Tuesday, April 8, 2014

एक यात्रा किरंदुल पैसेंजर से

एक यात्रा किरंदुल पैसेंजर से अंबरीश कुमार अरकू जंक्शन(सीमान्ध्र) । केशकाल घाटी से आगे बढ़ने पर जहाँ भी रुकते जंगल से महुआ की गंध महसूस हो रही थी ।महुआ के नए और हल्के लाल पत्तों से सफ़ेद फूल जमीन पर गिर तो रहे थे पर नीचे पड़े सूखे पत्तों पर ही गुलाबी हो रहे थे ।एक आदिवासी टोकरी लिए महुआ बीन रहा था तो फोटो लेने गाड़ी से उतरा ।बाद में डा सुनीलम और रजनीश भी उतर आए और बुजुर्ग आदिवासी से बात करने लगे ।इस बीच मैंने महुआ के एक फूल का स्वाद लिया तो चालीस साल पहले ननिहाल के बगीचे की याद आ गई ।यह स्वाद वही था । मादकता वही थी । पूर्वांचल में तब महुआ और गुड मिलाकर जो मोती पूड़ी बनती थी उसे ठोक्वा कहते थे और वह सफ़र में भरे मिर्च के अचार के साथ खाई जाती थी ।अब इस जंगल में एक फूल का स्वाद लेते गोरखपुर के आगे बडहलगंज क्षेत्र में आने वाला अपने ननिहाल का गाँव मरवट याद आ गया । जो सड़क से करीब दो किलोमीटर दूर था और पगडंडियों से जाना होता था पर बाग़ बगीचे बहुत थे ।बाग़ में आम ,जामुन कटहल ,ईमली और महुआ के पेड़ थे ।अप्रैल में महुआ जब टपकता था तो जेब में भी भर लेते थे ।आज भी केशकाल के आगे जंगल से उठाए महुआ के कुछ फूल कैमरे के बैग में डाल लिए जो लखनऊ तक आए ।इस अंचल में आने का जब कार्यक्रम बना तो समय का ध्यान रखना पड़ा और इस तरह से यात्रा की योजना बनी कि कम से कम समय में ज्यादा काम हो सके । मार्च के अंतिम दिन दोपहर को लखनऊ से चले तो रायपुर शाम को पहुंचे और तय कार्यक्रम के मुताबिक एअरपोर्ट से ही सीधे कटोरातालाब स्थित अजित जोगी के घर । पता चला वे कोंडागांव से चल चुके है और देर रात तक पहुंचेंगे । वहां से मैग्नेटो माल में खुले एक होटल में ठहरने की व्यवस्था की गई थी ।कुछ ही देर में डा सुनीलम का फोन आया कि वे बिलासपुर में सभा करने के बाद रात साढ़े दस बजे तक रायपुर पहुंचेंगे और रात का भोजन भी साथ करेंगे ।जिसके बाद पंडरी के एक होटल में एक और कमरा लिया गया ताकि सुनीलम भी रुक सके ।इस बीच अपने पुराने मित्र और छतीसगढ़ में कांग्रेस के नेता सत्यनारायण शर्मा से फोन पर बात हुई तो उन्होंने घर आने को कहा पर संभव नहीं हुआ ।इसी तरह बृजमोहन अग्रवाल से मिलने का समय भी देर रात का तय हुआ पर जब हम लोग बात करने बैठे तो फिर निकलना संभव नहीं हुआ ।जनसत्ता के सहयोगी संजीत त्रिपाठी भी साथ थे जबकि राजकुमार सोनी राजस्थान में थे ।खैर सुनीलम के आने के बाद खाने पर देर तक चर्चा होती रही और सुबह एलार्म की आवाज पर ही उठे ।साढ़े चार बजे तक तैयार होकर बाहर आ चुके थे क्योकि डा सुनीलम के एक मित्र से रास्ते में कुरूद में मिलना था ।मै डा सुनीलम और विजय शुक्ल एक गाड़ी में थे तो पीछे दूसरी गाड़ी में सिंगरौली में विस्थापित आदिवासियों के बीच काम करने वाली एकता और रवि रजनीश अवस्थी के साथ थे ।कुरूद से निकलते निकलते साढ़े सात बज चुके थे इसलिए धमतरी में एक ठेले वाले से इडली लेकर नास्ता हुआ तो विजय वहां की मशहूर मुंग की पकौड़ी भी ले आए हालाँकि वे खुद उपवास कर रहे थे । रवि और एकता पहली बार बस्तर जा रहे थे और मै इतनी बार गया कि अब याद भी नहीं रहता ।रास्ते के सारे मोड़ और ढाबे याद हो गए है ।इससे पहले विधान सभा चुनाव में भरी बरसात में आना हुआ था तब उफनाई इंद्रावती नदी को चित्रकोट पहाड़ी से नीचे गिरते देख रोमांचित हो गया था वह भी छाते के बावजूद भीगते हुए ।समूची नदी नीचे गिर रही थी और पानी की बूंदें ऊपर तक उछल रही थी ।पहले लिखा था इस बस्तर के बारे में ।बस्तर क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा जाता है। समता मूलक समाज की लड़ाई लड़ने वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमांडर अलग होते हैं। यह वही दंडकारणय है जहां कभी भगवान राम ने वनवास काटा था। वाल्मीकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहां दण्डकारण्य वन में गुजारा था। इस दंडकारणय की खूबसूरती अद्भुत है। घने जंगलों में महुआ-कन्दमूल, फलफूल और लकड़ियां चुनती कमनीय आदिवासी बालाएं आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं। यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़ती हैं। असंख्य झरने, इठलाती बलखाती नदियां, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियां। कुटुम्बसर की रहस्यमयी गुफाएं और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियां, यह इसी दण्डकारण्य में है।और इसी दण्डकारण्य में एक बार फिर यात्रा पर था नए साथियों के साथ ।इस बार आदिवासी अस्मिता की प्रतीक बनी सोनी सोरी के चुनाव अभियान से जुड़ने जा रहा था जन आंदोलनों की अभियान समिति की तरफ से ।आन्दोलन के साथी डा सुनीलम साथ थे तो विश्विद्यालय के साथी रजनीश अवस्थी और बड़ी नौकरी छोड़ कर आदिवासियों के बीच काम करने वाली एकता और रवि शेखर ।सड़क के दोनों ओर बीच बीच में शाल के घने जंगल आते तो उनकी छाया से दृश्य बदल जाता ।आम के पेड़ों की कतार दूर तक जा रही थी ।बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि देश में अमचुर की कुल खपत का चालीस फीसद सिर्फ बस्तर पूरा करता है तो देश में ईमली कि खपत का सत्तर फीसद इसी बस्तर से जाता है । आम ,ईमली, चिरौंजी ,महुआ और सल्फी आदि से ही आदिवासी जंगल में अपना जीवन बिताते है । जंगल के जानवरों का शिकार भी करते है पर नियंत्रित ढंग से ।उनकी चिंता अब जंगली जानवरों को लेकर भी है क्योंकि अगर जानवर ख़त्म हुए तो जंगल भी ख़त्म हो जाएंगे । अचानक बगल के जंगल पर नजर गई तो देखा एक आदिवासी महुआ बीन रहा था ।उसे देख फोटो लेने उतरा तो डा सुनीलम और रजनीश भी उतर कर जंगल के बीच आ गए ।नीचे की जमीन सूखे पत्तों से ढकी हुई थी और उसपर पैर पड़ते ही अलग किस्म की आवाज आ रही थी ।सुनीलम ने उस आदिवासी बुजुर्ग से महुआ और उसके बाजार भाव पर बात की तो हैरान रह गए ।उससे सुखा महुआ बहुत कम दाम पर लिया जाता है ।खैर भानुपुरी में चाय के लिए रुके तो एक घर पर ' हर नर मोदी -घर घर मोदी ' का नारा नजर आया ।यह बदलाव नया था । बस्तर के जगदलपुर पहुँचते पहुंचे दोपहर हो चुकी थी और मौसम गर्म था । एकता और रवि को करीब हफ्ता भर सोनी सोरी के चुनाव संचालन में मदद के लिए बस्तर में रुकना था तो डा सुनीलम को तीन तक प्रचार करना था ।मेरा कार्यक्रम कवरेज के नजरिये से बना था इसलिए दो दिन ही रहना था । हर बार जगदलपुर के सर्किट हाउस में ठहरता था पर इस बार किसी से कहा भी नहीं था इसलिए जगदलपुर में एक नए होटल देवांश में रुका ।जगदलपुर पहुँचने के बाद डा सुनीलम सोनी सोरी के कार्यकर्ताओं की बैठक में जम गए और मै अचानक मिले साथी अल्लू चौबे के साथ राजनैतिक हालात पर चर्चा करने लगा । अल्लू की भाव भंगिमा से साफ़ लगा वे सत्तारूढ़ दल के लिए माहौल का जायजा लेने आए है । सुनीलम की बैठक ख़त्म होने के बाद हम सब दंतेवाडा की तरफ चल पड़े ।यह इलाका माओवादियों के प्रभाव वाला है और जिस जगह से रास्ता सुकमा और झीरम घटी के लिए मुड़ता है वही पर एक ढाबे में खाने के लिए रुके ।छोटा सा बाजार सामने था ।एक तरफ शाक सब्जी बेचती महिलाएं थी तो सामने मछली और मुर्गा एक ठेले पर बिक रहा था ।विजय शुक्ल लगातार नवरात्रि का उपवास कर रहे थे और सिर्फ फल खाना था इसलिए बीस रुपए में दो बड़े तरबूज ले लिए जो विशाखापत्तनम तक साथ चला ।खाना खाकर आगे बढे तो दंतेवाडा कि तरफ जाने वाली सड़क पर सन्नाटा पसरा था ।बीच बीच में जब पहाड़िया आती तो बताया जाता कि माओवादी हमेशा घात लगाकर पहाड़ी के ऊपर से ही हमला करते है या सड़क को बारूद से उड़ा देते है ।यह सब जानकर डर तो लगा पर अब डरकर करते क्या ।गीदम का बाजार दिखा तो चिता ख़त्म हुई । सोनी सोरी के घर पहुंचे तो स्वागत उनकी ननद ने किया जो एक शहरी युवती कि तरह नजर आ रही थी ।कुछ ही देर में सोनी सोरी आ गई तो बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ ।उन्होंने चुनाव में आने वाली दिक्कतों का ब्यौरा भी दिया ।उनपर सत्ता का भी दबाव था तो सत्ता से लड़ने वाले माओवादियों का भी ।इस बीच दो दिन के प्रचार कार्यक्रम की योजना डा सुनीलम को ध्यान रखकर बनाई गई । कुछ घंटो बाद मैंने चलने को कहा क्योकि अँधेरा हो चूका था और अँधेरे में पचास किलोमीटर के जंगल से गुजरना जोखम भरा काम था खासकर माओवादियों के प्रभाव को देखते हुए ।फिर भी जगदलपुर पहुँचते पहुंचे रात के नौ से ऊपर हो चुके थे ।मुझे और विजय शुक्ल को सुबह ट्रेन से विशाखापत्तनम निकलना था । सुबह दस बजे से पहले जगदलपुर स्टेशन पहुंचे तो पता चला किरंदुल विशाखापत्तनम पैसेंजर देर से आएगी ।दो दिन पहले ही इस गाड़ी से जगदलपुर स्टेशन पर सारी सवारियां उतार कर लाइट बंद कर किरंदुल भेजा गया था ताकि माओवादियों के हमले में कोई दुर्घटना न हो ।बहरहाल इस ट्रेन से कार्यक्रम समय का ध्यान रखते हुए बनाया गया था ताकि दो दिन सीमान्ध्र में गुजर कर सीधे विशाखापत्तनम से लखनऊ पहुंचा जा सके ।एअर इंडिया की फ्लाईट से कुल चार घंटे लगते ।इसके साथ ही विजय शुक्ल को इस रेल यात्रा अनुभव लेना था ।कुछ देर में ट्रेन आई तो तो सभी सवार हो गए ।एक फर्स्ट क्लास का बहुत पुराना डिब्बा लगा था जिसके ई कूपे में हम दोनों आ गए ।तरबूज को ऊपर रख दिया और बाकी सामन नीचे । ओडिशा के आमागुड़ा स्टेशन आते आते कुरते पैजामे की जगह बरमूडा वाली पोशाक में बैठ चुके थे क्योकि गर्मी में सफ़र करना था ।यह ट्रेन ओडिशा के नदी पहाड़ पर करते हुए आंध्र प्रदेश जो अब सीमान्ध्र में बदल चूका है उसके सबसे खुबसूरत हिल स्टेशन अरकू वैली से गुजरती है । इस लेख की शुरुआत इसी अरकू स्टेशन पर हो पाई क्योकि नेट का सिग्नल नहीं मिल पा रहा था ।जारी

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