Sunday, March 4, 2012

पहाड़ से गिरती एक नदी



अंबरीश कुमार
कांकेर के आगे बढ़ते ही तेजी से दिन में ही अंधेरा छा गया था। सामने थी केशकाल घाटी जिसके घने जंगलों में सड़क आगे जाकर खो जाती है। साल, आम, महुआ और इमली के बड़े दरख्त के बीच सुर्ख पलाश के हरे पेड़ हवा से लहराते नजर आते थे। जब तेज बारिश की वजह से पहाड़ी रास्तों पर चलना असंभव हो गया तो ऊपर बने डाक बंगले में शरण लेनी पड़ी। कुछ समय पहले ही डाक बंगले का जीर्णोद्घार हुआ था इसलिए किसी तीन सितारा रिसार्ट का यह रूप लिए हुए था। शाम से पहले बस्तर पहुंचना था इसलिए चाय पीकर बारिश कम होते ही पहाड़ से नीचे चल पड़े। बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में अब यह क्षेत्र भी शामिल हो चुका है और पीपुल्स वार (अब माओवादी) के कुछ दल इधर भी सक्रिय हैं। केशकाल से आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे आम के घने पेड़ों की कतार दूर तक साथ चलती है तो बारिश में नहाये शाल के जंगल साथ-साथ चलते हैं, कभी दूर तो कभी करीब आ जाते हैं। जंगलों की अवैध कटाई के चलते अब वे उतने घने नहीं हैं जितने कभी हुआ करते थे।
कोण्डागांव पीछे छूट गया था और बस्तर आने वाला था। आज भी गांव है, वह भी एक छोटा सा गांव। जिला मुख्यालय जगदलपुर है जो ग्रामीण परिवेश वाला आदिवासी शहर है। बस्तर का पूरा क्षेत्र अपने में दस हजार साल का जिन्दा इतिहास संजोए हुए है। हम इतिहास की यात्रा पर बस्तर पहुंच चुके थे। दस हजार साल पहले के भारत की कल्पना सिर्फ अबूझमाड़ पहुंच कर की जा सकती है। वहां के आदिवासी आज भी उसी युग में हैं। बारिश से मौसम भीग चुका था। हस्तशिल्प के कुछ नायाब नमूने देखने के बाद हम गांव की ओर चले, कुछ दूर गए तो हरे पत्तों के दोने में सल्फी बेचती आदिवासी महिलाएं दिखीं। बस्तर के हाट बाजर में मदिरा और सल्फी बेचने का काम आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। सल्फी उत्तर भारत के ताड़ी जैसा होता है पर छत्तीसगढ़ में इसे हर्बल बियर की मान्यता मिली हुई है। यह संपन्नता का भी प्रतीक है सल्फी के पेड़ों की संख्या देखकर विवाह भी तय होता है।
बस्तर क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा जाता है। समता मूलक समाज की लड़ाई लड़ने वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमांडर अलग होते हैं। यह वही दंडकारणय है जहां कभी भगवान राम ने वनवास काटा था। वाल्मीकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहां दण्डकारण्य वन में गुजारा था। इस दंडकारणय की खूबसूरती अद्भुत है। घने जंगलों में महुआ-कन्दमूल, फलफूल और लकड़ियां चुनती कमनीय आदिवासी बालाएं आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं। यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़ती हैं। असंख्य झरने, इठलाती बलखाती नदियां, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियां। कुटुम्बसर की रहस्यमयी गुफाएं और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियां, यह इसी दण्डकारण्य में है।
शाम होते ही बस्तर से जगदलपुर पहुंच चुके थे क्योंकि रुकना ही डाकबंगले में था। जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है जिसकी एक सीमा आंध्र प्रदेश से जुड़ी है तो दूसरी उड़ीसा से। यही वजह है कि यहां इडली डोसा भी मिलता है तो उड़ीसा की आदिवासी महिलाएं महुआ और सूखी मछलियां बेचती नजर आती हैं। जगदलपुर में एक नहीं कई डाकबंगले हैं। इनमें वन विभाग के डाकबंगले के सामने ही आदिवासी महिलाएं मछली, मुर्गे और तरह-तरह की सब्जियों का ढेर लगाए नजर आती हैं। बारिश होते ही उन्हें पास के बने शेड में शरण लेना पड़ता है। हम आगे बढ़े और जगदलपुर जेल के पास सर्किट हाउस पहुंचे। इस सर्किट हाउस में सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं आंध्र और उड़ीसा के नौकरशाहों और मंत्रियों का आना जाना लगा रहता है। कमरे में ठीक सामने खूबसूरत बगीचा है और बगल में एक बोर्ड लगा है जिसमें विशाखापट्नम से लेकर हैदराबाद की दूरी दर्शायी गई है। जगदलपुर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसंदीदा जगह रही है। मासूम आदिवासियों का लंबे समय तक यहां के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाकबंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं। पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी बड़े मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसंद करते हैं। यह झाबुआ के मशहूर कड़कनाथ मुर्गे के समकक्ष माने जाते हैं।
सुबह तक बरसात जारी थी। पर जैसे ही आसमान खुला तो प्रमुख जलप्रपातों की तरफ हम चल पड़े। तीरथगढ़ जलप्रपात महुए के पेड़ों से घिरा है। सामने ही पर्यारण अनुकूल पर्यटन का बोर्ड भी लगा हुआ है। यहां पाल और दोने में भोजन परोसा जाता है तो पीने के लिए घड़े का ठंडा पानी है। जलप्रपात को देखने के लिए करीब सौ फिट नीचे उतरना पड़ा पर सामने नजर जाते ही हम हैरान रह गए। पहाड़ से जैसे कोई नदी रुक कर उतर रही हो। यह नजारा कोई भूल नहीं सकता। कुछ समय पहले एक उत्साही अफसर ने इस जलप्रपात की मार्केटिंग के लिए मुंबई की खूबसूरत माडलों की बिकनी में इस झरने के नीचे नहाने के दृश्यों की फिल्म बना दी। आदिवासी लड़कियों के वक्ष पर सिर्फ साड़ी लिपटी होती है जो उनकी परंपरागत पहचान है उन्हें देखकर किसी को झिझक नहीं हो सकती पर बिकनी की इन माडलों को देखकर कोई भी शरमा सकता है। जगदलपुर के पास दूसरा जलप्रपात है चित्रकोट जलप्रपात। इसे भारत की मिनी नियाग्रा वाटरफाल कहा जता है। बरसात में जब इंद्रावती नदी पूरे वेग में अर्ध चंद्राकार पहाड़ी से सैकड़ों फुट नीचे गिरती है तो उसका बिहंगम दृश्य देखते ही बनता है। जब तेज बारिश हो तो चित्रकोट जलप्रपात का दृश्य कोई भूल नहीं सकता। बरसात में इंद्रावती नदी का पानी पूरे शबाब पर होता है झरने की फुहार पास बने डाक बंगले के परिसर को भिगो देती है। बरसात में बस्तर को लेकर क िजब्बार ढाकाला ने लिखा है- वर्ष के प्रथम आगमन पर, साल वनों के जंगल में, उग आते हैं अनगिनत द्वीप, जिसे जोड़ने वाला पुल नहीं पुलिया नहीं, द्वीप जिसे जाने नाव नहीं पतवार नहीं।
बरसात में बस्तर कई द्वीपों मे बंट जता है पर जोड़े रहता है अपनी संस्कृति को, सभ्यता को और जीवनशैली को। बस्तर में अफ्रीका जैसे घने जंगल हैं, दुलर्भ पहाड़ी मैना है तो मशहूर जंगली भैसा भी हैं। कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा आज भी रहस्यमयी नजर आती है। करीब तीस फुट संकरी सीढ़ी से उतरने के बाद हम उन अंधी मछलियों की टोह लेने पहुंचे जिन्होंने कभी रोशनी नहीं देखी थी। पर दिल्ली से साथ आई एक पत्रकार की सांस फूलने लगी और हमें फौरन ऊपर आना पड़ा बाद में पता चला उच्च रक्तचाप और दिल के मरीजों के अला सांस की समस्या जिन लोगों में हो उन्हें इस गुफा में नहीं जाना चाहिए क्योंकि गुफा में आक्सीजन की कमी है। गुफा से बाहर निकलते ही हम कांगेर घाटी के घने जंगलों में वापस लौट आए था।
दोपहर से बरसात शुरू हुई तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लिया। हमें जाना था दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी का मंदिर देखने। छत्तीसगढ़ की एक और विशेषता है। यह देवियों की भूमि है। केरल को देवो का देश कहा जाता है तो छत्तीसगढ़ के लिए यह उपमा उपयुक्त है क्योंकि यहीं पर बमलेश्वरी देवी, दंतेश्वरी देवी और महामाया देवी के ऐतिहासिक मंदिर हैं। उधर जंगल, पहाड़ और नदियां हैं तो यहां की जमीन के गर्भ में हीरा और यूरेनियम भी है।
दांतेवाड़ा जाने का कार्यक्रम बारिश की जह से रद्द करना पड़ा और हम बस्तर के राजमहल परिसर चले गए। बस्तर की महारानी एक घरेलू महिला की तरह अपना जीवन बिताती हैं। उनका पुत्र रायपुर में राजे-रजवाड़ों के परंपरागत स्कूल(राजकुमार कॉलेज) में पढ़ता है। बस्तर के आदिवासियों में उस राजघराने का बहुत महत्व है और ऐतिहासिक दशहरे में राजपरिवार ही समारोह का शुभारंभ करता है। इस राजघराने में संघर्ष का अलग इतिहास है जो आदिवासियों के लिए उसके पूर्व महाराज ने किया था। दंतेवाड़ा जाने के लिए दूसरे दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया गया। रात में एक पत्रकार मित्र ने पास के गांव में बने एक डाक बंगले में भोजन पर बुलाया। हमारी उत्सुकता बस्तर के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की थी। साथ ही आदिवासियों से सीधे बातचीत कर उनके हालात का जायजा लेना था। यह जगह डाक बंगले के परिसर में कुछ अलग कटहल के पुराने पेड़ के नीचे थी।
आदिवासियों के भोजन बनाने का परंपरागत तरीका देखना चाहता था। इसी जगह से हमने सर्किट हाउस छोड़ गांव में बने इस पुराने डाक बंगले में रात गुजरने का फैसला किया। अंग्रेजों के समय से ही डाक बंगले का बार्चीखाना कुछ दूरी पर और काफी बनाया जता रहा है। लकड़ी से जलने वाले बड़े चूल्हे पर दो पतीलों में एक साथ भोजन तैयार होता है। साथ ही आदिवासियों द्वारा तैयार महुआ की मदिरा सल्फी के बारे में जनना चाहते थे। आदिवासी महुआ और चाल से तैयार मदिरा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। साथ बैठे एक पत्रकार ने बताया कि पहली धार की महुआ की मदिरा किसी महंगे स्काच से कम नहीं होती है। दो पत्तों के दोनों में सल्फी और महुआ की मदिरा पीते मैंने पहली बार देखा। गांव का आदिवासी खानसामा पतीलों में दालचीनी, बड़ी इलायची, काली मिर्च, छोटी इलाइची, तेजपान जैसे कई मामले सीधे भून रहा था। मुझे हैरानी हुई कि यह बिना तेल-घी के कैसे खड़े मसाले भून रहा है तो उसका जब था यहां देसी मुर्गे बनाने के लिए पहले सारे मसाले भून कर तैयार किए जते हैं फिर बाकी तैयारी होती है। बारिश बंद हो चुकी थी इसलिए हम सब किचन से निकल कर बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए। जगदलपुर के पत्रकार मित्रों ने आदिवासियों के रहन-सहन, शिकार और उनके विवाह के तौर तरीकों के बारे में रोचक जानकारियां दी। पहली बार बस्तर आए पत्रकार मित्र के लिए समूचा माहौल सम्मोहित करने वाला था। दूर तक फैले जंगल के बीच इस तरह की रात निराली थी।
शाम होते-होते हम केशकाल घाटी से आगे जा चुके थे। केशकाल की घाटी देखकर साथी पत्रकार को पौड़ी की पहाड़ियां याद आ रही थीं। पर यहां न तो चीड़ था और न देवदार के जंगल। यहां तो साल के जंगलों के टापू थे। एक टापू जाता था तो दूसरा आ जता था। बस्तर की पहली यात्रा काफी रोमांचक थी। ऐसे घने जंगल हमने पहले कभी नहीं देखे थे। आदिवासी हाट बाजरों में शोख चटख रंग में कपड़े पहने युवतियां और बुजुर्ग महिलाएं सामान बेचती नजर आती थीं। पहली बार हम सिर्फ जनकारी के मकसद से बस्तर गए थे पर दूसरी बार पत्रकार के रूप में। इस बार जब दिनभर घूम कर खबर भेजने के लिए इंटरनेट ढूंढना शुरू किया तो आधा शहर खंगाल डाला पर कोई साइबर कैफे नहीं मिला। सहयोगी पत्रकार का रक्तचाप बढ़ रहा था और उन्हें लग रहा था कि खबर शायद जा ही न पाए और पिछले दो दिन की तरह आज भी कोई स्टोरी छप पाए। खैर, एक साइबर कैफे भी तो उसमें उनका इमेल खुलने का नाम न ले। अंत में मेरे याहू आईडी से बस्तर की खबर उन्होंने भेजी और हजार बार किस्मत को कोसा। खबर भेजने के बाद हम मानसिक दबाव से मुक्त हुए और जगदलपुर के हस्तशिल्प को देखने निकले। आदिवासियों के बारे में काफी जनकारी ली और दिन भर घूम कर हम फिर दूसरे डाक बंगले में बैठे। कुछ पत्रकार भी आ गए थे और फिर देर रात तक हम जगदलपुर की सड़कों पर टहलते रहे।
इस बार तीरथगढ़ जलप्रपात देखने गए तो जमीन पर महुए के गुलाबी फूल बिखरे हुए थे। उनकी मादक खुशबू से पूरा इलाका गमक रहा था। महुआ का फूल देखा और यह क्या होता है जानने का प्रयास किया। साथ गई आरती धर महुए की दोनों में बिकती मदिरा भी चखना चाहतीं पर वह दोनों हाइजनिक नहीं लगा इसलिए छोड़ दिया। एक गांव पहुंचे तो आदिवासियों के घोटूल के बारे में जानकारी ली। घोटूल अब बहुत कम होता है। विवाह संबंध बनाने के रीति-रिवाज भी अजीबो गरीब हैं। आदिवासी यु्वक को यदि युवती से प्यार हो जए तो वह उसे कंघा भेंट करता है और यदि युवती उसे बालों में लगा ले तो फिर यह माना जता है कि युवती को युवक का प्रस्ताव मंजूर है। फिर उसका विवाह उसी से होना तय हो जता है। बस्तर का पूरा इलाका देखने के लिए कम से कम हफ्ते भर का समय चाहिए। पर समय की कमी की वजह से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में इस आदिवासी अंचल को देखा पर पूरा नहीं देख पाया हूं।( छतीसगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस की जिम्मेदारी सँभालने के बाद लिखा गया था लेख )

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