Monday, April 14, 2014

पहाड़ पर चुनावों की गर्मी

पहाड़ पर चुनावों की गर्मी दार्जिलिंग से रीता तिवारी पहाड़ियों की रानी के नाम से मशहूर दार्जिलिंग के बेहद खुशगवार और शीतल मौसम में इस पर्वतीय संसदीय सीट के लिए होने वाले चुनाव के चलते माहौल में राजनीतिक गर्मी चरम पर पहुंच है. तृणमूल कांग्रेस ने भारतीय फुटबाल टीम के पूर्व कप्तान बाइचुंग भूटिया को मैदान में उतारा है जबकि भारतीय जनता पार्टी ने पिछली गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन से एस.एस.आहलुवालिया को अपना उम्मीदवार बनाया है. अलग गोरखालैंड राज्य की मांग में आंदोलन करने वाले संगठनों का समर्थन ही यहां किसी उम्मीदवार की जीत की गारंटी माना जाता है. सुभाष घीसिंग के जमाने में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) और अब गोरखा मोर्चा. लेकिन भूटिया ने अबकी यहां मुकाबला रोचक बना दिया है. इस सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिष्ठा दांव पर है. यही वजह है कि उन्होंने इस सप्ताह लगातार दो दिन भूटिया के समर्थन में इलाके में चुनावी रैलियां की हैं. बरसों से अलग गोरखालैंड राज्य ही इलाके में प्रमुख चुनावी मुद्दा रहा है. आम पर्वतीय शहरों की तरह यहां भी सुबह देर से शुरू होती है और शामें जल्दी ढल जाती हैं. इसलिए तमाम उम्मीदवार भी इसी के अनुरूप रणनीति बना कर चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे हैंय भाजपा को मोर्चा के समर्थन ने हमेशा फारवर्ड पोजीशन पर खेल कर गोल दागने वाले भूटिया को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया है. मोर्चा ने उन पर बाहरी होने का ठप्पा लगा दिया है. उनका घर पड़ोसी सिकिक्म में है. लेकिन भूटिया इससे विचलित नहीं हैं. अपने समर्थकों के साथ सुबह-सुबह प्रचार के लिए निकले भूटिया कहते हैं, ‘मैं भी पहाड़ का हूं. सिक्किम और दार्जिलिंग की पहाड़ियों में कोई अंतर नहीं है.‘ भूटिया कहते हैं कि फुटबाल के मैदान में तो कई बार गोल दाग चुका हूं. अब राजनीति के मैदान में भी वही करिश्मा दोहराने की उम्मीद है. उनका सवाल है कि अगर मैं बाहरी हूं तो आहलुवालिया कहां के हैं ? अपनी सभाओं में वे पिछली बार यहां से जीते भाजपा के जसवंत सिंह का उदाहरण देते हैं, जो पांच वर्षों में महज तीन बार दार्जिलिंग आए थे. भूटिया की दलील है कि बरसों से बाहरी लोगों के सांसद बनने की वजह से ही इलाके का कोई विकास नहीं हो सका है. वे कहते हैं कि दार्जिलिंग की पहाड़ियों को विकास की जरूरत है, गोरखालैंड की नहीं. भूटिया और तृणमूल का सबसे बड़ा मुद्दा भी यही है. भूटिया कहते हैं कि वे राजनीतिज्ञ नहीं हैं. पहाड़ी होने के नाते पहाड़ियों के विकास की चिंता ही उनको राजनीति में खींच लाई है. दूसरी ओर, भाजपा के आहलुवालिया ने शुरूआती दौर में तो गोरखालैंड का समर्थन करने की बात कह कर पार्टी के नेताओं को मुश्किल में डाल दिया था. इसलिए अब वे संभल कर बात करते हैं. अपने प्रचार के दौरान वे कहते हैं कि मैं जीतने के बाद इलाके के लोगों की समस्याओं और मांगों को पूरा करने का प्रयास करूंगा. अब वे भूल कर भी गोरखालैंड का नाम नहीं लेते. इलाके के लोगों का दिल जितने के लिए उन्होंने तेनजिंग नोर्गे को भारत रत्न देने का सवाल भी उठाया है. वे कहते हैं, ‘भाजपा सरकार सत्ता में आने पर इस पर विचार करेगी.‘ आहलुवालिया अपनी जीत के लिए पूरी तरह मोर्चा के समर्थन पर ही निर्भर हैं. दार्जिलिंग में पिछली बार 12.15 लाख वोटर थे। तब भाजपा नेता जसवंत सिंह लगभग ढाई लाख वोटों के अंतर से जीते थे. तब भी मोर्चा ने भाजपा का समर्थन किया था. वाममोर्चा उम्मीदवार जीवेश सरकार 2.44 लाख वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रहे थे और 1.87 लाख वोट पाने वाले तृणमूल उम्मीदवार तीसरे पर. माकपा और कांग्रेस के उम्मीदवार अबकी भी मैदान में हैं. कांग्रेस तो हाशिए पर है, लेकिन माकपा उम्मीदवार समन पाठक मोर्चा के कुछ वोट जरूर काटेंगे. लाख टके का सवाल यह है कि क्या भूटिया चुनाव मैदान में भी गोल दागने में कामयाब होंगे? वे भले इसमें कामयाब नहीं हो, आहुलवालिया की राह तो उन्होंने कुछ मुश्किल जरूर बना दी है। इलाके के लोग और यहां रोजाना भारी तादाद में पहुंचने वाले सैलानी भी इस दिलचस्प लड़ाई का मजा ले रहे हैं.

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