Saturday, June 16, 2012

मेहदी हसन की याद

ओम थानवी मेहदी हसन के न रहने पर क्या भारत-पाकिस्तान, दुनिया भर के संगीत-प्रेमी गमगीन हुए हैं? राजस्थान से उनका नाता लड़कपन में ही छूट गया था, पर एक रात चंडीगढ़ में उनसे मांड में ‘केसरिया बालम...’ सुना तो लगा था कि अल्लाहजिलाई बाई के बाद मांड गाने का हक खान साहब को ही पहुंचता है। गाने को तो ‘केसरिया बालमा...’ करके लता जी ने भी गाया, पर न गातीं तो भी चलता। बहरहाल, उस शाम खान साहब ने पीजीआई आॅडीटोरियम में जितनी गजलें गायीं, सब शास्त्रीय रागों में निबद्ध थीं। भैरवी, यमन, मियां की मल्हार, झिंझोटी... हर गजल से पहले उन्होंने राग का सरगम सुनाया। पूरी गायकी से पहले हिंदुस्तानी शास्त्रीय तहजीब पर एक अपेक्षया लंबी तकरीर भी की। यह भरोसा जाहिर करते हुए कि ये राग-रागिनियां कयामत तक खत्म न होंगे। मेरे पास उस शाम की रेकार्डिंग है। उस शाम की यह बात भूले नहीं भूलती कि आॅडीटोरियम के मंच पर बूढ़े शेर की तरह खान साहब ने मंच पर जैसे ही प्रवेश किया, सारा हॉल पांव पर खड़ा हो गया। और यह हाल देर तक बना रहा। स्वागत की ऐसी और इतनी खड़े-पांव तालियां जीवन में मैंने दुबारा नहीं देखी-सुनी हैंं। अगले रोज चंडीगढ़ में खान साहब के साथ बैठकी हुई। देर रात तक, सेक्टर सात में हरियाणा के तत्कालीन मुख्य सचिव बीएस ओझा के घर पिछवाड़े वाले बगीचे में। खान साहब के सम्मान में भोज का आयोजन था। ओझा फरमाइश कर बैठे कि कुछ गायकी हो जाए। खान साहब ने उनकी बात पर कान न दिया। ओझा जी मचल गए। उन्होंने मेहदी हसन को चंडीगढ़ लिवा लाने वाले अधिकारी और गजलगो रमेंद्र जाखू (अब अतिरिक्त मुख्य सचिव) को पकड़ा। वे जाखू के बॉस थे। जाखू हिम्मत करके खान साहब के पास आए और गुजारिश की। मैं और मेरी पत्नी बगल में ही बैठे थे। देखा, खान साहब बिफर गए। जाखू गए तो बोले- ‘मिरासी समझ रखा है! खाने में गाना नहीं होगा।’ खान साहब वैसे मिरासी बिरादरी के जरूर थे, पर उस समुदाय की पारंपरिक शादी-ब्याह, समारोहों वाली गायकी से ऊपर उठ कर मंच पर और अपनी शर्तों पर गाते थे। हमें साफ लगा कि मजलिस में तनाव पैदा हो गया है। ओझा जी का चेहरा बुझ गया था, हालांकि फिर वह एक पुराने नौकरशाह की तरह अंत तक वैसा ही बना रहा। फिर अनुनय-विनय हुई। आखिरकार मेजबान की हालत भांप कर खान साहब ने अपने बेटे कामरान को कहा, तुम कुछ गा दो। हालांकि वह विलायती साज पर अपने अब्बा का साथ देने आया था। उसने अब्बा की ही कुछ गजलें सुनार्इं। उसके गाने के दौरान मेहमानों का हंसी-ठट्ठा देखा तब भी मेहदी हसन बेचैन हुए, पर इसे झेल गए। मेहदी हसन मय के शौकीन थे। सिगरेट भी बहुत पीते थे। जब मेहमान चले गए तब भी हम खान साहब और उनकी बीवी के साथ बतरस में मशगूल थे। बेटे के अलावा अपनी बेटी को भी वे साथ लाए थे। मेरी पत्नी प्रेमलता से खान साहब ने शाम को पूछ लिया था, राजस्थान की हो? वे बोलीं- ‘हां।’ ‘तो फेर मारवाड़ी क्यूं न बोलो?’ और फिर हम लोग मारवाड़ी में बतियाने लगे। वे शेखावाटी लहजे की मारवाड़ी बोलते थे, हम बीकानेर की तरफ की। दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। वैसे बीकानेर से भी उनकी खूब वाक्फियत थी। ‘रेशमा बठे की ही है’ (रेशमा वहीं की तो है), उन्होंने कहा था। संगीत में उच्च शिक्षा मेरी पत्नी ने हासिल की है, पर उस शाम मैं खान साहब से ज्यादा बोलता रहा। मैंने हिम्मत कर कह भी कह डाला कि आपकी आवाज में जो खुरदुरापन है वह उसे कलात्मक बनाता है, वरना मीठा तो बहुत लोग गाते मिलते हैंं। यह भी कहा कि मुझे गुलाम अली पसंद नहीं। उन्होंने इतना ही कहा कि सब अपने ढंग से गाते हैंं। कितना बड़प्पन था। बड़े कलाकार की निशानी। मुझे खयाल आया, एक बार चंडीगढ़ शताब्दी में गुलाम अली मिल गए थे। मैंने जब पूछा कि मेहदी हसन साहब के क्या हाल हैंं तो उन्होंने सीधे मुंह जवाब नहीं दिया था। मेहदी हसन राजस्थान का अपना गांव लूना (स्थानीय बोली में लूणो, अब झुंझनूं जिले में) भले छोड़ गए थे, पर अपनी भाषा नहीं भूले थे। कोई नहीं भूलता। उन्होंने बातचीत की चलत में यह भी कहा था कि किसी रोज लूना जाकर मां की कब्र पर पत्थर लगवाना चाहता हूं, क्या मैं इसमें कोई मदद कर सकता हूं। मैंने कहा था, जब आप उधर का कार्यक्रम बनाएं तब जरूर बताएं। तब भैरोंसिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री थे। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे। उनका हवाला भी मैंने खान साहब को दिया था। पता नहीं वे अपनी इच्छा पूरी कर पाए या नहीं। जब उनके शहर कराची गया, तो उनसे जानने की ख्वाहिश थी। पर मिलना नहीं हो सका, क्योंकि वे इलाज के लिए अमेरिका गए हुए थे। अब मिलना कभी हो भी नहीं सकेगा। मिलें तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें। पर उनकी आवाज से तो, इंशाअल्लाह, जब चाहें मिलना होगा। उनसे सारे संसार का यही एक रिश्ता है। यह सदा कायम रहेगा।जनसत्ता

No comments:

Post a Comment