Saturday, August 4, 2012

लाल मिटटी का कच्चा रास्ता

अंबरीश कुमार निवाडी के आगे बढ़ने पर दूर एक महल दिखा पर यह साफ़ नहीं था कि यह गढ़ कुंडार है या कोई और । बरसात जारी थी और सड़क खाली । बीच में कही कही बकरियों के झुंड आ जाते । अचानक एक रपटा ( छोटी नदी या बरसाती नाला पर बना पुल ) नजर आया जिसके दाहिने ओर बरगद का बड़ा सा पेड़ देखकर सविता ने रुकने को कहा । इस बीच सड़क पर कुछ बकरिया भी आ गई । चारो ओर हरियाली देखते बनती थी । सड़क भी धुली हुई । कुछ ही देर में फिर बरसात शुरू हो गई ।शाम हो चुकी थी और काले बदल उसे और गहरा कर रहे थे ।कुछ देर बाद किला दूर दिखा पर जो सड़क किले की तरफ जा रही थी पर किले का रास्ता बताने वाला बोर्ड उसके बजाय बाएं तरफ एक कच्चा रास्ता की ओर इशारा कर रहा था ।सविता कच्चे रस्ते पर उतर गई और रास्ता दिखाने लगी ।कुछ देर में ही एक गाँव भी आया जिसमे दर्जन भर कच्चे मकान नजर आए । रक युवक दिखा तो उसे कुछ पूछने की कोशिश की गई पर वह ज्यादा बता नहीं पाया । कच्चा रास्ता और लाल मिटटी ।सविता को लगा यह लाल मिट्टी लेकर चला जाए पर रखने के लिए कोई बैग नहीं था । अब किले का उपरी हिस्सा दिखने लगा था जो एक टूटा हुआ बुर्ज था । पर रास्ता बहुत ही उबड़ खाबड़ और चारो ओर पत्थर फैले हुए । कोई कुछ बताने वाला नहीं । दूर एक महिला बकरियां चराती नजर आई तो सविता ने उसे बुन्देलखंडी में आवाज दी और कुछ देर में वह सामने थी । पानी की एक बोतल और डंडे के साथ । रास्ते भर जितने भी चरवाहे दिखे सभी पानी की बोतल के साथ नजर आए । सववान के जो झूले दिखे वह भी रस्सी नही टायर जोड़कर बनाए हुए थे । वैसे भी गाँव गाँव में दो चीज ऐसी दिखी जो ठीक से पहुंचा दी गई है जिसमे एक सेब है तो दूसरी शराब । एक दवा का विकल्प है तो दूसरी दारू । तीन चार दशक पहले गाँव में सब तभ आता था जब कोई बीमार हो । पर जो कई बदलाव हुए है उनमे एक यह भी है । खैर वह गडरिया महिला सामने आ गई थी और सविता उससे बात करती रही जो ठेठ बुन्देलखंडी में थी जो मै ज्यादा समझ नहीं पा रहा था । बाद में एक पथरीले रास्ते की तरफ उस महिला ने इशारा किया जो सीधी चढ़ाई वाला था । उस यास्ते पर चलना मुश्किल था ड्राइवर को भेजा आगे जाकर असता देखे जाया जा सकता है या नहीं । ड्राइवर ने लौट कर बताया इतनी बड़ी गाड़ी जा नहीं पाएगी । सविता ने कहा ,पैदल चलते है । मैंने कहा ,बरसात कभी भी हो सकती है और पैदल जाने में अँधेरा हो जाएगा । अब कई पुरानी रोमांचक यात्रा को फिर दोहराना नहीं चाहता हूँ । बाद में जब पढ़ा कि इस किले में बिना गाइड के जाने पर बाहर निकलना मुश्किल है तब समझा आया कि एक और संकट से बच गए वर्ना सविता की जिद में पहले भी मौत के मुंह से वापस आ चुके है ( चकराता और गोवा के जंगल में फंस चुके है ) इसलिए ठीक ही फैसला रहा । जब किले से चले तो अँधेरा हो चूका था और झाँसी में सविता का घर जाना भी मुश्किल था क्योकि सैट बज चुके थे और बरसात बढती जा रही थी । अंबर का टेस्ट था इसलिए देर रात लखनऊ पहुंचना जरुरी था । इसलिए कही नहीं रुके और रात डेढ़ बजे घर लौट चुके थे । पर वह किला बार बार दिमाग में उमड़ रहा था । इस किले के बारे में वृन्दालाल वर्मा ने अपनी पुस्तक में जो लिखा है उसका एक अंश आप भी पढ़े - तेरहवीं शताब्दी का अंत निकट था, महोबे में चंदेलों की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसको आज बुंलेदखंड कहते हैं, उस समय उसे जुझौति कहते थे। जुझौति के बेतवा, सिंध और केन द्वारा सिंचित और विदीर्ण एक बृहत् भाग पर कुंडार के खंगार राजा हुरमतसिंह का राज्य था।कुंडार, जो वर्तमान झाँसी से पूर्व-पूर्वोत्तर कोने की तरफ तीस मील दूर है, इस राज्य की समृद्धि-संपन्न राजधानी थी। कुंडार का गढ़ अब भी अपनी प्राचीन शालीनता का परिचय दे रहा है। बीहड़ जंगल, घाटियों और पहाड़ों से आवृत्त यह गढ़ बहुत दिनों तक जुझौति को मुसलमानों की आग और तलवार से बचाए रहा था।महोबा के राजा परमर्दिदेव चंदेल के पृथ्वीराज चौहान द्वारा हराए जाने के बाद से चंदेले छिन्न-भिन्न हो गए। पृथ्वीराज ने अपने सामंत खेतसिंह खंगार को कुंडार का शासक नियुक्त किया। उसी खेतसिंह का वंशज हरमतसिंह था। हरमतसिंह लड़ाकू, हठी और उदार था। परंतु वृद्धावस्था में उसकी उदारता अपने एकमात्र पुत्र नागदेव के निस्सीम स्नेह में परिवर्तित हो गई थी। नागदेव प्रायः बेतवा के पूर्वी तट पर स्थित देवरा, सेंधरी माधुरी और शक्तिभैरव के जंगलों में शिकार खेला करता था। सेंधरी और माधुरी अभी बाकी हैं, शक्तिभैरव, जो पूर्वकाल में एक बड़ा नगर था, आजकल लगभग भग्नावस्था में है। वर्तमान चिरगाँव से पूर्व की ओर छः मील पर एक घाट देवराघाट के नाम से प्रसिद्ध है। देवरा का और कुछ शेष नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में देवरा एक बड़ा गाँव था। अब तो खोज लगाने पर विशाल बेतवा-तल की ऊँची करार पर कहीं-कहीं पुरानी ईंटे और कटे हुए पत्थर, गड़े हुए मिलते हैं। कुंडार से आठ मील उत्तर की ओर देवरा की चौकी चमूसी पड़िहार के हाथ में थी, जो हुरमतसिंह का एक सामंत था। बेतवा के पश्चिमी तट पर देवल, देवधर (देदर), भरतपुरा, बजटा सिकरी रामनगर इत्यादि की चौकियाँ भरतपुरा के हरी चंदेल के हाथ में थीं। इसकी गढ़ी भरतपुरा में थी। यह बेतवा के पश्चिमी किनारे पर ठीक तट के ऊपर थी। यहाँ से कुंडार का गढ़ पूर्व और दक्षिण के कोने की पहाड़ियों में होकर झाँकता-सा दिखाई पड़ता था। अब उस गढ़ी के कुछ थोड़े से चिह्न हैं। किसी समय इस गढ़ी में पाँच सौ सैनिकों के आश्रय के लिए स्थान था। वर्तमान भरतपुरा अब यहाँ से दो मील उत्तर-पश्चिम के कोने में जा बसा है। प्राचीन गढ़ी के पृथ्वी से मिले हुए खंडहर में अब वन्यपशु विलास किया करते हैं, और नीचे से बेतवा पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है। यही हालत बजटा की है। केवल कुछ थोड़े-से चिह्न-मात्र रह गए हैं। तेरहवीं शताब्दी में बजटा अहीरों की बस्ती थी, जो खेती कम करते थे और पशु-पालन अधिक। देवल में, तेरहवीं शताब्दी में, देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर था। पुराना देवल मिट गया है, और उसका पुराना देवालय भी। केवल कुछ टूटी-फुटी मूर्तियाँ वर्तमान देवल के पीछे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। पुराने देवल के धुस्स बेतवा के बैजापारा नामक घाट के पश्चिमी कूल पर फैले हुए हैं, जो खोज लगाने पर भी नहीं मिलते। कभी-कभी कोई गड़रिया बरसात में यहाँ पर भेड़-बकरी चराता-चराता कहीं कोई स्थान खोदता है, तो अपने परिश्रम के पुरस्कार में एक-आध चंदेली सिक्का या चंदेली ईंट पा जाता है। देवधर का नाम देदर हो गया है। रामनगर, सिकरी इत्यादि मौजूद हैं, परंतु अपने प्राचीन स्थानों से बहुत इधर-उधर हट गए हैं। कुछ तो इसका कारण बेतवा की प्रखर धार है, जिसने लाखों बीघे भूमि काट-कूटकर भरकों में लौट-पलट कर दी है, और कुछ इसका कारण आक्रमणकारियों की आग और तलवार है। आजकल देवराघाट के पूर्वी किनारे पर, जिसके मील-भर पीछे दिग्गज पलोथर पहाड़ी है, करधई के जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परंतु जिस समय का वर्णन हम करना चाहते हैं, उस समय वहाँ कुछ भूमि पर खेती होती थी। शेष आजकल की तरह वन था। पीछे पहाड़, बीच में हरी-भरी खेती और इधर-उधर जंगल। उसके बाद नील तरंगमय दो भागों में विभक्त बेतवा। एक धारा देवल के पास से निकलकर देवधर (वर्तमान देदर) के नीचे पश्चिम की ओर देवरा से आधा मील आगे चलकर पूर्व की ओर दूसरी धार से मिल गई है। दोनों भागों के बीच लगभग एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा एक टापू बन गया है, जिसे अब बरौल का सूँड़ा कहते हैं। इसके दक्षिणी सिरे पर शायद खंगारों के समय से पहले की एक छोटी-सी गढ़ी और चहारदीवारी बनी चली आती थी, जो अब बिलकुल खंडहर हो गई है। आजकल इसमें तेंदुए और जंगली सुअर विहार करते हैं। देवल, देवरा और देवधर में बड़े-बड़े मंदिरों की काफी संख्या थी। दुर्गा और शिव की पूजा विशेष रूप से होती थी। इन मंदिरों की रक्षा के लिए और कुंडार में मुसलमानों और अन्य शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन सब चौकियों में खंगारों के करीब दो सहस्र सैनिक रहा करते थे। टापू की चौकी किशुन खंगार के आधिपत्य में थी। कुंडार-राज की सेना में पड़िहार, कछवाहे, पँवार, धंधेरे, चौहान, सेंगर, चंदेले इत्यादि राजपूत और लोधी, अहीर, खंगार इत्यादि जातियों के लोग थे। खास कुंडार में करीब बाईस सहस्र पैदल और घुड़सवार थे। शक्तिभैरव नगर इस नाम के मंदिर के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध था। दो सौ वर्ष के लगभग हुए, तब मंदिर बिलकुल ध्वस्त हो गया था। कहते हैं, ओरछा के किसी संपन्न अड़जरिया ब्राह्मण को शिव की मूर्ति ने स्वप्न में दर्शन देकर अपना पता बतलाया था और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करा दिया था। यह मंदिर शक्ति, भैरव और महादेव का था। मंदिर के अहाते के एक कोने में भैरवी-चक्र की एक शिला अब भी पड़ी हुई है। उस नगर के वर्तमान भग्नावशेष को लोग आजकल सकतभैरों कहते हैं। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इस नगर की कुछ श्री शेष रही। परंतु उसके पश्चात् एकदम उसका अंत हो गया। वहाँ के अनेक वैश्य और सुनार झाँसी, चिरगाँव और अन्यान्य कस्बों में चले गए और वहाँ ही जा बसे। यद्यपि जुझौति का सब कुछ चला गया, मान-मर्यादा गई, स्वाधीनता गई, समृद्धि गई, बल-विक्रम भी चला गया-तो भी चंदेलों के बनाए अत्यंत मनोहर और करुणोत्पादक मंदिर और गढ़ अब भी बचे हुए हैं और बची हुई हैं चंदेलों, की झीलें, जिनके कारण यहाँ के किसान अब भी चंदेलों का नाम याद कर लिया करते हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य जिनका सौंदर्य और भयावनापन अपनी-अपनी प्रभुता के लिए परस्पर होड़ लगाया करता है, अब भी शेष है। पलोथर की पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखनेवाले को कभी अपना मन सौंदर्य के हाथ और कभी भय के हाथ में दे देना पड़ता है। ऐसा ही उस समय भी होता था, जब संध्या समय पलोथर के नीचे बेतवा के दोनों किनारों पर शंख और घंटे तथा कुंडार के गढ़ से खंगारों की तुरही बजा करती थी। और अब भी है जब पलोथर की चोटी पर खड़ा होकर नाहर अपने नाद से देवरा, देवल, भरतपुरा इत्यादि के खंडहरों को गुंजारता और बेतवा के कलकल शब्द को भयानक बनाता है। अब कुंडार में तुरही नहीं बजती। उसमें करधई का इतना घना जंगल है कि साँभर, सुअर और कभी-कभी तेंदुआ भी छिपाव का स्थान पाते हैं।

No comments:

Post a Comment