Thursday, April 26, 2012

पहाड़ के इस गाँव में

अंबरीश कुमार प्रोफ़ेसर रस्तोगी सुबह सुबह मिल गए वे स्टेशन जा रहे थे कैप्टन श्रीवास्तव के साथ .यह सिलसिला कई दशक से चल रहा है .रस्तोगी जी की उम्र ९६ साल होगी और रोज सुबह करीब पांच किलोमीटर का चक्कर काट लेते है .स्टेशन पर जाकर अखबार लेते है भट्ट जी के ढाबे में चाय पीते है और कुछ समय गुजारने के बाद घर लौट आते है .घर में भी देर तक कई तरह के कामकाज में जुटे रहते है .मिलते ही बोले -फलों की वाइन बनाई है शाम को आए स्वाद ले .रस्तोगी जी के घर और बगीचे में तरह तरह के फल है जिसमे कीवी का स्वाद हमने भी लिया है .उनके पिताजी अंग्रेजो के ज़माने में यहाँ जिला जज रह चुके है तब से वे इस अंचल से जुड़े है .यह वह जगह है जहाँ आजादी से पहले ही दलित आंदोलन खड़ा हुआ था .आर्य समाज की एक बैठक उस दौर में हुई थी जिसका एक लेख भी उन्होंने मुझे दिखाया .तब भावली से रामगढ का पैदल रास्ता था और बहुत ही व्यवस्थित कार्यक्रम हुआ .यहाँ तल्ला में आर्य समाज के अलावा बड़ा सा अरविंदो आश्रम भी है .रस्तोगी जी यहाँ अपनी पत्नी के साथ निर्जन जगह में कई दशक से रहते है जो पैर की दिक्कत की वजह से बाहर नहीं निकल पाती.उनकी उम्र भी नब्बे के आसपास होगी .कमरे में उनकी जो फोटो लगी है वह साठ के दशक की किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं है .रस्तोगी जी से मौसम की बात करते करते आगे निकल गए . यहाँ का मौसम काफी ठंढा हो गया है रात का तापमान बारह से चौदह डिग्री तो भरी दोपहरी में भी पारा चौबीस पर नहीं कर पाता.कल तक बादल आ रहे थे और जा रहे है पर बारिश नहीं हुई लेकिन आज सुबह उठा तो सब भीगा हुआ था .यहाँ दिनचर्या भी कुछ बदल गई है .दिन में एक बार करीब डेढ़ किलोमीटर दूर (लंबे रास्ते से ) स्टेशन जाना होता है .स्टेशन का अर्थ बस स्टेशन से है जो भवाली मुक्तेश्वर रूट पर पड़ता है .यह एक छोटा सा पहाड़ी बाजार है जो चारो ओर देवदार के अलावा सेब और आडू के बागानों से घिरा हुआ है .बाजार एक मुर्गे की दुकान से शुरू होता है और करीब सौ मीटर बाद सड़क पर मछली बेचने वाले की अस्थाई दुकान पर ख़त्म हो जाता है .मुर्गे वाले की दुकान से जुड़ा एक जनरल स्टोर है जिसके ऊपर मुरादाबाद से आए एक नौजवान ने बाल काटने की दुकान खोल दी है .उसके पड़ोस में रामगढ की पुलिस चौकी है तो ठीक नीचे देशी दारू की दुकान .बगल में खुबानी का एक बुजुर्ग पेड़ जो मौसम में पीली खुबानियों से लड़ जाता है .सामने जोशी जी की अत्याधुनिक दुकान है जहाँ पास्ता से लेकर माल में उपलब्ध सामान मिल जाता है .यह वही जोशी जी है जिनके पिता जी ने महादेवी वर्मा को यहाँ बसने के लिए जमीन दी थी .अब वे इस जमीन को वापस पाने के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे है क्योकि इनका मानना है कि अब उसपर उनका हक़ है . बगल में भट्ट जी का ढाबा है जो हर्बल चटनी के साथ आर्गेनिक आलू के पराठे के साथ बहुत कुछ खिलाते है और काफी स्वादिष्ट भी होता है .यहाँ करीब आधा दर्जन चाय समोसे और मिठाई की दुकान है तो इतनी ही किराना की दुकाने जो गैस सिलेंडर से लेकर सुई धागा और जूता चप्पल भी बेचते है .एक अदद बैंक भी है तो जिस बस स्टेशन के नाम पर इसका नामकरण हुआ वहा गाय का ठिकाना है .बगल में एक सार्वजनिक सौचालय के सामने सड़क के उस पार ही मछली वाला शाम तीन बजे जम जाता है जिसके पीछे इस रामगढ बाजार का अंतिम निर्माण यानी पीडब्लूडी का दफ्तर और गेस्ट हाउस है .यहाँ से हिमालय की बर्फ से ढकी चोटिया आपको रोक लेंगी अगर बादल न हो तो . यही पर तीखा मोड़ है जहाँ से बाए सिंधिया का वृन्दावन आर्चिड शुरू होता है जो अपने राइटर्स काटेज के सामने और सीडार लाज तक जाता है जहाँ से रास्ता बदल कर नीचे उतर जाता है .यहाँ सिंधिया और बिडला के बड़े बागान रहे है .यह समूचा इलाका फल कुमायु की फल पट्टी के नाम से मशहूर है और मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार का भी पुस्तानी सेब का बगीचा रहा है . यह रामगढ़ है जहा रवींद्र नाथ टैगौर न सिर्फ रहे बल्कि शान्तिनिकेतन यही बनाना चाहते थे .इस जगह की प्राकृतिक खूबसूरती से प्रभावित होकर ही महादेवी वर्मा ने यहाँ अपना घर बनाया और हर गरमी उनके घर पर साहित्यकारों का जमावड़ा होता था .निर्मल वर्मा की 'कौवे 'वाली कहानी यही तल्ला रामगढ की थी .यहाँ करीब दो दशक पहले जब आते थे तो रोज और कई बार बरसात होती थी .चारो ओर चीड देवदार के घने जंगल है .अपने दो कुत्ते बाघ का शिकार हो चुके है और बड़ी मुश्किल से गाय का बछड़ा बचा जो बाघ के हमले में घायल हुआ और छह महीना इलाज चला .इससे जंगल से घिरे और पहाड़ के बीच बसे इस गाँव का मिजाज समझा जा सकता है .यहाँ पक्षियों की आवाज से आप जग जाएंगे तो हवा की आवाज में खो जाएंगे .बादल जब आते है तो लगता है पहाड़ के नीचे किसी कारखाने से बनकर निकल रहे है .कुछ ही देर में बादल से सब ढक जाता है .

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