Sunday, July 15, 2012

दुराग्रह छोड़कर देखें , जनसत्ता आज भी अलग नजर आएगा

ओम थानवी
विडंबना ही है कि प्रभाष जी को हम इस तरह याद करें कि वे आज होते तो पचहत्तर के होते। वे असमय विदा हुए। सेहत में व्याधियां थीं। फिर भी जैसा उन्हें देखा, यह अंदेशा मेरे मन में कभी नहीं उठा कि उनकी अमृत जयंती हम भूतकाल में मनाएंगे। विधि आखिर विधि है, पर ऐसी घड़ी में आकर विधि का विधान खुद एक व्याधि लगने लगता है। विचलन के जिस दौर में देश की पत्रकारिता, समाज और राजनीति को प्रभाष जी जैसे विवेक की उत्कट जरूरत थी, वे हमारे बीच नहीं रहे। भीतर की चिकित्सक जानें, हमारे देखे जब वे गए पूरे सक्रिय थे। नियमित लिखते थे। नियमित यात्राएं करते थे। मैदान में जाकर खेल देखते थे। घर पर आकर बच्चों के साथ खेलते थे। सभा-बैठकों में योजनाओं के खाके बनाते थे। दुनिया-जहान की हर गतिविधि को लेकर सजग थे। उनके न रहने का बोध परिवार में, समाज में अपनी जगह होगा। मेरे समक्ष उनकी गैर-मौजूदगी कदम-कदम पर पीड़ा का अहसास है। वे जनसत्ता संपादकीय सलाहकार कहने भर को थे, सही मायने में वे जनसत्ता के लिए सब-कुछ थे। ‘तात, बंधु, सखा, चिर सहचर’। जनसत्ता उन्हीं का अखबार है। उन्हीं की कल्पना का साकार रूप, उन्हीं के परिश्रम का प्रतिफल। उनकी उपस्थिति हमारे लिए अपने में सबसे बड़ी सलाह थी। आशा है शोध-प्रेमी इस कथन में व्यंजना न ढूंढ़ेंगे। जब मुझे जनसत्ता सम्हालने को कहा गया, तभी यह खयाल कौंधा था कि लोग जल्द और संपादकों से नहीं, प्रभाष जी के दौर से मिलान करने बैठेंगे। इससे बड़ी ज्यादती क्या हो सकती है? हालांकि अच्छी बातें करने वाले भी मिलते हैं। वे जनसत्ता की तारीफ करते-न-करते, उसकी बराबरी अंग्रेजी के दैनिक द हिंदू से करने लगते हैं। उनका बड़प्पन है, पर यह दूसरी किस्म की अतिरंजना है। तुलना तभी उचित होती है जब दोनों अखबारों के साधन-स्रोत बराबर हों। प्रभाष जी ने जनसत्ता को एक अपूर्व ऊंचाई पर पहुंचाया। व्यावसायिक सफलता के अर्थ में भी। अखबार का प्रसार उसके प्रकाशन के दूसरे ही वर्ष इस कदर बढ़ा कि उन्हें पाठकों से जनसत्ता मिल-बांटकर पढ़ने की अपील करनी पड़ी। लेकिन उनके देखते प्रसार घटा भी। अखबार का आकार भी घटा। इर्द-गिर्द बहुरंगी और बहुपृष्ठी बाजारू अखबारों की भीड़ छाने लगी। लोकरुचि वक्त के साथ बदलती है। उसके साथ अखबारों के सरोकार भी बदल जाते हैं। पर जनसत्ता के सरोकार नहीं बदले, मैं इस संतोष और गुरूर में ही अखबार की मौजूदा भूमिका को देखता हूं। जब चंडीगढ़ से दिल्ली आया और जनसत्ता का काम देखने लगा, सहयोगी लोग कागज आदि पर मेरे नाम की जगह ‘संपादक जी’ लिखते थे। एकदिन सूचना-पट्ट पर मैंने लिखकर नोट लगाया कि मुझे मेरा नाम बहुत प्यारा नहीं, पर ‘संपादक जी’ की जगह कृपया नाम का इस्तेमाल करें। ‘संपादक जी’ प्रभाष जी थे और रहेंगे। क्या यह महज संयोग है कि प्रभाष जी के बाद तीन संपादक हुए, तीनों कार्यकारी संपादक के रूप में जाने गए। प्रभाष जी की जगह कोई नहीं ले सकता। यह दूसरी बात है कि वे अपने निकट सहयोगियों के लिए जल्दी ही ‘संपादक जी’ से ‘प्रभाष जी’ हो जाते थे। हमेशा के लिए। भोपाल में पत्रकारिता पर एक संगोष्ठी हुई। उसमें प्रभाष जी मौजूद थे। निर्मल वर्मा भी थे। और भी अनेक संपादक और वरिष्ठ पत्रकार। मैंने कहा कि संपादन का बोझ मुझ पर आ पड़ा है जिसे प्रभाष जी के नाम से निभा भर रहा हूं। मैंने ‘पादुका के प्रसंग की तरह’ कहा तो सदा-मायूस आलोक मेहता को बहुत हैरानी हुई। सचाई यही है कि सीमाओं और परिस्थितियों की पहचान के बावजूद जनसत्ता प्रभाष जी के आदर्शों से हट न पाए, अब भी सबकी यही भरसक कोशिश रहती है। इसमें कितनी सफलता मिलती है और किन कारणों से कितनी नहीं मिल पाती, इसकी गहराई में अभी नहीं जाना चाहता। तमाम सीमाओं के बावजूद जनसत्ता उपेक्षणीय नहीं हो सकता; उसका विवेचन लोग करते हैं, आगे भी करेंगे। रोजगार के नाते नहीं, पर मेरे जैसे पाठक जनसत्ता से तभी जुड़ गए थे, जब अखबार 1983 में फिर निकलना शुरू हुआ। जनसत्ता एक बार पहले भी निकला था (मेरे जन्म से पहले की बात है!), पर प्रभाष जी के संपादन में आया जनसत्ता दो टूक भाषा और साफगोई के अंदाज में हिंदी का पहला ‘बोल्ड’ अखबार था। हिंदी समाज ने उसे हाथों-हाथ लिया। उसकी कई चीजों पर फिदा होकर मैं बेहद खुश होता, कभी बेचैन भी हो उठता। बनवारी जी से मेरा संपर्क तब से था, जब मैं जयपुर में कुछ समय के लिए राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ का प्रभारी था। पत्रिका के लिए अर्थव्यवस्था पर बनवारी जी ने लिखा भी। जनसत्ता ने शीर्षकों में जो बांकपन दिया, वह अखबारों में जड़ता तोड़ने की बड़ी कार्रवाई था। बाद में और अखबार (फिर टीवी) भी उसी रास्ते पर चले। लेकिन मैंने बनवारी जी से उलटी प्रतिक्रिया जाहिर की। मैंने कहा, जनसत्ता ने पुरानी शीर्षक शैली (राष्ट्रपति उपवास रखेंगे) को बांकपन (उपवास रखेंगे राष्ट्रपति)से बदला। लेकिन अगर हर शीर्षक के साथ वही बर्ताव किया जाता है तो एक जड़ता तोड़कर आप जल्दी ही नई जड़ता कायम करने लगेंगे। बनवारी जी को मेरी बात जंची। हालांकि उसका खास असर देखने में नहीं आया, पर इस तरह जनसत्ता से मेरा जुड़ाव बना। जनसत्ता में प्रभाष जी मुझे तेईस साल पहले लाए। यह प्रसंग तफसील में पहले लिख चुका हूं। 1989 में मैंने जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण का जिम्मा सम्हाला, तब जनसत्ता छह साल पुराना अखबार था। चंडीगढ़ संस्करण को दो साल हुए थे। वितरण के हिसाब से एक शिखर पर पहुंचने का कीर्तिमान बहुत जल्द धुंधला चुका था। जनसत्ता जब शुरू हुआ, पंजाब का खालिस्तानी भटकाव पंजाब ही नहीं, पंजाब के बाहर भी हिंदू मानस को गोलबंद कर रहा था। हिंदी-पंजाबी के नाम पर खालिस्तान की मुहिम ने हिंदू-सिख भावनाओं को ही हवा दी। फिर आॅपरेशन ब्लू-स्टार हुआ। स्वर्णमंदिर पर टैंक चढ़े। सिख समाज का तीर्थ अकाल तखत लगभग ध्वस्त हो गया। हरमंदिर साहब के स्वर्ण-पटल गोलियों से छिद गए। दुर्दांत भिंडरांवाले सहित बड़ी तादाद में आतंकवादी भी मारे गए। चूंकि खालिस्तान के अलगाववादी खेल से सारा देश त्रस्त था, धर्मस्थल में सैनिक कार्रवाई की इंदिरा गांधी की ‘ऐतिहासिक भूल’ (जिसे कालांतर में कांग्रेस ने भी माना) को प्रभाष जी ने कुछ भावुक होकर देखा। मुझे याद है, उस वक्त मैं जयपुर में केसरगढ़ (पत्रिका मुख्यालय) के टेलीप्रिंटर कक्ष में ‘टिकर’ को टकटकी लगाए देख रहा था। ब्लू-स्टार की कार्रवाई संपन्न हो चुकी थी। उस रोज सिर्फ एक व्यक्ति ने स्वर्णमंदिर में सेना की कार्रवाई का विरोध किया था। चंद्रशेखर ने, जो कुछ वर्ष बाद प्रधानमंत्री हुए। प्रभाष जी ने पहले पन्ने पर सैनिक कार्रवाई का स्वागत करते हुए लेफ्टिनेंट जनरल रणजीत सिंह दयाल को ‘पूरे देश की ओर से’ सत श्री अकाल कहा। जनरल दयाल सिख अधिकारी थे, जिन्होंने (जनरल बराड़ के साथ) ब्लू-स्टार की योजना बनाई और उसे ‘सफलतापूर्वक’ अंजाम दिया। हालांकि प्रभाष जी ने तब भी पंजाब समस्या के राजनीतिक हल की जरूरत पर बल दिया था, पर ‘आॅपरेशन’ को उन्होंने जायज बताया: ‘‘स्वर्ण मंदिर की देखादेखी काशी विश्वनाथ या तिरुपति का मंदिर या दिल्ली की जामा मस्जिद आज नहीं तो कल ऐसे किले बन जाते।... स्वर्ण मंदिर में सेना का घुसना कितना ही दुखदाई हो पर अनिवार्य था क्योंकि स्थापित होना था कि राष्ट्र के खिलाफ काम करने वाला कोई भी मंदिर राष्ट्र से ऊपर नहीं है।’’ ब्लू-स्टार के बाद देश में घटनाओं-हादसों का सिलसिला-सा चला: श्रीमती गांधी की हत्या, सिखों का कत्लेआम, खालिस्तान की मांग का दबदबा, राजीव गांधी की ताजपोशी, संत लोंगोवाल की हत्या, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सत्ता, मंडल-कमंडल, नरसिंह राव, बाबरी ध्वंस, अटल राज...। जनसत्ता का धारदार तेवर उसे ऊंचा उठाता गया। लेकिन प्रसार के मामले में जो कीर्तिमान श्रीमती गांधी की हत्या के बाद के दौर में बना, वह वापस कभी देखने को नहीं मिला। उसके नाम पर ताने जरूर आज तक सुनने को मिलते हैं- कि देखिए, एक वह वक्त था! वक्त बदलते हैं। और लोग भी। आॅपरेशन ब्लू-स्टार के प्रभाष जी बाबरी ध्वंस के बाद एक अलग अवतार में सामने आए। उदात्त, मगर निर्मम। जनसत्ता निरा खबर लेने-देने वाला अखबार नहीं रहा। वह समाचार से ज्यादा विचार के लिए जाना जाने लगा। संघ परिवार और हुड़दंगी-बजरंगी शिव सैनिकों के छद्म और क्षुद्र हिंदुत्व की प्रभाष जी ने अनंत बखिया उधेड़ी। अपनी जान पर खेल कर एक विचार के लिए हिंसक मानसिकता से जूझने का दूसरा उदाहरण पत्रकारिता के इतिहास में ढूंढ़े नहीं मिलेगा। ‘पेड न्यूज’ के मामले में पत्रकारिता के भ्रष्टाचार से लड़ना उनके उसी अवतार का दूसरा बाजू था। और जीते रहते तो वे उस मुहिम को तार्किक परिणति पर न सही तार्किक मोड़ तक जरूर ले आते, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं। कुमार गंधर्व के निर्भय निर्गुण स्वर सुनते हुए सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार के खिलाफ कलम के सहारे अनवरत संघर्ष का उनमें अद्भुत माद्दा था। यह माद्दा न होता तो प्रसार संख्या ढलान पर आने के बावजूद अयोध्या कांड में वह तेवर अख्तियार न करते, जिसका हवाला मैंने ऊपर दिया है। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के साथ एक बार उन हिंदुओं में भी मंदिर-राग फूट पड़ा था, जो सांप्रदायिक नहीं थे। उस हवा की फिक्र न कर धार्मिक उन्माद की घड़ी में उन्होंने अपने दायित्व की परवाह की। 1993 में जब जनसत्ता के दस वर्ष हुए, हरियाणा के सुनसान-से ‘पर्यटक-स्थल’ दमदमा साहब में उन्होंने वरिष्ठ सहयोगियों की एक बैठक की। प्रादेशिक अखबारों के प्रसार के बीच जनसत्ता अपनी भूमिका बरकरार रखते हुए क्या परिवर्तन करे, इस पर विचार हुआ। सुबह हाफ-फेंट पहन कर हाथ में जंगली झाड़ी वाली छड़ी लिए वे पास की पहाड़ी पर चढ़ गए। दिल के मरीज थे (चंद महीनों बाद बाइपास हुआ), इसके बावजूद उनका यह दुस्साहसी उपक्रम जनसत्ता के सहयोगियों के समक्ष किसी पराक्रम से कम नहीं था। सहयोगियों से भी शायद वे ऐसे ही जीवट और एडवेंचर की आशा करते थे। पर सहयोगियों में एडवेंचर की किस्में भिन्न थीं। कुछ सहयोगियों को उन्होंने बाद में खुद अशोभनीय आरोपों के चलते शहर से- किसी को अखबार से ही- रुखसत कर दिया। लोकतंत्र में मेरी आस्था कम नहीं, पर प्रभाष जी अपने स्वभाव में अति-लोकतांत्रिक थे। वे किसी को छूट देते थे और छुट्टा छोड़ देते थे। इससे जिम्मेवारी का अहसास बढ़ता ही होगा। पर कुछ मनमानी का खतरा भी पलता था। चंडीगढ़ मैं दस वर्ष रहा। काम की इतनी आजादी कि मंडल आंदोलन भड़का तो दैनिक के पन्नों पर मैंने मंडल आयोग की पूरी की पूरी रिपोर्ट सरल अनुवाद में छाप दी। इसलिए कि लोगों को पता चले उस रिपोर्ट में सचमुच क्या है और क्या नहीं। शायद वह मेरा भावोद्रेक था। वरना राष्ट्रीय दैनिक के प्रादेशिक संस्करण को एक आयोग की रिपोर्ट का पोथा छापने की क्या गरज! दूसरी मिसाल देखिए। प्रभाष जी अयोध्या जुनून के बरखिलाफ थे। बाबरी विध्वंस पर आहत और विचलित थे। लखनऊ से हमारे सहयोगी हेमंत शर्मा अयोध्या पहुंचे। वे जानते थे कि प्रभाष जी का दृष्टिकोण क्या है। वे कहते हैं, ‘‘छह दिसंबर को जब मैंने अयोध्या के एक पीसीओ से प्रभाष जी को बाबरी ध्वंस की जानकारी देने के लिए फोन किया... प्रभाष जी रोने लगे। कुछ देर चुप रहे। फिर कहा- यह धोखा है, छल है, कपट है। यह विश्वासघात है। यह हमारा धर्म नहीं है। हम इन लोगों से निपटेंगे।... दूसरे रोज प्रभाष जी ने लिखा: राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम की रघुकुल रीति पर कालिख पोत दी।...’’ (साहित्य अमृत में हेमंत का लेख, बाद में राजकमल से प्रकाशित प्रभाष पर्व में संकलित) एक रिपोर्टर को संपादक की ओर से- बल्कि उनके श्रीमुख से- इससे साफ लाइन नहीं मिल सकती। लेकिन मित्रवर हेमंत ने उस घड़ी जनसत्ता की सेवा कम की, कारसेवकों की शायद ज्यादा। और पाठकों का नहीं पता, मैं चंडीगढ़ में बैठा अपने अखबार में अयोध्या की रिपोर्टिंग देखकर हैरान था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने बनवारी जी को फोन कर अपनी राय प्रकट की। हालांकि वे अखबार का विचार पक्ष देखते थे, समाचार का पहलू हरिशंकर व्यास के जिम्मे था। वर्षों बाद हेमंत को अपने काम पर खेद-सा अनुभव हुआ। उसी लेख में उन्होंने लिखा: ‘‘मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि अयोध्या से भेजी जाने वाली खबरों में मैं प्रभाष जी से उलट लाइन ले रहा था, क्योंकि जमीनी उत्साह और जन आक्रोश का मुझ पर प्रभाव था। फिर विहिप ने मुस्लिम तुष्टीकरण के सवाल पर देशभर में जो आंदोलन खड़ा किया था, उसका आधार इतना व्यापक था कि मैं भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।’’ हेमंत कहते हैं कि प्रभाष जी ने संपादकीय सहयोगियों से साफ कहा कि मैंने एक लाइन ली है, इसे खबरों की लाइन न समझा जाए। प्रभाष जी ने उन्हें ‘रामभक्त पत्रकार’ घोषित कर दिया, जनसत्ता में ही अपने लेखों में उन्हें इस नाम से संबोधित किया। उनकी खबरों को खारिज करते हुए संपादकीय लिखे। हेमंत बताते हैं, मैं पूरे आंदोलन में प्रभाष जी की लाइन के खिलाफ था। वे ठीक कहते हैं कि रिपोर्टर को इतनी आजादी कोई संपादक नहीं देगा। हेमंत ने यह भी लिखा है कि दुर्भाग्यवश प्रभाष जी के बाद के संपादक इसे समझ नहीं पाए। जाहिर है, मैं भी उनमें शामिल हूं। मैं प्रभाष जी की बराबरी का साहस अपने खयालों के पल्लू से भी दूर समझता हूं। पर हेमंत से सहमत हूं। मैं प्रभाष जी की जगह होता तो हेमंत की पहली रिपोर्ट देखने के बाद उनसे बात करता और डेस्क को भी चौकन्ना करता। हो सकता है यह भी कहता कि अपने इस जनसत्ता-सेवक का यही हाल रहे तो हर कापी मुझसे ओके करवाएं (इस तरह उन्हें भावी पछतावे से भी उबारता); शायद एक दूसरा संवाददाता भी वहां तैनात करता (तब तो स्टाफ बहुत था!)। खबरों और लेखों में बहुत फासला होता है, जो बना रहना चाहिए। यही नहीं कि वह मामला कितना नाजुक था। संवाददाता की आजादी तथ्यों के साथ भावना में बहने की छूट नहीं देती। आजादी के साथ बुनियादी जिम्मेवारी बुरी तरह चिपकी हुई है। फिर अखबार के दफ्तर में संवाददाताओं के अलावा तीस-पैंतीस दूसरे सहयोगी काम करते हैं। आजादी का यह भावुक रूपक अखबार में तथ्यों से लेकर वर्तनी तक की मनोरंजक और लोमहर्षक अराजकता पैदा कर सकता है। पर प्रभाष जी यह जोखिम ले सकते थे। यह उनकी महानता थी। शायद सहयोगी ही उनकी परीक्षा लेते थे और प्रभाष जी हमेशा उस पर खरे उतरते थे। लोग प्रसार को लेकर अखबार की बात करते हैं तो मुझे बरबस वितरण विभाग के प्रबंधक या टीवी चैनलों के टीआरपी-प्रेमी संपादक-प्रबंधक खयाल आने लगते हैं। प्रसार न अखबार की गुणवत्ता की कसौटी है, न संपादक की प्रतिभा की। किसी शरीफ के विवेक को क्या आप उसके बैंक-बैलेंस से नापेंगे? मेहरबानी कर इसे आज जनसत्ता के कम प्रसार की कैफियत न समझें। कारण कई हैं। पर थोड़े सही, अच्छे पाठक जनसत्ता को हासिल हैं। उनकी संख्या बढ़ेगी। जो दिल छोटा ही किए बैठे रहते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि कुछ वर्ष पहले जनसत्ता के निंदक सुबह-शाम उसके बंद होने की बात करते थे। उनके मुंह फिलहाल बंद हैं। अखबार का आकार और पन्ने बढ़े हैं। एजंसियों पर निर्भरता घटी है। चंडीगढ़ संस्करण फिर शुरू हो गया है। हिंदी के उत्कृष्ट लेखक जनसत्ता के लिए लिख रहे हैं। खबरों का पहलू कमजोर है, पर वह भी जल्द बेहतर होगा। अफवाहों के चलते कुछ योग्य साथी अलग हो गए। पर नए सहयोगी जुड़ेंगे। लेकिन देखने की असल बात यह है कि जनसत्ता अपने संस्थापक-संपादक के बुनियादी नजरिए और सरोकारों पर कायम है या नहीं। जवाब मिलेगा- हां। दुराग्रह छोड़कर देखें तो अखबारों की भीड़ में जनसत्ता आज भी अलग नजर आएगा। इसमें कोई शक न हो कि देर-सबेर जनसत्ता और प्रभाष जी के समानधर्मा ही प्रभाष-परंपरा को आगे बढ़ाएंगे। फिरकापरस्त नरसंहार के प्रतीक-पुरुष नरेंद्र मोदी में देश की रहनुमाई देखने वाले नहीं। अंत में रह-रह कर बंद-बंद का राग जपने वाले शुभचिंतकों से इल्तिजा: जनसत्ता एक संस्था है और संस्थाएं ऐसे नहीं डिगतीं। जिन्हें आदतन शुबहा है, भले वे दिन में तीन बार डम-डम डिगा-डिगा सुनें या गाएं।jansatta

No comments:

Post a Comment