Saturday, July 14, 2012

एक और प्रभाष जोशी की जरुरत है

कुमार आनंद
प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता जगत के वह अनमोल स्तंभ हैं जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता । इस समय का कोई भी संपादक उनके आसन के आस पास भी नहीं पहुंच पाया है । प्रभाष जोशी ने अपने समय में हिंदी पत्रकारिता जगत के बौद्धिक समाज का नेतृत्व किया है । वह ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे जिनके बोलने और लिखने की शैली में कोई अंतर नहीं था । उनकी तरह के व्यक्तित्व का व्यक्ति मिलना आजकल के समाज में असंभव है । संपादक के रूप में उन्होंने अपने साथ काम करने वाले साथी सहयोगियों को हमेशा लिखने की आजादी दी । वहीँ आजकल के संपादक जहां अंकुश में ज्यादा विश्वास रखतें हैं । प्रभाष जोशी हमेशा सामाजिक सरकारों और जनपक्षधरता से जुड़े मुद्दों के पत्रकारिता पर विश्वास रखते थे । वैचारिक मुद्दों की पत्रकारिता में वह हमेशा अपने साथी सहयोगिओं से विचार विमर्श किया करते थे । अपने साथी सहयोगिओं के दुःख सुख हमेशा शामिल रहते थे । यही कारण था जो भी उनसे जुड़ा था उसका उनके साथ दिल से जुड़ाव था । जोकि आजकल के संपादकों में नजर नहीं आता । प्रभाष जोशी के समय हिंदी पत्रकारिता जगत के पत्रकारों को अंग्रेजी अख़बार के पत्रकारों के समतुल्य माने जाते थे । जनसत्ता अख़बार निकलने से पहले और बाद के अख़बारों का अध्ययन करें तो आपको साफ़ पता चल जाएगा प्रभाष जोशी के संपादक काल में हिंदी पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्ति की सीमा को लांघ कर एक प्रभावशाली वृद्धि हुई थी । आज हिंदी पत्रकारिता को एक और प्रभाष जोशी की जरुरत है । हिंदी पत्रकारिता को जो भाषा और तेवर प्रभाष जी ने दिया उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता । आज प्रभाष जोशी की पत्रकारिता की ज्यादा जरुरत महसूस की जाती है क्योकि संकट भी पहले से कही ज्यादा है । उदारीकरण के जिन खतरों को प्रभाष जोशी ने तब पहचाना और जमकर लिखा वह पत्रकारिता के छात्रों के लिए अध्ययन का विषय हो सकता है । उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को अंग्रेजी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था यह माद्दा आज कितने पत्रकारों में है । (जनसत्ता का मशहूर जुमला 'सबकी खबर ले ,सबकी खबर दे ' गढ़ने वाले कुमार आनंद प्रभाष जोशी की टीम के सबसे तेज तर्रार पत्रकार रहे है और इंडियन एक्सप्रेस के यूनियन के चुनाव में अम्बरीश कुमार की जीत के साथ ही जब विरोधी पक्ष ने प्रभाष जोशी के खिलाफ नारा लगाया तो हिंसा हुई और प्रबंधन व संपादक के विवाद के चलते कुमार आनंद ने सबके मना करने के बावजूद खुद्दारी में एक्सप्रेस से इस्तीफा दे दिया था । वे फिलहाल भाषा के संपादक है )

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