Wednesday, June 20, 2012

मछुआरों का गांव तो कही खो गया

अंबरीश कुमार विवेकानंद मेमोरियल का अतिथिगृह का परिसर काफी बड़े इलाके में फैला हुआ था और कमरे भी बिना तामझाम वाले किसी अच्छे धर्मशाला की तरह के थे । यहाँ से सुबह और शाम दोनों समय सूर्योदय व सूर्यास्त दिखने के लिए बस जाती थी । सुबह की चाय ,नाश्ता और भोजन का समय भी निर्धारित था । जमीन पर बैठकर बहुत दिन बाद यहाँ भोजन किया तो गांव की शादी बारात याद आ गई । तब यह अतिथिगृह समुन्द्र तट से दूर निर्जन इलाके में था । इस बार जब हम कन्याकुमारी के बाजार में दाखिल हुए तो पहला झटका इस अतिथिगृह को देखकर लगा जो बाजार का हिस्सा बन चुका था । कन्याकुमारी अब कोई गांव नही है बल्कि छोटे से शहर में बदल चुका है । भीडभाड और ट्रैफिक की समस्या के चलते वहाँ को समुन्द्र तट से पहले एक पार्किंग में खड़ा करना पड़ा जो केरल सरकार के अतिथिगृह से लगा था । बगल में तमिलनाडु पर्यटन विभाग का होटल है जिसके सामने तब जो खुला खुला समुन्द्र नजर आता था वह अब उतना खुला नही रह गया है । नब्बे के दशक में जब सविता के साथ यहाँ आया था तो इसी होटल के सामने वाले सूट में रुका था । बड़ी सी बालकनी में झूला लटका हुआ था जिसपर देर रात तक बैठकर समुन्द्र को देखा करते थे । रात में सिर्फ लहरों की आवाज ही सुनाई पड़ती थी । पर अब तो यह कंक्रीट का जंगल बन चुका है । भीड़ इतनी की हर जगह लाइन लगाना पड़े । विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर जाने के लिए तिरुपति मंदिर जैसे दो घंटे कतार में खड़ा रहना पड़ा तब मोटरबोट पर चढ़ने का मौका मिला । अब विवेकानद रॉक मेमोरियल की वह भव्यता नही रह गई जो पहले थी । तीन समुन्द्र के संगम में पहले चारो तरफ से यही मेमोरियल दिखता था पर अब दक्षिण पूर्व में एक चट्टान पर प्रसिद्ध तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर की विशाल प्रतिमा इसे पीछे कर देती है ।इस प्रतिमा को तैयार करने में पांच हजार से ज्यादा शिल्पकार जुटे थे । इसकी ऊंचाई 133 फुट है, जो कि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित काव्य ग्रंथ तिरुवकुरल के 133 अध्यायों का प्रतीक है। समुन्द्र तट से करीब दस मिनट में मोटर बोट से विवेकानंद रॉक मेमोरियल पहुंचे तो वह भी भीड़ । चारो ओर समुन्द्र देख कर पुरानी यादें ताजा हो गई।सामने का शहर अब मछुआरों का गांव नही बल्कि एक अत्याधुनिक शहर की तरह दिख रहा था । तट पर समुन्द्र के पास तक बड़ी बड़ी इमारते बन चुकी थी जो दूर तक नजर आ रही थी । जबकि पिछली बार यह नारियल के घने जंगलों से घिरा एक द्वीप जैसा लगा था । करीब दो घंटे बाद वापस लौटे तो कन्याकुमारी मंदिर देखने के लिए फिर लाइन । टिकट लेने के बावजूद घंटा भर लग गया । आकाश ने भीतर जाने से मना कर दिया क्योकि पुरुष कमर से ऊपर कोई कपडा पहन कर नही जा सकते है ।कन्या कुमारी अम्मन मंदिर समुद्र तट पर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस मंदिर का मुख्य द्वार केवल विशेष अवसरों पर ही खुलता है, इसलिए उत्तरी द्वार से इस मंदिर में प्रवेश करना होता है। करीब 10 फुट ऊंचे परकोटे से घिरे वर्तमान मंदिर का निर्माण पांड्य राजाओं के काल में हुआ था। देवी कुमारी पांड्य राजाओं की अधिष्ठात्री देवी थीं। मंदिर से कुछ दूरी पर सावित्री घाट, गायत्री घाट, स्याणु घाट एवं तीर्थघाट बने हैं। इनमें विशेष स्नान तीर्थघाट माना जाता है। घाट पर सोलह स्तंभ का एक मंडप बना है। देवी की नथ में जडा हीरा इस मंदिर का मुख्य आकर्षण है । जिसे लेकर कई किस्से भी है कि कभी इसकी चमक से समुन्द्री जहाज के नाविक इसे लाईट हाउस की रोशनी समझ लेते थे । पर यह कहानी ही ज्यादा लगती है । अब यह मंदिर भी बाजार के बीच में है और आसपास कई दक्षिण भारतीय रेस्तरां और शंख सीप आदि की दुकाने है । वह कन्याकुमारी जो पहले देखा था वह नही मिला । न ही नारीयल के हरे विस्तार दिखे और न कई रंग के रेत वाला समुन्द्र तट । सब घिर गया है सीमेंट की दीवारों से । देश के अंतिम छोर पर तीन समुन्द्र तट का यह संगम अब बाजार में बदल चुका है जिससे जल्द बाहर निकलना चाहता था । करीब एक घंटे बाद जब नारीयल के पेड़ों से घिरे टेढ़े मेढे रास्तों पर लौटे तो एसी बंद कराकर शीशा खोला तो ताजी हवा से रहत मिली । शाम ढल चुकी थी और आगे एक बाजार में सजा हुआ चर्च दिखा जिसकी रोशनी देखते बनती थी । पर इस कन्याकुमारी को देखकर मन खराब हो चुका था । यह विकास की नई अवधारणा का एक और उदाहरण नजर आया ।

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