर और निदेशक जनसंपर्क सीके खेतान भी यदा कदा कई दावतों में शामिल होते थे .पर जनसत्ता निकलते निकलते इस टीम में बदलाव हुआ और कई हट गए तो कई नए जुड़ गए .राज नारायण मिश्र अपने साथ जुड़े सूफी हो चुके राजनारायण मिश्र
ने बाहर कुछ इंतजाम शुरू किया और व्यवस्था भी .कुछ दावत खेतों के बीच आयोजित हुई तो बाद में आरंग की तरफ २९ किलोमीटर दूर महानदी से निकली एक नहर के किनारे सिंचाई विभाग का भुतहा डाक बंगला सभी को पसंद आया गया जो लखौली में साल के पेड़ों से घिरा निर्जन इलाके में था और लगातार कई रविवार के लिए हमारे लिए बुक कर दिया गया .इसमे दस बजे हम लोग जाते और परिवार के रूप में होता और अपना परिवार भी होता .दो कमरे जिसकी खिडकिय टूटी हुई थी वह आराम के लिए था ..पर ज्यादातर बैठकी बाहर ही बड़े लान में होती जो लान कम जंगल ज्यादा था और आने पहले चौकीदार साफ़ कर देता था ..उसके बाद लकड़ी इकठ्ठा होती और करीब बारह बजे तक चूल्हा जल जाता .इस बीच ठंढा गर्म दोनों तरह के पेय भी आ जाते और फिर तरह तरह की चर्चा .
मै ,मैत्रा,प्रकाश होता ,अमिताभ ,अनिल ,राजनारायण मिश्र और अलग अलग मौकों पर आने वाले कुछ और पत्रकार मित्र .नहर के किनारे यह डाक बंगला जंगल में मंगल मनाने जैसा था .इस महफ़िल में सामिष भी थे तो निरामिष भी और दोनों का खाना बनता .प्रकाश होता ओडिशा के है और उनकी पत्नी मौसमी बहुत अच्छा खाना बनाती है पर उन्हें मैंने अपने दिशा निर्देशन में ठेठ उत्तर भारतीय तरीके से सरसों और खट्टे देशी टमाटर में रोहू बनाने को कहा और जो बना तो चौकीदार के लिए भी नहीं बच पाया .छत्तीसगढ़ में हर जगह ताल तलब मिलते है और मछली बड़े पैमाने पर पाली जाती है .पर कई जो शाकाहारी थे उनके लिए सविता सब्जी बनाती थी .पर मै चूल्हे के पास ही रहता था .खाना वही बाहर होता और फिर कुछ आराम तो कई पढने में जुट जाते थे .इस तरह एक रविवार ख़त्म होता और सब घर
लौट आते थे

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