Saturday, September 15, 2012

हावड़ा ब्रिज के सामने

अंबरीश कुमार
हम जिस नदी के किनारे खड़े थे वह बंगाल की खाड़ी के शीर्ष तट से १८० किलोमीटर दूर हुगली नदी के नाम से जानी जाती है और देश का सबसे बड़ा और पहला महानगर कोलकता इसके तट पर बसा है । सामने हावड़ा ब्रिज था जिसके बारे में बचपन से सुनता आ रहा था । हावड़ा ब्रिज 1943 के फरवरी महीने में तैयार हुआ था जो 2,300 फुट लंबा है. गर्मी के दिनों में इसकी लंबाई तीन फुट तक बढ़ सकती है। भागते भागते यहाँ पहुंचे पर कोलकता की सडको पर अपनी टैक्सी जिस तरह बार बार बस ,रिक्सा और ट्राम के बीच फंस रही थी उससे पहले ही आभास हो चुका था कि हावड़ा ब्रिज तक पहुँचते पहुँचते रोशनी गायब हो जाएगी । देर तो निकलते समय ही हो चुकी थी । एक वजह होटल हयात रीजेंसी में रुकना भी था जो मुख्य शहर से दूर साल्ट लेक में है जहाँ कुछ साल पहले छोटे छोटे तालाब और खेत थे ।बीच बीच में खेत तो अभी भी दिख जा रहे थे और तालाब या झील के नाम पर साल्ट लेक बची हुई है जिसके किनारे दिन में कुछ समय गुजरा था । लेक के किनारे एक प्लेटफार्म पर कुर्सियों पर तब तक बैठे रहे जबतक बरसात तेज नही हो गई । झील के किनारे एक क़तर में लगे नारियल के पेड़ तेज हवा से लहरा रहे थे और घने बादल आसमान को ढकते जा रहे थे । हटने का मन नहीं हो रहा था पर जब भीगने लगे तो शेड में आ गए पर निगाह वाही लगी रही । राजेंद्र चौधरी शिकायत कर रहे थे कि मई उनकी फोटो क्यों नहीं ले रहा हूँ खासकर इस रूमानी मौसम में जब साल्ट लेक के पानी में तेज हवा के चलते लहर भी उठ रही हो । तभी किनारे आती मोटर बोट दिखी जिस पर छाते लदे हुए थे । यह शायद वहा कुछ वरिष्ठ नेताओं को भीगने से बचाने के लिए मंगाए गए थे । हम लोग एक बड़ी छतरी के नीचे रखी कुर्सियों पर जम गए थे और चाय का इंतजार कर रहे थे । साथ आए रंजीव और भवेश ने चौधरी साहब को आवाज दी तो वे सर पर अख़बार रख कर बरसात से बचाते आए । फोटो लेने लगा तो बोले ,देखिए ऎसी फोटो आनी चाहिए कि यह साल्ट लेक समुंद्र जैसी लगे । कुछ फोटो ली तभी देखा एक मोहतरमा अपने अर्दली से फोटो लेने को कह रही थी और झील के किनारे होने की वजह से तेज हवा में उनकी जुल्फे लहरा रही थी जिसे वे बार बार हाथ से दुरुस्त कर रही थी । कई फोटो खिंचवाने के बाद उन्होंने अर्दली को अपनी कुर्सी दी और खुद मोबाइल से फोटो उतारने लगी । अद्भुत समाजवादी दृश्य था जिसे देख रुका नहीं गया और हमने इनकी फोटो भी ले ली । बाद में पता चला वे उत्तर प्रदेश के एक मंत्री की पुत्री है । तभी कुछ और पत्रकार मित्रों से मुलाकात हुई जो यहाँ कवरेज प़र आए थे । इनमे आजतक की मनोज्ञ ,हिंदुस्तान के सुहैल हामिद और सतेन्द्र प्रताप सिंह आदि शामिल थे । खैर दिन से जो बरसात शुरू हुई वह रुक रुक शाम तक चलती रही जिसके चलते हावड़ा ब्रिज पहुँचते पहुँचते अँधेरा छा गया था । साथ चल रहे भवेश ने यह भी जानकारी दी कि पूरब के इस अंचल में सुबह जल्दी और शाम भी जल्दी हो जाती है । मज़बूरी थी पर सामने हुगली को निहारते रहे तभी एक बड़ी नव दिखी तो मैंने भवेश से कहा देखे नाव जा रही है इस पर वहां बैठे एक युवक ने कहा -यह नाव नही स्टीमर है । हमें कहा हाँ ,गोवा में भी इसी तरह की फेरी से मंडोवी नदी पार की जाती है । बचपन का बड़ा हिस्सा मुंबई में गुजरा तो जवानी का दिल्ली में । कोलकता से कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया । सिर्फ बंगाली लेखकों के उपन्यासों से कोलकता को देखा था और पढ़ा था । फिर पढ़ा ' यह आधुनिक भारत के शहरों में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। १६९० में इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी "जाब चारनाक" ने अपने कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी। १६९८ में इस्ट इंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार परिवार सावर्ण रायचौधुरी से तीन गाँव (सूतानीति, कोलिकाता और गोबिंदपुर) के इजारा लिये। अगले साल कंपनी ने इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटी के रूप में करना शुरू किया। १७२७ में इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वतीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गयी। कोलकाता नगर निगम की स्थापना की गयी और पहले मेयर का चुनाव हुआ। १७५६ में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कोलिकाता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम "अलीनगर" रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इस पर पुन: अधिकार हो गया। १७७२ में वारेन हेस्टिंग्स ने इसे ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दी। कुछ इतिहासकार इस शहर की एक बड़े शहर के रूप में स्थापना की शुरुआत १६९८ में फोर्ट विलियम की स्थापना से जोड़कर देखते हैं। १९१२ तक कोलकाता भारत में अंग्रेजो की राजधानी बनी रही। इसके आधुनिक स्वरूप का विकास अंग्रेजो एवं फ्रांस के उपनिवेशवाद के इतिहास से जुड़ा है। आज का कोलकाता आधुनिक भारत के इतिहास की कई गाथाएँ अपने आप में समेटे हुये है।शहर को जहाँ भारत के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रारम्भिक केन्द्र बिन्दु के रूप में पहचान मिली है वहीं दूसरी ओर इसे भारत में साम्यवाद आंदोलन के गढ़ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। महलों के इस शहर को सिटी ऑफ़ जॉय के नाम से भी जाना जाता है।' पार ऐसा कोलकता दिखा नहीं । एक दिन पहले शाम को जिस इलाके से निकले वह झुग्गी झोपड़ियों वाला वह इलाका था जो गंदगी के ढेर प़र बढ़ता जा रहा था । वैसे भी इस महानगर के मुख्य इलाके आज भी पचास साल पहले जैसे दीखते है । दिल्ली,मुंबई और बंगलूर जैसे शहर के विकसित इलाकों जैसी जगह यहाँ कम दिखती है । रोजगार की तलाश में आने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग बहुतायत में है तो उत्तर पूर्व के लोग भी अच्छी संख्या में है । बहरहाल एक बात जो अच्छी लगी वह यह कि यह शहर दिल्ली मुंबई की तरह भागता हुआ नहीं दिखता । पार्क स्ट्रीट की गलियों में तो यह उत्तर भारत के किसी आम शहर की तरह ही धीमी रफ़्तार से चलता नजर आता है तो हावड़ा ब्रिज से पहले जाम में फंसी ट्राम को देख किसी बड़े महानगर का अहसास नहीं होता । पार्क स्ट्रीट एक गली में हाथ रिक्शा चलाने वाले गोपाल से बातचीत हुई तो हमने इस तरह का अमानवीय काम करने की वजह पूछ ली तो बोले -बिहारी हो न ,जल्दी समझोगे कैसे । दस आदमी का परीवार इसी से चलता है । छह हजार से ज्यादा ऐसा रिक्शा यहाँ है ,मजाल नहीं कोई बंद करा से । भवेश ने बताया मै उत्तर प्रदेश का हूँ तो उसका जवाब था उससे क्या फर्क पड़ता है सब एक जैसे है । बाद में पता चला यह हाथ का रिक्शा चलाने से इन्हें ज्यादा पैसा मिलता है क्योकि इस प़र आभिजात्य वर्ग चलता है । कोलकता की गलियों में जब घुटने भर से ऊपर पानी आ जाए तो यही रिक्शा आराम से घर पहुंचा देता है क्योकि इसकी ऊँचाई ज्यादा होती है । मारवाड़ी महिलाओं को इसकी सवारी भी ज्यादा भाती है क्योकि उन्हें बैठने की पर्याप्त जगह भी मिल जाती है । इस हाथ रिक्शा को लेकर काफी शोर शराबा हो चुका है प़र कोई बंद नहीं कर पाया ।

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