Sunday, July 15, 2012
पचहत्तर के प्रभाष जोशी
अंबरीश कुमार
प्रभाष जोशी पर अपने अख़बार जनसत्ता के वरिष्ठ सहयोगियों का लिखा पढ़ा और फिर पुरानी यादों में खो गया।यकीन नही होता उन्हें गए तीन साल नवम्बर में हो जाएंगे।लिखने का कोई बहुत मन नहीं था पढना ज्यादा चाहता था ,पर कुछ मित्रों कहा तो लिखने बैठा ।प्रभाष जी से अपनी अंतिम मुलाकात इसी लखनऊ में उनके निधन से ठीक एक दिन पहले तब हुई जब वे तबियत ख़राब है यह सुनकर एक्सप्रेस दफ्तर में मिलने आए । तबियत तो ज्यादा ख़राब नहीं थी प्रभाष जी से कुछ नाराजगी थी एक सज्जन को लेकर जिनका नाम लिखना ठीक नहीं ।इसलिए जब वे एक कार्यक्रम में (जो अंतिम कार्यक्रम साबित हुआ ) यहाँ आए तो तारा पाटकर से मैंने कहा -कार्यक्रम में प्रभाष जी पूछे तो टाल देना कहना तबियत ख़राब थी इसलिए नहीं आ पाए । बाद में दफ्तर पहुंचा तो तारा पाटकर का फोन आया और सीधे बोले प्रभाष जी बात करना चाहते है । उधर से प्रभाष जी की रोबदार आवाज गूजी -क्यों पंडित ,क्या हुआ यहाँ आए नही । मैंने वही बहाना दोहरा दिया और कहा -भाई साहब ,कुछ तबियत गड़बड़ थी ।प्रभाष जी ने फिर कहा -ठीक है पंडित ,अपन देखने आते है ।
अजीब स्थिति हो गई ।खैर थोड़ी देर बाद प्रभाष जोशी सीधी चढ़कर आए और करीब दो घंटे साथ रहे ।लम्बी और रोचक चर्चा हुई ।समूचा एक्सप्रेस परिवार उनके चारो और बैठ गया । आखिर वे एक्सप्रेस के भी संपादक रहे और शेखर गुप्ता को बतौर प्रशिक्षु उन्होंने ही रखा था ।खैर जब चले और परम्परा के विपरीत जब मै उनके पैर छूने लगा तो गले में हाथ डालकर बोले -अम्बरीश ,अपन की पहचान सिर्फ लिखने से है ,लिखना जारी रहना चाहिए ।प्रभाष जोशी अपने संपादक रहे ,गुरु रहे और पाठक भी रहे । पत्रकारिता की कोई पढाई नहीं की जो सीखा वह जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकारिता से ही सीखा । मंगलेश जी का लिखा पढ़ रहा था कि किस तरह अखबार निकाला जाता था और कैसा अख़बार निकाला जाता था । कुछ लोगों की जानकारी भी बढ़ाना चाहता हूँ कि जनसत्ता में हर धारा के लोग रहे संघी से लेकर समाजवादी और धुर वामपंथी भी । महिला मुक्ति समर्थक से लेकर मंडल और दलित समर्थक भी । मंगलेश डबराल ,अभय कुमार दुबे ,शम्भुनाथ शुक्ल ,अरविन्द उप्रेती श्रीश चन्द्र मिश्र ,पारुल ,नीलम गुप्ता ,सतेन्द्र रंजन ,अरुण त्रिपाठी ,संजय स्वतंत्र ,प्रदीप श्रीवास्तव ,ओमप्रकाश ,सुशील कुमार सिंह ,संजय सिंह ,सुमित मिश्र से लेकर मनोहर नायक आदि बहुत लोग प्रगतिशील धारा के पत्रकार रहे है । इसलिए यह धारणा बनाना गलत है की जनसत्ता में प्रगतिशील धारा के लोग कम थे । यूनियन चुनाव में यह और खुलकर आया जब मै लगातार चुनाव जीता ।
जनसत्ता में चयन का मानदंड टेस्ट होता था जिसमे किसी तरह का आरक्षण नहीं था । प्रभाष जोशी के बाद दूसरा बड़ा नाम बनवारी का था और कई मामलों में वे प्रभाष जोशी पर भारी भी पड़ते । बनवारी समाजवादी आन्दोलन से निकले पर बाद में उनकी धारा बदल गई और भारतीय संस्कृति ,परम्परा और रीति रिवाज पर उनके लेखन में यह दिखने भी लगा । सती प्रथा पर वह विवादास्पद सम्पादकीय बनवारी ने लिखा था जिसका बचाव संपादक होने के नाते प्रभाष जोशी अंत तक करते रहे । प्रभाष जोशी ने संपादक होने के नाते यह जिम्मेदारी निभाई थी जिसे हम लोग जानते भी थे । बनवारी से प्रभाष जोशी का यह वैचारिक टकराव तब बढ़ा जब बाबरी मस्जिद गिरा दी गई । मुझे याद है मै जनरल डेस्क पर बैठा था और टेलीप्रिंटर पर बाबरी ध्वंस की खबरे आ रही थी । बनवारी ने साधू संतों की नाराजगी का जैसे ही तर्क दिया पास खड़े प्रभाष जोशी भड़क उठे और बोले -ये साधू संत नहीं हत्यारे है जो देश को तोड़ने पर आमादा है । माहौल तनावपूर्ण हो गया था और बनवारी कुछ देर में वहा से चले गए ।
उसी दौर में एक रात मै नाईट ड्यूटी पर था और हरिशंकर व्यास का मंदिर आन्दोलन पर पहले बेज पर बाटम जा रहा था । रात करीब ग्यारह बजे प्रभाष जोशी वही आ गए और पहला पेज देखने लगे और उनकी नजर बाटम पर गई । प्रभाष जोशी ने कहा -यह स्टोरी नही जाएगी इसे बदल दो । यह पहली घटना थी संपादक स्तर के पत्रकार की रपट हटा दी गई हो । १९९२ के बाद के प्रभाष जोशी कितने अलग थे इसका एक और उदहारण दिलचस्प है । अपने समाजवादी मित्र दिल्ली विश्विद्यालय के राजकुमार जैन प्रभाष जोशी के उन लेखों से बहुत नाराज थे जो चंद्रशेखर पर तीन अंकों में लगातार लिखा गया और पहले की हेअडिंग थी -'भोंडसी के बाबा '। बाद में एक सभा में प्रभाष जोश बोल रहे थे तो राजकुमार जैन वहा पहुँच गए और बोले -प्रभाष जी जब आपने चंद्रशेखर पर लिखा तो मैंने तय कर किया था समाजवादी कार्यकर्त्ता की तरह आपकी सभा में चप्पल जरुर फेंकूंगा पर बाबरी ध्वंस पर जो आपने लिखा उसके बाद मै आपके चरण छूना चाहता हूँ । यह घटना बहुत कुछ बताती है । जनसत्ता एक परिवार की तरह रहा जिसमे हम एक दुसरे के दुखदर्द में शामिल होते रहे वैचारिक मतभेद के बावजूद । सबकी खबर दे -सबकी खबर ले का नारा देने वाले कुमार आनंद (अब भाषा के संपादक) को प्रभाष जोशी इंतजाम बहादुर भी कहते थी । उनके घर की दावते कभी भूल नही सकता । मेरे विवाह से पहले साथियों की दावत उन्ही के घर हुई और रात भर चली । तब मै दाढी रखता था और सुबह शताब्दी पकड़ने से पहल दाढी भी उनके घर से बनाकर निकला क्योकि घरवालों का दबाव था । कल कुमार आनंद ने कहा -अब समाज से कट गया हूँ भाषा का काम भी बहुत थका देता है । मेरी वजह से ही कुमार आनंद को जनसत्ता से इस्तीफा देना पड़ा था क्योकि यूनियन चुनाव जीतने के बाद मेरे समर्थन में नारे लगे तो किसी ने प्रभाष जी के खिलाफ नारा लगा दिया था जिसके बाद हिंसा हुई और मामला विवेक गोयनका तक पहुंचा .जीएम को हटना पड़ा तो कुमार आनंद पर दबाव पड़ा । झुकने और सफाई देने की बजाय कुमार आनंद ने इस्तीफा दे दिया । प्रभाष जोशी को लेकर हम तब भी संवेदनशील थे और आज भी है । virodh blog se
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प्रभाष जोशी
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प्रमोद जोशी और पूजा शुक्ल ने अपन अख़बार के भविष्य को लेकर चिंता जताई है जो वाजिब है .इसकी शुरुआत तब हुई जब प्रभाष जोशी ने संपादक पद छोड़ा और शायद तीन किश्तों में लिखा जिसका पहला लेख सन्यस्तम,सन्यस्तम जैसी हेडिंग से था .उन लेखों में उन्होंने इन खतरों का जिक्र कर दिया था .जनसत्ता को लेकर उसी दौर में प्रबंधन से अपनी कई बैठके हुई क्योकि मै जनसत्ता का एक्सप्रेस यूनियन प्रतिनिधित्व कर रहा था और से री लांच करने पर जोर दे रहा था .एक बैठक विवेक गोयनका के साथ भी हुई .उन्होंने पेशकश की कि दो साल मै खुद अख़बार संभल कर दिखाऊ इंडियन एक्सप्रेस सारा खर्च उठाएगा .पर अपनी यह हैसियत तब नहीं थी .बहरहाल तब जनसत्ता घाटे में था क्योकि प्रसार घटाया जाता था और विज्ञापन ज्यादा मिलता नहीं ..जनसत्ता ने जब प्रसार का रिकार्ड तोडा तो प्रभाष जोशी रामनाथ गोयनका से मिलने गए .रामनाथ जी ने कहा -मेरी हालत उस औरत की तरह हो गई है जो सुबह का सपना सच होनेपर हंस रही थी तो हकीकत जानकर रो भी रही थी क्योकि सपने में देखा कि उसक पति मर गया है .रामनाथ जी ने कहा -प्रभाष हम नंबर एक हो गए पर हर महीने घटा बढ़ रहा है सर्कुलेशन कम केना होगा .शायद यही एक बड़ी रणनीति भूल थी कुछ साल का घाटा इस अख़बार को मार्केटिंग रणनीति में मुनाफे में पहुंचा सकता था पर शायद यह सोच थी नहीं .मैंने देखा है तब रामनाथ जी किस तरह एक काली फियट गाड़ी में चलते थे .रीयल स्टेट के किराये से अख़बार का खर्च निकलता था .पर बाद में बाजार बदला लेकिन प्रबंधन ने उसके मुताबिक बदलाव के लिए वह संसाधन नहीं जुटाए जिसकी जरुरत थी .आज भी प्रबंधन की प्राथमिकता पार यह अख़बार नहीं है जिसके चलते इसके प्रसार या नए संस्करणों की कोई रणनीति भी नहीं बनाई गई है .बाद के दोनों संस्करण रायपुर और लखनऊ मैंने निकाला और वही पुरानी समस्यायों का सामना करना पड़ा .इस सब को देखते हुए आने वाला समय कैसा होगा इस अख़बार के लिए कहा नहीं जा सकता .पे एनी अख़बारों के साथ आज भी बहुत लोग इसे पढना चाहते है क्योकि कुछ तो बचा हुआ है .
ReplyDeleteआप के लेख प्रशंसा के पात्र हैं।
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