Saturday, July 14, 2012

ठेठ हिन्दी की ठाठ वाली भाषा

नामवर सिंह
प्रभाषजी से मेरी पहली मुठभेड़ मंडी हाउस के पिफक्की सभागार में हुई थी- मौका था नवभारत टाइम्स के संपादक राजेन्द्र माथुर के निधन पर शोक सभा के आयोजन का। उस समय नवभारत टाइम्स के संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह थे। लेकिन हमें जो आमंत्राण मिला था उसमें निखिल चक्रवर्ती और प्रभाष जोशी का भी नाम अंकित था। मुझे भी बोलना था। मैंने कहा कि राजेन्द्र माथुर के व्यक्तित्व का पता इससे भी चलता है कि एक ओर वामपंथी निखिल चक्रवर्ती बैठे हैं, दूसरी ओर प्रभाष जोशी जिन्होंने अपने अखबार में सती प्रथा का जोरदार समर्थन किया है। कार्यक्रम के बाद मैं निकलने लगा तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। 'कहाँ जा रहे हैं आप। मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। निखिल दा के साथ मेरा होना आपको आश्चर्य क्यों लगा?' वह मेरी पहली मुठभेड़ थी। उसके बाद उनसे मेरी निकटता बढ़ती चली गई। बाद में दिसंबर १९९२ से एक नए प्रभाष का जन्म हुआ और उनसे हमारा परिचय हुआ। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद प्रभाष जोशी का बदला रूप सामने आया। जिस अंदाज में उन्होंने भाजपा और संद्घ पर हमला बोला वो सराहनीय था। हम विभिन्न आयोजनों, सभा-गोष्ठियों में मिलने लगे। निकटता कब एक संबंध में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला। कई आयोजनों में हम साथ-साथ गए हैं। मैं उनके 'कागद कारे' स्तंभ का मुरीद था। उसको काटकर मैंने संकलित कर रखा था। एक दिन मैंने उनसे कहा- 'मैं कतरन रखते-रखते थक गया हूँ। पुस्तक क्यों नहीं निकाल लेते। पलटकर बोले-'आप इसकी भूमिका लिखेंगे?' मैंने हामी भरी। हठ कर मैंने वह पुस्तक तैयार करवाई। पाँच खंडों में 'कागद कारे' का संकलन पिछले साल प्रकाशित हुआ। उसमें मेरी लिखी भूमिका भी है। मैंने उनके राम बहादुर राय या उन जैसे किसी दूसरी विचारधारा वाले व्यक्ति से उनके संबंधों पर कभी एतराज नहीं किया। राय साहब से उनके बहुत पुराने और प्रगाढ़ संबंध रहे। मेरे गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहा करते थे कि मनुष्य किसी विचारधारा का पुंज नहीं होता, वह उस पुंज से भी बड़ा होता है। मनुष्यता किसी भी विचार से बड़ी होती है। इसकी कसौटी प्रभाषजी थे। यह बात महान से लेकर सामान्य लोगों के बारे में भी कही जा सकती है। इस समझ के तहत मैंने देखा कि प्रभाष जोशी के हर विचारधर लोगों से संबंध थे। अन्तर वैयक्तिक संबंध भी होते हैं। महात्मा गाँधी के कई लोगों से संबंध थे? जो उनकी विचारधारा को नहीं मानते थे। बालमुकुंद गुप्त कलकत्ता से एक पत्रिाका निकालते थे, तब अनस्थिरता शब्द को लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी से उनकी लम्बी बहस चली। महावीर प्रसाद बालमुकुंद गुप्त की भाषा में त्राुटियां निकाला करते थे- भाषा वैसी नहीं, ऐसी होनी चाहिए। लेकिन १९०६ में बालमुकुंद गुप्त के निधन के बाद आचार्य द्विवेदी ने उनकी भाषा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा- हिन्दी लिखने वाला तो एक ही था। हिन्दी तो वही है जो बालमुकुंद लिखा करते थे। बालमुकुंद के बाद आज के जमाने में अगर कोई हिन्दी लिखने वाला हुआ तो प्रभाष जोशी। जिसे ठेठ हिन्दी का ठाठ कहा जाता है, वह उनकी भाषा में ही देखने को मिलता है। यह अपनी क्षेत्राीय बोलियों पर टिकी होती है। क्षेत्राीय बोली से ही हिन्दी को ताकत मिलती है, संस्कृत से नहीं। ऐसी जीवंत और लोक भाषा की छौंक लिए भाषा लिखने वाला हिन्दी में कोई दूसरा नहीं है। उनकी भाषा में मालवा का रस-गंध है। उनकी भाषा तब मुखर रूप में दिखाई देती है जब वो अपने परिवार मित्रा, माँ, बहन, भाई पर लिखते हैं। वैसे मालवी की छौंक उन लेखों पर भी है जो विशु( रूप से राजनीति या खेल पर लिखे गए हैं। उन्होंने मालवा के कई शब्द और मुहावरे लाकर उन्हें हिन्दी भाषा में स्थापित किया। बिना नाम देखे उनकी भाषा को पढ़कर कहा जा सकता है कि यह प्रभाष जोशी का लिखा है। उनके व्यक्तित्व की छाप उनकी भाषा में नजर आती है। जो लोग यह मानते हैं कि प्रभाषजी में अंतर्विरोध था, उन्हें प्रभाष जोशी को पिफर से पढ़ने-समझने की जरूरत है। मुझे उनमें कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता। द्विखंडित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति नहीं थे वो। उनका व्यक्तित्व ठोस और संपूर्ण था। मैं इसमें कोई विरोध नहीं देखता कि पारिवारिक होने के कारण वो परम्पराओं, कर्मकांड को निभाते थे। कांग्रेस के धुर विरोधी थे। हिन्दू थे पर हिन्दुत्ववादी नहीं। उनकी किताब 'हिन्दू होने का धर्म' को पढ़कर इसे समझा जा सकता है। वो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संद्घ वाले हिन्दू नहीं थे। अलबत्ता ऐसे हिन्दू थे जिनका मुसलमानों से कोई विरोध नहीं था। किसी भी धर्म वाले से उनको विरोध नहीं था। वे जातिवादी नहीं थे। मैं चाहता हूँ कि जब प्रभाषजी की पहली बरसी अगले साल मनायी जाए उस अवसर पर उनके निधन के बाद जो भी लिखा गया है और लिखा जा रहा है उसे संकलित कर एक पुस्तक का रूप दिया जाए। पाखी

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