Wednesday, August 15, 2012

जातीय भेदभाव से तो मुक्त रहा था छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ में जनसत्ता के अपने पुराने सहयोगी अनिल पुसदकर ने कल एक कमेन्ट किया था जातिवाद को लेकर .बचपन से अबतक कई राज्यों में रहने का मौका मिला पर यह समस्या उत्तर प्रदेश में ज्यादा दिखी .मुंबई में महाराष्ट्र के साथ गुजराती छात्र छात्राओं के साथ बचपन गुजरा पर ऐसा कुछ नहीं महसूस हुआ .लखनऊ विश्विद्यालय में चुनाव के दौरान चेतक से लेकर जनेऊ तक चर्चा में रहे हालाँकि चुनाव पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं दिखा .दिल्ली में लामबंदी बिहारी बनाम गैर बिहारी की ज्यादा रही .पर मुझे इसका बहुत ज्यादा अनुभव नहीं हुआ .सबकी खबर ले ,सबको खबर दे का नारा गढ़ने वाले जनसत्ता के तत्कालीन ब्यूरो चीफ कुमार आनंद जो मुजफ्फरपुर के रहे हम लोगों के नेता रहे और नजरिया भी राष्ट्रीय रहा .रायपुर में जनसत्ता शुरू करने के लिए जो टेस्ट लिया उसमे भारती यादव सब पर भारी थी .छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता में ब्राह्मन काफी है पर उनके अलावा अन्य तबके के लोग भी है जिनमे आदिवासी से लेकर पिछड़े और दलित भी है .अपने यहाँ भी हर वर्ग के लोग थे .अपनी मंडली में टाइम्स के लव कुमार ,हिन्दुस्तान टाइम्स के प्रदीप मैत्रा,हिन्दू की आरती धर ,डेक्कन हेराल्ड के अमिताभ और पीटीआई के प्रकाश होता आदि थे .तब वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र ने यह सलाह जरुर दी की तकनीकी और सम्पादकीय स्टाफ में कुछ मुस्लिम जरुर रखूं क्योकि छत्तीसगढ़ में लोग कुछ ज्यादा ही उत्सव प्रेमी रहे है और इसका अनुभव होली में हो गया जब कई लोग हफ्ते भर बाद होली मनाकर लौटे .यदि कुछ मुस्लीम कम्पोजीटर न होते तो अख़बार निकलना मुश्किल था .सम्पादकीय विभाग में तो लोगों को घर से बुला लिया था .लेकिन इस पूरे दौर में कोई जातीय भेदभाव नजर नहीं आया .कई की जाती क्या है यह तो मै आजतक जान भी नहीं पाया जिनमे अपनी दक्षिण भारत के राजकुमार सोनी हो या महाराष्ट्र के अनिल पुसदकर .जिलों में भी कई जगह आदिवासी और दलित संवादाता रखे गए .सम्पादकीय स्टाफ में टेस्ट पास करने वाली आधी लडकिय थी जिनमे निवेदिता चक्रवर्ती सिर्फ इंटर पास थी और मै उसे रखने के पक्ष में नहीं था पर उसकी मां जब मिली और परिवार की समस्या बताई तो उस बच्ची को भी स्टाफ में जह मिल गई और वह काफी तेज भी निकली .बाकी देवांगन से लेकर उरांव ,नायक आदि अलग रहे .छत्तीसगढ़ आन्ध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र और ओड़िसा से लगा है और इन राज्यों के लोग भी शहरी आबादी में घुलमिल गए है .पुसदकर बता रहे है कि बहुत बदल गया है ,पता नहीं इधर काफी दिन से गया नहीं .जब रहा तो प्रदीप मैत्रा के घर हिल्सा,मेरे यहाँ सरसों -और चेरी टमाटर की रोहूँ और प्रकाश होता की पत्नी मौसमी की बनाई उड़िया ढंग की मछली और झींगे के लिए समूची मंडली जुटती थी .कई शाकाहारी भी थे मसलन चितरंजन खेतान और लव कुमार आदि .पर कभी जातीय गुटबाजी नजर नहीं आई .जनसत्ता में भी राजनारायण मिश्र ,संजीत त्रिपाठी ,अनुभूति ,संजीव गुप्ता ,भारती ,विनोद पटेल ,सोनी और अनिल पुसदकर आदि में भी कोई ऐसा रुझान नहीं दिखा .अब कितना बदलाव आया होगा कह नहीं सकते .यह अनुभव सिर्फ मीडिया के सन्दर्भ में है .बाकि राज्य में सतनामी बनाम गैर सतनामी या आदिवासी बनाम गैर आदिवासी का सवाल अलग है .

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