Thursday, December 1, 2011

याद आये प्रभाष जोशी



अम्बरीश कुमार
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संपादक ही नहीं बल्कि सेनापति भी थे । ऐसे सेनापति जिसने भारतीय पत्रकारिता में निहंग पत्रकारों की ऐसी सेना बनाई जिसने कभी किसी से हार नहीं मानी


प्रभाष जोशी ने अपने जीवन की पूर्व संध्या अखबार के सहयोगियों के साथ गुजारी थी । इसे कैसा संयोग कहेंगे की दुनिया छोड़ने से ठीक एक दिन पहले लखनऊ में उन्होंने हाथ आसमान की तरफ उठाते हुए कहा -मेरा तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार ही घर बनेगा ।इंडियन एक्सप्रेस से उनका सम्बन्ध कैसा था इसी से पता चल जाता है । प्रभाष जोशी चार नवम्बर की शाम लखनऊ में इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकारों के बीच थे । यह उनकी अंतिम बैठक बन गई ।एक्सप्रेस के इस दफ्तर में वे पहली बार आए और यह अंतिम बार में बदल गया । सीतापुर में प्रभाष जोशी की याद में प्रभाष पीठ और अन्य संगठनों की तरफ से दस दिन बाद कार्यक्रम होने जा रहा है । जिसमे पेड़ न्यूज़ से लेकर जहाँ विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होगी वही फोटो और पोस्टर प्रदर्शनी लगाईं जा रही है । प्रभाष जोशी के चुनोंदा लेखों की पुस्तिका भी बांटी जाएगी । कार्यक्रम में आलोक तोमर मुख्या वक्ता होंगे । कार्यक्रम के आयोजकों से बात होते ही एक साल पहले प्रभाष जोशी के साथ हुई बैठक याद आ गई । प्रभाष जी बैठे तो कई मुद्दों पर चर्चा हुई । रामनाथ गोयनका से ले कर उनके पेड़ न्यूज़ अभियान तक । कुछ समय पहले ही छतीसगढ़ में नवभारत के संपादक बब्बन प्रसाद मिश्र की एक पुस्तक प्रभाष जी को भेजी थी जिसमे छत्तीसगढ़ में पेड़ न्यूज़ और नेताओं से पैसे के लेनदेन का ब्यौरा था । प्रभाष जी ने कहा -उसे पढ़ा और बब्बन जी से बात भी करूँगा । पेड़ न्यूज़ के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान में सभी को जोड़ा जाना चाहिए । यह बहुत ही खतरनाक प्रवृति है । इंडियन एक्सप्रेस के नए पत्रकारों को उन्होंने जनसत्ता के शुरुवाती दौर के बारे में भी बताया । एक रोचक उदाहरण भी उन्होंने उस दौर का दिया । जो राजनीति , राजनेता ,अखबार मालिक और संपादक के संबंधों पर रोशनी डालता है । बात उस दौर की है जब राष्ट्रीय राजनीति पर देवीलाल का उदय हुआ था । ख़बरों के चलते हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवीलाल का जनसत्ता के पत्रकार राकेश कोहरवाल से नजदीकी संबंध गया था था । एक विवाद को लेकर प्रभाष जोशी ने राकेश कोहरवाल का तबादला चंडीगढ़ कर दिया । जिसके बाद आए दिन देवीलाल का फोन आता कि राकेश कोहरवाल को वापस दिल्ली बुला लिया जाए। प्रभाष जोशी ने तब कहा - देखेंगे । पर जब ज्यादा फोन आने लगा तो उन्होंने अपने पीए राम बाबू से कोई बहाना बनाकर कन्नी काटना शुरू किया क्योकि देवीलाल से उनका भी काफी मिलना जुलना होता था । बाद में प्रभाष जी ने एक पत्र देवीलाल को लिखा जिसमे कहा गया था - आदरणीय चौधरी साहब , आप हरियाणा की सरकार चलाए । जनसत्ता को हमें ही चलाने दें । और यह पत्र डाक से देवीलाल को भेज दिया गया ।
इस बीच नेशनल फ्रंट की एक बैठक बंगलूर में हुई तो राकेश कोहरवाल ने देवीलाल के साथ वहा जाने की इजाजत प्रभाष जोशी से मांगी । प्रभाष जोशी ने उन्हें मना कर दिया और कहा दिल्ली से कवर कराया जाएगा। दिल्ली से प्रदीप सिंह भेजे गए । बावजूद इसके राकेश कोहरवाल छुट्टी लेकर देवीलाल के साथ हेलीकाप्टर से रुकते रुकाते बंगलूर गए । प्रदीप सिंह ने लौटकर दफ्तर में बताया कि वहा तो राकेश कोहरवाल भी गए थे । इसके बाद राकेश कोहरवाल का फिर तबादला कर दिया गया । देवीलाल को जब पता चला तो उन्होंने रामनाथ गोयनका से प्रभाष जोशी की शिकायत की । तब प्रभाष जोशी ने रामनाथ गोयनका से कहा था - किसी रिपोर्टर का दौरा संपादक तय करेगा या कोई मुख्यमंत्री । बाद में प्रभाष जोशी ने राकेश कोहरवाल से कहा था - जनसत्ता को पत्रकार की जरुरत है किसी मुख्यमंत्री के पीआरओ की नही । बाद में कोहरवाल ने जनसत्ता छोड़ दिया ।
प्रभाष जी ने उस दिन कई पुरानी घटनाओ का जिक्र किया । करीब दो घंटे से ज्यादा प्रभाष जोशी एक्सप्रेस समूह के तीनो अखबारों इंडियन एक्सप्रेस , जनसत्ता और फाईनेंशियल एक्सप्रेस के पत्रकारों के साथ रहे । चार नवम्बर को जब वे लखनऊ में एक कर्यक्रम में हिस्सा लेने आए थे ,मुझे कार्यक्रम में न देख उन्होंने मेरे सहयोगी तारा पाटकर से कहा -अम्बरीश कुमार कहा है ।यह पता चलने पर की तबियत ठीक नहीं है उन्होंने पाटकर से कहा दफ्तर जाकर मेरी बात कराओ।मेरे दफ्तर पहुचने पर उनका फोन आया .प्रभाष जी ने पूछा -क्या बात है ,मेरा जवाब था -तबियत ठीक नहीं है .एलर्जी की वजह से साँस फूल रही है । प्रभाष जी का जवाब था -पंडित मै खुद वहां आ रहा हूँ और वही से एअरपोर्ट चला जाऊंगा ।कुछ देर में प्रभाष जी दफ्तर आ गये .दफ्तर पहली मंजिल पर है फिर भी वे आए ।करीब दो घंटा वे साथ रहे और रामनाथ गोयनका ,आपातकाल और इंदिरा गाँधी आदि के बारे में बात कर पुरानी याद ताजा कर रहे थे। तभी इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संसकरण के संपादक वीरेंदर कुमार भी आ गए जो उनके करीब ३५ साल पराने सहयोगी रहे है।प्रभाष जी तब चंडीगढ़ में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे .एक्सप्रेस के वीरेंदर नाथ भट्ट ,संजय सिंह ,दीपा आदि भी मौजूद थी ।
तभी प्रभाष जी ने कहा .वाराणसी से यहाँ आ रहा हूँ कल मणिपुर जाना है, पर यार दिल्ली में पहले डाक्टर से पूरा चेकउप कराना है।दरअसल वाराणसी में कार्यक्रम से पहले मुझे चक्कर आ गया था । प्रभाष जोशी की यह बात हम लोगो ने सामान्य ढंग से ली।लखनऊ के इंडियन एक्सप्रेस दफ्तर से चलते समय जब एक्सप्रेस के सहयोगियों से मैंने उनका परिचय कराया तभी मौलश्री की तरफ मुखातिब हो प्रभाष जोशी ने कहा था -मेरा घर तो ऊपर भी इंडियन एक्सप्रेस परिवार में ही है ।शायद उन्हें कुछ आभास हो गया था । छह नवम्बर को तडके ढाई बजे दिल्ली से अरुण त्रिपाठी का फोन आया -प्रभाष जी नहीं रहे । लगा चक्कर आ जाएगा और गिर पडूंगा । प्रभाष जोशी ने हम जैसे दर्जनों पत्रकारों को गढ़ा ।
प्रभाष जोशी जनसत्ता के संपादक ही नहीं बल्कि सेनापति भी थे । ऐसे सेनापति जिसने भारतीय पत्रकारिता में निहंग पत्रकारों की ऐसी सेना बनाई जिसने कभी किसी से हार नहीं मानी । यह सेना बाद में बिखर भी गई पर जो जंहा भी गया पत्रकारिता के मैदान में युद्ध लड़ता ही रहा । जनसत्ता सिर्फ अखबार ही नहीं प्रभाष जोशी का अखाड़ा भी था । जनसत्ता ऐसा प्रयोग था जिसने हिंदी पत्रकारिता को शिखर पर पंहुचा दिया । हाल ही में दिल्ली के पत्रकार देवसागर सिंह का फोन आया ,अमर उजाला के प्रबंधक एपी सिंह का हवाला देकर बताया कि वे जापान की समाचार एजंसी से जुड़े है और लिब्रहान को लेकर कुछ जानकारी चाहिए । साथ ही यह भी बताया की वे पहले इंडियन एक्सप्रेस में रहे है और उनकी देश में खासकर हिंदी पट्टी में पहचान जनसत्ता ने बनाई है । मैंने उन्हें बताया कि उनको हम अच्छी तरह जानते है । वे और खुले और बताने लगे कि इंडियन एक्सप्रेस में रहने के बावजूद बिहार और उत्तर प्रदेश में उन्हें लोग जनसत्ता का पत्रकार मानते थे क्योकि तब जनसत्ता हिंदी पट्टी में अंग्रेजी पत्रकारिता को भी पीछे छोड़ चुका था और प्रभाष जी इंडियन एक्सप्रेस की खबरे जनसत्ता में भी देते थे । यह उदाहरण है पत्रकारिता में जनसत्ता के उदय और उसके असर का । इस पर भी बात होगी पर पहले अस्सी के दशक में हिंदी पत्रकारिता की दशा पर नज़र डाल ली जाए ।
तब हिंदी पत्रकार को समाज में न सिर्फ हेय दृष्टि से देखा जाता बल्कि उसकी छवि सुदामा जैसी दिखाई जाती जो याचक मुद्रा में नज़र आता । अगर कोई अखबार में नौकरी करता तो उसके जानने वाले यह जरुर पूछते कि कुछ पैसा मिलता है या समाज सेवा करते हो। कई बार तो कोई ढंग की नौकरी की सलाह भी देते ।जबकि अंग्रेजी अखबार वालो से ऐसे सवाल नहीं होते ।सरकारी दफ्तर से लेकर प्रेस कांफ्रेंस तक में हिंदी वाला पत्रकार धकियाया जाता था । कुछ भी लिख दे कोई पूछने वाला न था । ऐसे ही दौर में रविवार शुरू हुआ जिसने लोगो का ध्यान खीचा ।राजनैतिक हलकों में रविवार का असर पड़ने लगा था । तभी इंडियन एक्सप्रेस समूह जो रामनाथ गोयनका के चलते अपनी अलग पहचान बनाए हुए था उसने प्रभाष जोशी के नेतृत्व में जनसत्ता शुरू किया ।कैसे शुरू हुआ ,क्या क्या कवायद हुई इसपर लिखा भी गया है पर जनसत्ता जिस तूफानी अंदाज में आया उसने सभी जमे जमाए अखबारों और संपादकों को हिला कर रख दिया । सबकी खबर ले ,सबको खबर दे के नारे ने हिंदी अखबारों की दबी कुचली भाषा बदली ,तेवर बदला और पहली बार हिंदी का पत्रकार तनकर खड़ा हुआ
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