Wednesday, June 6, 2012

यादों में आलोक

हिमांशु वाजपेयी रामगढ़ जाने से पहले ही वहां के बारे में इतना कुछ सुन चुका था कि वो जगह लगभग जानी पहचानी थी. भले ही अंबरीश कुमार ने बड़ी विनम्रता के साथ इसे नकार दें लेकिन मित्र समूह में उन्हें रामगढ़ के ब्रांड एंबेसडर के बतौर भी जाना जाता है. पिछले कुछ सालों में उन्होने लगातार अपने यात्रा-वृत्तांतों,किस्सागोई,तस्वीरों आदि के जरिए अपने बेशुमार जानने वालों को रामगढ़ की ओर रूख करने पर मजबूर कर दिया है. कुछ को तो इस कदर कि उन्होने वहां स्थाई तौर पर बसने की तैयारी भी कर ली. इन्ही में से एक थे धुरंधर पत्रकार आलोक तोमर.जिन्हे रामगढ़ की आब-ओ-हवा इतनी रास आई कि उन्होने फौरन ही नैनीताल के पास के इस छोटे से गांव में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीद डाला . उनका कहना था कि ये जगह रचनात्मकता का स्वर्ग है. यदि यहां रह कर स्वतंत्र लेखन किया जाए तो कलम का कमाल देखने लायक होगा. आखिर यूंही थोड़ी रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपने सपनों वाले शांति निकेतन के लिए इस जगह को चुना था, महादेवी ने यहां अपनी साहित्य साधना की कुटिया बनाई थी, निर्मल वर्मा यहां के परिवेश पर उपन्यास लिखा करते थे और दिलीप कुमार अगर अभिनेता न होते तो यहां कौवे उड़ा रहे होते...आलोक तोमर भी यहां न जाने क्या-क्या करते अगर दुनिया-ए-फानी से कूच न करते...अंबरीश कुमार जैसे उनके कई दोस्त रामगढ़ में बसे हुए हैं, अजीत अंजुम और आलोक जोशी जैसे कई दोस्त यहां आने की तैयारी में हैं, सिर्फ आलोक तोमर नहीं हैं, लेकिन उनके किस्से,कहानियां,कमाल और शैतानियां सब दोस्तों के ज़हन में महफूज़ हैं जो रामगढ़ की हवा लगते ही खुशबू की तरह फैल जाती हैं. ऐसी ही खुशबू रामगढ़ में 26-27 मई को बिखरी जब आलोक तोमर और लिखने पढ़ने से बराबर की कुर्बत रखने वाले कुछ लोग यहां इकट्ठा हुए और यादों वाले कई लिफाफे खुले. जितने दिन से अंबरीश कुमार को जानता हूं लगभग उतने ही दिन से रामगढ़ को भी जानता हूं. साल-हा-साल अंबरीश जी ने रामगढ़ के बारे में ज़हन की ज़मीन पर ऐसा समां बांधा है कि वहां जाना तो बरसों पहले तय हो चुका था, बस किसी मौके की तलाश थी जो रामगढ़ की यात्रा को ज़हन पर हमेशा के लिए नक्श कर दे. खुश-किस्मती से इस साल वो मौका आ गया. जनवरी-फरवरी के आस पास अंबरीश जी ने बताया कि आलोक तोमर की पहली बरसी पर रामगढ़ में आलोक जी को जानने-पढ़ने वालों की एक छोटी सी अनौपचारिक बैठक रखना चाहते हैं..चूंकि जल्दी ही फरवरी-मार्च का समय विधानसभा चुनावों की वजह से बहुत मसरूफियत भरा हो गया इसलिए ऐसा तय हुआ कि सब लोग मई के आस पास मिल सकते हैं.जो भी आना चाहें.किसी को निमंत्रण नहीं लेकिन सबका स्वागत है. 27 मई की तारीख मुकर्रर हुई. अंबरीश जी उससे काफी पहले ही मेज़बान की भूमिका में आ गए थे.इसलिए नहीं कि कार्यक्रम उनका था,(कार्यक्रम तो हम सबका था) बल्कि इसलिए कि जगह रामगढ़ थी. चूंकि पहाड़ों ने बुलाया था इसलिए सीएनबीसी आवाज़ के आलोक जोशी तय तारीख से काफी पहले ही रामगढ़ पहुंच चुके थे. बाकी मै, आशुतोष सिंह और साथी पुष्पेंद्र 26 को दोपहर में पहुंचे थे. कुछ देर बाद ही न्यूज 24 के अजीत अंजुम, आउट लुक की गीताश्री और वर्धा विश्वविद्यालय के विभूति नारायण राय भी पहुंच गए थे.तहलका के राजकुमार सोनी उसी दिन देर रात और न्यूज़ 24 के मयंक सक्सेना, एनडीटीवी के दिनेश मनसेरा,जनसत्ता के प्रयाग पांडे अगले दिन कार्यक्रम के ठीक पहले ही वहां पहुचे थे. अपने अनुभव की बात करूं तो पहाड़ो का जादू हल्द्वानी के बाद से ही चढ़ने लगा था. रामगढ़ के पूरे रास्ते यही तासीर रही. मन चीड़ और देवदार के दरमियां रहा. और जब रामगढ़ में कदम रखा तो लगा कि जैसे पहाड़ो का जादू अपनी मंज़िल पर आ गया है.अमूमन ऐसा होता है कि जिस जगह या आदमी के बारे में आपने बहुत कुछ अच्छा अच्छा सुन रखा होता है, आमना-सामना होने पर वह दीर्घकालिक छवि टूट सी जाती है.लेकिन रामगढ़ के सन्दर्भ में ठीक उलट हुआ. इसके बारे में मैने बहुत कुछ सुना था लेकिन जितना सुना था यह उससे कई गुना ज्यादा सुंदर था. मुक्तेशवर और नैनीताल जैसे नामचीन पर्यटन स्थलों के करीब होने के बावजूद ये जगह उनसे ज्यादा ठंडी और सुकून वाली है. नैनीताल जाने वाले हर सैलानी को मेरी ताकीद रहेगी कि कयाम रामगढ़ में ही करे. शायद पिछले कुछ सालों में इसी का चलन भी है तभी रामगढ़ में यकायक कई रिसार्ट्स और लाज खुल गए हैं. जिनमें से एक अकबर अहमद डंपी का सिडार लाज भी है. और इसी के करीब अपनी मंज़िल भी थी. चारों तरफ पहाड़,हरियाली,चिड़ियों का कलरव, खुशगवार फिज़ा और इनके बीच में अंबरीश कुमार का छोटा सा घर जिसे खुद आलोक तोमर ने राइटर्स काटेज का नाम दिया था.इसे देखते ही मैने अम्बरीश जी से कहा- ‘इस जगह पर रह कर तो बिना पढ़ा लिखा भी कविता करने लगे आप यहां होकर बेकार में साहित्य से दूरी की बात करते हैं.’ राइटर्स काटेज में ही मैने पहली बार फलदार सेब,आड़ू और प्लम के पेड़ों को देखा. बाकी फलों को पकने में तो कुछ वक्त था लकिन पेड़ से तोड़कर एकदम ताज़े प्लम्स खाने का मौका मुझे ज़रूर मिल गया. मेरे साथ आलोक जोशी जी के सुपुत्र निन्टू थे. उसी शाम सब लोग रामगढ़ के वयोवृद्ध रस्तोगी साहब से मिलने गए,इस बीच आशुतोष जी शाम के लिए चिकन तैयार करने में लगे रहे. रास्ते भर आलोक जोशी मुझे पहाड़ों के जन-जीवन की विशेषताएं बताते रहे.और फिर रस्तोगी जी के दरवाजे तक पहुंचे. रस्तोगी जी अपने आप में एक दिलचस्प शख्सियत हैं. 97 साल की उम्र में भी रस्तोगी जी एकदम फिट हैं और अपनी 92 साल की पत्नी के साथ 1930 से सुकून से रामगढ़ में रहते हैं.उनके पिता जी ने कुख्यात सुल्ताना डाकू को फांसी की सजा सुनाई थी. रस्तोगी साहब से बात करना ऐसा है जैसे खुद इतिहास से बातचीत हो रही हो. इतिहास में हम लोग पढ़ते आए हैं कि सिकन्दर के काल में आए यूनानी सैलानियों ने लिखा है कि तब भारत में दरवाज़ों पर ताले नहीं लगते थे लेकिन बकौल रस्तोगी जी उन्होने ऐसा वक्त खुद अपनी आंखों से देखा है जब रामगढ़ में ताला लगाना आदत में ही नहीं था.हालांकि वह ये भी जोड़ते हैं कि वो ज़माना बहुत पहले धुआं हो गया. 26 तारीख को देर शाम राइटर्स काटेज में दोस्तों की महफिल जमी जिसमें मेरे साथ अंबरीश जी,अजीत अंजुम,गीता श्री, आलोक जोशी,विभूति नारायण राय थे. इसके अलावा दूसरे छोर के पास लगे झूले के इर्द गिर्द निन्टू और जिया बचपने में मुब्तेला थे. ये शाम आशुतोष सिंह के लज़ीज़ चिकन, आलोक जोशी की ज़हीन जुमलाकशी और विभूति नारायण राय साहब के आलोक तोमर और उपेंद्र नाथ अश्क से जुड़े संस्मरणों के नाम रही जिनके बारे में अलग से विस्तार में लिखा जाएगा. इस बीच एक और बड़ी घटना हुई. निन्टू ने सौ सुनार की एक लोहार की तर्ज पर जिया के एक पंच मार दिया था जिससे जिया का दांत हिल गया था. खैर बड़ों के मान-मनौव्वल के बाद दोनों में दोस्ती हो गई लेकिन कोई भी ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि गल्ती किसकी थी. इसके बाद नशिस्त नीम-बर्खास्त हो गई और सिर्फ मै अंबरीश जी आलोक जोशी साहब बचे. इसलिए क्योंकि राजकुमार सोनी रास्ते में थे और उन्हे तकरीबन साढ़े बारह बजे पहुंचना था इसलिए हम लोगों का जगते हुए उनका इंतज़ार करना लाज़िम था.सोनी के आने तक अंबरीश जी,आलोक जी और मेरे बीच नवभारत के कारसेवक पत्रकारों से लेकर इब्ने सफी,जासूसी दुनिया और दुर्गा भाभी के स्कूल तक पर चर्चा हुई. इसके बाद राजकुमार सोनी के आगमन और भोजन के बाद ही इस रात्रिकालीन सभा का समापन हुआ. अगले दिन महादेवी सृजन पीठ में मीडिया की भाषा पर परिचर्चा थी.सभी लोग तय वक्त पर पहुंच चुके थे. मयंक सक्सेना भी छड़ी टेकते हुए जैसे तैसे आ पहुंचे थे. कार्यक्रम राजकुमार सोनी के संचालन में शुरू हुआ. सभी लोगों ने बारी बारी आलोक तोमर और मीडिया की भाषा पर अपने अपने विचार रखे.परिचर्चा का निष्कर्ष इस रूप में निकला कि मौजूदा दौर में मीडिया की भाषा को लेकर एक नए प्रयोग और आंदोलन की जरूरत है. इस संबंध में वर्धा विश्वविद्यालय को एक प्रस्ताव भेजने की बात भी हुई.इसी शाम विभूति नारायण राय और अजीत अंजुम की तरफ से एक महफिल सजी जिसमें एक बार फिर आशुतोष के बनाए चिकन और राजकुमार सोनी के गाने की धूम रही.मार्कन्डेय काटजू को भी मनोरंजक तरीके से याद किया गया. इसके बाद सबने मिल कर भोजन किया और सभा का समापन हुआ.अगली सुबह रामगढ़ से वापस जाने वालों की थी. मगर दोबारा आने के चिराग रौशन थे... कश्मीर न देख पाने का रंज रामगढ़ देख कर फिलहाल कुछ कम हो गया है.

No comments:

Post a Comment