Sunday, March 18, 2012

कहाँ खो गया वह शहर



अंबरीश कुमार
बहुत पुरानी बात है .तबके मद्रास में जयप्रकाश नारायण के सहयोगी और स्वतंत्रता सेनानी शोभाकांत दास का मेहमान था उनका घर का पता ५९ गोविन्दप्पा नायकन स्ट्रीट इसलिए भी याद हो गया क्योकि वह दक्षिण का घर जैसा हो गया था .वे जड़ी बूटियों के बड़े कारोबारी रहे है और आज भी गाँधीवादी जीवन गुजारते है .मद्रास में बिहार भवन बनवाया जो बिहार से वेलोर अस्पताल में इलाज के लिए जाने वालों के लिए मद्रास शहर के बीच रुकने की आरामदायक जगह है .शोभाकांत जी जेपी और रामनाथ गोयनका व करूणानिधि के बीच के पुल भी थे .आजादी की लड़ाई के समय वे सरगुजा जेल से फरार हुए तो जब जेपी जेल में रहे तो वे बच्चे थे और खाने के साथ क्रांतिकारियों का पत्र भी पहुंचाते थे .रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनपर लिखा भी है .वे दक्षिण से हिंदी में एक पत्रिका निकालना चाहते थे और मुझे उसकी जिम्मेदारी सँभालने को कहा .उसी सिलसिले में बातचीत करने मद्रास में था ,पर समझ नहीं पा रहा था क्या करना चाहिए .अपना संगठन ,साथी सब लखनऊ में थे और कोई फैसला नहीं हो प् रहा था .बहरहाल शोभाकांत जी ने निर्देश दिया कि पत्रिका निकले या न निकले पहले आप दक्षिण घूमे और समझे .उन्होंने अपने सचिव को इस सिलसिले में सारा इंतजाम करने को कहा और शुरुआत पांडिचेरी से हुई .
वाहिनी की एक तेजतर्रार कार्यकर्त्ता भी साथ थी जिन्हें उस पत्रिका से जुड़ना था और उनसे कुछ ही घंटों में झगडा होना एक परंपरा हो गई थी .वाहिनी वाले उस दौर में सिर्फ क्रांति का इंतजार करते थे और चर्चा का बड़ा हिस्सा भी उसी में गुजर जाता था .खैर अपना घुमाने का शौक था इसलिए मुझे अच्छा लगा .पांडिचेरी में अरविंदो आश्रम की सारी व्यवस्था होती थी और उसके एक ट्रस्टी शोभाकांत जी के मित्र थे और उन्होंने समुन्द्र के किनारे बने गेस्ट हाउस का वह अतिथि गृह आवंटित कराया जो मुख्य भवन से अलग समुन्द्र से लगा हुआ रेस्तरां के ऊपर था .शायद काटेज गेस्ट हाउस कहते है .पिछली बार जिस गेस्ट हाउस में रुके उसमे तो बहुत पाबन्दी थी और लगता था कि गाँधी जी के वर्धा आश्रम में रुके हों .पर साफ़ सफाई और अनुशासन से सविता बहुत खुश थी .और उन्हें लाइन लग कर दूध ,ब्रेड और दलिया जैसा खाना भी बहुत अच्छा लगता था .पर मुझे बाहर जाकर खाना खाना पड़ता था .
पर पहली बार जिस काटेज गेस्ट हाउस में रुके थे वहां इस तरह की कोई पाबन्दी नहीं थ और रेस्तरा में सबकुछ खाने को मिल जाता था .कमरे भी बड़े जिसकी बड़ी बड़ी खिडकिय जिससे समुन्द्र और सामने की वह सड़क दिखती जो समुन्द्र तट के किनारे किनारे चलती थी .कुछ साल पहले तक फ़्रांस का उपनिवेश रहे पांडिचेरी में बहुत कम लोग दिखते थे .रात दास बजे तक तो सन्नाटा .याद है देर रात तक समुन्द्र के सामने बैठे रहे और फिर तब समुन्द्र से लगे हुए रेस्तरां में काफी पीने चले गए .तब वहा रेट ज्यादा थी पर जब पिछली बार गए तो काले पत्थर डाल दिए गए रहे .पर तब के पांडिचेरी और अबके पांडिचेरी में बहुत फर्क नजर आया .अब तो कई बार रात एक बजे तक इस सड़क पर मेला लगा रहता है .अस्सी के दशक वाला वह 'शहर' जिसे मै पिछली बार तलाश रहा था वह नहीं मिला .अरविंदो आश्रम में माँ का चमत्कार यह भी है कि तरह तरह के फूल और वनस्पतियाँ यही दिखती है और ऎसी शांति की कुछ देर के लिए हर कोई ध्यान में चला जाता है .पर समुन्द्र तट पर आते ही बदला हुआ माहौल इस शहर की पुरानी छवि को तोड़ देता है .छोटे बेटे अंबर की उसी तट की एक फोटो बार बार सब याद दिलाती है .

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