Sunday, August 26, 2012

दलितवादी नजरिए से मार्क्सवाद को देखती 'जयभीम कामरेड' ?

अंबरीश कुमार
लखनऊ , २६ अगस्त । देश में दलितों के उत्पीडन और शोषण के बावजूद सांस्कृतिक और राजनैतिक चेतना उभर रही है और कई जगह प्रतिरोध के लिए लामबंद भी हो रहे है । यह बात मशहूर फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन की हिंदी में डब की गई मराठी डाक्यूमेंट्री फिल्म ' जय भीम कामरेड ' का उत्तर प्रदेश में पाहले प्रदर्शन के बाद हुए संवाद में उभर कर आई । राजनैतिक कार्यकर्त्ता ,रंगकर्मी ,साहित्यकार छात्र ,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सवालों से घिरे आनंद पटवर्धन ने एक सवाल के जवाब में कहा -मेरी फिल्मे ही मेरी पालटिक्स है । ' महाराष्ट्र में दलितों के साथ होने वाले जातीय भेदभाव , शोषण और उनमे उभर रही सांस्कृतिक चेतना को दर्शाने वाली इस फिल्म में आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के अंतरविरोधो पर भी रौशनी डाली गई है । इस मौके पर उत्तर प्रदेश के दलित चिंतको और नेताओं ने कहा यह फिल्म आत्ममंथन के लिए मजबूर करती है । यह डाक्यूमेंट्री सनतकदा और अमन ट्रस्ट की तरफ से हुए दो दिन के फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई थी । इस डाक्यूमेंट्री को लेकर उमानाथ बली प्रेक्षागृह में जो संवाद हुआ उसमे राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कौशल किशोर ने कहा -जिस तरह महाराष्ट्र के दलितों के बारे में इस डाक्यूमेंट्री में दिखाया गया है ठीक वैसे हालत से हम लोग भी यहाँ गुजर चुके है । इस राजधानी लखनऊ की सीमा में ही एक दलित युवती के साथ सिर्फ इसलिए बलात्कार किया जाता है क्योकि दातून बेचने वाला उसका पिता अपनी बेटी के विवाह की तैयारी कर रहा था और गाँव के दबंगों को यह नागवार गुजरा की किसी दलित के घर बारात आए आर लोग कुर्सी मेज पर बैठ कर खाना खाए । उन्होंने आदेश दिया कि लड़के घर जाकर विवाह करे यहाँ बारात नहीं आएगी । जब वह नहीं माना तो उसक बेटी के साथ बलात्कार कर उसे सबक सीखाया गया । पर अब इतनी राजनैतिक चेतना आ चुकी है कि वहा दलित भी अगड़ों के साथ बराबरी कर रहा है । रंगकर्मी राकेश ने कहा कि हम इसे महज एक डाक्यूमेंट्री मानने को तैयार नहीं है । हम चाहते है कि इसे बाकायदा फीचर फिल्म की तरह रलीज किया जाए और हम इसमे मदद को भी तैयार है । राजनैतिक विशेषक अजय सिंह ने कहा -यह जो फिल्म है वह रैडिकल अम्बेदारवादी एकजुटता की वकालत करती है और दलितवादी निगाह से मार्क्सवाद व वामपंथ को देखती समझती है ।यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है जो वैचारिक रूप से बहसतलब है आनद पटवर्धन ने मुझे बताया था कि वे गाँधीवाद और मार्क्सवाद के बीच झूलते रहते है हूँ जो इस फिल्म में नजर भी आता है । इस फिल्म में पटवर्धन ने आंबेडकर के बौद्ध ग्रहण करने के सन्दर्भ में यह सवाल नहीं पूछा कि उन्होंने इस्लाम धर्म क्यों नहीं कबूल किया । दलित चिंतक एसआर दारापुरी ने महाराष्ट्र का सन्दर्भ देते हुए पूछा कि सांस्कृतिक चेतना तो बढ़ी पर वह किसी राजनैतिक ताकत में बदलती नजर नही आई । रंगकर्मी राकेश ने कहा कि हम इसे महज एक डाक्यूमेंट्री मानने को तैयार नहीं है । हम चाहते है कि इसे बाकायदा फीचर फिल्म की तरह रलीज किया जाए और हम इसमे मदद को भी तैयार है । जानेमाने आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा -निश्चित रूप से आनंद की यह फिल्म दलित प्रश्न को उसकी समग्र जटिलता में प्रस्तुत करती है । यह प्रश्न भी ज्वलंत रूप से प्रस्तुत होता है कि आखिर भारत में वामपंथी आंदोलन जाति आधारित शोषण को अपनी वर्गीय शोषण की अवधारणा में पूरी तरह से क्यों समाहित नहीं कर पाया ? आखिर क्यों मराठी गायक ,संस्कृतिकर्मी और वामपंथी दलित विलास भोगरे को आत्महत्या की त्रासदी से गुजरना पड़ता है ? और सांस्क्रतिक गतिविधियों के जरिए हाशिए के समाज में चेतना जाग्रत करने वाली पुणे के संस्था कबीर कला मंच के सदस्यों को राज्य की दमनकारी कार्यवाही से बचने के लिए भूमिगत होना पड़ता है ?और यह भी कि नामदेव ढसाल जैसा दलित कवि कैसे शिवसेना के मंच पर स्वयं को सहज महसूस करता है ? दलितों के राजनीतिक अधिग्रहण के प्रश्न को भी फिल्म पुरी संश्लिष्टता के साथ उजागर करती है । अपने समग्रता में यह फिल्म दलित प्रश्न पर एक थीसिस सरीखी है । जरूरत इस बात की है कि वाम पार्टियां दलित मुद्दे पर महज रस्मअदायगी न कर उन दलित मुद्दों पर सक्रिय हों जो उनके जीवन के मूलभूत अस्तित्व से जुड़े हैं । इसके लिए शोषण की जातिगत वास्तविकता को वामपंथी चिंतन का हिस्सा बनाना होगा । यह दंभ भरा नजरिया है कि दलितों को वामपंथ अपनाना चाहिए जरूरत इस बात की है कि वामपंथ दलित समाज और उनके मुद्दों से रूबरू हो . वाम नेतृत्व को आत्मालोचना की जरूरत है जिससे वह अभी भी मुंह चुरा रहा है । बाद में आनंद पटवर्धन ने कहा -मैंने जितनी भी डाक्यूमेंट्री बनाई सभी को लेकर विवाद हुआ और संघर्ष करना पड़ा । लोगों पर जो अत्याचार हो रहा है वह सामने आना चाहिए । उन्होंने आंबेडकर बनाम गाँधी के विवाद पर कहा कि इस बारे में और शोध की जरुरत है । खासकर गाँधी को लेकर दलितों और वामपंथियों में जो द्वेष नजर आता है । संविधान लिखने के लिए गाँधी ने आंबेडकर का नाम लिया जबकि कांग्रेस में इसे लेकर मतभेद था । गांधी पुराने समय के आदमी थे और उनके विचार भी बदले । बाबा साहब से मिलने के बाद उनमे और बदलाव आया । हालाँकि इस डाक्यूमेंट्री में दलितों के सामाजिक राजनैतिक शोषण को मार्मिक ढंग से दर्शाया गया है । मुंबई में कूड़ा कचरा साफ़ करने वाले एक दलित नौजवान की दुर्घटना में एक आँख चली गई पर उसे कोई मुआवजा नहीं दिया गया । वह कहता है -जब गंदगी में जाकर कचरा उठाते है तो उनके पैर भी सरिया ,कांच आदि से कट जाते है .कचरे की टोकरी उठाते हुए सर पर और शरीर पर कचरा गिरता है पर मुंबई नगर पालिका उन्हें गम बूट या कैप देने के बजाय बड़ी अदालत में साठ हजार रुपए देकर वकील खड़ा करना बेहतर समझती है । कचरे वाली गाड़ी अगर ख़राब हो जाये तो उस सफाई कर्मचारी को कोई बस वाला बैठाने को तैयार नहीं होता और हाथ धोने को तो छोड़ दे कोई होटल वाला पीने के लिए पानी तक नहीं देता । इसी तरह दलित महिलाओं की त्रासदी को भी दिखाया गया है । जाने माने फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन के बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्मे सेंसर बोर्ड नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट रिलीज करता है ,यह सुनकर आनंद पटवर्धन ने सफाई देते हुए कहा -'जय भीम कामरेड ' के साथ ऐसा नहीं हुआ और कई तरह के दबाव के चलते इसे सेंसर बोर्ड ने ही पास कर दिया । मराठी में बनी 'जय भीम कामरेड ' को हिंदी में डब कर उसका एक शो लखनऊ के उमानाथ बली प्रेक्षागृह में किया गया । शो के बाद आनन्द पटवर्धन के साथ बातचीत के अंश - इस फिल्म की महाराष्ट्र के दलितों में कैसी प्रतिक्रिया हुई ? -बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया देखने को मिली । यह फिल्म दलितों के दमन और शोषण के साथ सांस्कृतिक आन्दोलन पर फोकस है । वैसे भी यह फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है जो सन् 1997 में महाराष्ट्र में हुए 10 दलितों की हत्या के बाद के हालात पर आधारित है। यह फिल्म तीन घंटे बीस मिनट की है और इसके बावजूद मुंबई की दलित बस्तियों में लोगों ने इसे खड़े होकर देखा । अगर कुर्सियां लगाईं जाती तो एक कुर्सी का भाडा दस रुपए पड़ता जो उनके लिए किसी फिल्म देखने के लिए संभव नहीं था । फिल्म में कई जगह सवाल उठते और कुछ अधूरापन सा दिखता है -मै जब फिल्म बनता हूँ तो लिखकर नही बनाता हूँ । दूसरे मै फिक्शन नही डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता हूँ । हो सकता है कि फिल्म को एक बार देखने से बहुत सी बाते समझ मी ना आ पाए । बहुत सी बातों को मैंने अंडरलाइन भी नहीं किया है । फिल्म में दलित आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का अंतर्विरोध भी दिखाई पड़ता है ? इस फिल्म में एक दलित शायर जो मार्क्सवादी है वह जब आत्महत्या करता है तो उसके सिर पर लाल नहीं नीली पट्टी लिपटी होती है । यह बहुत कुछ बताती है । वह लेफ्ट मूवमेंट से भी बाहर कर दिया जाता है । वामपंथियों के नेतृत्व में भी कास्ट का सुपर स्ट्रक्चर नजर आता है । आपकी राजनैतिक धारा क्या है ? मेरी राजनीति मेरी फिल्मो में दिखती है । मै कभी किसी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं रहा । इसकी एक वजह यह भी है कि मै किसी पार्टी के अनुशासन से बंध कर नहीं रह सकता । यह मेरी कमजोरी है । मेरी फिल्मों का इस्तेमाल कोई भी दल कर सकता है । जिस तरह दलितों का सवाल आपने उठाया है उससे आपका मुंबई में विरोध नहीं होता ? नही ,क्योकि मेरा समर्थन बहुत लोग करते है । वैसे भी हर दल को दलित वोटों की जरुरत होती है उनकी विचारधारा चाहे जैसी हो । इस फिल्म की पृष्ठभूमि में दलित आंदोलन का भी असर रहा ? करीब डेढ़ दशक से मै सब देख भी रहा हूँ । महाराष्ट्र में दलित उत्पीडन का पुराना इतिहास है और उनका यह आंदोलन एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी उभरा है । दूसरे आम जनता और नेता के बीच विभाजन बढ़ा है । जनता यह मान रही है कि नेता बिक चूका है । इस फिल्म में भी मैंने नेताओं का सिर्फ भाषण लिया है जो बदलता रहता है । दलित आंदोलन में लोक संस्कृति का भी असर दिखा है खास कर इस फिल्म में कबीर कला मंच के कार्यक्रमों को देख कर ? हा, दलित आंदोलन को उभारने में महाराष्ट्र की लोक संस्कृति का काफी असर पड़ा है और इसने लोगों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । किस तरह की फिल्मे बनाई है ? पिछले तीन दशक से फिल्में बना रहा हूं जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक से हुई । जयप्रकाश आंदोलन के दौर से जो शुरुआत हुई वह आगे बढ़ती गई । सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई जा चुकी हैं। आपकी फिल्मो का अर्थशास्त्र क्या है ,क्या ऎसी फिल्मो की लागत निकल आती है ? देर सबेर हर फिल्म अपनी लागत भी निकल देती है और कुछ मिल भी जाता है । ज्यादातर फिल्मो को पुरुस्कार मिल चुका है और दूरदर्शन को ऎसी फिल्मो के लिए आधे घंटे के हिसाब से डेढ़ लाख का भुगतान करना पड़ता है जिससे काफी कुछ निकल आता है । हालाँकि इसके लिए भी बहुत लड़ना पड़ता है । इसके अलावा फिल्मो की सीडी से भी कुछ पैसा आ जाता है ।हमने यह भी देखा कि अगर मै थियेटर में प्रदर्शन करूँ तो लोगों से पैसा मिल सकता है ।यह प्रयोग मैंने किया और लोग बड़ी संख्या में मेरी फिल्म देखने आए । इसलिए यह नहीं माना जाना चाहिए कि इन डाक्यूमेंट्री फिल्मो से नुकसान होता है । पर कभी मुख्यधारा की फिल्म बनाने का ख्याल नही आया ? उसके लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। फाइनेंसर से लेकर और भी कई तरह की जरुरत पूरी करने में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।हमारी अपनी सीमाएं हैं। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं समाज का यथार्थ दिखाता हूँ जिसमे नेताओं का कहा होता है ।

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