Wednesday, June 13, 2012

उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद है सौ से ज्यादा बेगुनाह राजनैतिक बंदी

अमीर बनाम गरीब में बदलती मानवाधिकार की लड़ाई का ठीकरा बेगुनाहों पर अंबरीश कुमार लखनऊ,13 जून ।मिर्जापुर से लेकर वाराणसी तक की जेलों में सौ से ज्यादा राजनैतिक बंदी सालों से बंद है । इनमे से ज्यादातर बेगुनाह है पर जेल से बाहर नही आ सकते क्योकि न इनकी कोई पैरवी करने वाला है और न जमानतदार । यह मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वालों का दूसरा पहलू है जो आज अमीर बनाम गरीब में बदल चुकी है जिसका खामियाजा कई बेगुनाह भुगत रहे है ।अब इनकी आवाज उठाने का एक और बड़ा प्रयास आपातकाल की सालगिरह २६ जून को सम्मलेन के रूप में दिल्ली से होने जा रहा है जो बाद में इलाहबाद से लेकर लखनऊ तक फैलेगा । राजनैतिक बंदियों का यह मुद्दा सीमा आजाद के चलते नए सिरे से उठने जा रहा है जिसमे छात्र ,शिक्षक ,रंगकर्मी ,साहित्यकार ,पत्रकार ,मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और जन संगठनों के कार्यकर्त्ता शामिल होंगे । प्रदेश के विभिन्न जेल में बंद इन राजनैतिक बंदियों की संख्या भी कम नही सौ से ज्यादा है जिसमे महिलाएं भी शामिल है । सिर्फ मिर्जापुर जेल में पचास से ज्यादा बंदी ऐसे है जिन्हें नक्सली बताकर जेल में डाल दिया गया तो सालों से वे वही पड़े है । मानवाधिकार संगठन के एक सर्वेक्षण के मुताबिक वाराणसी और मिर्जापुर जेल में सौ से ज्यादा ऐसे बंदी है जिन्होंने कोई संगीन अपराध नहीं किया पर एक खास राजनैतिक धारा के प्रभाव में आकर राजनैतिक गतिविधियों से जुड गए ।इनमे ज्यादातर आदिवासी है जिनपर देशद्रोह वाली धारा लगा दी गई । पर न इन्होने कभी अरुंधती राय कि भाषा बोली और न कभी जन अदालत लगाकर सजा दी । अब इस पूरे अंचल में न तो माओवाद बचा और न माओ के समर्थक । पर यह लोग भगत सिंह से लेकर मार्क्स लेनिन को पढ़ने पढाने से लेकर माओ की राजनैतिक रणनीति पर चलने के लिए प्रेरित करने की वजह से जेल में है । दुर्भाग्य यह है कि माओ और माओवादियों की रणनीति पर चलते हुए ये एक इंच जमीन तो मुक्त करा नही पाए पर अपनी जमीन और परिवार खो बैठे है । वर्ष २००६ में एमसीसी की गुरिल्ला विंग कि सदस्य कंचन को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसे खतरनाक नक्सली बताया । वैसे पुलिस ऐसे मामलो में जिसे भी गिरफ्तार करती है उसे काफी खतरनाक बताती है । बाद में यह खुशनसीब थी कि जमानत मिल गई पर पता चला बंदूक थमने वाली यह महिला सोनभद्र में गिट्टी तोड़कर अपना गुजर कर रही थी । इसी तरह एमसीसी की सविता मजदूरी पर मजबूर थी तो चंपा को दोतरफा हिंसा का सामना करना पड़ा और वह बदहाल जीवन गुजर रही है । ये मजदूरी करने को मजबूर महिलाएं देश के लिए किस तरह और कितना बड़ा खतरा बन गई यह कोई नही बताता । यह बानगी है देशद्रोह जैसी धाराओं में गिरफ्तार महिलाओं की । इनकी सूची लंबी है । सोनभद्र से विजय विनीत के मुताबिक मिर्जापुर जेल में सोमरी उर्फ बबिता ,सरिता चेरो और कुसुम बंद है । चंदौली की सुषमा और पुष्पा वाराणसी जेल में है तो इसी जिले की किरण और सुमन बिहार के रोहतास व जहानाबाद जेल में बंद है । वजह जमानत नही मिल रही और कोई पैरवी वाला भी नही है । इनकी लड़ाई लड़ने न तो माओवादी समर्थक आते है न कोई एनजीओ और न अंतरष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन । विनायक सेन की लड़ाई लड़ने देश के ढेर सरे एनजीओ से लेकर आभिजात्य वर्गीय मानवाधिकार एक्टविस्ट उतर आए थे क्योकि विनायक सेन भद्र समाज के भद्र पुरुष थे जिनकी अंतर्राष्ट्रीय साख थी । पर सोनभद्र चंदौली की सविता ,बबीता और इलाहाबाद की सीमा के लिए कोई बड़ा नाम सामने नही आया क्योकि वह आभिजात्य वर्गीय समाज की नही है । पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने इस बात से सहमती जताते हुए कहा -जिस तरह विनायक सेन की पैरवी में देश के ज्यादातर एनजीओ और भद्र समाज के लिए लोग जुटे वैसा समर्थन सीमा आजाद समेत गरीब तबके के राजनैतिक एक्टिविस्टों को नही मिला ,यह सच है ।यह पूछने पर कि क्या सीमा आजाद के मामले पर अरुंधती राय से कोई समर्थन मिला उनका जवाब था -उनसे बात करने का प्रयास किया गया पर उन्होंने फोन नहीं उठाया । मानवाधिकार की लड़ाई में इस तरह का भेदभाव पहली बार दिख रहा है ।और तो और खुद विनायक सेन ने केंद्र सरकार की समिति से जुडने के बाद कभी सीमा आजाद के मुद्दे पर कोई पहल नही की । यही वजह है कि मानवाधिकार संगठनों की साख भी संकट में है । जन संघर्ष मोर्चा के संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह तो इसे मानवाधिकार का सवाल तक नहीं मानते । जनसत्ता से बात करते हुए अखिलेन्द्र ने कहा -यह अब मानवाधिकार संगठनों के बस का सवाल भी नही है बल्कि राजनैतिक सवाल है और राजनैतिक ढंग से हल भी किया जा सकता है । अब बहस यह होनी चाहिए कि राज्य सत्ता के खिलाफ कोई संघर्ष किस तरह देशद्रोह की श्रेणी में आ जाएगा । अब तो देशद्रोह की परिभाषा पर भी बहस होनी चाहिए । चंदौली ,सोनभद्र और वाराणसी में अब कोई माओवादी बचा ही नही है ज्यादातर लोग मुख्यधारा की राजनीति से जुड चुके है । राजनाथ सिंह के राज में नक्सलियों के खिलाफ एक के बदले चार मारो का नारा दिया गया और श्रीराम सेना तक आ गई । पर बाद में वह बड़ा बदलाव भी हुआ और आज यह अंचल माओवाद से मुक्त है ।ऐसे में जेल में बंद आदिवासी नौजवानों को अखिलेश यादव सरकार को रिहा करना चाहिए । राज्य में पिछली सरकार के समय आतंकवाद के नाम मुसलमान और माओवाद के नाम आदिवासी नौजवानों को फंसाया गया । कई जो सरेंडर करना चाहते थे वे मुठभेड के डर से भाग गए । गौरतलब है कि मायावती सरकार के राज में कई माफिया जो संगीन मामलो में फंसे थे धीरे धीरे बरी होते गए । पर सीमा आजाद के में पुलिस ने जो किया वह तो किया ही जो जज इस मामले को दो साल से देख रहे थे उन्हें अंतिम समय ने तबादला कर बदायूं भेज दिया गया । चितरंजन सिंह का साफ़ आरोप है कि यह सब सरकार के इशारे पर हुआ । अगर सीमा आजाद बरी हो जाती तो पुलिस की कार्यवाई पर सवाल उठता । आलोचक वीरेंद्र यादव का मानना है कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय को देशद्रोह के अपराध में आजन्म कारावास की सजा के खिलाफ देश में तेजी से जनमत बन रहा है पर इस मुहिम को भी उसी तरह बनाने जरूरत है जैसे विनायक सेन के लिए किया गया था ।किसान मंच के विनोद सिंह ने इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बनाने कि अपील की है क्योकि सीमा आजाद को बेगुनाह होने के बावजूद नौकरशाही ने फंसाया है । इस बीच जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के उत्तर प्रदेश इकाई की मांग है कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय की रिहाई हो और उनपर लगे झूठे मुकदमे खारिज किए जाएँ। सीमा आज़ाद, अनेक सालों से एक प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता रही हैं और सम्मानजनक संगठनों जैसे कि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (उत्तर प्रदेश इकाई) के साथ जुड़ कर सामाजिक न्याय से जुड़े अनेक मुद्दों पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय के ऊपर झूठे मुकदमे थोपने से साफ ज़ाहिर है कि सरकार कैसे अपने खिलाफ उठ रही आवाज़ों पर अंकुश लगाना चाहती है।अधिवक्ता आरके जैन, डॉ संदीप पांडे, रोमा, एसआर दारापुरी , अरुंधति धुरु, अशोक चौधरी, राजीव यादव, शांता भट्टाचार्य, रिचा सिंह, शाहनवाज़ आलम, आदि ने इस मुद्दे पर देश भर में आंदोलन का एलान किया है । इन लोगो ने अखिलेश यादव सरकार से इस मामले में फ़ौरन ठोस कदम उठाने की अपील की है । जनसत्ता

No comments:

Post a Comment