Friday, March 23, 2012

जहाँ बादलों में खो जाती है सड़क



अंबरीश कुमार
गागर से करीब दो किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद बाजारपर करते ही तीखा मोड़ है जो सिंधिया परिवार के वृदांवन आर्चड से लगा कुछ दूर तक चलता है। जहां पर उसकी सीमा खत्म होती है, वहीं से जंगल भी शुरू होता है। ऊपर टैगोर टॉप है जहां कभी रवीन्द्र नाथ टैगोर ने गीतांजलि के कुछ हिस्से लिखे थे, ऐसा यहां के लोग बताते हैं। लेकिन वहां उमागढ़ में महादेवी वर्मा के मीरा कुटीर जैसा कोई निर्माण नजर नहीं आता।
उमागढ़ से अपना संबंध करीब डेढ़ दशक पुराना है। पहली बार १९९५ में उनका वह घर देखा जो उन्होंने १९३0 के दशक में खुद वहां रहकर बनवाया था। वहां से हिमालय से बड़ी श्रंखला का खूबसूरत नजरा दिखता है तो पहाड़ी के निचले हिस्से में सेब, आडृू और खुबानी के बागान नजर आते है। और ऊपर चढ़ते देवदार के घने दरख्त। यहीं पर सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, अज्ञेय और धर्मवीर भारती ने कई रचनाएं लिखीं। महादेवी वर्मा १९३६ से यहां हर गर्मी में लगातार आती रहीं। उमागढ़ से उनका संबंध अंतिम समय तक रहा। उनका घर अब संग्रहालय बना दिया गया है। साथ ही शलेश मटियानी के नाम पर बना पुस्तकालय है।
शैलेश मटियानी से अपनी मुलाकात १९८0 के दशक में लखनऊ में अमृत प्रभात अखबार के दफ्तर के बाहर चाय की दुकान पर हुई थी। परिचय अमृत प्रभात के रविवारीय परिशिष्ट के संपादक विनोद श्रीवास्तव ने कराई थी। तब हम विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय थे और अखबारों में लिखना शुरू किया था। पुनीत टंडन, अरूण त्रिपाठी, हरजिंदर और अनूप आदि के साथ हम भी संघर्ष के दौर में थे। लखनऊ विश्वविद्यालय का मिल्क बार, टैगोर लाइब्रेरी, अशोक वाटिका, डीपीए हाल परिसर और यूनियन भवन हमारे बैठने के अड्डे थे। १९७८ में लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव जीतने के बाद हमारी मुलाकात खांटी समाजवादियों के नए खेमे से हुई। इसके बाद शहर के अन्य अड्डों में चंद्र दत्त तिवारी का विचार केन्द्र, काफी हाउस, गांधी भवन, आशुतोष मिश्र और डाक्टर प्रमोद कुमार का इंदिरानगर स्थित आवास शामिल था। पर सबसे ज्यादा समय राजीव के लालबाग स्थित आवास पर गुजरता था जो छात्र युवा आंदोलन का मुख्य केन्द्र बना हुआ था। जहां पर देश भर से जेपी की बनाई छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के प्रतिबद्ध नौजवान जुटते थे। तब इस शहर में अमृत लाल नागर, मंगलेश डबराल, चंद्र दत्त तिवारी, सर्वजीत लाल वर्मा, भईया जी, राम कृपाल, कमर वहीद नकवी, आशुतोष मिश्र, प्रमोद जोशी, उदय सिन्हा, रणवीर सिंह विष्ट, केएन कक्कड़, भुवनेश मिश्र जसे लोगों काभी हमें सानिध्य मिला। कई लोगों के नाम इसमें छूट गए होंगे। बहरहाल शैलेश मटियानी का नाम देखते ही अस्सी के दशक का लखनऊ याद आ गया। बाद में विश्वविद्यालय में हमने थिंकर काउंसिल नाम का संगठन बनाया जिसमें अमिताभ श्रीवास्तव, राजेन्द्र तिवारी, देवेन्द्र उपाध्याय, मसूद, रमन,धर्मेन्द्र जय नारायण, अर्पणा माथुर, शाहीन और शिप्रा दीक्षित आदि नेतृत्व की अगली कतार में थे। दो और मंडली थी जिसमे एक में अलोक जोशी,अशोक शुक्ल से लेकर सुधीर तिवारी शामिल थे तो दूसरे में अजय मेहरोत्रा और ओम प्रकाश जो अपने बचपन के पुराने साथी रहे । इनमे ओम प्रकाश के घर वालों का जवाहर भवन के नीचे पेट्रोल पंप था और एक अम्बेसडर गाड़ी जिसका इस्तेमाल विश्विद्यालय में मेरे चुनाव में भी हुआ और मै अकेला उम्मीदवार था जिसका प्रचार किसी कार से हुआ था ।हालाँकि तब सभी साइकिल से चलते थे। स्कूटर एक अपने यहाँ था पर चलने की इजाजत नहीं थी और दूसरा स्कूटर अलोक जोशी का था जिसके जरिए शहर नापा जाता था ,जाहिर है चलते आलोक जोशी ही थे और मुझे बैठने का सुख मिलता था ।आलोक जोशी अगर आज पत्रकारिता में है तो उसका बड़ा श्रेय उस स्कूटर को भी जाता है जिसने समय पर अख़बार के दफ्तर और पत्रकारों से मिलना आसान कराया ।
उस समय थिंकर्स कौंसिल के सहयोगी राजेन्द्र तिवारी आज यहां खुद अपनी फोर्ड फियस्टा ड्राइव करते हुए पहाड़ पर आगे चल रहे थे।इससे पहले पंद्रह अगस्त की सुबह हमारी नींद बच्चों के गीत से खुली जो प्रभात फेरी में हम होंगे कामयाब एक दिन-क्रांति होगी चारों ओर जैसे गीत गाते जा रहेथे। कमरे से बाहर आए तो ठंड की वजह से फौरन शाल ओढ़नी पड़ी। बाहर बारिश हो रही थी और बादलों के झुंड तैर रहे थे। पर भीगते बच्चों का उत्साह देखने वाला था। यह नजरा बाद में मुक्तेश्वर जते हुए सारे रास्ते दिखा। हम सतबुंगा पहुंचे नहीं कि फिर बारिश शुरू हुई और बादल रास्ते को घेरते जा रहे थे। मैंने राजेन्द्र को अपनी गाड़ी पीछे लेने को कहा क्योंकि हमारी गाड़ी में अनुभवी ड्राइवर था। करीब सात हजर फुट की ऊंचाई पर जंगल और जमीन के साथ मौसम भी भीगा हुआ था। बादलों की धमा-चौकड़ी हमें डरा रही थी। कई बार मोड़ पर सड़क गायब हो जाती और हम बादलों के बीच अपनी सड़क को ढूंढते-ढूंढते आगे बढ़ रहे थे। देवदार के घने दरख्तों के जंगल पार कर हम
आगे बढ़े तो सतबुंगा की चौड़ी घाटी दिखाई पड़ी। चारों ओर हरियाली।
सीढ़ीदार खेत और सड़क के किनारे बलूत और बांज के पेड़। बीच-बीच में चीड़ और देवदार भी आ जते। दिल्ली-हरियाणा और पंजब के नंबर वाली लक्जरी गाड़ियां जगह-जगह बने काटेजों के सामने दिखाई पड़ रही थीं। साथ चल रहे इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार वीरेन्द्र नाथ भट्ट ने टिप्पणी की-दिल्ली-हरियाणा के लोगों के यहां काटेज बन गए हैं और पहाड़ी भाई लोग खोमचा और ढाबा खोले बैठे हैं। यह भी एक किस्म का सांस्कृतिक अतिक्रमण है।भटेलिया से मुक्तेश्वर की तरफ बढ़ते ही रिसार्ट के बोर्ड जगह-जगह नजर आते हैं। मुक्तेश्वर में पर्यटन विभाग के टूरिस्ट रेस्ट हाउस की महिला प्रभारी ने बताया कि कोई कमरा खाली नहीं है। आने वाले तीन-चार दिन तक यहां पर्यटकों की भीड़ बनी रहेगी। टूरिस्ट रेस्ट हाउस से ठीक पहले मुक्तेश्वर धाम पड़ता हैं जहां शंकर भगवान का प्राचीन मंदिर है। करीब पांच सौ मीटर ऊपर चढ़ने पर पांडवों के बनवाए इस मंदिर का दर्शन होता है।
मंदिर के बगल में देवदार के पेड़ पर कौवों का झुंड नजर आता है। सामने का नजरा बादलों की वजह से नहीं दिखता। पर अगर बादल न हों तो कुमाऊं के एक अंचल का खूबसूरत नजरा आपको दिखाई पड़ सकता है। पर मंदिर से नीचे उतरते ही दिल्ली-हरियाणा के नंबर वाली गाड़ियों के पीछे दोपहर से पहले ही बीयर पीते नौजवानों की हरकत को देखकर मन खट्टा हो गया। ये सभी बीयर पीते जा रहे थे और बीयर केन जंगलों में फेंकते ज रहे थे। इससे पहले इनके वाहन हमारे आगे चल रहे थे तो उसमें से कभी विसलरी की खाली बोतल फेंकी जाती तो कभी कुरकुरे व चिप्स के खाली पैकेट। सड़क के किनारे जगह-जगह इन पर्यटकों की वजह से गंदगी के ढेर नजर आते हैं।फिर भी रामगढ़ से मुक्तेश्वर की यात्रा अद्भुत है और रास्ते की खूबसूरती कोई भूल नहीं सकता। चारों ओर घने जंगल, पक्षियों की आवाजें, जगह-जगहफूटते पानी के स्रोत और रास्ते भर मंडराते बादल।
फोटो -राजेंद्र तिवारी और वीना

No comments:

Post a Comment