Sunday, November 27, 2011

उत्तर प्रदेश में एकजुट हुई वाम ताकते

अंबरीश कुमार
लखनऊ, नवम्बर । उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में वाम ताकते इस बार विधान सभा में अपनी मौजूदगी दर्ज करने की कवायद में जुट गई है। पिछले कई साल से वामपंथी दलों का कोई भी प्रतिनिधि न तो विधान सभा पहुंचा और न ही लोकसभा । बीती विधान सभा में माकपा के विधायक रामस्वरूप अंतिम प्रतिनिधि थे वाम ताकतों के जिसके बाद कोई भी नहीं पहुंचा । इस बार उत्तर प्रदेश के चार वामपंथी दलों भाकपा ,माकपा ,फॉरवर्ड ब्लाक और आरएसपीआई ने वाम मोर्चा बनाकर करीब सौ सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला किया है जिसमे दर्जन भर ऎसी सीटें भी है जो वामपंथी आन्दोलन का गढ़ रही है मसलन गाजीपुर ,मऊ ,वाराणसी और बिजनौर आदि की सीटे ,इन सीटों पर साझा अभियान चला कर कुछ को विधान सभा पहुँचाने की तैयारी है । पर वाम दलों के इस मोर्चे से धुर वामपंथी राजनीति करने वाले बाहर है । भाकपा माले को मोर्चे ने न्योता दिया था पर सीटों के तालमेल पर टकराव हुआ और वे इस मोर्चे से बाहर हो गए। मोर्चा नेताओं के मुताबिक हालांकि अभी भी कुछ उम्मीद है अगर वे भाकपा माकपा की परम्परागत सीटें छोड़ दे । दूसरी तरफ वाम मोर्चा जन संघर्ष मोर्चा को एक सियासी दल नहीं मानता इसलिए उनसे कोई संवाद ही नहीं किया गया । धुर वामपंथी ताकतों से यह अलगाव वाम मोर्चे की सियासी ताकत को बाँट जरुर रहा है । हालांकि भाकपा माले के अरुण कुमार ने कहा -भाकपा ने सीटों की घोषणा पहले कर दी है और हमें तो इस बार बातचीत के लिए बुलाया ही नहीं गया । अगर वे बुलाएंगे तो हम जरुर शामिल होंगे ,अभी हमने सीटों की कोई घोषणा नहीं की है ।
कभी मित्रसेन यादव से लेकर रामसजीवन जैसे तेजतर्रार सांसद लोकसभा पहुंचते थे पर पिछड़े और दलितों की गोलबंदी की नई राजनीति ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में वाम ताकतों को हाशिए पर पहुंचा दिया और एक समय तो ऐसा भी आया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का वजूद ख़त्म होते होते बचा । पिछड़ों ,मुसलमानों और दलितों के जनाधार वाली वाली वामपंथी पार्टियों का वोट बैंक समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उदय के साथ ही दरकने लगा था क्योकि दोनों ही दलों की राजनीति ने जातीय गोलबंदी को तेज कर दिया था। वाम दलों को ज्यादा नुकसान इन्ही दोनों दलों से हुआ है ,यह बात अलग है कि वाम दलों के राष्ट्रीय नेता कभी मुलायम के साथ होते है तो कभी मायावती के । पर उतर प्रदेश में वाम दलों ने फैसला किया है कि वे किसी भी पूंजीवादी दल से तालमेल नही करेंगे । वाम मोर्चा के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने कहा -वाम मोर्चा ने तय किया है कि समाजवादी पार्टी ,बसपा या कांग्रेस किसी से भी चुनावी तालमेल नहीं किया जाएगा ,इनका वर्गीय चरित्र एक जैसा है। जहां तक भाकपा माले का सवाल है इस बार भी वाम नेताओं की अनौपचारिक बैठक का न्योता उन्हें भेजा गया था पर कोई जवाब नही आया। हम अभी भी चाहते ही माले जुड़े।
उत्तर प्रदेश में वाम ताकते मजबूत आन्दोलन के अभाव में भी बिखरी। पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने दादरी आंदोलन के समय प्रदेश की सभी वामपंथी पार्टियों को किसान आन्दोलन से जोड़ दिया था पर चुनावी खेल में आन्दोलन से जड़े राजनैतिक दल बिखर गए वर्ना विधान सभा में इनकी उपस्थिति जरुर दर्ज हो जाती । इसके आड़ उत्तर प्रदेश में कोई ऐसा आन्दोलन भी नहीं उभरा जिसमे वाम ताकतों की भूमिका नजर आती जिसकी एक प्रमख वजह नेतृत्व भी मानी जाती है। वाम दलों के पास आज बड़े कद का कोई नेता उत्तर प्रदेश में नहीं है यह भी वास्तविकता है,यही वजह है कि विधान सभा और लोकसभा में उत्तर प्रदेश के किसी असरदार वामपंथी नेता की कमी महसूस होती है । यह भी दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय फलक पर पहचान बनाने वाले विश्विद्यालय की छात्र राजनीति से निकले अखिलेन्द्र प्रताप सिंह से लेकर अतुल कुमार अनजान जैसे कई महत्वपूर्ण वामपंथी नेता संसद नहीं पहुँच पाए जबकि उनसे राजनीति का ककहरा सीखने वाले लोकसभा से लेकर राज्य सभा तक पहनक चुके है । यह वाम राजनीति का दूसरा पहलू है।
इस बार विधान सभा चुनाव में वाम दलों की एकजुटता रंग ला सकती है । उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार के खिलाफ माहौल बन चूका है और समाजवादी पार्टी उसे ज्यादातर जगहों मजबूत चुनौती देती दिख रही है । पर फिलहाल किसी एक पार्टी के पक्ष में कोई लहर जैसी बात नहीं नजर आ रही है ऐसे में अन्य दलों के अलावा छोटे दलों के मजबूत उम्मीदवार भी कई जगहों पर सत्तारूढ़ दल को कड़ी चुनौती देंगे । वाम दलों को अपने परंपरागत में गढ़ में इसका फायदा मिल सकता है । jansatta

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