Sunday, November 20, 2011

मीडिया मालिक और संपादक खामोश हैं

अनिल चमड़िया
भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए प्रेस परिषद के विस्तार और उसे ताकतवर बनाने की जरूरत है।इसके अलावा उन्होंने मीडिया के व्यवहार और मीडियाकर्मियों के बौद्धिक स्तर को लेकर भी अपनी राय जाहिर की है। इसे लेकर संपादकों की जमात बेहद नाराज है। काटजू ने मीडिया के व्यवहार से जुड़े कुछ तथ्य पेश किए हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उन्होंने परिषद को ताकतवर बनाने की मांग की है। मीडिया के मालिक और संपादक उन तथ्यों को लेकर खामोश हैं।
काटजू ने मीडिया के सामाजिक सरोकार से विचलन और उसके सांप्रदायिक चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने उदाहरण के रूप में देश भर में अब तक हुए बम विस्फोटों की खबरों को लेकर मीडिया के रुख पर सवाल खड़े किए हैं। ‘देश भर में जहां कहीं बम विस्फोट की घटनाएं होती हैं, फौरन चैनल उनमें इंडियन मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत उल-अंसार जैसे संगठनों का हाथ होने या किसी मुसलिम नाम से इ-मेल या एसएमएस आने की खबरें चलाने लगते हैं। इस तरह चैनल यह जाहिर करने की कोशिश करते रहे हैं कि सभी मुसलमान आतंकवादी या बम फेंकने वाले हैं। इसी तरह मीडिया जानबूझ कर लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने का काम करता रहा है। ऐसी कोशिशें राष्ट्रविरोधी हैं।’
इसमें दो राय नहीं कि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिकता बढ़ाई गई है। देश में सांप्रदायिक दंगों का एक दूसरा रूप तैयार किया गया है। दंगे एक बार होते हैं, मगर उनका असर लंबे समय तक समाज पर रहता है। लेकिन बम विस्फोट की घटनाओं ने तो समाज में रोज-ब-रोज दंगों जैसे हालात पैदा कर दिए। मुसलमानों में जितनी असुरक्षा इस दौर में बढ़ी है वह शायद पचास वर्षों के दंगों में भी नहीं पैदा हुई होगी। इस बीच सरकारी तंत्र का भी एक नया रूप दिखाई दिया। हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकारी तंत्र के सांप्रदायिक चरित्र की तरफ इशारा किया था। उससे पहले उप-राष्ट्रपति हमीद अंसारी ने खुफिया एजेंसियों को किसी के प्रति जवाबदेह बनाने की वकालत की थी।
कई मौकों पर जाहिर हो चुका है कि प्रशासन तंत्र में जातिवादी और सांप्रदायिक पूर्वग्रह हैं। दंगों के दौरान भी उसकी भूमिका साफतौर पर अल्पसंख्यक विरोधी देखी गई है। यही बात मीडिया पर भी लागू होती है। मीडिया की वजह से दंगे भड़कने के पहलू पर कई शोध भी हुए हैं। लेकिन मीडिया ने सांप्रदायिकता को अपने विकास का आधार बनाए रखा है। बम विस्फोटों के बाद मुसलमानों के बीच आतंक फैलाने में मीडिया की भूमिका रही है। मुसलमानों से पहले सिखों की ऐसी ही छवि बनाई गई थी। जबकि खासतौर से मालेगांव की घटनाओं की विश्वसनीय जांच के बाद उसमें हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों का हाथ पाया गया है। हैदराबाद में जिन्हें मुसलमान होने के कारण पकड़ा गया था उनसे राज्य सरकार ने माफी मांगने की भी पेशकश की।
काटजू ने मीडिया के लिए जिम्मेदार संस्था के अध्यक्ष के तौर पर मुसलमानों के साथ होने वाले अलोकतांत्रिक व्यवहार पर राय जाहिर की है। सांप्रदायिक तनाव को एक हद से ज्यादा बढ़ाने में जब कभी मीडिया की भूमिका दिखाई दी तो परिषद ने जांच समितियां गठित की। मसलन, अक्तूबर-नवंबर, 1990 में समाचार-पत्रों ने खबरों के जरिए सांप्रदायिक वातावरण बनाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया तो प्रेस परिषद ने एक जांच समिति बनाई थी। आरएसएस समर्थकों के नेतृत्व में उन्मादी भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद बम विस्फोट की जितनी घटनाएं हुर्इं, उनमें मुसलमानों के हाथ होने की खबरें अंधाधुंध तरीके से प्रस्तुत की जाती रही हैं। अमेरिका में 26/11 के बाद तो जैसे भारत में विस्फोट की घटनाओं में मुसलिम आतंकवादियों को आरोपित करने की भूमंडलीय स्वीकृति-सी मिल गई।
मीडिया और पुलिस की एक सांप्रदायिक पृष्ठभूमि देखने को मिलती है। बम विस्फोटों के प्रचार से जो माहौल बना, उसमें इन दोनों के बीच खुले गठजोड़ का एक तर्क विकसित कर लिया गया। बम विस्फोट की घटनाओं के बाद मीडिया और पुलिस की भाषा में अंतर ही खत्म हो गया। मीडिया पुलिस सूत्रों और अपनी जांच में जो अंतर करती है वह खत्म हो गया। पुलिस की जांच को ही मीडिया ने अपनी जांच मान ली और पुलिस ने मीडिया को अपनी किसी भी तरह कार्रवाई और उस पर सहमति बनाने का माध्यम बना लिया। मीडिया ने किसी भी विस्फोट की अपने स्तर से जांच करने की कोशिश नहीं की। बल्कि आतंकवाद विरोधी दस्ते बम विस्फोट की घटनाओं और उनके आरोपियों को जिस तरह पेश करते रहे उन्हें व्यापक स्वीकृति दिलाने की मुहिम में मीडिया खूब सक्रिय रहा।
किसी विस्फोट के बाद पुलिस और आतंकवाद निरोधक दस्ते ने मुठभेड़ में किसी को मार गिराने के बाद जैसी सुर्खियां मीडिया को दीं, क्या उन्हें याद नहीं किया जाना चाहिए? आखिर क्या दबाव रहा मीडिया पर कि समाज में बढ़ती दूरियों की उसने परवाह करना जरूरी नहीं समझा। एक तथ्य तो यह मिलता है कि ऐसी घटनाओं को आम आपराधिक घटना की तरह मीडिया ने लिया और उन्हें आपराधिक मामलों के रिपोर्टरों के जिम्मे छोड़ दिया। सामाजिक-राजनीतिक रूप से संवेदनशील रिपोर्टरों को नहीं लगाया गया। बम विस्फोटों की रिपोर्टिंग किन परिस्थितियों में की गई, कैसे दबाव महसूस किए गए, इन पहलुओं पर एक समिति से जांच क्यों नहीं कराई जानी चाहिए? मुंबई में ताज होटल पर हमले की रिपोर्टिंग को लेकर काफी बहस हुई। इस पहलू पर भी बातें हुर्इं कि सुरक्षा बलों की जान खतरे में डाल कर रिपोर्टिंग नहीं की जा सकती। लेकिन जिस रिपोर्टिंग से सांप्रदायिक दंगों से ज्यादा भयावह असर दिखाई दे रहे हैं उस पर अध्ययन और बहस की कोई पहल क्यों नहीं होनी चाहिए?
दरअसल, ये सवाल काफी समय से उठते रहे हैं। काटजू ने उन सवालों पर बस अपनी मुहर लगाई है। मगर सवाल है कि क्या अपनी बेबाक राय जाहिर कर देना ही काफी है? मार्कंडेय काटजू को मीडिया के सांप्रदायिक चरित्र से निपटने और सामाजिक सरोकारों से लैश करने के लिए परिषद को और ताकतवर बनाने की जरूरत से पहले अपनी जिम्मेदारियों को फिर से परिभाषित करना चाहिए। दरअसल, मीडिया की ताकत जितनी बढ़ी है, उसमें परिषद के ताकतवर होने के लिए पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के समर्थन की जरूरत है।
पेड न्यूज को लेकर परिषद ने पहल की थी और उसे चंद मीडिया मालिकों के दबाव में अपना रुख बदलना पड़ा था। प्रेस परिषद का रिश्ता पहले पाठकों-दर्शकों से है, लेकिन वह पाठकों की तरफ कभी मुखातिब नहीं होती है। उसके सारे कामकाज अंग्रेजी में होते हैं। पाठकों-दर्शकों की स्वतंत्रता ही मीडिया की स्वतंत्रता है। मगर मीडिया मालिक और पत्रकार दो अलग-अलग स्वतंत्रताओं पर जोर देते हैं। दूसरी बात कि मार्कंडेय काटजू सरकार को संबोधित करने में घबराए-से दिखते हैं। आखिर उन्होंने मीडिया की जैसी भूमिका की चर्चा की है, सरकार का उसे बढ़ावा देने का रुख रहा है। इसके राजनीतिक कारण भी हैं। सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एक निगरानी विभाग बनाया है, उसकी क्या उपयोगिता साबित हुई है? जिस तरह से अवैज्ञानिक, अंधविश्वास और धोखाधड़ी को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम और विज्ञापन आते हैं, उनमें से कितनों को धंधे उठा लेने को बाध्य किया गया है? परिषद को एक स्वायत्त संस्था के रूप में सक्रिय दिखना चाहिए, वरना सरकारी भोंपू का विशेषण पाने में देर नहीं लगती!जनसत्ता

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