Friday, September 28, 2012

बनवारी लाल शर्मा कौन थे

अरुण कुमार त्रिपाठी
कम लोग जानते हैं कि बनवारी लाल शर्मा कौन थे। जो जानते हैं उनमें से भी कम लोग उनके कामों को सफल मानने को तैयार होंगे। मुख्यधारा का मीडिया और उसकी दैनिक खुराक बन चुकी राजनीति को उनके जैसे लोगों से क्या लेना देना। हर कोई यह सवाल करने लगता है कि आखिर वैश्वीकरण और उदारीकरण का विरोध करके बनवारी लाल शर्मा ने क्या कर लिया? क्या वह नीतियां रुक गईं? क्या बहुराष्ट्रीय कंपनियां भाग गईं? क्या उदारीकरण की गति धीमी पड़ गई? इस तरह के सवालों से उनका मूल्यांकन करने वाले या तो हकीकत से मुंह चुराते हैं या अपने झूठ की आंधी चलाते रहते हैं। वे दुनिया की हकीकत से बाखबर होकर भी अपने प्रचार की झोंक में विकल्प के उन विमर्शों को भूल जाते हैं जो पूरी दुनिया में चल रहे हैं और जिनके कारण वैश्वीकरण की नीतियां आज चकरघिन्नी हो रही हैं। पर बनवारी लाल शर्मा थे इसीलिए हमारा समाज है और आगे भी रहेगा। वे चले गए इससे खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ईमानदार, कर्मठ, मेधावी व्यक्ति अपनी जितनी भूमिका निभा सकता है उतनी निभा कर वे चले गए। कल जब उनके निधन की खबर आई तो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रेम सिंह दुखी मन से कहा कि एक दिन उन्हीं की तरह हम लोग भी खामोशी से चले जाएंगे। पर मेरा मानना है कि बनवारी लाल शर्मा जैसे लोग खामोशी से नहीं गए न ही प्रेम सिंह जैसे लोगों की आवाज आसानी से खामोश होने वाली है। बनवारी लाल ने जो अलख जगाई वह जलती रहेगी और उनके नारों, विमर्शों और व्याख्यानों की आवाज देर तक गूंजती रहेगी। वह आवाज इसलिए भी गूंजती रहेगी कि उसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए हो रहे वैश्वीकरण की अमानवीय नीतियों का विरोध ही नहीं मानवता के पक्ष में वैश्वीकरण किए जाने का मुकम्मल आह्वान है। बनवारी लाल कोई कूढ़ मगज और नामसझ और कोरी भावुकता वाले इंसान नहीं थे। वे गणित की ऐसी शाखा के विद्वान थे जिसको पढ़ने वाले दुनिया में कम लोग मिलते हैं। उन्होंने उसमें फ्रांस से डीएससी की थी और उनके पढ़ाए हुए छात्र आज देश दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों में गणित पढ़ाकर रिटायर भी हो चुके हैं। लेकिन उन्होंने जब देखा कि दिसंबर 1984 में आधी रात के समय यूनियन कार्बाइड नाम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने भारत के मध्य में स्थित भोपाल शहर में हजारों लोगों को मार कर और सैकड़ों लोगों को अपाहिज बना दिया और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया, उल्टे भारत सरकार उसके अधिकारी की खैरख्वाही करती पाई गई तो उनका मन विचलित हो गया। उन्होंने तभी से ठान लिया कि वे इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की करतूतों का खुलासा करते रहेंगे और उसके लिए मानवता के पक्ष में जितना बनेंगे उतना करेंगे। तब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी सत्ता में आए थे और भारत में उदारीकरण का दौर शुरू नहीं हुआ था। उनकी आशंकाएं सही निकलीं और जल्दी ही भारत ही नहीं पूरी दुनिया पर वाशिंगटन सहमति के आधार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां लागू की जाने लगीं। डंकेल का प्रस्ताव उस दिशा में लाया गया पहला दस्तावेज था। जब वह प्रस्ताव आया तो देश में जो तीन वरिष्ठ लोग मुखर रूप से उस प्रस्ताव के विरोध में आए उनमें बनवारी लाल शर्मा, किशन पटनायक और डा ब्रह्मदेव शर्मा प्रमुख थे। बाद में उसमें एक नाम प्रभाष जोशी का भी जुड़ा। प्रभाष जोशी तो पत्रकार थे लेकिन बाकी तीनों शिक्षक, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनके साथियों की अपनी अपनी टोलियां थीं। अगर किशन पटनायक के साथियों ने- गुलामी का खतरा-- नाम से पुस्तक प्रकाशित की तो बनवारी लाल शर्मा ने इलाहाबाद के कुछ साथियों की मदद से आजादी बचाओ आंदोलन की स्थापना की और-- नई आजादी उद्घोष-- के नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की। इन लोगों की विद्वता, निष्कलंक जीवन और तर्कों और तथ्यों की स्पष्टता ने देश और विशेषकर हिंदी इलाके के तमाम नौजवानों को दीक्षित कि या। उन्हीं में एक युवा राजीव दीक्षित भी थे जो अपने साम्राज्यवादी विमर्श को सांप्रदायिकता तक लेकर चले गए और बनवारी लाल शर्मा से दूर होते गए। राजीव दीक्षित और उनके जैसे युवाओं के कारण ही कई लोग बनवारी लाल शर्मा में भी सांप्रदायिकता के प्रति नरमी या उसके प्रति झुकाव देखते थे। पर उन्होंने उधर ध्यान दिए बिना अपना काम जारी रखा। आज पलट कर देखा जाए तो बनवारी लाल शर्मा अपने पीछे जनविरोधी आर्थिक नीतियों के विरोध ही नहीं विकल्प की एक लंबी और जुझारू विरासत छोड़ गए हैं। इस टिप्पणीकार से एक बार समाजवादी नेता विजय प्रताप ने- आजादी बचाओ आंदोलन- पर अध्ययन कर किताब लिखने को कहा था। वह काम नहीं हो पाया। उसका मलाल है पर एक बात की खुशी जरूर है कि इस टिप्पणीकार ने डा कमल नयन काबरा और डा एके अरुण के साथ 2001 में बनारस से जौनपुर के बीच डेढ़ सौ किमोमीटर घूम कर वह मानव श्रृंखला देखी थी जो उनके और साथियों की मेहनत से पेप्पी कोक और दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरोध के लिए बनी थी। उसके बाद उस आयोजन पर जनसत्ता के रविवारी में कवर स्टोरी भी की थी जो काफी चर्चित रही। जिसका जिक्रसमाजवादी विचारक सुरेंद्र मोहन जी रवींद्र त्रिपाठी को श्रेय देते हुए करते थे। आज बनवारी लाल जी के जीवन और उनके अथक संघर्ष की थाती को आगे बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि उन्होंने जिस सुबह का सपना देखा था उसे आने में बहुत देर नहीं है। वैश्वीकरण की लड़खड़ाती नीतियां अब दुनिया में ज्यादा दिन की मेहमान नहीं हैं। भले बनवारी जी अपने जीवन में वो मंजर नहीं देख पाए और उदारीकरण समर्थकों के ताने सुनते रहे पर उनके साथियों को वह ज्यादा दिन तक नहीं सुनने पड़ेगे। यही उनकी ताकत है यही उनकी सफलता है।

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