Friday, August 31, 2012

मुंबई में विरोध नहीं -आनन्द पटवर्धन

अंबरीश कुमार
जाने माने फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन के बारे में कहा जाता है कि उनकी फिल्मे सेंसर बोर्ड नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट रिलीज करता है ,यह सुनकर आनंद पटवर्धन ने सफाई देते हुए कहा -'जय भीम कामरेड ' के साथ ऐसा नहीं हुआ और कई तरह के दबाव के चलते इसे सेंसर बोर्ड ने ही पास कर दिया । मराठी में बनी 'जय भीम कामरेड ' को हिंदी में डब कर उसका एक शो लखनऊ के उमानाथ बली प्रेक्षागृह में किया गया । शो के बाद आनन्द पटवर्धन के साथ बातचीत के अंश - इस फिल्म की महाराष्ट्र के दलितों में कैसी प्रतिक्रिया हुई ? -बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया देखने को मिली । यह फिल्म दलितों के दमन और शोषण के साथ सांस्कृतिक आन्दोलन पर फोकस है । वैसे भी यह फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है जो सन् 1997 में महाराष्ट्र में हुए 10 दलितों की हत्या के बाद के हालात पर आधारित है। यह फिल्म तीन घंटे बीस मिनट की है और इसके बावजूद मुंबई की दलित बस्तियों में लोगों ने इसे खड़े होकर देखा । अगर कुर्सियां लगाईं जाती तो एक कुर्सी का भाडा दस रुपए पड़ता जो उनके लिए किसी फिल्म देखने के लिए संभव नहीं था । फिल्म में कई जगह सवाल उठते और कुछ अधूरापन सा दिखता है -मै जब फिल्म बनता हूँ तो लिखकर नही बनाता हूँ । दूसरे मै फिक्शन नही डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाता हूँ । हो सकता है कि फिल्म को एक बार देखने से बहुत सी बाते समझ मी ना आ पाए । बहुत सी बातों को मैंने अंडरलाइन भी नहीं किया है । फिल्म में दलित आंदोलन के साथ मार्क्सवाद का अंतर्विरोध भी दिखाई पड़ता है ? इस फिल्म में एक दलित शायर जो मार्क्सवादी है वह जब आत्महत्या करता है तो उसके सिर पर लाल नहीं नीली पट्टी लिपटी होती है । यह बहुत कुछ बताती है । वह लेफ्ट मूवमेंट से भी बाहर कर दिया जाता है । वामपंथियों के नेतृत्व में भी कास्ट का सुपर स्ट्रक्चर नजर आता है । आपकी राजनैतिक धारा क्या है ? मेरी राजनीति मेरी फिल्मो में दिखती है । मै कभी किसी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं रहा । इसकी एक वजह यह भी है कि मै किसी पार्टी के अनुशासन से बंध कर नहीं रह सकता । यह मेरी कमजोरी है । मेरी फिल्मों का इस्तेमाल कोई भी दल कर सकता है । जिस तरह दलितों का सवाल आपने उठाया है उससे आपका मुंबई में विरोध नहीं होता ? नही ,क्योकि मेरा समर्थन बहुत लोग करते है । वैसे भी हर दल को दलित वोटों की जरुरत होती है उनकी विचारधारा चाहे जैसी हो । इस फिल्म की पृष्ठभूमि में दलित आंदोलन का भी असर रहा ? करीब डेढ़ दशक से मै सब देख भी रहा हूँ । महाराष्ट्र में दलित उत्पीडन का पुराना इतिहास है और उनका यह आंदोलन एक सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी उभरा है । दूसरे आम जनता और नेता के बीच विभाजन बढ़ा है । जनता यह मान रही है कि नेता बिक चूका है । इस फिल्म में भी मैंने नेताओं का सिर्फ भाषण लिया है जो बदलता रहता है । दलित आंदोलन में लोक संस्कृति का भी असर दिखा है खास कर इस फिल्म में कबीर कला मंच के कार्यक्रमों को देख कर ? हा, दलित आंदोलन को उभारने में महाराष्ट्र की लोक संस्कृति का काफी असर पड़ा है और इसने लोगों को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । किस तरह की फिल्मे बनाई है ? पिछले तीन दशक से फिल्में बना रहा हूं जिसकी शुरुआत सत्तर के दशक से हुई । जयप्रकाश आंदोलन के दौर से जो शुरुआत हुई वह आगे बढ़ती गई । सांप्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई जा चुकी हैं। आपकी फिल्मो का अर्थशास्त्र क्या है ,क्या ऎसी फिल्मो की लागत निकल आती है ? देर सबेर हर फिल्म अपनी लागत भी निकल देती है और कुछ मिल भी जाता है । ज्यादातर फिल्मो को पुरुस्कार मिल चुका है और दूरदर्शन को ऎसी फिल्मो के लिए आधे घंटे के हिसाब से डेढ़ लाख का भुगतान करना पड़ता है जिससे काफी कुछ निकल आता है । हालाँकि इसके लिए भी बहुत लड़ना पड़ता है । इसके अलावा फिल्मो की सीडी से भी कुछ पैसा आ जाता है ।हमने यह भी देखा कि अगर मै थियेटर में प्रदर्शन करूँ तो लोगों से पैसा मिल सकता है ।यह प्रयोग मैंने किया और लोग बड़ी संख्या में मेरी फिल्म देखने आए । इसलिए यह नहीं माना जाना चाहिए कि इन डाक्यूमेंट्री फिल्मो से नुकसान होता है । पर कभी मुख्यधारा की फिल्म बनाने का ख्याल नही आया ? उसके लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। फाइनेंसर से लेकर और भी कई तरह की जरुरत पूरी करने में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।हमारी अपनी सीमाएं हैं। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं समाज का यथार्थ दिखाता हूँ जिसमे नेताओं का कहा होता है । virodh

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